नए साल पर प्रेम की काव्य गाथा -दिसंबर बनके हमारे प्यार की ऐनवर्सरी आई थी

यूँ तो प्यार का कोई मौसम नहीं होता | परन्तु आज हम एक ऐसे प्रेम की मोहक गाथा ले कर आये हैं | जहाँ नये साल की शुरुआत यानि जनवरी ही प्रेम की कोंपलों के फूटने की शुरुआत बनी |फरवरी , मार्च अप्रैल … बढ़ते हुए प्यार के साक्षी बने , धीरे धीरे महीने दर महीने प्यार परवान चढ़ा उसको उसका अंजाम नसीब हुआ | और प्यार के बंधन में बंधे एक जोड़े ने साल के आखिरी महीने दिसंबर में अपने प्यार की एनिवर्सरी कुछ यूँ मनाई … नए साल पर जनवरी से लेकर दिसंबर तक के रोमांटिक प्यार की काव्यगाथा कभी बन सँवर के दुल्हन सी——— मेरे कमरे मे जनवरी आई थी। सच वे गुलाब ही तो पकड़ा था तुमने, जो इतने सालो से बेनुर था, मेरी जिंदगी में———– वेलेनटाइन डे की रोमानियत लिये, वे पहली फरवरी आई थी। मार्च के महीने मे———– पहली बार खिले थे मेरी अरमान के गुलमुहर, हमारे प्यार की डालियो पे कोयल कूकी थी, वे मार्च ही था———– जब आम और महुवे पे मंजरी आई थी। अप्रैल याद है——— जब तुम मायके गई थी, मै कितना उदास था——- कई राते हमे नींद कहां आई थी। फिर मई महिने ने ही उबारा था, हमे तेरी विरह से! इसी महिने इंतज़ार करते हुये मेरे कमरे मे— कमरे की परी आई थी। फिर जून की तपिस में——– हम घंटो टहलने निकलते थे एक दुजे का हाथ पकड़े, नदी के तट की तरफ, वे शामे शरारत याद है और याद है वे कंपकपाते होंठ, जब हमने अपनी अँगुलियो से छुआ था, और तुम्हारी झील सी आँखो मे शर्म उतर आई थी। फिर जुलाई की——— वे घिरी बदलियां, वे बारिश मे पहली बार तुम्हे छत पे भीगा देखना एकटक, फिर बिजली की गरज सुन, तुम एक हिरनी सी दौड़ी मेरी बाँहो मे चली आई थी, मुझे भी तुम्हे छेड़ने की——— इस बरसात मे मसखरी आई थी। फिर पुरा अगस्त———– तुम्हारी बहन की चुहलबाजियो में गुजरा, मौके कम मिले, तब पहली बार तुम्हे चिढ़ाते आँखो से मुस्कुराते कनखियो से देखा, मै मन ही मन कुढ़ता रहा क्या करता? मेरे हारने और तेरी शरारतो के जितने की घड़ी आई थी। फिर सितम्बर ने दिये मौके, वे मौके जो मै भुलता नही,क्योंकि इसी महिने तेरी कलाई की तमाम चुड़ियाँ टूटी, और इसी महिने तेरे लिये, मैने दर्जनो की तादात मे खरिदे, तुम्हारी साड़ी से मैच करती तमाम चुड़ियाँ, उन चुड़ियो मे तुमने कहा था——— कि तुम्हे पसंद दिल से चुड़ी हरी आई थी। फिर अक्टुबर के महीने में हमने-तुमने अपनी जिंदगी के इस हनीमून को, फिर टटोला! लगा कि अभी भी तुम सुहागरात सी हो—- जैसे घूँघट किये आई थी। फिर नवंबर——— हमारी-तुम्हारी जिंदगी मे महिना नही था, हम माँ-बाप बन गये थे, हमारे आँगन में———– हँसने-खेलने एक गुड़िया चली आई थी। इस दिसम्बर———- जो हमारे कमरे मे कैलेंडर टंगा है, उसमे एक छोटी सी बिटिया को, छोटे-छोटे नन्हे पाँवो मे———- घूँघरुओ की पायल पहने चलते दिखाया है, हमारी बिटिया केवल बिटिया नही, इस दिसम्बर बनके————– हमारे प्यार की ऐनवर्सरी आई थी। @@@रचयिता—–रंगनाथ द्विवेदी। जज कालोनी,मियाँपुर जौनपुर काव्य जगत में पढ़े – एक से बढ़कर एक कवितायें आपको  कविता  “.. नए साल पर प्रेम की काव्य गाथा  -दिसंबर बनके हमारे प्यार की ऐनवर्सरी आई थी“ कैसी लगी   | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन”की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें 

नवगीत-ठहरी शब्द नदी

चढ़े हाशिये  पर सम्बोधन ठहरी शब्द-नदी।। चुप्पी साधे पड़े हुए हैं कितने ही प्रतिमान यहाँ अर्थहीन हो चुकी समीक्षा सोई चादर तान यहाँ। ढूंढ रहे  चित्रित सम्वेदन छवियाँ नई नई।। अपशब्दों की भीड़ बढ़ी है आज विशेषण के आँगन में, सर्वनाम रावण हो बैठा संज्ञा शिष्ट नहीं है मन में। संवादों  की अर्थी लेकर आई नई सदी।। अक्षर-अक्षर आयासित है स्वर के पाँव नहीं उठते हैं छलते संधि-समास सदा ही रस के गाँव नहीं बसते हैं। अलंकार की टीस लिए ही कविता रूठ गई। अवनीश त्रिपाठी गरएं सुलतानपुर काव्य जगत में पढ़े – एक से बढ़कर एक कवितायें आपको  कविता  “..नवगीत-ठहरी शब्द नदी “ कैसी लगी   | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन”की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें | 

मेरे भगवान् ..

                                                 भगवान् से हमारा रिश्ता केवल लेने का हैं | या श्रद्धा देने के बदले मनचाही वस्तु को लेने का है | हम दूसरों के दुखों को कभी नहीं देखते | केवल निज सुख की कामना में मंदिर दौड़ते हैं | क्या हमने कभी भगवान् को जानने की कोशिश की है … मेरे भगवान् /My God जब जब जुड़े मेरे हाथ किसी देवता के आगे मन में होने लगा विश्वास कोई है कोई तो है ऊपर कहीं जो सुन लेगा मेरी प्राथनाएं वहीँ से ही और जवाब में मुझे दे देगा मेरी मनचाही सारी  वस्तुएं मैं भी हो जाऊँगी निश्चिंत जग में रोज – रोज की चिक चिक से हर किसी के आगे सर झुकाने से हर किसी को मनाने से हां शायद , ईश्वर ने सुन ली  मेरी फ़रियाद आखिर इतना किया था मैंने याद न्यूटन के क्रिया की प्रतिक्रिया की नियम के अनुसार बनने लगे मेरे सारे काम नौकरी में प्रमोशन बच्चे पढाई में अव्वल घर में स्वास्थ्य , धन और प्यार जीवन हो गया था बहुत मजेदार मैं सबको समझाते  मंदिर की राह दिखाती और लोग मुझे देख – देख कर दौड़े जाते मनवांछित पाते पर वो सड़क पर सोने वाली अम्मा उसके कटोरे में १० रूपये की भीख भी नहीं कामवाली के पति पर वशीकरण मन्त्र का असर भी नहीं वो रोज पिटती है वैसे ही पहले की तरह जख्म से भर जाते हैं अंग चौकीदार का जवान बेटा भगवान् को हो गया प्यारा तार्किक मन प्रश्न उठाता कहाँ है क्रिया की प्रतिक्रिया सब कुछ है उल्टा – पुल्टा फिर मन को शांत कर सोंचती मुझे तो मिला है फिर मुझे क्यों गिला है शायद कुछ कमी होगी उनकी प्रार्थना में शायद कुछ कमी होगी उनकी भावना में  मेरे सारे तर्क मेरे स्वार्थ से खंडित थे मेरे सारे प्रयास से मेरे भगवान् सुरक्षित थे स्मिता शुक्ला काव्य जगत में पढ़े – एक से बढ़कर एक कवितायें आपको  कविता  “मेरे भगवान् .. “ कैसी लगी   | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन”की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें |  KEYWORDS: GOD, FAITH, BELIEVE,BELIEVE IN GOD  

पिता की अस्थियां ….

पिता , बस दो दिन पहले आपकी चिता का अग्नि-संस्कार कर लौटा था घर …. माँ की नजर में खुद अपराधी होने का दंश सालता रहा … पैने रस्म-रिवाजों का आघात जगह जगह ,बार बार सम्हालता रहा …. आपके बनाए दबदबा,रुतबा,गौरव ,गर्व अहंकार का साम्राज्य , होते देखा छिन्न-भिन्न, मायूसी से भरे पिछले कुछ दिन… खिंचे-खिंचे से चन्द माह , दबे-दबे से साल गुजार दी आपने बिना किसी शिकवा बिना शिकायत दबी इच्छाओं की परछाइयां न जाने किन अँधेरे के हवाले कर दी एक खुशबु पिता की पहले छुआ करती थी दूर से विलोपित हो गई अचानक न जाने कहाँ …? न जाने क्यों मुझसे अचानक रहने लगे खिन्न आज इस मुक्तिधाम में मैं अपने अहं के ‘दास्तानों’ को उतार कर चाहता हूँ तुम्हे छूना … तुम्हारी अस्थियों में, तलाश कर रहा हूँ उन उंगलियों को छिन्न-भिन्न ,छितराये समय को टटोलने का उपक्रम पाना चाहता हूँ एक बार … फिर वही स्पर्श जिसने मुझे उचाईयों तक पहुचाने में अपनी समूची ताकत झोक दी थी पता नहीं कहाँ -कहाँ झुके थे लड़े थे …. मेरे पिता मेरी खातिर …. अनगिनत बार मेरा बस चले तो सहेज कर रख लूँ तमाम उँगलियों के पोर-पोर हथेली ,समूची बांह कंधा …उनके कदम … जिसने मुझमें साहस का दम जी खोल के भरा पिता जाने-अनजाने आपको इस ठौर तक अकाल ,नियत समय से पहले ले आने का अपराध-बोध मेरे दिमाग की कमजोर नसें हरदम महसूस करती रहेगी सुशील यादव काव्य जगत में पढ़िए बेहतरीन कवितायें आपको  कविता  “ पिता  की अस्थियां …. “ कैसी लगी   | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन”की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें |   

बाबुल मोरा नैहर छूटो ही जाए …..

हाथों  में मेहँदी, पाँव में आलता और मांग में ,सिन्दूरी आभा लिए खड़ी है  दुल्हन  देहरी पर आँखों से गालों पर लुढके आँसू लाल चूनर  को कर रहे हैं और लाल बार  बार पलट कर फिर – फिर आँखों में समेट लेना चाहती है अपना बचपन , अपनी सखियाँ , अपना घर एक हुक सी उठती है असफल कोशिश पर बंद होंठों से चीखता है ह्रदय बाबुल मोरा नैहर छूटों  ही जाए                     पहली बार पाँव फेरने पर जब आती है दुल्हन तो बदल चुका  होता है घर छोटे भैया को मिल गया होता है उसका कमरा भतीजे को कॉपी – पेन्सिल अलमारी में नहीं है उसके कपडे बाथरूम से हट गयी है उसके पसंद के शैम्पू की बोतले इतनी जल्दी भर गया है वो वैक्युम्म जो सब कहते थे कि नहीं भरता कभी फिर भी वापस जाते हुए सब कुछ समेट लेने की ख्वाइश में छूती है हर दीवार फिर भी मन करता है चीत्कार बाबुल मोरा नैहर छूटो ही जाए बरस दर बरस खिसकती रही उम्र धूप से छाँव की ओर और नैहर में उसका अपनापन आँगन से देहरी की ओर फिर भी आती है बार –बार बेचैन हो खोजने को अपने जडें हलके से हटाकर देखती है दूब को कहीं नज़र नहीं आतीं शायद उखाड़ कर फेंक दी गयी थी उसके साथ थम से जाते हैं गहराई तक ढूंढते हाथ होती है एक यात्रा अंतस  की फिर अश्रुओं के साथ बाबुल मोरा नैहर छूटो ही जाए भागती है दौड़ती है देने को बाबूजी के कमजोर हाथों को लाठी कि झुर्रियों से भरे चहेरे वाली माँ को एक कैप चाय का प्याला पर खलने लगा है अब भाभी को उसका आना मेहमान जो हो गयी है अपने ही घर के लिए कम कर दिया है उसने भी आना पर आत्मा में बजता है सुबह – शाम बाबुल मोरा नैहर छूटो ही जाए लकड़ी हो गयी पिता की देह से रोई थी चिपट कर इतना कि पूरी हो जाए बरसों गले न लगा पाने की हसरतें जब चली थी कमजोर माँ को भाई की जिम्मेदारी पर छोड़ तब एक बार फिर भर आई थी आँख फिर पलट कर देखा आँगन को बुदबुदाए थे होंठ … बाबुल मोरा नैहर छूट गयो वंदना बाजपेयी   यह भी पढ़ें ….. काव्य जगत में पढ़िए बेहतरीन कवितायें संगीता पाण्डेय की कवितायें मायके आई हुई बेटियाँ रूचि भल्ला की कवितायें आपको  कविता  “  बाबुल मोरा नैहर छूटो ही जाए …..“ कैसी लगी   | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन”की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें |   

ये इन्तज़ार के लम्हें

अनजान बेचैनियों में लिपटे,   मेरे ये इन्तज़ार के लम्हें  तुम्हें आवाज़ देना चाहते हैं..   पर मेरा मन सहम जाता है । तुम जानते हो क्यों?   फिर सवाल…   तुम हंस पड़ोगे , या तुम्हारे पास कोई लम्बी सी दलील होगी , लाज़मी है …  और तब भी मेरे लब खामोश ही होंगे , जबकि मेरे अंदर  कितने सारे तुफान बांध तोड़ने पर आमादा है।  मन का ना जाने कौन सा अनछुआ कोना  बगावती हो रहा है…  मेरे ही खिलाफ़ ..  जो भर लेना चाहते है सांसो मे इस लम्हें की खुश्बू  भींग जाना चाहता है उठ रहे एहसासों के ओस में  और खिलना चाहता है,  खिलखिलाना चाहता है  तुम मत सुनना ये शोर  क्योंकि मै जानती हूँ  तुम अब भी हसोंगे या …  या तुम्हारे पास होगी वही लम्बी दलील || _________ साधना सिंह                गोरखपुर  काव्य जगत में पढ़िए बेहतरीन कवितायें संगीता पाण्डेय की कवितायें मायके आई हुई बेटियाँ रूचि भल्ला की कवितायें आपको  कविता  “ ये इन्तज़ार के लम्हें “ कैसी लगी   | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन”की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें |   

गीत-वेग से बह रहा समय

वेग से बह रहा समय, उम्र कटती जा रही है । विरह की बह रही नदी, सब्र घटता जा रहा है । अब नहीं अंतर्मन से , लोगों की मिलती दुआ । हृदय का रस सूख कर, स्नेह  मुरझाया  हुआ । क्या कहें  शूल से हीं , राह  पटता  जा रहा है । वेग से बढ …….. हैं जागें हम कि सोए  हमको पता चलता नहीं । मौन उर भावों को भी,  कोई अब पढता नहीं । इस मोहिनी संसार से ,  मन हटता जा रहा है । वेग से बढ …….. कोष खाली सपनों के,  नींद कोषों दूरी पर । स्वर निकलते रूदन के , बहुत ही मजबूरी पर । कृष्ण पक्षी  चाँद तरह तन सिमटा जा रहा है । वेग से बढ …… प्रमिला श्री तिवारी पढ़िए अपनी मनपसंद कवितायेँ  काव्य जगत आपको आपको  कविता  “गीत-वेग से बह रहा समय“ कैसी लगी   | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन”की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें 

घूंघट वाली औरत और जींस वाली औरत

आँखें फाड़ – फाड़ कर देखती है घूंघट  वाली औरत पड़ोस में आकर बसी जींस पहनने वाली औरत को याद आ जाते हैं वो दो गज लम्बे दुप्पटे जिन्हें भी तहा  कर रख आई थी माँ की संदूक में की अब बस साड़ी ही पहननी है यही ससुराल का ड्रेस कोड है इसके इतर कुछ पहनने पर लग जायेंगे उसके संस्कार पर प्रश्न चिन्ह ? नाप दिए जायेंगे बाप – दादा पर वो , कैसे पहन पाती है जींस फिर अपने ही प्रश्न को पलट देती है , तवे पर रोटी के साथ फुर्सत में सोंचेगी पहले सबको खाना तो खिला दे बड़ी हसरतों से देखती है घूँघट वाली औरत सुबह कपडे धोते  हुए जींस वाली औरत को फोन पर अंग्रेजी में गपियाते हुए याद आ जाती हैं वो किताबें वो स्कूल का जीवन वो अधूरी शिक्षा जो पिता के  जल्दी कन्यादान कर गंगा नहाने की इच्छा में आंसुओं में बह गयी पर वो …. कैसे पढ़ पायी फिर बहा देती है अपने ही प्रश्न को कपडे के मैल  के साथ भीगी  पलकों से झरोखे से निहारती है घूँघट वाली औरत कार चला कर बाहर जाती जींस वाली औरत को अचानक खिड़की के जिंगले गड़ने लगते हैं सीने में  बढ़ा देती है कदम वो भी बाहर जाने को की ठीक दरवाजे की चौखट के आगे सुनाई पड़ती है खखारते  ससुर की आवाज़ भले घर की औरतें अकेली बाहर नहीं जाती भरती है आह फिर याद आ जाती है विदाई के समय माँ की शिक्षा की उस घर से अर्थी ही जाए पी जाती है अपनी ही चाह को अपने आंसुओं के साथ बड़े गुस्से से देखती है घुंघट वाली औरत जींस वाली औरत को की उसका पति आजकल घर के वरामदे में ज्यादा मंडराया करता है तुलना करता है उसकी जींस वाली औरत से और बात – बात पर देता है उसे गंवार की उपाधि   पर वो …. वो तो भाव नहीं देती उसके पतिको जानती है वो न उसे  बाहर जाने को मिलेगा न उस पर लगा गंवार का लेवल हटेगा इस बार नहीं पलट पाती अपने ही प्रश्न को न तवे पर रोटी के साथ न कपड़ों के साथ न आंसुओं के साथ दिन रात मंथन करती है घूंघट वाली औरत जींस वाली औरत के कारण अनायास  ही उपजी समस्या का पतिव्रता , घर के बाहर कह नहीं सकती है पति के खिलाफ एक भी शब्द साथ जो निभाना है जीवन भर सुना है आजकल उसने घर – बाहर कहना शुरू कर दिया है जींस वाली औरत के बारे में निर्लज्ज है , बेहया ,संस्कारहीन न जाने कैसे कपडे पहनती फिरती है सुना है  सुन – सुन कर आजिज़ आ चुकी जींस वाली औरत भी पुकारने लगी है उसे पिंजड़े की मैना जो दूसरे पर अँगुली उठाने से पहले काबू में न रख पायी अपने पति को मेरे , आप के हम सबके मुहल्ले में है घूँघट वाली औरत और जींस वाली औरत में तनातनी अंगुलियाँ उठ रही हैं दोनों ओर से इस बीच एक तीसरा पक्ष भी है जो लगता है दोनों पर सरेआम आरोप कुछ नहीं “ औरत ही औरत की दुश्मन है “ स्वीकृति में हिलते सरों के बीच कहीं  कोई प्रश्न नहीं उठता “ आखिर औरत को औरत की दुश्मन बनाया किसने “ वंदना बाजपेयी  यह भी पढ़ें … काव्य जगत में पढ़े – एक से बढ़कर एक कवितायें रूचि भल्ला की कवितायें वीरू सोनकर की कवितायेँ आभा दुबे की कवितायें बातूनी लड़की आपको  कविता  “.घूंघट  वाली औरत और जींस वाली औरत .“ कैसी लगी   | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन”की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें