आजादी से निखरती बेटियाँ  

  कुछ दिन पहले एक मौल में शौपिंग कर रही थी कि पांच वर्ष से नौ दस वर्ष की तीन बहनों को देखा जो अपने पिता के पीछे पीछे चल रहीं थी. रैक पर सजे सामानों को छूती और ललचाई निगाहों से पिता की ओर देखती और झट से उसे छोड़ दूसरे चीजों को निहारने लगतीं. इतनी कम उम्र में हिजाब संभालती इन बच्चियों को देख साफ़ पता चल रहा था कि इन्हें यहाँ बहुत कुछ लेने की इच्छा है पर खरीदा वही जायेगा जो पिता चाहेंगें. दिखने में धनाड्य पिता धीर-गंभीर बना अपनी धुन में सामान उठा ट्राली में रख रहा था. वहीँ बच्चियों की माँ पीछे घसीटती हुई गोद के बच्चे को संभालती चल रही थी, जो कुछ भी छूने के पहले अपने पति का मुख देखती थी. अगल-बगल कई और परिवार भी घूम रहें थें, जहाँ बेटियाँ अपनी माँ को सुझाव दे रही थी या पिता पूछ रहें थें कि कुछ और लेनी है. उन बच्चियों को हसरत भरी निगाहों से स्मार्ट कपड़ों में घूमती उन दूसरी आत्मविश्वासी लड़कियों को निहारते देख, मेरे मन में आ रहा था कि जाने वे क्या सोच रही होंगी. उनकी कातरता बड़ी देर तक मन को कचोटते रही. इसी तरह देखती हूँ कि घरों में भाई अक्सर ज्यादा अच्छे होतें हैं पढने में कि वे डॉक्टर, अभियंता या कुछ और बढ़िया सी पढ़ाई कर बड़ी सी नौकरी करते हैं और उसी घर की लडकियां बेहद साधारण सी होती हैं पढ़ने में और अन्तोगत्वा साधारण पढ़ाई कर उनकी शादी हो जाती है. ऐसा कैसे होता कि लडकियां ही कमजोर निकलती हैं उनके भाई नहीं? कारण है भेदभाव जो आज भी अलिखित रूप से हमारे समाज में मौजूद है. बेटियों को ऊँचा सोचने के लिए आसमान ही नहीं मिलता है, बोलने को हिम्मत ही नहीं होती है, पाने को वो मौका ही नहीं मिलता है जो उनके पंख पसार उड़ने में सहायक बने. एक आम सी धारणा है कि बेटियों को दूसरे घर जाना है सो दबा के रखनी चाहिए. उनके मन की हर बात मान उन्हें बहकाना नहीं चाहिए क्यूंकि कल को जब वे ससुराल जाएँगी तो उन्हें तकलीफ होगा. इतनी टोका-टोकी और पाबंदियां बचपन से ही लगा दी जाती है कि बच्चियों का आत्मविश्वास कभी पनप ही नहीं पाता है. आज के युग में भी उनसे अपेक्षा की जाती है कि वे वही काम करें वैसे ही करें जो उनकी माँ, दादी या बुआ कर चुकी हैं. बच्चियों को हर क्षण मानों एहसास दिलाया जाता है कि तुम लड़की हो और तुम इन अधिकारों की हकदार नहीं हो. तुम अकेले कहीं जा नहीं सकती हो, तुम अपनी पसंद के कपडे नहीं पहन सकती, तुम को अपने पिता-भाई की हर बात को माननी ही होगी. स्पोर्ट्स और पसंद के विषय चुनना तो दूर की बात है. ऐसा नहीं है कि समाज में बदलाव नहीं आया है. आया है और बेहद जोरदार तेजी से आया है. उच्च वर्ग और निम्न वर्ग तो सदैव पाबंदियों और वर्जनाओं से दूर रहा है. सारा प्रपंच तो मद्ध्य्म वर्ग के सर पर है. मद्ध्यम वर्ग में भी शहरी लोगो की सोच में बहुत बदलाव आ चुका है जो अपनी बेटियों को भी ज्यादा-कम आजादी दे रहें हैं. पूरी आजादी तो शायद अभी देश में किसी तबके और जगह की लड़कियों को नहीं मिली होगी. ‘आजादी’ देने का मतलब छोटे कपड़े पहनने, शराब पीना या देर रात बाहर घूमने से कतई नहीं होता है, ये तो बेटे या बेटी किसी के लिए भी अवारागार्दियों की छूट कहलाएगी. आजादी से मतलब है बेटी को ऐसे अधिकारों से लैस करना कि वह घर-बाहर कहीं भी खुल कर अपनी बात रख सके. उसका ऐसा बौद्धिक विकास हो सके कि वह अपने जीवन के निर्णयों के लिए पिता-भाई या पति पर आश्रित नहीं रहे. शिक्षा सिर्फ शादी के मकसद से न हो, सिर्फ धार्मिक पुस्तकों  तक ही सीमित न हो बल्कि बेटियों को इतना योग्य बनाना चाहिए ताकि वह आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर हो सके. बच्चियों के स्वाभाविक गुण व् रुझान की पहचान कर उसके विकास में सहयोग करना हर पालक का धर्म है. पालन ऐसा हो कि एक बेटी ‘अपने लिए भी जिया जाता है’, बचपन से सीख सके. वरना यहाँ मानों ‘ससुराल’ और सास’ के लिए ही किसी बेटी का लालन-पालन किया जाता है. अगर यही सोच सानिया मिर्जा, सायना नेहवाल, पी वी सिन्धु या गीता फोगाट के माता-पिता जी का होता तो देश कितनी प्रतिभाओं से के परिचय से भी वंचित रह जाता. बेटे-बेटियों के लालन-पालन का अन्तर अब टूटता दिख रहा है. उन्हें परवरिश के दौरान ही इतनी छूट दी जा रही है कि वह भी अपने भाई की तरह अपनी इच्छाओं को व्यक्त करने लगी है. ‘पराये घर जाना है’ या ‘ससुराल जा कर अपनी मन की करना’ बीते ज़माने के डायलाग होते जा रहें हैं. शादी की उम्र भी अब खींचती दिख रही है, पहले जैसे किसी लड़के के कमाने लायक होने के बाद ही शादी होती थी. आज लोग अपनी बेटियों के लिए भी यही सोच रखने लगें हैं. इस का असर समाज में दिखने लगा है, चंदा कोचर, इंदु जैन, इंदिरा नूई, किरण मजुमदार शॉ आज लड़कियों की रोल मॉडल बन चुकी हैं. परवरिश की सोच के बदलावों से बेटियों की प्रतिभाएं भी सामने आने लगी है. मानव संसाधन देश का सबसे बहुमूल्य संसाधन हैं. उनका विकास ही देश को विकसित बनता है. यदि आधी आबादी पिछड़ी हुई है तो देश का विकास भी असंभव है. जरुरत है प्रतिभाओं का विकास, उनको सही दिशा देना. फिर चाहे वह लड़का हो या लड़की, प्रतिभा को खोज उन्हें सामने लाना ही चाहिए. आजादी से निखरती ये बेटियाँ घर-परिवार-समाज के साथ साथ स्व और देश को भी विकसित कर रहीं हैं. बस जरुरत है कि हर कोई ‘आजादी और स्वछंदता’ के अंतर के भान का ज्ञान रखे. रीता गुप्ता RANCHI, Jharkhand-834008. email id koylavihar@gmail.com

थप्पड़- घरेलू हिंसा का मुखर विरोध जरूरी

  “थप्पड़ से डर नहीं लगता साहेब, प्यार से लगता है” दबंग फिल्म का ये डायलॉग भले ही प्रचलित हुआ हो पर थप्पड़ से भी डरना चाहिए | खासकर जब वो घरेलु हिंसा में एक हथियार की तरह इस्तेमाल हो | इसी विषय पर तापसी पन्नू की एक फिल्म आने वाली है “थप्पड़”| फिल्म का ट्रेलर आते ही इसके चर्चे शुरू हो गए | ट्रेलर के मुताबिक़ पत्नी अपने पति से तलाक लेना चाहती है| इसका कारण है उसने उसे एक थप्पड़ मारा है| “बस एक थप्पड़” यही सवाल महिला वकील का है, उसकी माँ का है, सास का है और समाज के तमाम लोगों का भी है | उसका जवाब है, “हाँ, बस एक थप्पड़, पर नहीं मार सकता”| हम सब को भी अजीब लगता है कि एक थप्पड़ पर कोई तलाक कैसे ले सकता है? उसका जवाब भी ट्रेलर में ही है कि इस एक थप्पड़ ने मुझे वो सारी परिस्थितियाँ साफ़ –साफ़ दिखा दीं जिनको इग्नोर कर मैं शादी में आगे बढ़ रही थी| थप्पड़ -जरूरी है घरेलू हिंसा का मुखर विरोध अपरोक्ष रूप से बात थप्पड़ की नहीं उन सारे समझौतों की है जो एक स्त्री अपनी शादी को बचाए रखने के लिए कर रही है | वैसे शादी अगर एकतरफा समझौता बन जाए तो एक ट्रिगर ही काफी होता है| लेकिन हम अक्सर सौवां अपराध देखते हैं जिसके कारण फैसला लिया गया पर वो निन्यानवें अपराध नहीं देखते जिन्हें किसी तरह क्षमा कर, सह कर, नज़रअंदाज कर दो लोग जीवन के सफ़र में आगे बढ़ रहे थे | अभी फिल्म रिलीज नहीं हुई है इसलिए उसके पक्ष या विपक्ष में खड़े होने का प्रश्न नहीं उठता | इसलिए बात थप्पड़ या शारीरिक हिंसा पर ही कर रही हूँ |इसमें कोई दो राय नहीं कि बहुत सारी महिलाएं घरों में पिटती हैं| हम सब ने कभी न कभी महिलाओं को सड़कों पर पिटते भी देखा ही होगा| सशक्त पढ़ी लिखी महिलाएं भी अपने पतियों से पिटती हैं |हमारी ही संस्कृति में स्त्रियों पर हाथ उठाना वर्जित माना गया है | भीष्म पितामह तो पिछले जन्म में स्त्री रही शिखन्डी के आगे भी हथियार रख  देते हैं | फिर भी  बहनों और माओं के अपने भाइयों और बेटों से पिटने के भी किस्से हमारे ही समाज के हैं| जिन रिश्तों में अमूमन पुरुष के हाथ पीटने के लिए नहीं उठते वहां संस्कार रोकते हैं पर अफ़सोस पत्नी के मामले में ऐसे संस्कार पुरुष में नहीं डाले जाते| जिस बेटे को अपनी पिटती हुई माँ से सहानुभूति होती है वो भी पत्नी को पीटता है| पुन: पति –पत्नी के रिश्ते पर ही आते हुए कहूँगी कि मैंने अक्सर देखा है कि एक स्त्री जिसे एक बार थप्पड़ मारा गया और उसने अगले दिन आँसू पोछ कर वैसे ही काम शुरू कर दिया तो दो दिन बाद उसे थप्पड़ फिर पड़ेगा | और चार दिन बाद हर मारपीट के बाद सॉरी बोलने के बावजूद थप्पड़ पड़ते जायेंगे| सच्चाई ये है कि गुस्से में एक बार हाथ उठाने के बाद संकोच खत्म हो जाता है | फिर वो बार-बार उठता है | लोक भाषा में कहें तो आदमी मरकहा हो जाता है | और औरतें बुढापे में भी पिटती हैं | मैंने ऐसी 70 -75 वर्षीय वृद्धाओं को देखा है जो अपने पतियों से पिट जाती हैं| ये हाथ बुढापे में अचानक से नहीं उठा था ये जवानी से लगातार उठता आ रहा था | आज जब हम बच्चों को पीटने की साइकोलॉजी और दूरगामी प्रभाव पर बात करने लगे हैं तो बात माँ के पिटने पर भी होनी चाहिए| पहले थप्पड़ पर पर तलाक लेना उचित नहीं है | लेकिन इसके लिए पीछे की जिन्दगी की पड़ताल जरूरी है | परन्तु पहला थप्पड़ जो कमजोर समझ कर, या औकात दिखाने के लिए, या पंचिंग बैग समझ कर अपना गुस्सा या फ्रस्टेशन निकालने के लिए किया है गया है तो ये एक वार्निंग कि ऐसा अगली बार भी होगा| किसी भी महिला को इसे हल्के में नहीं लेना चाहिए| इस घरेलु हिंसा का मुखर विरोध जरूरी है | एक बात पर और ध्यान देना चाहिए कि आज बहुत सी लव मैरिज हो रही हैं कई लोग ११ -१२ की नाजुक उम्र से दोस्त हैं | बाद में शादी कर लेते हैं| उनमें धींगामुस्ती, हलके –फुल्के थप्पड़ मार देना चलता रहता है| ये विवाह के बाद भी चलता रहता है| लेकिन यहाँ आपसी समझ और बराबरी में कोई अंतर नहीं होता | ये दोनों तरफ से होता है | इसे नज़रअंदाज कर देना या प्रतिक्रिया व्यक्त करना ये उन दोनों की आपसी अंडरस्टैंडिंग पर निर्भर करता है| लेकिन अगर ये हिंसात्मक है और आत्मसम्मान पर चोट लगती है या पूर्व अनुभव के आधार पर इस बात का अंदाजा हो रहा हो कि ये हाथ बार –बार उठेगा तो पहले ही थप्पड़ पर मुखर विरोध का स्टैंड लेना जरूरी है | क्योंकि वैसे भी अब वो रिश्ता पहले जैसा नहीं रह जाएगा | सबसे अहम् बात चाहे कितना भी कम प्रतिशत क्यों ना हो पुरुष भी पत्नियों के हिंसक व्यवहार के शिकार होते रहे हैं | कुछ स्त्रियाँ थप्पड़ मारने में भी पीछे नहीं है| ऐसे में समाज के डर से या पुरुष हो कर …के डर चुप बैठ जाना सही नहीं है | पहले थप्पड़ का विरोध जरूरी है और रिश्ते की पड़ताल भी | वंदना बाजपेयी आपको   लेख “थप्पड़- घरेलू हिंसा का मुखर विरोध जरूरी   “ कैसा लगा  | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन”की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें |  filed under-crime against women, violence, domestic violence

भागो लड़कियों अपने सपनों के पीछे भागो

अभी हाल ही में उत्तर प्रदेश के विधायक की पुत्री साक्षी के भागकर अजितेश से विवाह करने की बात मीडिया में छाई हुई है | भागना एक ऐसा शब्द है जो लड़कियों के लिए ही इस्तेमाल होता है | जब लड्का अपने मन से विवाह करता है तो भागना शब्द इस्तेमाल नहीं होता है | लेकिन इस प्रकरण ने स्त्री जीवन के कई मुद्दों को फिर से सामने कर दिया है | मुद्दा ये भी उठ रहा है कि लड़कियों को विवाह की अपेक्षा अपना कैरियर बनाने के लिए भागना चाहिए |  आदरणीय मैत्रेयी पुष्पा  जी कहती हैं कि, ” जब लड़की भागती है तो उसका उद्देश्य विवाह ही होता है अपने सपनों के लिए तो लड़की अकेले ही घर से निकल पड़ती है |”  तो .. भागो लड़कियों अपने सपनों के पीछे भागो  सपनों के पीछे भागती लडकियाँ मुझे बहुत अच्छी लगती हैं | ऐसी ही एक लड़की है राखी,  जो मेरी घरेलु सहायिका आरती  की बेटी है | रक्षा बंधन के दिन पैदा होने के कारण उसका नाम राखी रख दिया गया | राखी का कहना है कि मैं घर में सबसे बड़ी हूँ इसलिए सबकी रक्षा मुझे ही तो करनी है | बच्ची का ऐसा सोचना आशा से मन को भरता है | समाज में स्त्री पुरुष का असली संतुलन तो यहीं से आएगा |  राखी की माँ आरती निरक्षर है, लेकिन राखी सरकारी स्कूल में आठवीं कक्षा में पढ़ती हैं | अभी तक हमेशा प्रथम आती रही है, जिसके लिए उसे स्कूल से ईनाम भी मिलता है | कभी –कभी मेरे पास पढ़ने  आती है, तो उसकी कुशाग्र बुद्धि देख कर ख़ुशी होती है | आसान नहीं होता गरीबी से जूझते ऐसे घर मे सपने देखने की हिम्मत करना | जब कि हम उम्र सहेलियां दूसरों के घर में सफाई बर्तन कर धन कमाने लगीं हो और उनके पास उसे खर्च करने की क्षमता भी हो | तब तमाम प्रलोभनों से मन मार कर पढाई में मन लगाना |  फिर भी राखी की आँखों में सपना है | उसका कहना है कि  बारहवीं तक की पढाई अच्छे नंबरों से कर के एक साल ब्यूटीशियन का कोर्स करके अपने इलाके में  एक पार्लर खोलेगी | पार्लर ही क्यों ? पूछने पर कहती है कि , “पार्लर   तो घर में भी खोला जा सकता है, महिलाएं ही आएँगी, माँ कहीं भी शादी कर देगीं तो इस काम के लिए कोई इनकार नहीं करेगा |” बात सही या गलत की नहीं है उसकी स्पष्ट सोच व् अपने सपने को पूरा करने की ललक है |  मैंने अपनी सहायिका  को सुकन्या व् अन्य  सरकारी, गैर सरकारी  योजनाओं के बारे में बताया है | कई बार साथ भी गयी हूँ |आरती को मैं अक्सर ताकीद देती रहती हूँ उसकी पढ़ाई  छुडवाना नहीं | वो भी अब शिक्षा के महत्व को समझने लगी है | कई बार जरूरी कागजात बनवाने के लिए वो छुट्टी भी ले लेती है , जिससे बर्तनों की सफाई का काम मेरे सर आ जाता है, पर उस दिन वो मुझे जरा भी नहीं अखरता | एक बच्ची के सपने पूरे होते हुए देखने का सुख बहुत बड़ा है |  खूब पढ़ो, मेहनत करो राखी तुम्हारे सपने पूरे हों | #भागो_लड़कियों_अपने_सपने_के_पीछे_भागो  नोट – भागना एक ऐसा शब्द है जो लड़कियों के ही साथ जुड़ा है , वैसे भी इसके सारे दुष्परिणाम लड़कियों के ही हिस्से आते हैं | मामला बड़े लोगों का हो या छोटे लोगों का, मायके के साथ संबंध तुरंत टूट जाते हैं | भागते समय अबोध मन को यह समझ नहीं होती कि कोई भी रिश्ता दूसरे रिश्ते की जगह नहीं ले सकता | फिल्मे चाहे कुछ भी कहें पर वो रिश्ते बहुत उलझन भरे हो जाते हैं जहाँ एक व्यक्ति पर सारे रिश्ते निभाने का भार हो | माता -पिता भाई बहन के रिश्ते खोने की कसक जिन्दगी भर रहती है | जिसके साथ गयीं हैं उसके परिवार वाले कितना अपनाएंगे कितना नहीं इसकी गारंटी नहीं होती | जिसको जीवनसाथी के तौर पर चुना है उसके ना बदल जाने की गारंटी भी नहीं होती | ऐसे में अधूरी शिक्षा के साथ अगर लड़की ऐसा कोई कदम भावावेश में उठा लेती है और परिस्थितियाँ आगे साथ नहीं देतीं तो उसके आगे सारे दरवाजे बंद हो जाते हैं | लड़कियों के लिए बेहतर तो यही होगा पहले आत्मनिर्भर हों , अपना वजूद बनाएं फिर अपनी पसंद के जीवन साथी के बारे में सोचें | ऐसे में ज्यादातर माता -पिता की स्वीकृति मिल ही जाती है और अगर नहीं मिलती तो भी भागना जैसा शब्द नाम के आगे कभी नहीं जुड़ता | एक कैद से आज़ाद होने के ख्याल से दूसरी कैद में मत जाओ | #भागो_लड़कियों_अपने_सपने_के_पीछे_भागो  वंदना बाजपेयी  यह भी पढ़ें …. मेरा पैशन क्या है ? माँ के सपनों की पिटारी जब राहुल पर लेबिल लगा भविष्य का पुरुष आपको  लेख “ भागो लड़कियों अपने सपनों के पीछे भागो “ कैसा लगा  | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन”की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके email पर भेज सकें  keywords:key to success , girls, dreams, sakshi mishra, motivation

प्रो लाइफ या प्रो चॉइस …स्त्री के हक़ में नहीं हैं कठोर कानून

माँ बनना दुनिया के सबसे खूबसूरत अनुभवों में से एक है | किसी कली  को अपने अंदर फूल के रूप में विकसित होते हुए महसूस करने का अहसास बहुत सुखद है | कौन स्त्री है जो माँ नहीं बनना चाहती | फिर भी कई बार उसे ग्राभ्पात करवाना पड़ता है | गर्भपात का दर्द बच्चे को जन्म देने के दर्द से कई गुना ज्यादा पीड़ा दायक है …फिर भी स्त्री इससे गुजरने के पक्ष में निर्णय लेती है… तो यकीनन कोई बड़ा मसला ही होगा | ( यहाँ केवल लिंग परिक्षण के बाद हुए गर्भपातों को सन्दर्भ में ना लें , वो गैर कानूनी हैं )परन्तु अब ये बात फिरसे उठने लगी है कि गर्भपात को पूरी तरह से गैर कानूनी करार दे दिया जाए | खास बात ये है कि ये मान किसे विकासशील देश नहीं विकसित देश अमेरिका से उठ रही है | प्रो लाइफ या  प्रो चॉइस …स्त्री के हक़ में नहीं हैं कठोर कानून  प्रो लाइफ और प्रो चॉइस  के पक्ष और विपक्ष का वैचारिक विरोध कोई नयी बात नहीं है | हम सब जीवन के पक्ष में है | फिर भी अगर इन परिस्थितियों पर गौर करा जाए जहाँ स्त्री गर्भपात के अधिकार की मांग करती है … बालात्कार से उत्पन्न बच्चे धोखा देकर भागे प्रेमी से उत्पन्न बच्चे ऐसा भ्रूण जिसे कोई ऐसा रोग हो जो उसे जीवन भर असहाय बना दे | ऐसा भ्रूण जिसका गर्भ में पलना माँ के जीवन को खतरा हो | या स्त्री मानसिक रूप से इसके लिए तैयार ना हो | चाहे इसका कारण उसका कैरियर हो या बच्चा पालने की अनिच्छा | प्रो चॉइस महिलाओं को ये अधिकार देता है कि ये शरीर उनका है और उसमें बच्चे को पालने या जन्म देने का अधिकार  उनका है | जबकी प्रो लाइफ का कहना है कि किसी भी जीव चाहें वो भ्रूण अवस्था में ही क्यों ना हो उसका जीवन खत्म करने का अधिकार किसी को नहीं है | यूँ तो प्रो लाइफ के तर्क बहुत सही लगते हैं ,क्योंकि वो जीवन के पक्ष में है , लेकिन प्रो चॉइस के अधिकार पाने के लिए महिलाओं को बहुत संघर्ष करना पड़ा , क्योंकि गर्भपात हमेशा से कानूनी रूप से गलत माना जाता रहा है |  अभी हाल में अमेरिका के ओकलाहोमा में प्रो लाइफ के पक्ष में निर्णय देते हुए गर्भपात को पूरी तरह से गैर कानूनी बना दिया जिसमें गर्भपात करने वाले डॉक्टर को भी 99 वर्ष के लिए जेल जाना पड़ेगा | जाहिर है कोई डॉक्टर ये खतरा नहीं उठाएगा | ऐसा करने वाला ये राज्य अमेरिका का पांचवां राज्य है | तो क्या महिलाएं गर्भपात नहीं करवाएगी ? जहाँ विवाहित दंपत्ति  प्रेम पूर्ण साथ -साथ रहते हैं वहां वो वैसे भी भी बच्चे को लाने या नहीं लाने का निर्णय साथ –साथ करते हैं और अगर बिना मर्जी के बच्चा आ ही गया तो उसे सहर्ष पाल ही लेते हैं |( फिल्म –बधाई हो जो असली जिंदगी की ही कहानी है  ) परन्तु ऊपर लिखे सभी कारणों में अगर स्त्री  गर्भपात नहीं करवा पाएगीं तो वो क्या करेगी … उन बच्चों ओ जन्म देकर कूड़े में फेंकेंगी , या अनाथालयों मे भेजेंगी ,क्योंकि रेप चाइल्ड या धोखेबाज प्रेमी से उत्पन्न बच्चों को पालने, उस बच्चे को देखकर उस सदमे के साथ हमेशा जीने के लिए विवश करता है , जबकि बच्चे का पिता पूर्ण रूप से उस बच्चे और अपने कर्तव्यों के प्रति आज़ाद रहता है | प्रो चॉइस स्त्री को ये अधिकार देता है कि केवल वो ही दंडित ना हो | या फिर खराब भ्रूण के कारण अल्प मृत्यु का शिकार होंगी | जैसे की भारतीय मूल की सविता की २०१२ में आयरलैंड में मृत्यु हो गयी थी | जिसके गर्भ में पलने वाला भ्रूण खराब था और उससे माँ की जान को खतरा था | परन्तु कोई डॉक्टर गर्भपात  के लिए तैयार नहीं हुआ क्योंकि उस समय वहाँ का कानून यही था कि  किसी भी तरह का गर्भपात गैर कानूनी है | उनके पति द्वारा अदालत में गुहार लगाने के बावजूद सविता को नहीं बचाया जा सका और वो मृत्यु का शिकार हुई |उसके बाद वहां हुए विरोध प्रदर्शनों के मद्देनज़र वहां की सरकार को कानून में बदलाव करना पड़ा कि स्त्री की अगर जान को खतरा हो तो उस भ्रूण का गर्भपात  करवाया जा सकता है | कानून बनने के बाद भी बहुत सी स्त्रियाँ गर्भपात करवाएंगी पर वो अप्रशिक्षित व् अकुशल दाइयों और झोला छाप डॉक्टरों द्वारा होगा …जिसमें स्त्री के जीवन को खतरा है |                             जीवन का अंत करना भले ही सही ना हो परन्तु ख़ास परिस्थितियों में किसी स्त्री , किसी भावी माँ के शारीरिक , मानसिक स्थिति को देखते हुए ये जरूरी हो जाता है कि महिलाओं के पास ये अधिकार रहे कि वो बच्चे को जन्म दे या नहीं | आप क्या कहते हैं ? वंदना बाजपेयी  फेसबुक और महिला लेखन दोहरी जिंदगी की मार झेलती कामकाजी स्त्रियाँ सपने जीने की कोई उम्र नहीं होती करवाचौथ के बहाने एक विमर्श आपको आपको  लेख “  प्रो लाइफ या  प्रो चॉइस …स्त्री के हक़ में नहीं हैं कठोर कानून “ कैसा लगा  | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन”की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें |     filed under-pro-life, pro-choice, abortion, laws for abortion,women issues

दहेज़ नहीं बेटी को दीजिये सम्पत्ति में हक

                    हमारी तरफ एक कहावत है , “ विदा करके माता उऋण हुई, सासुरे की मुसीबत क्या जाने” अक्सर माता –पिता को ये लगता है कि हमने लड़के को सम्पत्ति दी और लड़की को दहेज़ न्याय बराबर , पर क्या ये सही न्याय है ?  दूसरी कहावत है भगवान् बिटिया ना दे, दे तो भागशाली दे |” यहाँ भाग्यशाली का अर्थ है , भरी पूरी ससुराल और प्यार करने वाला पति | निश्चित तौर पर ये सुखद है , हम हर बच्ची के लिए यही कामना करते आये हैं करते रहेंगे , पर क्या सिर्फ कामना करने से सब को ऐसा घर मिल जाता है ?   विवाह क्या बेटी के प्रति माता पिता की जिम्मेदारी का अंत हो जाता है | क्या ससुराल में कुटटी -पिटती बेटियों को हर बार ,अब वो घर ही तुम्हारा है की घुट्टी उनके संघर्ष को कम कर देती है ? क्या विवाह के बाद बेटी के लिए मायके से मदद के सब दरवाजे हमेशा के लिए बंद हो जाने चाहिए ?  दहेज़ नहीं  बेटी को दीजिये  सम्पत्ति में हक  आंकड़े कहते हैं  घरेलु महिलाओं द्वारा की गयी आत्महत्या , किसानों द्वारा की गयी आत्महत्या के मामलों से चार गुना ज्यादा हैं | फिर भी ये कभी चर्चा का विषय नहीं बनती न ही नियम-कानून  बनाने वाले कभी इस पर खास तवज्जो देते हैं | उनमें से ज्यादातर 15 -39 साल की महिलाएं हैं , जिनमें विवाहित महिलाओं की संख्या 71% है | ये सवाल हम सब को पूछना होगा कि ऐसी स्थिति क्यों बनती है कि महिलाएं मायका होते हुए भी इतनी असहाय क्यों हो जाती हैं कि विपरीत परिस्थितियों में मृत्यु को गले लगाना ( या घुट –घुट कर जीना ) बेहतर समझती हैं ? बेटियों को दें शिक्षा    मेरे ख्याल से बेटियों को कई स्तरों पर मजबूत करना होगा | पहला उनको शिक्षित करें , ताकि वो अपने पैरों पर खड़ी हो सकें | इस लेख को पढने वाले तुरंत कह सकते हैं अरे अब तो हर लड़की को पढ़ाया जाता है | लेकिन ऐसा कहने वाले दिल्ली , मुंबई , कानपुर , कलकत्ता आदि बड़े शहरों के लोग होंगे | MHRD की रिपोर्ट के मुताबिक़ हमारे देश में केवल ३३ % लडकियां ही 12th का मुँह देख पाती हैं | दिल्ली जैसे शहर में किसी पब्लिक स्कूल में देखे तो ग्यारहवीं में लड़कियों की संख्या लड़कों की तुलना नें एक तिहाई ही रह जाती है | गाँवों की सच्चाई तो ये हैं कि 100 में से एक लड़की ही बारहवीं का मुँह देख पाती है | इसकी वजह है कि माता -पिता सोचते हैं कि लड़कियों को पहले पढ़ने में खर्च करो फिर दहेज़ में खर्च करो इससे अच्छा है जल्दी शादी कर के ससुराल भेज दो , आखिर करनी तो शादी ही है , कौन सी नौकरी करानी है ? अगर नौकरी करेगी भी तो कौन सा पैसा हमें मिलेगा ? ये दोनों ही सोच बहुत खतरनाक हैं क्योंकि अगर बेटी की ससुराल व् पति इस लायक नहीं हुआ कि उनसे निभाया जा सके तो वो उसे छोड़कर अकेले रहने का फैसला भी नहीं ले पाएंगी | एक अशिक्षित लड़की अपना और बच्चों का खर्च नहीं उठा पाएगी, मजबूरन या तो उस घुटन भरे माहौल में सिसक -सिसक कर रहेगी या इस दुनिया के पार चले जाने का निर्णय लेगी |  बेटी में विकसित करें आत्मसम्मान की भावना   घर में भाई –बहनों में भेद न हो , क्योंकि ये छोटे –बड़े भेद एक बच्ची के मन में शुरू से ही ये भावना भरने लगते हैं कि वो कमतर है | कितने घर है जहाँ आज भी बेटे को प्राइवेट व् बेटी को सरकारी स्कूल में दाखिला करवाया जाता है , बेटे को दूध बादाम दिया जाता है , बेटियों को नहीं | कई जगह मैंने ये हास्यास्पद तर्क सुना कि इससे बेटियाँ जल्दी बड़ी हो जाती हैं , क्या बेटे जल्दी बड़े नहीं हो जाते ? कई बार आम मध्यम वर्गीय घरों में बेटे की इच्छाएं पूरी करने के लिए बेटियों की आवश्यकताएं मार दी जाती हैं | धीरे -धीरे बच्ची के मन में ये भाव आने लगता है कि वो कुछ कम है |  जिसके अंदर कमतर का भाव आ गया उसको दबाना आसान है ,मायके में शुरू हुआ ये सिलसिला ससुराल में गंभीर शोषण का रूप ले लेता है तो भी लड़की सहती रहती है क्योंकि उसे लगता है वो तो सहने के लिए ही जन्मी है |  पूरे समाज को तो हम नहीं  बदल सकते पर कम से कम अपने घर में तो ऐसा कर सकते हैं | बेटी को दें सम्पत्ति में हिस्सा   जहाँ तक सम्पत्ति की बात है तो मेरे विचार से को सम्पत्ति में हिस्सा मिलना चाहिए , उसके लिए ये भी जरूरी है कि दहेज़ ना दिया जाए | ऐसा मैं उन शिक्षित लड़कियों को भी ध्यान में रख कर कह रही हूँ जो कल को अपने व् बच्चों के जीविकोपार्जन कर सकती हैं | कारण ये है कि जब कोई लड़की लम्बे समय तक शोषण का शिकार  रही होती है , तो पति का घर छोड़ देने के बाद भी उस भय  से निकलने में उसे समय लगता है , हिम्मत इतनी टूटी हुई होती है कि उसे लगता है वो नहीं कर पाएगी … इसी डर के कारण वो अत्याचार सहती रहती है |  जहाँ तक दहेज़ की बात है तो अक्सर माता –पिता को ये लगता है कि हमने लड़के को सम्पत्ति दी और लड़की को दहेज़ न्याय बराबर , पर क्या ये सही न्याय है ? जब कोई लड़की अधिकांशत : घरों में जो दहेज़ लड़की को दिया जाता है उसमें उसे कुछ मिलता नहीं है | माता –पिता जो दहेज़ देते हैं उसमें 60: 40 का अनुपात होता है यानि तय रकम में से 60% रकम ( सामान , साड़ी , कपड़ा , जेवर केरूप में ) लड़की के ससुराल जायेगी और 40 % विवाह समारोह में खर्च होगी | सवाल ये है कि जो पैसे विवाह समारोह में खर्च हुए उनमें लड़की को क्या मिला ? यही पैसे जब माता –पिता अपने लड़के की शादी के रिसेप्शन … Read more

महिला सशक्तिकरण : नव संदर्भ एवं चुनौतियां

आठ मार्च यानि महिला दिवस , एक दिन महिलाओं के नाम ….क्यों? शायद इसलिए कि बरसों से उन्हें हाशिये पर धकेला गया, घर के अंदर खाने -पीने के, पहनने-ओढने और  शिक्षा के मामले में उनके साथ भेदभाव होता रहा | ब्याह दी गयी लड़कियों की समस्याओं से उन्हें अकेले जूझना होता था, और ससुराल में वो पाराया खून ही बनी रहती | शायद इसलिए महिला दिवस की जरूरत पड़ी | आज महिलाएं जाग चुकी हैं …पर अभी ये शुरुआत है अभी बहुत लम्बा सफ़र तय करना है | इसके लिए जरूरत है एक महिला दूसरी महिला की शक्ति बने | आज महिला दिवस पर प्रस्तुत है शिवानी जयपुर जी का एक विचारणीय लेख ……..  महिला सशक्तिकरण : नव संदर्भ एवं चुनौतियां सशक्तिकरण, इस शब्द में ये अर्थ निहित है कि महिलाएं अशक्त हैं और उन्हें अब शक्तिशाली बनाना है । ऐसे में एक सवाल हमारे सामने पैदा होता है कि महिलाएं अशक्त क्यों है? क्या हम शारीरिक रूप से अशक्त होने की बात कर रहे हैं? या हम बौद्धिक स्तर की बात कर रहे हैं? या फिर हम जीवन के हर क्षेत्र में उनके अशक्त होने की बात कर रहे हैं फिर चाहे वो शिक्षा, स्वास्थ्य, स्वावलंबन और सामाजिक स्थिति का मुद्दा ही क्यो न हो! मेरा जहां तक मत है ,मुझे लगता है कि हमारी सामाजिक व्यवस्था महिलाओं के अधिकतर क्षेत्रों कमतर या पिछड़ी होने के लिए जिम्मेदार है। उनका पालन पोषण एक दोयम दर्जे के इंसान के रूप में किया जाता है। जिसके सिर पर जिम्मेदारियों का बोझ है। घर चलाने की जिम्मेदारी, घर की व्यवस्थाओं की जिम्मेदारी, बच्चों के पालन पोषण की जिम्मेदारी, घर में रहने वाले बड़े बुजुर्गों की देखभाल की जिम्मेदारी, और कहीं कहीं तो आर्थिक तंगी होने की स्थिति में पति का हाथ उस क्षेत्र में भी बंटाने की अनकही जिम्मेदारी उनके कंधों पर होती है। हालांकि आज इस स्थिति में थोड़ा सा परिवर्तन आया है। बेटियों के पालन पोषण पर भी ध्यान दिया जा रहा है और जो हमारी वयस्क  महिलाएं हैं उनके अंदर एक बड़ा परिवर्तन आया है। ये जो बदलाव का समय था पिछले 20-25 सालों में वह हमारी उम्र की जो मांएं हैं, जिनके बच्चे इस समय 18-20 या 25 साल के लगभग हैं मैंने जो खास परिवर्तन देखा है उनके पालन पोषण में देखा है और महसूस किया है। और मजे की बात यह है कि इन्हीं सालों में महिला सशक्तिकरण और महिला दिवस मनाने का चलन बहुत ज्यादा बढ़ गया है। तो एक सीधा सा सवाल हमारे मन में आता है कि ये जो बदलाव आया है, जागरूकता आई है वो इन सशक्तिकरण अभियान और महिला दिवस मनाने से आई है या कि जागरूकता आने के कारण सशक्तिकरण का विचार आया? ये एक जटिल सवाल है। दरअसल दोनों ही बातें एक दूसरे से इस कदर जुड़ी हुई हैं कि हम इसे अलग कर के नहीं देख सकते। ये एक परस्पर निर्भर चक्र है। जागरूकता है तो प्रयास हैं और प्रयास हैं तो जागरूकता है। पर फिर भी परिणाम संतोषजनक नहीं हैं। पढ़ें – बालात्कार का मनोविज्ञान और सामाजिक पहलू  जब तक महिला सशक्तिकरण को व्यक्तिगत रूप से देखा जाएगा तब तक वांछित परिणाम आ भी नहीं सकते। जिन परिवारों में महिलाओं की स्थिति पहले से बेहतर है, वो आर्थिक रूप से, सामाजिक रूप से और वैचारिक रूप से आत्मनिर्भर हैं उनका परम कर्त्तव्य हो कि अपने पूरे जीवन में वे कम से कम पांच अन्य महिलाओं के लिए भी इस दिशा में कुछ काम करें। कहीं कहीं सशक्तिकरण का आशय स्वतंत्रता समझा गया है और स्वतंत्रता का आशय पुरुषों के अधिकार क्षेत्र में प्रवेश या उनके द्वारा किए जाने वाले काम करने से लिया गया जो कि सर्वथा गलत है और भटकाव ही सिद्ध हुआ। महिला सशक्ति तब है जब वो अपनी योग्यता और क्षमता और इच्छा के अनुसार पढ़ सके, धनोपार्जन कर सके। परिवार में सभी, सभी यानि कि पुरुष सदस्य भी उसके साथ पारिवारिक जिम्मेदारियों को वहन करें। महिला सशक्त तब है जब उसके साथ परिवार का प्रेम और सुरक्षा भी हो। किसी भी प्रकार के सशक्तिकरण के लिए पुरुष विरोधी होना आवश्यक नहीं है। पर इसके लिए पुरुषों की मानसिकता में बदलाव लाना बेहद आवश्यक है। घर की बड़ी बूढ़ी महिलाएं ही इस दिशा में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती हैं। यानि घूम फिर कर गेंद महिलाओं के पाले में ही आ गिरती है।  महिलाओं के सशक्तिकरण की राह में हमारे अंधविश्वास, रूढ़ियां, सामाजिक व्यवस्था और मानसिकता ही सबसे बड़ी बाधा है और इन सबका पीढ़ी दर पीढ़ी पालन और हस्तांतरण भी महिलाओं द्वारा किया जाता है। अगर महिलाएं इनमें कुछ बदलाव करके इसे अगली पीढ़ी को सौंपती हैं तो धीरे धीरे बदलाव आता जाता है। इसमें सबसे बड़ी बाधा है ILK यानि ‘लोग क्या कहेंगे’? पर सच बात तो आज यही है कि लोग तो इंतज़ार कर रहे होते हैं कि कोई कुछ नया बेहतर करे, परंपरा तोड़े तो सबके लिए रास्ता खुले! बस इसी हिम्मत और पहल की आवश्यकता है।  पढ़ें –#Metoo से डरें नहीं साथ दें  मैं यहां एक उदाहरण देना चाहूंगी । एक महिला हैं। उम्र है कोई साठ साल। जे एल एफ में जाती थीं। वहीं से पढ़ने लिखने का शौक हुआ। अपने शहर के एक बड़े व्यापारिक घराने से हैं। अभी हाल ही में उन्होंने कविता लिखना शुरू किया है। परिवार ने हंसी उड़ाई। फिर भी वो लिखती रहीं। फिर उन्होंने अपनी पुस्तक छपवानी चाही। पति को बहुत मुश्किल से मनाया। उन्होंने कहा जितना खर्च हो देंगे पर किसी को पता न चले कि तुमने कोई किताब लिखी है। किताब छपकर आ चुकी है पर उसका विधिवत विमोचन नहीं हो पाया है! क्योंकि परिवार नहीं चाहता। मुझे उनकी बेटियों और बहुओं से पूछना है कि एक स्त्री होकर अगर आप दूसरी स्त्री के लिए, जो कि आपकी मां है, इतना भी नहीं कर सकते तो आप भी कहां सशक्त हैं? आप अपनी कुंठाओं से,डर से जब तक बाहर नहीं आते आप कमज़ोर ही हैं। आज भी किसी सफल महिला को देखकर लोगों को ये कहते सुना जा सकता है कि पति ने बहुत साथ दिया इसलिए यहां तक पहुंची है। पर स्थिति ये भी हो सकती है कि अगर पति ने सचमुच … Read more

बालात्कार का मनोविज्ञान और सामाजिक पहलू

इज्जत के ऐसा शब्द जो सिर्फ औरतों के हिस्से में आया है …..घर के मर्दों का सबसे बड़ा दायित्व भी अपने घर की औरतों की इज्जत बचाना ही है | महिलाएं और इज्जत के ताने -बाने से बुनी सामाजिक सोच से हम क्या उम्मीद कर सकते हैं कि वो बालात्कार पीड़िता  के साथ खड़ा हो पायेगा | क्या अब समय आ गया है कि हम इस पर पुनर्विचार करें | पढ़िए शिवानी जी का एक विचारणीय आलेख … बालात्कार का मनोविज्ञान और सामाजिक पहलू  आगरा की दोनों घटनाओं ने फिर झिंझोड़ कर रख दिया है! दोनों ही घटनाओं में परिचित लड़कों के संलिप्त होने की आंशका निकल रही है। सांजलि के चचेरे भाई की आत्महत्या ने घटना पर नये सिरे से, पर पुराने अनुभवों के आधार पर सोचने पर मजबूर किया है। सिहर उठते हैं नज़दीकी रिश्ते जब दाग़दार होते हैं!  इसमें केवल इंटरनेट या आज के माहौल को दोषी नहीं ठहराया जा सकता। ये तो हर युग में चलता आया है। पहले और अब में अंतर केवल इतना ही आया है कि पहले चुपचाप सहन करते हुए अपने स्तर पर निपटना होता था पर अब खुले तौर पर विरोध करने की हिम्मत जुटी है। पर अगर उस हिम्मत को सामूहिक बलात्कार या जलाकर, एसिड फेंककर तोड़ दिया जाता रहेगा तो सारी तरक्की, सारा विकास बेमानी है। जब तक घरों में पल रहे और छिपे हुए ऐसे मानसिक रोगियों को सामने लाकर दंडित नहीं किया जाएगा तब तक बच्चियों की हर ‘ना’ को यही परिणाम भुगतने होंगे। हमें बलात्कार का मनोविज्ञान और सामाजिक पहलू समझना होगा। बहुत बुरा चक्रव्यूह है! लड़कियां डरती हैं बदनामी से इसलिए चुप रहती हैं। वो चुप रहती हैं इसलिए उन पर ज़ुल्म होते हैं। ज़ुल्म करने वालों को बदनामी से डर नहीं लगता है क्योंकि …. इस क्योंकि के आगे ही आपको हमको मिलकर काम करना है! समाज में लड़कियों की ज़िंदगी,उनकी इज़्ज़त से जुड़ी हुई है और इज़्ज़त शरीर से जुड़ी हुई है! तो पुरुष की इज़्ज़त शरीर से क्यों नहीं जुड़ी हुई? चूंकि स्त्री को सिर्फ मादा शरीर माना गया है, इंसान माना ही नहीं गया है। या तो शरीर या फिर देवी, पूजनीय मानकर इंसान होना उससे वंचित रखा गया है। और उस शरीर को भी खुद पर मालिकाना हक नहीं। वो भी किसी न किसी पुरुष के पास है। पिता के साथ है तो वहां पिता किसी वस्तु की तरह दूसरे पुरुष को दान कर देगा। दान में प्राप्त वस्तु पर वह पति बनकर मालिकाना हक रखता है। कब?कब इंसान बनकर जीती है स्त्री? ये मालिकाना हक़ की भावना ही है जो कि बलात्कार की शिकार लड़की को समाज में जीने नहीं देती है। इस्तेमाल की हुई चीज़ को कोई पुरुष स्वीकार नहीं करेगा तो माता पिता के लिए कन्या ऐसा बोझ हो जाएगी जिसे किसी को दान देकर वो मुक्त नहीं हो सकते! इसलिए अपने शरीर को सुरक्षित रखने के लिए स्त्री पर दबाव होता है। और सबसे निकृष्ट बात ये कि शरीर को दूसरों की सेवा करने में गला सकती है, छिजा सकती है पर अपने आनंद के लिए इस्तेमाल नहीं कर सकती। यहां मैं प्रेम की बात कर रही हूं। आप देखिए कि प्रेम प्रसंगों में भी अगर कोई स्त्री शारीरिक संबंध स्थापित करती है तो समाज उसे स्वीकारता नहीं! उसके पीछे भी मानसिकता यही है कि अपने शरीर का इस्तेमाल अपने सुख, अपनी खुशी के लिए नहीं कर सकती है क्योंकि शरीर पर हक़ किसी और का, किसी पुरुष का है। किसी भी नर-मादा संबंध में केवल एक की ही इज़्ज़त खराब कैसे हो जाती है? चाहे प्रेम संबंध हों या बलात्कार, शरीर दोनों का इस्तेमाल हुआ है तो दोष दोनों को लगना चाहिए। पर नहीं! कलंक स्त्री के माथे पर ही लगता है! कारण वही है… जिसके बारे में सोचना हमने वर्जित किया हुआ है। जिस दिन बलात्कार की शिकार लड़की बिना झिझके घर से बाहर निकल सकेगी, लोगों के लिए दया की या घृणा की पात्र नहीं रहेगी, त्यजात्य नहीं रहेगी बल्कि वो इंसान जिसने बलात्कार किया है , समाज द्वारा दंडित किया जाएगा, बहिष्कृत किया जाएगा और घरों से बाहर फेंक दिया जाएगा, उस दिन कहिएगा कि हां लड़कियों-महिलाओं को भी शरीर से अलग इन्सान समझा जा रहा है। जब तक समाज में लड़कियों को एक मादा शरीर के रूप में ही मान्यता मिली हुई है तब तक उनका शोषण  (अलग से ‘शारीरिक शोषण’ कहना आवश्यक नहीं है) होता रहेगा। जितनी भी महिलाओं को मेरी बात से सहमति नहीं है वे अपने मन में झांकें, टटोलें कि अपने बचपन से अपनी बेटी के जवान होने तक, उन्होंने कितनी बार चाहे-अनचाहे स्पर्शों के लिए खुद को परेशान न किया होगा! आक्रोश के साथ साथ अपराध बोध न रहा होगा! काश कि स्त्री का जीवन ,उसका चरित्र केवल और केवल उसका शारीरिक मसला नहीं होता! और साथ ही पुरुष का जीवन, उसका चरित्र भी शारीरिक मसला होता तो समाज में न बलात्कार होता न उसका ख़ौफ़ होता! जैसे राह चलते दुर्घटना हो जाती है वैसे ही शारीरिक संबंध का मामला भी होता। यकीन मानिए इससे कोई अराजकता नहीं फैलती और ना ही दुनिया इसी में लिप्त रहती!  कौन चाहता है दुर्घटनाग्रस्त होना? तो ऐसे ही कोई नहीं चाहेगा अनावश्यक रूप से शारीरिक संबंध बनाना। पर बन जाए तो दुर्घटना में घायल की तरह ही इलाज कराते और ठीक हो जाते। काल्पनिक बात लगती है। हमारे समाज में लड़के-लड़कियों के लिए शारीरिक पवित्रता के मापदंड युगों-युगों से अलग अलग बने हुए हैं कि उनको समान करने के लिए और कई युग लग जाएंगे। मालिकाना हक़ की भावना पुरुष में इतनी गहरे पैठी हुई है कि उसको उखाड़ कर अलग करने के लिए खुरचना होगा। उस खुरचने में वो घायल भी होगा । अब भला कोई खुद को घायल कैसे कर सकता है! इसलिए उसके आसपास की महिलाएं ही ये कर सकती हैं। बुजुर्ग महिलाओं को शुरुआत करनी चाहिए। अपने नाती पोतों को बदलाव के लिए तैयार करें। हमारी पीढ़ी की महिलाओं को अपने बच्चों को इस बदलाव के लिए तैयार करना चाहिए। असंभव कुछ भी नहीं है! शरीर के मामले लड़के-लड़कियों के लिए समान रूप से महत्वपूर्ण होने चाहिए। इंसान के रूप में दोनों को समान … Read more

#Metoo से डरें नहीं साथ दें

#Metoo के रूप में समय अंगडाई ले रहा है | किसी को ना बताना , चुप रहना , आँसू पी लेना इसी में तुम्हारी और परिवार की इज्ज़त है | इज्ज़त की परिभाषा के पीछे औरतों के कितने आँसूं  कितने दर्द छिपे हैं इसे औरतें ही जानती हैं | आजिज़ आ गयी हैं वो दूसरों के गुनाहों की सजा झेलते -झेलते ,इसी लिए उन्होंने तय कर लिया है कि दूसरों के गुनाहों की सजा वो खुद को नहीं देंगी | कम से कम इसका नाम उजागर करके उन्हें मानसिक सुकून तो मिलेगा |  #Metoo से डरें नहीं साथ दें  #Metoo के बारे में उसे नहीं पता हैं , उसे नहीं पता है कि इस बारे में सोशल मीडिया पर कोई अभियान चलाया जा रहा है , उसे ये भी नहीं पता है कि स्त्रियों के कुछ अधिकार भी होते हैं , फिर भी उसके पास एक दर्द भरा किस्सा है कि आज घरों में सफाई -बर्तन करने आते हुए एक लड़के ने साइकिल से आते हुए तेजी से उसकी छाती को दबा दिया , एक मानसिक और शारीरिक पीड़ा से वो भर उठी | वो जानती है ऐसा पहली बार नहीं हुआ है तब उसने रास्ता बदल लिया था , उसके पास यही समाधान है कि अब फिर वो रास्ता बदल लें | उसे ये भी नहीं पता वो कितनी बार रास्ता बदलेगी?वो जानती है वो काम पर नहीं जायेगी तो चूल्हा कैसे जलेगा , वो जानती है कि माँ को बाताएगी तो वो उसी पर इलज़ाम लगा देंगीं … काम पर फिर भी आना पड़ेगा | उसके पास अपनी सफाई का और इस घटना का कोई सबूत नहीं है … वो आँखों में आँसूं भर कर जब बताती है तो बस उसकी इतनी ही इच्छा होती है कि कोई उसे सुन ले |  लेकिन बहुत सी महिलाएं घर के अंदर, घर के बाहर सालों -साल इससे कहीं ज्यादा दर्द से गुजरीं हैं पर वो उस समय साहस नहीं कर पायीं , मामला नौकरी का था , परिवार का था रिश्तों का था , उस समय समाज की सोच और संकीर्ण थी , चुप रह गयीं , दर्द सह गयीं | आज हिम्मत कर रहीं हैं तो उन्हें सुनिए , भले ही आज सेलेब्रिटीज ही हिम्मत कर रहीं हैं पर सोचिये जिनके पास पैसा , पावर , पोजीशन सब कुछ था , मंच था वो सालों -साल सहती रहीं तो सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है कि आम महिला कितना कुछ सहती रही होगी | आज ये हिम्मत कर रहीं हैं तो उम्मीद की जा सकती है शायद कल को वो भी बोले … कल को एक आम बहु बोले अपने ससुर के खिलाफ, एक बेटी बोले अपने पिता या भाई के खिलाफ …. समाज में ऐसा बहुत सा कलुष है जिसे हम कहानियों में पढ़ते हैं पर वो कहानियाँ जिन्दा पात्रों की ही होती हैं ना | इस डर से कि कुछ मुट्ठी भर किस्से ऐसे भी होंगे जहाँ झूठे आरोप होंगे हम 98 % लोगों को अपनी पीड़ा के साथ तिल -तिल मरते तो नहीं देखना चाहेंगे ना | कितने क़ानून हैं , जिनका दुरप्रयोग हो रहा है , हम उसके खिलाफ आवाज़ उठा सकते हैं पर हम कानून विहीन निरंकुश समाज तो नहीं चाहते हैं | क्या पता कल को जब नाम जाहिर होने का भय व्याप्त हो जाए तो शोषित अपराध करने से पहले एक बार डरे | इसलिए पूरे विश्वास और हमदर्दी के साथ उन्हें सुनिए ….जो आज अपने दर्द को कहने की हिम्मत कर पा रहे हैं वो भले ही स्त्री हो , पुरुष हों , ट्रांस जेंडर हो या फिर एलियन ही क्यों न हो उन्हें अपने दर्द को कहने की हिम्मत दीजिये | एक पीड़ा मुक्त बेहतर समाज की सम्भावना के लिए हम इतना तो कर ही सकते हैं … हैं ना ? वंदना बाजपेयी यह भी पढ़ें … #Metoo -सोशल मीडिया पर दिशा से भटकता अभियान  हमारे व्यक्तिव को गढ़ने के लिए हर मोड़ पर मिलते हैं शिक्षक दोहरी जिंदगी की मार झेलती कामकाजी स्त्रियाँ मुझे जीवन साथी के एवज में पैसे लेना स्वीकार नहीं आपको ” #Metoo से डरें नहीं साथ दें  “कैसे लगी अपनी राय से हमें अवगत कराइए | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन“की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें | filed under-hindi article, women issues, #Metoo

#metoo -सोशल मीडिया पर दिशा से भटकता अभियान

सबसे पहले तो आप सब से एक प्रार्थना जो भी अपना दर्द कह रहा है चाहे वो स्त्री हो , पुरुष हो , ट्रांस जेंडर हो या फिर एलियन ही क्यों ना हो उसे कहना का मौका दें , क्योंकि यौन शोषण एक ऐसा मुद्दा है जिस के ऊपर बोलने से पहले शोषित को बहुत हिम्मत जुटानी होती है | अब जरा इस तरफ देखिये ….. #metoo आज से सालों पहले मेरी सास ननद ने मुझे दहेज़ का ताना दिया था | स्कूल में मेरी सहेलियों ने मुझे धोखा दिया वो कहती थीं कि वो पढना नहीं चाहती ताकि मैं न पढूँ और वो चुपके से पढ़ लें और मुझसे आगे निकल जाए |जिस दिन मुझे उनकी इस शातिराना चाल का पता चला मैं अंदर से टूट गयीं | मेरी अपनी ही बहने , भाभियाँ , सहेलियां मेरा लम्बा/नाटा , मोटा/पतला, पूरब/पश्चिम , उत्तर/ दक्षिण का होने की वजह से मुझे अपने ग्रुप से अलग करती रहीं और मेरा मजाक बनाती रहीं | ऑफिस में साहित्य-जगत में महिलाओं ने अपने तिकड़मों द्वारा मेरे कैरियर को आगे बढ़ने से रोका | ये सारी बातें हम सब को बहुत तकलीफ देती हैं इसका दर्द मन में जीवन भर रहता है ,ताउम्र एक चुभन सी बनी रहती है | पर माफ़ कीजियेगा ये सारी बातें metoo हैश टैग के अंतर्गत नहीं आती ये प्रतिस्पर्द्धा हो सकती है , जलन हो सकती है , छोटी सोच हो सकती है , ये सारे शोषण स्त्रियों द्वारा स्त्रियों पर करे हो सकते हैं पर ये यौन शोषण नहीं है | क्या सफलता /असफलता का दर्द एक रेप विक्टिम के दर्द बराबर है ? क्या उस ट्रामा के बराबर है जिससे भुक्तभोगी हर साँस के साथ मरती है | तो फिर इस के अंतर्गत ये सारी बातें करके हम एक महिला को दूसरी महिला के विरुद्ध खड़ा करके उस हिम्मत को तोड़ रहे हैं जो महिलाएं अपने ऊपर हुए यौन शोषण के खिलाफ बोलने का दिखा रही हैं | दुर्भाग्य से सोशल मीडिया पर ये हो रहा है | इस बात से कभी इनकार नहीं किया जा सकता कि मानसिक शोषण बहुत पीड़ादायक होता है | ये समाज इस तरह से बना है कि हम किसी को रंग , वजन , लम्बाई , कम बोलने वाला/ ज्यादा बोलने वाला , इस प्रदेश का , आदि मापदंडों पर उसे कमतर महसूस करा कर उसका मानसिक शोषण करते हैं इस तरह का शोषण पुरुष व् महिलाएं दोनों झेलते हैं जो निंदनीय है | ये भी सही है कि महिलाएं भी महिलाओं का शोषण करती हैं | कार्य क्षेत्र में आगे बढ़ने की होड़ में कई बार वो इस हद तक गिर जाती हैं कि दूसरे को पूरी तरह कुचल कर आगे बढ़ जाने में भी गुरेज नहीं करती | जो नौकरी नहीं करती , वहाँ सास-बहु इसका सटीक उदाहरण हैं | ये सब हम सब ने भी झेला है पीड़ा भी बहुत हुई है | जिसके बारे में कभी अपनी बहन को , कभी पति को , कभी किसी दूसरी सहेली को खुल कर बताया भी है | उनके सामने रोये भी हैं | लेकिन #metoo आन्दोलन यौन शोषण के खिलाफ है जिस विषय में महिलाएं (या पुरुष भी) अपनी बहन को नहीं बता पाती , माँ को नहीं बता पाती , सहेली को नहीं बता पातीं अन्दर ही अंदर घुटती हैं क्योंकि इसमें हमारा समाज शोषित को ही दोषी करार दे देता है | आज महिलाएं मुखर हुई हैं और वो किस्से सामने ला रहीं हैं जो उन्होंने खुद से भी छुपा कर रखे थे , जो उन्हें कभी सामान्य नहीं होने देते , एक लिजलिजे घाव को छुपाये वो सारी उम्र चुप्पी साधे रहती हैं | खास बात ये हैं स्त्री ने अपनी शक्ति को पहचाना है | #metoo आन्दोलन के रूप में महिलाएं अपने शोषण के वो किस्से ले कर सामने आ रहीं हैं जिसे वो खुद से भी छुपा कर रखतीं थी | एक शोषित अपने ऊपर हुए यौन शोषण के बारे में बोल नहीं सकती थी क्योंकि पूरा समाज महिलाओं के खिलाफ था , बोलने पर उसे सजा मिलनी थी , उसकी पढाई छुड़ा दी जाती , नौकरी छुडा दी जाती , उसकी जल्दी से जल्दी शादी करा दी जाती | उसके कपड़ों , चाल -चलन बातचीत पर दोष लग जाता था | उसके पास दो ही रास्ते थे या तो वो बाहर जा कर अपने अस्तित्व की लड़ाई लडती रहे या घर में कैद हो जाये | सजा शोषित को ही मिलनी थी | जैसा की पद्मा लक्ष्मी ने कहा कि जब उन्होंने सात साल की उम्र में एक परिचित का अभद्र व्यवहार अपनी माँ को बताया तो उनकी माँ ने उन्हें एक साल के लिए दादी के पास भारत भेज दिया | फिर उन्होंने माँ से कभी इस बारे में कुछ साझा नहीं किया | आज ये चुप्पी टूट रही है महिलाएं ये सब कहने का साहस जुटा रहीं हैं | कई नाम से और कई गुमनाम हो कर पोस्ट डाल रहीं हैं | वहीँ महिलाओं पर ये प्रश्न लग रहे हैं तब क्यों चुप थीं ? आश्चर्य है की इस प्रश्न को पूछने वाली महिलाएं भी हैं और एक रेप विक्टिम को अमेरिका के सुप्रीम कोर्ट के जज की कुर्सी पर 49 /51 से जीता कर बैठने वाली भी | आखिर क्यों हम एक दूसरे की ताकत नहीं बनना चाहते ? कुछ पुरुष जिनका यौन शोषण हुआ है वो भी सामने आ रहे हैं | दुर्भाग्य से पुरुषों ने उनका साथ नहीं दिया , वो उनका मजाक उड़ाने लगे कि पुरुषों का भी कहीं यौन शोषण होता है | प्रसिद्द कॉमेडी शो ब्रुक्लिन९९ के टेरी ने जब एक हाई प्रोफाइल व्यक्ति पर यौन शोषण का आरोप लगाया था तो उसका यही कहना था कि इस दर्द से गुज़र कर मैंने ये जाना कि महिलाएं , हर जगह कितना झेलती हैं और किस कदर अपने दर्द के साथ चुप रह कर जीती हैं | तभी उन्होंने फैसला लिया कि वो अपना किस्सा सबके सामने लायेंगे ताकि महिलाएं भी हिम्मत करें वो कहने की जिसमें वो शोषित हैं , दोषी नहीं हैं | उन्हें मृत्यु की धमकी मिली पर व् लगातार लिखते … Read more

प्रथम गुरु

अक्सर ऐसा कहा जाता है कि बालक की प्रथम गुरु उसकी माता होती है परंतु मैं इस बात से सहमत नहीं हूं। माता भी एक इंसान है और उसके अपने सुख-दुख हैं । कुछ चीजों से वह विचलित हो सकती है , कभी वह उद्वेलित भी हो सकती है । लेकिन उसको गुरु रूप में हम स्थापित करते हैं तो उससे अपेक्षा करते हैं कि वह इन भावनाओं पर काबू रखें और कभी भी कठोर प्रतिक्रिया ना दें । वह हमेशा सद्गुणों से भरपूर रहे अपने बच्चों को अच्छी शिक्षा दें ।घर में माहौल अच्छा रखे ताकि बच्चों में अच्छे संस्कार पड़ें। मगर यह सारी चीजें हम स्त्री से ही क्यों अपेक्षित रखते रखते हैं जबकि बच्चों की परवरिश में घर के दूसरे लोगों का भी पूरा प्रभाव पड़ता है।  प्रथम गुरु                                     अगर किसी का पति शराबी है या गुस्से वाला है, घर में माहौल अच्छा नहीं रखता है तो उसका प्रभाव क्या बच्चों पर नहीं पड़ेगा?एक स्त्री प्रभावों से, नहीं बल्कि कुप्रभाव कहना चाहिए,घर के माहौल के प्रभाव से अपने बच्चे को कैसे अछूता रख सकती है? ये जो हम मां को गुरु के रूप में ,शिक्षक के रूप में ,प्रथम शिक्षक के रूप में स्थापित करते हैं वह मेरी नजर में स्त्री पर अत्याचार है ! यह अमानवीय व्यवहार है ! जो उसकी भावनाएं है उन्हें वह क्यों सबके सामने व्यक्त नहीं कर सकती?  अगर कोई बच्चा अच्छा संस्कारी है तो उसमें परिवार का नाम बताइऐंगे कि अरे वाह !कितने अच्छे परिवार का बच्चा है! देखो उसके संस्कार कितने अच्छे हैं! और इसके विपरित अगर कोई बच्चे में कोई बुरी आदतें हैं ,कुछ गलत संस्कार है तो मां का नाम लेते हैं कि इसकी मां ने कुछ नहीं सिखाया ! अरे सिखाने की सारी जिम्मेदारी अकेले मां की है क्या?  परिवार के बाकी सदस्य भी ज़िम्मेदार होते हैं।और सबसे महत्वपूर्ण है पिता! पिता की भूमिका को बच्चे पालने के लिए क्यों नजरअंदाज किया जाता है जबकि घर के वातावरण के लिए पिता बराबर से जिम्मेदार होता है !अगर पिता शराबी है या गुस्से वाला है, घर में वातावरण अच्छा नहीं रहता है !बच्चों में भय का वातावरण रहता है !तो आप एक मां से अपेक्षा करते हैं कि वह उस वातावरण से बच्चों को दूर रखे! पर सोचिए क्या वो इंसान नहीं है ? वो भी पति के भय से भयभीत है। तो ऐसे में आप उससे सहज रहने के अमानवीय व्यवहार की अपेक्षा रखते हैं! कि वह सारे दुख दर्द चुपचाप सहते हुए बच्चों के सामने हंसती मुस्कुराती रहे और एक अच्छा माहौल बच्चों को दे! मैं इस चीज को अत्याचार जैसा महसूस करती हूं ! ये ठीक है कि वह अधिकतर अपनी माता के पास में रहता है इसलिए सबसे ज्यादा कोशिश मां को करनी चाहिए। पर आप सोचिए कि जो मां के जीवन में सब कुछ ठीक है तो उसके लिए सब कुछ आसान है। लेकिन यदि उसके जीवन में केवल कष्ट और पीड़ाएं ही हैं तो कैसे उससे अपेक्षा करते हैं कि सहजता से रहे!  यह सारी चीजें उसके ऊपर दबाव डालती हैं कि वह बच्चे के सामने सामने आए तो सदा हंसते मुस्कुराते हुए आए ! और एक आदर्श स्त्री की भूमिका में आए! क्यों भाई ?आप उसे इंसान नहीं समझते हैं ? पति चाहे जो करे, सास ससुर कितना अपमान करें ,दुख दर्द सहते सारे दिन रात वो काम में खटती रहे !लेकिन जहां बात आती है कि बच्चों के सामने वह आए तो उसे एक आदर्श मां के रूप में सामने आना चाहिए !बहुत ही गलत बात है !इतना दबाव क्यों डालना चाहिए? अगर यह दबाव नहीं हो कि मां प्रथम गुरु है ,बच्चा जो कुछ सीखता है वह मां सीखता है! तो घर के अन्य सदस्यों की जिम्मेदारी भी तय होगी और वह भी अपने आप को बच्चे के पालन पालन पोषण के लिए जिम्मेदार मानेंगे! और घर में माहौल सही रखने के लिए अपने व्यवहार और आचार विचार पर नियंत्रण रखने को बाध्य होंगे।सबकी सहभागिता सुनिश्चित हो तो निश्चित रुप से घर में माहौल अच्छा रखने के लिए सब प्रयास करेंगे और मां अनावश्यक दबाव से मुक्त होकर अन्य सदस्यों की तरह ही सहजता से अपना जीवन जी सकेगी। सहजता से अपना जीवन बिताने के लिए स्त्री स्वतंत्र क्यों नहीं है? अगर उसे कष्ट है, दुख है, भयभीत है वो तो इसे बच्चों से क्यों छुपाए? इसलिए कि उनके कोमल मन पर दुष्प्रभाव पड़ेगा! बच्चों की प्रथम शिक्षक होने के दबाव में ही वो बच्चों के सामने हंसती मुस्कुराती है! छुप छुप कर रोती है। जबकि सच तो ये है कि बच्चे घर में सभी से कुछ न कुछ सीखते हैं जिनके भी संपर्क में वह दिन भर आते हैं उन सब से वह कुछ न कुछ सीखते हैं। बच्चे स्पंज की तरह होते हैं अपने आसपास के वातावरण से,माहौल से हर पल कुछ न कुछ सीखते रहते हैं। आपको पता भी नहीं चलता जब तक कि उस स्पंज को निचोड़ा ना जाए ! यानि कि जब बच्चे के मन से ज़बान से बात बाहर आएंगी तभी आपको पता चलेगा कि उसने क्या सीखा है !तो वह सारा दिन केवल मां के पास ही तो नहीं रहता है !अगर संयुक्त परिवार है या बड़ा परिवार है तो हर इंसान से, हर उस इंसान से सीखता है जिसके पास वो पल भर भी रह जाता है !मां के ऊपर यह दबाव है कि वह पहली गुरु है , उससे उसे को बाहर निकालना हमारी जिम्मेदारी है ! उसके ऊपर जो एक आदर्श होने का चोला हमने उसको जबरदस्ती पहनाया हुआ है वह बहुत ही अमानवीय व्यवहार है! वो मां होने के साथ साथ एक इंसान भी है ! उसे दुख है तो दुखी होने दीजिए! भयभीत है तो कहने दीजिए !उसे इन चीजों को छुपाने के लिए मजबूर मत करिए! शिक्षक होने का दबाव है उसकी वजह से वह अपने बच्चों से बहुत कुछ छुपाती है !जबकि उन्हीं बच्चों को सब कुछ पता होना चाहिए! एक मात्र जिम्मेदारी स्त्री को सौंपकर पूरा परिवार जिम्मेदारी से मुक्त कैसे हो सकता है?  दरअसल … Read more