जब आप किसी की तरफ एक अँगुली उठाते हैं तो तीन अंगुलियाँ आप कीतरफ उठती हैं

भा भू अ पुरस्कार – प्रसंग सात समंद की मसि करौं स्त्री लेखको को जो लानतें – मलानतें पिछले दिनों भेजी गईं , उसका निरपेक्ष विश्लेषण कुछ महत्वपूर्ण प्रश्न खड़े करता है. साथी पुरुषों से अनुरोध है कि जरा रुक कर सोचें — • क्या आपको सचमुच यह लगता है कि स्त्रियाँ सिर्फ शरीर हैं और उनका प्रज्ञा पक्ष बाधित है ? उनमें सिर्फ पाशविक संवेदनाएँ हैं और निरपेक्ष निर्णय का विवेक उन्हें छू तक नहीं गया, राग द्वेष से ऊपर उनका कोई निर्णय हो ही नहीं सकता ?  • क्या आपके मन में अपनी बेटियों के लिए ऐसे समाज की कल्पना है जहाँ कोई स्त्री सहज स्नेहवश किसी को घर बुला ही नहीं सकती. क्या घर एक ऐसा “रेजिमेंटेंड स्पेस” होना चाहिए जहाँ सिर्फ पुरुषों के मेहमान विराजें? क्या आपकी माँओं ने आपके दोस्तों को कभी लाड़ में आकर घर नहीं बुलाया ? क्या आप पत्नी के दोस्त / रिश्तेदारों / सहकर्मियों के लिए घर के दरवाज़े बंद रखते हैं? क्या हम मध्यकालीन समाज में रह रहे हैं जहाँ हर प्रौढ़ स्त्री “कुट्टिनी” ही होती थी और हर युवा स्त्री “मनचली ?”  • क्या सहज मानवीय गरिमा की रक्षा में उठी आवाज जातिसूचक और लिंगभेदी गालियों ( कुंजरिन) आदि से कीलित की जानी चाहिए ?  क्या यह जेल जाने लायक कृत्य नहीं है ? कोई प्रखर स्त्री सार्वजनिक मंच से गंभीर प्रश्न उठा रही हो , उस समय उसका नख-शिख वर्णन करने लगना क्या उसे थप्पड़ मारने जैसा नहीं है ?  • क्या आपको ऐसा नहीं जान पड़ता कि घर- गृहस्थी चलाने वाली कामकाजी औरतों के पास मरने की भी फ़ुर्सत नहीं होती? पहले की स्त्रियाँ तन – मन से सेवा करती थी पर सिर्फ अपने घर की. अब की कामकाजी स्त्रियाँ तन-मन-धन से घर बाहर दोनों सींचती हैं, लगातार इतना श्रम करती हैं , समय चुरा कर लिखती – पढती भी हैं, तो किसलिए ? इसी महास्वप्न के तहत कि बिना दीवारों का एक बंधु परिवार गढ़ पाएँ जहाँ मीरां की प्रेम-बेल वर्ण वर्ग नस्ल और संप्रदाय की कँटीली दीवारें फलांगती हुई अपनी स्नेह-छाया दुनिया के सब वंचितों और परेशानहाल लोगों पर डाल पाए ताकि उनकी अंतर्निहित संभावनाएँ मुकुलित हो पाएँ ? • क्या यह जरुरी नहीं कि हम अपने युवा साथियों में भाषिक संवेदना विकसित होने दें और उन्हें बताएं कि फ़तवे जारी करने से अपनी ही प्रतिभा कुंठित होती है. किसी के चरित्र पर या उसके लेखन पर कोई क्रूर टिप्पणी आपकी अपनी ही विश्वसनीयता घटाती है. किस बड़े आलोचक ने ऐसा किया ? आलोचना की भाषा में तो माली का धैर्य चाहिए.  बड़े प्रतिरोध की आलोचनात्मक भाषा तो और शिष्ट और तर्कसम्मत होनी चाहिए- घृणा और आवेग से काँपती हुई भाषा यही बताती है कि आपके बचपन में आप पर ध्यान नहीं दिया गया और अब आपने अपने लिए ग़लत प्रतिमान चुने. क्या आपको ऐसा नहीं लगता कि यह स्थिति आपको करुणास्पद बनाती है या हास्यास्पद ? मुक्तिबोध ने कवि को ” आत्मा का जासूस” कहा था. परकायाप्रवेश की क्षमता ही किसी को बड़ा कवि बनाती है. एकबार ठहर भर कर क्या आपने सोचा कि क्या उस नवांकुर को कैसा लग रहा होगा इस समय जिसने ” बच्चे धर्मयुद्ध लड़ रहे हैं” जैसी संवेदनशील कविता लिखी. हृदय से कृतज्ञ हूँ उन सभी साथियों की जो बिना किसी आह्वान के, सहज नैतिक तेजस्विता की माँगलिक प्रेरणा से यातना की इन अंधेरी रातों में हमारे साथ बने रहे.  मैं फेसबुक पर नहीं हूँ पर साथियों ने आप सबके नाम मुझ तक पहुँचा दिए हैं और मैंने अपनी कल्पना का एक बंधु परिवार गढ़ भी लिया है जिसका निर्णायक रक्त या यौन-संबंध नहीं, सहज स्नेह और ममता का नाता है. इस बहाने हम ऊर्ध्वबाहु संकल्प लेते हैं हैं कि ( विमर्शों द्वारा प्रस्तावित) भाषी औज़ारों से लड़े जाने वाले मनोवैज्ञानिक युद्ध में हम हमेशा साथ बने रहेंगे. #अनामिका  गीता श्री की फेसबुक वाल से साभार फोटो क्रेडिट – शब्दांकन

नारी मन – ये खाना – खाना क्या लगा रखा है ?

जब भी आँखें बंद करके माँ को याद करती हूँ तो कभी कमर पर पल्लू कस कर पूरी तलते हुए , तो कभी सिल बटने पर चटनी या मसाला पीसते हुए तो कभी हमारे पीछे लंच बॉक्स ले कर दौड़ते हुए , यही दृश्य याद आते हैं | इससे इतर माँ का कोई रूप ध्यान ही नहीं आता | शायद माँ भी जब अपनी माँ को याद करती होंगी या नानी अपनी माँ को या मेरी बेटी मुझे उसे माँ का यही रूप दिखाई देता होगा | भले ही रसोई और पहनावा अलग –अलग हो पर माँ और भोजन या  पोषण शब्द एक दूसरे में घुल –मिल गए हैं | पर आज मुझे कोई दूसरी माँ ही याद आ रही हैं | एक टी वी धारावाहिक की माँ |                            काफी समय बीत गया है जब टी वी पर एक धारावाहिक आया करता था |  नाम तो ठीक से याद नहीं  शायद जिंदगी … से शुरू होता था | उसमें अरुणा ईरानी  मुख्य घरेलू माँ की भूमिका में थीं | और कहानी भी घर –परिवार और उससे जुडी समस्याओं पर थी | उसी में एक एपिसोड में अरुणा ईरानी ( घर की मुख्य स्त्री पात्र ) थोडा देर से उठती है | भाग –भाग कर जल्दी जल्दी नाश्ता तैयार करती है | पर पति और बच्चे मुझे लेट हो जाएगा , मुझे लेट हो जाएगा कहते हुए बिना खाए और बिना लंच लिए चले जाते है | एक पराजित सिपाही की तरह नायिका हाथों में टोस्ट और आँखों में आँसू  लिए खड़ी  रह जाती है | तभी उसकी सहेली आती है उसे समझाती है की वो सब बाहर कुछ खा लेंगे , पर तू  शायद दिन भर कुछ नहीं खाएगी |  तू  हर समय परिवार के बारे में सोंचती है कुछ अपने बारे में भी सोंच | अपनी जिंदगी के बारे में भी सोंच |         इस धारावाहिक को आज याद करने की ख़ास वज़ह भी है | दरसल मैं अपनी सहेली के घर गयी हुई थी | वो भाग भाग कर खाना बना रही थी , साथ ही साथ अभी लायी दो मिनट रुकिए कहती जा रही थी | तभी उसके पति ,”मैं जा रहा हूँ “कहते हुए जाने लगे |  जी खाना , उसके प्रश्न पर एकदम बिफर पड़े क्या खाना , खाना लगा रखा है ?  मुझे देर हो रही है | उनके जाते ही सुधा के सब्र का बाँध टूट पड़ा | इतनी कोशिश करती हूँ इतने तरीके से बनाकर खिलाती हूँ | ऐसे ही क्या खाना  –खाना लगा रखा है कहकर चल देते हैं , फिर मुझसे एक कौर भी खाया नहीं जाता |  मुझे क्यों झिडकते हैं इस तरह से , बताओ ?  उसके इस प्रश्न पर उस समय तो मैं चुप रही | यूँहीं इधर उधर की बातें कर घर आ गयी | पर घर में यह प्रश्न मुझे मथता रहा | क्यों एक घरेलू  औरत की जिंदगी आखिर तुम करती क्या हो से क्या खाना खाना लगा रखा हैं के दो दरवाजों की सांकल खोलने में बीत जाती हैं | इन  बंद दरवाजों के बीच वो एक अपराधी, एक कैदी की तरह जीती है | जरूर पढ़ें – फेसबुक और महिला लेखन  खाने के माध्यम से उसके द्वारा की गयी देखभाल उसका स्नेह पराजित होता है फिर भी वो अगले दिन उसी तरीके से अपने को व्यक्त करती है क्यों ? शायद धरती से जो नारी की तुलना की गयी है वो व्यर्थ नहीं हैं | कितने हल चलते हैं , कितना रौंदा जाता है पर धरती इनकार नहीं करती फिर , फिर उपजाती  है नए –नए फूल –  फल | भूखी  न रहे उसकी संताने |                         बच्ची हो या बड़ी वस्तुतः नारी एक माँ है और सबको पोषित करना उसका संतोष | एक स्त्री को भी नहीं पता होता की उसके जन्म लेने के कुछ समय बाद ही एक माँ उसके अन्दर जन्म ले लेती है | तभी तो कोई नहीं सिखाता पर वो पहला खिलौना गुडिया चुनती है | उसको होती है गुड़िया की भूख की चिंता | माटी  के बर्तनों में कुछ झूठा –सच्चा पका कर खिला देती है उसे समय –समय पर | कुछ बड़ी होती है तो उसे होने लगती है चिंता पिता की |  बाबा घर आये हैं तो उन्हें  पानी देना है , और नन्ही हथेलियों के बीच बड़ा सा गिलास थाम  कर छलकाते –छलकाते पहुँच जाती है बाबा के पास , गुटकती  है घूँट –घूँट संतुष्टि | फिर बड़ी होती है तो अपने हिस्से का खाना भाई की थाली में डाल  देती है | खाने से ज्यादा खिलाने में संतोष होता है |          झूठ नहीं कहते नारी अन्नपूर्णा है | सबको पोषित करना उसका स्वाभाव है | जब उसका नन्हा शिशु उसकी अपनी रचना उसकी गोद में आ जाती है… तो उसकी सारी  दुनिया भोजन और पोषण के इर्द –गिर्द घूमने लगती है |नन्हे नटखट का ठुमक कर आगे बढ़ जाना और माँ का कौर लिए पीछे घूमना देखने वाले को भी वात्सल्य से भर देता है | जब समय पंख लगा कर उड़ जाता है बच्चों और पति की व्यस्तताएं बढ़ जाती हैं और प्राथमिकताएं बदल जाती हैं | नहीं बदलता है तो एक माँ का भोजन के माध्यम से अपने स्नेह को व्यक्त करने का भाव |  जरा रुकना और सोचना किसी भोजन से भरी थाली को नहीं किसी स्नेह से भरी थाली को ठुकराते हो , जब तुम कहते हो , “ क्या खाना –खाना लगा रखा है “ वंदना बाजपेयी   रिलेटेड पोस्ट  बंद तहखानों को भी जरूरत है रोशिनी की स्त्री देह और बाजारवाद नौकरी वाली बहू नाबालिग रेप पीडिता को मिले गर्भपात कराने का अधिकार

नाबालिग रेप – पीडिता को मिले गर्भपात कराने का अधिकार

दीपेन्द्र कपूर  आजकल मीडिया, न्यूज़ पेपर ,टी वी चैनल्स पर एक न्यूज आग की तेजी से फैली हुई है 10 वर्ष की बच्ची के गर्भवती होने और कोर्ट के गर्भपात करने की इजाज़त नही दिए जाने की …! ये किसी नाबालिग के बलात्कार का पहला मामला नही है…ऐसे जाने कितने मामले न्यायालय में लंबित और विचाराधीन है…जो न्यायालय तक पहुचे हैं। और कितने ही ऐसे मामले हैं जो न्यायालय तक पहुंच ही नही पाते । खैर आइए जानते है ये पूरा मामला आखिर है क्या? … मामा के हाथों छली गयी १० साल की ” गुडिया “ चंडीगढ़ में रेप पीड़ित एक 10 साल की बच्ची को जिला कोर्ट ने गर्भपात की इजाजत नहीं दी है। बच्ची 26 हफ्ते की गर्भवती है। बच्ची के रेप का आरोप उसके मामा पर है। उसके पिता सरकारी कर्मचारी हैं और मां घरों मेकाम करती हैं। इस मामले से कई मेडिकल विशेषज्ञ भी हैरान हैं कि इतनी छोटी सी उम्र में बच्ची गर्भवतीकैसे हो गई। उनका मानना है कि उम्र कम होने के कारण गर्भपात कराना ही सबसे उचित उपाय है वरना बच्ची को काफी समस्या हो सकती है। क्या है कोर्ट के अधिकार  कोर्ट के पास है अधिकारकोर्ट के पास मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ प्रेग्नेंसी ऐक्ट के तहत 20 हफ्ते तक के भ्रूण को गिराने की इजाजत देने का अधिकार है। हालांकि, भ्रूण के जेनेटिक रूप से असामन्य होने पर 20 हफ्ते के बाद भी उसे गिराने की इजाजत दी जा सकती है। सरकारी मेडिकल कॉलेज और अस्पताल के एक अधिकारी ने बताया, ‘बच्ची की अल्ट्रसाउंड रिपोर्ट्स के मुताबिक वह 6 माह की गर्भवती है। हमने कोर्ट में गर्भपात की इजाजत देने के लिए मेडिकल सलाह दी है।’ इलाके में यह इस तरह की पहली घटना नहीं है। रोहतक का केस   रोहतक में मई में ही एक अन्य 10 साल की बच्ची के 18-22 हफ्तों की गर्भवती होने का पता चला था। इस उम्र में गर्भवती होना मुश्किल दौर की शुरुआता है | अमेरिकन सोसाइटी फॉर रीप्रडक्टिव मेडिसिन की सदस्य और जानी-मानी स्त्री रोग विशेषज्ञ उमेश जिंदल का कहना है, ‘मेरी 40 साल की प्रैक्टिस में मैंने ऐसा केस कभी नहीं देखा। मैंने 13 साल की बच्ची को गर्भवती होते देखा है। अगर कोर्ट से इजाजत मिल जाती है तो भी इसका इलाज एक अनोखा मामला होगा। इसमें काफी जटिलताएं सामने आ सकती हैं इसलिए बेहतर होगा की गर्भपात कराया जाए।’  क्या कहते हैं विशेषज्ञ विशेषज्ञ बताते हैं कि पीरियड्स शुरू होने की सामान्य उम्र 13 साल है, लेकिन पिछले काफी समय से यह सीमा 8 साल तक पहुंच चुकी है। इसके बाद भी 10 साल की उम्र में गर्भवती होना न के बराबर ही पाया जाता है।गर्भपात नहीं कराया तो होगी समस्या डॉक्टरों के मुताबिक बच्ची के शरीर के लिए इस उम्रमें गर्भ धारण करना नुकसानदयाक हो सकता है। चंडीगढ़ के पोस्ट ग्रैजुएट इंस्टिट्यूट ऑफ मेडिकल एजुकेशन ऐंड रिसर्च के गाइनी डिपार्टमेंट की प्रमुख रश्मी बग्गा कहती हैं कि उन्होंने पहले कभी एक 10 साल की बच्ची के गर्भवती होने का केस नहीं देखा है। वह बताती हैं कि छोटी उम्र में प्रेग्नेंसी का पता चल पाना मुश्किल होता है मामला अत्यंत गंभीर है जो कि , माननीय कोर्ट के अंतिम फैसले के इंतेज़ार में है।कहते हैं कि मां बनना किसी भी महिला के लिए गर्व कीबात होती है. कम से कम हमारे बुजुर्गों ने तो यही सिखाया है हमें. गर्भवती महिलाओं के लिए तमाम तरीके, कायदे-कानून होते हैं और ये भी बताया जाता है कि बच्चों को कैसे संभालना है, लेकिन एक बात बताइए अगर किसी बच्चे को ही ये जिम्मेदारी दे दी जाए तो क्या होगा? क्या कोई 10 साल की बच्ची अपने बच्चे को संभाल पाएगी? क्या कहता है कानून… चंडीगढ़ की एक घटना है जहां डिस्ट्रिक्ट कोर्ट ने 10 साल की एक रेप सर्वाइवर को अबॉर्शन करवाने से मना कर दिया. लड़की की प्रेग्नेंसी की अवधि 26 हफ्ते हो चुकी थी. उसका रेप उसके मामा ने ही किया था. कोर्ट का कहना है कि सिर्फ 20 हफ्ते तक ही कानूनी तौर पर किसी भी महिला को बच्चे अबॉर्ट करवाने की इजाजत होती है. क्या ये वाकई सही है? चलिए एक बार कानून को देख लेते हैं…क्या कहता है कानून…मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ प्रेग्नेंसी एक्ट 1971 के अंतरगत उन मामलों को बताया गया है जहां प्रेग्नेंसी टर्मिनेशन कानूनी है. इस एक्ट के तहत अबॉर्शन सिर्फ किसी ऐसे डॉक्टर से करवाया जाए जिसके खिलाफ कोई केस ना हो. इसके अलावा, प्रेग्नेंसी टर्मिनेशन सिर्फ इन मामलों में हो सकता है… 1.जहां प्रेग्नेंसी की अवधि 12 हफ्तों से अधिक ना हुई हो .2.जहां दो या दो अधिक डॉक्टरों की परमीशन ली जा चुकी हो और प्रेग्नेंसी की अवधि 12 हफ्तों से 20 हफ्तों के बीच हो .3.जहां महिला की जान को प्रेग्नेंसी से खतरा हो. 4.जहां महिला को या तो शारीरिक तौर पर या मानसिक तौर पर कोई नुकसान पहुंच सकता हो .5.जहां बच्चे को कोई खतरा हो और जन्म लेने के बाद उसे किसी तरह की कोई बीमारी या मानसिक तकलीफ हो.यहां…                                     1. प्रेग्नेंसी जिसमें मां की उम्र 18 साल से कम है वहां उसके लिए एक अभिभावक                                        होना चाहिए.                                      2. अगर महिला का मानसिक संतुलन सही नहीं है तो भी उसके लिए एक                                                  अभिभावक होना चाहिए.अब इस मामले में कुछ बातों को समझाया गया है..                                               एक्टमें ये लिखा है कि रेप से पैदा हुआ बच्चा महिला के मानसिक संतुलन के लिए                                       सही नहीं है .एक्ट में रेप का जहां जिक्र … Read more

फेसबुक और महिला लेखन

कितनी कवितायें  भाप बन  कर उड़ गयी थी  उबलती चाय के साथ  कितनी मिल गयी आपस में  मसालदान में  नमक मिर्च के साथ  कितनी फटकार कर सुखा दी गयी  गीले कपड़ों के साथ धूप में  तुम पढ़ते हो   सिर्फ शब्दों की भाषा  पर मैं रच रही थी कवितायें  सब्जी छुकते हुए  पालना झुलाते हुए  नींद में बडबडाते हुए  कभी सुनी , कभी पढ़ी नहीं गयी  कितनी रचनाएँ  जो रच रहीहै  हर स्त्री  हर रोज                               सृजन और स्त्री का गहरा नाता है | पहला रचियता वो ईश्वर है और दूसरी स्त्री स्वयं | ये जीवन ईश्वर की कल्पना तो है पर मूर्त रूप में स्त्री की कोख   में आकार ले पाया है | सृजन स्त्री का गुण है , धर्म है | वह हमेशा से कुछ रचती है | कभी उन्हीं मसालों से रसोई में कुछ नया बना देती है की परिवार में सब अंगुलियाँ चाटते रह जाएँ | कभी फंदे – फंदे जोड़ कर रच देती है स्वेटर | जिसके स्नेह की गर्माहट सर्द हवाओ से टकरा जाती है | कभी पुराने तौलिया से रच देती है नयी  दरी | जब वो इतना सब कुछ रच सकती है तो फिर साहित्य क्यों नहीं ? कभी – कभी तो मुझे लगता है की क्या हर स्त्री के अंदर कविता बहती है , किसी नदी की तरह या कविता स्वयं ही स्त्री है ? फिर भी भी लम्बे समय तक स्त्री रचनकार अँगुलियों पर गिने जाते रहे | क्या कारण हो सकता है इसका … संयुक्त परिवारों में काम की अधिकता , स्त्री की अशिक्षा या अपनी खुद की ख़ुशी के लिए कुछ भी करने में अपराध बोध | या शायद तीनों |                                 आज स्त्री ,स्त्री की परिभाषा से आज़ाद हो रही है | सदियों से परम्परा ने स्त्री को यही सिखाया है की उसे केवल त्याग करना है | परन्तु वो इस अपराध बोध से मुक्त हो रही है की वो थोडा सा अपने लिए भी जी ले | उसने अपने पंखों को खोलना शुरू किया है | यकीनन इसमें स्त्री शिक्षा का भी योगदान है | जिसने औरतों में यह आत्मविश्वास भरा है की आसमान केवल पुरुषों का नहीं है | इसके विस्तृत नीले विस्तार में एक हरा  कोना उनका भी है | ये भी सच है की आज तमाम मशीनी उपकरणों के इजाद के बाद घरेलु कामों में भी  आसानी हुई है | जिसके कारण महिलाओं को रसोई से थोड़ी सी आज़ादी मिली है | जिसके कारण वो अपने समय का अपनी  इच्छानुसार इस्तेमाल करने में थोडा सा स्वतंत्र हुई है | साहित्य से इतर यह हर क्षेत्र में दिख रहा है | फिर से वही प्रश्न … तो फिर साहित्य क्यों नहीं ? निश्चित तौर पर इसका उत्तर हाँ  है | पर उसके साथ ही एक नया प्रश्न खड़ा हो गया …कहाँ और किस तरह ? और इसका उत्तर ले कर आये मार्क जुकरबर्ग फेसबुक के रूप में | फेसबुक ने एक मच प्रदान किया अपनी अभिव्यक्ति का |                                                  यूँ तो पुरुष हो या महिला फेसबुक सबको समान रूप से प्लेटफ़ॉर्म उपलब्द्ध करा रहा है | परन्तु इसका ज्यादा लाभ महिलाओं को मिल रहा है | कारण यह भी है की ज्यादातर महिलाओ को अपनी लेखन प्रतिभा का पता नहीं होता | साहित्य से इतर शिक्षा प्राप्त महिलाएं कहीं न कहीं इस भावना का शिकार रहती थी की उन्होंने हिंदी से तो शिक्षा प्राप्त की नहीं है, तो क्या वो सही – सही लिख सकती हैं | और अगर लिख भी देती हैं तो क्या तमाम साहित्यिक पत्रिकाएँ उनकी रचनाएँ स्वीकार करेंगी या नहीं | फेसबुक पर पाठकों की तुरंत प्रतिक्रिया से उन्हें पता चलता है की उनकी रचना छपने योग्य है या उन्हें उसकी गुणवत्ता में क्या -क्या सुधार  करने है |   कुछ महिलाएं जिन्हें अपनी प्रतिभा का पता होता भी है  प्रतिभा बच्चो को पालने व् बड़ा करने में खो जाती है |वो भी  जब पुन : अपने को समेटते हुए लिखना शुरू करती हैं तो  पता चलता कि  की साहित्य के आकाश में मठ होते हैं जो तय करते हैं कौन उठेगा ,कौन गिरेगा। किसको स्थापित  किया जायेगा किसको विस्थापित।इतनी दांव – पेंच हर महिला के बस की बात नहीं | क्योंकि अक्सर साहित्य के क्षेत्र में जूझती महिलाओ को ये सुनने को अवश्य मिलता है की ,” ये भी कोई काम है बस कागज़ रंगती रहो | मन निराश होता है फिर भी कम से कम हर रचनाकार यह तो चाहता है कि उसकी रचना पाठकों तक पहुँचे।  रचना के लिए पाठक उतने ही जरूरी हैं जितना जीने के लिए ऑक्सीज़न।  इन मठाधीशों के चलते कितनी रचनायें घुट -घुट कर दम  तोड़ देती थी और साथ में दम  तोड़ देता था रचनाकार का स्वाभिमान ,उसका आत्मविश्वास। यह एक ऐसी हत्या है जो दिखती नहीं है |कम से कम फेस बुक नें रचनाकारों को पाठक उपलब्ध करा कर इस हत्या को रोका है।                                            हालंकि महिलाओ के लिए यहाँ भी रास्ते आसान  नहीं है | उन्हें तमाम सारे गुड मॉर्निंग , श्लील  , अश्लील मेसेजेस का सामना करना पड़ता है |  अभी मेरी सहेली ने बताया की उसने अपनी प्रोफाइल पिक बदली तो किसी ने कमेंट किया ” मस्त आइटम ” | ये कमेन्ट करने वाले की बेहद छोटी सोंच थी | ये छोटी सोंचे महिलाओं को कितना आहत करती हैं इसे सोंचने की फुर्सत किसके पास है | वही किसी महिला के फेसबुक पर आते ही ऐसे लोग कुकरमुत्ते की तरह उग आते हैं जो उसके लेखन को सर्वश्रेष्ठ बताते हुए उसे रातों रात स्टार बनाने में मदद देने को तैयार रहते हैं | याहन इतना ही कहने की जरूरत है की छठी इन्द्रिय हर महिला के पास है और उसे लोगों के इरादों को भांपने और परखने में जरा भी … Read more

नहीं पता था मेरी जिद सुर्खियों में छाएगी – प्रियंका भारती, सामाजिक कार्यकर्ता

             प्रियंका तब 14 साल की थीं। यह बात 2007 की है। उत्तर प्रदेश के महाराजगंज जिले के एक छोटे से गांव की रहने वाली यह बच्ची उन दिनों पांचवी कक्षा में पढ़ रही थी। गांव की बाकी लड़कियों की तरह उसकी भी शादी हो गई। मां और सहेलियों का साथ छूटने के ख्याल से वह खूब रोईं। मां ने समझाया, क्यों चिंता करती हो? अभी तो बस शादी हो रही है, गौना पांच साल बाद होगा। तब तक तुम हमारे साथ ही रहोगी। मन को तसल्ली मिली। शादी के दिन सुंदर साड़ी और गहने मिले पहनने को। बहुत अच्छा लगा प्रियंका को। दो दिन के जश्न के बाद बारात वापस चली गई। प्रियंका खुश थीं कि ससुराल नहीं जाना पड़ा।             शादी के बाद पढ़ाई जारी रही। इस बीच मां उन्हें घर के कामकाज सिखाने लगीं। देखते-देखते पांच साल बीत गए। अब वह बालिग हो चुकी थीं। गौने की तैयारियां शुरू हो गईं। आखिर विदाई की घड़ी आ ही गई। यह बात 2012 की है। एक छोटे समारोह के बाद उनकी विदाई हो गई। ससुराल पहुंचीं, तो अगली ही सुबह एक बड़ी दिक्कत से सामना हुआ। उन्होंने झिझकते हुए सास से पूछा, मां जी, शौचालय जाना है। सास ने कहा, कुछ देर रूको, मैं चलती हूं तुम्हारे साथ। उन्हें अजीब लगा। सास उनके साथ कहां जाने की बात कर रही हैं? थोड़ी देर बाद सास के साथ बहू चल पड़ी खेत की ओर। तब जाकर पता चला कि घर में शौचालय नहीं है। पगडंडियों का रास्ता कठिन था। खेतों में पानी भरा था। पगडंडी पर फिसलन काफी ज्यादा थी। सुर्ख लाल साड़ी में लिपटी नई-नवेली बहू राहगीरों के लिए उत्सुकता का विषय थी।  प्रियंका बताती हैं- मेरे एक हाथ में लोटा था और दूसरे हाथ से मैं घूंघट संभाल रही थी। कई लोग मुझे पलटकर देख रहे थे। मुझे बड़ी शर्म आ रही थी।             पहली सुबह किसी तरह बीती। उस दिन उन्होंने पति और सास से कई बार कहा, घर में शौचालय बनना चाहिए। मगर किसी ने ध्यान नहीं दिया। गांव में शौच के लिए बाहर जाना आम बात थी। ससुराल वालों को शौचालय बनवाने की मांग गैर-जरूरी लगी। इसी तरह दो दिन बीत गए। फिर उन्होंने पति से साफ कह दिया कि उन्हें शौच के लिए घर के बाहर जाना मंजूर नहीं है। प्रियंका बताती हैं, तीसरे दिन मैंने बाहर जाने से मना कर दिया। मेरे पेट में दर्द होने लगा। मैंने तय कर लिया था कि जब तक घर में शौचालय नहीं बनेगा, मैं शोच नहीं जाऊंगी। इस बीच रस्म के मुताबिक उनका भाई ससुराल आया। प्रियंका अपने सामान की पेटी लेकर भाई के सामने खड़ी हो गईं और बोली- मैं भी चलूंगी तुम्हारे साथ। भाई ने खूब समझाया। ससुराल वालों ने कहा कि गांव में सभी महिलाएं बाहर शौच को जाती हैं, फिर तुम्हें इतनी दिक्कत क्यों हैं?             मगर प्रियंका ने एलान कर दिया कि जब तक शौचालय नहीं बनेगा, वह ससुराल नहीं लौटेंगी। उधर मायके वालों को बेटी का यूं इस तरह ससुराल छोड़कर आना अच्छा नहीं लगा। मां ने भी कहा कि यह जिद ठीक नहीं है। सबका एक ही सवाल था, अगर तुम्हारी सास और ननद बाहर शौच के लिए जा सकती हैं, तो तुम क्यों नहीं? पूरे गांव में खबर फैल गई कि प्रियंका ससुराल से भाग आई है। कुछ लोग ने यह अफवाह भी उड़ा दी कि इस लड़की का गांव में किसी से प्रेम-प्रसंग है, इसलिए वह अपने पति को छोड़कर भाग आई है। रिश्तेदार ताने मारने लगे।             मगर प्रियंका जिद पर अड़ी रहीं। इस बीच ग्रामीण क्षेत्रों में शौचालय पर काम करने वाले एक एनजीओ टीम प्रियंका के घर पहुंची। टीम ने उनके कदम की तारीफ करते हुए कहा कि आपने ससुराल छोड़कर बड़ी हिम्मत दिखाई। अगर गांव की हर बहू-बेटी ऐसा फैसला करने लगे, तो हर घर में शौचालय बन जाएगा। उन्होंने घरवालों को भी समझाया कि आपकी बेटी ने ससुराल छोड़कर कोई गलती नहीं की है। उसकी जिद जायज है। एनजीओ ने प्रियंका के ससुरालवालों से संपर्क किया और अपने खर्च पर उनके घर में शौचालय बनावाया। इसके बाद प्रियंका की ससुराल वापसी हुई। इस मौके पर एक बड़ा समारोह हुआ, जिसमें शौचालय का उद्घाटन किया गया।  प्रियंका बताती हैं, मुझे नहीं पता था कि मेरी जिद सुर्खियां बन जाएगी। जब ससुराल लौटी, तो गांव में भोज हुआ। मुझे मंच पर बुलाकर सम्मानित किया गया। ससुराल वाले भी घर में शौचालय बनने से बहुत खुश थे।             इस घटना के कुछ समय बाद एनजीओ ने उन्हें अपना ब्रांड अंबेस्डर बना लिया। उनकी कहानी पर एक विज्ञापन फिल्म भी बनी, जिसमें प्रियंका को अभिनेत्री विद्या बालन के साथ दिखाया गया। विज्ञापन की शूटिंग के लिए प्रियंका मुंबई गईं। इस समय वह स्नातक की पढ़ाई कर रही हैं। पिछले पांच साल से वह गांव-गांव जाकर ग्रामीणों को घर में शौचालय बनवाने और बेटियों को पढ़ाने का संदेश दे रही हैं। वह सिलाई केंद्र भी चलाती हैं, जहां महिलाओं को सिलाई की ट्रेनिंग दी जाती है। इस काम में उनके पति भी सहयोग करते हैं। प्रियंका बताती हैं- अब मेरा एक ही सपना है गांवों में साफ-सफाई रहे, महिलाओं को शौच के लिए बाहर न जाना पड़े और हर बेटी को पढ़ने का मौका मिले। फोटो क्रेडिट – लल्लन टॉप  प्रस्तुति: मीना त्रिवेदी साभार: हिन्दुस्तान संकलन: प्रदीप कुमार सिंह  

स्त्री देह और बाजारवाद ( भाग – 4 ) -स्त्री देह को अंधाधुंध प्रदर्शित कर नये -नये “प्रोडक्ट” बनाने की मुहिम

डॉ. मधु त्रिवेदी      क्रिएटिव ऐश-ट्रे को वेबसाईट पर पेश कर नया तरीका सर्च किया महिलाओं की भावनाओं से छेड़छाड़ करने का आॅन लाइन शापिंग कम्पनी अमेजन ने ।            “ट्राईपोलर क्रिएटिव ऐश-ट्रे’            इस उत्पाद    को ऑनलाइन शॉपिंग कंपनी अमेजन ने बिक्री के उद्देश्य से अपनी वेबसाइट पर पेश किया था. विरोध करने का मुख्य आधार यह है कि इस कम्पनी ने उत्पाद के प्रस्तुतीकरण द्वारा मर्यादा की सारी सीमा लांघ दी ।        ‘क्रिएटिविटी ‘ शब्द का गलत प्रयोग करते हुए अमेजन ने अश्लील एवं घिनोनी मानसिकता का परिचय दिया है ।           अमेजन के इस उत्पाद को देख महिला वर्ग का टिप्पणी करना स्वभाविक ही नहीं बल्कि अधिकार था । इस तरह की छवि को प्रस्तुत करना महिलाओं के प्रति अत्याचार ,  हिंसा एवं बलात्कार     जैसी प्रवृतियों को उकसाना एवं बढ़ावा देना नहीं है तो और क्या है?             हर घंटे बलात्कार होते हैं, सिर्फ बलात्कार नहीं होते, बाॅडी की चीरा फाड़ी होती है लड़कियों के शरीर की फजीहत की जाती है स्तन काटे जाते हैं  वेजाइना में कांच, लोहे की रॉड, कंकड़ पत्थर के टुकड़े, शराब की टूटी बोतलें घोंप  मारने के बाद जला देते हैं चेहरा को  ताकि कोई पहचान न सके । क्या उस देश का बाजार आपको मानसिक संतुष्टि दे सकता है ?          क्या गंदी पुरूष मानसिकता की शिकार सोनी सोरी या दिल्ली गैंगरेप के दौरान पीड़िता के शरीर में रॉड घुसाया गया  उसे भूल सकते है । यह सब अपराध है  एक औरत के प्रति समाज की सोच साफ दिख रही है ।          स्त्री देह को अंधाधुंध प्रदर्शित कर नये -नये  “प्रोडक्ट” बनाने की मुहिम तेज हो गयी है।                 “अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का “गलत प्रयोग हो रहा है स्वतंत्रता का अर्थ यह कदापि नहीं कि  पूंजी बनाने के लिए अपने माल की ज्यादा से ज्यादा बिक्री के लिए नग्नता, अश्लीलता का प्रदर्शन किया जाए  । प्राय : यहीं देखने में आता है कि विज्ञापनों में जिस तरह से नारी देह का प्रदर्शन हो रहा है, उसमें आधुनिकता व फैशन के नाम पर देह पर कपड़ों की मात्रा घटती जा रही हैजो भावी संस्कृति के लिए अच्छे संकेत नहीं  ।       अतः आवश्यकता सोच को बदलने की है ।  औरतों का मनचाहा इस्तेमाल करता पूंजीवाद अपने इस्तेमाल के लिए ।  चाहे उसे घर में रखना हो या रैम्प पर चलना वह सिर्फ ‘कार्य करने’ के लिए होती है, जैसा उसे कहा जाता है या उसे दिखाया जाता है. सोचना और निर्णय लेना औरतों का नहीं, पुरुषों का कार्य है. क्योंकि विश्व की लगभग समस्त पूँजी उन्हीं के पास है।यह सोच ठीक नहीं है ।       औरतों का मनचाहा इस्तेमाल करता है पूंजीवाद अपने लाभ के लिए ।   चाहे उसे घर में रखना हो या रैम्प पर चलना वह सिर्फ ‘कार्य करने’ के लिए होती है, जैसा उसे कहा जाता है या उसे दिखाया जाता है. सोचना और निर्णय लेना औरतों का नहीं, पुरुषों का कार्य है. क्योंकि विश्व की लगभग समस्त पूँजी उन्हीं के पास है।      लड़कों का हर गुनाह माफ होता है  लड़कियां जैसे-जैसे आगे बढ़ रही हैं पुरुष प्रधान समाज उसे स्वीकार नहीं कर पा रहा है इसलिए उनके खिलाफ हिंसा में बढ़ोतरी कर उन्हें पुन: चाहरदिवारी के अंदर ढकेलने की कोशिश में जुटा हुआ है।  हमारा समाज आज भी लड़कों का हर गुनाह माफ करता है और लड़कियों को लड़कों के द्वारा किये गए कुकर्म का भी सजा देता है।                मनोवैज्ञानिक मानते हैं कि बलात्कार की अधिकांश घटनाओं में बलात्कारी का मुख्य उद्देश्य यौनेच्छा की पूर्ति नहीं बल्कि स्त्री का अपमान करना और उसे शारीरिक व मानसिक कष्ट देना होता है। असभ्य और राक्षसी-प्रवृत्ति के पुरुषों को एक ही बात समझ में आती है कि किसी का अपमान करने का सबसे अच्छा उपाय यही है कि उसकी इज़्ज़त को मिट्टी में मिला दिया जाए। और समाज व सिनेमा से इन हैवानों ने यही सीखा होता है ।              महिलाओं को भी आत्मसंयम के साथ अपने आत्मविश्वास   को बनाए रखते हुए हिंसक समाज का विरोध करना चाहिए।इस दिशा में सरकार व निजी संस्थाओं ने महिलाओं को इन हिंसक प्रवृत्तियों से लड़ने के लिए बहुत से प्रशिक्षण केन्द्र खोल रखे हैं साथ ही वे कई जगह जाकर अपने ऊपर हो रहे अत्याचारों की शिकायत भी दर्ज करा सकती हैं।           असल में महिलाओं पर हिंसा को रोकने के लिए खुद समाज के प्रत्येक व्यक्ति को पहल करनी पढ़ेगी।  डॉ. मधु त्रिवेदी  संक्षिप्त परिचय  ————————— .  पूरा नाम : डॉ मधु त्रिवेदी  पदस्थ : शान्ति निकेतन कालेज आॅफ  बिजनेस मैनेजमेंट एण्ड कम्प्यूटर  साइंस आगरा  प्राचार्या, पोस्ट ग्रेडुएट कालेज आगरा  उप संपादक   “मौसम ” पत्रिका में ☞☜☞☜☞☜☞☜☞☜☞☜

स्त्री देह और बाजारवाद ( भाग – तीन ) -कब औरत को उसका पूरा मान सम्मान दिया गया ?

दिनांक ६ /६ /17 को स्त्री देह और बाजारवाद पर एक पोस्ट डाली थी | जिस पर लोगों ने अपने अपने विचार रखे | कई मेल भी इस विषय पर प्राप्त हुए | कल आपने इस विषय पर पुरुषों  के प्रतिनिधित्व के विचार पढ़े | आज पढ़िए कुसुम पालीवाल जी के विचार … पहले की लिंक … स्त्री देह और बाज़ारवाद (भाग – २ ) लडकियां भी अपनी सोंच को बदलें स्त्री देह और बाजारवाद ( भाग -1 ) आज की कड़ी – कब औरत को उसका पूरा मान सम्मान दिया गया ? औरत को आदिकाल से लेकर आज तक देह ही समझा जा रहा है ये कोई माने न माने … देह का मतलब सैक्स पूर्ती तो है ही शारिरिक कार्य से भी है … उसका अपना मत क्या है ये कोई नहीं पूछता , न पहले ही न आज ही ।  राजा महाराजाओं के वक्त से आज तक औरत का दोहन हो रहा है , पहले मनोंरंजन का साधन थी , फिर कोठों पर बैठाई गई ,आज मार्केट में प्रसाधनों पर छापी जा रही है , कब औरत को उसका पूरा मान सम्मान दिया गया ।  रहा काव्य सृजन का सवाल तो रिति काल में भी कवियों ने नारी के शिख से लेकर पैरों के एड़ी तक का वर्णन कर डाला …यहाँ तक उसके बक्षस्थल और योनि तक का बखान कर डाला । आज जिस तरह से , आज का पुरूष समाज कहता है कि घर से निकलोगी तो ये सब कुछ तो होगा ही , इक्कीसवी शताब्दी में भी औरत को आजादी नही मिलेगी तो कब मिलेगी । पुरूष ने कहीं भी औरत को सम्पूर्ण आजादी नही दी है …आजादी का मतलब ये नहीं कि वो नग्न हो कर नाचना चाहती है वो मानसिक रूप से आजादी चाहती है ।                                                                                 पुरूष ने उसे उसे उस मोड़ पर ला कर खड़ा कर दिया जहाँ सारे रास्ते बन्द हो जाते हैं जीने के लिए तो उसकी बैचारगी दूर करने के लिए भी इसी समाज के पुरूषवर्ग ने ही कोठो पर बैठा दिया । यहीँ पर दोष स्त्री जाति का कम और पुरूष जाति का ज्यादा है ..याद रखें जब भी नारी को ठुकराया है इस पुरूष जाति ने तब तब तब उसी पुरूष जाति ने उसे कोठे या कॉल गर्ल के धन्धे में लिप्त किया । यहाँ पर एक के बदलने से समस्या का समाधान नही वल्कि दोनो की मानसिकता बदलनी चाहिए , अब मानसिकता को ही लें जगह जगह पर ऐसे पुरूष दिखलाई दे जाते हैं जो अश्लीलता की हदें पार कर चुके होते हैं ,उनको क्या कहा जायेगा ? वही एक लड़की डीप नैक या शोर्टस पहने दिँखती है तो समाज बबाल खड़ा कर देता है । तो ये सब क्या है ? क्या मानसिकता का नजरिया नहीं है क्योकि कोई काम धन्धा नही है लड़कियों को घूरो .. जहाँ तक निगाह पहुँचे खरोंच डालो आँखो ही ऑंखों में । जब आप खुद को संभालेगें तब देश बदलेगा , नई सोच और हैल्दी सोच का प्रादुर्भाव होगा .. इसमें स्त्री पुरूष दोनो को ही बदलना होगा । कुसुम पालीवाल 

स्त्री देह और बाज़ारवाद ( भाग – २ ) – लडकियां भी अपनी सोंच बदलें

कल स्त्री देह और बाजारवाद पर एक पोस्ट डाली थी | जिस पर लोगों ने अपने अपने विचार रखे | कई मेल भी इस विषय पर प्राप्त हुए | इन्हीं में से एक विचार जो हमें प्राप्त हुआ | जो स्त्री देह और बाजारवाद पर पुरुषों के दृष्टिकोण  को व्यक्त  रहा है | उसे भी पढ़िए और अपनी राय रखिये | जिन्होंने कल की पोस्ट नहीं पढ़ी | उनके लिए लिंक इसी पोस्ट में है | आप भी अपने विचार रखिये | या अपने विचार हमें editor.atootbandhan@gmail.com पर भेजें  स्त्री देह और बाजारवाद( भाग एक )                    आज की पोस्ट  लडकियाँ भी अपनी सोंच को बदलें  लड़कियो केे नग्न घूमने पर जो लोग या स्त्रीया ये कहते है की कपडे नहीं सोच बदलो….उन लोगो से मेरे कुछ प्रश्न है???1)हम सोच क्यों बदले?? सोच बदलने की नौबत आखिर आ ही क्यों रही है??? आपने लोगो की सोच का ठेका लिया है क्या??2) आप उन लड़कियो की सोच का आकलन क्यों नहीं करते?? उसने क्या सोचकर ऐसे कपडे पहने की उसके स्तन पीठ जांघे इत्यादि सब दिखाई दे रहा है….इन कपड़ो के पीछे उसकी सोच क्या थी?? एक निर्लज्ज लड़की चाहती है की पूरा पुरुष समाज उसे देखे,वही एक सभ्य लड़की बिलकुल पसंद नहीं करेगी की कोई उस देखे3)अगर सोच बदलना ही है तो क्यों न हर बात को लेकर बदली जाए??? आपको कोई अपनी बीच वाली ऊँगली का इशारा करे तो आप उसे गलत मत मानिए……सोच बदलिये..वैसे भी ऊँगली में तो कोई बुराई नहीं होती….आपको कोई गाली बके तो उसे गाली मत मानिए…उसे प्रेम सूचक शब्द समझिये…..हत्या,डकैती,चोरी,बलात्कार,आतंकवाद इत्यादि सबको लेकर सोच बदली जाये…सिर्फ नग्नता को लेकर ही क्यों????4) कुछ लड़किया कहती है कि हम क्या पहनेगे ये हम तय करेंगे….पुरुष नहीं…..जी बहुत अच्छी बात है…..आप ही तय करे….लेकिन हम पुरुष भी किस लड़की का सम्मान/मदद करेंगे ये भी हम तय करेंगे, स्त्रीया नहीं…. और हम किसी का सम्मान नहीं करेंगे इसका अर्थ ये नहीं कि हम उसका अपमान करेंगे5)फिर कुछ विवेकहीन लड़किया कहती है कि हमें आज़ादी है अपनी ज़िन्दगी जीने की…..जी बिल्कुल आज़ादी है,ऐसी आज़ादी सबको मिले, व्यक्ति को चरस गंजा ड्रग्स ब्राउन शुगर लेने की आज़ादी हो,गाय भैंस का मांस खाने की आज़ादी हो,वैश्यालय खोलने की आज़ादी हो,पोर्न फ़िल्म बनाने की आज़ादी हो… हर तरफ से व्यक्ति को आज़ादी हो।6) फिर कुछ नास्तिक स्त्रीया कुतर्क देती है की जब नग्न काली की पूजा भारत में होती है तो फिर हम औरतो से क्या समस्या है??पहली बात ये की काली से तुलना ही गलत है।।और उस माँ काली का साक्षात्कार जिसने भी किया उसने उसे लाल साडी में ही देखा….माँ काली तो शराब भी पीती है….तो क्या तुम बेवड़ी लड़कियो की हम पूजा करे?? काली तो दुखो का नाश करती है….तुम लड़किया तो समाज में समस्या जन्म देती हो…… और काली से ही तुलना क्यों??? सीता पारवती से क्यों नहीं?? क्यों न हम पुरुष भी काल भैरव से तुलना करे जो रोज कई लीटर शराब पी जाते है???? शनिदेव से तुलना करे जिन्होंने अपनी सौतेली माँ की टांग तोड़ दी थी।7)लड़को को संस्कारो का पाठ पढ़ाने वाला कुंठित स्त्री समुदाय क्या इस बात का उत्तर देगा की क्या भारतीय परम्परा में ये बात शोभा देती है की एक लड़की अपने भाई या पिता के आगे अपने निजी अंगो का प्रदर्शन बेशर्मी से करे??? क्या ये लड़किया पुरुषो को भाई/पिता की नज़र से देखती है ??? जब ये खुद पुरुषो को भाई/पिता की नज़र से नहीं देखती तो फिर खुद किस अधिकार से ये कहती है की “हमें माँ/बहन की नज़र से देखो”कौन सी माँ बहन अपने भाई बेटे के आगे नंगी होती है??? भारत में तो ऐसा कभी नहीं होता था….सत्य ये है कीअश्लीलता को किसी भी दृष्टिकोण से सही नहीं ठहराया जा सकता। ये कम उम्र के बच्चों को यौन अपराधो की तरफ ले जाने वाली एक नशे की दूकान है।।और इसका उत्पादन स्त्री समुदाय करता है।मष्तिष्क विज्ञान के अनुसार 4 तरह के नशो में एक नशा अश्लीलता(सेक्स) भी है।चाणक्य ने चाणक्य सूत्र में सेक्स को सबसे बड़ा नशा और बीमारी बताया है।।अगर ये नग्नता आधुनिकता का प्रतीक है तो फिर पूरा नग्न होकर स्त्रीया अत्याधुनिकता का परिचय क्यों नहीं देती????गली गली और हर मोहल्ले में जिस तरह शराब की दुकान खोल देने पर बच्चों पर इसका बुरा प्रभाव पड़ता है उसी तरह अश्लीलता समाज में यौन अपराधो को जन्म देती है।।#साभार_श्यामजी के व्हाट्स एप्प सॆ..  शिवा पुत्र 

स्त्री देह और बाजारवाद

बाजारवाद ने सदा से स्त्री को केवल देह ही समझा | पुरुषों के दाढ़ी बनाने के ब्लेड ,शेविंग क्रीम , डीयो आदि में महिला मॉडल्स को इस तरह से पेश किया गया जैसे वो भी कोई प्रॉडक्ट हो |  दुखद है की ये विज्ञापन पढ़ी – लिखी महिला की भी ऐसी छवि प्रस्तुत करते हैं की उसका कोई दिमाग नहीं है वो शेविंग क्रीम या डीयो की महक से बहक कर अपना साथी चुनती है | शिक्षित नारी की बुद्धि पर देह हावी कर स्त्री की छवि बिगाड़ने में इन विज्ञापन कम्पनियों ने कोई कसर नहीं छोड़ी |इससे भी ज्यादा दुखद है की हम परिवार के बीच बैठ वो विज्ञापन देखने के बाद वो प्रोडक्ट भी खरीद कर लाते हैं | यानी बाज़ार जानता है की उसका फायदा किसमें है |  यह सच्चाई किसी से छुपी नहीं है की तमाम अखबार और वेबसाइट फ़िल्मी हीरोइनों की आपत्तिजनक तस्वीरों को डाल – डाल अपनी पाठक संख्या में इजाफा करते हैं | लेकिन ये सिर्फ पाठक संख्या में ही इजाफा नहीं करते ये एक गलत वृत्ति के भी संवाहक है | जिसका परिणाम महिलाओं के प्रति किये जाने वाले अपराधों के बढ़ते आंकड़ों के रूप में दिखाई देता है | इसी कड़ी में अपने घिनौने रूपमें सामने आई है वह ऐश ट्रे जो अमेज़न .कॉम पर बिकने के लिए उपलब्ध है |  जिस कम्पनी ने इसे बनाया , जिस साइट या दुकानों द्वारा बेंची जा रही है वो समान रूप से दोषी हैं | जो स्त्री के प्रति एक गलत सोंच का प्रचार कर रही हैं |जिसका परिणाम हर आम बेटी बहू , माँ , बहन झेलेंगी | जब मीडिया में स्त्री को देह बनाने की साजिशे चल रही थी | तब हम अपने – अपने घरों के दरवाजे खिड़कियाँ बंद कर मौन धारण कर सुरक्षित बैठे रहे |जिसका परिणाम स्त्री के प्रति बढ़ते अपराधों के रूप में सामने आया | अभी हाल का मासूम नैन्सी कांड किसको विचलित नहीं कर देता | यह भी स्त्री के प्रति ऐसी ही घृणित सोंच का परिणाम है | कहीं तो लगाम लगानी होगी | कभी तो लगाम लगानी होगी | हम तब चुप बैठे , क्या अब भी चुप बैठेंगे | अपना विरोध दर्ज कीजिये वंदना बाजपेयी 

स्त्री और नदी का स्वच्छन्द विचरण घातक और विनाशकारी

लेखक:- पंकज प्रखर कोटा(राज.) स्त्रीऔर नदी दोनों ही समाज में वन्दनीय है तब तक जब तक कि वो अपनी सीमा रेखाओं का उल्लंघन नही करती | स्त्री का व्यक्तित्व स्वच्छ निर्मल नदी की तरह है जिस प्रकार नदी का प्रवाह पवित्रऔर आनन्दकारकहोता है उसी प्रकार सीमा रेखा में बंधी नारी आदरणीय और वन्दनीय शक्ति के रूप में परिवार और समाज में  रहती है| लेकिन इतिहास साक्षी है की जब –जब भी नदियों ने अपनी सीमा रेखाओं का उल्लंघन किया है समाज बढ़े –बढे संकटों से जूझता नजर आया है| तथाकथित कुछ महिलाओं ने आधुनिकता और स्वतंत्रता के नाम पर जब से स्वच्छंद विचरणकरते हुए  सीमाओं का उल्लंघन करना शुरू किया है तब से महिलाओं की  स्थिति दयनीय और हेय होती चली गयी है | इसका खामियाज़ा उन महिलाओं को भी उठाना पढ़ा है जो समाज के अनुरूप मर्यादित जीवन जीती है इसका बहुत बढ़ा उदाहरण हमारा सिनेमा है जिसने समाज को दूषित कलुषित मनोरंजन देकर युवतियों को भटकाव की ओर धकेला है | समाज में आये दिन घटने वाली शर्मनाक घटनाएं जिनसे समाचार पत्र भरेपढ़ेहै सीमाओं के उल्लंघन के साक्षी है  रामायण कि एक घटना याद आती है, की जब लक्ष्मण द्वारा लक्ष्मण रेखा एक बार खींच दी गयी तो वह केवल एक रेखा मात्र नही बल्कि समाजिक मर्याद का प्रतिनिधित्व करने वाली मर्यादा की रेखा बन गयी थी|लक्ष्मण ने बाण से रेखा खीचकर उसे विश्वास रुपी मन्त्रों से अभिमंत्रित किया और राम की सहायता के लिए जंगल की ओरदौढ़ पढ़ेसीता को हिदायत दी गयी कि वह रेखा पार न करे लेकिन विधि का विधान कुछ अलग ही था| रावण जैसा सिद्ध भी उस रेखा के भीतर नहीं जा सका था| लेकिन सीता ने जैसे हीलक्ष्मण रेखा पार की रघुकुल संकट में पड़ गया फिर जो हुआ वो सभी को विदित है| नारी जब तक सीमाओं में रहे कुल की रक्षा भगवान् करते है एक बार मर्यादा की सीमा लांघी तो स्त्री पर पुरुष के विश्वास और स्त्री की अस्मिता और गरिमा का हरण तय है जब सीता जैसी सती को मर्यादा उल्लंघन का कठोर कष्ट उठाना पड़ा यहाँ तक की दोबार वनवास भोगना पढ़ा | न्यायालयों में लंबित मुकदमों की संख्या बताती है कि सीमायें रोज लांघी जा रही है क्योंकिकलयुग में लक्ष्मण रेखा धूमिल हो चुकी है|