अटल बिहारी बाजपेयी की पाँच कवितायें

फोटो क्रेडिट -वेब दुनिया जब भी राजनीति में ऐसे नेताओं की बात आती है जिन्हें पक्ष व् विपक्ष दोनों के लोग समान रूपसे सम्मान देते हों तो उनमें अटल बिहारी बाजपेयी का नाम पहली पंक्ति में आता है | भारत के दसवें प्रधानमंत्री रह चुके अटल जी एक कवि पत्रकार व् प्रखर वक्ता भी थे | कवि होने से भी ज्यादा विशेष था उनका कवि हृदय | भावों और शब्न्दों पर पकड से कोई भी कवि हो सकता है परन्तु कवि ह्रदय दुर्लभ है | अपने इस दुर्लभ ह्रदय के कारण ही राजनीति में रह कर भी  तमाम राजनैतिक द्वंदफंदों  से दूर रहे | आज उनकी पुन्य तिथि पर हम लाये हैं उनकी पांच कवितायें ….. अटल बिहारी बाजपेयी की पाँच कवितायें  ना चुप हूँ , ना गाता हूँ ना चुप हूँ , ना गाता हूँ सवेरा है मगर पूरब दिशा में घिर रहे बादल रुई से धुंधलके में मील  के पत्थर पड़े घायल ठिठके पाँव ओझल गाँव जड़ता है ना गतिमयता स्वर को दूसरों की दृष्टि से मैं देख पाता हूँ ना चुप हूँ , ना गाता हूँ समय की सद्र साँसों ने चिनारों को झुलस डाला मगर हिमपात को देती चुनौती एक दुर्गमाला बिखरे नीड़ विहसे चीड़ आंसू हैं न मुस्काने हिमानी झील्के तट पर अकेला गुनगुनाता हूँ ना चुप हूँ ना गाता हूँ | मैं अखिल विश्व का गुरु महान मैं अखिल विश्व का गुरु महान देता विद्या का अमर  दान मैं दिखलाता मुक्ति मार्ग मैंने सिखलाया , ब्रह्म ज्ञान | मेरे वेदों का ज्ञान अमर मेरे वेदों की ज्योति प्रखर मानव के मन का अंधकार क्या कभी सामने सका ठहर ? मेरे स्वर नभ में गहर -गहर सागर के जल में छहर -छहर इस कोने से उस कोने तक कर सकता जगती सौरभ भय मौत से ठन  गयी  ठन गयी मौत से ठन गयी जूझने का मेरा इरादा ना था मोड़ पर मिलेंगे , इसका वादा ना था , रास्ता रोक कर वह खड़ी हो गयी , यूँ लगा जिन्दगी से बड़ी हो गयी | मौत की उम्र क्या है ?दो पल की नहीं , जिन्दगी सिलसिला , आजकल की नहीं | मैं जी भर जिया, मैं मन से मरुँ , लौट कर आऊंगा , कूच से क्यों डरूं | तू दबे पाँव , चोरी छिपे से ना आ सामने वार कर फिर मुझे आजमा | मौत से बेखबर , जिन्दगी का सफ़र शान हर सुरमई रात बंशी का स्वर | बात ऐसी नहीं कि कोई गम नहीं , दर्द अपने पराये कुछ  कम भी नहीं प्यार इतना परायों का मुझको मिला न अपनों से बाकी हैं कोई गिला हर चुनौती में दो हाथ  मैंने किये आँधियों में जलाए हैं बुझते दिए | आज झकझोरता तेज तूफान है , नाँव भवरों की बाहों में मेहमान है | पार पाने का कायम मगर हौसला, देख तेवर तूफां का तेवरी तन गयी , मौत से ठन गयी || आओ फिर से दिया जलायें  आओ फिर से दिया जलायें भरी दुपहरी में अंधियारा सूरज परछाई से हारा अंतरतम का नेह निचोडें बुझी हुई बाटी सुलगाएं आओ फिर से दिया जलायें हम पड़ाव को समझे मंजिल लक्ष्य हुआ आँखों से ओझल वर्तमान के मोहजाल में आने वाला कल ना भुलाएं आओ फिर से दिया जलाए आहुति बाकी यज्ञ अधूरा अपनों के विघ्नों ने घेरा अंतिम जय कवज्र बनाने नव दधीची , हड्डियां गलाए आओ फिर से दिया जलायें एक बरस बीत गया झुलसाता जेठ मास शरद चाँदनी उदास सिसकी भरते सावन का  अंतर्घट रीत गया एक बरस बीत गया | सींकचों में सिमटा जग किन्तु विकल प्राण विहाग धरती से अम्बर तक गूँज मुक्ति गीत गया एक बरस बीत गया | पथ निहारते नयन गिनते दिल पल छिन लौट कभी आएगा मन का जो मीत गया एक बरस बीत गया | अटूट बंधन यह भी पढ़ें … काव्य जगत में पढ़िए बेहतरीन कवितायें संगीता पाण्डेय की कवितायें मायके आई हुई बेटियाँ रूचि भल्ला की कवितायें आपको  कविता  “  अटल बिहारी बाजपेयी की पाँच कवितायें .“ कैसी लगी   | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन”की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें |    डिस्क्लेमर – कविता , लेखक के निजी विचार हैं , इनसे atootbandhann.com के संपादक मंडल का सहमत/असहमत होना जरूरी हैं filed under- Atal Bihari Bajpayee,

प्रियंका–साँप पकड़ लेती है

फोटो -morungexpress.com से साभार प्रियंका गांधी , चुनाव नहीं लड़ रही हैं पर वो अपने भाई राहुल गांधी व् कोंग्रेस के प्रचार को मजबूती प्रदान करने केव लिए राजनीति के दंगल में उतरी हैं | प्रस्तुत कविता इस दूषित राजनीति में प्रियंका के कदम रखने पर अपने विचार व्यक्त करती है … प्रियंका–साँप पकड़ लेती है कभी नदी——— कभी नाव पकड़ लेती है, मोदी न आये सत्ता में, इस डर से, सपेरो के यहां जा——- प्रियंका साँप पकड़ लेती है. यही तो लोकतंत्र है, कि इस तपती धूप में, महलों की रानी, अपने पति और भाई के लिए गांव की पगडंडी , अपने आप पकड़ लेती है, और सपेरो के यहां जाके— प्रियंका साँप पकड़ लेती है. हँसती है,घंटो बतियाती है इस डर से- कि कही अमेठी से भाजपा की स्मृति न जीत जाये, हाय! ये काग्रेंस की आबरु का सीट बचाने के लिये प्रियंका——- अपने दादी की छाप पकड़ लेती है. और सपेरो की बस्ती में—– साँप पकड़ लेती है. जनता जानती है,समझती है कि क्यो—— चुनाव के समय ही, ये प्रियंका सपेरो के यहा जाके—- साँप पकड़ लेती है. लेकिन ये जनता साँप नही, कि कोई पकड़ ले, ये वोटर है, जो चुनाव से पहले ही, इन रंगे सियारी नेताओ का—- हर पाप पकड़ लेती है. मोदी सत्ता में न आये, इस डर से, सपेरो के यहां जाके —- प्रियंका सांंप पकड़ लेती है. रचनाकार –रंगनाथ द्विवेदी जज कालोनी,मियांपुर जिला–जौनपुर यह भी पढ़ें … काव्य जगत में पढ़िए बेहतरीन कवितायें संगीता पाण्डेय की कवितायें मायके आई हुई बेटियाँ रूचि भल्ला की कवितायें आपको  कविता  “  प्रियंका–साँप पकड़ लेती है …..“ कैसी लगी   | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन”की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें |    डिस्क्लेमर – कविता , लेखक के निजी विचार हैं , इनसे atootbandhann.com के संपादक मंडल का सहमत/असहमत होना जरूरी हैं filed under- priyanka Gandhi, Rahul Gandhi, Modi, Politics

जाने कितनी सारी बातें मैं कहते कहते रह जाती हूँ

लफ्जों को समझदारी में लपेट कर निगल जाती हूँ  जाने कितनी सारी बातें मैं कहते कहते रह जाती हूँ ।  और तुम ये समझते हो ,मै कुछ समझ नही पाती हूँ  है प्यार तुमको जितना मुझसे , मै समझ जाती हँ ।  बड़ी मुश्किल से मुहाने पर रोकती हूँ …बेचैनी को  और इस तरह अपना सब्र….मै रोज़ आजमाती हूँ ।  आरजू हो ,  किसी मन्नत के मुरादो में मिले हो तुम  सलामत रहों सदा…. दुआ मैं दिन भर गुनगुनाती हूँ । चाहे तुम रहो जहां कहीं ….तुम मुझसे दूर नही हो  आखें मैं बंद करू और  अपने मन में  तुम्हें पाती है । अब कहीं कहां मेरा…… कोई ठौर या ठिकाना  एक कड़ी हर रोज़ तुम्हारे और करीब आती हूँ ||  _________ साधना सिंह                       गोरखपुर  यह भी पढ़ें … पढ़िए एक से बढाकर एक कवितायें काव्य जगत में आपको  कविता  “जाने कितनी सारी बातें मैं कहते कहते रह जाती हूँ “कैसी लगी   | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन”की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके email पर भेज सकें 

श्री राम

तेरी पीड़ा की प्रत्यंचा को—— सब खीच रहे है राम! तेरी नगरी मे, तुम्हें टेंट से ढक कर, मंदिर यहीं बनायेंगे—– बस चीख रहे है राम। हर चुनाव के मुद्दे मे, बस भुना रहे अयोध्या को, कुछ न किया और कुछ न करेंगे, सच तो ये है कि, ये नकली भक्त है आपके सारे, जो अपने-अपने स्वार्थ का चंदन—– भर माथे पे टीक रहे है राम। तेरी पीड़ा की प्रत्यंचा को—— सब खीच रहे है राम। @@@रचयिता—–रंगनाथ द्विवेदी। जज कालोनी,मियाँपुर जौनपुर—222002 (उत्तर–प्रदेश)। पढ़िए एक से बढाकर एक कवितायें काव्य जगत में आपको  कविता  “ श्री राम “कैसी लगी   | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन”की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके email पर भेज सकें  filed under- Ram, shri Ram, Ram Navami

शहीद दिवस पर कविता

शहीद दिवस भारत माता के तीन वीर सपूत भगतसिंह , राजगुरु व् सुखदेव को  कृतज्ञ राष्ट्र का सलाम है |अंग्रेजी हुकूमत ने 23 मार्च सन 1931 को फांसी पर लटका दिया था | देश की स्वतंत्रता के लिए अपने प्राणों का बलिदान करने वाले ये तीनों हमारे आदर्श हैं आइये पढ़ते हैं उन्हीं को समर्पित कविता .. शहीद  दिवस पर कविता वे  देश के लिए  अपना आगा-पीछा  देखे-सोचे बिना  हँसते-हँसते  फाँसी के  फंदे पर झूल गए  और आज  अपने आस-पास  अन्याय होते  देख कर भी  नहीं निकलते  घर से बाहर देखते हैं बस  अपने घर की  खिड़कियों पर लगे  परदों का एक कोना हटा कर  चोरों की तरह  कितना अंतर आ गया है  स्वतंत्र होने के बाद  शहीदों को याद करते हैं  नमन करते हैं  सोशल मीडिया पर  गूगल से ढूँढ-ढूँढ कर  शहीदों की फ़ोटो  पोस्ट करते हैं  सभाएँ,कार्यक्रम करते हैं  उनकी फ़ोटो पर  माल्यार्पण कर  देश के लिए अपना  सर्वस्व समर्पण की  बात करते हैं  पर समय आने पर  देश तो बहुत दूर  अपने आस-पास तक के लिए भी  बाहर निकलने तक में  डरते हैं  कुछ करने में  सौ बार सोचते हैं और केवल सोचते रहते हैं  शहीदों की विरासत को इस तरह संभाले बस खड़े रहते हैं। ————————- डा० भारती वर्मा बौड़ाई फोटो क्रेडिट –shutterstock पढ़िए एक से बढाकर एक कवितायें काव्य जगत में आपको  कविता  “ शहीद  दिवस पर कविता“कैसी लगी   | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन”की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके email पर भेज सकें  filed under- shaheed divas, 23 march, bhagat singh

माँ गंगा

जल दिवस के उपलक्ष्य मे माँ गंगा की पीड़ा पर लिखी कविता——– कविता – माँ गंगा माँ गंगा———- अब धरती पे रो रही है! इसके बेवफ़ा बेटो मे अब, भगीरथ का किरदार न रहा, रोज शहर और घर के मैलो से पाट रहे, उफ!अब गंगा अपने बेटो का प्यार नही, बल्कि उनके हाथो मिला जहर———- अपने अंदर समो रही है, माँ गंगा———– अब धरती पे रो रही है। देखो इसी का असर है कि, इसके पानी का पूरा बदन, जहर से नीला पड़ता जा रहा, तड़पती गंगा माँ, अब बह नही रही———- बल्कि अपनी लाश को बस ढो रही है। माँ गंगा———- अब धरती पे रो रही है। @@@रचयिता—–रंगनाथ द्विवेदी। जज कालोनी,मियाँपुर जौनपुर —222002 (उत्तर–प्रदेश)। पढ़िए एक से बढाकर एक कवितायें काव्य जगत में आपको  कविता  “ “माँ गंगा “कैसी लगी   | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन”की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके email पर भेज सकें 

मनीषा जैन की कवितायें

मनीषा जैन की कवितायें आम बात कहती हुई भी खास हो जाती हैं क्योंकि वो हर संवेदना की गहराई तक जा कर वो निकाल लाती हैं जो सतह पर तैरते कवि अक्सर देख ही नहीं पाते| शायद यही कारण है कि मनीषा जी की कवितायें बहुत पसंद करी जा रही हैं | आज हम आपके लिए लायें हैं मनीषा जी की कुछ चुनिन्दा कवितायें … मनीषा जैन की नौ कवितायें  1. मैनें देखा रात के अंधेरे में मैनें देखा सड़क पर मिट्टी बिछाती स्त्री मैनें देखा उसे सड़क बनाते दिल्ली की सड़कों पर नवजात दुधमुंहे बच्चे को लिटा कर टोकरे के भीतर फिर फिर तोड़ती रही मिट्टी के ढ़ेले एक शिकन तक नही उसके मुख पर मैनें देखा उसे सड़कों पर अकेले। 2. भूखा बच्चा चाँद  को देख भूखा बच्चा बोल पड़ा कब आओगे रोटी बनकर चांद से देखी न गई बच्चे की भूख वह दूध बनकर मां के स्तनों से अमृत सा बह निकला फिर भी कई चांद से सरे आसमां एक भी भूख मिटाने के काबिल न था बहुत से रंग थे जीवन में उसके एक भी तो उसकी भूख मिटाने के काबिल न था। करवटें मौसम की – कुछ लघु कवितायें 3. सिर्फ देह एक दिन सिर्फ देह होने से मना करने पर उसने माना स्त्री की देह मानो कूड़ाघर उठा कर अंगुली एक सुना दिया फ़रमान मैं डरी सहमी सी दे ही न सकी कोई जबाब तुम्हारे प्रश्नों में कहीं कोई शर्म लिहाज भी नहीं थी। 4. रगो में लहू पिता आप उस दिन देख रहे थे मेरी ओर बुझती सांझ की तरह मेरी आंखों में भर रही थी तुम्हारी आंखों की सतरंगी रोशनी पिता उस दिन जब हाथ तुम्हारे उठ रहे थे मेरी तरफ कुछ कहने वो शाख में उगती पत्तियों की तरह दे रहे थे अटूट विश्वास मेरी बाहों को पिता उस दिन तुम्हारे वो कदम जो जा रहे थे मृत्यु की ओर मेरे पैरों में भर रहे थे गति मेरे जीवन में आ रही थी सुबह पिता मैं कहां भूल पाउंगा तुम्हारा देना जो अदृश्य हो कर दिया तुमने जो बहता है आज भी मेरी रगो में लहू बनकर क्या मैं अपने बेटे को दे पाउंगा ये सब कुछ। 5. साल के अंत में साल के नए दिन वह स्त्री धो रही है बर्तन बुहार रही है फर्श इस साल होली पर वह स्त्री रसोई में खेल रही है मसालों से होली बना रही है रंगबिरंगी सब्जियां गूंथ रही है परात भर चून थपक रही है सैंकड़ो पूरियां पकायेगी उन्हें पसीने के घी में सूरज की कढ़ाही में इस वर्ष तीज पर वह स्त्री ढ़ो रही है गारा, मिट्टी, ईंट घिस रही है एड़ियां सजा रही है जीवन की महावर अपने पैरो पर चमका रही है जीवन के आईने में अपना चेहरा इस वर्ष राखी पर वह स्त्री बांध रही है पेड़ को राखी नाप रही है संघर्ष की लम्बाई इस वर्ष दिवाली पर उस स्त्री का घर बह गया बाढ़ में बैठी है सड़क मुहाने पर कैसे जला पायेगी घर में दिया साल के अंत में वह स्त्री पूछ रही है माचिस का पता। अंतर -अभिव्यक्ति का या भावनाओं का 6. अपने बाल बांध लो द्रोपदी ने जब पूछा था प्रश्न भरी सभा में जुए में हारे हुए व्यक्ति को मुझे दाव पर लगाने का क्या हक है ? तब पूरे सभागार में मौन पसर गया था ना तब कृष्ण ने उठाया था बीड़ा द्रोपदी की लाज बचाने का तो इसलिए ओ मेरी संघर्षरत बहनों देखो अभी हारना मत चाहे वो तुम्हें घसीटें चांटे मारे या कि मुक्के या धक्का ही दे दे कभी कभी बातों से घायल करें लेकिन अभी घुटनों के बल मत बैठना देखो अभी अभी खोंसी है मैनें जीवन की कुछ इच्छायें अपने ब्लाउज के भीतर बिलकुल अभी अभी अपनी पूरी न होती आंकाक्षाओं को चढ़ाया है मैनें पानी जैसे सूरज को चढ़ाते है जल बिलकुल अभी अभी पिया है मैनें तोहमत का जल कब तक कहेंगे हम उनसे ? हमें स्वीकार कर लो हमें स्वीकार कर लो कब तक आचमन करेगें बासी पड़े पूजा के फूलों का अब कोई कृष्ण नहीं आयेगा द्रोपदी, तुम्हें बचाने के लिए उठो, अपने बाल बांध लो अकेले जीने के लिए तैयार रहो क्यों कि वो तुम्हें अपने रंग में नहीं मिलायेगें तुम स्वयं अपनी धोती को इतना लम्बा कर लो कि किसी कृष्ण की जरूरत ही न पड़े। 7. गहरी नींद में सो सकूं यही तो है जीवन उसका वह फटे पुराने वस्त्र पहने छुपाता है शरीर निकलता है हर रोज काम पर सूखी रोटी खा कर हाथ में खुरपी हाथ में करणी या हाथ में रंग रोगन का डिब्बा और ब्रश लिए सारे दिन जुता रहता है एक बैल की तरह काम पर मैं देख देख कर उसके काम को हैरान हूं उसके श्रम पर यही तो है असली जीवन स्ंाघर्ष से भरा जाड़े की ठिठुरती रात में वह दो रोटी खा सो रहेगा खोड़ी खाट पर ही और गहरी नींद उसे ले लेगी जल्द ही अपने आगोश में और हमें मुलायम बिस्तर पर भी नींद नहीं आती पलक भी नहीं झपकती पता नहीं कैसा संघर्ष है ये हमारा अगले जन्म में हमें भी दिहाड़ी मजदूर बनाना जिससे गहरी नींद में तो सो सकूं। 8. नियत तोड़े है मैंने वजु करने को रखे पानी से मैंने धो ली हैं अपने दिल में धंसी कांच की किरचें और अपमान में जलती आंखें अजान की आवाज पर अब मैं सिर नहीं ढ़कता अब पांचों वक्त की नमाज का नियम भी तोड़ दिया है मैनें क्या मैं अब इंसान नहीं रहा या कि अभी इंसानियत नहीं छोड़ी है मैनें। 9. अनार के फूल सड़क से गुजरते हुए अपलक देख रही हूं निमार्णाधीन मकान के बाहर उन मजूर स्त्रियों के मुख पर श्रम के पसीने की बूदें झिलमिलाती हुई सतरंगी इन्द्रधनुष के रंग भी फीके हो गए थे उस वक्त जब मिटटी् भरा तसला उठाती हुई करती हैं बीच-बीच में एक दूसरे से चुहल, हंसी मज़ाक तब सारे फूलों के रंग उतर आए थे गालों पर उनके लगता था जैसे वे दुनिया की सबसे खूबसूरत औरतें हैं और अनार के फूलों सी हंसी दबा लेती हैं होठों में अपने। परिचयः- मनीषा जैन जन्म- … Read more

जोधा-अकबर और पद्ममावत क्यू है?

बता एै सिनेमा—————— आखिर तुम्हें हमारी इतिहास से, इतनी अदावत क्यू है? तेरे दामन मे———- जोधा-अकबर और पद्ममावत क्यू है? । सवाल है मेरा तुझसे, कि सिनेमा के वे सेंटीमेंटल सीन और अंतरंगता, कोई मनोरंजन नही, ये इतिहास की पद्ममिनी का, सीने से खिचा आँचल है, हद तो ये है कि, इतने टुच्चे सिनेमाकारो के साथ आखिर—- हमारे यहाँ की अदालत क्यू है? । ठीक है माना कि, पद्ममावत जायसी की है, लेकिन एक तरफ “लव माई बुरका” पे रोक, लगाने वाली अदालत बता, कि पद्ममावती हर सिनेमाघर मे लगे, आखिर ये तेरी——– दोमुँही इजाज़त क्यू है? । तेरे दामन मे——— जोधा-अकबर और पद्ममावत क्यू है? । @@@रचयिता—–रंगनाथ द्विवेदी। जज कालोनी,मियाँपुर जौनपुर(उत्तर-प्रदेश)। अभी-अभी पद्ममावत फिल्म पे आये सुप्रीम कोर्ट के निर्णय पे मेरी भावाभिव्यक्ति,सुप्रीम कोर्ट के निर्णय का संम्मान करता हूं।मेरी इस रचना का ध्येय किसी जाति विशेष को आहत करना नही है,अगर एैसा भूलवस होता भी है तो आप हमे अपना छोटा अनुज समझ क्षमा करे।–रंगनाथ द्विवेदी। फोटो क्रेडिट विकिमीडिया कॉमन्स यह भी पढ़ें ……… काव्य जगत में पढ़े – एक से बढ़कर एक कवितायें रंगनाथ द्विवेदी की कलम से नारी के भाव चित्र मुखरित संवेदनाएं आभा दुबे की कवितायें बातूनी लड़की आपको  कविता  “जोधा-अकबर और पद्ममावत क्यू है?..“ कैसी लगी   | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन”की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें  डिस्क्लेमर -ये लेखक के निजी विचार हैं इनसे अटूटबंधन सम्पादकीय दल का सहमत होना जरूरी नहीं है |

बदलते हुए गाँव

गाँव यानि अपनी मिटटी , अपनी संस्कृति और अपनी जडें , परन्तु विकास की आंधी इन गाँवों को लीलती जा रही है | शहरीकरण की तेज रफ़्तार में गाँव बदल कर शहर होते जा रहे हैं | क्या सभ्यता के नक़्शे में गाँव  सिर्फ अतीत का हिस्सा बन कर रह जायेंगे |  हिंदी कविता – बदलते हुए गाँव  गाँव की चौपालें बदलने लगी हैं  राजनीती का जहर असर कर रहा है अब फसक हो रहे हैं सह और मात के तोड़ने और जोड़ने के सीमेंट के रास्तों से पट चुके है गाँव दूब सिकुड़ती जा रही है  टूटते जा रहे हैं  घर बनती जा रही हैं  दीवारें  हो रहा विकास बढ़ रही प्यास पैसों की सूखे की चपेट में हैं रिश्ते  अकाल है भावों का  बहुत बदल गया है गाँव शहर को देखकर  बाजार को घर ले आया है गाँव  खुद बिकने को तैयार बैठा है हर हाल में  हरी घास भी  खरीद लाये हैं  शहर वाले अब सन्नाटा है चौपालों में अब दहाड़ रही है राजनीति  घर घर चूल्हों में आग नहीं है  हाँ मुँह उगल रहे हैं आग सिक  रहा भोला भाला गाँव बाँट दिए हैं  छाँट दिए हैं मेलों में मिलना होता है  वोटों को बाँटने और काटने के लिए  छद्म वेशों में  घुस चुके हैं गाँव के हर घर में जन जन तक और मनों को कुत्सित कर चुकी है आज की कुत्सित राजनीती यों ही चलता रहा तो  मिट जायेगा गाँव और गाँव का वजूद  फिर ढूँढने जायेंगे किसी गाँव को शहर को गलियों में डॉ गिरीश प्रतीक पिथौरागढ़ उत्तराखंड                    यह भी पढ़ें … काव्य जगत में पढ़े – एक से बढ़कर एक कवितायें रूचि भल्ला की कवितायें वीरू सोनकर की कवितायेँ आभा दुबे की कवितायें बातूनी लड़की आपको  कविता  “.बदलते हुए गाँव.“ कैसी लगी   | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन”की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें 

मुझे पत्नी पतंजलि की मिल गई

सुबह होते ही———– कपाल भाति और अनुलोम-विलोम कर गई, हाय!राम——— मुझे पत्नी पतंजलि की मिल गई। एलोवेरा और आँवले के गुण बता रही, मुझे तो अपने जवानी की चिंता सता रही, हे! बाबा रामदेव———- आपने मेरी खटिया खड़ी कर दी, सारे रोमांस का नशा काफुर हो गया, ससुरी पति के प्यार का आसन छोड़—– आपके योगासन मे पिल गई। हाय!राम———– मुझे पत्नी पतंजलि की मिल गई। रोज च्यवनप्राश और दूध का सेवन, पचासो दंड बैठक, मै निरुपाय तक रहा उसका रुप लावण्य, तीन दिन हो गये हाथ न लगी, डर है कि ये दिन कही तीस न हो जाये, उफ!ये दूरी———– यही सोच के मेरी बुद्धि हिल गई। हाय!राम———— मुझे पत्नी पतंजलि की मिल गई। @@@रचयिता—–रंगनाथ द्विवेदी। जज कालोनी,मियाँपुर जौनपुर(उत्तर-प्रदेश)। यह भी पढ़ें … काव्य जगत में पढ़े – एक से बढ़कर एक कवितायें श्वेता मिश्र की पांच कवितायें नए साल पर पांच कवितायें – साल बदला है हम भी बदलें चुनमुन का पिटारा – बाल दिवस पर पांच कवितायें बातूनी लड़की आपको  कविता  “.मुझे पत्नी पतंजलि की मिल गई“ कैसी लगी   | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन”की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें