सिस्टर्ज़ मैचिन्ग सेन्टर

वरिष्ठ लेखिका दीपक शर्मा जी की कहानी सिस्टर्ज़ मैचिन्ग सेन्टर उनकी अन्य कहानियों की तरह अपने नाम को अर्थ देती है | दीपक शर्मा जी बेहतरीन  कहानियाँ ही नहीं लिखती वो उनके नामों पर भी बहुत मेहनत करती हैं | सिस्टर्ज़ मैचिन्ग सेन्टर भी एक ऐसी ही कहानी हुई जहाँ साड़ियों की मैचिंग के साथ -साथ दो बहनों के जीवन साथी की मैचिंग की भी कोशिश उनके पिता द्वरा की जाती है | बहुत कसी हुई ये कहानी जहाँ एक ओर अपनी बेटी के लिए अच्छा वर खोजने की पिता की कसक दिखाती है वहीँ बड़ी बहन का अपनी छोटी बहन को लायक  बनाने का संकल्प प्रदर्शित करती है | इस तरह से कहानी बहुत ही मुलायमियत से  पाठकों के मन में सपनों के लिए परम्पराओं से संघर्ष करती स्त्री की कोशिशों की गहरी चोट करती है |  सिस्टर्ज़ मैचिन्ग सेन्टर कस्बापुरके कपड़ा बाज़ार का ‘सिस्टर्ज़ मैचिग सेन्टर’ बाबूजी का है| सन्तान के नाम पर बाबूजी के पास हमीं दो बहनें हैं : जीजी और मैं| जीजी मुझ से पाँच साल बड़ीहैं और मुझे उन्हीं ने बड़ा किया है| हमारी माँ मेरेजन्मके साथ ही स्वर्ग सिधार ली थीं| हमारे मैचिन्ग सेन्टर व बाबूजी को भी जीजी ही सँभालती हैं| बाबूजी की एक आँख की ज्योति तो उनके पैंतीसवें साल ही में उन से विदा ले ली थी| क्रोनिक ओपन-एंगल ग्लोकोमा के चलते| और बाबूजी अभी चालीस पार भी न किए थे कि उनकेबढ़ रहे अंधेपन के कारण उस कताई के कारखाने सेउनकी छंटनी कर दी गयी थी जिस के ब्रेकर पर बाबूजीपूनी की कार्डिंग व कोम्बिंग से धागा बनाने का काम करते रहे थे| पिछले बाइस वर्षों से| ऐसे में सीमित अपनी पूँजी दाँव पर लगा कर बाबूजी ने जो दुकान जा खोली तो जीजी ही आगे बढ़ीं| पढ़ाई छोड़ कर| दुकानबीच बाज़ार में पड़ती है और घर हमारा गली में है| बाबूजीको घर से बाज़ार तक पहुँचाना जीजी के ज़िम्मे है| छड़ी थामकर बाबूजी जीजी के साथ साथ चलते हैं| जहाँ उन्हें ज़रुरत महसूस होती है जीजी उनकी छड़ी पकड़ लेती हैं या फिर उनका हाथ| दुकान भी जीजी ही खोलती हैं| फ़र्श पर झाड़ू व वाइपर खुद ही फेरती हैंव मेज़ तथा कपड़ों के थानों पर झाड़न भी| जब तक बाबूजी बाहर चहलकदमी करते करते पास-पड़ोस केदुकानदारोंकी चहल-पहल व बत-रस का आनन्द ले लेते हैं| स्कूल से मैं सीधी वहीं जा निकलती हूँ| जीजी का तैयार किया गया टिफ़िन मेरे पहुँचने पर ही खोला जाता है| जीजी पहले बाबूजी को परोसती हैं, फिर मुझे| हमारे साथ नहीं खातीं| नहीं चाहतीं कोई ग्राहक आए और दुकान का कोई कपड़ा-लत्ता बिकने से वंचित रह जाए| बल्कि इधर तो कुछ माह से हमारी गाहकतायी पच्चीस-तीस प्रतिशत तक बढ़ आयी है| जब से फैन्सी साड़ी स्टोर में एक नया सेल्ज़मैन आ जुड़ा है| बेशक हम दोनों की दुकानें कुल जमा चार गज़ की दूरीपर एक ही सड़क का पता रखती रही हैं, लेकिनयह मानी हुई बात है कि किशोर नाम के इस सेल्ज़मैन के आने से पहले हमारे बीचकोईहेल-मेल न रहा था| पिछले पूरे सभीतीन सालों में| मगर अब फैन्सी साड़ी स्टोर की ग्राहिकाएँ वहाँसेहमारेमैचिन्ग सेन्टरही का रुख लेती हैं| कभी अकेली तो कभी किशोर की संगति में| अकेली हों तो भी आते ही अपनी साड़ी हमें दिखाती हैं औरविशेष कपड़े की मांग हमारे सामने रखती हैं: “शिफ़ॉन की इस साड़ी के साथ मुझे साटन का या क्रेप ही का पेटीकोट लेना हैऔर ब्लाउज़ भीडैकरोन या कोडेल का…..” किशोर साथ में होता है तो सविस्तार कपड़े के बारे में लम्बे व्यौरे भी दे बैठता है, “देखिए सिस्टर, इसऔरगैन्ज़ा के साथ तो आप डाएनेल का पेटीकोट और पोलिस्टर का ब्लाउज़ या फिर प्लेन वीवटेबी का पेटीकोट और ट्विलका ब्लाउज़ लीजिए, जिस के ताने की भरनी में एक सूत है और बाने की भरनी में दो सूत…..” हम बहनें अकसर हँसती हैं, कस्बापुर निवासिनियों कोयह अहसास दिलाने में ज़रूर किशोर ही का हाथ है कि साड़ी की शोभा उसके रंग और डिज़ाइन से मेल खाते सहायक कपड़े पहनने से दुगुना-चौगुना प्रभाव ग्रहण कर लेती है| जभी साड़ीवाली कई स्त्रियों के बटुओं की अच्छी खासी रकम हमारे हाथों में पहुँचनेलगी है| काउन्टर पर बैठे बाबूजी को रकम पकड़ाते समय मैं तो कई बार पूछ भी लेती हूँ, “फैन्सी वाला यह सेल्ज़मैन क्या सब सही सही बोलता है या फिर भोली भाली उन ग्राहिकाओं को बहका लिवा लाता है?” जवाब में बाबूजी मुस्करा दिया करते हैं, “नहीं जानकार तो वह है| बताया करता है यहाँ आने से पहले वह एक ड्राइक्लीनिंग की दुकान पर ब्लीचिंग का काम करता था औरलगभग सभी तरह के कपड़ों के ट्रेडमार्क और ब्रैन्ड पहचान लेता है…..” कपड़े की पहचान तो बाबूजी को भी खूब है| दुकान के लिए सारा कपड़ा वही खरीदते हैं| हाथ में लेते हैं और जान जाते हैं, ‘यह मर्सिराइज़्ड कॉटन है| इसे कास्टिक सोडा सेट्रीट किया गयाहै| इसका रंग फेड होने वाला नहीं…..” या फिर, ‘यह रेयौन है| असली रेशम नहीं| इसमें सिन्थेटिकमिला है, नायलोन या टेरिलीन…..’ या फिर, ‘यह एक्रीलीन बड़ी जल्दी सिकुड़ जाता है या फिर ताने से पसर जाता है…..’ “क्यों किशोरीलाल?” बाबूजी किशोर को इसी सम्बोधन से पुकारते हैं, “तुम यहाँ बैठना चाहोगे? हमारे साथ?” उस दिन किशोर ने अपने फैन्सी साड़ी स्टोर से दहेज़ स्वरुप खरीदी गयी एक ग्राहिका कीसात साड़ियों के पेटीकोट और ब्लाउज़ एक साथ हमारे मैचिन्ग सेन्टर से बिकवाए हैं और बाबूजी खूब प्रसन्न एवं उत्साहित हैं| “किस नाते?” जीजीदुकान के अन्तिम सिरे पर स्टॉक रजिस्टर की कॉस्ट प्राइस और लिस्ट प्राइस में उलझे होने के बावजूद बोल उठी हैं, “हमारीहैसियत अभी नौकर रखने की नहीं…..” “तुम अपना काम देखो,” बाबूजी ने जीजी कोडाँट दियाहै, “हमआपसमेंबातकर रहे हैं…..” थान समेट रहे मेरे हाथ भी रुक गए हैं| जीजी के स्वर की कठोरता मुझे भीअप्रिय लगी है| “किशोरीलाल,” जीजी से दूरी हासिल करने हेतु बाबूजी किशोर को मेरे पास खिसकालाए हैं, “उषा की बात का बुरा न मानना| वह शील-संकोच कुछ जानती ही नहीं| माँ इनकी इन बच्चियों की जल्दी ही गुज़र गयी रही…..” “जीजी मुझ से भी बहुत कड़वा बोल जाती हैं,” किशोर को मैं ढाँढस बँधाना चाहती हूँ| उसका बातूनीपन तो मुझे बेहद पसन्द है ही, साथ ही उसकी तीव्र बुद्धि व भद्र सौजन्य भी मुझे लुभाता है| … Read more

चिठ्ठी

               किसी अपने की चिट्ठी कुछ ख़ास ही होती है, क्योंकि उसका एक -एक शब्द प्रेम में डूबा हुआ होता है | पर कुछ अलहदा ही होती है वो चिट्ठी जो किसी ऐसे अपने की होती है जिससे बरसों से मिले ही न हों , यहाँ तक कि ये यकीन भी न हो कि ये चिट्टी जहाँ जायेगी वहां वो रहता भी है या नहीं | ऐसे ही खास जज्बातों को समेटे हुए है युवा लेखिका सिनीवाली शर्मा की कहानी “चिट्ठी ” कम शब्दों में भावों को खूबसूरती से व्यक्त करना सिनीवाली जी की विशेषता है | ऐसे ही एक पंक्ति जो बहुत देर तक मेरे दिल में गड़ती रही … हाँ, आनंद तलाक के कुछ महीने बाद ही दूसरी शादी कर ली मैंने। हम बहुत सुखी पति–पत्नी हैं, सभी कहते हैं——कहते हैं तो सही ही होगा।  कहने को ये मात्र एक वाक्य है पर ये दाम्पत्य जीवन का कितना दर्द उकेर देता है जिसको शब्दों में व्यक्त करना मुश्किल है|  एक स्त्री, एक प्रेमिका का अपने पूर्व पति को लिखा गया भाव भरा पत्र पाठक को देर तक उसके प्रभाव से मुक्त नहीं होने देता | आप भी पढ़िए … कहानी-चिट्ठी  आनंद, कितने दिनों बाद आज तुम्हें चिठ्ठी लिख रही हूं ,कई साल पहले हमारे प्रेम की शुरूआत इसी से तो हुई थी, एक नहीं, दो नहीं, न जाने कितनी चिठ्ठियां…….इनके एक–एक शब्द को जीते, महसूस करते हम एक दूसरे के करीब होते गए। आज फिर कई सालों बाद तुम्हें चिठ्ठी लिख रही हूं और ये भी नही जानती कि तुम उस पते पर हो भी या नहीं। पता नहीं क्यों इतने दिनों बाद भी तुमसे मिलने का मन हो रहा है क्योंकि मन की कुछ ऐसी बातें जो तुम्हीं समझ सकते हो, वो तुम्हारे आगे ही खुलना चाहता है।  इससे पहले कि ये मन बिखर जाये, तुम इसे समेट दो ! बार बार, मैं मन को समेट लाती हूं अपनी दुनिया में—–पर पता नहीं कैसे खुशबू की तरह उड़कर तुमसे मिलने पहुंच जाता है, हाँ जानती हूं अब मुझे तुमसे मिलने के बारे में सोचना भी नहीं चाहिए—–फिर भी न जाने क्यों ! सोचती थी किसी के जीवन से निकल जाते ही संबंध टूट जाते हैं, कितनी गलत थी मैं ! संबंध तो मन से बनते हैं और वहाँ से चाह कर भी नहीं निकाल पाई तुम्हें, जबसे तुमसे अलग हुई तभी से तुम्हारे साथ हो गई, जब मैने तुम्हें खो दिया तभी ये जाना प्यार किसे कहते हैं लेकिन तब तक तो बहुत देर हो चुकी थी। वो कमजोर पल भी आते हैं जब मैं तुम्हारी जरूरत महसूस करती हूँ। जब मन बेचैन होता है तो सोचती हूँ कि तुम्हें फोन करके सब बता दूं—–।  जब किसी को अपना प्यार सहेजते देखती हूँ तुम सामने आ जाते हो, किसी को अपने प्यार के आगे सिर झुकाते देखती हूँ तो तुम नजर आ जाते हो। ओह ! अब भी तुम मेरे साथ–साथ क्यों चलते हो। कहीं तुम अभी भी अपने प्रेम की कसमें तो नहीं निभा रहे ! जानती हूँ तुम ऐसे ही हो पर सबकुछ जानकर भी तो——मैं ही तुम से अलग हो गई। तुम्हारा नंबर अब तक मैं नहीं भूली। मेरे कितने करीब हो—–पर कितनी दूर। कई बार बात करनी चाही तुमसे—–पर न जाने क्या सोचकर फिर हाथ से फोन रख देती हूँ। अपने आपको बहला लेती हूँ कि शायद नंबर बदल लिया होगा—–पर मैं भी जानती हूँ कि वो नंबर तुम कभी नहीं बदलते। कितना अजीब लग रहा है ना——तुम्हें, तुम्हारे ही बारे में बता रही हूँ ——मैं। वही मैं जो साथ रहते हुए तुम्हें समझ नहीं पाई या यूँ कहो, अपने मैं को छोड़कर हम नहीं बन पाई कभी। हाँ, तुम सोच रहे होगे, जब मैं तुम्हें प्यार करती थी तो फिर हमारे रिश्ते का वह कौन सा तार टूटा कि हमारा जीवन ही अलग हो गया। शायद तुम से अलग होना ही मुझे तुम्हारे करीब ले गया। तुम ने इतना सहेज कर रखा था मुझे कि जान ही नहीं पाई कि जीवन के मीठे पल के बीच कड़वाहट भरा बीज भी होता है, पहले तुम मेरी जरूरत थे फिर आदत बन गए। पता ही नहीं चला कब पूरा अधिकार जमा लिया तुम पर, कि किसी और रिश्ते की जगह ही नहीं छोड़ी। पर ये नहीं समझ पाई, जरूरत से अधिक अधिकार प्रेम की कोमलता खो देती है। मैं अधिकार बढ़ाती गई और हमारा प्रेम घुटता गया। मैं यही समझने लगी थी कि मुझ में ही कुछ ऐसा है कि तुम मुझे इतना चाहते हो। ओह ——ये क्यों नहीं समझ पाई, प्रेम समर्पण होता है ! मेरी चाहत हमेशा खोजती रही अपनी ही खुशियाँ। मैंने प्रेम तो तुम से किया—–पर सच तो यही है कि मैं अपने आप से ही खोई रही, तभी तो समर्पण नहीं जान पाई। मेरा प्रेम तुम्हारे प्रेम का प्रतिउत्तर होता था, नाप तौल कर ही प्रेम करती थी, तुम्हारे सहारे मैं अपने आप को सुखी करती रही तभी तो हमारा वैवाहिक जीवन संतोष और खुशी दे रहा था मुझे। अपने दायित्वों को भूल अपने आप में खो गई थी। लगता है जैसे कल की ही बात है, जब तुम्हारी माँ हमारे साथ रहने आई थी। उनका आना हमारे लिए वैसा ही था जैसे शांत जल में किसी ने जोर से पत्थर मार कर हलचल मचा दी हो। मैं इस हलचल को स्वीकार नहीं कर पाई। तुम्हारे लाख समझाने पर भी मैं समझ नहीं पाई कि बादल की सुंदरता आकाश में विचरने से तो है ही पर उसकी सार्थकता पानी बन धरती पर बरसने में है। तुम्हारा अपनी माँ पर ध्यान देना, उनके सेहत के बारे में, खाने के बारे में पूछते रहना, वो गाँव की यादों में माँ के साथ खो जाना। बीते दिनों को याद करके नौस्टैलजिक होना मुझे बिल्कुल पसंद नहीं था। खासकर गाँव की बातें तो मुझे बिल्कुल भी अच्छी नहीं लगतीं। दुनिया चाँद पर घर बसा रही है और तुम उन्हीं यादों में घर बना रहे थे। मेरे लिए तो जिंदगी रफ्तार थी, तेज—–तेज—–और तेज ——बहुत तेज।  इतनी तेज कि अपनी गति के अलावा कुछ सूझता ही नहीं था मुझे। तुम कोशिश करते रहे मुझे समझाने की  और मैं जिद पर अड़ती चली गई कि तुम मुझे या अपनी माँ में से किसी एक को चुनो। शायद कहीं न कहीं मैं ये चाहती थी कि तुम साबित करो कि  दुनिया … Read more

चम्पा का मोबाइल

आज हर आम और खास के हाथ में मोबाइल जरूर होता है , परन्तु चंपा के मोबाइल में कुछ तो खास है जो पहले तो जिज्ञासा उत्पन्न करता है फिर संवेदना के दूसरे आयाम तक ले जाता है | आइये पढ़े आदरणीया दीपक शर्मा जी की  भावना प्रधान कहानी  कहानी –चम्पा का मोबाइल “एवज़ी ले आयी हूँ, आंटी जी,” चम्पा को हमारे घर पर हमारी काम वाली, कमला, लायी थी |गर्भावस्था के अपने उस चरण पर कमला के लिए झाड़ू-पोंछा सम्भालना मुश्किल हो रहा था| चम्पा का चेहरा मेक-अप से एकदम खाली था और अनचाही हताशा व व्यग्रता लिए था| उस की उम्र उन्नीस और बीस के बीच थी और काया एकदम दुबली-पतली| मैं हतोत्साहित हुई| सत्तर वर्ष की अपनी इस उम्र में मुझे फ़ुरतीली, मेहनती व उत्साही काम वाली की ज़रुरत थी न कि ऐसी मरियल व बुझी हुई लड़की की! “तुम्हारा काम सम्भाल लेगी?” मैं ने अपनी शंका प्रकट की| “बिल्कुल, आंटी जी| खूब सम्भालेगी| आप परेशान न हों| सब निपटा लेगी| बड़ी होशियार है यह| सास-ससुर ने इसे घर नहीं पकड़ने दिए तो इस ने अपनी ही कोठरी में मुर्गियों और अंडों का धन्धा शुरू कर दिया| बताती है, उधर इस की माँ भी मुर्गियाँ पाले भी थी और अन्डे बेचती थी| उन्हें देखना-जोखना, खिलावना-सेना…..” “मगर तुम जानती हो, इधर तो काम दूसरा है और ज़्यादा भी है, मैं ने दोबारा आश्वस्त होना चाहा, “झाड़-बुहार व प्रचारने-पोंछने के काम मैं किस मुस्तैदी और सफ़ाई से चाहती हूँ, यह भी तुम जानती ही हो…..” “जी, आंटी जी, आप परेशान न हों| यह सब लार लेगी…..” “परिवार को भी जानती हो?” “जानेंगी कैसे नहीं, आंटी जी? पुराना पड़ोस है| पूरे परिवार को जाने समझे हैं| ससुर रिक्शा चलाता है| सास हमारी तरह तमामघरों में अपने काम पकड़े हैं| बड़ी तीन ननदें ब्याही हैं| उधर ससुराल में रह-गुज़र करती हैं और छोटी दो ननदें स्कूल में पढ़ रही हैं| एक तो हमारी ही बड़ी बिटिया के साथ चौथी में पढ़ती है…..” “और पति?” मैं अधीर हो उठी| पति का काम-धन्धा तो बल्कि उसे पहले बताना चाहिए था| “बेचारा मूढ़ है| मंदबुद्धि| वह घर पर ही रहता है| कुछ नहीं जानता-समझता| बचपन ही से ऐसा है| बाहर काम क्या पकड़ेगा? है भी इकल्ला उनपांच बहनों में…..” “तुम घरेलू काम किए हो?” इस बार मैं ने अपना प्रश्न चम्पा की दिशा में सीधा दाग दिया| “जी, उधर मायके में माँ के लगे कामों में उस का हाथ बँटाया करती थी…..” “आज मैं इसे सब दिखला-समझा दूँगी, आंटीजी| आप परेशान न  हों…..” अगले दिन चम्पा अकेली आयी| उस समय मैं और मेरे पति अपने एक मित्र-दम्पत्ति के साथ हॉल में बैठे थे| “आजतुम आँगन से सफ़ाई शुरू करो,” मैं ने उसे दूसरी दिशा में भेज दिया| कुछ समय बाद जब मैं उसे देखने गयी तो वह मुझे आँगन में बैठी मिली| एक हाथ में उस ने झाड़ू थाम रखा था और दूसरे में मोबाइल| और बोले जा रही थी| तेज़ गति से मगर मन्द स्वर में| फुसफुसाहटों में| उस की खुसुर-पुसुर की मुझ तक केवल मरमराहट ही पहुँची| शब्द नहीं| मगर उस का भाव पकड़ने में मुझे समय न लगा| उस मरमराहट में मनस्पात भी था और रौद्र भी| विघ्न डालना मैं ने ठीक नहीं समझा और चुपचाप हॉल में लौट ली| आगामी दिनों में भी मैं ने पाया जिस किसी कमरे या घर के कोने में वह एकान्त पाती वह अपना एक हाथ अपने मोबाइल के हवाले कर देती| और बारी बारी से उसे अपने कान और होठों के साथ जा जोड़ती| अपना स्वर चढ़ाती-गिराती हुई| कान पर कम| होठों पर ज़्यादा| “तुम इतनी बात किस से करती हो?” एक दिन मुझ से रहा न गया और मैं उस से पूछ ही बैठी| “अपनी माँ से…..” “पिता से नहीं? मैं ने सदाशयता दिखलायी| उस का काम बहुत अच्छा था और अब मैं उसे पसंद करने लगी थी| कमला से भी ज़्यादा| कमला अपना ध्यान जहाँ फ़र्श व कुर्सियों-मेज़ों पर केन्द्रित रखती थी, चम्पा दरवाज़ों व खिड़कियों के साथ साथ उन में लगे शीशों को भी खूब चमका दिया करती| रोज़-ब-रोज़| शायद वह ज़्यादा से ज़्यादा समय अपने उस घर-बार से दूर भी बिताना चाहती थी| “नहीं,” वह रोआँसी हो चली| “क्यों?” मैं मुस्कुरायी, “पिता से क्यों नहीं?” “नहींकरती…..” “वह क्या करते हैं?” “वह अपाहिज हैं| भाड़े पर टैम्पो चलाते थे| एक टक्कर में ऐसी चोट खाए कि टांग कटवानी पड़ी| अब अपनी गुमटी ही में छोटे मोटे सामान की दुकान लगा लिए हैं…..” “तुम्हारी शादी इस मन्दबुद्धि से क्यों की?” “कहीं और करते तो साधन चाहिए होते| इधर खरचा कुछ नहीं पड़ा…..” “यह मोबाइल किस से लिया?” “माँ का है…..” “मुझे इस का नम्बर आज देती जाना| कभी ज़रुरत पड़े तो तुम्हें इधर बुला सकती हूँ…..” घरेलू नौकर पास न होने के कारण जब कभी हमारे घर पर अतिथि बिना बताए आ जाया करते हैं तो मैं अपनी काम वाली ही को अपनी सहायता के लिए बुला लिया करती हूँ| चाय-नाश्तातैयार करने-करवाने के लिए| “इसमोबाइल की रिंग, खराब है| बजेगी नहीं| आप लगाएंगी तो मैं जान नहीं पाऊँगी…..” मैंने फिर ज़िद नहीं की| नहींकहा, कम-से -कम मेरा नम्बर तो तुम्हारी स्क्रीन पर आ ही जाएगा| वैसे भी कमला को तो मेरे पास लौटना ही था| मुझे उसकी ऐसी ख़ास ज़रुरत भी नहीं रहनी थी| अपनी सेवा-काल का बाकी समय भी चम्पा ने अपनी उसी प्रक्रिया में बिताया| एकान्त पाते ही वह अपने मोबाइल के संग अपनी खड़खड़ाहट शुरू कर देती- कभी बाहर वाले नल के पास, कभी आँगन में, कभी दरवाज़े के पीछे, कभी सीढ़ियों पर| अविरल वह बोलती जाती मानो कोई कमेन्टरी दे रही हो| मुझ से बात करने में उसे तनिक दिलचस्पी न थी| मैं कुछ भी पूछती, वह अपने उत्तर हमेशा संक्षिप्त से संक्षिप्त रखा करती| चाय-नाश्ते को भी मना कर देती| उसे बस एक ही लोभ रहता : अपने मोबाइल पर लौटने का| वह उसका आखिरी दिन था| उसका हिसाब चुकता करते समय मैं ने उसे अपना एक दूसरा मोबाइल देना चाहा, “यह तुम्हारे लिए है…..” मोबाइल अच्छी हालत में था| अभी तीन महीने पहले तक मैं उसे अपने प्रयोग में लाती रही थी| जब मेरे बेटे ने मेरे हाथ में एक स्मार्टफ़ोन ला थमाया था, तुम्हारे … Read more

शार्टकट

आलोक कुमार सातपुते         टी.वी. पर केन्दीय मंत्रिमण्डल का शपथ ग्रहण समारोह का सीधा प्रसारण चल रहा था। प्रमोद और उसकी पत्नी करूणा यह जानने को उत्सुक थे कि उनके राज्य से किसी को मंत्री बनाया जा रहा है, या नहीं। हालांकि अख़बारों में उनके राज्य से सबसे कम उम्र की महिला कमली तिवारी को महिला विकास मंत्री बनाये जाने की ख़बर पिछले कुछ दिनों से चल रही थी, पर अंतिम समय तक सब कुछ अनिश्चित ही था। उनके साथ उनकी पेईंग गेस्ट रेखा भी बडे़ ध्यान से शपथ ग्रहण समारोह देख रही थी। करूणा को इस बात की भी खुशी थी कि यदि कमली को मंत्री बनाया जाता है, तो वह सबसे कम उम्र की महिला मंत्री बनने का रिकार्ड बना लेगी। कमली तिवारी एक बेहद ही ख़ूबसूरत लड़की थी। वह किसी फिल्म की हीरोईन की तरह ही दिखती थी। पूरे राज्य में उसकी ख़़ूबसूरती के चर्चे होते रहते थे। उसके बारे में कहा जाता था कि वह एक सेलिब्रेटी लीडर है। राज्य का युवा वर्ग तो उसका दीवाना ही था। उसके संसदीय क्षेत्र मे तो युवा वर्ग ने उसकी ख़ूबसूरती को ही देखकर ही वोट दिया था। यह इस बात से प्रमाणित होता था कि उसने  पहली बार ही लोकसभा का चुनाव लड़ा था और उसके प्रतिद्वंद्वी की जमानत तक जब्त हो गई थी। कमली के बारे में पढ़ने को मिलता रहता था कि वह काॅलेज़ के दिनों से ही लीडरशिप कर रही है। जो भी हो, राज्य की महिलाओं को उससे बड़ी उम्मीदें थीं कि महिला विकास मंत्री का पद मिलने के बाद वह निश्चित तौर पर महिला सशक्तिकरण की दिशा में कार्य करेगी।         शपथ ग्रहण के लिए उसका नाम पुकारा गया। उसने बडे़ ही आत्म-विश्वास के साथ अंग्रेज़ी में शपथ ली। शाम होते-होते उसका विभाग भी पता चल चुका था। आशानुरूप उसे महिला विकास मंत्रालय ही मिला था। वह राज्य मंत्री न बनाकर सीधे केबिनेट मंत्री बनाई गयी थी। यह उनके राज्य के लिए बहुत बड़ी उपलब्धि थी। रात होते-होते अलग-अलग चैनलों में उसका अंग्रेजी में इंटरव्यू भी चलने लगा था। इन सारे कार्यक्रमों को उनकी पेईंग गेस्ट रेखा भी उनके साथ ही बड़े ध्यान से देख रही थी। रेखा एक दलित जाति की लड़की थी और एक सरकारी आॅफ़िस में क्लर्क थी। वह शहर से पांच सौ कि.मी. दूर जंगल के बीच बसे एक छोटे से कस्बे की रहने वाली थी। आमतौर पर अपने कमरे में ही घुसे रहने वाली रेखा आज दिनभर उनके साथ ही ये सारे कार्यक्रम देखती रही। आज उसने आफ़िस से छुट्टी ली हुई थी। अचानक रेखा ने करूण से कहा-दीदी ये कमली हमारे ही कस्बे की रहने वाली है।यह सुनकर पति-पत्नी दोनें को बड़ा आश्चर्य हुआ, क्यांेकि वे कमली के बारे में जितना कुछ जानते थे, उसके हिसाब से तो वह उनकेे अपने ही शहर की थी। वे तो कमली के बारे में अपने शहर की छात्र राजनीति के दौर से पढ़-सुन रहे थे। वे उसके विश्वविद्यालय प्रतिनिधि चुने जाने से लेकर उसके महापौर बन जाने और फिर इस्तीफ़ा देकर विधायक बनने और फिर तुरंत ही इस्तीफ़ा देकर लोकसभा चुनाव लड़ने तक के सारे घटनाक्रम से वाकिफ़ थे। कमली का कम उम्र में ही बड़े-बड़े पदों पर सुशोभित होना, जहाँ एक ओर महिलाओं के लिए गर्व की बात थी, तो दूसरी ओर कुछ महिलाओं को उससे ईष्र्या भी होती थी। ख़ैर रेखा के यह बताने पर कि कमली किसी छोटे से कस्बे की रहने वाली है, उन्हे यक़ीन ही नहीं हुआ और उन्होंने रेखा की बातों को कोई तवज्जो नहीं दी। फिर अचानक रेखा ने धमाका करते हुए उन्हें बताया कि कमली पहली कक्षा से लेकर काॅलेज़ के फस्र्ट ईयर तक हमारे ही कस्बे में पढ़ी है। पूरी तरह हिन्दी मीडियम की सरकारी स्कूल और काॅलेज़ में। प्रमोद को लगा कि रेखा को कोई ग़लतफ़हमी हो गई है, क्योंकि उन्हांेने तो हमेशा कमली को एक सेलीब्रेटी की तरह ही आत्मविश्वास से पूर्ण फर्राटेदार अंग्रेज़ी बोलते हुए ही सुुना था। ऐसे में यह मानना कठिन था कि वह किसी हिन्दी मीडियम की सरकारी स्कूल में पढ़ी हुई है। उसने रेखा को समझाते हुए कहा-अरे तुम्हे कोई ग़लतफ़हमी हो रही है। हम तो इसे काॅलेज़ के जमाने से जान रहे हैं, जब ये छात्र नेता हुआ करती थी। इस पर रेखा ने कहा- नहीं, मुझे कोई ग़लतफ़हमी नही् हो रही है। वह मेरे ही कस्बे के सरकारी काॅलेज़ में मेरे ही साथ फस्र्ट ईयर तक पढी़ है। हम दोनां किसी जमाने में पक्की सहेलियाँ रह चुकी हैं। अच्छा-अच्छा ठीक है कहकर उन्हांने बात ख़त्म कर दी। उन्हं रेखा की बातों पर बिल्कुल ही यकीन नहीं हुआ। करूणा सोचने लगी कि कहाँ यह रेखा, जो कि हिन्दी भी शुध्द तरीके से नहीं बोल पाती है। क्षेत्रीय बोली मिश्रित हिन्दी बोलने वाली लड़की, और कहां फर्राटेदार अंगरेज़ी बोलने वाली कमली। थोड़ी देर के बाद रेखा अपने कमरे में सोने चली गई। अगले दिन के अख़बारों में कमली के शपथ लेने से लेकर उससे संबंधित सारी ख़बरें प्रमुखता से छपी थीं। साथ ही छपा था उसका जीवन परिचय, जिसमें स्पष्ट लिखा हुआ था कि वह पहली कक्षा से लेकर काॅलेज के फस्र्ट ईयर तक एक छोटे से कस्बे में ही पढ़ी हुई है। वह रेखा का बताया हुआ कस्बा ही था। यह पढ़ने के बाद करूणा का खुशी का ठिकाना ना रहा। आज रेखा अचानक ही वीआईपी हो गई थी। वह कमली के बारे में रेखा से और ज़्यादह जानना चाहती थी। उसने रेखा के कमरे का दरवाज़ा खटखटाया। अलसाई हुई सी रेखा ने दरवाज़ा खोला। करूणा ने चहकते हुए कहा- अरे तू सही कह रही थी। ये कमली तो तेरे ही कस्बे की रहने वाली तेरी पक्की सहेली ही है। हां, दीदी मैंने तो आपको कल ही बताया था, रेखा ने कहा।  सुन ना, मुझे कमली के बारे में ज़्यादह से ज़्यादह जानने की उत्सुकता हो रही है।मैं यह भी जानना चाह रही थी कि कि एक छोटे से कस्बे से उसने दिल्ली तक का सफ़र कैसे पूरा किया। आ ना बैठते हंै मुझे कमली के बारे में तुझसे पूरी जानकारी चाहिये। करूणा ने उत्साहित होकर कहा। मैं तैयार होकर आती हूँ दीदी, कहकर रेखा ने … Read more