आधी आबादी कितनी कैद कितनी आज़ाद -किरण सिंह

जटिल प्रश्न आधी आबादी कितनी कैद कितनी आजाद इसका उत्तर देना काफी कठिन है क्योंकि उन्हें खुद ही नहीं पता वे चाहती क्या हैं…! वह तो संस्कृति , संस्कारों , परम्पराओं एवं रीति रिवाजों के जंजीरों में इस कदर जकड़ी हुई हैं कि चाहकर भी नहीं निकल सकतीं…. स्वीकार कर लेती हैं गुलामी…. आदी हो जाती हैं वे कैदी जीवन जीने की पिंजरे में बंद परिंदों की तरह जो अपने साथी परिंदों को नील गगन में उन्मुक्त उड़ान भरते हुए देखकर उड़ना तो चाहते हैं किन्तु उन्हें कैद में रहने की आदत इस कदर लगी हुई होती है कि वे उड़ना भूल गए होते हैं और यदि वे पिंजरा तोड़कर किसी तरह उड़ने की कोशिश भी करते हैं तो बेचारे मारे जाते हैं अपने ही साथी परिंदों के द्वारा….! मध्यम और निम्न वर्ग की महिलाओं की तो स्थिति और भी दयनीय है वह ना तो आर्थिक रूप से आजाद हैं ना मानसिक रूप से और ना ही शारीरिक रूप से..! छटपटाती हैं वे किन्तु कोई रास्ता नहीं दिखाई देता है उन्हें और वह अपने जीवन को तकदीर का लिखा मानकर जी लेती हैं घुटनभरी जिंदगी किसी तरह…! दूसरा तबका जो सक्षम है , उड़ान भरना जानती हैं , नहीं आश्रित हैं वे किसी पर, उन्हें नहीं स्वीकार होता है कैदी जीवन, उन्हें चाहिए आजादी ,अपनी जिंदगी की निर्णय लेने की… उन्हें नहीं पसंद होता है किसी की टोका टोकी.. इसीलिए बगावत पर भी उतर जाती हैं वे कभी कभी ….! चूंकि समाज संस्कृति और परंपराओं की घूंघट ओढ़े स्त्री को देखने का आदी रहा है इसलिए स्त्री के ऐसा उन्मुक्त रुप को सहजता से स्वीकार नहीं कर पाता….! बदलाव की तरफ बढ़ रहा है समाज , दर्जा मिल रहा है घरों में बेटा बेटियों को बराबरी का…… कानून भी महिलाओं के पक्ष में बन रहे हैं .. फिर भी महिलाएं अभी तक आजाद नहीं हैं…खास तौर से अपने जीवन साथी के चुनाव करने में जहाँ लड़कों की पसंद को तो स्वीकार कर लिया जाता है किन्तु लड़कियों को आज भी काफी कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है…! ******************************** ©कॉपीराइट किरण सिंह  अटूट बंधन

आधी आबादी :कितनी कैद कितनी आज़ाद (रचना व्यास )

कोई पैमाना नहीं है अर्धांगिनी नारी तुम जीवन की आधी परिभाषा।’  कितना सच और सुखद लगता है सुनने में पर जब भी किसी को बुर्के में या परदे में लिपटा देखती हूँ तो अर्धनारीश्वर की धारणा असत्य लगती है। कैद किसी को भी मिले चाहे स्त्री हो, पुरुष हो, युवा हो, वृद्ध हो या बच्चा हो- व्यक्तित्व को कुंठित कर देती है। सृष्टिकर्ता ने सबको स्वतन्त्र उत्पन्न किया है चाहे वो मनुष्य हो, पशु- पक्षी हो या वनस्पति इत्यादि। वहीँ भारत का संविधान सबको समानता व स्वतन्त्रता का मूल अधिकार देता है अब कोई व्यक्ति कैसे किसी को कैद कर सकता है।                                          कैद का अर्थ केवल शारीरिक  रूप से बन्धन में रखना ही नहीँ है। यह किसी की सोच को प्रभावित करना है, उसे भावनात्मक रूप से दबाना है, उसे आर्थिक रूप से वंचित बना देना है। वहीँ आजादी का अर्थ सिर्फ घर से बाहर घूमते रहना नहीँ है। आजादी का अर्थ है संकुचित सोच से ऊपर उठकर उदार दृष्टि से स्थितियों का अवलोकन,  एक निर्द्वन्द सोच। आजादी का अर्थ है भावनाओ का सन्तुलन व सम्मान तथा साथ ही आर्थिक आत्मनिर्भरता। जैसे  स्वतन्त्रता व स्वछंदता में बाल के बराबर अंतर है वैसे ही आर्थिक आजादी का अर्थ  फिजूलखर्ची कदापि न लिया जावे। वैसे व्यक्ति अपनी सोच से स्वयं अपनी आजादी खण्डित करता है। एक उदाहरण से स्पष्ट करना चाहूंगी।                                  दुनिया की इस आधी आबादी -स्त्री शक्ति ने कोई क्षेत्र अछूता नहीँ छोड़ा है। वह सर्वत्र स्वयं को बेहतर साबित कर रही है पर वो भीतर से कितनी आजाद है; मैं अक्सर यह पढ़ने का प्रयास करती हूँ। मेरी एक सहेली जॉब करती है- पति के आर्थिक रूप से सक्षम होने और मना करने पर भी। शाम को ऑफिस से दोनों लौटते है। चाय बनाने से लेकर बच्चों को सँभालने तक का सारा काम सहेली को ही करना होता है।उसके पति किसी भी काम में उसकी मदद नहीँ करते। उसे बीमार होने पर खुद ही डॉक्टर के जाना होता है। पति का सपाट जवाब होता है कि जब वो जॉब के लिए बाहर जा सकती है तो इलाज के लिए भी जाये और पैसा भी खुद का ही खर्च करे। मैंने उसे मित्रवत् सलाह दी कि दो मोर्चों पर अकेले लड़ने से बेहतर है पति की इच्छानुसार जॉब छोड़कर घर में ही कुछ रचनात्मक कर लो। उसका दो टूक जवाब था कि उसे खुद को पति के बराबर साबित करना है। अब पाठक बतायें कि यहाँ किसने किसको कैद किया है। स्पष्टत: वह अपनी सोच की कैदी है। एक होड़ की कैदी है। उसके पति आजाद है भीतर से इसलिए चाय तक नहीँ बनाते।                                      जिन स्त्रियों पर फिजूल के पहरे है, उनकी प्रतिभा का दमन किया जा रहा है उनके साथ मेरी भरपूर सहानुभूति व सहयोग है । उन्हें अच्छी पुस्तकें उपलब्ध करवाना , उनकी व्यथा सुनना भी मैं  अपने लिए एक पुण्यकार्य मानती हूँ पर तकलीफ वहाँ होती है जब मैं उन्हें आत्मविश्वास से विहीन देखती हूँ। छोटी-छोटी बातों पर दिखाया गया आत्मविश्वास भी बड़ी सफलता का मार्ग प्रशस्त करता है। वहीँ पर इसे खो देना – मानो सामने वाले को आमन्त्रित करना है कि आओ हमेँ कैद कर लो -भले ही वो व्यक्ति पारिवारिक सदस्य हो, कार्यस्थल का कोई व्यक्ति हो या हमारा अपना हृदय।  जिस दिन कोई स्त्री आत्मविश्वास से लबरेज होती है, कुछ कर गुजरने की इच्छा उसके भीतर जड़े जमा लेती है, भले ही काम कितना ही छोटा हो। राह में आने वाली तमाम बाधाओं को वो अनदेखा कर देती है- उसका हृदय अनायास गा उठता है- काँटों से खींचकर ये आँचल…। ये महज गीत की पंक्तियाँ नहीँ हैं, ये आजादी के सच्चे उदगार हैं। वही सच्ची कर्मयोगिनी है और आजाद भी। वहीँ दूसरी ओर कोई  उच्चशिक्षिता स्त्री  लाखों के पैकेज के लिए अपनी वास्तविक खुशियों को अनदेखा कर, उन्नत करियर के लिए मातृत्व सुख तक नकार देती है ; मेरी दृष्टि में उससे ज्यादा कैद कोई नहीँ हैं।                             अतः हमें कैद और आजादी का न तो कोई पैमाना निर्धारित करना है, न ही उसे आकड़ों में बाँटना है। ये नितांत निजी अनुभव है, आंतरिक सम्वेदना है।  – द्वारा  नाम :         रचना  व्यास शिक्षा :         एम  ए (अंग्रेजी साहित्य  एवं  दर्शनशास्त्र),  एल एल बी ,  एम बी ए अटूट बंधन

आधी आबादी :कितनी कैद कितनी आजाद (चन्द्र प्रभा सूद )

जाने अपने अधिकार  महिला दिवस पर नारी सशक्तिकरण के लिए भाषण दे देने से या कुछ लेख लिख देने से अथवा कानून बना देने से समस्या का समाधान संभव नहीं  है। सभ्य समाज में नारी उत्पीड़न की घटनाओं में निरंतर  बढ़ोत्तरी हो रही है। पुरुष मानसिकता में बदलाव आता हुआ दिखाई नहीं देता।           स्त्री को देवता मानकर सम्मान देने की परंपरा वाले देश हमारे भारत देश में उसकी शोचनीय अवस्था वाकई गंभीरता से विचार करने योग्य है।          इस स्थिति से उभरने के लिए नारी को स्वयं ही झूझना होगा। उसे अपना स्वाभिमान बचाने के लिए कटिबद्ध होना पड़ेगा। जब तक वह स्वयं होकर आगे नहीं बढ़ेगी तब तक उसकी सहायता न कोई कानून करेगा और न ही कोई और इंसान।       शहरों में स्त्री अपनी पहचान बनाने की भरसक कोशिश कर रही है। वह उच्च शिक्षा ग्रहण कर रही है। शिक्षा, ज्ञान, विज्ञान, खेलकूद, राजनीति, संगीत, फिल्म आदि सभी क्षेत्रों में  अपना स्थान बना रही है। इसके साथ ही घर, परिवार व समाज के प्रति अपने दायित्वों का निर्वाह भी कर रही है।          नारी को सशक्त होने के लिए आर्थिक  रूप से निर्भर होने की आवश्यकता है ताकि उसे किसी के आगे हाथ न फैलाना पड़े। इस आवश्यकता को समझते हुए वह उच्च शिक्षा ग्रहण कर रही है।         हर वर्ष के आंकड़ों में विविध परीक्षाओं में लड़कियाँ लड़कों से बाजी भी मार रही हैं। अपनी योग्यता के बल पर वह सभी प्रकार के कम्पीटीशन में सफल होकर अपने कैरियर की ऊँचाइयों को छू रही है। देश-विदेश जहाँ भी उसे मौका मिलता है वह उस अवसर का भरपूर लाभ उठा रही है। उच्च पदों पर आसीन होकर बता रही है कि किसी भी क्षेत्र में वह अपने पुरुष साथियों से कमतर नहीं है।        शहरों के में तो नारियाँ अपने स्वास्थ्य और कैरियर के प्रति सजग हो रही हैं परन्तु गाँवों में भी नारी सशक्तिकरण की उतनी ही आवश्यकता है। शहरों के साथ-साथ गाँवों में भी उसे आगे बढ़कर अपने स्वाभिमान को बनाए रखना होगा           स्त्री पर व्यंग्य करना या उसका मजाक बनाना पुरुष मानसिकता है। न जाने किन-किन नामों से उसे संबोधित कर अपने अहम की तुष्टि करते हैं। दिखावा या छलावा करना उनकी फितरत में शामिल है। मौके-बेमौके सबके सामने पत्नी को अपमानित करने से भी नहीं चूकते।        हर आज्ञा का पालन होते देखने का आदि पुरुष किसी भी कदम पर अपनी अवहेलना सहन नहीं कर सकता। छोटी-छोटी बातों से उसके अहम को ठेस लग जाती है और वह घायल होने लगता है। उसका पुरुषत्व या उसका अहम शायद ऐसे काँच का बना हुआ है जो जरा हल्की-सी चोट लगने से टूटकर किरच-किरच हो  जाता है।        सड़क पर चलते हुए मनचलों का नवयुवतियों पर फब्तियाँ कसना,  उन पर कटाक्ष करना या अनर्गल प्रलाप करना भी  तो विकृत पुरुष मानसिकता का ही उदाहरण कहलाता है। कुछ मुट्ठी भर ओछे लोगों के कारण जो सारे पुरुष समाज को कटघरे में कर देता है।        प्रतिदिन फेसबुक, पत्र-पत्रिकाओं में स्त्रियों के लिए अभद्र बातें, अपमानजनक टिप्पणियाँ, व्यंग्य, चुटकुले आदि जिस लहजे में लिखते हैं उन्हें देख-पढ़ कर मन को बहुत पीड़ा होती है। ऐसे घिनौने विचारों के प्रदर्शन से उनकी महानता कदापि सिद्ध नहीं हो सकती।       व्यंग्यकार, लेखक व कवि स्त्रियों पर अश्लील टीका-टिप्पणी व भद्दे मजाक करके जिस तरह अपनी रोटियाँ सेकते हैं वह बरदाश्त के बाहर हो जाता है। पत्नी या स्त्री के अतिरिक्त अन्य ढेरों सामाजिक विषय हैं जिन पर लिखकर वह अपनी सूझबूझ का परिचय दे सकते हैं।           मेरा सभी पुरुष मानसिकता वालों से निवेदन है कि महिलाओं की छिछालेदार करने के बजाय सकारात्मक रुख अपनाते हुए समाज के दिग्दर्शक बनें और आने वाली पीढ़ियों के मार्गदर्शक।            इसके साथ ही उसे अपने अधिकारों की अर्थात् कानून की जानकारी भी रखनी होगी ताकि समय आने पर उसे किसी का मुँह न देखना पड़े। वह स्वयं ही बिना किसी की सहायता के सभी समस्याओं से निपटने में सक्षम हो जाए।         बहुत से कानून महिलाओं की सुरक्षा के लिए बने हुए हैं। कई सरकारी व सामाजिक संस्थाएँ भी उनकी मदद करने के लिए प्रस्तुत हैं। पर हम चाहते हैं कि आज नारी को किसी पर आश्रित रहना छोड़कर अपनी शक्ति को टटोलना होगा। तभी वह अपनी छाप समाज पर छोड़ सकने में समर्थ हो सकती है।             महिलाओं के लिए कुछ कानूनों की जानकारी यहाँ प्रस्तुत है-  (क) भारत का संविधान मौलिक अधिकारों तथा नीतिदर्शक तत्त्वों के अंतर्गत महिलाओं के समान अधिकारों के विषय में कहता है- 1.  अनुच्छेद 14- समानता का उल्लेख। 2. अनुच्छेद 15- लिंग जाति व धर्म के आधार पर किसी प्रकार के भेदभाव पर रोक लगाने का वर्णन। 3. अनुच्छेद 16- रोजगार या नियुक्ति के समान अवसर। 4. अनुच्छेद 19- बोलने व अपनी बात रखने की स्वतंत्रता। 5. अनुच्छेद 21- सम्मानपूर्वक जीने का अधिकार। 6. अनुच्छेद 39- समान कार्य करने का अधिकार। 7. अनुच्छेद 42- कार्य एवं प्रसव की राहत की सही व मानवीय दशाओं का उल्लेख। इनके अतिरिक्त निम्नलिखित कानूनों का प्रावधान है- 1. फैक्टरी अधिनियम 1948 2. विशेष विवाह अधिनियम 1954 3. हिन्दू विवाह अधिनियम 1954 4. विधवा विवाह अधिनियम 1955 5. हिन्दू दत्तक ग्रहण व भरण-पोषण अधिनियम 1956 6. हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम 1956 7. दहेज निषेध अधिनियम व प्रसूति लाभ अधिनियम 1961 8. समान पारिश्रमिक अधिनियम 1976 9. बाल विवाह प्रतिरोधक अधिनियम 1976 10. दी मेडिकल टर्मिनेशन आफ प्रेगनेंसी एक्ट 1972 11. अश्लील चित्रण निवारण अधिनियम 1986 12. प्रसूति एवं नैदानिक तकनीक (दुरूपयोग, नियंत्रण व रोकथाम) अधिनियम 1994 13. घरेलू हिंसा महिला (संरक्षण) अधिनियम 2005 14. कार्य स्थल पर यौन उत्पीड़न के खिलाफ महिला संरक्षण विधेयक 2010        इनके अतिरिक्त पंचवर्षीय योजनाओं में भी  महिलाओं के लिए विशेष प्रवधान रखे गए हैं। चन्द्र प्रभा सूद Cprabas59@gmail.com अटूट बंधन मेरा भारत महान ~जय हिन्द 

आधी आबादी :कितनी कैद कितनी आज़ाद (कुछ कवितायेँ )

                         आधी आबादी :कितनी कैद कितनी आज़ाद में पढ़िए नारी की मन : स्तिथि को उकेरते कुछ स्वर ……..इसमें आप पढेंगे  छवि निगम ,किरण सिंह ,रमा द्विवेदी ,संगीता पाण्डेय ,एस एन गुप्ता व् नीलम समनानी चावला की ह्रदय को उद्वेलित करती रचनायें  एक संदेश: एक कविता            —– लो भई,दी तुम्हे आज़ादी ,सच में लो की तुम पर मेहरबानी कितनी सर झुका रक्खो,औरआगे बढो़ न जाओ, जी लो तुम भी थोड़ा बहुत सच में अहसान किया ये तुम पर,ये सनद रहे। चलो दौड़ो छोड़ा तुम्हें सपाट दबोचती सडकों पर आज़ादी के पाट पग बाँधे ठिठको  तो मत अब ज़रा भी देखो पीठ पर कस कर चाबुक पड़े जो सह लो समझो तो जरा हैं तुम्हारे ही भले को ये, कसम से ऐसे ही तो रफ्तार बढ़े साँसे ले लो हाँ बिलकुल लेकिन जरा हिसाब से। दमघोंटू दीवारों में ही रह कसमसाओ सम्भाल के सुरक्षित रहना जरूरी है, समझो तो तुम धुएं के परदे  में छिपकर रहो उगाहो रौशनी वहीं सहेजो जा कर,जाओ तो तुम्हारे हिस्से की अगर कहीं कुछ होती हो तो। किसी नुकीले पत्थर पर पटक दी जाओ कभी पड़ी रहो चुपचाप करो बर्दाश्त सारी हैवानियते आराम से ,बेआवाज़… चीर दी भी जाओ तो क्या मरती रहो इंच दर इंच खामोशी से.. मरती रहो या फिर यूँ ही जीती रहो हौसले से.. जीती रहो का आशीष तुम्हारे नाम हुआ ही कब कहो? हाँ,अग्निपरीक्षा पर सदा का हक तुम्हारा हे सौभाग्यवती रास्ता कोई और कभी रहा ही नहीं पर सदा ही चौकस रहना इज्जत  हमेशा बची रहे कहीं कोई नाम न उछलने पाए किंचित भी ऐसा न हो कि फिर तुम बस एक चालू मुद्दा चौराहे की चटपटी गप्प बहसबाजी का चटखारा और आखिरकार… एक उबाऊ खबर बन कर ही रह जाओ। बेस्वाद बासी खबर की रद्दी सी बेच दी जाओ.. कि फिर केवल याद आओ तब जब भी  कहीं कोई और गुस्ताख कभी दरार से झांके, कुछ सांस ले थोड़ा सा लड़खड़ाये पर चले क्षीण सी ही, पर आवाज़ करे कालिख में नन्हा सा रौशनी का सूराख करे यूं कि फिर से नया एक मुद्दा बने। -डा0 छवि निगम २…………….. स्वयं ही रणचंडी बनना होगा -कविता  स्त्री के मन को इस देश में  कोई न समझ पाया है ? कितना गहरा दर्द ,तूफ़ान समेटे  है ?  अपने गर्भ में ,मस्तिष्क में  उसकी उर्वर जमीन में  बीज बोते समय  तुमने न उसे खाद दी  न जल से सींचा  अपने रक्त की हर बूँद से  उसने उसे पोसा  असंख्य रातें जगी  दुर्धर पीड़ा सहकर  उसने तुम्हें जन्मा  किन्तु उसे ही  कोई न समझ पाया ? जिसने मानव को बनाया ?  बीज काफी नहीं है  अगर भूमि उर्वरा न हो  तो बीज व्यर्थ चला जाता है  उसके तन -मन -ममत्व की आहुति से  कहीं एक शिशु जन्मता है  पोषती है अपने दुग्ध से  असंख्य रातें जागकर  अनेक कष्ट सहकर ,तब  उस शिशु को आदमी बनाती है फिर क्यों समाज में  उसे ही नाकारा जाता है ?  रसोई और बिस्तर तक ही  उसके अस्तित्व को सीमित कर  उसे `कैद ‘ कर दिया जाता है ।  खुली हवा में सांस लेने का  उसे अधिकार नहीं  आसमान का एक छोटा टुकड़ा भी  उसके नाम नहीं ,क्यों ? ??  यह पुरुष जिसकी हर सांस  उसकी ही दी हुई है  वही उसकी अस्मिता से  हर पल खेलता है   कभी दहेज़ की बलि चढ़ा कर ? कभी बलात्कार करके ?  कभी बाज़ार में बेच कर ?  कभी कोठे में बिठा कर ? कभी भ्रूण हत्या करके ?  क्या हमारे देश के पुरुष  इतने कृतघ्न हो गए हैं ?  कि  अपने समाज की स्त्रियों की  रक्षा भी नहीं कर सकते ? जब रक्षक ही भक्षक बन जाए  तब रक्षा का दूसरा उपाय ही क्या है ?  जब स्थिति इतनी विकट  हो  तब नारी को स्वयं ही  रणचंडी बनना  होगा  येन -केन -प्रकारेण  उसे स्वयं ही  अपनी अस्मिता की रक्षा करनी होगी  क्योंकि इस देश में  हिजड़ों की संख्या में  निरंतर वृद्धि हो रही है  और हिजड़ों की  कोई पहचान नहीं होती ।      —————– डॉ रमा द्विवेदी  संपादक -पुष्पक ,साहित्यिक पत्रिका  हैदराबाद ,तेलंगाना  नारी  संवेदनाएं मृत हुईं  मनुजता का आधार क्षय होने लगा  संताप हिम सम जमे हैं  तूफ़ान में फंसा अस्तित्व है  बंधनों से कब ये मौन निकलेगा  वेदना में कली हैं पुष्प भी हैं  रिश्तों की धार है कोमल  गरल पीती हैं सुधा देती रही हैं  युगों युगों से गंग की लहरें  धारा समय की बहती आई हैं  शैल खण्डों में उहापोह नहीं  भावों में कालिमा सी छाई हैं  सहमती श्वास हैं उजालों में  अपनी सी लगने वाली आँखें भी  चुभती लगती हैं वासनाओं में  बन पराई सी तकने लगती हैं  अर्थ शब्दों के बदले बदले हैं  गालियां रिश्तों को बताती हैं  सहारे ढूंढने की कोशिश में  आस के पत्ते झरने लगते हैं  द्युति पर तिमिर की विजय है  न्याय को तरसती हैं रूहें  सृष्टि की सृजना का देह मंदिर  पापी उश्वासों से दहकता हैं  दग्ध होती हैं मूर्ति करुणा की  गरिमा का चन्द्र ह्रास होता हैं  प्रतीक्षा हैं युग युगांतर से  नारी का कब प्रभास मुखरित हो  विवशता यामिनी की मिट जाए  धूम्र रेखा के वलय खंडित हों !! एस एन गुप्ता शाहदरा, दिल्ली -11032 निशचय मुझे मेरे कदम निर्धारित करने दो क्यो तुमसे कहूँ मन की वेदना पंख मेरे भी है उड़ना है या चलना ये मुझे सोचने दो तुम बहुत तय कर चुके सीमा मेरा लिए अब मुझे असीमित आसमान चुनने दो मुझे मेरे कदम निर्धारित  करने दो पाप पुण्या की परिभाषा से दूर अच्छी बुरी विशेषताओं से परे मुझे इंसान रहने दो मुझे मेरे कदम निर्धारित करने दो नीलम समनानी चावला  xxx !!!! गृह लक्ष्मी हूँ !!!! गृह लक्ष्मी हूँ गृह स्वामिनी हूँ  साम्राज्ञी हूँ और अपने सुखी संसार में खुश भी हूँ फिर भी असंतुष्ट हूँ स्वयं से बार बार झकझोरती अंतरात्मा मुझसे पूछती है क्या घर परिवार तक ही सीमित है तेरा जीवन ? कहती है तुम ॠणी हो पॄथ्वी ,प्रकृति और समाज की और तब  हॄदय की वेदना शब्दों में बंधकर छलक आती है अश्रुओं की तरह सस्वर आवरण उतार चल पडती है लेखनी लिखने को व्यथा मेरी आत्मकथा किरण सिंह  उड़ने तो दो दृश्य को दृष्टा बन  , नाना मिथक गढ़ने … Read more

नारी नुचे पंखों वाली तितली

नारी या ” नुचे पंखों वाली तितली “ लगा दिए  मुझ पर प्रतिबंध , झूठी आन,बान और शान के  नोच लिए क्यूँ तितली के पर ,जब भरने लगी उड़ान ये नारी , कितनी आज़ाद ? वर्षों से यह सवाल मेरे जहन में हर पल धड़कानों के साथ चल रहा है  । मैं यह तो न कहूँगी कि वे आज़ाद नहीं । जब हमारा देश अँग्रेज़ों की गुलामी से आज़ाद हुआ तो हमारे देश की कई महिलाओं ने भी आज़ादी की लड़ाई में पूरा सहयोग दिया था और जब देश आज़ाद हुआ तो उस आज़ादी की हकदार महिलाएँ भी हैं । तो महिलाएँ एक तरह से आज़ाद तो हैं । लेकिन अब सवाल है भारत में महिलाओं की सामाजिक व आर्थिक आज़ादी का । अब आज जब बात आ ही गयी है तो चलिए शुरुआत करते हैं हमारे देश की संस्कृति और सभ्यता को मान्यता  देने वाले ग्रामीण क्षेत्रों  की महिलाओं से। जहाँ तक ग्रामीण क्षेत्रों की बात करें तो महिलाओं की स्थिति पशुओं से कम नहीं । जिस तरह पशुओं को काम में ले कर फिर से खूँटे से बाँध दिया जाता है उसी तरह घर व खेत-खलिहानों में या मवेशियों को संभालने की ज़िम्मेदारी महिलाओं की ही है । इतना ही नहीं घर के सभी सदस्यों की सार-संभाल की ज़िम्मेदारी भी महिलाओं पर ही डाल दी जाती है । उसके बदले उसे मिलता कुछ नहीं । घर में एक पहचान भी नहीं । मेरा एसा मानना है किज़िम्मेदारी एवं अधिकार एक ही सिक्के के दो पहलू होते हैं । ग्रामीण इलाक़ों में महिलाओं पर ज़िम्मेदारियाँ तो हैं किंतु अधिकार से वे मोहताज हैं । उसे अपने मौलिक अधिकार मिलना तो दूर की बात है ,उसे तो इसका ज्ञान तक नहीं । क्यूँ, सबसे पहले तो उसे शिक्षा से वंचित रखा जाता है यह कह कर ” चूल्हा चौका ही तो करना है उसमें पढ़ाई का क्या काम ?” उसे सामाजिक रीति-रिवाजों ,प्रथाओं व कुरीतियों की आड़ में सब कुछ मूक रह कर सहन करना पड़ता है । इसलिए मैं यह तो कदापि न कहूँगी किवह आज़ाद है । वहीं दूसरी और शिक्षा के अभाव में या उन पर दबाव के रहते यही ग्रामीण महिलाएँ कभी-कभी एसे काम भी कर बैठती हैं किजो कि वाकई हमारी सभ्यता व संस्कृति को शर्मसार कर दे । जिसे ग्रामीण लोग आज़ादी का प्रतिफल समझते हैं । इसीलिए उन्हें क़ैद रखने में ही समझदारी नज़र आती है । लेकिन यह कोई नहीं समझता कि यह शिक्षा के अभाव में एसा हो रहा है । यद्यपि हमारे संविधान में महिलाओं के लिए कुछ अधिकार संरक्षित हैं किंतु उनका ज्ञान तक उन महिलाओं को नहीं है अपने अधिकारों के लिए लड़ना तो बहुत दूर की बात है ।  वैसे तो सृष्टि के आरंभ से ही नर व नारी एक दूसरे के पूरक रहे हैं । प्राकृतिक संरचना के अनुसार महिलाएँ अपने बच्चों व परिवार के अन्य सदस्यों के लालन-पालन के लिए उपयुक्त थीं और पुरुष परिवार के भरण-पोषण का कार्य  करता था । परिवार की आर्थिक ज़िम्मेदारियाँ पुरुष ने ले रखी थीं । लेकिन वक़्त के साथ महिलाओं के मानवीय गुण पुरुष केआगे फीके पड़ने लगे और महिलाओं की स्थिति पशु समान होने लगी । इसी कारण कई पाश्चात्य व योरोपीय देशों की महिलाओं ने आंदोलन किए एवं “रोटी व गुलाब ” के नारे लगाए । रोटी  उनके मौलिक अधिकारों एवं गुलाब उनकी अच्छी जीवन शैली का प्रतीक थी । उसके बाद कई संस्थाओं ने उनके लिए आगे कदम बढ़ाए और महिलाओं के बारे में सोचा गया । लकिन हमारी ग्रामीण महिलाएँ तो शिक्षा से भी वंचित हैं , उन्हें तो आज़ादी शब्द के सही मायने भी शायद मालूम न हों ।  अब यदि बात करें शहरी महिलाओं की तो उनकी स्थिति ग्रामीण महिलाओं से कुछ अच्छी है । शहरों में लड़कियों को  शिक्षा ,रहन-सहन , के अधिकार तो मिले हैं और पढ़-लिख कर महिलाएँ उँचे मुकाम भी हासिल कर रही हैं , और कई महिलाएँ उँचे औहदों पर कार्यरत भी हैं ,किंतु   उन महिलाओं की संख्या का अनुपात हमारे देश की पूरी महिलाओं की तुलना में बहुत ही कम है ।  जहाँ तक मैं अपने आस-पास के क्षेत्रों में देखती हूँ शहरों में अब माता-पिता अपनी बेटियों को अच्छे संस्थानों में भेज अच्छी शिक्षा ही नहीं अपितु अन्य कक्षाओं जैसे नृत्य , तैराकी, स्केटिंग,घुड़सवारी  आदि में भी भेज कर उनके पूरे विकास की कोशिश करते हैं । उनके लालन-पालन में भी बेटे-बेटी का भेद ख़त्म कर चुके हैं । अपनी बेटियों के गुण व क्षमता अनुसार उन्हें आगे बढ़ने में पूरा सहयोग भी कर रहे हैं ।  यही बेटियाँ पढ़-लिख कर उँचे औहदों पर कार्य भी कर रही हैं किंतु जब बात आती हैं उनके विवाह की तो साधन-संपन्न परिवार तो पहले से ही उनके बाहर जा  कर कार्य करने को मना कर देते हैं और यदि हाँ कर भी दें तो विवाह पश्चात हमारे समाज के नियमों के अनुसार उन्हें अपना घर और कई बार तो शहर भी छोड़ कर पराए घर जाना होता है,नये काम की तलाश करनी होती है । उस पर भी यह निर्भर करता हैं कि वह जिस परिवार में बहू बन कर आई है वे उसे कितना सहयोग करते हैं । कुछ प्रतिशत परिवार ही उन बहुओं को सहयोग करते हैं । यदि सहयोग मिल जाए तो समझिए जिस प्रकार नर्सरी से लाया पौधा अच्छी देख-रेख से पनप जाता है ,उसी प्रकार यह बेटी अपने ससुराल में एवं कार्य में जड़ें मजबूत कर लेती है अन्यथा वह बिन मालिक के पौधे की तरह मुरझा कर सूख जाती है । अपना सब कुछ भूल कर , सामाजिक मान्यताओं, रीति-रिवाजों और रस्मों की आड़ में कुचल -मसल दी जाती है । और वह मजबूर हो जाती है उन्हीं ग्रामीण महिलाओं की तरह पशुत्व की जिंदगी जीने के लिए । समझो यदि किसी महिला को आज़ादी मिलती भी है अपनी जिंदगी अपने हिसाब से जीने के लिए, एवं सहयोग मिलता है बाहर जा कर काम करने में, तो उसकी तनख़्वाह या आय पर भी ससुराल वालों की नज़र रहती है । कुल मिला कर निष्कर्ष यह है कि यदि सामाजिक स्वतंत्रता मिल भी जाए तो आर्थिक स्वतंत्रता छीन ली जाती है … Read more

आधी आबादी :कितनी कैद कितनी आज़ाद (वंदना गुप्ता )

कोई युग हो या कोई काल स्त्री के बिना संभव ही नहीं जीवन और संसार , जानते हुए इस अटूट सत्य को जाने क्यों कोशिशों की पुआल पर बैठ वो जारी करते हैं तालिबानी फतवे ……….ये एक ऐसा प्रश्न तो अनादिकाल से चला आ रहा है और जाने कब तक चलता रहेगा क्योंकि अभी तक तो आधी आबादी अपने होने के अर्थ को ही नहीं समझ पायी है तो अपने लिए , अपने हक़ के लिए लड़ने और फिर अपने अस्तित्व को प्राप्त कर एक इतिहास बनाने को अभी जाने कितने युग लग जाएँ .  और जो ये ही न जानता हो उसकी कैसी आज़ादी . कैद हथकड़ी और बेड़ियों से ही नहीं होती जो दिखाई नहीं देतीं उन कैदों की जकड़न और पीड़ा अथाह होती है . छटपटाहट के भंवर में डूबते उतराते स्वीकार ली जाती है यथास्थिति और वो कब आदत में तब्दील हो जाती है कोई जान ही नहीं पाता और फिर शुरू हो जाता है अंतहीन सिलसिला पीढ़ी -दर- पीढ़ी . अब तक यही तो होता आया है मगर जब आज ज्ञान के उजाले में आधी आबादी के मुश्किल से एक प्रतिशत हिस्से ने यदि कदम आगे भी बढाया है तो भी नहीं कहा जा सकता वो कितनी आजाद हैं क्योंकि बेशक वो घर से बाहर काम करने जा रही हैं , कमा कर भी ला रही हैं मगर क्या उन्होंने पूर्ण रूप से अपनी उपस्थिति दर्ज करवाई है अपने घर में , समाज में , ये प्रश्न उठता है तो उत्तर में जवाब नकारात्मक ही आता है . आज भी जो स्त्रियाँ बाहर निकल रही हैं उनमे से हर तरह के निर्णय लेने में सक्षम स्त्रियों का यदि प्रतिशत ढूँढा जाए तो चौंकाने वाले आंकड़े आयेंगे क्योंकि बेशक उन्हें आज़ादी मिली है मगर उतनी ही जितनी से पितृसत्ता के दावे पर आंच न आये और उनका राज सुरक्षित रहे तो कैसे कह सकते हैं हम आज़ाद हैं वो . जब तक एक स्त्री आर्थिक के साथ मानसिक स्वतंत्रता महसूस नही करेगी और अपने अधिकारों और कर्तव्यों के प्रति सचेत नहीं होगी तब तक वो कैद ही है एक अदृश्य बेड़ी  जिससे मुक्त होने के लिए उन्हें अपनी सोच के धरातल को पुख्ता बनाना होगा और उसे जीवन में क्रियान्वित करना होगा तभी वास्तव में आधी आबादी कह सकेगी आज़ाद है वो ……….फिलहाल कितनी कैद में है और कितनी आज़ाद ………जानने के लिए जरूरत है उसे अपने ही गिरेबान में झाँकने की।  सिर्फ स्त्री विमर्श कर लेना , या शोर मचा लेना भर नहीं है आज़ादी की परिभाषा , बंधनमुक्त होने का प्रमाण । वहीँ देहमुक्ति भी नहीं है वास्तविक विमर्श या आज़ादी ख़ास तौर से उनके लिए जिन्होंने इसके अर्थ सिर्फ  देह तक ही समझे और आज भी दोहन का शिकार हो रही हैं एक प्रोडक्ट बनकर।  एक स्त्री का अपनी देह पर पूरा अधिकार है मगर उसका उपयोग एक बार फिर पुरुषवादी सोच का शिकार बन किया जाए तो ये भी एक कैद है जिसे वो अब तक जान नहीं सकी। मुक्त होना है उसे इस मानसिक शोषण से भी।  आधी आबादी होने का अर्थ क्या है वास्तव में ये जानना जरूरी है और फिर उस जानने को प्रमाणिकता से सिद्ध करना अपनी उपयोगिता के साथ ही है आज़ादी का पूरा मतलब।   जिस दिन उसका होना स्वीकार लिया जायेगा एक बराबर के स्तर  पर अनिवार्यता के साथ समझ लेना आज़ाद हो गयी है वो उस जड़ सोच से जिसके कारण सदियों से ये पीड़ा झेलती रही ………. फिलहाल तो मंज़िल बहुत दूर है …… वंदना गुप्ता atoot bandhan …………हमारा फेसबुक पेज .

आधी आबादी कितनी कैद कितनी आजाद( नागेश्वरी राव )

                                  पहचानो अपनी सीमाएं  आपका शीर्षक खुद ही महिलाओ  की दशा प्रदर्शन कर रही है. थॉमसन रॉयटर्स फाउंडेशन विशेषज्ञ सर्वेक्षण के अनुसार एक औरत के लिए भारत, दुनिया का सबसे खतरनाक देश के रूप में चौथा स्थान पर रहीं है|  लिंग का निर्धारण कर 300,000 से 600.000 तक,  परिवार, जाति और समुदाय के दबाव में आकर गर्भपात किया जाता है| गर्भ से ही लड़की की भेदभाव आरम्भ होकर जिंदगी भर जारी रहता है। न उन्हें पौष्टिक भोजन न उचित शिक्षा उपलब्ध कराते, विषेश कर ग्रामीण क्षेत्रो में.  महिलाओं के लिए  साक्षरता दर 60.6%, पुरुषों के लिए  साक्षरता दर: 81.3% और बालिका शिक्षा को बढ़ावा देने  के लिए सामाजिक सेक्टर क्षेत्र के कार्यक्रमों सर्व शिक्षा अभियान” ” (सभी के लिए शिक्षा) “शिक्षा के अवसर बराबर” चला रहें है.  बाल विवाह अधिनियम 2006 में लड़की 18 साल और लड़का 21 साल की उम्र के नीचे विवाह पर निषेध लगाई है, लेकिन, कानूनी उम्र से पहले शादी कर रहे है। बाल विवाह ,गरीबी, असुरक्षा, राजनीतिक और वित्तीय आदि कारणों  के लिए पूरे इतिहास में उल्लेखनीय, है । इतना ही नही वयोक्त शादीयां भी खतरे से खाली नही हैं. दहेज, दहेज हत्या काफी  बढ़ गए है.  भारत सरकार ने दहेज की मांग अवैध बनाने, निषेध अधिनियम, [76] पारित कर दिया।  1997 की रिपोर्ट में भारत में हर साल कम से कम 5,000 महिलाओं को दहेज संबंधित मौत और कम से कम एक दर्जन ‘रसोई की आग‘ में प्रत्येक दिन मर जाते है । महिलाओं को बलात्कार, अपहरण, मानसिक और शारीरिक यातना का सामना करना पड़ता है।   राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड1998  ब्यूरो सूचना दी कि महिलाओं के खिलाफ अपराधों की दर में2010  वृद्धि   जनसंख्या वृद्धि दर से अधिक होता है.  कुछ समुदायों की सती, जौहर, पर्दा, और देवदासी के रूप में परंपरा पर,  प्रतिबंध लगा दिया गया है. महिलाओं की कोई न सम्मान है न पहचान है अब तक, वे पिता, पति या बेटे की छाया के नीचे रह रहे थे| मध्ययुगीन काल के निम्न बिंदुओं के माध्यम से प्राचीन समय में पुरुषों के साथ बराबरी का दर्जा से, कई सुधारकों द्वारा समान अधिकारों को बढ़ावा देने के कारण भारत में महिलाओं की स्थिति में पिछले कुछ सदियों से कई महान, अमूल्य एवम्‌ विशेष परिवर्तन होते आये है, वे आज अपनी स्वतंत्र पहचान स्थापित कर ने में सक्षम है। समान कार्य के लिए सभी भारतीय महिलाओं को समानता (अनुच्छेद 14), राज्य (अनुच्छेद 15 (1)), अवसर की समानता (अनुच्छेद 16)  में कोई भेदभाव नहीं है, और समान वेतन के लिए भारतीय संविधान गारंटी देता है (अनुच्छेद 39 (घ))। इसके अलावा, यह विशेष प्रावधान महिलाओं और बच्चों के पक्ष में राज्य द्वारा (अनुच्छेद 15 (3)), महिलाओं (अनुच्छेद 51 (ए) (ई)) की गरिमा के लिए अपमानजनक प्रथाओं का परित्याग किए जाने के लिए अनुमति देता है| महिलाओं को सशक्त, आत्म निर्भर और स्थिति को विस्तृत एवं व्यापक करने के संदर्भ में कई कानून बनाये जैसे सिविल विवाह अधिनियम, 1872।,  विवाहित महिलाओं की संपत्ति अधिनियम, 1874,  बाल विवाह निरोधक अधिनियम (शारदा एक्ट), 1929। भाग अधिनियम, 1929 हिंदू कानून आदि| भारत की महिलाएं धीरे–धीरे अपने असली क्षमता को पहचानना शुरू कर दुनियां  में एक सम्मानजनक स्थान अर्जित किया, आसानी से आज न केवल वे घरेलू मोर्चे बल्कि अपने पेशे से संबंधित मोर्चे में भी शूरता प्रकट कर रही है. नेताओं, वक्ताओं, वकीलों, डॉक्टरों, प्रशासकों, गीतकारों, महिला खिलाड़ी, राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, लोकसभा के अध्यक्ष , आयोजकों,और राजनयिकों के रूप में जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में उत्कृष्ट कार्य किये है| ये है महिला के तकनीकी सामाजिक रुप– रेखा| अब ह्म आते है स्त्री की व्यक्तिगत जीवन में. जो परिवार के सदस्यों के साथ खाना,पीना,पढना,उठना,बैठना आदि से शुरु होती है|पारिवारिक सदस्यों के प्रकृति,  मानसिक स्तर, शैक्षणिक स्तर, धर्मिक मान्यताएँ, सामाजिक स्तर आदि पर जीवन निर्भर रहता है. स्त्री-पुरुष चाये किसी भी रुप में (भाई और बहन, पति पत्नी आदि) एक दूसरे के पूरक होते है अपने गुण एवं अवगुणो के साथ | आदमी मजबूत है  शारीरिक रुप से और महिला भावनाओं और सहनशीलता से| लेकिन जटिल सामाजिक और राजनीतिक स्थितियों की वजह से, अशिक्षा, असुरक्षा पनपी, अनैतिकता के फलस्वरूप  विकरालता जन्म  ली| जिससे अधिकतर पुरुष अहंकारी, स्वार्थी बन गये, और उनकी सोच धूमिल पड गयी |वे कमजोर व्यक्तियों, महिलाओं के प्रति भय, अन्याय, बेईमानी कर सम्मान हासिल करना और दबाव रखना चाहते हैं| उनके लिए महिला हवस और  मनोरंजन का एकमात्र स्रोत है| इतना से भी वे संतुष्ट नहीं है वे अनुभव कर एसिड, तेज  सामग्री, और पत्थर के साथ पीड़ितों को मार कर,  सुख का अनुभव करते है| कुछ लोग पैसे से, कुछ गुंडागर्दी से, कुछ चिकनीचुपडी बातों से बहलाकर महिलाओं का शोषण करतें हैं| महिला| न वह घर में, न ससुराल में सुखी रह सकती है| ग्रामीण स्त्रियों के हाल और भी बूरा है|न उनके पास सेहत,न धन,न शिक्षा न जीविका का कोई आधार. संयुक्त परिवार में न वह मुँह खोल सकती है न बंद कर सकती है उसे विभिन्न पारिवारिक सदस्यों के घरेलू हिंसा एवं शोषण को सहना पड़ता है| न्याय के लिए वह कहां जाती? एक ऑटोवाला, से लकर मंत्री, जर्ज तक,बेईमान और स्त्री लोलुप और रिश्वतखोर है। नारी को अपने हालातों पर आँसू नहीं आग बरसाना है| ह्रर नारी अपने प्रतिभा, आत्म सम्मान से जंग लड़नी है|जैसे कुछ नारियों ने कर दिखाया है.        पुरुष प्रधान समाज में अचार-सहिता केवल महिलाओं के लिए और पुरुषों को अपने करतूतो को श्रेष्ठ साबित करने के लिए है. बड़ों और महान व्यक्तियों को पुरुषों और महिलाओं के        लिए समान रूप से निष्पक्ष होकर समाज के लाभों के अनुसार जीवन शैली बनाना चाहिए| परिवार अपने कर्तव्यों और अधिकारों के साथ खुश हो जाएगा। यदि धार्मिक मान्यताये निष्पक्ष रहे होते तो न आदमी अहंकारी होंता न स्त्री  कुंठित होती, दोनोंएक दूसरे के सहायक होकर सोच समझकर, शांति और उत्साह के साथ अपने बच्चों का सही मार्गदर्शन करतें और पति और पत्नी खुश रहते और समाज भी शांति से दिन दुगुनी रात चौगुनि विकास करती| स्त्री– पुरुष  अपने अपने सोच को शिक्षा से विस्तृत कर, सरकार की कानून-व्यवस्था का अनुसरण पालन करते हुए उनसे प्राप्त सुविधावो को उपयोग कर हर दिशा में उन्नति करे| नागेश्वरी राव  अटूट बंधन ………..हमारा फेस बुक … Read more

आधी आबादी :कितनी कैद कितनी आज़ाद ( तृप्ति वर्मा )

जरूरी है बराबर का पालन -पोषण  हमारा भारत स्वतंत्र है और स्वतंत्र भारत में अधिकांश आबादी पित्र सत्ता, रूढिवादी, अंधविश्वास, आडम्बरी परम्पराओं को संग लिए पिढी दर पिढी इसे निभाते देखा गया है।परंतु हमारा भारत आज स्वतंत्र भारत के साथ आधुनिक भारत भी बन चुका है भारत विज्ञान के क्षेत्र में भी परचम लहरा रहा है , इसके साथ ही पिता के सम्पत्ति का वारिस के लिए पुत्र का होना अनिवार्य है ऐसी धारणा भी खंडित हो चुकी है।आज लोग पुत्री के जन्म पर भी उतनी ही खुशियाँ और संतोष व्यक्त करते हैं जितनी की पुत्र के जन्म पर। किंतु प्रश्न यह है कि बेटा और बेटी को समान प्रेम और अधिकार की बात कहने और करने में कहीं अंतर तो नहीं। हम स्त्रियां सदैव पुरषों को ही स्त्री विरोधी खलनायक की भूमिका में रखते हैं जहां स्त्री दुराचार में पुरुष दोषी हैं वहीं यह भी देखा जाता है स्त्री स्वयं ही स्त्री विरोधी होती है      यहाँ मैं सारी स्त्रियों को या सारे पुरुषो को स्त्री विरोधी नहीं कह रही ,सामाज में ऐसे बहुत से स्त्री /पुरुष है जिन्होंने मिल कर स्त्रियों के उत्थान के लिए, शिक्षा के लिए , रोजगार में सहायता के लिए कार्य किया है, यहाँ तक कि बहुत सी ऐसी महिलाएं  हैं जो पुरुषों को पीछे छोड उँचे पद पर हैं , पर मैं यहाँ स्त्री /पुरुष के उस वर्ग या उन परिवारों को बिन्दू कर रही जो कम पढी लिखी है या पढी लिखी तो है,पर  स्वतंत्रता की मात्र बाते करती है पर मानसिक रूप से , विचारों से  स्वतंत्र नहीं।हमें यही एहसास होता है कि ‘स्त्री की स्वतंत्रता अधीनता के शर्त पर’ ही है हम देखते हैं कि आज भी स्त्री आधुनिक तकनीकों से लैस जीवन जीती है पर कैद मानसिकता के लोगों से घिरा जीवन उसकी स्वतंत्रता उडान को बाधित करता है। आज कुछ स्त्री आधुनिक भारत में जन्मी नयी पीढी के साथ चली , शिक्षित हुईं, सपने बुने पर सपने सच करने की स्वतंत्रता केवल शब्दों तक ही सीमित रही स्त्री को स्वतंत्रता केवल अधीनता के शर्त पर ही मिली है ऐसी स्त्रिया समाज में अनगिनत हैं।मैं यहां आधुनिक तकनीकी युग में सफल महिलाओं की बात नहीं करूँगी , मै यहाँ उन महिलाओं की बात करूँगी जो स्वतंत्र, आधुनिक, और वैज्ञानिक क्षेत्र में आगे रहने वाले भारत में आज भी अपनी छोटी इच्छा को पूरा करने , अपनी पहचान बनाने के लिये केंचुए की तरह रेंगती हुई संघर्ष कर रही हैं। ऐसी ही कहानी अभिलाषा की है जो एहसास दिलाती है की आज भी महिलाएं स्वतंत्र नहीं। अभिलाषा- एक मल्टी काम्पलेक्स सीटी में रहने वाली पिता सरकारी उच्चाधिकार , माँ कम पढी लिखी सामान्य सोच,  एक भाई आनंद। ‘अभिलाषा’ का घर बिल्कुल आधुनिक साज सज्जा से पूर्ण, आधुनिक उपकरणों से लैस। ‘अभिलाषा’ के परिवारजन शिक्षित सामान्य सोच वाले। ‘अभिलाषा’ के पिता की बदली होती है और अभिलाषा का पूरा परिवार बनारस शहर में आ बसता है।अभिलाषा की उम्र 8 वर्ष और भाई आनंद की उम्र 14 वर्ष। एक दिन अभिलाषा के घर उनके पडोसी आते हैं बातों -बातें में अभिलाषा के पिता कहते हैं पिता – हम बेटा -बेटी में कोई अंतर नहीं करते हमारे लिए दोनों ही बराबर है, बस ऐसे ही खुशी से जीवन कट जाए । पडोसी – सर नये शहर में आए हैं बच्चो का एडमिशन कहा करा रहे ? अफसर पिता – बेटे का एडमिशन शहर के टाप कालेज में कराया है घर से 45 मिनट का रास्ता है एक बाइक खरीद दिया है उसी से चला जाएगा पडोसी – और बेटी का एडमिशन अफसर पिता – बेटी को पास के हिन्दी स्कूल में डाला है वक्त कहा है बेटी को लेकर स्कूलों में दौड लगाए। अभिलाषा ये सुन दौड कर माँ के पास जा कहती हैं अभिलाषा –  माँ वो हिंदी स्कूल मेरे पुराने अंग्रजी स्कूल सा नहीं मुझे वहाँ कुछ समझ में नहीं आता। माँ जो बिल्कुल साधारण सोच की जिसने जिंदगी में परिवार को बनाने खिलाने के अलावा कोई भी आकांक्षा नहीं जताई , वो अपनी बच्ची के मन को ना समझ पायी , और कहा माँ- अभिलाषा परेशान मत करो , ज्यादा जानने लगी हो, पापा ने कुछ सोच कर ही एडमिशन कराया होगा। अभिलाषा उसी स्कूल में जाने लगती है और आगे की पढाई करते हुए दसवीं कक्षा में पहुंच जाती हैं। अब उसे अपना विषय चुनना होता है अभिलाषा विज्ञान को आगे की पढाई के लिए चुनती है अब उसे पढाई में कठिन परिश्रम की अवश्यकता है सहेलियों की मदद से घर से कुछ दूर ट्यूशन की व्यवस्था होती है । अभिलाषा रोज सुबह 5 बजे से 9 बजे तक ट्यूशन में ही रहती  एक दिन अभिलाषा 5 बजे सुबह ट्युशन जाती है सडक पर सन्नाटा पसरा सामने से एक लडका अचानक से आ अभिलाषा से टकरा जाता और कुछ  दुर्व्यवहार कर तुरंत भाग जाता , अभिलाषा साक हो जाती आँखो में आँसू भर जाते जो कदम पढने को जा रहे थे अब वो वापस घर को लौट जाती है अभिलाषा तुरन्त अपने माँ ,पिता ,भाई को सारी बातें कहती हैं , अभिलाषा और उसका पूरा परिवार सदमे में , अभिलाषा रोती है और सोचती आज क्या सोच जा रही थी और क्या हो गया , पिता और भाई उस लडके को खोजते पर वह दूर भाग चुका था।अभिलाषा कुछ दिनों तक घर में ही रहती हैं फिर हिम्मत कर कालेज जाना शुरू करती पर उसका पूरा परिवार डरा हुआ।अब मानो अभिलाषा के पैरों में जंजीर लग गई हो , परिवार का बार -बार कहना तुम्हें यहाँ नहीं जाना तुम्हें वहां नहीं जाना “यहां पुरूषों को सोचने की जरूरत है कि उनके एक दुर्व्यवहार से लडकी का पूरा जीवन कितना प्रभावित हो जाता है” अब अभिलाषा के साथ हुए इस घटना के बाद पूरा परिवार उसे कहता है –  तुम विज्ञान की पढाई छोड दो और आसान विषय ले अपनी आगे की पढाई खत्म करो, बार -बार बाहर आना जाना तुम्हारे बस की बात नही। “अब यहां समस्या का दूसरा समाधान हो सकता था परिवार नकारात्मक रुख अपनाने के बजाए सकारात्मक और हिम्मत का साथ देता तो अभिलाषा का आज स्वपन उसकी खुशियाँ छूटती नहीं।” ऐसी परिस्थिति में माँ … Read more

आधी आबादी:कितनी कैद कितनी आजाद (कुसुम पालीवाल )

आधी आबादी-कितनी कैद कितनी आजाद औरत पैदा नहीं होती औरत बनाई जाती है । मीरा बाई और महादेवी वर्मा के कथनानुसार अगर कहा जाए तो ,प्रतिकूल परिस्थितियो से जूझते हुए, अपने इच्छा बल पर नारी स्वतंत्रता के स्वरूप को साकार कर सकती है ।स्त्री हमेशा मातहत बन कर अत्याचार सहती है नारी सक्षम होगी, तभी अपने अधिकारों को रेखांकित कर पायेगी ।                              वैसे देखा जाए तो स्त्रियों ने ही प्रथम सभ्यता की नीव डाली है ,उन्होंने ही मारे-मारे फिर रहे , जंगलो में भटकते हुए पुरूषों को हाथ पकड कर , नष्ट हुए स्तर को जीवन प्रदान किया तथा घर भी बसाया ।वैदिक युग स्त्रियों के चरम उन्नति का काल था ।इस युग में पुरुष और स्त्री के बौद्धिक स्तर को समान रूप से देखा जाता था किंतु वहीं मुगल शासन में स्थिति दयनीय हो गई थी और स्त्रियों पर अंकुश लगने लगा था आजादी केखिलाफ आधुनिक युग में अगर हम आते हैं तो दयनीय स्थिति में सुधार का कारण बने , मैथिली शरण गुप्त और जय शंकर प्रसाद । जहाँ अबला तेरी यही कहानी ” और ” नारी तुम श्रद्धा हो ” कह कर ,नारी को संबोधित किया और सम्मान की दृष्टि दिलवायी । और आजादी के बाद थोडा सा बदलाव आया कि पुरुषों के साथ समान अधिकार मिला और एक औरत, केबल पत्नी नहीं केबल दासी नहीं बल्कि मित्रवत देखी जाने लगी ।                                      लेकिन सच तो यह है वर्तमान समय में स्त्रियों के आत्म विश्वास और आत्म बल को हमारे समाज ने ही तोडा है । हमारा शिक्षित समाज आज भी स्त्रियों को सम्मान देने के संबंध में अशिक्षित ही रह गया है ।हमेशा से यही जाना गया है कि स्त्रियाँ शारीरिक तौर पर पुरूषों से कमजोर हैं किंतु हमारा मन यह नहीं मानता  जो स्त्री सृजन की शक्ति को रख सकती है , वो कमजोर कैसे हो सकती है ।स्वतंत्रता के पश्चात, पुरूषों के समक्ष बराबर आने का हौसला नारी में हुआ , लेकिन नारी स्वतंत्रता का आन्दोलन आज भी जारी है । स्त्री स्वतंत्रता मांग रही है।ग्रहणी – घर में काम करती हुई स्त्री , दफ्तर का दंड और पुरूष प्रेम के द्वन्द में दुविधा ग्रस्त स्त्री , बौद्धिक बनती स्त्री , अक्षर ज्ञान से रहित स्त्री , साक्षर बनती स्त्री ,,,,,,,, स्त्री, स्त्री, स्त्री ।लेकिन आज भी स्वतंत्रता चाहती है ।                                          समाज का वातावरण हर ओर शंका से ग्रसित है शिक्षित और आत्म निर्भर स्त्री भी निर्भयता पूर्वक हो , कहीं  भी नहीं आ जा सकती ।एक अनचाहा डर उसके अस्तित्व को पूर्ण रूप से आकार नहीं लेने देता ।आज कल हमारे प्रत्येक वर्ग को सोच परिवर्तन की बहुत जरूरत है । कानून का अस्तित्व घटना के बाद होता है। जहाँ सोच स्वस्थ नही होगी , वहां नारी की स्थिति में कोई चमत्कारिक बदलाव नहीं आने वाला ।आज जरूरत है मानसिक स्तर पर नारी को सकारात्मक करने की और यह जिम्मेदारी समाज को बनाने वाली  दोनों इकाईयों की होती है यानि स्त्री और पुरुष वर्ग की ,,,,,,,,,,,,  कुसुम पालीवाल नोयडा atoot bandhan…………क्या आपने लाइक किया 

आधी आबादी :कितनी कैद कितनी आज़ाद (संगीता सिंह ‘भावना ‘)

दोहरी जिन्दगी की मार  आज भले ही स्त्री ने अपनी एक अलग पृष्ठभूमि तैयार कर ली है ,पर अभी भी हमारे पुरुष प्रधान समाज मे स्त्रीयों की हालत काफी नाजुक है | समय बदला,युग बदला और नारी ने भी अपना मुकाम बनाया ,पर एक सत्य जिसे नकारा नहीं जा सकता वह यह है कि आज भी स्त्री पुरुष के अधीन है | हमारे समाज में जो एक शोर चहुंओर व्याप्त है वो यह है कि स्त्रीयों की दुनियां में आश्चर्यजनक परिवर्तन हुए हैं | आज स्त्री अपनी मुकाम खुद बना रही है, उसने दहलीज के बाहर अपने कदम पूरी सख्ती से जमा लिए हैं , उसने अपना आकाश तलाश लिया है ……..बहुत हद तक यह सही भी है , पर इतना भी नहीं जितना सुनने को मिल रहा है| स्त्री संबंधी कई ऐसे मसले भी हैं जो अभी भी अनसुलझे ही हैं, जहां तक अभी हम पहुँच ही नहीं पाये हैं | यक सत्य जरूर है कि नब्बे के दशक के बाद सबसे अधिक चर्चा नारी मुक्ति और नारी सशक्तिकरण पर ही हुआ है ,पर बिडंबना यह है कि खुद को सशक्त और सक्षम कहने वाली स्त्री की अपनी कोई पहचान नहीं है, कोई पृष्टभूमि नहीं है | दरअसल अभी भी वो ऐसे दोराहे पर खड़ी है जहां से उसे कोई साफ और सुदृढ़ छवि नजर नहीं आ रही है | वह कल्पनाओं और दोहरे द्वंद में फंसी है ,और आज भी वह एक दिखावटी छवि लेकर समाज के सामने खुद को प्रस्तुत करती है | कहने को तो वह पुरुष के समानांतर खड़ी है,पर नजदीक से देखने के बाद हालात कुछ और ही ब्यान करते हैं | समाज में अपनी असली भूमिका से अभी भी वह वंचित है ,  समाज में उसकी छवि शोषिता की ही है , आज भी उसकी गिनती पुरुष के बाद ही होती है | अगर हम  ईमानदारी से नजर डालें तो पाएंगे कि अभी भी स्त्री पुरुषों के अधीन समझी जानेवाली ही एक हँसती-बोलती कठपुतली है | इसलिए बाहर से नकली चमक ओढ़े इन स्त्री के हँसते चेहरे से बेहतर है हम इनके खामोशी से,जबरदस्ती के ओढ़े हुए आवरण को हटाकर परदे के पीछे की तस्वीर को भी देखें |   आज भले ही वो नौकरी मे अपने पति के बराबर के पोस्ट पर है या उससे ज्यादा ऊंचे ओहदे पर है पर घरेलू जिम्मेदारियों से वह बच नहीं सकती | एक बात जो हमने हमेशा महसूस किया है कि जिस घर में पति-पत्नी दोनों नौकरीपेशा हैं वहाँ हर दिन एक सा रूटीन होता है | पति-पत्नी में आपसी संवाद बहुत ही कम या जरूरतभर  होती है , दोनों अपने-अपने काम के बोझ तले इस कदर दबे रहते हैं कि जीवन के छोटे -छोटे क्षण जिनसे मिलकर दाम्पत्य की डोर मजबूत बनती है को दरकिनार कर अपने काम और सिर्फ काम में मशगूल रहते हैं | उनके हर काम का एक निश्चित टाइम बना है और वे इस नियम के पक्के पाबंद रहते हैं ,जब दोनों काम से लौटते हैं तो जहां पत्नी अपनी बिखरी गृहस्थी को सँवारने लग जाती है वहीं पति महोदय चाय की चुस्कीयों संग टी. वी का आनंद उठाते हैं | किसी -किसी जगह पर पति भी कुछ मदद कर देता है पर ऐसा उसके मूड पर निर्भर करता वह चाहे तो काम करे या न करे कोई दबाव नहीं होता है | लेकिन स्त्री की हालत ठीक इसके विपरीत होती है वह न चाहते हुये भी अपनी उन जिम्मेदारियों से मुक्त नहीं हो सकती | किचेन में जाना उसकी मजबूरी और जरूरत दोनों हो जाती है , मान लें अगर वह सहायिका या मेड रख भी ले तो वह तो घरेलू काम ही करेगी न …….खाना निकालना, बच्चों के होमवर्क कराना, घर के कई छोटे-मोटे काम जैसे,चाय बनाना ,घर को व्यवस्थित करना आदि अनगिनत काम ऐसे हैं जो हर महिला को करना ही पड़ता है | पहले स्त्री खाना बनाती  थी ,बच्चों को संभालती थी तथा घर के तमाम काम करती थी और पुरुष बाहरी काम संभालता था | पहले बच्चे की ज़िम्मेदारी भी उतनी कठिन नहीं थी ,तब संयुक्त परिवार होता था और हर घर में चार-पाँच या फिर उससे भी अधिक बच्चे होते थे जिनकी पढ़ाने-लिखने की ज़िम्मेदारी घर का कोई सदस्य समूहिक रूप से कर देता था | तब पढ़ाई भी उतना जटिल नहीं था ,एक सामान्य पढ़ाई थी जो बच्चे की माँ भी बैठे-बैठे कर सकती थी पर आज तो बच्चों की किताबें देखकर ऐसा लगता है कि पता नहीं कौन सा कठिन प्रश्न बच्चे कर दें और उसका उतर न देने की स्थिति में क्या होगा ??? इन्हीं समस्याओं से निजात हेतु आज ट्यूटर एक जरूरत सी बन गई है | आज परवरिश एक कठिन कार्य बन गया है इन सबके वावजूद अगर आपका बच्चा अच्छा निकाल गया तो इसका सारा श्रेय पति महोदय ले जाते हैं और अगर दुर्भाग्य से बच्चा नालायक निकल  गया तो , स्त्री जो अपना सर्वस्व न्योछावर कर देती है उसके हाथ सिर्फ बच्चों के बिगाड़ने का आरोप लगता है | इस स्थिति में स्त्री का मानसिक पतन होता है और वह खुद में आत्मविश्वास की कमी महसूस करती है | आज एकल परिवार का जमाना है ,स्त्री भी नौकरी करने लगी है , इससे जो गृहस्थी है वो डगमगाने लगी है | मेरी समझ से होना तो यह चाहिए था कि स्त्री जब बाहर से काम करके लौटे तो उसे घर में सुकून के कुछ पल मिलने चाहिए था पर ठीक इसके विपरीत उसके कार्यों में दोगुना इजाफा हो गया है | आज तो हालत यह है कि आज जब स्त्री काम से वापस लौटती है तो बच्चों को क्रेश से लेती है घर के लिए जरूरत का समान खरीदती है और तो और जब से फोन का जमाना आ गया है उसके एक-दो काम और बढ़ गए है …..टेलीफोन बिल भरना, बिजली बिल भरना ,गैस का नंबर लगाना आदि | कहने का मतलब यह है कि जिन चीजों का वह फायदा उठाती है उसकी भरपाई भी स्त्री को ही करना पड़ता है | घरेलू कामों के साथ-साथ स्त्री को परिवार के लोगों को भी समय -समय पर फोन द्वारा ही सही पर यह एहसास दिलाना होता … Read more