बेगम हज़रत महल- एक निम्नवर्ग में जन्मी लड़की से बेगम हज़रत महल बनने तक की संघर्षमय गाथा

बेगम हज़रत महल- एक निम्नवर्ग में जन्मी लड़की से बेगम हज़रत महल बनने तक की संघर्षमय गाथा

  1857 का संग्राम याद आते ही लखनऊ यानी की अवध की बेगम हज़रत महल के योगदान को कौन भूल सकता है l  खासकर तब जब आजादी के अमृत महोत्सव मना रहा देश अपने देश पर जाँ निसार करने वाले वीरों को इतिहास के पीले पन्नों से निकाल कर फिर से उसे समकाल और आज की पीढ़ी से जोड़ने का प्रयास कर रहा हो l कितनी वीर गाथाएँ ऐसी रहीं, जिन्होने अपना पूरा जीवन अंग्रेजों से संघर्ष करते हुए बिता दिया और हम उन्हें कृतघ्न संतानों की तरह भूल गए l बेगम हज़रत महल उन्हीं में से एक प्रमुख नाम है l   किसी भी ऐतिहासिक व्यक्तित्व पर लिखना आसान नहीं होता l ज्ञात इतिहास ज्यादातर जीतने वाले के हिसाब से लिखा जाता है जो कई बार सत्य से काफी दूर भी हो सकता है l अतः निष्पक्ष लेखन हेतु लेखक को समय के साथ जमींदोज हुए तथ्यों की बहुत खुदाई करनी पड़ती है, तब जा कर वो कहीं कृति के साथ न्याय कर पाता है l ऐसे में वीणा वत्सल सिंह इतिहास में लगभग भुला दी गई  “बेगम हज़रत महल’ को अपनी कलम के माध्यम से उनके हिस्से का गौरव दिलाने का बीड़ा उठाया है l वो बेगम को उनकी आन-बान-शान के साथ ही नहीं उनके बचपन, मुफलिसी के दिन जबरन परी बनाए जाने की करूण  कहानी से नवाब वाजिद अली शाह के दिल में और अवध में एक खास स्थान बनाने को किसी दस्तावेज की तरह ले कर आई हैं l ये किताब मासूम मुहम्मदी से महक परी और बेगम हज़रत महल तक सफर की बानगी है l जिसमें बेगम हज़रत महल के जीवन के हर पहलू को समेटा गया है l ये कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी की प्रगतिशील सोच रखने वाली एक जुझारू संघर्षशील स्त्री के सारे गुण मुहम्मदी में नजर आते हैं l बेगम हज़रत महल- एक निम्नवर्ग में जन्मी लड़की से बेगम हज़रत महल बनने तक की संघर्षमय गाथा   बेगम हज़रत महल की संघर्ष यात्रा शुरू होती है एक निम्नवर्ग के परिवार में जन्मी बच्ची मुहम्मदी से l कहते है कि होनहार बिरवान के होत चीकने पात” l जब पाठक मुहम्मदी के बचपन से रूबरू होता है तो लकड़ी की तलवार लेने की जिद और जंगी हुनर सीखने कि खवाइश से ही उसके भविष्य की दिशा दिखने लगती है l एक कहावत है “होनहार बिरवान के होत चीकने पात”यानि  विशिष्ट व्यक्तित्व के निर्माण के बीज उनके बचपन से ही दिखने लगते हैं l ऐसा ही मुहम्मदी के साथ हुआ l बच्चों के खेल “बोलो रानी कितना पानी” जिसमें रानी को कभी ना कभी डूबना ही होता है का मुहम्मदी द्वारा विरोध “रानी नहीं डूबेगी” दिखा कर खूबसूरती से उपन्यास की शुरुआत की गई है l और पाठक तुरंत मुहम्मदी से जुड़ जाता है l शुरुआत से ही पाठक को मुहम्मदी में कुछ नया सीखने का जज्बा, जंगी हुनर सीखने का जुनून, करुणा, विपरीत परिस्थितियों को जीवन का एक हिस्सा समझ कर स्वीकार तो कर लेना पर उस में हार मान कर सहने की जगह वहीं से नए रास्ते निकाल कर जमीन से उठ खड़े होने की विशेषताएँ दिखाई देती हैं lये उसका अदम्य साहस ही कहा जाएगा कि जीवन उन्हें बार-बार गिराता है पर वो हर बार उठ कर परिस्थितियों की लगाम अपने हाथ में ले लेती हैं l  उपन्यास में इन सभी बिंदुओं को बहुत ही महत्वपूर्ण तरीके से उभारा गया है l   निम्न वर्ग के परिवार में तीन भाइयों के बाद आई सबसे छोटी मुहम्मदी यूँ तो पिता की बहुत लाड़ली थी पर गरीबी-मुफलिसी और सबसे बड़े भाई अनवर के हर समय बीमार रहने के कारण उसका बचपन आसान नहीं था l अनवर के इलाज लायक पैसे भी अक्सर घर में नहीं होते l ऐसे में जब भी अनवर को दिखाने हकीम के पास जाना होता उस दिन घर में चूल्हा भी नहीं जलता l ऐसे में उसके मामा सलीम ने जब अपनी बीमार पत्नी की देखभाल के लिए मुहम्मदी को अपने साथ ले जाने को कहा तो माता- पिता को अनुमति देनी ही पड़ी l इसका एक कारण यह भी था कि मुहम्मदी की बढ़ती उम्र और सुंदरता के कारण वो इस कमजोर दरवाजे वाले घर में सुरक्षा नहीं कर पाएंगे l पर खुश मिजाज मुहम्मदी ने माता-पिता के बिछोह को भी स्वीकार कर लिया l अपनी ममेरी बहन नरगिस के साथ उसने ना केवल घर के काम सीखे बल्कि मामूजान से उनका हुनर टोपी बनाना भी सीखा l ताकि आर्थिक संबल भी दे सके l हिफ़ाजत और जंग के लिए तलवार चलाना सीखने की खवाइश रखने वाली मुहम्मदी का दिल बेजूबानों के लिए भी करुणा से भरा था l  यहाँ तक की उपन्यास में मुर्गे की लड़ाई के एक दृश्य में मुहम्मदी मुर्गे को बचाती है l और कहती है कि   “मुर्गे का सालन ही खाना है तो सीधे हलाल करके खाइए ना ! ऐसे क्यों इस गरीब को सताये जा रहे हैं ? क्या इसए दर्द नहीं होता होगा?”   मुहम्मदी की ममेरी बहन नरगिस और जावेद की प्रेम कथा उपन्यास की कथा में रूमानियत का अर्क डालती है l “नरगिस का चेहरा सुर्ख, नजरें झुकी हुई l जबकि जावेद का मुँह थोड़ा सा खुला हुआ और आँखें नरगिस के चेहरे पर टिकी हुई l दोनों के पैरों के इर्द-गिर्द गुलाब और मोगरे के फूल बिखरे हुए और बेचारा टोकरा लुढ़क कर थोड़ी दूर पर औंधा पड़ा हुआ l”   जब भी हम कोई ऐतिहासिक उपन्यास पढ़ते हैं तो हम उस कथा के साथ -साथ उस काल की अनेकों विशेषताओं से भी रूबरू होते हैं l उपन्यास में नृत्य नाटिका में वाजिद आली शाह का कृष्ण बनना उनके सभी धर्मों के प्रति सम्मान को दर्शाता हैं तो कथारस वहीं प्रेम की मधुर दस्तक का कारण बुनता है l कथा के अनुसार कृष्ण बने नवाब वाजिद अली शाह द्वारा जब मुहम्मदी की बनाई टोपी पहनते हैं तो जैसे कृष्ण उनके वजूद में उतर आते हैं l परंतु उसके बाद हुए सर दर्द में लोग उनके मन में डाल देते हैं कि उन्होंने शायद जूठी टोपी यानि किसी की पहनी हुई टोपी पहनी है, ये दर्द उसकी वजह से है l वाजिद के गुस्सा होते हुए तुरंत सलीम … Read more

तन्हाँ

जिस तरह से सबके अपनि खुशियाँ मनाने के तरीके अलग -अलग हैं उसी तरह सबके अपने दुःख से निकलने के तरीके अलग हो सकते हैं | पर समाज ये मानना नहीं चाहता | समाज चाहता है कि दुखी व्यक्ति २४ x ७ दुखी दिखे | कई बार वो दुःख से लड़कर निकलने की कोशिश करते व्यक्ति को और तन्हाँ कर देता है |  लघु कथा -तन्हाँ  “देखो आस -पड़ोस , छोटे -मोटे अंक्शन- फंक्शन में तो तुम्हे जाना ही होगा, वर्ना गौरव और नन्हे नीरज का ध्यान कैसे रख पाओगी , अपने दुःख से तुम्हें निकलना ही होगा ” सास दमयंती जी ने फोन पर अधिकारपूर्वक मधु से कहा |  इस बार मधु उनके आग्रह से इनकार ना कर सकी |  वि जानती थी की दुःख की कोई एक्सपायरी डेट नहीं होती …फिर  भी जीना तो था ही |  महिलाओं का एक छोटा सा मिलन समारोह था | उसने वहाँ  जाने का मन बनाया | ठीक से तैयार हुई , और पड़पड़ाये होंठों पर गहरी मैरून लिपस्टिक लगा ली |  समारोह में तमाम बातों के बीच लिपस्टिक की चर्चा छिड गयी | ‘वो” बड़े उत्साह से लिपस्टिक के शेड्स के बारे में बताने लगी  | तभी एक महिला ने दूसरी को कोहनी मार कर धीरे से कहा, “ साल भर ही हुआ है इनके बेटे की मृत्यु हुए पर देखो कैसे शौक कर रहीं हैं , भाई, हमें तो इन्हें देखकर ही वो दृश्य याद आ जाता है …पानी हलक में रुक जाता है, पता नहीं लोग कैसे मेनेज कर लेते हैं |” कही तो ये बात कई लोगों ने थी पर इस बार उन्होंने सुन ली | मुस्कुराते होंठ दर्द में कस गए, आँखें गंगा –जमुना हो चली , सिसकते हुए बोलीं , “ जब मैं रात को बेतहाशा चीख-चीख कर रोती हूँ और मुझे लगता है कि ये यादें मेरे प्राण ले जायेंगी, तब आप आती हैं मुझे चुप कराने , जब मैं किसी तरह से वो दर्द भूल कर अपने दूसरे  बेटे के लिए जीना सीख रही हूँ तो आप… थोड़ी देर के लिए शांति छा गयी | फिर सब उनको सहानुभूति देने लगे | वही जो सब देना चाहते थे | उनका काम पूरा हुआ …और वो जो थोड़ी देर को सब भूलने आयीं थीं अपने दर्द के साथ अकेले तन्हाँ रह गयीं | वंदना बाजपेयी  यह भी पढ़ें … सेंध   सुकून   बुढ़ापा मीना पाण्डेय की लघुकथाएं आपको आपको    “तन्हाँ “ कैसी लगी   | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन”की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें  filed under – hindi story, emotional story in hindi, sad woman, lonliness, sadness

आस्थाएं तर्क से तय नहीं होतीं

दुर्गा अष्टमी पर विशेष – आस्थाएं तर्क से तय नहीं होती              आज दुर्गा अष्टमी है | ममतामयी माँ दुर्गा शक्ति स्वरूप हैं | एक तरफ वो भक्तों पर दयालु हैं तो दूसरी तरफ आसुरी प्रवत्तियों का संहार करती हैं | वो जगत माता हैं | माँ ही अपने बच्चों को संस्कार शक्ति और ज्ञान देती है | इसलिए स्त्री हो या पुरुष सब उनके भक्त हैं | वो नारी शक्ति व् स्त्री अस्मिता का प्रतीक हैं | जो अपने ऊपर हुए हमलों का स्वयं मुंह तोड़ जवाब देती है | दुर्गा नाम अपने आप में एक मंत्र है | जो इसका उच्चारण करते हैं, उन्हें पता है की उच्चारण मात्र से ही शक्ति का संचार होता है | नवरात्रि इस शक्ति की उपासना का पर्व है |              अभी पिछले दिनों कुछ पोस्ट ऐसी आयीं, जिनमें माता दुर्गा के बारे में अभद्र शब्दों का इस्तेमाल करा गया | माता दुर्गा के प्रति आस्थावान आहत हुए | इनका व्यापक विरोध हुआ |ये एक चिंतन का विषय है | क्योंकि  *ये आस्था पर प्रहार तो है ही माँ दुर्गा के लिए अभद्र शब्दों का प्रयोग करने वाले स्त्री विरोधी भी हैं |ये एक सामंतवादी सोंच हैं |जिसका विरोध करना ही चाहिए | पढ़ें – धर्म तथा विज्ञानं का समन्वय इस युग की आवश्यकता है * सोंचने वाली बात हैं की वो माँ दुर्गा को मिथकीय करेक्टर  कह रहे हैं | अफ़सोस मिथकीय हो या रीयल, ये जहर उगलने वाली गालियाँ स्त्री के हिस्से में आई हैं| * आस्थाएं तर्क से परे होती हैं | ये सच है की आदिवासियों का एक समुदाय महिषासुर  की पूजा करता है |और इस पर किसी को आपत्ति भी नहीं है | होनी भी नहीं चाहिए |मुझे अपने पिता व् पति की तबादले वाली नौकरी होने के कारण कई आदिवासी जातियों से मिलने बात करने का अवसर मिला | कई घरों में काम करने वाले भी थे | उन सब के अपने अपने इष्ट देवता हैं  | सब महिसासुर की पूजा नहीं करते हैं  | कई दुर्गा माँ की आराधना भी करते हैं | *  परन्तु बड़े खूबसूरत तरीके से अपनी बात को न्याय संगत कहने के लिए तर्क गढ़े जा रहे हैं | इन तर्कों को गढ़ने की शुरुआत  कहाँ से हुई पता नहीं | पर आम जनता के सामने इसका खुलासा जे एन यू-स्मृति इरानी प्रकरण के बाद हुआ | एक जनजातीय समुदाय में पूजे जाने वाले महिसासुर को न सिर्फ समस्त जनजातियों, आदिवासियों और द्रविड़ों के मसीहा के रूप में स्थापित किया जा रहा है | क्या इसे “मेकिंग ऑफ़ न्यू गॉड” की संज्ञा में रखा जाए ? पर क्यों ? कहीं ये अंग्रेजों की कुटिल “डिवाइड एंड रूल” की तरह किसी राजनैतिक पॉलिसी का हिस्सा तो नहीं | इसके लिए दुर्गा का चयन किया गया | जिन्हें पूरब, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण में व्यापक मान्यता मिली है | समझना होगा की क्या इसके पीछे हमें वोट बैंक के रूप में इस्तेमाल करने की साजिश है|पूजा से किसी को आपत्ति नहीं है,सत्ता के खेल से आपत्ति है | मृत्यु संसार से अपने असली वतन जाने की वापसी यात्रा है *पुराणों को मिथकीय बता कर कुछ अन्य ग्रंथों का नाम दिया लिया जा रहा है | या यूँ कहें सबूत के रूपमें पेश किया जा रहा है | सबूत कैसा ? अगर एक मिथकीय है तो क्या दूसरा मिथकीय नहीं हो सकता |वही लोग जो  आज की खबर पर भरोसा नहीं करते | हर खबर को  वामपंथी और दक्षिण पंथी चश्मे से देखते हैं  |वही आज पुराने सबूत ले कर लड़ रहे हैं या लडवा रहे हैं |उन्हें आस्था से मतलब नहीं उन्हें जीतना हैं | और जीतने के लिए हद दर्जे की गन्दी भाषा तक जाना है |किसलिए ?  क्या पता आज कोई एक पुस्तक छपे की हिटलर , मुसोलिनी महान  संत विचारक थे | जिसे आज खारिज कर दिया जाए | क्योंकि हम आज का सच जानते हैं | पर आज से हज़ार साल बाद तर्क के रूप में पेश हो | कुछ को जोश आये , कुछ होश खो दें | पर क्या आस्थाएं कभी तर्क से सिद्ध हो सकती हैं ? * मिथक ही सही शाक्य  समुदाय की अधिष्ठात्री देवी दुर्गा आज हर समुदाय में पूजनीय क्यों हैं ? क्या है देवी दुर्गा में की शाक्य समुदाय की होते हुए भी हर हिन्दू उनका पूजन करता है | ये एक स्त्री की शक्ति है |जो डरती नहीं है  अपने ऊपर हुए आक्रमण का स्वयं उत्तर देती है | इसका देवासुर  संग्राम से कुछ लेना देना न भी हो  तो भी दुर्गा हर स्त्री और हर कमजोर में ये शक्ति जगाती हैं की अन्याय के विरुद्द हम अकेले ही काफी हैं |        अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता में हर कोई कुछ भी लिख सकता है | उसका विरोध भी हो सकता है | “मेकिंग ऑफ़ गॉड” भी जारी है,तर्कों का खेल भी जारी है | इन सब के बीच मुझे ओशो की पंक्तियाँ याद आ गयीं |                 ओशो इस पर बहुत ख़ूबसूरती से लिखते हैं की | जो धर्म  ग्रंथों को आधार बना कर लड़ते हैं | उनमें से कोई धार्मिक नहीं है | क्योंकि धर्म ग्रंथों की भाषा काव्य की भाषा हैं | काव्य की भाषा और तर्क की भाषा  में फर्क है | एक बहुत खूबसूरत उदहारण है | एक पति कवि था और पत्नी वैज्ञानिक | शादी के बाद एक दिन पति ने बड़े ही प्रेम से पत्नी से कह दिया, “तुम तो बिलकुल चंद्रमा की तरह हो” | बात पत्नी को चुभ गयी | उसने झगड़ना शुरू कर दिया,“ तुम मुझे चंद्रमा कैसे कह सकते हो , वहां तो आदमी न सांस ले सकता है व् प्यास बुझा सकता है अरे वो तो सीधा चल भी नहीं सकता | कवि  पति सकते में आ गए |ऐसा मैंने क्या कह दिया जो इसे बुरा लग गया | और शादी टूट गयी | दोनों ही अपनी जगह सही थे और दोनों  गलत थे |           चंद्रमा से तुलना काव्य की भाषा है | इसका अर्थ है पत्नी को देख कर वही आनंद व् शांति प्राप्त होती है जो चंद्रमा को देख कर होती … Read more

जरूरी है की बचपन जीवित रहे न की बचपना

वंदना बाजपेयी हमारे जीवन का सबसे खूबसूरत हिस्सा  बचपन होता है | पर बचपन की खासियत जब तक समझ में आती है तब तक वो हथेली पर ओस की बूँद की तरह उड़ जाता है | जीवन की आपा धापी  मासूमियत को निगल लेती है | किशोरावस्था और नवयुवावस्था  में हमारा इस ओर ध्यान ही नहीं जाता |उम्र थोड़ी बढ़ने पर फिर से बचपन को सहेजने की इच्छा होती है | आजकल ऐसी कई किताबें भी आ रही हैं जो कहती हैं सारी  ख़ुशी बचपन में है अगर हमारे अन्दर का बच्चा  जिन्दा रहे तो एज केवल एक नंबर है | इन किताबों को आधा – अधूरा समझ कर जारी हो जाती है बचपन को पकड़ने  की दौड़ | ” दिल तो बच्चा है जी ” की तर्ज पर लोग बचपन नहीं बचपने को जीवित कर लेते हैं | व्यस्क देह में बच्चों जैसी ऊल जलूल हरकतें कर के अपनी  उम्र को भूलने का प्रयास करते हैं | थोड़ी ख़ुशी मिलती भी है पर वो स्थिर नहीं रहती | क्या आपने सोंचा है की इसका क्या कारण है ? दरसल हम बचपन को नहीं बचपने को जीवित कर लेते हैं | कई बार ऐसी हास्यास्पद स्तिथि भी होती है | जब बच्चे तो शांत बैठे होते हैं | वहीँ माँ – पिता बच्चों की तरह उचल -कूद  कर रहे होते हैं | यहाँ ये अंदाज लगाना मुश्किल हो जाता है की इनमें से छोटा कौन है | दरसल बचपन और  बचपने में अंतर है |  अगर इस बचपने का उद्देश्य लोगों का ध्यान खींचना या थोड़ी देर की मस्ती है तब तो ठीक है | परन्तु ये अपने अन्दर का बच्चा जीवित रखना नहीं है | क्योंकि इस उछल कूद के बाद भी हम वही रहते हैं जो अन्दर से हैं |  अपने अन्दर का बच्चा जीवित रखने का अभिप्राय यह है की जिज्ञासा जीवित रहे , कौतुहल जीवित रहे , किसी की गलती को भूलने की क्षमता जीवित रहे , अपने प्रतिद्वंदी के काम की दिल खोलकर प्रशंसा करने की भावना जीवित रहे |पर क्या बच्चों की तरह हरकतें करने से  ये जीवित रहता है | बच्चा होना यानी सहज होना |पर हम अर्थ पर नहीं शब्द पर ध्यान देते हैं | जरूरी है की बचपन जीवित रहे न की बचपना  यह भी पढ़ें ………. यात्रा दर्द से कहीं ज्यादा दर्द की सोंच दर्दनाक होती है सुने अपनी अंत : प्रेरणा की आवाज़  कोई तो हो जो सुन ले

श्राद्ध पक्ष : उस पार जाने वालों के लिए श्रद्धा व्यक्त करने का समय

वंदना बाजपेयी   हिन्दुओं में पितृ पक्ष का बहुत महत्व है | हर साल भद्रपद शुक्लपक्ष पूर्णिमा से लेकर आश्विन कृष्णपक्ष अमावस्या तक के काल को श्राद्ध पक्ष कहा जाता है |  पितृ पक्ष के अंतिम दिन या श्राद्ध पक्ष की अमावस्या को  महालया  भी कहा जाता है | इसका बहुत महत्व है| ये दिन इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि जिन्हें अपने पितरों की पुन्य तिथि का ज्ञान नहीं होता वो भी इस दिन श्रद्धांजलि या पिंडदान करते हैं |अर्थात पिंड व् जल के रूप में अपने पितरों के प्रति श्रद्धा व्यक्त करते हैं | हिन्दू शस्त्रों के अनुसार पितृ पक्ष में यमराज सभी सूक्ष्म शरीरों को मुक्त कर देते हैं | जिससे वे अपने परिवार से मिल आये व् उनके द्वरा श्रद्धा से अर्पित जल और पिंड ग्रहण कर सके |श्राद्ध तीन पीढ़ियों तक का किया जाता है |   क्या बदल रही है श्राद्ध पक्ष के प्रति धारणा                                           मान्यता ये भी है की पितर जब संतुष्ट होते हैं तो वो आशीर्वाद देते हैं व् रुष्ट होने पर श्राप देते हैं | कहते हैं श्राद्ध में सबसे अधिक महत्व श्रद्धा का होता है | परन्तु क्या आज हम उसे उसी भाव से देखते हैं | शायद नहीं |कल यूँहीं कुछ परिचितों  से मिलना हुआ | उनमें से एक  ने श्राद्ध पक्ष की अमावस्या के लिए अपने पति के साथ सभी पितरों का आह्वान करके श्राद्ध करने की बात शुरू कर दी | बातों ही बातों में खर्चे की बात करने लगी | फिर बोली की क्या किया जाये महंगाई चाहे जितनी हो खर्च तो करना ही पड़ेगा , पता नहीं कौन सा पितर नाराज़ बैठा हो और ,और भी रुष्ट हो जाए | उनको भय था की पितरों के रुष्ट हो जाने से उनके इहलोक के सारे काम बिगड़ने लगेंगे | उनके द्वारा सम्पादित श्राद्ध कर्म में श्रद्धा से ज्यादा भय था | किसी अनजाने अहित का भय | पढ़िए – सावधान आप कैमरे की जद में हैं वहीँ  दूसरी  , श्राद्ध पक्ष में अपनी सासू माँ की श्राद्ध पर किसी अनाथ आश्रम में जा कर खाना व् कपडे बाँट देती हैं | व् पितरों का आह्वान कर जल अर्पित कर देती है | ऐसा करने से उसको संतोष मिलता है | उसका कहना है की जो चले गए वो तो अब वापस नहीं आ सकते पर उनके नाम का स्मरण कर चाहे ब्राह्मणों को खिलाओ या अनाथ बच्चों को , या कौओ को …. क्या फर्क पड़ता है |  तीसरी सहेली बात काटते हुए कहती हैं , ” ये सब पुराने ज़माने की बातें है | आज की भाग दौड़ भरी जिन्दगी में न किसी के पास इतना समय है न पैसा की श्राद्ध के नाम पर बर्बाद करे | और कौन सा वो देखने आ रहे हैं ?आज के वैज्ञानिक युग में ये बातें पुरानी हो गयी हैं हम तो कुछ नहीं करते | ये दिन भी आम दिनों की तरह हैं | वैसे भी छोटी सी जिंदगी है खाओ , पियो ऐश करो | क्या रखा है श्राद्ध व्राद्ध करने में | श्राद्ध के बारे में भिन्न भिन्न हैं पंडितों के मत  तीनों सहेलियों की सोंच , श्राद्ध करने का कारण व् श्रद्धा अलग – अलग है |प्रश्न ये है की जहाँ श्रद्धा नहीं है केवल भय का भाव है क्या वो असली श्राद्ध हो सकता है |प्रश्न ये भी है कि जीते जी हम सौ दुःख सह कर भी अपने बच्चों की आँखों में आंसूं नहीं देखना कहते हैं तो मरने के बाद हमारे माता – पिता या पूर्वज बेगानों की तरह हमें श्राप क्यों देने लगेंगें | शास्त्रों के ज्ञाता पंडितों की भी इस बारे में अलग – अलग राय है ……….. उज्जैन में संस्कृत विश्वविद्यालय के प्रमुख संतोष पंड्या के अनुसार, श्राद्ध में भय का कोई स्थान नहीं है। वो लोग जरूर भय रखते होंगे जो सोचते हैं कि हमारे पितृ नाराज न हो जाएं, लेकिन ऐसा नहीं होता। जिन लोगों के साथ हमने 40-50 साल बिताएं हैं, वे हमसे नाखुश कैसे हो सकते हैं। उन आत्माओं से भय कैसा? वहीं इलाहाबाद से पं. रामनरेश त्रिपाठी भी मानते हैं कि श्राद्ध भय की उपज नहीं है। इसके पीछे एक मात्र उद्देश्य शांति है। श्राद्ध में हम प्याज-लहसून का त्याग करते हैं, खान-पान, रहन-सहन, सबकुछ संयमित होता है। इस तरह श्राद्ध जीवन को संयमित करता है। भयभीत नहीं करता। जो कुछ भी हम अपने पितरों के लिए करते हैं, वो शांति देता है। शास्त्र में एक स्थान पर कहा गया है, जो लोग श्रद्धापूर्वक श्राद्ध नहीं करते, पितृ उनका रक्तपान करते हैं। इसलिए श्रद्धा बहुत आवश्यक है और श्रद्धा तभी आती है जब मन में शांति होती है। क्यों जरूरी है श्राद्ध  अभी ये निशिचित तौर पर नहीं कहा जा सकता की जीव मृत्यु के बाद कहाँ जाता है | नश्वर शरीर खत्म हो जाता है | फिर वो श्राद्ध पक्ष में हमसे मिलने आते भी हैं या नहीं | इस पर एक प्रश्न चिन्ह् है |  पर इतना तो सच है की उनकी यादें स्मृतियाँ हमारे साथ धरोहर के रूपमें हमारे साथ रहती हैं |स्नेह और प्रेम की भावनाएं भी रहती हैं |  श्राद्ध पक्ष के बारे में पंडितों  की राय में मतभेद हो सकता है | शास्त्रों में कहीं न कहीं भय उत्पन्न करके इसे परंपरा बनाने की चेष्टा की गयी है | लेकिन बात  सिर्फ इतनी नहीं है शायद उस समय की अशिक्षित जनता को यह बात समझाना आसांन नहीं रहा होगा की हम जिस जड़ से उत्पन्न हुए हैं हमारे जिन पूर्वजों ने न केवल धन सम्पत्ति व् संस्कार अपितु धरती , आकाश , जल , वायु का उचित उपयोग करके हमारे लिए छोड़ा है | जिन्होंने हमारे जीवन को आसान बनाया है | उनके प्रति हमें वर्ष में कम से कम एक बार तो सम्मान व्यक्त करना चाहिए | उस समय के न के आधार पर सोंचा गया होगा की पूर्वज न जाने किस योनि में गया होगा … उसी आधार पर अपनी समझ के अनुसार ब्राह्मण , गाय , कौवा व् कुत्ता सम्बंधित योनि  के प्रतीक के रूप में चयनित … Read more

क्या सभी टीचर्स को चाइल्ड साइकॉलजी की समझ है ?

Teachers should have basic understanding of child psychology  वंदना बाजपेयी   शिक्षक दिवस -यानी  अपने टीचर के आभार व्यक्त करने का , उनके प्रति सम्मान व्यक्त करने का | छोटे बड़े हर स्कूल कॉलेज में “टीचर्स डे “ पर कार्यक्रम का आयोजन होता है  | जिसमें बच्चे  कविता ,कहानी  नृत्य के माध्यम से टीचर्स के प्रति अपनी श्रद्धा व्यक्त करते हैं  | लम्बी – लम्बी स्पीच चलती है  | टीचर्स को फूल कार्ड्स , गिफ्ट्स मिलते हैं  | आभासी  जगत यानी इन्टरनेट की दुनिया में भी हर वेबसाइट पर , फेसबुक की हर वाल पर  टीचर्स की शान में भाषण , सुविचार व् टू  लाइनर्स पढने को मिलते हैं | यह जरूरी भी है | क्योंकि टीचर्स हमें गढ़ते हैं | उन्होंने हमें ज्ञान का मार्ग दिखाया होता है | इसलिए हमारा कर्तव्य है की हम उनके प्रति आदर व् सम्मान का भाव रखे | क्या सभी टीचर्स को चाइल्ड साइकॉलजी  की समझ है ?  सामूहिक सम्मान तो ठीक है | पर जैसे  की बच्चों का अलग – अलग मूल्याङ्कन होता है | उसी तरह हर टीचर का मूल्यांकन करें तो क्या हर  टीचर इस सम्मान का अधिकारी है ? क्या टीचर हो जाना ही पर्याप्त है ?क्या सभी टीचर्स बाल मनोविज्ञान की समझ रखते हैं | आइये इस की गहन विवेचना करें |   क्यों हो मासूम बच्चों पर इतना प्रेशर                             शिक्षक दिवस पर  मुझे उस बच्चे की याद आ गयी | जिसका वीडियो  वायरल हुआ था | जिसमें बच्चे की माँ बच्चे को बहुत गुस्सा करते हुए पढ़ा रही थी | सभी  ने एक स्वर में माँ की निंदा की | पर माँ के इस व्यवहार के पीछे क्या कारण हो सकता है | ये जानने के लिए किसी भी स्कूल के “ पेरेंट्स टीचर मीटिंग “ में जा कर देख लीजिये | टीचर किस बुरी तरीके से बच्चों के चार – पांच नंबर कम आने पर बच्चे के बारे में नकारात्मक  बोलना शुरू कर देते हैं | जिससे माँ – बाप के मन में एक भय पैदा होता है |शायद  मेरा बच्चा कभी कुछ कर ही न पाए या कम से कम इतना तो लगता ही है की सबके बीच में अगली बार उनके बच्चे को ऐसे न बोला जाए |हमें खोजना होगा की एक मासूम बच्चे पर इतना प्रेशर पड़ने की जडें कहाँ पर हैं | क्या जरूरी नहीं की पेरेंट्स टीचर मीटिंग में बच्चे के माता – पिता व् टीचर अकेले में बात करें | जिससे माता – पिता या बच्चे में सबके सामने अपमान की भावना न आये | होता है मासूम बच्चो का शारीरिक शोषण  एक उदहारण  मेरे जेहन में आ रहा है | एक प्ले स्कूल का | प्ले स्कूल में अमूमन ढाई से चार साल के बच्चे पढ़ते हैं | उस प्ले स्कूल की  टीचर बच्चों के शरारत करने पर , काम न करने पर , दूसरे बच्चे का काम बिगाड़ देने पर उस बच्चे के सारे कपडे उतार कर बेंच पर खड़ा होने का पनिशमेंट देती थी | इस उम्र के बच्चों को शर्म  का अर्थ नहीं पता होता  है | परन्तु जिस तरह से सार्वजानिक रूप से ये काम करा जाता उससे बच्चे बहुत अपमानित महसूस करते | कुछ बच्चों को सजा हुई | बाकी बच्चे भयभीत रहने लगे  | कुछ बच्चे स्कूल जाने  से मना करने लगे | बात का पता तब चला जब एक बच्चा १० दिन तक स्कूल नहीं गया | वो तरह – तरह के बहाने बनता रहा | जबरदस्ती स्कूल भेजने पर वह चलते ऑटो से कूद पड़ा | फिर माता – पिता को शक हुआ | बच्चे से गहन पूँछतांच में बच्चे ने सच बताया | पेरेंट्स के हस्तक्षेप से टीचर को स्कूल छोड़ना पड़ा | परन्तु बच्चों के मन में जो ग्रंथि जीवन भर के लिए बन गयी उसका खामियाजा कौन भुगतेगा | वर्बल अब्यूज भी है खतरनाक  मेरी एक परिचित के तीन साल के बच्चे ने एक दिन घर आ कर बताया की ड्राइंग फ़ाइल न ले जाने पर टीचर ने मारा | हालांकि वो डायरी में नोट भी लिख सकती थीं | दूसरे ही दिन वे दोनों स्कूल गए व् प्रिंसिपल से बात की ,की मासूम बच्चों को न मारा जाए | उसके बाद बच्चे ने स्कूल की बातें घर में बताना बंद कर दिया | वह अक्सर स्कूल जाने से मना  करने लगा | जब पेरेंट्स ने बहुत जोर दे कर पूंछा की क्या टीचर अब भी मारती हैं तो बच्चा बोला नहीं मारती नहीं हैं , पर रोज कहतीं हैं की इन्हें तो कुछ कह ही नहीं सकते अगले दिन इनके माता – पिता आ कर खड़े हो जाते हैं | इसके बाद बच्चे ताली बजा कर हँसते हैं | आप लोग मेरा स्कूल चेंज करवा दो | मनोविज्ञान के अनुसार वर्बल अब्यूज , फिजिकल अब्यूज से कम घातक  नहीं होता | लगातार ऐसी बातें सुनने से बच्चे के कोमल मन पर क्या असर होता है ये सहज ही समझा जा सकता है | मारपीट किसी समस्या का हल नहीं   एक और वीडियों जो अभी वायरल हुआ उसमें टीचर बच्चे को बेरहमी से पीट रही थी | वीडियो देखने से ही दर्द महसूस होता है | मासूम बच्चों को मुजरिम की तरह ऐसे कैसे पीटा  जा सकता है ? हालांकि यहाँ मैं सपष्ट करना चाहूंगी की कई पेरेंट्स भी बच्चे को रोबोट बनाने की इच्छा रखते हैं वह आकर स्वयं कहते हैं की ,” आप इसकी तुड़ाई करिए | टीचर भी सहज स्वीकार करती हैं कि  मार पीट से ही बिगड़े बच्चे सुधरते हैं | जबकि उसे बताना चाहिए की तुड़ाई करने से कमियाँ नहीं टूटती बच्चे का आत्मविश्वास टूटता है | इसके अतिरिक्त भी  टीचर्स अक्सर बच्चों पर  नकारात्मक फब्तियां कसते रहते हैं | एक कोचिंग सेंटर में जहाँ इंजीनयरिंग इंट्रेंस एग्जाम की तयारी करवाते हैं | वहां के गणित के टीचर कोई भी सवाल बच्चों को हल करने के लिए देते | फिर यह जुमला कसना नहीं भूलते की देखना कोई लड़का ही करेगा | लड़कियों से तो मैथ्स होती ही नहीं | वैसे तो जेंडर बायस कमेंट बोलने का अधिकार किसी को नहीं है | फिर भी यह जानते हुए की समान अवसर व् सुविधायें मिलने के बाद लडकियां लड़कों से कहीं कम सिद्ध नहीं होती | उस क्लास में पढने वाली लड़कियों का आत्मविश्वास डगमगाने लगा | जाहिर है … Read more

घर में बड़ों का रोल निभाते बच्चे

   चिंतन मंथन – घर में बड़ों को हर बात में अपनी बेबाक राय देते बच्चों की भूमिका कितनी सही कितनी गलत  घरों में बड़ों का रोल निभाते बच्चे   विकास की दौड़ती गाड़ी  के साथ हमारे रिश्तों के विकास में बड़ी उथल पुथल हुई है | एक तरफ बड़े ” दिल तो बच्चा है जी’ का नारा लगते हुए अपने अंदर बच्चा ढूंढ रहे हैं या कुछ हद तक बचकाना व्यवहार कर रहे हैं वहीं बच्चे तेजी से बड़े होते जा रहे हैं | इन्टरनेट ने उन्हें समय से पहले ही बहुत समझदार बना दिया | माता – पिता भी नए ज़माने के विचारों से आत्मसात करने के लिए हर बात में बच्चों की राय लेते हैं | हर बात में अपनी राय देने के कारण जहाँ बच्चों का आत्मविश्वास बढ़ा है | पारिवारिक रिश्तों में अपनी बात रखने का भय कम हुआ है वहीं कुछ नकारात्मक परिणाम भी सामने आये हैं | अत : जरूरी ही गया है की इस बात पर विमर्श किया जाए की बच्चों की ये नयी भूमिका कितनी सही है कितनी गलत |                             निकिता किटी  पार्टी में जाने के लिए तैयार हो रही थी | जैसे ही उन्होंने लिपस्टिक लगाने के लिए हाथ बढाया १५   वर्षीय बेटी पारुल नें तुरंत टोंका “ न न मम्मी डार्क रेड नहीं , ब्राउन कलर की लगाओ वो भी मैट  फिनिश की ,इसी का फैशन हैं | निकिता जी नें तुरंत हामी भरी “ ओके ,ओके | निकिता जी अक्सर  कहा करती हैं कि उन्हें कहीं भी जाना होता है तो बेटी से ही पूँछ कर साड़ी  चुनती हैं , उसका ड्रेसिंग सेंस  गज़ब का है | बच्चे आजकल फैशन के बारे में ज्यादा जानते हैं |                                 धर्मेश जी और उनकी पत्नी राधा के बीच में कई दिन से झगडा चल रहा था | कारण था राधा जी की किसी स्कूल में टीचर के रूप में पढ़ाने की इक्षा | धर्मेश जी हमेशा तर्क देते “ तुम्हे पैसों की क्या कमी है , मैं तो कमाता ही हूँ | चार रुपयों के लिए क्यों घर की शांति भंग करना चाहती हो | राधा जी अपना तर्क  देती कि वो सिर्फ पैसे के लिए नहीं पढाना  चाहती हैं उनकी इक्षा है की अपने दम पर कुछ करे , अपनी नज़र में ऊँचा उठे | पर धर्मेश जी मानने को तैयार नहीं होते | आपसी झगडे में इतिहास और भूगोल घसीटे जाते पर परिणाम कुछ न निकलता | एक दिन रात के २ बजे दोनों झगड़ रहे थे | तभी उनकी ११ साल की बेटी उठ गयी | कुछ देर के लिए पसरी खामोशी को तोड़ते हुए बोली “ पापा ,आप थोड़ी देर के लिए मम्मी की जगह खुद को रख कर देखिये, हम सब स्कूल ,ऑफिस वैगरह चले जाते हैं | मम्मी अकेली रह जाती हैं | ऐसे में अगर वो अपनी शिक्षा का इस्तेमाल करना चाहती हैं ,तो गलत क्या है | इसमें उनको ख़ुशी मिलेगी | हम लोगों को ऐतराज़ नहीं है ,फिर आप को क्यों ? दिन रात इसी बात पर पत्नी से उलझने वाले धर्मेश जी बेटी की बात नहीं काट सके | कुछ दिन बाद राधा जी पास के एक स्कूल में अध्यापन कार्य करने लगी |               ममता का अंग्रेजी का उच्चारण बहुत दोष पूर्ण था पति रोहित उसकी यदा –कदा  हँसी उडा  देता जिससे उनकी हिम्मत और टूट गयी | बेटा सूरज जब बड़ा हुआ तो उसने अपनी मम्मी का उच्चारण दोष दूर करने की ठान ली | उसने ममता के साथ अंग्रेजी में बात करना  शुरू किया | उसको शीशे के सामने बोलने के लिए प्रेरित किया | उसके गलत उच्चारण को विनम्रता पूर्वक सही किया | आज ममता जी फर्राटे  से अंग्रेजी बोलती हैं | उनके मन में अपने बेटे के लिए प्रेम के साथ –साथ सम्मान का भाव भी  है |                                       चंद्रकांत जी पिछले कई सालों से चेन स्मोकर हैं | माँ ,पत्नी ,रिश्तेदार समझाते –समझाते हार गए पर आदत छूटने का नाम ही नहीं ले रही थी | एक दिन ७ वर्षीय बेटा अपना मोबाइल ले कर चंद्रकांत जी  के पास बैठ गया | गूगल पर एक –एक फोटो क्लिक करते हुए वह उन्हें सिगरेट के नुक्सान के बारे में बताने लगा | चंद्रकांत जी सर झुका कर सुनते रहे | वह खुद लज्जित थे | अंत में बेटे नें आंकड़े दिखाए कि सिगरेट पीने वालों के बच्चे भी पैसिव स्मोकर बन जाते हैं | इससे उनके स्वास्थ्य को भी खतरा है | फिर मोबाइल रख कर बेटे ने उनके गालों पर हाथ रखते हुए कहा “ पापा क्या आप हम लोगों को प्यार नहीं करते हैं  “| चंद्रकांत जी की आँखे डबडबा गयी , वे बेटे से नज़रे नहीं मिला सके | उन्होंने सिगरेट फेंक  कर बेटे को गोद ले कर कहा  “ आइ लव यू बेटा , अब कभी सिगरेट नहीं पियूँगा | “ दरसल वो बेटे की नज़रों में गिरना नहीं चाहते थे | रिश्तों में आया है खुलापन              अगर हम एक दो पीढ़ी पीछे जाए तो यह सब एक सपना सा लगेगा | बूढ़े हो जाए पर बच्चे सदा बच्चे ही बने रहते हैं | उन्होंने  जरा कुछ बोलने की कोशिश की …. तुरंत सुनने को मिल जाता “ चार किताबें क्या पढ़ ली ,हमसे जुबान लड़ाओगे | “ खासकर माता –पिता के झगड़ों में तो उन्हें बोलने की सख्त मनाही होती थी | बड़ो के बीच में बोलना अशिष्ट समझा जाता था | उस ज़माने में कहा जाता था ‘ अगर आप को अपनी गलतियाँ देखनी हैं तो अपने बच्चों को गुड़ियाँ खेलते हुए देख लीजिये | अपनी हर गलती समझ आ जायेगी |    मनोवैज्ञानिक सुष्मिता मित्तल कहती हैं “तब बच्चे नकल करते थे अब अक्ल लगाते  हैं | वह माता पिता से अपने मन की बात कहने में ,राय देने में हिचकते नहीं हैं |”  मनोवैज्ञानिक अतुल नागर कहते हैं कि … Read more

टफ टाइम : एम्पैथी रखना सबसे बेहतर सलाह है

किसी का दुःख समझने के लिए उस दुःख से होकर गुज़ारना पड़ता है – अज्ञात रामरती देवी कई दिन से बीमार थी | एक तो बुढापे की सौ तकलीफे ऊपर से अकेलापन | दर्द – तकलीफ बांटे तो किससे | डॉक्टर के यहाँ जाने से डर लगता , पता नहीं क्या बिमारी निकाल कर रख दे | पर जब तकलीफ बढ़ने लगी तो हिम्मत कर के  डॉक्टर  के यहाँ  अपना इलाज़ कराने गयी | डॉक्टर को देख कर रामरती देवी आश्वस्त हो गयीं | जिस बेटे को याद कर – कर के उनके जी को तमाम रोग लगे थे | डॉक्टर बिलकुल उसी के जैसा लगा | रामरती देवी अपना हाल बयान करने लगीं | अनुभवी डॉक्टर को समझते देर नहीं लगी की उनकी बीमारी मात्र १० % है और ९० % बुढापे से उपजा अकेलापन है | उनके पास बोलने वाला कोई नहीं है | इसलिए वो बिमारी को बढ़ा  चढ़ा कर बोले चली जा रहीं हैं | कोई तो सुन ले उनकी पीड़ा | अम्मा, “ सब बुढापे का असर है कह  सर झुका कर दवाई लिखने में व्यस्त हो गया | रामरती देवी एक – एक कर के अपनी बीमारी के सारे लक्षण गिनाती जा रही थी | आदत के अनुसार वो डॉक्टर को बबुआ भी कहती जा रही थी | रामरती देवी : बबुआ ई पायन में बड़ी तेजी से  पिरात  है | डॉक्टर – वो कुछ  नहीं रामरती – कुछ झुनझुनाहट होती है डॉक्टर : वो कुछ नहीं रामरती – तनिक अकड  भी जात है | डॉक्टर – वो कुछ नहीं रामरती – जब पीर उठत है तो डॉक्टर : कहा न अम्मा ,” कुछ नहीं रामरती (गुस्से में ), जब तुम्हारे पिरायेगा , तब कहना कुछ नहीं (आपको क्या लगता है , डॉक्टर को सिर्फ दवा लिखनी चाहिए थी  | या ये जानते हुए की रामरती जी अकेलेपन की शिकार हैं उसे दो मिनट उसकी तकलीफ सुन लेनी चाहिए थी | साइकोसोमैटिक डिसीजिज , जहाँ तन का  इलाज़ मन के माध्यम से ही होता है | डॉक्टर भी उसे ठीक करना चाहता था | शायद उसकी रामरती जी की तकलीफ को नज़रंदाज़ करने की या उपहास उड़ाने की  मंशा नहीं थी , जैसा रामरती जी को लगा | —————————————————————————————————————–                 सुराज की नौकरी चली गयी | वो मुँह लटकाए घर आया | कई दिनों तक घर से बाहर नहीं निकला | रिश्तेदारों में खलबली मची | सब उसे समझाने आने लगे | तभी उसका एक रिश्तेदार दीपक आया | वो उसे लगा समझाने ,” अरे एक गयी है हज़ार नौकरियाँ तुम्हारा इंतज़ार कर रही है | “ थिंक पॉजिटिव “ , ब्ला ब्ला ब्ला | थोड़ी देर सुनने के बाद सुराज कटाक्ष करने वाले लहजे में  बोला ,” मुझे पता है की हज़ारो , अरे नहीं लाखों नौकरियां मुझे मिल सकती हैं | मिल क्या सकती हैं , बाहर लोग मुझे नौकरी देने के लिए लाइन लगा कर खड़े हैं | पर अभी मैं अपनी नौकरी छूटने का दुःख मानना चाहता हूँ | क्या आप मुझे इसकी इजाज़त देंगे | | दीपक , ओके , ओके कहता हुआ चला गया | वह सुराज को इस परिस्तिथि से बाहर निकालना चाहता था | पर शायद उसका तरीका गलत था | ——————————————————————————               स्वेता जी के पति का एक महीना पहले स्वर्गवास हो गया था | सहानुभूति देने वालों का तांता लगा रहता | उनमें से एक उनके पड़ोसी नेमचंद जी भी थे | जो उनके प्रति बहुत सहानुभूति रखते थे | रोज़ उनका हाल पूंछने चले आते | स्वेता जी का का संक्षिप्त सा उत्तर होता ,” ठीक हूँ | “ पर उस दिन स्वेता जी का मन बहुत उदास था | उसी समय नेमचंद जी आ गए , और लगे हाल पूंछने | स्वेता जी गुस्से से आग बबूला हो कर बोली ,” एक महीना पहले मेरे पति का स्वर्गवास हुआ है | आप को क्या लगता है मुझे कैसा होना चाहिए | चले आते हैं रोज़ , रोज़ पत्रकार बन के | नेमचंद जी मुँह लटका कर चले गए | वो सहानुभूति दिखाना चाहते थे पर तरीका गलत था | ………………………………………………..                कई बार हमें समस्याओं से जूझते वक्त एक बुद्धिमान दिमाग के तर्कों के स्थान पर एक खूबसूरत दिल की आवश्यकता होती है , जो बस हमें सुन सकें                                बात तब की है जब मैं अपनी सासू माँ के साथ रिश्तों की कुछ समस्याओं से जूझ रही थी | मैं चाहती थी की घर का वातावरण सुदर व् प्रेम पूर्ण हो | पर कुछ समस्याएं ऐसी आ रही थी | जिनको डील करना मेरे लिए असंभव था | हर वो स्त्री जो अपने परिवार को जोड़े रखने में विश्वास करती है , कभी न कभी इस फेज से गुजरती है | व् इसकी पीड़ा समझ सकती है | मैं  समस्याओं को सुलझाना चाहती थी पर असमर्थ थी | लिहाजा मैंने  सलाह लेने की सोंची | मैंने इसके लिए अपनी माँ को चुना | मुझे लगता था , माँ मेरे समस्या अच्छे से सुनेगी व् समाधान भी देंगी | क्योंकि बचपन से अभी तक मैंने माँ को सदा एक सुलझी हुई महिला के रूप में देखा है | समस्याओं को सुलझाना , रिश्तों को निभाना , व् सब को सहेज कर रखना ये उनके बायें हाथ का खेल रहा है | मैंने माँ को फोन लगाया | हेलो , की आवाज़ के साथ ही मैंने रोना शुरू कर दिया | एक – एक करके अपनी सारी  समस्याएं बता दी | माँ , बीच – बीच में ओह ! , अच्छा , अरे कह कर सुनती जा रही थी | मैंने बात खत्म करके माँ से पूंछा माँ , आपको क्या लगता है | इस परिस्तिथि में मुझे क्या करना चाहिए | माँ धीरे से अपने शब्दों में ढेर सारा प्यार भर कर  बोली , बेटा , मुझे पता है  तुम कितनी तकलीफ से गुज़र रही हूँ | मैं तुम्हारा दर्द समझ सकती हूँ | पर मुझे विश्वास है तुम इससे निकल जाओगी |”  पढ़िए –नाउम्मीद करती उम्मीदें           … Read more

sarahah app : कितना खास कितना बकवास

अभी ज्यादा दिन नहीं हुए जब फेसबुक पर sarahah एप लांच हुआ और देखते ही देखते कई लोगों ने डाउनलोड करना शुरू कर दिया | मुझे भी अपने कई सहेलियों की वाल पर sarahah एप दिखाई दिया और साथ ही यह मेसेज भी की यह है मेरा एक पता जिसपर आप मुझे कोई भी मेसेज कर सकते हैं | वो भी बिना अपनी पहचान बाताये | आश्चर्य की बात है इसमें मेरी कई वो सखियाँ भी थी जो आये दिन अपनी फेसबुक वाल पर ये स्टेटस अपडेट करती रहती थी की ,मैं फेसबुक पर लिखने पढने के लिए हूँ , कृपया मुझे इनबॉक्स में मेसेज न करें | जो इनबॉक्स में बेवजह आएगा वो ब्लाक किया जाएगा | अगर आप कोई गलत मेसेज भेजेंगे तो आपके मेसेज का स्क्रीनशॉट शो किया जाएगा , वगैरह , वगैरह | मामला बड़ा विरोधाभासी लगा , मतलब नाम बता कर मेसेज भेजने से परहेज और बिना नाम बताये कोई कुछ भी भेज सकता है | जो भी हो इस बात ने मेरी उत्सुकता सराह एप के प्रति बढ़ा दी | तो आइये आप भी जानिये सराह ऐप के बारे में ,” की ये कितना ख़ास है और कितना बकवास है | क्या है sarahah  app                     सराह एक मेसेजिंग एप है | जिसमें कोई भी व्यक्ति अपनी प्रोफाइल से लिंक किसी भी व्यक्ति को मेसेज भेज सकता है |मेसेज प्राप्त कर सकता है | सबसे खास बात इसमें   उसकी पहचान उजागर नहीं होगी |यानी की बेनाम चिट्ठी | सराह एप में आप मेमोरी भी क्रीऐट कर सकते हैं व् उन लोगों के नामों का भी चयन कर सकते हैं जिन्हें  आप मेसेज भेजना चाहते हैं |आप साइन इन कर उन लोगों को भी खोज सकते हैं जिनका पहले से एकाउंट है | इसे डाउनलोड करने के लिए आप को इसके वेब प्लेटफॉर्म  पर जा कर एकाउंट बनाना होगा |आप इसे गूगल प्ले स्टोर या एप्पल के एप स्टोर से भी डाउनलोड कर सकते हैं |इसकी ऐनड्रोइड की एप साइज़ १२ एम बी है | कहाँ से आया ये sarahah  app                                    सराह एप सऊदी अरेबिया से आया है | जिसे वहां के वेब  डेवेलपर  Zain al-Abidin Tawfiq ने डेवेलप किया है | पहले उन्होंने इसे इस लिए डेवेलप किया था की कम्पनी के     कर्मचारी  मालिकों को अपना फीड बैक दे सके जो वो खुले आम सामने सामने  नहीं दे पाते हैं | पर देखते ही देखते यह एप वायरल  हो गया | अबक इसके ३० लाख से भी अधिक यूजर बन चुके हैं | भारत में हर दिन इसे हजारों लोग डाउनलोड कर रहे हैं | क्या  है sarahah  का मतलब                               ” सराह ” का शाब्दिक अर्थ है इमानदारी | पर जब आप अपना नाम छुपा कर कुछ भेज रहे हैं तो इमानदारी कहाँ रहती है | हां , सकारात्मक आलोचना की जा सकती है | अगर आप सामने कहने से परहेज करते हों | पर ये सुनने वाले किए ऊपर है की वो अपनी आलोचना सुन कर आपको ब्लॉक करता है या नहीं | क्या खास है sarahah app  में                                   सराह  मेसेज देने ,लेने के अतिरिक्त कुछ ज्यादा नहीं कर सकता | हो सकता है भविष्य में इसमें कुछ फीचर जोड़े जाए | वैसे मेसेज देने के लिए व्हाट्स एप व् फेसबुक मेसेंजर भी है | तो फिर इसमें ख़ास क्या है | जहाँ तक आलोचना करने का सवाल है तो लोग फेक फेसबुक आई डी बना कर भी कर लेते हैं | फेसबुक पर फेक आई डी वाले लंबी – लंबी बहसे करते देखे गए हैं | कई की ओरिजिनल आई डी है | पर उन्होंने नाम के अलावा  बाकी सब हाइड कर रखा है | फोटो भी उनकी अपनी नहीं है | मतलब ये की वो लोग कुछ भी लिखने के लिए स्वतंत्र हैं | वैसे भी अगर आप की फ्रेंड लिस्ट छोटी है तो इसमें कुछ भी ख़ास नहीं |क्योंकि सब आपके ख़ास जान – पहचान वाले ही होंगे |  हां अगर फ्रेंड लिस्ट बड़ी है और  कुछ ऐसे लोग आपसे जुड़े हैं जो आपको मेसेज करने की हिम्मत नहीं कर पा रहे हैं तो वो इस एप के माध्यम से कर सकते हैं | दिल की बात कह सकते हैं | यहाँ पर बात सिर्फ तारीफ की नहीं , बेहूदा मेसेजेस व् बेफजूल आलोचना की भी हो सकती है |                                                             अगर आप किसी बिजनिस या क्रीएटीव  फील्ड से जुड़े हैं तो आप इसका प्रयोग ” सेल्फ प्रोमोशन ” में कर सकते हैं | ऐसे में आप नकारात्मकता व् आलोचना से भरी सैंकड़ों पोस्टों को भूल जाइए , व् कुछ तारीफों वाली चिट्ठियों को अपनी वाल पर शेयर करिए | जिससे लोगों को लगे आपका काम या बिजनेस कितना  प्रशंसनीय है |आपके फ्रेंड्स व् फोलोवेर्स अचंभित  हो सकते हैं की आप या आपका काम कितना लोकप्रिय है | इसके लिए आप अच्छी सी चिट्ठियाँ अपने खास दोस्तों या परिवार के सदस्यों से खुद ही लिखवा सकते हैं | ये बात उनके लिए है जिनके लिए सेल्फ प्रोमोशन में सब कुछ जायज है  पर इसके लिए आपको इतना मजबूत होना पड़ेगा की आप अनेकों अवांछित चिट्ठियों से अप्रभावित रह सकें | क्या बकवास है sarahah app में                                        बेनामी चिट्ठियाँ , बेनामी फोन कॉल्स , अब बेनामी मेसेजेस  महिलाओं के लिए हमेशा खतरे की घंटी हैं | sarahah चाहें जितनी ईमानदारी का दावा करें पर अश्लीलता में ये इमानदारी बर्दाश्त नहीं की जा सकती | एक खबर के मुताबिक़ एक लड़की ( नाम जानबूझकर गुप्त रखा है ) ने सराह एप डाउन लोड  किया | उसे रेप … Read more

संवेदनाओं का मीडियाकारण: नकारात्मकता से अपने व् अपने बच्चो के रिश्ते कैसे बचाएं ?

– अभी हाल में खबर आई की मुंबई की एक वृद्ध माँ का बेटा जब डेढ़ साल बाद आया तो उसे माँ का कंकाल मिला | खबर बहुत ह्रदय विदारक थी | जाहिर है की उसे पढ़ कर सबको दुःख हुआ होगा | फिर सोशल मीडिया पर ऐसी पोस्टों की बाढ़ सी आ गयी | जहाँ कपूत बेटों ने अपने माँ – बाप को तकलीफ दी हर माता – पिता ऐसी  ख़बरों को पढ़ कर भयभीत हो गए | कहीं न कहीं उन्हें डर लगने लगने  की उनका बेटा भी कपूत न निकल जाए | कहीं उन्हें भी इस तरह की किसी दुर्घटना का शिकार न होना पड़े |  इस भय के आलम में किशोर या युवा होते बच्चों पर माता – पिता ताना मार ही देते हैं ,” आज कल की औलादों से कोई उम्मीद नहीं है “, सब कपूत निकलेंगे “ , अरे , इनके लिए दिन रात कमाओ यही बुढापे में नहीं पूंछने वाले | “ क्या हम कभी सोंचते हैं की ऐसा कहते समय हमारे बच्चों के दिल पर क्या असर पड़ता होगा ? शायद नहीं , क्योंकि हम अपने मन का काल्पनिक भय उन पर थोपना चाहते हैं | एक तरह से अपने बच्चे को आज से ही बुरा बच्चा घोषित कर देना चाहते हैं ? क्या ये उसे सही संस्कार देना हुआ ? अगर हम अपने बच्चे को दूसरों की ख़बरों के आधार पर पहले से ही प्रतीकात्मक रूप में ही सही बुरा घोषित कर दें तो उनके मन में अपने लिए बुरा शब्द सुनने प्रति इम्युनिटी विकसित  हो जाती है |भविष्य में उन्हें बुरा कहा जायगा तो उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ेगा |                   ऐसी ही एक फिल्म थी “ बागवान “जिसमें बेटे बुरे थे | फिल्म अक्सर टीवी पर आती ही रहती है | एक बार अपने किशोर होते बेटे के साथ देख रही थी | बेटा बार – बार यह कह रहा था की मम्मी मैं बड़ा होकर ऐसा नहीं बनूँगा | जाहिर है वो कहीं न कहीं हर्ट फील कर रहा था और कहना चाहता था की मम्मी हर बेटा ऐसा नहीं होता | पर मेरे मन में फिल्म की नकारात्मकता भरी थी | दो दिन बाद किसी बात पर मैंने उसे डांटते हुए कहा ,” बड़े होके  तो तुम्हें पूँछना नहीं है हम लोगों को अभी सारा दिन मम्मी ये मम्मी वो कह कर सेवा करवाए रहो | सासू माँ हम लोगों की बात सुन रहीं थी | उसके जाने के बाद मुझ से बोली ,” बच्चों को हमेशा अच्छे बच्चों की नजीर दिया करो | बल्कि ये कहा करो , फिल्म में चाहें जो दिखाया हो पर “ जब बुढापे में हमारे हाथ – पाँव थकने लगेंगे तो हम कहाँ जायेंगे , तुम्हारे साथ ही तो रहेंगे |जिससे बच्चे मानसिक रूप से तैयार रहे की माता – पिता  उनके साथ रहेंगे | मुझे याद आया की जब मैं विवाह के बाद ससुराल आई थी तो सासू माँ मुझे हर अच्छी बहू के किस्से सुनाया करती थी | हालांकि मैंने शादी से पहले बुरी बहुओं के किस्से सुने थे | पर उन्होंने मुझे एक भी ऐसा किस्सा नहीं सुनाया | मुझे लगा , शायद यहाँ कोई बुरी बहू है ही नहीं  सब अच्छी बहुएं हैं तो मुझे भी अच्छी ही बनना चाहिए | यानी की बुरी बहू बनने का ऑप्शन ही मेरे पास से खत्म हो गया |  बात हंसी की जरूर लग सकती है पर हम सब या कम से कम ९५ प्रतिशत लोग सोशल नॉर्म  से प्रभावित होते हैं | व् उसी दायरे में रहना चाहते हैं | समाज से अलग – थलग छिटका  हुआ या बुरी मिसाल बन कर नहीं | इसमें वो सुरक्षित महसूस करता है |इसे सामाजिक दवाब भी कह सकते हैं पर इसी से हमारा व्यवहार संतुलित रहता है | जिसे हम संस्कार कहते हैं |  याद करिए की दादी नानी की कहानियाँ भी तो ऐसी  ही थी | की बुराई पर अच्छाई की जीत वाली | बुरा व्यक्ति चाहें जितना रसूख वाला हो पर अंत में बुराई पर अच्छाई की ही जीत होती थी | ये कहानियाँ बचपन से ही बच्चों को अच्छा बनने की ओर प्रेरित करती थी |                                 क्या आपको नहीं लगता की ये गलती तो हमारी पीढ़ी से हो रही है | हम बच्चों को शुरू से ही कहते रहते हैं की तुम चाहें जहाँ रहो हम दोनों तो यहीं रहेंगें | यानी हम शुरू से ही बच्चों को अपनी जिम्मेदारी से आज़ाद कर देते हैं | जब ये बच्चे बड़े होते हैं तो वो मानसिक रूप से तैयार होते हैं की उन्हें तो अकेले अपने भावी परिवार के साथ रहना है | व् माता – पिता को अलग रहना हैं | ऐसे में शारीरिक अक्षमताओं के चलते जब उन पर अचानक माता – पिता की जिम्मेदारी आती है तो उन्हें बोझ लगने लगता है |  ये संवेदनाओं के अति मीडियाकरण का नकारात्मक प्रभाव है | जहाँ हम बुरी खबरें देखते हैं | उन्हें ही 100 % बच्चों का  सच मान लेते हैं | खुद तो भय ग्रस्त होते ही हैं अपने बड़े होते बच्चों को बार – बार यह अहसास दिलाते हैं की पूरा समाज बुरा हो गया है |इसका उल्टा असर उसके मन पर पड़ता है की जब सब बुरे हो गए हैं तो उसके बुरा हो जाने में कोई बुराई नहीं है |यह बात सिर्फ हम अपने बच्चों से ही नहीं कहते | गली मुहल्ले सड़क और अब तो सोशल मीडिया हर जगह कहते हैं | एक नकारात्मक वातावरण बनाते हैं |  चाहते न चाहते हुए भी हम हम बड़े हो कर बुरे निकल जाने वाले बच्चों के प्रतिशत में इजाफा कर देते हैं | जरूरी है जब भी ऐसी खबरे आये | हम अपने बच्चों के साथ ( खासकर किशोर बच्चे )  ये खबर शेयर करते समय इस बात का ध्यान रखें की साथ ही उन्हें अच्छे बच्चों का भी उदहारण दें | बताये की अभी जमाना इतना खराब नहीं हुआ है | साथ ही उन पर पूर्ण विश्वास व्यक्त करना न भूले | हामारा यह विश्वास हमारे बच्चों को संस्कारों से  विमुख नहीं होने देगा |  वंदना बाजपेयी  रिलेटेड पोस्ट … … Read more