सिस्टर्ज़ मैचिन्ग सेन्टर
वरिष्ठ लेखिका दीपक शर्मा जी की कहानी सिस्टर्ज़ मैचिन्ग सेन्टर उनकी अन्य कहानियों की तरह अपने नाम को अर्थ देती है | दीपक शर्मा जी बेहतरीन कहानियाँ ही नहीं लिखती वो उनके नामों पर भी बहुत मेहनत करती हैं | सिस्टर्ज़ मैचिन्ग सेन्टर भी एक ऐसी ही कहानी हुई जहाँ साड़ियों की मैचिंग के साथ -साथ दो बहनों के जीवन साथी की मैचिंग की भी कोशिश उनके पिता द्वरा की जाती है | बहुत कसी हुई ये कहानी जहाँ एक ओर अपनी बेटी के लिए अच्छा वर खोजने की पिता की कसक दिखाती है वहीँ बड़ी बहन का अपनी छोटी बहन को लायक बनाने का संकल्प प्रदर्शित करती है | इस तरह से कहानी बहुत ही मुलायमियत से पाठकों के मन में सपनों के लिए परम्पराओं से संघर्ष करती स्त्री की कोशिशों की गहरी चोट करती है | सिस्टर्ज़ मैचिन्ग सेन्टर कस्बापुरके कपड़ा बाज़ार का ‘सिस्टर्ज़ मैचिग सेन्टर’ बाबूजी का है| सन्तान के नाम पर बाबूजी के पास हमीं दो बहनें हैं : जीजी और मैं| जीजी मुझ से पाँच साल बड़ीहैं और मुझे उन्हीं ने बड़ा किया है| हमारी माँ मेरेजन्मके साथ ही स्वर्ग सिधार ली थीं| हमारे मैचिन्ग सेन्टर व बाबूजी को भी जीजी ही सँभालती हैं| बाबूजी की एक आँख की ज्योति तो उनके पैंतीसवें साल ही में उन से विदा ले ली थी| क्रोनिक ओपन-एंगल ग्लोकोमा के चलते| और बाबूजी अभी चालीस पार भी न किए थे कि उनकेबढ़ रहे अंधेपन के कारण उस कताई के कारखाने सेउनकी छंटनी कर दी गयी थी जिस के ब्रेकर पर बाबूजीपूनी की कार्डिंग व कोम्बिंग से धागा बनाने का काम करते रहे थे| पिछले बाइस वर्षों से| ऐसे में सीमित अपनी पूँजी दाँव पर लगा कर बाबूजी ने जो दुकान जा खोली तो जीजी ही आगे बढ़ीं| पढ़ाई छोड़ कर| दुकानबीच बाज़ार में पड़ती है और घर हमारा गली में है| बाबूजीको घर से बाज़ार तक पहुँचाना जीजी के ज़िम्मे है| छड़ी थामकर बाबूजी जीजी के साथ साथ चलते हैं| जहाँ उन्हें ज़रुरत महसूस होती है जीजी उनकी छड़ी पकड़ लेती हैं या फिर उनका हाथ| दुकान भी जीजी ही खोलती हैं| फ़र्श पर झाड़ू व वाइपर खुद ही फेरती हैंव मेज़ तथा कपड़ों के थानों पर झाड़न भी| जब तक बाबूजी बाहर चहलकदमी करते करते पास-पड़ोस केदुकानदारोंकी चहल-पहल व बत-रस का आनन्द ले लेते हैं| स्कूल से मैं सीधी वहीं जा निकलती हूँ| जीजी का तैयार किया गया टिफ़िन मेरे पहुँचने पर ही खोला जाता है| जीजी पहले बाबूजी को परोसती हैं, फिर मुझे| हमारे साथ नहीं खातीं| नहीं चाहतीं कोई ग्राहक आए और दुकान का कोई कपड़ा-लत्ता बिकने से वंचित रह जाए| बल्कि इधर तो कुछ माह से हमारी गाहकतायी पच्चीस-तीस प्रतिशत तक बढ़ आयी है| जब से फैन्सी साड़ी स्टोर में एक नया सेल्ज़मैन आ जुड़ा है| बेशक हम दोनों की दुकानें कुल जमा चार गज़ की दूरीपर एक ही सड़क का पता रखती रही हैं, लेकिनयह मानी हुई बात है कि किशोर नाम के इस सेल्ज़मैन के आने से पहले हमारे बीचकोईहेल-मेल न रहा था| पिछले पूरे सभीतीन सालों में| मगर अब फैन्सी साड़ी स्टोर की ग्राहिकाएँ वहाँसेहमारेमैचिन्ग सेन्टरही का रुख लेती हैं| कभी अकेली तो कभी किशोर की संगति में| अकेली हों तो भी आते ही अपनी साड़ी हमें दिखाती हैं औरविशेष कपड़े की मांग हमारे सामने रखती हैं: “शिफ़ॉन की इस साड़ी के साथ मुझे साटन का या क्रेप ही का पेटीकोट लेना हैऔर ब्लाउज़ भीडैकरोन या कोडेल का…..” किशोर साथ में होता है तो सविस्तार कपड़े के बारे में लम्बे व्यौरे भी दे बैठता है, “देखिए सिस्टर, इसऔरगैन्ज़ा के साथ तो आप डाएनेल का पेटीकोट और पोलिस्टर का ब्लाउज़ या फिर प्लेन वीवटेबी का पेटीकोट और ट्विलका ब्लाउज़ लीजिए, जिस के ताने की भरनी में एक सूत है और बाने की भरनी में दो सूत…..” हम बहनें अकसर हँसती हैं, कस्बापुर निवासिनियों कोयह अहसास दिलाने में ज़रूर किशोर ही का हाथ है कि साड़ी की शोभा उसके रंग और डिज़ाइन से मेल खाते सहायक कपड़े पहनने से दुगुना-चौगुना प्रभाव ग्रहण कर लेती है| जभी साड़ीवाली कई स्त्रियों के बटुओं की अच्छी खासी रकम हमारे हाथों में पहुँचनेलगी है| काउन्टर पर बैठे बाबूजी को रकम पकड़ाते समय मैं तो कई बार पूछ भी लेती हूँ, “फैन्सी वाला यह सेल्ज़मैन क्या सब सही सही बोलता है या फिर भोली भाली उन ग्राहिकाओं को बहका लिवा लाता है?” जवाब में बाबूजी मुस्करा दिया करते हैं, “नहीं जानकार तो वह है| बताया करता है यहाँ आने से पहले वह एक ड्राइक्लीनिंग की दुकान पर ब्लीचिंग का काम करता था औरलगभग सभी तरह के कपड़ों के ट्रेडमार्क और ब्रैन्ड पहचान लेता है…..” कपड़े की पहचान तो बाबूजी को भी खूब है| दुकान के लिए सारा कपड़ा वही खरीदते हैं| हाथ में लेते हैं और जान जाते हैं, ‘यह मर्सिराइज़्ड कॉटन है| इसे कास्टिक सोडा सेट्रीट किया गयाहै| इसका रंग फेड होने वाला नहीं…..” या फिर, ‘यह रेयौन है| असली रेशम नहीं| इसमें सिन्थेटिकमिला है, नायलोन या टेरिलीन…..’ या फिर, ‘यह एक्रीलीन बड़ी जल्दी सिकुड़ जाता है या फिर ताने से पसर जाता है…..’ “क्यों किशोरीलाल?” बाबूजी किशोर को इसी सम्बोधन से पुकारते हैं, “तुम यहाँ बैठना चाहोगे? हमारे साथ?” उस दिन किशोर ने अपने फैन्सी साड़ी स्टोर से दहेज़ स्वरुप खरीदी गयी एक ग्राहिका कीसात साड़ियों के पेटीकोट और ब्लाउज़ एक साथ हमारे मैचिन्ग सेन्टर से बिकवाए हैं और बाबूजी खूब प्रसन्न एवं उत्साहित हैं| “किस नाते?” जीजीदुकान के अन्तिम सिरे पर स्टॉक रजिस्टर की कॉस्ट प्राइस और लिस्ट प्राइस में उलझे होने के बावजूद बोल उठी हैं, “हमारीहैसियत अभी नौकर रखने की नहीं…..” “तुम अपना काम देखो,” बाबूजी ने जीजी कोडाँट दियाहै, “हमआपसमेंबातकर रहे हैं…..” थान समेट रहे मेरे हाथ भी रुक गए हैं| जीजी के स्वर की कठोरता मुझे भीअप्रिय लगी है| “किशोरीलाल,” जीजी से दूरी हासिल करने हेतु बाबूजी किशोर को मेरे पास खिसकालाए हैं, “उषा की बात का बुरा न मानना| वह शील-संकोच कुछ जानती ही नहीं| माँ इनकी इन बच्चियों की जल्दी ही गुज़र गयी रही…..” “जीजी मुझ से भी बहुत कड़वा बोल जाती हैं,” किशोर को मैं ढाँढस बँधाना चाहती हूँ| उसका बातूनीपन तो मुझे बेहद पसन्द है ही, साथ ही उसकी तीव्र बुद्धि व भद्र सौजन्य भी मुझे लुभाता है| … Read more