लाल चप्पल

लाल चप्पल

कभी महंगी डिजाइनदार चप्पल खरीदते समय हम ये सोचते हैं कि कितने लोग हैं जिन्हें नंगे पाँव ही धूप ,सर्दी और बरसात का सामना करना पड़ता है | अमीर और गरीब को बांटने वाली रेखाओं में चप्पल भी एक ऐसी ही रेखा है और ये कहानी गरीब कामवाली द्वारा उस रेखा को मिटाने के लिए की गई एक छोटी सी कोशिश .. क्या वो कामयाब होगी ? आइए जानते हैं अर्चना अनुप्रिया जी की कहानी लाल चप्पल से लाल चप्पल  दूर दूर तक कोई भी नहीं था। पूरी सड़क सुनसान थी।दोपहर का वक्त था और गर्मी के दिन थे। चिलचिलाती धूप में रधिया नंगे पाँव जलती हुई सड़क पर लगभग दौड़ती हुई बाजार की तरफ चली जा रही थी। उसे बाजार पहुँचने की कोई जल्दी नहीं थी पर एक पैर सड़क पर रखते ही सड़क की चारकोल पैर जलाने लगती थी तो झट दूसरा पैर खुद ही आगे आ जाता था। सूरज की कड़कड़ाती धूप से सड़क पर बिछी चारकोल इतनी गरम हो चुकी थी कि रधिया का चलना दौड़ने में परिवर्तित हो रहा था। कल ही मालकिन ने रधिया को पैसे दिए थे कि वह अपने लिए एक चप्पल खरीद ले। पहले तो उसने सोचा था कि उन पैसों से चप्पल की जगह बुधवा के लिए एक काली वाली छतरी खरीदेगी… बेचारा इतनी धूप में मजदूरी करने शहर के एकदम दूसरी छोर तक जाता है… दिन भर माथे पर ईंटें लाद-लाद कर तीन मंजिलें चढ़ता- उतरता है, फिर जब तक ठेकेदार न बोले, खाना भी नहीं खा पाता है। बारिश हो कि कड़ी धूप..दिन-दिन भर खुले आसमान के नीचे काम करता रहता है। छतरी होगी तो दम भर धूप और पानी से बच कर बैठ तो सकेगा। परंतु,बीती रात को रोटी खिलाते समय जब से रधिया ने बुधवा को मालकिन के लिए पैसों के विषय में बताया था, तभी से वह उसके पीछे पड़ गया था कि पैसे दे दो क्योंकि पिछले महीने उसके दोस्त हरमू ने सब दोस्तों को ताड़ी पिलाई थी, मीट-भात खिलाया था… तो इस बार वह सब को अपनी तरफ से ताड़ी की पार्टी देगा। उसका इरादा समझते ही रधिया ने तय कर लिया था कि चुपचाप चप्पल ले आने में ही उसकी भलाई है, वरना एक बार पैसे बुधवा के हाथ में गए.. तो न छतरी आएगी न चप्पल।वह पैसों को दोस्तों के बीच उड़ा देगा और फिर मालकिन दुबारा पैसे देने से तो रहीं…उलटा कहीं डाँट न सुननी पड़े। इसीलिए रधिया शाम तक बुधवा के आने से पहले ही चप्पल खरीदकर छुपा देना चाहती थी। बुधवा पूछेगा तो कह देगी पैसे कहीं गिर गए, नहीं तो चप्पल देखकर बुधवा उसी चप्पल से उसकी पिटाई कर देगा… कहेगा कि ‘बड़ी महारानी बनती है, चप्पल पहनकर काम करने जाएगी स्साली… दोस्तों के सामने मेरी इज्जत रहे ना रहे, महारानी को चप्पल जरूर चाहिए।’ रधिया अच्छी तरह से जानती है उसे, भले वह उससे प्रेम करता है, लेकिन उसकी खुद की जो पसंद है, उसे रधिया से ज्यादा प्यारी है…जो बोल दिया सो बोल दिया। बुधवा को बताकर अपनी शामत थोड़े ही न लानी है। रधिया के कदम और तेज हो गए।   बाजार में बहुत कम दुकानें खुली थीं। अधिकतर दुकानें या तो दोपहर की गर्मी की वजह से बंद थीं या फिर दुकानदार खाना खा रहे थे तो शटर आधी गिरा रखी थी। रधिया को समझ नहीं आया कि वह क्या करे। इतनी मुश्किल से तो पाँव जला-जला कर पहुँची थी वह… अब वापस जाकर फिर से आना कहाँ संभव था। दो-ढाई बज चुके थे तीन-साढ़े तीन बजे तक कोठी में काम करने जाना होगा, फिर कहाँ टाईम मिलेगा..?.. अभी अगर चप्पल नहीं खरीद पायी तो फिर तो नहीं ही ले पाएगी। शाम को लौट कर बुधवा फिर पैसे माँगेगा और नहीं देने पर मारेगा… छतरी खरीदेगी तो वह उसे भी बेच कर पैसे ताड़ी पार्टी में उड़ा देगा… नहीं नहीं.. उसे चप्पल खरीदनी ही होगी।   रधिया ने इधर उधर देखा, कोने में चप्पलों की एक छोटी सी दुकान दिखी..वह उधर ही बढ़ गई। दुकान का मालिक उन्हीं चप्पलों के बीच बैठकर खाना खा रहा था। छोटी सी दुकान थी पर जूतों-चप्पलों का अंबार लगा था। सामने थोड़ी हिलती-डुलती सी एक बेंच रखी थी।दीवार के ऊपर एक छोटा सा पंखा तिरछा करके लगा था, जो सीधा दुकानदार के ऊपर ही हवा फेंक रहा था हालांकि उसकी गर्म हवा बीच-बीच में थोड़ी बेंच की तरफ भी आ रही थी।रधिया उस गर्मी में तेजी से चलती-चलती थक गई थी। बेंच देखते ही जल्दी से जाकर बैठ गई। दुकानदार ने एक बार खाते-खाते सिर उठाकर उसे देखा,फिर इशारे से गर्दन उचकाकर पूछा कि क्या चाहिए..? “भईया, एगो चप्पल देखाइए न… मेरे लिए”.. रधिया ने कहा। दुकानदार ने खाते-खाते पूछा-“हवाई चप्पल चाहिए कि फैंसी वाला देखावें?” “हवाइए चप्पल देखाइए….फैंसिया लेकर का करेंगे भईया,हम लोग त काम-काज वाले आदमी हैं”- रधिया का जवाब था। दायें हाथ से खाते-खाते दुकानदार ने बायें हाथ से चप्पल का एक डब्बा उठाया, खोला और उसे उलटकर उसमें से चप्पल नीचे गिरा दी– “पहिन के देखिए, ठीक है..?” रधिया झट से उठकर चप्पल में एक पैर डाल कर देखने लगी-“लगता तो ठीके है, पर तनी कड़ा है, दोसर देखाइए न।” “अरे दुन्नू पैर में पहिन के देखिए, एगो पैर में थोड़े पता चलेगा..” दुकानदार बोला। गर्मी से बेहाल,थकी हुई रधिया का बेंच पर से दुबारा उठने का मन नहीं हो रहा था, पर क्या करती,जल्दी से लौटकर काम पर भी जाना था। बेमन से उठकर दोनों पैरों में चप्पल पहन कर देखा… तलवे के नीचे मोटा का गद्दा..अहा, जलते हुए पैरों को बड़ी ठंडक सी मिली, पल भर के लिए उसने अपनी आँखें बंद कर लीं… बंद आँखों से ही उसे कोठी की मालकिन के पैरों की लाल चप्पल दिखी, जो उनके गोरे से पैरों में बड़ी खिलती थी। रधिया का मन मचल उठा, बोली-“ए साइज तो ठीके  लग रहा है, लाल कलर में नहीं है..?” लाल वाला देखाइए ना..।” दुकानदार का खाना भी तब तक समाप्त हो चुका था। हाथ हिला कर रधिया को बैठने का इशारा करते हुए पानी की बोतल लेकर दुकान से बाहर चला गया।हाथ मुँह धोकर तुरंत ही वापस आ गया, फिर एक फटे से तौलिये में … Read more

आत्मनिर्भरता- कितनी जरूरी

archana anupriya

  अंग्रेजी में एक कहावत है- “God helps those,who help themselves”यानि, ईश्वर भी उसी की मदद करता है जो अपनी मदद खुद कर सकता है। अंग्रेजी की यह कहावत आत्मनिर्भरता की संकल्पना सामने लाती है। व्यक्ति या देश जब अपनी क्षमताओं और अपने प्रयत्नों पर आश्रित होकर कार्य करता है,किसी अन्य के सहारे या किसी अन्य पर निर्भर रहने की उसे जब आवश्यकता नहीं होती है, तब वह व्यक्ति या देश आत्मनिर्भर कहलाता है। ‘आत्मनिर्भरता’या ‘स्वावलंबन’ किसी भी काल में किसी भी व्यक्ति, समाज या राष्ट्र के लिए अनमोल धरोहर है। “आत्मनिर्भरता- कितनी जरूरी” आत्मनिर्भरता का अर्थ है – खुद के ऊपर निर्भर होना, स्वयं पर विश्वास रखना अर्थात् भाग्य या दूसरों के सहारे न बैठकर अपनी क्षमताओं का विकास करना। अब सवाल उठता है कि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है,तो एक दूसरे के साथ रहकर एक दूसरे के काम आना उसका स्वभाव भी है और जरूरत भी, तब ऐसे में, सारा काम वह अपनी क्षमताओं के आधार पर स्वयं ही कर ले, तभी पूर्णतया आत्मनिर्भर कहलाएगा, तो क्या यह संभव है? कदापि नहीं । एक ही आदमी सारे सामान पैदा करना, बनाना, खरीदना,उपभोग करना-सब कैसे कर सकता है ? एक दूसरे की सहायता की जरूरत तो पड़ेगी ही। कोई खाद्य सामग्री बनाएगा तो कोई रहन-सहन की व्यवस्था करेगा, कोई सुरक्षा का जिम्मा लेगा तो कोई यातायात की व्यवस्था करेगा, कोई प्रशासन देखेगाऔर कोई अर्थ की व्यवस्था करेगा… कहने का तात्पर्य है कि एक दूसरे का सहयोग अनिवार्य है। ऐसे में, आत्मनिर्भरता का क्या तात्पर्य हुआ ? यही प्रश्न किसी देश की आत्मनिर्भरता के संदर्भ में भी उठाया जा सकता है। आज के इस वैश्वीकरण के समय में कोई एक देश पूर्णतया आत्मनिर्भर हो कर रहे या यूं कहें कि रॉ मटेरियल से लेकर उत्पादन और उपभोग तक सब कुछ स्वयं ही कर सके यह संभव नहीं दिखाई पड़ता क्योंकि तकनीकि, पेट्रोल, व्यवसाय, संस्कृति- लगभग सभी चीजों के लिए हम परस्पर निर्भर हैं। दुनिया जितनी सिमट रही है, बाजारवाद और प्रतिस्पर्धायें उतनी ही हर क्षेत्र में पनप रही हैं और अगर देखा जाए तो वस्तुओं की विविधता और गुणवत्ता की दृष्टि से यह जरूरी भी है। यह पारस्परिक आदान-प्रदान एक सीमा तक उचित प्रतीत होता है परंतु यह गलत तब प्रमाणित होता है जब केवल आयात हो और बदले में दिया कुछ न जा सके। जब अधिकारों का उपभोग विश्व में बिना कृतज्ञता का निर्वाह किए भिक्षावृत्ति तथा चोरी और लूट-खसोट में हो लेकिन विनिमय न हो, लेने वाला देने वाले के दबाव में रहे, उसकी नाराजगी से डरने लगे, उसकी इच्छा की गुलामी करने को विवश होने लगे तब ऐसे में,आत्मविश्वास और आत्मनिर्भरता को जागृत करना अनिवार्य हो जाता है। सामान्यतया, जब हम दूसरों पर आर्थिक रूप से निर्भर होते हैं, जरूरत से ज्यादा दूसरों की सहायता,सहानुभूति, हमदर्दी, नेकी पर विश्वास करने लगते हैं तब यह स्थिति किसी व्यक्ति, समाज या देश के लिए बहुत हानिकारक होती है।इससे हमारी शक्ति और आत्म उद्योगी भावनाओं का ह्रास होता है। यह आदत हमें निज मददहीनता से भर देती है ।यह बिल्कुल उसी प्रकार है जब किसी शिशु को स्वतंत्र रूप से चलने, दौड़ने या गिरने न दिया जाए और उसके अंदर के आत्मविश्वास में अपंगता भर दी जाए। दूसरों पर निर्भरता किसी राष्ट्र को ऐसे ही आर्थिक और नैतिक रूप से अपंग कर सकती है, देश का स्वरूप विकृत कर सकती है।इसके अतिरिक्त, दूसरों से हमेशा अपेक्षा रखना लगभग स्वयं को दयनीय और तिरस्कार का पात्र बना लेने जैसा है।हम धीरे-धीरे परजीवी होने लगते हैं और अपनी स्थिति दयनीय बना लेते हैं। इसके ठीक विपरीत, यदि व्यक्ति या राष्ट्र वीर है,संकल्पी है, तो मुसीबतों से संघर्ष कर सकता है, आत्मविश्वासी बन सकता है और सब के लिए प्रशंसा का पात्र बन जाता है।प्रयत्न ही किसी को महान बनाता है; सफलता असफलता तो घटती रहती है। आत्मनिर्भरता ही व्यक्ति एवं राष्ट्र को मानसिक दृढ़ता,सहनशीलता एवं नैतिक सुरक्षा प्रदान करती है। कमजोर और पिछड़ा वर्ग भी सीख ग्रहण करता है, प्रयत्नों का हिस्सेदार बनता है और साहसिक प्रवृत्ति से संघर्ष करने तथा उन पर विजय प्राप्त करने की प्रेरणा पाता है। अंततोगत्वा, एक मजबूत और सुनहरे भविष्य का निर्माण कर पाता है। आत्मनिर्भर व्यक्ति या देश प्रेम और आदर प्राप्त करता है और खुशहाल प्रसिद्ध एवं यशस्वी बनता है, विश्व का नेतृत्व कर सकता है।परहितकारों द्वारा की गई दया आत्म सम्मान के लिए भी घातक है। लेकिन, जब किसी वस्तु के लिए परिश्रम एवं अर्थ हम स्वयं खर्च करते हैं, खून पसीना एक करते हैं तो ऐसी स्थिति में नैतिक दृष्टिकोण बहुत ऊंचा और शांति भरा होता है। आत्मनिर्भरता से ही व्यक्ति समाज और देश की उन्नति होती है और वह निरंतर सफलता की ऊंचाइयों को छूता जाता है। शास्त्रों में भी कहा गया है- “यल्लमसे निज कर्मोपातम्, वित्त विनोदय चित्तम”…अर्थात स्वयं अर्जित किए गए धन का उपयोग करने में एक अकथनीय सुख की प्राप्ति होती है ।आत्मनिर्भरता राष्ट्र या समाज के प्रत्येक व्यक्ति में अद्भुत आत्मविश्वास उत्पन्न करती है और आत्मविश्वासी एवं कर्मठ व्यक्ति ही दुनिया की हर समस्या से जूझने को तैयार हो सकता है।परावलंबी सोच समाज और राष्ट्र को अपाहिज करती है,जबकि आत्मनिर्भरता अमृत का अक्षय स्रोत है।राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ने बिल्कुल सही लिखा है- ” यह पापपूर्ण परावलंबी चूर्ण होकर दूर हो, फिर स्वावलंबन का हमें प्रिय पुण्य पाठ पढ़ाइए..” वास्तव में,आत्मनिर्भरता ही वह गुण है जो जीवन की कठिन राह को आसान बना देता है।स्वावलंबन में वह पुरुषार्थ छिपा है, जिसके आगे सारी वैश्विक शक्ति नतमस्तक हो सकती है।जो दूसरों के सामर्थ्य पर ऊँचाई पाते हैं,वे एक हल्के से आघात से जमींदोज हो सकते हैं क्योंकि दूसरों की सहायता हमारी स्वाभाविक क्षमता के विकास में बाधा बनती है, अपने पैरों को मजबूत बनाने का प्रयास ढीला पड़ जाता है और हर समय एक अनिश्चितता की तलवार लटकती रहती है।इसके विपरीत, जिस देश और समाज के नागरिक आत्मनिर्भरता की बुनियाद पर जीते हैं,वहाँ भूखमरी, बेरोजगारी, निर्धनता जैसी सामाजिक और आर्थिक समस्याएँ नहीं के बराबर होती हैं और वह समाज एवं वह देश उत्तरोत्तर उन्नति करता जाता है। एक समय था जब भारत सोने की चिड़िया कहा जाता था और काफी हद तक आत्मनिर्भर था।परंतु, कालांतर में विदेशी व्यापारियों ने खासकर अंग्रेजी हुकूमत ने इसी व्यापार के रास्ते भारत … Read more

मैं जिंदा हूँ..

archana anupriya

विज्ञान कहता है कि पेड़ -पौधे भी हमारी तरह सजीव होते हैं .. बढ़ते हैं, खिलते हैं और अपना वंश आगे बढ़ाते  हैं | पर क्या वो बोलते भी हैं ? आयुर्वेद की माने तो ‘हाँ” | कहते हैं हमारे ऋषि मुनि पेड -पौधों से बात करते थे ,औषधीय पेड़ों से पत्तियां ,फूल आदि तोड़ने का विशेष समय और प्रार्थना होती थी | प्रकृति के साथ रिश्ता बनाने के लिए ही पेड पौधों की पूजा का प्रावधान था |विकास की दौड़ में मनुष्य सब कुछ भूलता गया | प्रकृति के साथ साझी भावनाएँ केवल उदरपूर्ति का साधन रह गई .. विकास की अंधी दौड़ बस उसे भगाए लिए जा रही है | कभी सोच है क्या बीतती है हमारे इन सजीव रिश्तों पर | आइए जाने एक पेड की कहानी उसी  की जुबानी .. “मैं जिंदा हूँ..”   कस्बे का शहरीकरण हो रहा था और आसपास के सभी गाँवों को जोड़ा जा रहा था। उस चुनावी क्षेत्र के सांसद, रंजीत राय जी एक दबंग इंसान थे और केंद्र में उन्हीं की पार्टी की सरकार भी थी। चुनावी वादों को पूरा करने के ख्याल से कस्बे और आसपास के गाँवों को मिलाकर शहरीकरण करने का प्रस्ताव उन्होंने येन केन प्रकारेण तरीके से पास करवा लिया था और अब पक्की सड़क का निर्माण कार्य किया जा रहा था। जाहिर है, सड़कों के निर्माण के रास्ते में जितने पेड़-पौधे व्यवधान उत्पन्न कर रहे थे, वे सभी सरकारी हुक्म से कानून का सहारा लेते हुए बड़ी निर्ममता से हटाए जा रहे थे। पकड़ी गाँव के पास का बूढ़ा बरगद बहुत सहमा हुआ और उदास था। उसके आसपास के छोटे बड़े पेड़ काटे जा रहे थे और आज न कल उसकी बारी भी आने ही वाली थी। वह बरगद शतायु था और करीब सौ-डेढ़ सौ वर्षो से इस गाँव के पास खड़ा था- किसी प्रहरी की तरह,एकदम तना और सजग…मजाल है कि उसकी शाखाओं के नीचे से गुजरे बगैर कोई गाँव की राह पकड़ ले।एक पूरा युग उसने मानवता और समाज को गिरते और गिर कर उठते देखा था।आजकल वह दिन भर  डरा- सहमा सा रहता क्योंकि सारा-सारा दिन सरकारी ठेकेदार मजदूरों की टोली के साथ सड़कों का नक्शा खींचते रहते थे और कुल्हाड़ी,बुलडोजर,क्रेन आदि के साथ वृक्षों के काटने का कार्यक्रम चलता रहता था। कितने संगी साथी.. जिन्हें उसने पैदा होते देखा था,जिनसे रोज बातें किया करता था.. इस शहरीकरण की भेंट चढ़ चुके थे। शाम ढलते अंधेरा घिरने पर जब सभी वहाँ से चले जाते तब जाकर कहीं वह थोड़ी देर चैन की सांस ले पाता था।वह भी सिर्फ रात भर ही क्योंकि अगले दिन सूरज निकलते ही पुनः काम आरंभ होता और फिर से वही दहशत उसे घेर लेती। रात भर वह बूढ़ा बरगद चिंता में डूबा रहता, नींद नहीं आती थी उसे… जाने क्या-क्या सोचता रहता था। अगल-बगल के काटे गए वृक्षों के विषय में सोच कर मन भर आता था उसका-“आखिर उम्र ही क्या थी उनकी? वो बेर का पेड़.. अभी अभी तो बड़ा हुआ था, आम के पेड़ पर अगले साल से मँजरियाँ आ जातीं.. सखुआ, शहतूत, नीम, पीपल- ऐसे ही जाने कितने ही साथी और युवा तथा बच्चे-वृक्ष शहरीकरण की बलि चढ़ाए गए थे। खुद वह… कितना खुश था यहाँ.. न जाने कब से इस नदी के साथ हँसता- खेलता बरसों से वहाँ खड़ा था, परन्तु,अब देखो, कैसा डरा सहमा सा है…”न जाने मानव को क्या होता जा रहा है कि अपने विकास के रास्ते में हमें दुश्मन समझ रहा है.. अरे,हम पेड़ -पौधे तो जीवन हैं उनके,हम ही न होंगे तो वह जियेगा कैसे?ऐसे में कैसा विकास?विधाता ने भी हमें कितना असहाय बनाकर भेजा है,कैसे कहें मानव से मन की बात?हम देना तो जानते हैं पर अपनी रक्षा करने में असमर्थ हैं। कोई काटे तो कटना ही पड़ता है,मना भी नहीं कर पाते,किसी मनुष्य को अपने मन का दर्द कह भी तो नहीं सकते,हमारी इच्छा की परवाह भी किसे है?..ओहहह..।” बरगद सोच-सोचकर दुखी हो रहा था।उसे वह साल भी याद है, जब गांव के सारे मेहनतकश लोगों ने चंदा इकट्ठा करके उसे सीमेंट से घेरा था और उसके चारों तरफ गोल सा चबूतरा बना दिया गया था… बिल्कुल किसी नन्हीं गुड़िया की फैली हुई फ्रॉक की फ्रिल की तरह..कितना खुश था वह उस दिन…झूम-झूमकर हवाओं के संग नाचा था। बगल में थोड़ी ही दूरी पर बहती हुई नदी से अक्सर वह बात कर लिया करता था।दोनों अपना सुख- दुख बरसों से आपस में बाँटते आ रहे थे।गांव के लोग भी उसे बहुत प्यार करते थे और प्यार से उसे दादा कह कर पुकारते थे। दादा ही तो था वह आसपास के सभी गाँवों का। लोग आते, उससे आशीर्वाद लेते, फूल प्रसाद चढ़ाते, सुहागिनें गीत गाती हुई लाल पीला धागा बांधकर चारों ओर घूमकर फेरी लगातीं, सुहाग के लिए दुआएँ मांगतीं, थके हारे ग्रामीण लोग उसकी घनी छाया में घंटों बैठकर बतियाते,हंसी ठिठोली करते, चांदनी रात में ढोल मंजीरे के साथ गाते बजाते…गांव की, शहर की, देश की राजनीति और बड़ी-बड़ी नीतियों पर चर्चा होती,बच्चे लुकाछिपी खेलते,थक जाते तो वहीं ठंडी छाया में पैर पसार कर सो लेते, सत्तू की रोटी और सब्जी लेकर गाँव की नवविवाहितायें उसके बड़े से घेरे वाले तने की ओट में सास ननद से छुपकर अपने पति को भोजन खिलातीं, प्रेमी प्रेमिका के जोड़े उसकी ओट में छिप कर एक दूसरे से मिलते और जन्मों- जन्म साथ रहने की कसमें खाते.. गांव के हर व्यक्ति का राज वह बूढ़ा बरगद जानता था। वह बूढ़ा बरगद ही तो था जिसे पता था कि रतन चौधरी की बेटी रमिया अपने विवाह से पहले उसी गांव के गरीब दलित फेकू माँझी के बेटे, रमेश से प्रेम करती थी।जाति-पाँति के डर से प्रेमाग्नि के फेरों के साथ जन्मों का बंधन तो नहीं बन सका लेकिन विवाह के बाद आज भी जब वह मायके  वापस आती है तो रमेश से मिलने भरी दोपहरी में, जब सब सो रहे होते हैं,यहीं आती है और इसी बरगद की ओट में दोनों छुप कर एक दूसरे का हालचाल लेते हैं,एक दूसरे का दुख सुख सुनते हैं और अगले जन्म में साथ रहने की कसमें खाते हैं।गांव का मुखिया, रतन चौधरी अपनी चौपाल भी यहीं लगाता है। किसी भी तरह के … Read more