आधी आबादी :कितनी कैद कितनी आज़ाद ( पुष्प लता )
आज़ाद भारत में आज़ाद महिलायें …………… !!! पायलों की बेड़ी में जकड़ी, आज भी नारी चूड़ियों सी हर पल खनकती ,वो सुकुमारी रीती -रिवाजों को ढोती रहती, वो बेचारी कितनी गिरहें खोली उसने ,कितनी है बाकी जेवर , तेवर ख़ुशी से सहती ,बांध गले हंसरी टपके आँसु , बिखरी हंसी , है उसकी आज़ादी आजाद भारत की आज़ाद महिला क्या वाकई में आज़ादी के मायने जानती है ? क्या वह इसका फायदा नुकसान समझती है ? या बदलते युग के साथ बस अपनी जरुरत के मुताबिक घर से बाहर निकलना और घर के कामों में भूमिका निभाना मात्र ही उसकी आज़ादी है। हकीकत तो यह है कि , समाजिक बंधनो , मान्यताओं , और सामाजिक सोच के स्तर में आज भी महिलाओं को आज़ादी नहीं मिली है। आज आज़ादी के ६८ सालों के बाद भी महिलाओं की स्थिति में कोई ख़ास बदलाव नहीं आया है। भारत के ग्रामीण इलाकों या छोटे- छोटे शहरों में महिलाओं को दो वक्त की रोटी बनाने और घर के सदस्यों की देखभाल करने के अलावा आज़ादी के कोई और मायने नहीं पता और शहरी महिलाओं जैसी सुविधाएँ भी प्राप्त नहीं है। अगर हम पहले की तुलना करें तो कुछ ऐसे क्षेत्र जहॉं महिलाएं अपने कदम भी नहीं रख पाती थी उन जगहों पे उसने अपना अस्तित्व कायम किया है। आज की नारी का जीवन संघर्षो से भरा है , और समय की हर मुश्किलों के अनगिनत थपेड़ों को सहते हुए वह एक शीतल सुखद बयार की तरह आँगन को महकाती है और परिवार की मंगल कामना करते हुये अपनी पारिवारिक धुरी को बनाये रखती है। पिछले कई दशकों में भारतीय नारी स्वयं को पुरुषों के समक्ष स्थापित करने की पूरी कोशिश कर रही है। आज़ादी के बाद आज भी ऐसा प्रतीत होता है कि , नारी को जितना अधिकार मिलना चाहिए वह नहीं मिल रहा। यद्यपि विश्व की सारी प्राचीन संस्कृतियों में नारी पूज्यनीय रही है पर, कई देशों की संस्कृति में नारी और पशु में आत्मा की स्थिति स्वीकार नहीं की गयी।हमारे भारत में नारी सदैव देवी मानी गयी है। स्वतंत्रता के बाद नारी की राजनैतिक और सामाजिक दोनों ही स्थितियों में परिवर्तन हुये हैं। राजनैतिक दृष्टि से नारी अधिकार संपन्न है और भारतीय संविधान में नारी को सभी अधिकार प्रदान किये गये हैं। जबकि इतिहास गवाह है की कई अन्य देशों जैसे फ़्रांस, ब्रिटेन, अमेरिका इत्यादि में महिलाओं को मताधिकार के लिये भी बहुत संघर्ष करना पड़ा। भारतीय महिलायें समाज सेवा , राजनीति तथा कई अन्य क्षेत्रों में काम कर रही हैं और पुरस्कृत भी हुई है. आज महिलाएं शिक्षित है , जागरूक है ,सपने देखती है और उन सपनो को पंख लगाना भी जानती है। आज़ादी के बाद लोकसभा , राज्यसभा तथा विधान सभा आदि में भी महिलाओं की कार्य कुशलता देखी जा सकती है। आज़ादी से पूर्व १९१७ में श्रीमती एनी बेसेंट तथा १९२५ में श्रीमती सरोजनी नायडू कांग्रेस अध्यक्ष के पद पर प्रतिष्ठित हुई. उसके बाद १९३७ प्रथम मंत्री श्रीमती विजय लक्ष्मी पण्डित , १९६३ प्रथम मुख्य मंत्री श्रीमती सुचेता कृपलानी , १९४७ प्रथम राज्यपाल श्रीमती सरोजनी नायडू, १९६६ प्रथम महिला प्रधान मंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी, इत्यादि के कार्यों से जग परिचित है। आज़ादी के नाम की परिभाषा कुछ प्रतिष्ठित महिलिाओं के आधार पर नहीं की जा सकती। असल में विकास की पहली सीढ़ी शिक्षा है पर महिलाओं को इस पहली सीढ़ी तक पहुँचने में भी काफी संघर्ष करना पड़ता है। देखने में भले ही लगता है कि महिलाओं का सर्वत्र वर्चस्व है पर वास्तविकता ऐसी नहीं हैं।विकास के नाम पर हम सिर्फ शहर की महिलाओं पर जाकर रुक जाते हैं जो वास्तव में आधुनिकता के बंधन में तरक्की की सीढ़ियां चढ़ रही है । महिलाओं की स्थिति और वैकल्पिक राजनीति के उतार चढाव पर भारत की बहुसंख्यक महिलायें जो उत्पीड़न घर और घर के बहार झेल रही है उन सवालों से पीछे नहीं हटा जा सकता। आज़ादी के बाद भले ही महिलाएं घर की चार दिवारी से बाहर निकलकर अपनी भूमकिायें दे रही है और हर क्षेत्र में आगे है पर उनकी यह भूमिका समय की मांग और अर्थव्यवस्था के बिगड़े हालात है जिसके कारण उन्हें घर के काम काज के साथ बाहर नौकरी करने के लिए भी जाना पड़ रहा है। अफ़सोस हमारी सबसे बड़ी लोकतंत्र भी उसे नीति निर्धारकों के बीच कोई स्थान नहीं देती । हमारी सबसे बड़ी लोकतंत्र में भी फैसले लेने वाली संसदीय संस्थाओं से वह वंचित रखी गयी है। आज़ादी के द्वार तलाशती नारी कभी मुक्त नहीं हो सकी , वह रूढ़िवादी परम्पराओं और विसंगतियों से अपनी ही दीवारों में कैद है , और स्वतंत्रता के संघर्ष में भागीदारी बन सामाजिक , राजनैतिक , चुनौतियों से स्वाभिमान के लिए लड़ती रही है। आज भी अबोध मासूम बच्चियां दुर्व्यवहार का शिकार हो रही है , भ्रूण हत्याएँ हो रही हैं , बालिका विवाह, तथा बालिका शिक्षा की समस्यायें बनी हुई है और वह कई मूल-भूत अधिकारों से वंचित रखी जाती हैं। नारी पर जब जब प्रताड़नाओं का दौर गुजरा है विरोध में प्रेस , मीडिया, और कुछ बुद्धजीवियों ने विचार -विमर्श का मुद्दा बनाकर आँसु बहाने के सिवा कभी कोई ठोस परिवर्तन नहीं किया है । देश के भविष्य से खेल रही संविधान कानून तो बनाती है पर उसको तोड़ने की चाभी आला अधिकारीयों के हाथ थमा देती है। नारी अस्मिता की आवाजें देश में गूंजती है पर शनै -शनै विलुप्त हो जाती है। कभी आज़ादी का पंख पाने वाली नारी मार दी जाती है , कभी आज़ादी को ही काट दिया जाता है। युग बदलने और आज़ादी पाने के बाद एक उम्मीद थी कि , लोगों की सोच , विवेक बुद्धि का विकास होगा और मानवता के नये अवाम स्थापित होंगे। पर दुःख की बात है कि, परिवर्तन और आज़ादी के बाद भी महिलाओं के साथ पशुओं जैसा आचरण किया जाता है। वह केवल “भोग की वस्तु” समझी जाती हैं. आंकड़े बताते है की महिलाएं कितनी असुरक्षित है. अगर ऐसा ही व्यवहार रहा तो हम स्वतंत्र और विकसित समाज कह कर जिस देश को परिभाषित कर रहे है ,भविष्य में उसे केवल कलयुग का समाज कहकर परिभाषित करेंगे। नारी को आज़ादी के साथ -साथ सम्मान देने की आवश्यकता है। आज़ादी के बाद भी नारी शोषण और गुलामी के बंधनो में जकड़ी है और उसकी सुरक्षा , शिक्षा , उसके भविष्य के सपने सब पुराने ख्यालों की तरह जकड़े हुये हैं। … Read more