नौकरी वाली बहू

लेखिका -राधा शर्मा ( मुंबई -महाराष्ट्र ) कल रास्ते में निधि मिली | निधि उम्र ३२ साल एक घरेलू महिला व् दो बच्चों की माँ है | सामान्य रूप से शिक्षित निधि जब १० साल पूर्व गाजे –बाजे के साथ ससुराल में आई थी तब अक्सर उसे अपने पिता द्वारा दहेज़ कम देने के ताने सुनने पड़ते थे | निधि सोचती कि समय के साथ सब ठीक हो जाएगा ,वह सबकी की सेवा से सबका दिल जीतने का प्रयास करती रही |पर जब दहेज़ के ताने बर्दाश्त से बाहर हो गए तो उसने छोटे बच्चो को ट्यूशन पढ़ना शुरू किया | अपने ममतामयी व्यवहार के कारण धीरे –धीरे कई बच्चे उससे ट्यूशन पढने आने लगे |निधि खुश रहने लगी पर उसका मन तब टूट गया जब उसने अपनी सास को पड़ोसन से कहते सुना “ बहू के पिता ने तो कुछ दिया नहीं,लड़का सेत में चला गया . पर अब ये कुछ कमाने लगी है ,चलो हम यही मान लेंगे यही दहेज़ है | हमारे समाज का कोढ़ दहेज़ न जाने कितनी लड़कियों को लील चुका है | कहीं न कहीं लड़की जन्म के समय निम्न और माध्यम वर्गीय माता –पिता के माथे पर आई चिंता की लकीरों का कारण भी यही है कि उन्हें लगता है “ बेटी हो गयी अब तो उन्हें जोड़ना ही जोड़ना है उसके लिए | माता –पिता के मन में यह भाव रहता है कि अगर उनके पास ज्यादा पैसे होंगे तो अपनी बेटी के लिए ज्यादा दहेज़ का इंतजाम करके ज्यादा अच्छे घर में शादी कर पायेंगे |दहेज़ ही अनेकों बेमेल विवाहों की वजह बनता है जहाँ लडकियाँ केवल हाथ पीले करने के उद्देश्य से ब्याह दी जाती हैं | मानसिक शारीरिक ,वैचारिक स्तर पर हुए ये बेमेल विवाह एक पूरे परिवार को घुट –घुट कर जीने को मजबूर कर देते हैं | इसी दहेज प्रथा महिसासुर ने एक नया रूप ले लिया है सर्विस वाली बहू को दहेज़ मानने का | अपने बेटे की शादी का कार्ड बाँटने आई मीता जी खुले आम सबसे कहती घूम रहीं हैं “ लड़की देखने –सुनने में हमें ज्यादा पसंद नहीं थी,उसके पिता की भी हैसियत कोई ख़ास नहीं थी | पर लड़की किसी कम्पनी में उच्च पद पर है | मोटी तनख्वाह है | आखिर पैसा जाएगा कहाँ ,आयेगा तो हमारे ही घर | हमारे लिए तो सर्विस वाली बहू ही दहेज़ है |ऊपर से उसके ओहदे व् रसूख की वजह से हमारे चार काम बनेगे , घर परिवार के बच्चो को नौकरी मिलने की संभावना है | वो समझो बोनस |मीता जी अपने व्यवहारिक ज्ञान पर इतरा रही थी और मैं दो दिलों के पवत्र बंधन विवाह की कूटनीतिक राजनीति को देख कर भ्रम में पड रहा था कि क्या ऐसी कमजोर नीव पर बने रिश्ते दीर्घजीवी हो सकते हैं ? कुछ समय पहले कुछ ऐसा ही विषय टी वी के एक नाटक में देखा था | जहाँ लड़के के परिवार वाले अपने लड़के की नौकरी न करने वाली बात लड़की वालों से छुपा लेते हैं | बार – बार झूठ पर झूठ बोलते हैं कि उन्हें अपने लायक लड़के के लिए बस लायक लड़की चाहिए |दहेज़ तो एक रुपया नहीं चाहिए |दरसल उनकी नज़र लड़की की मोटी तनख्वाह वाली नौकरी पर होती है, जिसमें उन्हें अपने बेरोजगार बेटे, बेटियों की शादी व् घर की आर्थिक समस्याओं का समाधान नज़र आता है | लड़की वाले उनकी बातों और उच्च संस्कारों के झूठे ताने –बाने की गिरफ्त में आ जाते है | वो तो नाटक था पर अफ़सोस हमारे समाज में ये नाटक कोढ़ में खाज की तरह फैलता जा रहा है | आजकल लडकियाँ तेज़ी से विकास के पथ पर हैं | उच्च शिक्षा पा कर लडकियाँ लगभग हर क्षेत्र में अपनी प्रतिभा का डंका बजा चुकी हैं | बोर्ड परीक्षाओ में लड़कियों की श्रेष्ठता काफी पहले ही सिद्ध हो चुकी है अब आई ए . एस जैसी परीक्षाओ में उन्होंने अपना परचम लहरा दिया है | ऐसे में अपने योग्य पुत्र के लिए एक उच्च शिक्षित सर्विस वाली बहू की कामना करना कोई गलत बात नहीं है | परिवार में स्त्री –पुरुष दोनों कमाए तो आर्थिक रूप से मजबूती आती है | घर सुचारू रूप से चलता है | इसमें कुछ गलत नहीं हैं | फर्क केवल भावना का है| जो लोग सर्विस वाली बहू को दहेज़ समझ कर घर लाते हैं या उसके लिए लिए झूठ बोल कर अपना स्वार्थ सिद्ध करते हैं | सर्विस वाली बहू पाने के लिए अपने घर व् संस्कारो को बढ़ा चढ़ा कर पेश करते हैं | समाज में यह कहते घूमते हैं कि “ हमारी तो बहू ही हमारा दहेज़ है | तो समझ लीजिये की उन की नीयत में खोट है |  अगर कोई ऐसा करता हैं तो जाहिर सी बात है वो लोग अपनी बहू को नोट कमाने वाली मशीन समझेंगे जो दिन भर ऑफिस से खट कर आये और घर आते ही अपनी सारी थकान भूल कर गृह कार्य दक्ष बहू की तरह सारे काम उसी प्रकार करे जैसे घर में रहने वाली बहूए करती हैं | साथ ही महीने के अंत में अपनी तनख्वाह भी घर खर्च देवर के मोबाइल व् ननद की ड्रेस की फरमाइशों को पूरा करने में लगाए | तो यह बहू को इंसान न समझने वाली बात हो गयी | ऐसे घरों में ज्यादातर बहूओं को दोहरी जिम्मेदारी निभानी पड़ती है | झूठ बोलकर की गयी शादी में हुआ धोखा जहाँ उन्हें अन्दर से तोड़ देता है वही सबको खुश रखने के चक्कर में उनका स्वास्थ्य प्रभावित होता है | ऑफिस में वो बड़ी जिम्मेदारियाँ लेने से बचती हैं और अक्सर पदोन्नति में पिछड जाती हैं | घर और बाहर दोनों मोर्चों में अपने को सिद्ध करने के असफल प्रयास में अवसाद की शिकार हो जाती हैं | इससे घर के सारे रिश्ते प्रभावित होते हैं | सर्विस वाली बहू लाना गलत नहीं है पर उसे दहेज़ से जोड़ देना कहाँ तक न्याय संगत है ? जरूरत है समाज के सोच में परिवर्तन की कि अगर बहू घर के बाहर जा कर काम करती है तो उसके द्वारा अर्जित धन पर उसका अधिकार सुनिश्चित होना चाहिए | … Read more

साहसी महिलायें हर क्षेत्र में बदलाव की मिसाल कायम कर रही हैं- प्रदीप कुमार सिंह

             विश्व की साहसी महिलायें हर क्षेत्र में मिसाल कायम कर रही हैं। कुछ ऐसी बहादुर तथा विश्वास से भरी बेटियों से रूबरू होते हैं, जिन्होंने समाज में बदलाव और महिला सम्मान के लिए सराहनीय तथा अनुकरणीय मिसाल पेश की है। देश में डीजल इंजन ट्रेन चलाने वाली पहली महिला मुमताज काजी हो या पश्चिम बंगाल में बाल और महिला तस्करी के खिलाफ आवाज उठाने वाली अनोयारा खातून। ऐसी कई आम महिलाएं हैं जो भले ही बहुत लोकप्रिय न हो लेकिन उन्हें इस साल नारी शक्ति पुरस्कार के लिए चुना गया। राष्ट्रपति श्री प्रणव मुखर्जी ने अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस 8 मार्च को 30 महिलाओं को पुरस्कृत किया। पुरस्कार पाने वालों में नागालैण्ड की महिला पत्रकार बानो हारालू भी शामिल है जो नागालैण्ड में पर्यावरण संरक्षण के लिए काम कर रही है। उत्तराखण्ड की दिव्या रावत ग्रामीणों के साथ मशरूम की खेती को विकसित करने की भूमिका निभा रही है। छत्तीसगढ़ पुलिस में कांस्टेबल स्मिता तांडी ने 2015 में जीवनदीप समूह बनाया जो गरीबों को स्वास्थ्य सुविधाएं उपलब्ध कराने के लिए आर्थिक मदद करता है।             सऊदी में कार चलाने तो फ्रांस में समान वेतन के अधिकार के लिए। पाकिस्तान में घरेलू हिंसा तो अमेरिका में राजनेताओं की भद्दी टिप्पणियों से बचने को। दुनिया के कई देशों में आधी आबादी बड़ी-बड़ी लड़ाइयां लड़ रही हंै। बीते साल मई में पाकिस्तान के काउंसिल आॅफ इस्लामिक आइडियोलाॅजी ने एक प्रस्ताव पेश कर पत्नियों की पिटाई को जायज ठहराया। इसके बाद ट्विटर पर ट्राईबीटिंगमीलाइटली अभियान शुरू हो गया। हजारों महिलाओं ने फोटो के साथ संदेश पोस्ट कर लिखे कि जैसे पति ने पीटा तो उसके हाथ तोड़ दूंगी। अमेरिका में इस साल 21 जनवरी की तारीख सबसे बड़े महिला आंदोलन की गवाह बनी। वाशिंगटन शहर में लाखों महिलाएं गुलाबी टोपी पहने सड़कों पर उतरीं। उन्होंने अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्डो ट्रंप की महिला विरोधी टिप्पणियों का कड़ा विरोध किया। दुनियाभर में लाखों महिलाओं ने सोशल मीडिया पर उनका समर्थन किया।             तुर्की के इस्तांबुल में नवंबर 2016 में हजारों महिलाओं ने उस बिल का विरोध किया जिसमें यह प्रावधान था कि यदि किसी नाबालिग लड़की से दुष्कर्म का आरोपी उससे शादी कर ले तो उसे सजा नहीं दी जाएगी। इसके विरोध में महिलाओं ने नारे लगाऐ। फिलहाल बिल वापस ले लिया गया पर महिलाएं दुष्कर्मियों को कड़ी सजा देने की मांग पर डटी हैं। चीन में फरवरी 2017 में एक महिला संगठन का सोशल मीडिया अकाउंट बंद कर दिया गया। इस अकाउंट में संगठन ने ए डे बिदाउट वूमेन शीर्षक से एक लेख पोस्ट किया था। साथ में अमेरिकी महिलाओं के प्रदर्शन की तस्वीर भी जारी की थी। चीनी महिलाएं सोशल मीडिया पर विचार व्यक्त करने की आजादी मांग रही हैं।             बिहार की सुधा वर्गीज विकास और महिला सशक्तीकरण की पर्याय बन चुकी हैं। वर्गीज ने जीवन मुसहर जाति के विकास में समर्पित कर दिया है। इसके लिए सरकार ने 2006 में उन्हें पद्मश्री से सम्मानित किया। पटना से सटे मनेर में दो लड़कियों पर इसलिए तेजाब डाल दिया गया क्योंकि वे दबंगों की छेड़खानी का विरोध करती थी। महाराष्ट्र की वर्षा जवलगेकर ने इस हमले की शिकार चंचल का साथ दिया। एक बार वर्षा पर भी हमला हुआ। तब से वे परिवर्तन केन्द्र से जुड़कर तेजाब पीड़ितों को इंसाफ दिलाने का काम कर रही हैं। उन्होंने एक पीआईएल अप्रैल 2013 में दर्ज की।  दिसम्बर 2015 में सुप्रीम कोर्ट ने आदेश दिया कि तेजाब पीड़िता को विकलांग का दर्जा और मुआवजा 13 लाख रूपये दिए जाएं।             देहरादून में ढोल की थाप इस पहाड़ी इलाके में महिला सशक्तीकरण की गूंज पैदा कर रही है। गायिका माधुरी बड़थ्वाल ने पहली बार महिलाओं का ढोल बैंड बनाया है। आकाशवाणी में 32 साल काम करने बाद माधुरी जब रिटायर होकर दून आई तब उन्होंने बीस ऐसी महिला सहयोगियों का ग्रुप तैयार कर लिया है जो ढोल वादन में पारंगत हो रही हैं। उत्तर प्रदेश के सहारनपुर की अतिया साबरी तीन तलाक के खिलाफ आवाज बुलंद कर सुप्रीम कोर्ट पहुंची। अतिया का निकाह 5 मार्च 2012 को हरिद्वार के वाजिद अली से हुआ। दो बेटियां होने पर पति ने एक पत्र भेजकर तलाक दे दिया। अतिया ने आठ जनवरी 2017 को सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की। अतिया के मुताबिक, निकाह और तलाक के वक्त पति-पत्नी की सहमति जरूरी है। मगर पति ने तलाक के वक्त सहमति नहीं ली। महिलाएं घर बैठे ईमेल से भी किसी भी मामले की शिकायत दर्ज करवा सकती हैं। इसके लिए उन्हें थाने आने की जरूरत नहीं है।             कहते है कि मारने वाले का हाथ पकड़ा जा सकता है, मगर कहने वाले की जुबान नहीं। जीवन में कुछ करना या बनना चाहते हैं, तो यह सोचो कि लोग क्या कहेंगे? हाॅलीवुड की एक सुप्रसिद्ध अभिनेत्री के शब्दों में – हर आवाज को यदि हम सुनंेगे, तो हम वे सब नहीं कर पायेंगे, जो हम करना चाहते हैं। मैंने इसी सूत्र को अपनाया है और मैं संतुष्ट हूं। हर समय लोगों की सोच की चिंता करते रहने से हमारी इच्छाएं दम तोड़ने लगती हैं। जब हम स्वयं से संतुष्ट हैं, तो फिर लोगों की बातों से बिल्कुल विचलित न हों। भारत की पहली महिला फायर फाइटर हर्षिणी कान्हेकर, जो नेशनल फायर सर्विसेज काॅलेज की पहली ग्रेजुएट हैं, कहती हैं कि ‘मुझ पर भी लोगों ने बहुत आरोप लगाए। लेकिन मैंने लोगों की बातों पर ध्यान नहीं दिया और अपनी पूरी ऊर्जा फाइटर बनाने में लगा दी। आग पर काबू पाने वाली हर्षिणी आज महिलाओं की प्रेरणास्रोत हैं। महिलाएं हैं तो दुनिया है। हर पल, हर समय खुद को महत्वपूर्ण समझें, औरत का जितना सम्मान होगा दुनिया उतनी ही खूबसूरत होगी। समय के साथ माहौल में भी काफी बदलाव आया है। पुरूषों की सोच भी बदली है।             काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के प्रोफेसर श्री सदानंद साही के अनुसार लगभग एक दशक पहले में विश्वविद्यालय के महिला अध्ययन कंेद्र से जुड़ा था। उस दौर में हमने महिला अध्ययन में पाठ्यक्रम आदि बनाए। तब हमें कुछ पुरूष सहकर्मियों की टिप्पणियां हैरत में डाल देतीं। वे कहते रहते कि कहां फंसे हो, महिलाएं वैसे ही बेहाथ हो गई हैं, आप लोग महिला अध्ययन कराकर और दिमाग खराब कर रहे हैं। तब मुझे लगा कि महिला अध्ययन की जरूरत … Read more

क्या मेरी रजा की जरूरत नहीं थी ?

तीन तलाक पर आधारित कहानी  उफ़ ! क्या दिन थे वो | जब बनी थी तुम्हारी शरीके हयात | तुम्हारे जीवन में भरने को रंग सुर्ख जोड़े में किया था तुम्हारे घर में प्रवेश , जीवन भर साथ निभाने के वादे के साथ | पूरे परिवार के बीच बैठे हुए जब – जब टकरा जाती थी तुमसे नज़र तो मारे हया के मेरे लिबास से भी ज्यादा सुर्ख लाल हो जाते थे मेरे गाल …… और बन जाता हमारे बीच एक अनदेखा सा सेतु | जिसमें बहता था हमारा प्रेम निशब्द और मौन सा | पर सब के बीच बात करे तो कैसे ? फिर नौकरी की जद्दोजहद में तुम्हारा घर से दूर जाना | बात होती भी तो कैसे | मैं यहाँ तडपती और तुम वहां | समाधान तुम्ही ने निकाला था | | जब मेरे जन्मदिन पर तोहफे के रूप में मेरी हथेली पर रख दिया था तुमने एक मोबाइल और मुस्कुरा कर कहा था | अब बस हमेशा मैं तुमसे एक घंटी की दूरी पर रहूँगा | सही कहा था तुमने जब भी घंटी बजती | बज उठते थे दो दिल | बज उठते थे जज्बातों के हजारों सितार |बज उठता था हमारे तुम्हारे बीच का प्रेम | होती थी घंटों बातें | इसी फोन पर तो दी थी मैंने तुम्हे अपनी प्रेगनेंसी की पहली खबर | बच्चों से खुश हो गए थे तुम | कैसे टोंका था मैंने ,” अब बाप बनने वाले हो , बच्चों सी हरकते बंद करो |इसी फोन पर तो दी थी तुमने मुझे अपने प्रमोशन की खबर | तुमसे कहीं ज्यादा खुश हुई थी मैं | जब अब्बा का इंतकाल हुआ था और तुम ऑफिस में थे, मैं तुमको इत्तला देना चाहती थी , पर शब्द साथ नहीं दे रहे थे | आंसुओं में शब्द जैसे बहे जा रहे थे | तुमने महसूस किया था मुझसे ज्यादा मेरी पीड़ा को | तभी तो रखा नहीं था फोन | ऑफिस से घर आते हुए ड्राइव करते हुए भी लगातार बोले जा रहे थे | खौफ था तुम्हे ,कहीं तुम्हारे आने से पहले टूट कर बिखर न जाऊं मैं | एक आदत सी हो गयी थी इस फोन की | लगता था तुम सदा हो मुझसे एक घंटी की दूरी पर | समय का दरिया बहता गया | साथ में बहती गयी हमारे -तुम्हारे बीच की गर्मजोशियाँ | मैं घर और बच्चों में व्यस्त होती गयी और तुम ऑफिस में | घर पर जो लम्हे मिलते वो तमाम गलतफहमियों से उपजे तनाव की भेंट चढ़ जाते | बड़ा भयानक दौर रहा हमारे बीच , लड़ाई – झगड़ों तोहमतों का | न तुम झुकते न मैं | कुछ तुम टूटते कुछ मैं | जुड़ा था तो बस रिश्ता , कुछ टूटा – टूटा सा कुछ जुड़ा – जुड़ा सा | ऑफिस से फोन अब भी आते पर घंटों की बातें मिनटों में सिमटने लगीं | क्या लाना है , और जरूरी कामों तक सिमट कर रह गया हमारा संवाद | फिर भी तार तो जुड़े थे | और एक घंटी पर घनघना उठते थे दो दिल | हालाँकि कुछ जुदा तरीके से , कुछ जुदा चाल से | पर ये अहसास तो था की एक दिन मिल बैठकर सुलझा लेंगे अपने और तुम्हारे बीच की सारी गलतफहमियाँ | या फिर कभी तुम पहले की तरह फोन पर पढ़ डोगे कोई रूमानी सा शेर और मैं फिर हो जाउंगी लाज से दोहरी …….. और बज़ उठेगी एक घंटी हमारे तुम्हारे दरमियान | फेसबुक पेज नारी संवेदना के स्वर पर कुछ दिनों से तुम कुछ बोल ही नहीं रहे थे | जाने क्या चल रहा था तुम्हारे मन में | मैं लाख कोशिशे कर रही थी | चाहे झगडा ही करो पर कुछ बोलो तो ? ये दम घोटू चुप्पी मेरी जान ले रही थी |मैं अहिस्ता – आहिस्ता मर रही थी | पर एक उम्मीद थी की हो न हो एक दिन सब कुछ पहले जैसा हो जाएगा | और आज जब तुम्हारा कई दिन बाद फोन आया तो बज़ उठे मेरे दिल के तार | कितने ख्वाब  पाल लिए मैंने हेलो कहने से पहले | पर रूह पिघल गयी मेरी जब तुमने तलाक, तलाक, तलाक के तीन पत्थर मार दिए और हमारे रिश्ते को कुछ कहे सुने बिना इस तरह खत्म कर दिया | काश एक बार तुम सामने बैठ कर बात कर लेते | काश मेरा नज़रिया जानने की कोशिश करते , काश ! अपने मन में चलती इस गुथम गुत्था का हल्का भी ईशारा मुझे करते , तो शायद … | एक झटके ख़त्म हो गये हमारे बीच के वो खट्टे – मीठे पल , वो अच्छी बुरी यादें और वो फोन की घंटी भी जो हमारे दिलों को एक किया करती थी | आंसुओं के सैलाब के बीच में डूब जाता है ये प्रश्न की मेरी जिन्दगी से जुड़े इस फैसले में ,” क्या मेरी रजा की जरूरत नहीं थी ? ” वंदना बाजपेयी                             यह भी पढ़ें … तीन तलाक : औरतों और तरक्की पसंद पुरुषों को स्वयं आगे आना होगा महिला दिवस और नारी मन की व्यथा किट्टी पार्टी

सास पसंद नहीं करती तो इसमें महिलाओं की गलती नहीं

हाल ही में चेतन भगत द्वारा भारतीय महिलाओं के लिए लिखा गया पत्र, सोशल मीडिया पर खासा वायरल हो रहा है। यह पत्र दरअसल एक अध्ययन की रिपोर्ट के जवाब में लिखा गया है, जिसमें यह खुलासा किया गया है कि भारतीय महिलाएं, विश्व की अन्य महिलाओं की तुलना में सबसे ज्यादा तनाव में होती हैं। चेतन भगत का कहना है कि हम महिलाओं के साथ क्या कर रहे हैं, मैं पक्ष ले रहा हूं, लेकिन भारतीय महिलाएं दुनिया की सबसे खूबसूरत महिलाएं हैं। एक मां, बहन, बेटी, सहकर्मी, पत्नी या प्रेमिका के रूप में हम उन्हें प्रेम करते हैं। क्या आप महिलाओं के बगैर जीवन की कल्पना कर सकते हैं? जानें, कौन सी 5 सलाह दी चेतन भगत ने महिलाओं को… 1 पहली बात, कभी मत सोचिए कि आप निशक्त या असक्षम हैं हैं। अगर आपकी सास आपको पसंद नहीं करती, उनके विचार उन पर ही छोड़ दीजिए। आप वही रहिए, जो आप वाकई हैं, ना कि वह जो आपके होने या बन जाने की अपेक्षा की गई है। अगर आपको पसंद नहीं किया जा रहा, तो यह उनकी समस्या है, आपकी नहीं। 2 दूसरी बात, अगर आप कार्यस्थल पर अच्छा कार्य कर रही हैं, और इसके बावजूद आपके बॉस आपको महत्व नहीं देते, तो उनसे बात कीजिए या फिर जॉब छोड़ दीजि‍ए। प्रतिभावान, मेहनती लोगों की हर जगह बहुत आवश्यकता है। 3 तीसरी बात, खुद को शिक्षित करें, हुनर सीखें, पहुंच बनाएं और आर्थ‍िक रूप से मजबूत बनाने के लिए प्रयास करें। अगली बार अगर पति आपसे कहते हैं कि आप एक अच्छी पत्नी, मां या बहू नहीं हैं तो आप बेशक उन्हें सही जवाब दे सकती हैं या हालात बिगड़ने पर चलता कर सकती हैं। 4 चौथी बात, अपने ऊपर दोगुनी जिम्मेदारियां होने पर कभी तनाव मत पालिए। यह करना कठिन है, लेकिन असंभव नहीं। आप कोई परीक्षा नहीं दे रही हैं, इसलिए हर बार अच्छे या सौ में से सौ नंबर लाने की उम्मीद मत कीजिए। अगर आप लंच के लिए चार व्यंजन नहीं बनातीं, तो भी ठीक है। एक प्रकार के व्यंजन या भोजन से भी पेट भरा जा सकता है। अगर आप देर रात तक काम नहीं या आपको प्रमोशन नहीं मिलता, तो भी ठीक है क्योंकि जीवन के अंतिम दिन अपनी जॉब और पद किसी को याद नहीं रहता। 5 पांचवी और सबसे महत्वपूर्ण बात, किसी अन्य महिला से अपनी तुलना या स्पर्धा बिल्कुत मत कीजिए। यह बातकोई मायने नहीं रखती कि उनके लिए कोई आपसे बेहतर स्क्रेबबुक लिखेगा, या दूसरा कोई बेहतर डाइट के जरिए जदा वजन कम करेगा। आपकी पड़ोसन अपने पति के लिए 6 डब्बों वाला टिफिन तैयार करके देती हो, और आप वो नहीं करती, तो इसमें कोई हर्ज नहीं है। बस, आप अपना काम बेहतर तरीके से करें, लेकिन अपना रिपोर्ट कार्ड पर ध्यान न दें या ही खुद से, सबसे बेहतरीन होने की उम्मीद करें। इस दुनिया में ऐसी कोई औरत नहीं है जो बिल्कुल आदर्श महिला हो। और अगर आप वह बनने की कोशिश कर रही हैं, तो आप सिर्फ एक ही चीज पा सकेंगी, वह है तनाव। तो सांस ली‍जि‍ए, रिलेक्स हो जाएं और खुद को बताएं, कि आप खूबसूरत हैं। अपनी क्षमता अनुसार बेहतरीन काम करें और खुद को एक शांतिपूर्ण और सुकून से भरी जिंदगी का हकदार बनाएं। अगर कोई आपसे दूर जाना चाह रहा है, तो यह उनकी गलती है, आपकी नहीं। आपका इस धरती पर आने का उद्देश्य किसी को रिझाना या संतुष्ट करना नहीं है। आपका उद्देश्य वो है, जो आप करना चाहते हैं, और इसके बदले में एक अच्छी अच्छी जिंदगी बिताना भी। तो अगली बार इस सर्वे में, मैं भारतीय महिलाओं को टॉप लिस्ट में नहीं देखना चाहता…मैं उन्हें दुनिया की सबसे खुश और आनंदपूर्ण महिलाओं में देखना चाहता हूं। #वेब वायरल –  फेसबुक पोस्ट से साभार वेब दुनिया फोटो क्रेडिट – विकिमीडिया से साभार

फंदे – फंदे बुनती है प्यार

गर्मी का दरवाज़ा बंद होते ही आसमान के झरोखे से उतर आई है गुलाबी सर्दी | जिसके आते ही पुराने दीवान कुलबुलाने लगे | फिर से निकल आये स्वेटर , कम्बल और रजाइयां और साथ ही साथ पिछले साल संभाल कर रखी गयी सलाइयाँ |खरीद कर आ गई नयी ऊन | फिर से पड़ गए फंदे कुछ उलटे कुछ सीधे , मिलाये जाने लगे रंग , कुछ चटख कुछ शांत , चंचल हो उठी मौन अंगुलियाँ , सरपट दौड़ती लगी किसी संगतराश की तरह , ढालने लगी आकार आकार , पत्थर से नहीं मुलायम धागों से ……… और बुने जाने लगे स्वेटर | अटूट बंधन स्वेटर और स्त्री का बहुत अनोखा रिश्ता है |सलाइयाँ उलटे – सीधे फंदे और ढेर सारे रंग | जिनमें चुनती है अपने मन का रंग | शायद अपने भावों को अभिव्यक्त करने के लिए | तभी तो ६ साल की पिंकी जो अभी ठीक से दो का पहाड़ा भी पढना नहीं सीख पायी है , माँ के बगल में बैठ कर स्वेटर सीखने की जिद्द करती है | नन्हीं कलाई को सलाई भारी लगती है | फिर भी उलटे सीधे फंदे चलाने ही हैं | बुनना है गुडिय के लिए स्वेटर | अरे जब सब सर्दी में स्वेटर पहनेगे तो क्या उसकी गुड़ियाँ सूती कपड़ों में जाड़े में ठिठुरेगी | ये उसकी चिंता – फिकर है या स्नेह दिखाने का तरीका | पता नहीं | उसे तो बस इतना पता है की रूपा , डौली , सुधा सब की गुड़ियां स्वेअतर पहनेंगी | फिर मेरी ही क्यों न पहने | उसे सीखना है तो सीखना है | बुनना है तो बुनना है …. बस | समय पंख लगा कर उड़ता है | पिंकी किशोरी बनती है फिर युवा और फिर वृद्ध हो जाती है | न जाने कब उसकी गुडिया की जगह छोटा भाई , पिता , पति , बेटा व् पोता ले लेता है पता ही नहीं चलता | बहुत कुछ बदल जाता है , नहीं बदलते हैं तो बस ऊन के धागे सलाइयाँ , फंदे कुछ उलटे कुछ सीधे |जो सर्दी आते ही अपनी पैठ बना ही लेते हैं | जिनमें उलझ – उलझ कर बहुत कुछ सुलझा देता है नारी मन | कभी सोंचा है कैसे ? नारी संवेदना के स्वर आज बाज़ार में एक से एक ब्रांडेड स्वेटर मिल जाते हैं , औरतें भी घर बाहर संभाल रही हैं | जिसके कारण हमेशा समय की कमी पड़ी रहती है | फिर भी सर्दियाँ आते ही न जाने क्यों पड़ ही जाते हैं फंदे | कभी गुड्डू के पापा के लिए हाफ स्वेटर , कभी पिताजी के लिए मफलर और समय कम हुआ तो छोटू के दस्ताने ही सही | कहाँ से निकालती हैं इसके लिए समय और क्यों ? इस क्यों पर ही आज राह चलते ठिठक गयी थी मैं | ये क्यों ही तो पूंछा था एक बच्चे ने स्वेटर बिनती हुई अपनी माँ से | मासूम से शब्द झंकृत हो उठे थे | जब उसने माँ के गले में बाँहें डाल कर कहा था ” मम्मा ,आप इतना थक जाती हो , फिर स्वेटर क्यों बुनती हो ? बाज़ार से खरीद लेते हैं | बदले में बिना कुछ बोले मुस्कुरा उठी थी उसकी माँ | सच का हौसला फेस् बुक पेज  बताती भी तो क्या बच्चा समझ पाता | ये तो बस औरतें ही जानती हैं की औरतें स्वेटर नहीं बुनती | बुनती हैं दुआएं , बुनती हैं आशीर्वाद , बुनती हैं ढेर सारा स्नेह | जिनकी गर्माहट से भर जाता है सारा घर | भला बाज़ार के स्वेटर इनका क्या मुकाबला करेंगे |और देखों न के बोड पर थिरकती मेरी अंगुलियाँ भी बेचैन हो उठी ……….. बुनने को कुछ स्नेह , कुछ गर्माहट |

आखिर क्यों छुपाती है महिलायें पैसे

मोदी सरकार द्वारा बड़े नोटों को बंद करने के फैसले के बाद लोग अपने घर में रखे ५०० व् हज़ार के नोटों को गिनने में लग गए | हर व्यक्ति की कोशिश यह थी की इन नोटों को एक जगह इकट्ठा करके या तो बदला जाए या बैंक में जमा किया जाए | इसी खोजबीन में घर की महिलाओ द्वारा साड़ी की तहों में , चूड़ी के डिब्बों में , रसोई की दराजों में रखे गए नोट भी घर के पुरुषों को सौंपे गए | बस घरों में उन् नोटों का मिलना था की घर के पुरुषों ने उसे मजाकिया लहजे में काला धन करार दे दिया | सोशल मीडिया पर भी हास – परिहास के किस्से आते रहे | तमाम कार्टून अपने तथाकथित रूप से घर की महिलाओं द्वारा छुपाये गए काला धन के निकल जाने पर बनाए जाते रहे | महिलाओ ने भी अपने ऊपर बने इन व्यंगों को खुल कर शेयर किया | परन्तु अगर एक स्त्री के नज़रिए से देखूँ तो इस तरह महिलाओं द्वारा आपदा प्रबंधन के लिए जमा की गयी राशि को काला धन करार देना सर्वथा गलत है | आखिर क्यों छुपाती है महिलायें पैसे  महिलाएं , सब्जी – भाजी , रिक्शा आदि के खर्चों में कटौती कर के बड़ी म्हणत से ये पैसे बचाती हैं | जिसे वे पति से चुरा कर नहीं छुपाकर रखती हैं | वह इन पैसों का इस्तेमाल बहुधा आपदा प्रबंधन के लिए करती हैं | ताकि वक्त बेवक्त जरूरत पड़ने पर बैंक ना भागना पड़े | हालांकि क्रेडिट , डेबिट कार्ड की सुविधा हो जाने पर , व् महिलाओ द्वारा आर्थिक रूप से स्वतंत्र हो जाने पर इस छुपाये हुए धन की मात्रा महिलाओं में घटी है | परन्तु फिर भी महिलाएं कुछ धन छुपा कर रखती हैं |मोदी ने भी अपने एक भाषण में खुल कर स्वीकार किया है की हमारी माताएं या बहने घर खर्च से कुछ पैसे बचा कर रखती हैं |पति – पत्नी का रिश्ता पारदर्शिता व् विश्वास का होता है | फिर भी वो पति से बचा कर पैसे छुपाती हैं | सवाल ये है की आखिर वो ऐसा क्यों करती हैं ? आपदा प्रबंधन के लिए  छोटे शहरों या गांवों में जहाँ बैंक से पैसे निकालना इतना आसान नहीं होता वहां महिलाएं कुछ धन इसलिए संभाल कर रखती हैं की कभी किसी बिमारी- तकलीफ के आने पर तुरंत पैसों का इंतजाम हो सके व् पड़ोसियों के आगे हाथ न फैलाने पड़ें |या अचानक किसी अतिथि के आने पर उसके सत्कार में पैसे कम न पड़े |ज्यादातर ये पैसा पति की जानकारी में होता है और दोनों उसे मिल कर एक निश्चित स्थान पर रखते हैं | कुछ अपना पैसा होने का भाव  हमारे देश में अधिकतर महिलाओं को घर से बाहर जाने की स्वतंत्रता नहीं है | अक्सर पति महिलाओं की छोटी – छोटी मांगों को फिजूलखर्ची करार दे देते हैं | जब बच्चे कोइचीज की जिद करते हैं तो भी सदा पिता की राय के अनुसार ही पैसे खर्च होते हैं |ऐसे में अपनी हर छोटी बड़ी आवश्यकता के लिए पति के आगे हाथ फैलाना महिलाओ को आहात करता है | एक बराबरी के रिश्ते में आर्थिक मामलों में उनकी राय की अनदेखी उनके स्वाभिमान को आहत करती है | इसलिए वो कुछ धन उस इक्षा पूर्ति के लिए छुपा कर रखती हैं | पर यह पति से चुराया धन नहीं होता | इसके लिए वो सब्जी बाजी के लिए घंटों मोल – भाव करती हैं , रिक्शे के पैसे बचा कर मीलों पैदल चलती हैं | या साडी आदि के लिए मायके से दिए गए पैसों को कभी किसी अन्य इक्षा की पूर्ति के लिए संजो कर रख लेती हैं |जब वो इस धन को खर्च करती हैं तो उन्हें अपने कमाए पैसों जैसा भाव उत्पन्न होता है | शराबी या खर्चीले पति से बचाने के लिए  यह तरह की बचत निम्न वर्ग या निमंमध्यम वर्गीय महिलाएं करती हैं | अक्सर हमारे घरों में आने वाली कामवालियां अपनी तन्खवाह के कुछ पैसे अपनी मालकिनों के घर में रखवा कर जमा करती हैं | इनमें से ज्यादातर के पति शराबी होते हैं |वो घर के अन्दर महिलाओं द्वारा आपदा प्रबंधन के लिए छुपाये गए धन को ढूंढ लेते हैं | महिलाओं द्वारा रोकने पर वे उनकी बेरहमी से पिटाई करते हैं व् उस पैसे की शराब पी जाते हैं | ये महिलाएं इतनी पढ़ी -लिखी नहीं होती की बैंक जा सके | इसलिए ये अपने परिश्रम की कीमत घर में कम बता कर मालिकों से धन को मालकिनों के यहाँ छुपा कर रखती हैं | जिनके पति बिल्कुल आर्थिक आज़ादी नहीं देते  इस वर्ग में वो महिलाएं आती हैं जिनके पति सुई से ले कर सुग्गे तक खुद खरीद कर लाते हैं | उन्ह्रें बाज़ार जाने या खुद खरीद कर कुछ लाने की अनुमति नहीं होती | ये महिलाएं घरों में कैद केवल घरेलु काम – काज में व्यस्त रहती हैं | परन्तु कभी चीते – मोटे खर्चे करने या मायके में जाने पर अपनी ससुराल की इज्ज़त के लिए वो धन जो उन्हें उपहार आदि में प्राप्त होता है छुपा कर रखती हैं | महिलाओ द्वारा धन छुपा कर रखने के जो भी कारण हो उसे काले धन की संज्ञा देना गलत है | पहले तोयह धन बहुत कम होता है | दूसरे क्योंकि ये धन पति की तन्खवाह का ही हिस्सा होता है उस पर टैक्स देना पति का काम है |जिन घरों में लाखों लाख रुपये मिल रहे हैं वो महिलाओं द्वारा नहीं उनके पतियों द्वारा छुपाया गया काला धन है | जिसका पता कई बार घर की महिलाओं को भी नहीं होता |सौ बातों की एक बात , हर बात की तरह इस बात में भी महिलाओं के ऊपर चुटकुले बना कर हंसना केवल पुरुषों का महिलाओ से खुद को बेहतर साबित करने का प्रयास भर है | इसके अतिरिक्त कुछ भी नहीं | वंदना बाजपेयी 

तला राशि -कोड़े खाने की सजा पाने के बाद जीता फीयरलेस वुमैन का ख़िताब

औरतें आज जिस बंद अँधेरे तहखाने से नुकल कर आज़ादी की सनस लेने की दिशा में अगसर हुई हैं | उसके पीछे कई औरतों का हाथ है | ये वो औरतें हैं जिन्होंने सामाजिक नियमों की अवहेलना करते हुए | वो काम करने की हिम्मत दिखाई जिसके लिए न सिर्फ उन्हें रोका गया बल्कि सजा भी सरेआम दी गयी |                   जी हाँ आज हम बात कर रहे हैं एक ऐसे महिला के बारे में जिसने उस काम को करने की हिम्मत दिखाई जिसके लिए उसे 40 कोड़े खाने पड़े थे | उनका अपराध था मिनी स्कर्ट पहनने का | कि ईरान की रहने वाली तला के ऊपर काफी पाबंदियां रही हैं। ईरान जैसे इस्लामिक देश में महिलाओं से हमेशा पर्दे में रहने की उम्मीद की जाती है। जानकारी के मुताबिक जब वह 16 साल की थी तो उन्हें और उनके कुछ दोस्तों को पुलिस ने पार्टी करने के दौरान गिरफ्तार कर लिया था और तला को जेल भेज दिया गया था |। यही नहीं तला को मिनी स्कर्ट पहनने पर 40 कोड़ों की सजा भी सुनाई गई थी।  उनके साथ वहां आतंकियों जैसा सलूक हुआ। उन्होंने मिनी स्कर्ट, टाइट टॉप, नेल पॉलिश और मेकअप किया हुआ था। हालांकि यह कोई पहली बार नहीं था। उनको और उनके दोस्तों को शालाघ की सजा दी गई। लड़कियों को 40 कोड़े और लड़कों को 50 कोड़े मारने का आदेश जारी हुआ। इस घटना के बाद वह अमेरिका आ गई। लेकिन इसके बाद वो दरी नहीं बल्कि उन्हें पुरजोर यकीन हुआ की महिलाओं को उनकी पसंद के कपडे पहनने का अधिकार होना चाहिए | उन्होंने अपने विचारों को आकर देना शुरू किया | जिसके चलते उन्होंने महिलाओं के लिए स्विम वियर डिजाइन करना शुरू किया। 35 साल की उम्र में वह एक मशहूर फैशन लाइन की मालिक हैं तला का नाम न्यूजवीक मैगजीन में 2012 में मोस्ट फीयरलैस वुमेन की कैटेगरी में शामिल हो चुका है और उनको हिलेरी क्लिंटन और ओप्रा विनफ्रे के साथ जगह दी गई थी। तला आज भी बिना किसी डर के महिलाओं को उनकी मर्जी के कपड़े पहनने देने की आजादी की वकालत करती हैं|  तला को उनके साहस के लिए सलाम |  (नोट – राशि की फोटो न मिल पाने के कारण हमने  प्रतीकात्मक इमेज लागाई है | पाठकों की असुविधा के लिए हमें खेद है | ) राधिका शर्मा 

तीन तलाक – औरतों और तक्की पसंद पुरुषों को स्वयं आगे आना होगा

तीन तलाक एक ऐसा मुद्दा जिस पर आजकल बहुत कुछ बोला जा रहा है , लिखा जा रहा है और जब मैंने इस पर कलम उठाने की कोशिश की तब मेरे जेहन में न कोई धर्म था , न सम्प्रदाय अगर थी तो सिर्फ और सिर्फ औरतें | उनमें कुछ वो भी थी , जो लोगों के लिए अखबार की खबर थी पर मैं उन्हें करीब से जानती थी | जानती थी उनके आंसूं उनका दर्द और तलाक के बाद की उनकी तकलीफें |वास्तव में तलाक , तलाक , तलाक …. तीन शब्द नहीं तीन खंजर हैं जो एक रिश्ते एक पल में क़त्ल कर देते हैं |यह सच है की तलाक एक बहुत जरूरी और लोकतान्त्रिक अधिकार है जो किसी नाकाम रिश्ते पर उम्र भर आंसूं बहाने से ज्यादा बेहतर है | जहाँ दोनों को आगे अपनी जिंदगी संवारने का बराबर हक़ दिया जाता है |पर अगर ये अधिकार एक तरफ़ा हो जाए तो ?आज विभिन्न समुदायों में तरक्की होने के साथ ही लैंगिक समानता की बातें बढ़ी हैं | समुदाय कोई भी हो महिलाओं को सम्मान के साथ जीने का अधिकार है | तीन तलाक का मुद्दा गर्माते ही ऐसे लेखों की भरमार हो गयी , की इस मामले में धर्म क्या कहता है | और मुझे इसे मानने में कोई गुरेज नहीं की इस्लाम धर्म ने औरतों को बराबर का हक़ दिया है | और तीन तलाक तीन मिनट मिनट की नहीं ९० दिन की प्रक्रिया है ,की इद्दत और रजू बहुत ही लोकतान्त्रिक प्रक्रियाएं हैं , की हलाला का स्वरुप वैसा नहीं है जैसा की समझा जाता है या फिल्म ” निकाह ” में दिखाया गया है |क्योंकि मुद्दा ये नहीं है की जो ” पवित्र कुरआन ” में जो लिखा गया था वो कितना सही था | मुद्दा ये है की उस सही में कितनी कुरीतियाँ व्याप्त हो गयी हैं |क्या उसका वैसे ही पालन होता है जैसा की लिखा है ? क्या वास्तव में जब कोई शौहर तलाक तलाक तलाक कह कर किसी रिश्ते को खत्म करता है तो महिला के हित सुरक्षित रह पातें हैं ? क्या हलाला के कारण कई महिलाओं का जबरदस्ती दुबारा निकाह नहीं कराया जाता |ये बहुत सारे क्या इस बात के गवाह हैं की तलाक के हक़ को तोड़ मरोड़ कर पुरुषों ने अपने पक्ष में कर लिया है | मुद्दा किसी धर्म का नहीं स्त्री – पुरुष का है | धर्म कोई भी हो पुरुष उसे अपने हिसाब से परिभाषित कर के अपने हक़ में कर लेता हैं और औरतों के सारे अधिकार हाशिये पर धकेल दिए जाते हैं | अगर हिन्दू समुदाय को ही लें तो सती प्रथा और बाल विवाह जैसे अनेक कुप्रथाएं रही हैं | दहेज़ प्रथा और किसी विधवा स्त्री के जीवन में पुन : रंग भरने के लिए आज भी स्त्रियाँ संघर्ष कर रही हैं |मैंने इस विषय पर एक कहानी चूड़ियाँ लिखी थी जो विधवा स्त्री के श्रृंगार की वकालत करती है | जहाँ बात कानून से इतर सामाजिक सुधारों की हैं | क्योंकि कानून अगर बन भी जाए पर अगर समाज द्वारा स्वीकृत न हों तो उनकी धज्जियां उड़ जाती हैं | जरूरत है समाज के अन्दर चेतना आने की | अपने अधिकार को समझने की | और उसे पाने के लिए संघर्ष करने की | धर्म या सम्प्रदाय कोई भी हो हमारी पितृ सत्तात्मक सोंच महिलाओं को प्लेट में सजा कर उनके अधिकार नहीं देने वाली | इसके लिए महिलाओं को संघर्ष करना ही होगा | जैसा की भारतीय मुसलिम महिला आयोग ने कहा है की 88 फीसद मुसलिम महिलाएं भी इस फैसले के पक्ष में हैं। तो संघर्ष उन्हें ही करना होगा | उनकी आवाज़ दबाने के लिए आॅल इंडिया मुसलिम पर्सनल बोर्ड और अन्य संगठनों का कहना है कि सरकार को मजहबी रवायतों का अदब करते हुए, दखलंदाजी नहीं करनी चाहिए। यानी जैसा है वैसा ही चलता रहे | पर्सनल लॉ बोर्ड जैसे संस्थान दावा करते हैं कि वे पूरे देश के मुसलिमों की अगुआई करते हैं।पर क्या ये सच है ? वो इसे धर्म का मुद्दा बना कर फिर से हथियार पुरुषों के हाथ में सौंपना चाहते हैं |कम – पढ़ी – लिखी महिलाओं को भी फुसलाने की कोशिश की जा रही है | लेकिन फिर भी सवाल उठ रहा है की जब पाकिस्तान, तुर्की, इजिप्ट, बांग्लादेश जैसे कई देशों ने तीन तलाक को खारिज किया है, तो हिंदुस्तान में क्यों नहीं?इस मुद्दे को धर्मिक या सम्प्रदायिक रंग देने के पीछे धर्म गुरुओं और पित्रसत्तात्मक सोंच के चाहे जो भी हित छुपे हों समता समानता की लड़ाई में मुस्लिम समाज की औरतों व् तरक्कीपसंद पुरुषों को स्वयं आगे आना चाहिए | और औरतों के खिलाफ हथियार के रूप में प्रयोग होने वाली इस कुप्रथा का विरोध करना चाहिए |तभी इस मुद्दे को सांप्रदायिक रंग देने से बचा जा सकता है | और समाज सम्मत वास्तविक सुधार भी तभी होंगे |

जिस देश में औरत की ना को हाँ समझना सिखाया जाता हो वहां “पिंक ” रेड सिग्नल में कैसे बदलेगी ” सहगल बाबू “

पिंक फिल्म देकहते हुए जैसे मेरी समाधी लग गयी थी | एक एक दृश्य प्रभाव् में डूबते उतराते हुए फिल्म का आखिरी डायलाग” ना का मतलब ना होता है, ना अपने आप में पूरा वाक्य है, जिसे किसी तरह के तर्क, स्‍पष्टीकरण या व्याख्या की ज़रूरत नहीं होती, न मतलब स़िर्फ न होता है।” दिल पर एक गहरी चाप छोड़ गया | कितनी सच्चाई , कितनी इमानदारी और कितनी दमदार आवाज़ में अमिताभ बच्चन ने यह बात कह दी | हाल से बाहर निकलते समय फिल्म का एक हैंगोवर सा हो गया | शायद बाहर निकलती हुई हर औरत को हुआ होगा तभी तो सब सर ऊँचा कर के चल रहीं थी | जैसे सहगल सर ने कोर्ट में उन्हें भी ना कहने का अधिकार दिला दिया हो | एक ऐसा अधिकार जो भारतीय नारी के लिए दिवा स्वप्न ही है | तभी तो जब किसी के मोबाइल की रिंग टन बजी ” आ चल के तुझे मैं ले के चलूं एक ऐसे गगन के तले ,जहाँ गम भी न हो आंसूं भी न हों बस प्यार ही प्यार पलें “|| तो मेरे साथ न जाने कितनी महिलाएं अर्श से फर्श पर आ गयीं | सच भारतीय महिलाओं के लिए न कहने का अधिकार एक दिवा स्वप्न ही तो है | आज महिलाएं शहरी क्षेत्रों में आत्म निर्भर हो रहीं हैं | शायद कुछ हद तक उन्हें न कहने का अधिकार मिला हो | पर आम भारत जो गाँवों कस्बो और छोटे शहरों में बसता है | वहां दैहिक संबंध तो छोडिये महिला के लिए किसी बात में न कहना आसान नहीं होता | पति के साथ रात को सोयी महिला की शारीरिक चोटों पर देवरानी जेठानी हंसतीं हैं , ये बिलकुल स्वीकार्य है की पति किसी भी तरह अपनी पत्नी को चोटिल करे| वह उसका हक़ है | घर की अन्य महिलाएं भी उसका साथ देने के स्थान पर उसका आनंद लेती हैं | हमारे लोक गीतों में इसके दर्शन आसानी से हो जातें हैं |महिला का काम है पति को खुश रखना …. यही उसकी सुखी गृहस्थी का मूल मंत्र है | पति आवारा बदचलन ही क्यों न हो उसके लिए स्त्री ( वेश्या ) उपलब्द्ध करना पत्नी को महँ सटी की श्रेणी में लाकर खड़ा कर देता है |हालांकि घरेलू महिलाओं की सुरक्षा के लिए या न कहने के अधिकार के लिए कानून बन रहे हैं | पर ” जिस घर में डोली गयी है वहीँ से अर्थी निकले के गणित में उलझी ” भारतीय नारी के लिए घर की चाहर दिवारी के अन्दर असर खो देते हैं | अपने आशिकों को न कहने वाली कितनी महिलाएं तेज़ाब का शिकार होती हैं , कितनी रेप का और कितनी सामाजिक आलोचना का इसके आंकड़े देने की आवश्यता नहीं है | भारतीय पुरुष को इस बात को समझने में बहुत समय लगेगा की स्त्री भी पुरुष की तरह एक इंसान है जिसे ना कहने का अपनी भावनाएं रहने का हक़ है | हालांकि फिल्म में न सिर्फ आपने ना कहने के अधिकार की वकालत की है बल्कि जो जो पॉइंट उठाये है की पुरुष शराब पी सकते हैं तो टीक , महिलाएं पिए तो चरित्र हीन , पुरुष हँस कर बात करें तो ठीक महिलाएं करें तो चरित्रहीन या महिला के चरित्र का पैमाना उसके कपड़ों की लम्बाई नहीं होनी चाहिए | ये सारे पॉइंट्स बिलकुल सही है ये सारे अधिकार महिलायों को मिलने चाहिए | और in सब के लिए उनके चरित्र पर लांछन नहीं लगना चाहिए |परन्तु सवाल यही है की जिस देश में बचपन से पुरुषों को यह समझाया जाता हो की महिला की ना का मतलब हाँ है वहां आप की ” पिंक ” को रेड सिग्नल कैसे मिले | वंदना बाजपेयी

गुडिया , माटी और देवी

आज जिसके बारे में लिखने जा रही हूँ वह महज एक खबर थी , अखबार के कोने में | मात्र कुछ पंक्तियों की पर मेरे लिए वो मात्र एक खबर नहीं रह पायी | न जाने क्यों मैं उसके दर्द से खुद को अलग नहीं कर पायी | अन्दर की बेचैनी कहती उसके बारे में कुछ लिखू | शायद कोई उसका दर्द समझ सके | शायद समाज कुछ बदल सके | पर उसके दर्द को शब्द देना मेरे लिए आसान न था | इसीलिये अब जो कहेगी वो स्वयं कहेगी …. क्या कहूँ ,अपने बारे में कुछ लिखने से पहले अपना परिचय देना जरूरी होता है | परिचय में सबसे ऊपर होता है नाम , जो किसी भी अपने द्वारा रखा हुआ और अपनों के लिए बहुत प्यारा होता है | पर जिसका कोई भी अपना न हो उसके लिए नाम के होने न होने का महत्व ही नहीं रहता | यादों के धुंधलके में याद आते हैं अम्मा और बाबा | जो मुझे लाड से गुडिया कहते थे | जीती जागती गुडिया | नटखट , चंचल , हंसमुख गुडिया | जो मासूम थी जिसे विरोध करना नहीं आता था | जिसके प्रश्न जब तब समाज द्वारा ,” चुप रहो “ कह कर दबा दिए जाते और वो चुपचाप यथा स्तिथि स्वीकार कर लेती | क्योंकि उसे वही सोचना था करना था , रहना था जो समाज ने उसके लिए निर्धारित कर दिया था | जो भी हो उस गुडिया में उसके माता पिता की जान बसती थी | बहुत शौक था उसे बाज़ार देखने का | अपनी नन्ही अंगुलियाँ पिता की अँगुलियों में देकर बाज़ार जाया करती थी | मक्कू टाफी और झालर वाली फ्रॉक से ऊपर उसके कोई बड़े सपने नहीं थे | विधि की विडम्बना वो गुडिया जो हर रोज़ बाबा से बाज़ार ले जाने की जिद करती , आज वो खुद एक बाज़ार है | कैसे कब और क्यों हुआ ये याद करते ही मन पर दर्द की एक गहरी रेखा खिंच जाती है |हां ! १२ साल की कच्ची उम्र ही तो थी | जब पास में रहने वाले एक किरायेदार जो घर में अक्सर आया जाया करते थे | जिसे मैं चाचा कहती थी एक दिन मेला दिखाने के लिए ले गए | माँ ने भी इजाज़त दे दी ,सच कितनी भोली थीं | मैंने अपनी सबसे अच्छी फ्रॉक पहनी थी उस दिन लाल , गोटा लगे किनारों वाली | लाल लाल चूडियाँ भी पहनी थी कुहनी तक | माँ ने ही पोत दिया था ढेर सारा पाउडर चेहरे पर और साथ में बुरी नज़र से बचाने के लिए लगा दिया था एक काला टीका , कान के पीछे | उस दिन बात –बात पर हंस रही थी मैं … शायद आखिरी बार | चाचा मुझे मेले तो ले गए पर दूसरे शहर में | वो मेला नहीं जो दिन में लगता है , वो जो रात में लगता है | जहाँ सूरज की रौशनी आने से भी डरती है | एक अँधेरी कोठरी में बंद कर दिया गया मुझे | जिसमें बस एक रोशनदान था | कितना रोती , बाहर निकलने के लिए पर परकटी चिड़िया की तरह फडफडाती | रोते –चीखते जब थक जाती तो उसी रोशन दान से बाहर निकलने की असफल कोशिश करती | सामने एक कसाई का बाड़ा था | जहाँ बकरे बंधे रहते | ठीक बारह बजे बकरों के आगे खाना परोस दिया जाता और मुझे एक लम्बी दाढ़ी वाला सुई लगाने आता |कितना डरती थी मैं सुई से | तब नहीं जानती थी की वो सुई मुझे जल्दी से जल्दी बड़ा करने के लिए लागाई जा रही है | शायद बकरा भी नहीं जानता था उसके आगे डाले गए खाने का मतलब | पर खाना या सुई दोनों का मतलब एक ही तो था की गोश्त बढे | बाज़ार में वही बिकता है | हड्डियां तो चूस कर फेंक दी जाती हैं | क्योंकि वो सदा से गडती आई हैं इंसान की और समाज की आँतों में | तब तो ये भी नहीं जानती थी की बकरे के पास दो मृत्यु के दो विकल्प थे झटका या हलाल और मेरे पास बस एक , केवल हलाल वो भी जीवन पर्यंत | हमारी जिंदगियां तहखानों में बंद जरूर हैं पर आज आस –पास हलचल है , वो भी दिन में | साल में एक ही दिन तो होती है ये हलचल | नवरात्रि जो आने वाली है | हमारे दरवाजे की माटी ली जायेगी | देवी की प्रतिमाएं जो बनानी हैं | न जाने क्यों चली आ रही है ये परम्परा | माटी कितना अजीब सा शब्द है | पहली बार बाबा से इसका मतलब पूंछा था जब बाबा पडोसी की मृत्यु पर अम्मा से कह थे ,” जल्दी करो मिटटी उठने वाली है |” मैंने अपने बाल मन की जिज्ञासा शांत करने के लिए पिता का हाथ घसीट कर पूंछा ,” बाबा , वो दादाजी मिटटी में कैसे बदल गए | बाबा ने मेरे प्रश्न पर मेरे सर पर हाथ फेरते हुए कहा ,” मृत्यु के बाद जब शरीर में जान नहीं रह जाती तब वो मिटटी ही तो होता है | बिना जीव ( आत्मा ) के जब सिर्फ शरीर ही होता है तब वो मिटटी ही तो रह जाता है | आज सोचती हूँ बिना जान के शायद माटी ही तो हैं हम | ले लो जितनी चाहे माटी ले लो , देवी की मूर्ति की भव्यता में कमी न पड़े | माटी कितनी भी रौंदी जाए पर माटी से बनी मूर्ति तो देवी की ही होगी | हां ! वो देवी हैं , उनके पास शक्ति है, वो अपने ऊपर नज़र उठाने वाले , महिषासुरों का मर्दन कर सकती हैं इसीलिए नाम जपता है सर झुकाता है समाज ,| मैं ये प्रश्न भी नहीं पूँछ सकती की पूजा देवी की है या शक्ति की ? क्योंकि गुडिया और माटी को प्रश्न करने का अधिकार नहीं है | एक अजीब सी निराशा के साथ मैं विचारों के तहखाने में फिर से बंद हो जाती हूँ | मुझे रह –रह कर दिखाई दे रही हैं गुडिया, माटी और देवी | क्या ये महज एक यात्रा है | या … Read more