दर्द से कहीं ज्यादा दर्द की सोंच दर्दनाक होती है

दर्द की कल्पना उसकी तकलीफ को दोगना कर देती है | क्यों न हम खुशियों की कल्पना कर उसे दोगुना करें – रॉबिन हौब               एक क्लिनिक का दृश्य डॉक्टर ने बच्चे से कहा कि उसे बिमारी ठीक करने के लिए  इंजेक्शन लगेगा और वो बच्चा जोर – जोर से रोने लगा |नर्स मरीजों को इंजेक्शन लगा रही थी |  उसकी बारी आने में अभी समय था | बच्चे का रोना बदस्तूर जारी था | उसके माता – पिता उसे बहुत समझाने की कोशिश कर रहे थे की बस एक मिनट को सुई चुभेगी और तुम्हे पता भी नहीं चलेगा | फिर तुम्हारी बीमारी ठीक हो जायेगी | पर बच्चा सुई और उसकी कल्पना करने में उलझा रहा | वो लगातार सुई से चुभने वाले दर्द की कल्पना कर दर्द महसूस कर रोता रहा | जब उसकी बारी आई तो नर्स को हाथ में इंजेक्शन लिए देख उसने पूरी तरह प्रतिरोध करना शुरू किया |  नर्स समझदार थी | मुस्कुरा कर बोली ,” ठीक है मैं इंजेक्शन नहीं लगाउंगी | पर क्या तुमने हमारे हॉस्पिटल की नीले पंखों वाली सबसे बेहतर चिड़िया देखी  है | वो देखो ! जैसे ही बच्चा चिड़िया देखने लगा | नर्स ने इंजेक्शन लगा दिया | बच्चा हतप्रभ था | सुई तो एक सेकंड चुभ कर निकल गयी थी | वही सुई जिसके चुभने के भय से वो घंटा  भर पहले से रो रहा था |                 वो बच्चा था पर क्या हम सब भी ऐसे ही बच्चे नहीं हैं | क्या हम सब आने वाले कल में होने वाली घटनाओं के बारे में सोंच – सोंच कर इतने भयभीत नहीं रहते की अपने आज को नष्ट किये रहते हैं | वास्तव में देखा जाए तो जीवन में जितनी भी समस्याएं हैं | उनमें से कुछ एक को छोड़कर कल्पना में ज्यादा डरावनी होती हैं | हम बुरे से बुरे की कल्पना करते हैं और भयभीत हो जाते हैं | बुरे से बुरा सोंचने के कारण  एक नकारात्मक्ता  का  का वातावरण बनता है | यह नकारात्मकता गुस्से झुन्झुलाह्ट या चिडचिडेपन के रूप में नज़र आती हैं | जो न केवल हमारे वर्तमान को प्रभावित करती है बल्कि हमारे रिश्तों को भी ख़राब कर देती है |कभी आपने महसूस किया है की हम अपने अनेक रिश्ते केवल इस कारण खो देते हैं क्योंकि हम उनकी छोटी से छोटी बात का आकलन करते हैं | और उन्के बारे में बुरे से बुरी राय बनाते हैं |फलानी चाची अपनी परेशानी से जूझ रही है | हमारे घर जाते ही उन्होंने वेलकम स्माइल नहीं दिया | हमने उनसे उनकी समस्या पूंछने के बाजे मन ही मन धारणा बना ली की वो तो हमारी नयी गाडी , साडी या पर्स देखर जल – भुन गयीं | इस कारण हमें देख कर मुस्कुराई भी नहीं | अगली बार बदला लेने की बारी हमारी | वो हमारे घर आयेंगी तो हम भी नहीं मुस्कुराएंगे |  इस तरह बात साफ़ करने के स्थान पर  उस राय के कारण हम खुद ही एक दूरी बढाने लगते हैं |  जिसका दूरगामी प्रभाव पड़ता है |रिश्ता कच्चे धागे सा टूट जाता है | रिश्तों की भीड़ में हम अकेले होते जा रहे हैं | पर इसका दोष क्या हमारे सर नहीं है | बात केवल किसी के घर जाने की नहीं है | बच्चा पढ़ेगा कैसे , लड़की देर से आई कहीं बिगड़ न गयी हो , हेल्थ प्रोग्राम देख कर बार बार सोंचना की कहीं यह बिमारी हमें तो नहीं है या हमें न हो जाए | सब मिलकर एक नकारात्मक वातावरण बनाते हैं | हो सकता है ऐसा कुछ न हो पर हम सोंच में उन विपरीत परिस्तिथियों को साक्षात महसूस करने लगते हैं | भय और नकारात्मकता का वातावरण बना लेते हैं |  क्यों नहीं हम हर  बात में कोई अच्छाई  ढूंढें या कम से कम संदेह  का लाभ दे दें | देखा जाए तो  भविष्य की कल्पना एक ऐसा हथियार है ,जो ईश्वर प्रदत्त वरदान है |  जिससे हम आने वाले खतरे के प्रति सचेत होकर अपनी तैयारी कर सके न की बुरे से बुरा सोंच कर वास्तविक परिस्तिथियों से कहीं ज्यादा तकलीफ भोग सकें|  अब जैसा की  श्री देसाई का तरीका है |उनके सीने के पास एक गाँठ महसूस हुई | जब डॉक्टर को दिखाने गए तो  डॉक्टर ने उसको बायोप्सी करने को कहा | उसकी पत्नी चिंतित हो गयी | बुरे से बुरे की कल्पना कर वो रोने लगीं |श्री देसाई ने  हँसकर  अपनी पत्नी से कहा | अभी क्यों चिंता कर रही हो | अभी कैंसर निकला तो नहीं | हो सकता है गाँठ बिनाइन हो और कैंसर निकले ही ना | फिर ये सारे  आँसूं बेकार हो जायेंगें |अभी  का पल तो मत खोओ  |  कल  जो होना है वो होना है | तो क्यों न हम अच्छी से अच्छी कल्पना करके अपने वर्तमान को दोगुनी खुशियों से भर दें |                        फैसला आप पर है !!!  वंदना बाजपेयी  प्रेम की ओवर डोज अरे ! चलेंगे नहीं तो जिंदगी कैसे चलेगी बदलाव किस हद तक अहसासों का स्वाद

निर्णय लो दीदी ? ( ओमकार भैया को याद करते हुए )

                              happy  raksha bandhn , कार्ड्स मिठाइयाँ और चॉकलेट के डिब्बों से सजे बाजारों के  बीच कुछ दबी हुई सिसकियाँ भी हैं | ये उन बहनों  की  हैं जिनकी आँखें राखी से  सजी दुकानों को देखते ही डबडबा जाती  हैं   और आनायास  ही मुँह  फेर  लेती हैं | ये वो अभागी  बहनें  हैं जिन्होंने जीवन के किसी न किसी मोड़ पर अपने भाई को खो दिया    है | भाई – बहन का यह अटूट बंधन ईश्वर की इच्छा के आगे अचानक से टूट कर बिखर गया | अफ़सोस उन बहनों में इस बार से मैं भी शामिल हूँ | भाई , जो भाई तो होता ही है पुत्र , मित्र और पिता की भूमिका भी समय समय पर निभाता है | इतने सारे रिश्तों को एक साथ खोकर खोकर मन का आकाश बिलकुल रिक्त हो जाता है | यह पीड़ा न कहते बनती है न सहते | लोग कहते हैं की भाई बहन का रिश्ता अटूट होता है | ये जन्म – जन्मांतर का होता है | ये जानते हुए भी की  ओमकार भैया की कलाई पर राखी बाँधने और उनके मुँह में मिठाई का बड़ा सा टुकड़ा रखने का सुख अब मुझे नहीं मिलेगा मैं बड़ों के कहे अनुसार पानी के घड़े पर राखी बाँध देती हूँ | जल जो हमेशा प्रवाहित होता रहता है , बिलकुल आत्मा की तरह जो रूप और स्वरुप बदलती है परन्तु स्वयं अमर हैं | राखी बांधते समय आँखों में भी जल भर जाता है | दृष्टि धुंधली हो जाती है | आँखे आकाश की तरफ उठ जाती हैं और पूँछती हैं…”भैया आप कहाँ हैं ?”                                                        मैं जानती हूँ की बादलों की तरह उमड़ते – घुमड़ते मन के बीच में अगर ओमकार भैया के ऊपर कुछ लिखती हूँ तो आँसुओं का रुकना मुश्किल है , नहीं लिखती हूँ तो यह दवाब सहना मुश्किल है | 16 फरवरी को ओमकार भैया को हम सब से छीन ले जाने वाली मृत्यु उनकी स्मृतियों को नहीं छीन सकीं बल्कि वो और घनीभूत हो गयी | तमाम स्मृतियों में से एक स्मृति आप सब के साथ शेयर कर रही हूँ |                                                                          बात अटूट बंधन के समय की है |    कहते हैं  बहन छोटी हो या बड़ी ममतामयी ही होती है | और भाई छोटा हो या बड़ा , बड़ा ही होता है |  बचपन से ही स्वाभाव कुछ ऐसा पड़ा था की अपनी ख़ुशी के आगे दूसरों की ख़ुशी को रख देती | अपने निर्णय के आगे दूसरों के निर्णय को | उम्र के साथ यह दोष और गहराता गया | हर किसी के काम के लिए मेरा जवाब हां ही होता | जैसे मेरा अपना जीवन अपना समय है ही नहीं | मैं व्यस्त से व्यस्ततम होती चली जा रही थी | कई बार हालत यह हो जाती की काम के दवाब में  घडी की सुइंयों के कांटे ऐसे बढ़ते जैसे घंटे नहीं सिर्फ सेकंड की ही सुइयां हों | काम के दवाब में कई बार सब से छुप कर रोती भी पर आँसूं पोंछ कर फिर से काम करना मुझे किसी का ना कहने से ज्यादा आसान लगता |                                        भैया हमेशा कहा करते की दीदी हर किसी को हाँ मत कहा करो | अपने निर्णय खुद लिया करो | पर मैं थी की बदलने का नाम ही नहीं लेती | शायद ये मेरी कम्फर्ट ज़ोन बन गयी थी जिससे बाहर आने का मैं साहस ही नहीं कर पा रही थी | बात थी अटूट बंधन के slogan की | मैंने ” बदलें विचार , बदलें दुनिया ” slogan रखा | भैया ने भी कुछ slogan सुझाए थे | मुझे अपना ही slogan सही लग रहा था | पर अपनी आदत से मजबूर मैंने भैया से कहा ,” भैया , जो आप को ठीक लगे | वही रख  लेते हैं | भैया बोले ,” दीदी आज कवर पेज फाइनल होना है , शाम तक और सोंच लीजिये | मैंने हां कह दिया | शाम को भैया का फोन आया ,” दीदी क्या slogan रखे | मैंने कहा ,” भैया जो आप को पसंद हो , सब ठीक हैं | दीदी एक बताइये , भैया का स्वर थोडा कठोर था | सब ठीक हैं भैया मेरा जवाब पूर्ववत था | भैया थोडा तेज स्वर में बोले ,” दीदी , निर्णय लीजिये , नहीं तो आज कवर पेज मैं फाइनल नहीं करूँगा | आगे एक हफ्ते की छुट्टी है | मैगज़ीन लेट हो जायेगी | फिर भी ये निर्णय आपको ही लेना है | निर्णय लो दीदी | मैंने मैगजीन का लेट होना सोंच कर तुरंत कहा ,” भैया बदलें विचार – बदलें दुनिया ‘ ही बेस्ट है | मैगजीन छपने चली गयी | लोगों ने slogan बहुत पसंद किया | बाद में भैया ने कहा ,” दीदी जीवन अनिश्चिताओं से भरा पड़ा है | ऐसे में हर कदम – कदम हमें निर्णय लेने पड़ते हैं | कुछ निर्णय इतने मामूली होते हैं की उन का हमारी आने वाली जिंदगी पर कोई असर नहीं पड़ता | पर कुछ निर्णय बड़े होते हैं | जो हमारे आने वाले समय को प्रभावित करते हैं | ऐसे समय में हमारे पास दो ही विकल्प होते हैं | या तो हम अपने मन की सुने | या दूसरों की राय का पालन करें | जब हम दूसरों की राय का अनुकरण करते हैं तब हम कहीं न कहीं यह मान कर चलते हैं की दूसरा हमसे ज्यादा जानता है | इसी कारण अपनी ” गट फीलिंग ” को नज़र अंदाज़ कर देते हैं | अनिश्चितताओं से भरे जीवन में कोई भी निर्णय फलदायी होगा … Read more

एक राजकुमारी की कहानी

मित्रों , मैं बचपन में कहानी में सुना करती थी | एक राजकुमारी की  , जैसा की राजकुमारियों की कहानी में होता है | वो बहुत सुन्दर थी | बिलकुल परी  की तरह और जब हंसती तो उसके सुन्दर मुख की शोभा सौ गुनी बढ़ जाती | हां वो  बहुत संवेदनशील भी बहुत थी  | किसी की जरा सी बात से उसका मन द्रवित हो जाता |घंटों रोती उसका दुःख दूर करने का प्रयास करती |  जाहिर है किसी भी संवेदनशील व्यक्ति के लिए ये तो सामान्य बात है | अब असामान्य बात ये थी की जब वो रोती थी तो मोती झरते थे , हंसती थी तो फूल | यहाँ से उसकी मुसीबत शुरू हुई | ये  बात पूरे राज्य में जंगल की आग की तरह फ़ैल गयी |  अब तो लोग उससे मिलने आते और बात बिना बात उसे रुला दिया करते |फिर मोती  बटोर कर ले जाते |  हंसाने वाले दो एक ही होते | आप सोंच रहे होंगे ऐसा क्यों ? कारण स्पष्ट था | . फूल तो हर जगह मिल जाते हैं  पर मोती तो बहुत प्रयास से बनते हैं और उससे ज्यादा प्रयास से मिलते हैं |रोज – रोज रोने से राजकुमारी परेशान रहने लगी | वो भी हँसना चाहती थी खिलखिलाना चाहती थी | पर कैसे |  एक दिन एक साधू उस राज्य में आया | राजकुमारी ने उससे मिलने का निश्चय किया | राजकुमारी ने साधू के पास पहुँच कर अपनी समस्या बतायी | साधू उसकी समस्या सुन कर बोला ,” तुम रोया मत करो , सिर्फ हंसा करो | हाँ लोगों की मदद अवश्य करो पर आँसूं एक न निकले | स्वाभाव में परिवर्तन पर ये मोती सूखने लगेंगे और निकलना भी बंद हो जाएगे |  राजकुमारी ने साधू की सलाह पर अमल किया | अब वो हँसती , खूब हँसती , लोगों की मदद भी करती पर रोती बिलकुल भी नहीं | सारा राज्य खुशबु वाले रंग बिरंगे फूलों से भर गया | पूरा वातावरण खुशनुमा हो गया | लोग खुश थे | अब कोई उसे रुलाने नहीं आता | क्योंकि सबकों पता था की अब राजकुमारी को रुलाने से क्या फायदा | न वो रोएगी न ही मोती निकलेंगे |  friends ,  ये कहानी प्रतीकात्मक है | ये कहानी अति संवेदनशील लोगों के ऊपर है |  जिन्दगी के अनुभव सिखाते हैं की  अगर हमारे रोने से किसी को फायदा हो रहा है तो वो रुला – रुला कर ही मार डालेगा | आस – पास नज़र डालिए तो पायेंगे की की  लोग अति संवेदनशील  लोगों का अक्सर लोग फायदा उठाते हैं | सिम्पैथी ले कर अपना काम निकलवाते हैं | किसी की मदद करना अच्छी बात है पर इस बात का ध्यान रखे की कोई हमारा फायदा न उठा पाए |  बेहतर है हँसने और रोने दोनों में फूल ही झरे मोती बिलकुल नहीं | वंदना बाजपेयी  रिलेटेड पोस्ट… खीर में कंकण जमीन में गड़े हैं शैतान का सौदा अच्छी मम्मी , गन्दी मम्मी

बहू और बेटी

वो बेटी ही थी | और शादी के बाद बहू बन गयी | • सर पर पल्ला रखो ~ अब तुम बेटी नहीं बहू हो • कुछ तो लिहाज करो , पिता सामान ही सही पर ससुर से बात मत करो ~ तुम बेटी नहीं बहू हो • माँ ने सिखाया नहीं , पैताने बैठो ~ तुम बेटी नहीं बहू हो • घर से बाहर अकेली मत निकलो ~ तुम बेटी नहीं बहू हो • अपनी राय मत दो , जो बड़े कहे वही मानो ~ तुम बेटी नहीं बहू हो उसने खुद को ठोंक – पीट के बहू के सांचे में ढल दिया | अब वो बेटी नहीं बहू थी | समय पलटा , सास – ससुर वृद्ध हुए और अशक्त व् बीमार भी | बिस्तर से लग गए | * बताओ कौन सा ट्रीटमेंट कराया जाए , राय दो ~ तुम बेटी ही तो हो  सास से बिस्तर से उठा नहीं जाता ~ सिरहाना पैताना मत देखो , अपने हाथ से खाना खिला दो ~ तुम बेटी ही तो हो  ससुर सारा दिन अकेले ऊबते हैं ~ बातें किया करो , तुम बेटी ही तो हो  ससुर के कपडे बदलने में संकोच कैसा ~ तुम बेटी ही तो हो | अब उसकी भी उम्र बढ़ चुकी थी | बेटियाँ मुलायम होती है , लोनी मिटटी सी , बहुएं सांचे में ढली , तराश कर बनायी जाती हैं | दुबारा बहू से बेटी में परिवर्तन असहज लगा | त्रुटियाँ रहने लगी | सुना है घर के तानपुरे ने वही पुराना राग छेड़ दिया है ~ कुछ भी कर लो बहुएं कभी बेटियाँ नहीं बन सकती |

सेंध

यूँ तो मंदिर में पूरे नवरात्रों में श्रद्धालुओं की भीड़ रहती है | पर अष्टमी , नवमी  को तो जैसे सैलाब सा उमड़ पड़ता है | हलुए पुडी  का प्रसाद  फिर कन्या भोज | मंदिर के प्रागड़ में ढेर सारी  कन्याएं रंग – बिरंगे कपडे सजी धजी सुबह से ही घूमना शुरू कर देती |इसमें से कई आस – पास के घरों में काम करने वालों की बच्चियाँ  होती | जिन्हें माँ के साथ काम पर जाने के स्थान पर एक दिन देवी बनने  का अवसर मिला था | इसे बचपना कहें या भाग्य के साथ समझौता की वो सब आज  अपने पहनावे और मान – सम्मान पर इतरा  रही थी ये जानते हुए भी की  कल से वही झूठे बर्तनों को रगड़ना है | ” प्रेजेंट ” में जीना कोई इनसे सीखे |                                         खैर !  बरस दर बरस श्रद्धालुओं की भीड़ मंदिर में बढती जा रही थी | और  कन्याओ की भी | हलुआ और पूड़ी तो ये देवियाँ  कितना खा  सकती थी | इसलिए थोडा सा चख कर सब एक जगह इकट्ठा हो जाता | जो शाम को सारी  झुग्गी बस्ती का  महा भोज  बनता | हाँ ! नकदी सब अपनी – अपनी संभाल  कर रखती  | शाम को महा भोज में किस को कितनी नकदी मिली इस पर चर्चा होती | जिसको सबसे ज्यादा मिलती वो अपने को किसी रानी से कम न समझती | नारी मन पर वंदना बाजपेयी की लघुकथाएं                                                                                                 तो आज भी सुबह से ही सजी – धजी कन्याएं मंदिर में इकट्ठी हो गयीं | श्रद्धालु आते और उस भीड़ में से मन पसंद ९ कन्याओं को  छांट  कर भोजन कराते | दक्षिणा देते | मजे की बात सब को छोटी से छोटी कन्या चाहिए | कन्या जितनी छोटी पुन्य उतना ज्यादा | आज  भी कन्याओं की भीड़ में सबसे ज्यादा तवज्जो उन दो कन्याओं को मिल रही  था जो मात्र ३ या चार साल की रही होंगी | दोनों लग भी तो बिकुल देवी सी रही थी | एक लाल घाघरा लाल चुन्नी ओढ़े थी व् दूसरी हरे घाघरे चुन्नी में थी | भरा चेहरा ,बड़ी – बड़ी आँखें और चहेरे पर  मासूमियत बढ़ाती बड़ी सी लाल बिंदी जो उनकी माताओ ने माथे पर लगा दी थी | दोपहर के दो बज रहे थे | दोनों अभी तक १५ बार तक देवी बन दक्षिणा ले चुकी थीं | उधर १० साल की सुरभि को तो किसी ने पूंछा तक नहीं | दो एक साल पहले तक उसकी भी कितनी पूँछ होती थी | अभी इतनी बड़ी तो नहीं हुई है वो | हां ! कद जरा लंबा  हो गया है | बाबा पर गया है | तो उससे क्या ? सुरभि निराश   हो चुकी थी | उसका बटुआ खाली था , और पेट भी | पर सबसे ज्यादा खालीपन उसके मन में था | वो भी एक अन्याय के कारण |जो वो बहुत देर से गुटक रही थी थी | कला                                             तभी   एक पति – पत्नी भीड़ की तरफ आते हुए दिखे | सभी के साथ सुरभि भी उठ खड़ी  हुई | उसे चुने जाने की आशा थी | पर उन्होंने भी सुरभि के स्थान पर उन दोनों बच्चियों को ही चुना | इस बार सुरभि से न रहा गया | और बोल ही पड़ी ,“अंकल जी वो लडकियाँ  नहीं लड़के हैं ” |परन्तु  मंदिर के इतने कोलाहल ,व्रत तोड़ने की जल्दबाजी या फटाफट पुन्य कमाने के लोभ  में किसी  ने सुना ही  नहीं | सुरभि मुँह लटका कर रह गयी |  मंदिर के प्रांगण में देवी की मूर्ति के ठीक सामने इन मासूम देवियों की कमाई पर देवताओं की सेंध लग चुकी थी |  यह भी पढ़ें …. काफी इंसानियत कलयुगी संतान बदचलन आपको    “सेंध “ कैसी लगी   | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन”की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें  keywords-navratri, kanya pujan, women issues

हिंदी दिवस पर विशेष – हिंदी जब अंग्रेज हुई

वंदना बाजपेयी सबसे पहले तो आप सभी को आज हिंदी दिवस की बधाई |पर जैसा की हमारे यहाँ किसी के जन्म पर और जन्म दिवस पर बधाई गाने का रिवाज़ है | तो मैं भी अपने लेख की शुरुआत एक बधाई गीत से करती हूँ ………. १ .. पहली बधाई हिंदी के उत्थान के लिए काम करने वाले उन लोगों को जिनके बच्चे अंग्रेजी मीडियम के स्कूलों में पढ़ते हैं | २ …दूसरी बधाई उन प्रकाशकों को जो हिंदी के नाम पर बड़ा सरकारी अनुदान प्राप्त कर के बैकों व् सरकारी लाइब्रेरियों की शोभा बढाते हैं | जिन्हें शायद कोई नहीं पढता | ३… तीसरी और विशेष बधाई उन तमाम हिंदी की पत्र – पत्रिकाओ व् वेबसाइट मालिकों को जो हिंदी न तो ठीक से पढ़ सकते हैं , न बोल सकते हैं न लिख सकते हैं फिर भी हिंदी के उत्थान के नाम पर हिंदी की पत्रिका या वेबसाइट के व्यवसाय में उतर पड़े | आप लोगों को अवश्य लग रहा होगा की मैं बधाई के नाम पर कटाक्ष कर रही हूँ | पर वास्तव में मैं केवल एक मुखौटा उतारने का प्रयास कर रही हूँ | एक मुखौटा जो हम भारतीय आदर्श के नाम पर पहने रहते हैं | पर खोखले आदर्शों से रोटी नहीं चलती |जैसे बिना पेट्रोल के गाडी नहीं चलती उसी तरह से बिना धन के कोई उपक्रम नहीं चल सकता |न ही कोई असाध्य श्रम व्र मेहनत से कमाया हुआ धन hindi के प्रचार – प्रसार में लगा कर खुद सड़क पर कटोरा ले कर भीख मांगने की नौबत पर पहुंचना चाहेगा | तमाम मरती हुई पत्र – पत्रिकाएँ इसकी गवाह हैं | जिन्होंने बड़ी ही सद्भावना से पत्रिका की नीव रखी पर वो उसे खींच नहीं पाए |क्योंकि धन देने के नाम पर कोई सहयोग के लिए आगे नहीं बढ़ा |  रही बात सरकारी अनुदान की तो ज्यादातर अनुदान प्राप्त पत्रिकाओ या पुस्तकों के प्रकाशक प्रचार – प्रसार के लिए बहुत मेहनत नहीं करते | वो केवल ये देखते हैं की उनका घाटा पूरा हो गया है | इसलिए ज्यादातर अनुदान प्राप्त किताबें सरकारी लाइब्रेरियों के शो केस की शोभा बढाती हुई ही रह जाती हैं |कुल मिला कर स्तिथि बहुत अच्छी नहीं रही | पर अब समय बदल रहा है …… कुछ लोग हिंदी को एक ” ब्लूमिग सेक्टर ” के तौर पर देख रहे हैं | वो इससे लाभ की आशा कर रहे हैं | अगर ये व्यवसायीकरण भी कहे और हिंदी लोगों को रोटी दिलाने में सक्षम हो रही है तो कुछ भी गलत नहीं है | क्योंकि भाषा हमारी संस्कृति है , हमारी सांस भले ही हो पर पर उसको जिन्दा रखने के लिए ये जरूरी है की उससे लोगों को रोटी मिले | उदाहरण के तौर पर मैं हिंदी सिनेमा को लेना चाहती हूँ | जिसका उद्देश्य शुद्ध व्यावसायिक ही क्यों न हो ….. पर जब एक रूसी मेरा  जूता है जापानी गाता है … तो स्वत : ही hindi के शब्द उसकी जुबान पर चढ़ते हैं और भारत व् भारतीय संस्कृति को जानने समझने की इच्छा पैदा होती है | कितने लोग हिंदी फिल्मों के कारण हिंदी सीखते हैं | कहने की जरूरत नहीं जो काम साहित्यकार नहीं कर पाए वो हिंदी फिल्में कर रही हैं |  किसी संस्कृति को जिन्दा रखने के लिए भाषा का जिन्दा रहना बहुत जरूरी हैं | पर क्या उसी रूप में जैसा की हम हिंदी को समझते हैं | यह सच है की साहित्यिक भाषा आम बोलचाल की भाषा नहीं है | और आम पाठक उसी साहित्य को पढना पसंद करता है जो आम बोलचाल की भाषा में हो | साहित्यिक भाषा पुरूस्कार भले ही दिला दे पर बेस्ट सेलर नहीं बन सकती | कुल मिला कर लेखक का वही दुखड़ा ” कोई हिंदी नहीं पढता ” रह जाता है | देखा जाए तो आम बोलचाल की हिंदी भी एक नहीं है | भारत में एक प्रचलित कहावत है “ चार कोस में पानी बदले सौ कोस पे बानी ” |  इसलिए हिंदी को बचाए रखने के लिए प्रयोग होने बहुत जरूरी हैं | आज हिंदी आगे बढ़ रही है उसका एक मात्र कारण है की प्रयोग हो रहे हैं | हिंदी में केवल साहित्यिक हिंदी पढने वाले ही नहीं डॉक्टर , इंजिनीयर , विज्ञान अध्यापक और अन्य व्यवसायों से जुड़े लोग लिख रहे हैं | उनका अनुभव विविधता भरा है इसलिए वो लेखन में और हिंदी में नए प्राण फूंक रहे हैं | पाठक नए विचारों की ओर आकर्षित हो रहे हैं | और क्योंकि लेखक विविध विषयों में शिक्षा प्राप्त हैं | इसलिए उन्होंने भावनाओं को अभिव्यक्त करने में भाषा के मामले में थोड़ी स्वतंत्रता ले ली है | हर्ष का विषय है की ये प्रयोग बहुत सफल रहा है | पढ़ें –व्यर्थ में न बनाएं साहित्य को अखाड़ा  आज हिंदी में तमाम प्रान्तों के देशज शब्द ख़ूबसूरती से गूँथ गए हैं | और खास कर के अंग्रेजी के शब्द हिंदी के सहज प्रवाह में वैसे ही बहने लगे हैं जैसे विभिन्न नदियों को समेट कर गंगा बहती है |यह शुभ संकेत है | अगर हम किसी का विकास चाहते हैं तो उसमें विभिन्नता को समाहित करने की क्षमता होनी कहिये , चाहे वो देश हो , धर्म हो, या भाषा | कोई भी भाषा जैसे जैसे विकसित व् स्वीकार्य होती जायेगी उसमें रोजगार देने की क्षमता बढती जायगी और वो समृद्ध होती जायेगी |आज क्षितिज पर हिंदी के इस नए युग की पहली किरण देखते हुए मुझे विश्वास हो गया है की एक दिन हिंदी का सूर्य पूरे आकश को अपने स्वर्णिम प्रकाश से सराबोर कर देगा | आप सब हो हिंदी दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं यह भी पढ़ें … भाषा को समृद्ध करने का अभिप्राय साहित्य विरोध से नहीं समाज के हित की भावना ही हो लेखन का उद्देश्य मोह – साहित्यिक उदाहरणों सहित गहन मीमांसा कवि एवं कविता कर्म

व्यंग – हमने भी करी डाई-ईटिंग

लेख का शीर्षक देख कर ही आप हमरी सेहत और उससे उत्पन्न परेशानियों के बारे में अंदाजा लगा सकते हैं |आज के ज़माने में मोटा होना न बाबा न ,ये तो करीना कपूर ब्रांड जीरो फीगर का युग है ,यहाँ मोटे लोगों को आलसी लोगों की कतार में बिठाते देर नहीं लगती|यह सब आधुनिक संस्कृति का दोष है हमें आज भी याद है कि हमारी दादी अपने ८० किलो वज़न के साथ पूरे शान से चलती थी और लोग उन्हें खाते –पीते घर वाली कह कर बात –बात पर भारत रत्न से सम्मानित किया करते थे |पर आज के जामने में पतला होना स्टेटस सिम्बल बन गया है ,आज जो महिला जितने खाते –पीते घर की होती है वो उतनी ही कम वजन की होती है ,क्योकि उसी के पास ट्रेड मिल पर दौड़ने हेतु जिम की महंगी फीस चुकाने की औकात होती है या उसके पास ही ब्रेकफास्ट और सुबह के नाश्ते की जिम्मेदारी नौकरों पर छोड़ कर मोर्निग वाक पर जाने का समय होता है ….. बड़े शहरों में तो महिला का वजन देख कर उसके पति की तनख्वाह का अंदाजा लगाया जाता है,कई ब्यूटी पार्लर में महिलाओं का वजन देख कर पति की तनख्वाह बताने वाला चार्ट लगा रहता है,इसी आधार पर उनके सिंपल ,गोल्डन या डाएमंड फेसियल किया जाता है ….. १ )महिला का वजन ६० किलो से ऊपर …. पति की तनख्वाह ५० ,००० से एक लाख …. सिंपल फेसियल २ ) महिला का वजन ५० किलो से कम … पति की तनख्वाह लाख से डेढ़ लाख रूपये … गोल्ड फेसियल ३ )महिला का वजन ४० किलो से कम … पति करोडपति … डाएमंड फेसिअल खैर ये तो हो गयी ज़माने की बात अब अपनी बात पर आते हैं |ऐसा नहीं है की हम शुरू से ही टुनटुन केटेगिरी को बिलोंग करते हो एक समय ऐसा भी था जब हमारी २२ इंची कमर को देख कर सखियाँ –सहेलियां रश्क किया करती थी अक्सर उलाहने मिलते “पतली कमर है,तिरछी नजर है श्रीमती बनने में थोड़ी कसर है ….. शादी भी हुई ,श्रीमती भी बने पर हमने अपने आप को अब तक मेन्टेन रखा |बढती उम्र इस कदर धोखा देगी ये हमने सोचा नहीं था …. ४० पार जब तन थक जाता है ,मन करता है जिंदगी की भाग –दौड़ के बीच अब कुछ पल आराम से गुज़ार लिए जाए , भाग –दौड़ को विराम देते हुए मन कहता है हर पल काम में लगे रहने से अच्छा है थोड़ी देर पॉपकॉर्न खाते हुए सास बहु के सीरीयल देखे जाए | पर विधि की कितनी विडम्बना है जब जब शरीर बार –बार सीढियां चढ़ने –उतरने से कतराने लगता है तो हारमोन नीचे ऊपर ,ऊपर –नीचे चढ़ना उतरना शुरू कर देते हैं और २४ इंची कमर को ३६ इंची बनते देर नहीं लगती |दुर्भाग्य से हमारे साथ भी ऐसा ही कुछ हुआ |हमें अपनी सेहत की चिंता सताती इससे पहले पति को अपने स्टेटस सिम्बल की चिंता सताने लगी दोस्तों की नज़र में वो सीधे फेसियल की तीसरी श्रेणी से पहली में पहुच गए |उन्होंने हमे ईशारों में समझाने की बहुत कोशिश की पर हमने भी नज़र अंदाज़ किया “अब भला ये भी कोई उम्र है ईशारा समझने की , पति ने दिव्यास्त्र छोड़ते हुए करीना कपूर का बड़ा सा पोस्टर अपनी स्टडी टेबल के सामने लगा लिया ,हमने तब भी उदारवादी दृष्टिकोण अपनाया वैसे भी कौन सी करीना कपूर हमारे घर आई जा रही थी |पति ने फिर ब्रहमास्त्र छोड़ा ऑफिस से घर देर से आने लगे , हमारे लिए खरीदी जाने वाली साड़ियों ,बिंदी ,चूड़ी आदि में बिलकुल दिलचस्पी नहीं लेने लगे ,और तो और मोबाइल के बिल बेतहाशा बढ़ने लगे तो हमे खतरे की घंटी सुनाई देने लगी … हमने अपनी समस्या अपनी सखियों को सुनाई |हमारी सखियों ने इस समस्या का श्रेय हमारी कमर के घरे को देते हुए सर्वसम्मति से हमारे लिए डाईटिंग का प्रस्ताव पारित कर दिया |हमने भी आज्ञा का पालन करते हुए अगले दिन से डाईटिंग की शुरुआत की घोषणा कर दी | भोजन के चार्ट बनाये जाने लगे ….हमें अपने प्रिय चावल आलूको सबसे पहले टा –टा बाय बाय करना पड़ा , भोजन में तेल ,घी रिफाइंड दाल में नमक के बराबर रह गए , यहाँ तक तो गनीमत थी पर भोजन में शक्कर के चले जाने के कारण सब कुछ फीका व् बेरौनक लगने लगा |खैर हमने डाइटिंग की शुरुआत की …. सुबह –सुबह बिना शक्कर की चाय जैसे तैसे हलक से उतारी , नाश्ते में मुरमुरे से काम चलाया ,सारी दोपहर एक रोटी और दही पर कुर्बान कर दी …. पर कहते हैं न जिस चीज के बारे में न सोचना चाहो उसी के ख़याल आते हैं हमें भी सारे दिन खाने के ही ख़याल आते रहे कभी राज़ –कचौड़ी ,कभी रसगुल्ला कभी ईमरती ,हमारे दिवा स्वप्नों में आ –आ कर हमे सताने लगी |शाम तक हालत बहुत बिगड़ गयी और मन हल्का करने के लिए हम पड़ोस की रीता के घर चले गए | समोसे और रसगुल्ले की खशबू ने हमारे नथुने फाड़ दिए |रीता ने चाय के साथ परोसते हुए कहा “इतने से कुछ नहीं होता वैसे भी अब तो तुम्हे रोज ही डाईटिंग करनी है ,एक दिन खाने से भी क्या फर्क पड़ता है “हमें भी बात सही लगी ,डाई टिंग तो रोज़ करनी है ,फिर हमने प्लेट भर चावल ,चाय की शक्कर,गेंहू की रोटी का तो त्याग किया ही है ये नन्हे –मुन्ने रसगुल्ले , समोसे हमारा क्या बिगाड़ लेंगे …. सच में इतने से कुछ नहीं होता ,सोच कर हमने सारे तकल्लुफ छोड़ दिए |अब तो हमारा रोज़ का नियम हो गया ,दिन भर खाने का त्याग और शाम को किसी सहेली के घर जा कर “इतने से कुछ नहीं होता के नियम पर चलना |करते –करते दो महीने बीत गए |हम बड़ी ख़ुशी –ख़ुशी वजन लेने वाली मशीन पर चढ़े …. अच्छे परिणाम की उम्मीद थी …पर ये क्या वज़न तो सीधे ६० से ७० पर पहुच गया |हमारी चीख निकल गयी |शाम को पतिदेव को रो रो कर सारा किस्सा सुनाया कि किस तरह हमारा सारा त्याग बेकार गया |लोग झूठ ही कहते हैं कि डाइटिंग से वजन घटता … Read more

आज गंगा स्नान की नहीं गंगा को स्नान कराने की आवश्यकता है

  गंगा एक शब्द नहीं जीवन है , माँ है , ममता है | गंगा शब्द से ही मन असीम श्रद्धा से भर जाता है | परन्तु क्या सिर्फ श्रद्धा करन ही काफी है या हमारा माँ गंगा के प्रति कुछ कर्तव्य भी है |बरसों पहले एक फ़िल्मी गीत आज  भी प्रासंगिक है ” मानों तो मैं गंगा माँ हूँ , न मानों तो बहता पानी “ | जिस गंगा को हम पूजते आये हैं , क्या उसे माँ मानते हैं या हमने उसे बहता पानी ही मान लिया है | और उसे माँ गंगे से गंदे नाले मेंपरिवार्तित करने में लगे हुए हैं |   गंगा … पतित पावनी गंगा … विष्णु के कमंडल से निकली  , शिव जी की जटाओ में समाते हुए  भागीरथ प्रयास के द्वारा धरती पर उतरी | गगा  शब्द कहते ही हम भारतीयों को ममता का एक गहरा अहसास होता है | और क्यों न हो माँ की तरह हम भारतवासियों को पालती जो रही है गंगा  | मैं उन भाग्यशाली लोगों में हूँ जिनका बचपन गंगा  के तट पर बसे शहरों में बीता | अपने बचपन के बारे में जब भी कुछ सोचती हूँ तो कानपुर में बहती गंगा और बिठूर याद आ जाता है | छोटे बड़े हर आयोजन में बिठूर जाने की पारिवारिक परंपरा रही है | हम उत्साह से जाते | कल -कल बहती धारा के अप्रतिम सौंदर्य को पुन : पुन : देखने की इच्छा तो थी ही , साथ ही बड़ों द्वरा अवचेतन मन पर अंकित किया हुआ किसी अज्ञात पुन्य को पाने का लोभ भी था | जाने कितनी स्मृतियाँ मानस  पटल पर अंकित हैं पर निर्मल पावन गंगा प्रदूषण का दंश भी झेल रही है | इसका अहसास जब हुआ तब उम्र में समझदारी नहीं थी पर मासूम मन इतना तो समझता ही था की  माँ कह कर माँ को अपमानित करना एक निकृष्ट काम है |   ऐसा ही एक समय था जब बड़ी बुआ हम बच्चों को अंजुरी में गंगा जल भर कर आचमन करना सिखा रही थी | बुआ ने जैसे ही अंजुरी में गंगा जल भरा , समीप में स्नान कर रहे व्यक्ति का थूकी हुई पान की पीक  उनके हाथों में आ गयी  | हम सब थोडा पीछे हट गए | थूकने वाले सज्जन उतनी ही सहजता से जय गंगा मैया का उच्चारण भी करते जा रहे थे | माँ भी कहना और थूकना भी , हम बच्चों के लिए ये रिश्तों की एक अजीब ही परिभाषा थी | यह विरोधाभासी परिभाषा बड़े होने तक मानस पटल पर और भी प्रश्न चिन्ह बनाती गयी | हमारे पूर्वजों नें गंगा को मैया कहना शायद इसलिए सिखाया होगा की हम उसके महत्व को समझ सकें | और उसी प्रकार उसकी सुरक्षा का ध्यान दें जैसे अपनी माँ का देते हैं | गंगा के अमृत सामान जल का ज्यादा से ज्यादा लाभ उठा सके इस लिए पुन्य लाभ से जोड़ा गया | पर हम पुन्य पाने की लालसा में कितने पाप कर गए | फूल , पत्ती , धूप दीप , तो छोड़ो , मल मूत्र , कारखानों के अवशिष्ट पदार्थ , सब कुछ बिना ये सोचे मिलाते गए की माँ के स्वास्थ्य पर ही कोख में पल रहे बच्चों का भविष्य टिका है | इस लापरवाही का ही नतीजा है की आज गंगा इतनी दूषित व प्रदूषित हो चुकी है कि पीना तो दूर, इस पानी से नियमित नहाने पर लोगों को कैंसर जैसी बीमारियां होने का खतरा बढ़ गया है। गंगाजल में ई-कोलाई जैसे कई घातक बैक्टीरिया पैदा हो रहे हैं, जिनका नाश करना असंभव हो गया है। इसी तरह गंगा में हर रोज 19,65,900 किलोग्राम प्रदूषित पदार्थ छोड़े जाते हैं। इनमें से 10,900 किलोग्राम उत्तर प्रदेश से छोड़े जाते हैं। कानपुर शहर के 345 कारखानों और 10 सूती कपड़ा उद्योगों से जल प्रवाह में घातक केमिकल छोड़े जा रहे हैं। 1400 मिलियन लीटर प्रदूषित पानी और 2000 मिलियन लीटर औद्योगिक दूषित जल हर रोज गंगा के प्रवाह में छोड़ा जाता है। कानपुर सहित इलाहाबाद, वाराणसी जैसे शहरों के औद्योगिक कचरे और सीवर की गंदगी गंगा में सीधे डाल देने से इसका पानी पीने, नहाने तथा सिंचाई के लिए इस्तेमाल योग्य नहीं रह गया है। गंगा में घातक रसायन और धातुओं का स्तर तयशुदा सीमा से काफी अधिक पाया गया है। गंगा में हर साल 3000 से अधिक मानव शव और 6000 से अधिक जानवरों के शव बहाए जाते हैं।इसी तरह 35000 से अधिक मूर्तियां हर साल विसर्जित की जाती हैं। धार्मिक महत्व के चलते कुंभ-मेला, आस्था विसर्जन आदि कर्मकांडों के कारण गंगा नदी बड़ी मात्रा में प्रदूषित हो चुकी है। स्तिथि इतनी विस्फोटक है की अगर व्यक्ति नदी किनारे सब्जी उगाए तो लोग प्रदूषित सब्जियां खाकर ज्यादा बीमार होंगे। इन आकड़ों को देने का अभिप्राय डराना नहीं सचेत करना है | यह सच है की गंगा की सफाई के अभियान में कई सरकारी योजनायें बनी हैं | अरबों रुपये खर्च हुए फिर भी स्थिति  वहीँ की वहीँ है | पर्यावरणीय मानकों के मुताबिक नदी जल के बायोकेमिकल ऑक्सीजन डिमाण्ड (B.O.D )का स्तर अधिकतम 3 मि.ली. ग्राम प्रति लीटर होना चाहिए। सफाई के तमाम दावों के बावजूद वाराणसी के डाउनस्ट्रीम (निचले छोर) पर बीओडी स्तर 16.3 मि.ग्रा. प्रति ली. के बेहद खतरनाक स्तर में पाया गया है। प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की रिपोर्ट दर्शाती है कि गंगा के प्रदूषण स्तर में कोई सुधार नहीं हुआ है। शायद सरकारी योजनायें कागजों पर ही बनती हैं | और उन कागजों में धन का बहाव गंगा के बहाव से भी ज्यादा तेज है | धन तो प्रबल वेग से बह जाता है | पर गंगा अपने आँचल में हमारे ही द्वारा डाली गयी गंदगी समेटे वहीँ की वहीँ रह जाती है | अब सवाल ये उठता है की क्या हम इन सरकारी योजनाओं के भरोसे ( जिनका निष्क्रिय स्वरूप हमने अपनी आँखों से देखा है ) अपनी माँ को छोड़ दें | या माँ को माँ कहना छोड़ दें ? बहुत हो गया पुन्य का लोभ , पीढ़ियाँ बीत गयी गंगा में स्नान करते – करते | अब जब गंगा को स्वयं स्नान की आवश्यकता है तो हम पीछे क्यों हटे | इस का हल … Read more

सभी महिला मित्रों को तीज की हार्दिक शुभकामनाएं

:सभी महिला मित्रों को तीज की हार्दिक शुभकामनाएं ********************************************************* सावन की तीज आई घनघोर घटा छाई मेघन झड़ी लगाईं ,परिपूर्ण मंदिनी झूलन चलो हिंडोलने वृषभानु नंदिनी कल   17 अगस्त को सावन की तीज है |आस्था, उमंग, सौंदर्य और प्रेम का यह उत्सव हमारे सर्वप्रिय पौराणिक युगल शिव-पार्वती के पुनर्मिलन के उपलक्ष्य में मनाया जाता है।  दो महत्वपूर्ण तथ्य इस त्योहार को महत्ता प्रदान करते हैं। पहला शिव-पार्वती से जुड़ी कथा और दूसरा जब तपती गर्मी से रिमझिम फुहारें राहत देती हैं और चारों ओर हरियाली छा जाती है। यदि तीज के दिन बारिश हो रही है तब यह दिन और भी विशेष हो जाता है। जैसे मानसून आने पर मोर नृत्य कर खुशी प्रदर्शित करते हैं, उसी प्रकार महिलाएँ भी बारिश में झूले झूलती हैं, नृत्य करती हैं और खुशियाँ मनाती हैं। तीज के बारे में हिन्दू कथा है कि सावन में कई सौ सालों बाद शिव से पार्वती का पुनर्मिलन हुआ था। पार्वतीजी के 108वें जन्म में शिवजी उनकी कठोर तपस्या से प्रसन्न हुए और पार्वतीजी की अपार भक्ति को जानकर उन्हें अपनी पत्नी की तरह स्वीकार किया।आकर्षक तरीके से सभी माँ पार्वती की प्रतिमा मध्य में रख आसपास महिलाएँ इकट्ठा होकर देवी पार्वती की पूजा करती हैं। विभिन्न गीत गाए जाते हैं।तीज के मुख्य रंग गुलाबी, लाल और हरा है। तीज पर हाथ-पैरों में मेहँदी भी जरूर लगाई जाती है।हरे रंग की चूड़ियों का तीज में विशेष महत्व हैं |  भारतीय नारी के जीवन में चूड़ियों का बहुत ही महत्व है| भारतीय नारियाँ रंग-बिरंगी चमकीली चूड़ियाँ कलात्मक एवं सुरुचिपूर्ण ढंग से पहनकर अपनी कोमल कलाइयों का शृंगार करती हैं। यह शृंगार शताब्दियों से कुमारियों एवं नारियों को रुचिकर प्रतीत होता है, साथ ही स्वजन-परिजन भी हर्षित होते हैं। हाथ की चार चूड़ियाँ उनके अहिवात को सुरक्षित रखने के लिए ही पर्याप्त हैं।आज तीज के दिन पुरानी डायरी पलटते हुए बहुत पहले चूड़ियों पर लिखी गयी कविता नज़र आई | जिसे आप सब के सम्मुख पेश कर रही हूँ क्या -क्या न् सितम  हम पे ये ढाती हैं चूड़ियाँ जब भी कभी कलाई में आती हैं चूड़ियाँ चुभती हैं कलाई में जब खुद से झगड़कर तब और सुर्ख लाल नजर आती हैं चूड़ियाँ हों नीली -पीली या फिर लाल गुलाबी हर रंग में दिल को लुभाती हैं चूड़ियाँ कितना भी चले हम अपने पाँव दबाकर आने की खबर पहले ही दे आती हैं चूड़ियाँ जासूस हैं साजन  की मेरे  जानते हैं  हम फिर भी न जाने  दिल को क्यों भाती  हैं चूड़ियाँ वंदना बाजपेयी

बोनसाई

                        बोनसाई हां ! वही बीज तो था मेरे अन्दर भी जो हल्दिया काकी ने बोया था गाँव की कच्ची जमीन पर बम्बा के पास पगडंडियों के किनारे जिसकी जड़े गहरी धंसती गयी थी कच्ची मिटटी में खींच ही लायी थी तलैया से जीवन जल मिटटी वैसे भी कहाँ रोकती है किसी का रास्ता कलेजा छील  के उठाती है भार तभी तो देखो क्या कद निकला है हवाओ के साथ झूमती हैं डालियाँ कभी फगवा कभी सावन गाते कितने पक्षियों ने बना रखे हैं घोंसले और सावन पर झूलो की ऊँची –ऊँची पींगे हरे कांच की चूड़ियों संग जुगल बंदी करती बाँध देती हैं एक अलग ही समां और मैं … शहर में बन गयी हूँ बोनसाई समेटे हुए हूँ अपनी जड़े कॉन्क्रीट कभी रास्ता जो नहीं देता और पानी है ही कहाँ ? तभी तो ऊँची –ऊँची ईमारते निर्ममता से   रोक लेती है किसी के हिस्से की मुट्ठी भर धूप पर दुःख कैसा ? शहरों में केवल बाजार ही बड़े हैं अपनी जड़े फैलाए खड़े हैं चारों तरफ अपनी विराटता पर इठलाते  अट्हास करते  बाकी सब कुछ बोनसाई ही है बोनसाई से घर घरों में बोनसाई सी बालकनी रसोई के डब्बो में राशन की बोनसाई बटुए में नोटों की बोनसाई रिश्ते –नातों में प्रेम की बोनसाई और दिलो में बोनसाई सी जगह इन तमाम बोंनसाइयों के मध्य मैं भी एक बोनसाई यह शहर नहीं बस  बोंनसाइयों का जंगल  है जो आठो पहर अपने को बरगद सिद्ध करने पर तुले हैं वंदना बाजपेई   atoot bandhan………क्लिक करे