गुज़रे हुए लम्हे – अध्याय -5

गुज़रे हुए लम्हे

आत्मकथा लेखन में ईमानदारी की बहुत जरूरत होती है क्योंकि खुद के सत्य को उजागर करने के लिए साहस चाहिए साथ ही इसमें लेखक को कल्पना को विस्तार नहीं मिल पाता | उसे कहना सहज नहीं होता | बहुत कम लोग अपनी आत्मकथा लिखते हैं | बीनू दी ने यह साहसिक कदम उठाया है | बीनू भटनागर जी की आत्मकथा “गुज़रे हुए लम्हे “को आप अटूट बंधन.कॉम पर एक श्रृंखला के रूप में पढ़ पायेंगे | गुज़रे हुए लम्हे -परिचय गुजरे हुए लम्हे -अध्याय 1 गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 2 गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 3 गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय चार गुज़रे हुए लम्हे अध्याय -5 अब आगे ….     अध्याय 5 विवाह के बाद (ग्वालियर, ओबरा, कोरेगाँव दिसम्बर 1969 से 71)   विदाई के बाद ओबरा से बनारस तक टैक्सी से ही जाना था।  बनारस से ट्रेन लेनी थी फिर मानिकपुर और उसके बाद झाँसी पर बदलनी थी।  बारात की कोच पूर्ण रूप से आरक्षित थी जो अलग अलग ट्रेनों में कटकर लगनी थी, पर हम दोनों के लिये अलग प्रथम श्रेणी में आरक्षण था।  यहाँ से हमारी जान पहचान होनी शुरू हुई थी। सबसे पहले तो वह दुल्हन वाली पोशाक बदलकर दूसरे कपड़े पहने, ज़ेवर उतार कर रखे ।ट्रेन कुछ लेट थी, मानिकपुर पर दूसरी ट्रेन छूटने का डर था तो अरुण बहुत तेज़ी से पुल की तरफ चले बिना ये सोचे कि कोई और भी साथ है। कुली भी दौड़ा और मुझे भी दौड़ना पड़ा पर हमने ट्रेन पकड़ ली। बारात की कोच उस ट्रेन में लग नहीं पाई कुछ घंटों बाद किसी दूसरी ट्रेन में लगी थी। हम बारात से 5,6 घंटे पहले ग्वालियर पहुँच गये। मोबाइल क्या उस समय घरों में भी फोन होना बड़ी बात होती थी। स्टेशन मास्टर के कमरे से जाकर अरुण……….. नहीं अब मैं ‘इन्होंने’ कहूँगी क्योंकि उस समय पति का नाम लेने का रिवाज नहीं था न इसकी इजाजत थी !अब ये अब आदत बन चुकी है।वहाँ घर पर भी फोन नहीं था किसी पड़ौसी के यहाँ से संदेश भेजा कि हम पहुँच गये हैं अब क्या करें। कुछ समय में इनकी बहने  वहाँ स्टेशन आ गईं और वहाँ वेटिंग रूम में ही मैं वापिस दुल्हन के जोड़े में तैयार हुई और हम बहनों के साथ चले दिये । जहाँ हम पहुँचे थे वह पड़ौसी का घर था, ये मुझे कुछ देर बाद पता चला। मेरी सास जिन्हें सब चाची जी कहते हैं ,उन्होंने आदेश दिया था कि जब बारात वापिस आ जायेगी तभी बहू प्रवेश करेगी, हमें वहाँ शायद पाँच छ: घंटे तक तो रुकना पड़ा था, तब जाकर गृह प्रवेश हुआ।  हमारे यहाँ कोई पैर से चावल गिराने या रंगीन पानी में पैर रखकर गृह प्रवेश की प्रथा नहीं है, ये प्रथा पता नहीं कहाँ की है जो टीवी धारावाहिकों ने लोकप्रिय बनाई है। चाची जी ने आरती की मुंह मीठा कराया और प्रवेश हो गया।   हम दोनों की जान पहचान तो ट्रेन में ही हो गई थी ,अब दोस्ती की शुरुआत होनी थी, लेकिन उससे पहले बहुत सी रस्में निभानी थीं और परिवार के तौर तरीके समझने थे। वहाँ का वातावरण हमारे घर से बहुत अलग था, चाची जी(सास जी) कुछ मामलों में बहुत अलग थीं। वह घूँघट पल्ला वगैरह पर ध्यान देती थीं, टोकती थीं, तो बड़ी नंद भी कम नहीं थी,  बड़ों के बराबर नहीं बल्कि नीचे पीढ़े  पर बैठना चाहिये यह इशारा बार बार आता था, जो मुझे बहुत बुरा लगता था। कभी इशारा न समझ के मैं साथ में बैठ ही जाती थी। ऐसी परम्परायें हमारे भारतीय परिवारों में होती ही थी, लेकिन और कोई बात परेशानी वाली नहीं थी। हलवा  बनाने क रस्म भी प्रतीकात्मक ही थी, बस हाथ लगवा दिया न हलवा बना न नेग मिला।   पहले तो इन्होंने सोचा था कि ये मुझे अपने साथ छुट्टी खतम होने पर विजयवाड़ा ले जायेंगे परंतु  लम्बी छुट्टी लेते ही विजयवाड़ा से तबादला कोरेगाँव हो गया।  कोरेगाँव सतारा जिले का महाराष्ट्र में एक गाँव था।  छोटी लाइन से बड़ी लाइन का निर्माण चल रहा था, वहाँ एक डेढ़ साल काम चलना था और कोई सुविधा नहीं थी इस लिये मुझे लेकर नहीं जा सकते थे। वैसे भी एक बार ओबरा जाना ही था। आम तौर पर पहली बार ससुराल से लेने छोटे भाई जाते हैं पर मेरा कोई छोटा भाई नहीं था, भैया ही लेने आये।  मैं शायद एक डेढ़ महीने ओबरा  रही थी। कोरेगाँव जाना तो था ही ओबरा या ग्वालियर में बहुत समय तक तो नहीं रह सकती थी। ये ओबरा लेने आये फिर ग्वालियर कुछ दिन रुककर हम कोरेगाँव पहुँच गये।   उन दिनों हनीमून का तो रिवाज था नहीं ,यही हनीमून था।नई लाइन के लिये स्टेशन मास्टर के लिये जो घर बनाया गया था वह फिलहाल हमारा घर था।दो छोटे छोटे कमरे, न बिजली न पानी की व्यवस्था।काम करने के लिये दो तीन आदमी थे । सामने स्टेशन की बिल्डिंग में छोटा सा दफ्तर एक दो क्लर्क एक जीप और ड्राइवर थे। दफ्तर सामने था पर ये लगभग रोज़ ही लाइन का दौरा करने जाते थे । पास में नदी से पानी आता था। कपड़े एक आदमी नदी पर ही धोकर ले आता था।  दो लालटेन थीं, बाद में पैट्रोमैक्स भी आ गई थी, मौसम वहाँ हमेशा सुहावना रहता था इसलिये गर्मी कभी नहीं लगी, पंखे की कमी महसूस नहीं हुई।  बिजली नहीं थी पर फ़ोन था, बिना डायल वाला,जिसमें नम्बर बताने पर सामने वाला जुड़ता था।पानी नदी से आता था पर रसोई गैस थी, जिसका सिलेंडरसतारा से आता था। हमारी गृहस्थी की शुरुआत ख़ूबसूरत सी थी।  ये ज्यादा बात नहीं करते थे, शुरुआत मुझे ही करनी पड़ती थी। कभी सतारा जाकर पिक्चर देख आते थे। कभी कभीपूना जाते तो वहाँ भी कोई पिक्चर देख लेते थे। शाम के समय रमी खेलते या फिर ट्राँजिस्टर पर गाने सुनते थे। उन दिनों बिनाका गीत मालाऔर रेडियो सीलोन से और बी.बी सी. से समाचार सुनते थे।   कोरेगाँव के प्रवास में हमने करीब डेढ़ साल में तीन घर बदले। ज़िंदगी से ज़्यादा  उम्मीद नहीं की थी इसलिये सब अच्छा लग रहा था। एक दूसरे को समझने की कोशिश कर रहे थे। इनका स्वभाव शांत सा था,  कुछ ज़्यादा … Read more

गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय चार

गुजरे हुए लम्हे

आत्मकथा लेखन में ईमानदारी की बहुत जरूरत होती है क्योंकि खुद के सत्य को उजागर करने के लिए साहस चाहिए साथ ही इसमें लेखक को कल्पना को विस्तार नहीं मिल पाता | उसे कहना सहज नहीं होता | बहुत कम लोग अपनी आत्मकथा लिखते हैं | बीनू दी ने यह साहसिक कदम उठाया है | बीनू भटनागर जी की आत्मकथा “गुज़रे हुए लम्हे “को आप अटूट बंधन.कॉम पर एक श्रृंखला के रूप में पढ़ पायेंगे | गुज़रे हुए लम्हे -परिचय गुजरे हुए लम्हे -अध्याय 1 गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 2 अब आगे …. गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 4 उलझनों में घिरा यौवन व विवाह समारोह (लखनऊ और औबरा 1967 से69)   एम.ए.पास करने के बाद लखनऊ में ललिता और बीबी दोनों नहीं थे। मैं तब लखनऊ में बहुत अकेली हो गई थी।फोन सबके घरों में नहीं होते थे, यह अकेलापन मेरे पहले अवसाद का कारण  बना, जिसे मैं मनोविज्ञान का इतना ज्ञान होने के बाद भी समझ नहीं पाई थी। वैसे इसमें अचंभे वाली कोई बात नहीं है क्योंकि कोई भी मनोवैज्ञानिक अपने या अपने परिवार के बारे में कोई प्रोफैशनल राय नहीं बना सकता।मैं पी. एच. डी. करना चाहती थी परन्तु हमें बताया गयाथा कि वह मिलने में कुछ महीने लग सकते हैं,पर हो अवश्य जायेगा, तब तक विभाग के एक रिसर्च प्रौजैक्ट में रिसर्च असिसटैंट का काम मैं कर सकती हूँ ।मैने उसे स्वीकार लिया।रिसर्च प्रोजैक्ट के लिये मुझे इकट्ठा किये गये डेटा का विश्लेषण करना होता था ।आजकल तो कम्प्यूटर से सब फटाफट हो जाता है, उन दिनों तो हमारे पास कैलकुलेटर भी नहीं होते थे। सारी गणनाये स्वयं करनी पड़ती थी, साँख्यकी(statistics)  का अच्छा ख़ासा ज्ञान था, पर दिन भर यही काम अकेले लायब्रेरी में या किसी साइड रूम में करते रहना आसान नहीं था।हॉस्टल में भी किसी से बात करने का मन नहीं करता था। अपने ही विभाग में भी किसी से बात नहीं की, मुक्ता वहीं थी, उससे भी कभी नहीं मिली । अपने अन्य किसी सहपाठी की भी खोज ख़बर नहीं ली।अब याद करती हूँ तो सहम जाती हूँ, क्योंकि अब मैं अवसाद को अच्छी तरह समझ गई हूँ।उस समय मैं अंदर ही अंदर घुट रही थी,मर रही थी।   मम्मी भी बार बार वापिस आने को कहती रहती थीं, उन्हे मेरा अब लखनऊ में रहना बेकार लग रहा था।मेरा ओबरा जाने का भी कतई मन नहीं था। वहाँ नानी, मम्मी, भैया ,भाभी और उनके तीन बच्चे थे। सुरेन भैया देहरादून ज़िले में कोटी में थे।वहाँ मम्मी साल में एक बार चली जाती थीं।भैया भाभी ने मम्मी और नानी की देखभाल में कोई कमी नहीं रखी फिर भी वैचारिक अंतर तो होते ही हैं, नानी और मम्मी दोनों का बुढ़ापा था, उनमें भी खटपट होती रहती थी।मुझे लग रहा था वहाँ मैं ख़ुश नहीं रह पाऊँगी।अब यह सीखो,वह सीखो, भैया और मम्मी पीछे पड़ेगें…………….. फिर शादी की बातें, लड़की देखना दिखाना, इसके लिये मैं ख़ुद को तैयार नहीं कर पा रही थी। लखनऊ में रहकर भी मैं कुछ नहीं कर पा रही थी, असफल महसूस कर ही थी, अपनी क़ाबलियत पर शक कर रही थी, मैं हार रही थी, मैं बहुत दुखी थी, अवसाद ग्रस्त थी। अंत मे मैने हार स्वीकार करली और मैं ओबरा चली गई।   उस ज़माने में जब संचार के साधन बहुत कम थे, लगता था कि जब अपने विभाग में पी. एच. डी. मिलने में कुछ समय लगने की बात हो रही है तो किसी और विश्वविद्यालय में तुरंत तो नहीं मिलेगी।एक विकल्प था कि बैंगलोर से क्लिनिकल सायकौलोजी में पी.जी. डिप्लोमा करूँ पर, इसकी इजाज़त कभी नहीं मिलती, ये भी मैं जानती थी। कोई जानकारी पाना भी कहीं से बहुत मुश्किल होता था, फिर मानसिक तनाव झेलते हुए कुछ सूझ भी नहीं रहा था।मेरी हार घर वालों की जीत थी,मैं पढ़ाई पूरी करके घर आ गई थी।अब मम्मी ने शादी के लियें वर की तलाश शुरू कर दी मेरे पास भी न करने के लिये कोई कारण नहीं था।बस यही सोचा कि अब ज़िंदगी जिस तरफ़ ले जायेगी चल दूँगी! वैसे ओबरा आकर परिवार के बीच भतीजों भतीजी के साथ रहकर अकेलापन कम होने लगा था। ललिता से कभी कभी पत्रों का आदान प्रदान होता रहा, वह जल्दी ही एक बेटे की माँ बन गई थी। रज्जू भैया भी अमरीका में जाकर बसने की तैयारी में लगे थे।   ओबरा में मुझे कॉन्वैंट स्कूल में नौकरी मिल गई थी,वहाँ की सिस्टर ख़ुद प्रस्ताव लेकर आई थी, जबकि मैने बी.ऐड. नहीं किया हुआ था।मुझे पाँचवीं और छटी क्लास को पढ़ाना था।मैंपाँचवीं की कक्षा अध्यापिका बना दी गईथी।पाँचवीं में मेरा भतीजा भी पढ़ता था।ओबरा में केवल उ.प्र. के बिजली विभाग के लोग थे, वहाँ कुछ और था ही नहीं, इसलिये बच्चे भी जान पहचान के थे, जो स्कूल के बाद मुझे भुआ ही कहते थे। मेरा भतीजा बहुत ज़हीन था, प्रथम आता था,  मुझे लगता था कि कहीं कोई पक्षपात न समझे, कोई बच्चा उसके आस पास भी नहीं था।यह सेक्रेड हार्ट कान्वेंट पाँचवीं तक ही था, मेरे आने के बाद उन्होनेसिर्फ एक लड़की के साथ छटी कक्षा शुरू की थी।   इसके अलावा वहाँ सहशिक्षा का सरकारी इंटर कॉलिज था जो उ.प्र. के बिजली विभाग के प्रबंधन में चल रहा था।यहाँ माध्यम हिन्दी था और इस छोटी सी जगह के विद्यालय ने एक वर्ष उ.प्र. बोर्ड का टॉपर दिया। यहाँ के छात्र अच्छे से अच्छे इजीनियरिंग कॉलिज और मैडिकल कॉलिजों में बिना किसी कोचिंग के प्रवेश पाते रहे थे।   यहाँ पर मेरी एक सहेली बनी साधना भार्गव, जिसकी शादी तय हो चुकी थी। वह पढ़ाई ख़त्म करके ओबरा में अपने माता पिता के साथ रह रही थी, बस इंतज़ार था कि कब उसका मंगेतर अमरीका से आये और वह शादी करके वहाँ जाये। वह शादी के सपने देखने में व्यस्त थी। उसके अपने कोई सपने थे ही नहीं। मैं शादी के लिये तैयार थी, पर उसे लेकर मेरे कोई सपने नहीं थे। मैं कुछ करना चाहती थी, पर लक्ष्य सुनिश्चित नहीं था, पी.एच.डी करने का सपना टूट सा चुका था। शायद मुझमें धैर्य की कमी थी और कोई मार्गदर्शक भी नहीं था।   यहाँ एक संगीत के शिक्षक श्री रवींद्र पाँडे भी थे, जो बनारस से … Read more

गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 3

गुज़रे हुए लम्हे

  आत्मकथा लेखन में ईमानदारी की बहुत जरूरत होती है क्योंकि खुद के सत्य को उजागर करने के लिए साहस चाहिए साथ ही इसमें लेखक को कल्पना को विस्तार नहीं मिल पाता | उसे कहना सहज नहीं होता | बहुत कम लोग अपनी आत्मकथा लिखते हैं | बीनू दी ने यह साहसिक कदम उठाया है | बीनू भटनागर जी की आत्मकथा “गुज़रे हुए लम्हे “को आप अटूट बंधन.कॉम पर एक श्रृंखला के रूप में पढ़ पायेंगे | गुज़रे हुए लम्हे -परिचय गुजरे हुए लम्हे -अध्याय 1 गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 2 अब आगे …. गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 3 बेफिक्र किशोरावस्था (लखनऊ.1963-67)   1963 में मैनपूरी के गवर्नमैंट गर्ल्स इंटर कॉलेज से इंटरमीडिएट की परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद फिर सवाल उठा कि अब बी.ए. कहाँ से करवाया जाये। उस समय अच्छा घर वर मिलने के लिये बी.ए. होना काफ़ी था। मैनपुरी में डिग्री कॉलिज था ही  नहीं तो तय किया गया कि लखनऊ के किसी कॉलिज में मेरादाख़िला करवा दिया जाये। उस समय बीबी लखनऊ आ चुकी थी परन्तु उनके ससुर का निधन होने के कारण ससुराल का सारा परिवार उनके पास था, अत: छात्रावास में ही रहने का निश्चय हुआ। उन दिनों दाख़िला मिलना कोई समस्या नहीं थी, जहाँ चाहें वहाँ मिल जाता था, जो विषय लेना चाहें मिल जाते थे। लखनऊ विश्वविद्यालय में भूगोल केवल एक दो कॉलिज में था। मेरी इच्छा थी कि मैं भूगोल लेकर आई. टी. कॉलिज में पढूँ, परन्तु मम्मी को किसी ने बता दिया था कि वहाँ का वातावरण बहुत स्वछंद है , छात्रावास की लड़कियाँ इधर उधर घूमती रहती हैं। मम्मी के दिमाग़ में कोई बात बैठ जाती थी तो फिर वो किसी की नहीं सुनती थीं। बस बी.ए .करना है विषय कुछ भी ले लो,तो मुझे महिला विद्यालय में दाख़िल करवा दिया गया।यहाँ पर मम्मी और मेरे पिताजी की अलग सोच का अंदाज़ होता है।पिताजी ने बीबी को11,12 साल पहले उत्तर प्रदेश के सबसे अच्छे विश्वविद्यालय में भेजा था जबकि मम्मी के लिये सिर्फ बी.ए. हो जाना काफ़ी था। वैसे भी मैं उनकी नज़र में उदण्ड और स्वछंद थी इसलिये मुझ पर बंदिशें ज्यादा थी। अकेली होने की वजह से वो ज़माने से डरती थीं। उनके अनुभवों ने उन्हे हर एक को शक के दायरेमें रखना सिखा दिया था।   महिला विद्यालय लखनऊ के अमीनाबाद में स्थित था, अभी भी है।जिन्होने लखनऊ नहीं देखा उन्हे बतादूँ कि अमीनाबाद दिल्ली के चाँदनी चौक या चावड़ी बाज़ार की तरह का पुराना बाज़ार है। महिला कॉलिज एक बहुत बड़ा कॉलेज/स्कूल है, अब पता नहीं…. पर उस समय यहाँ के.जी. से लेकर बी.ए. बीएड. किया जा सकता था । स्कूल की हर कक्षा के आठ दस सैक्शन थे। बी.ए. का एक बैच चार सौ पाँच सौ लड़कियों का होता था। सीटों की सीमा कहीं नहीं थी जो आ जाये जगह अपने आप बन जाती थी। पढ़ाई बहुत कम ख़र्च में बहुत अच्छी थी। तीन  छात्रावास थे एक इंटरमीडिएट तक की छात्राओं के लिये और बाकी डिग्री कॉलेज  की छात्राओं के लिये थे। अमीनाबाद जैसे बाज़ार में सड़क पर केवल गेट दिखता था, शायद अभी भी कोई बदलाव नहीं हुआ होगा। दुकानों के बीच, कोई अंदाज़ नहीं लगा सकता कि उसके भीतर इतना बड़ा कैंपस है, ये छात्रावास नहीं ये लड़कियों की जेल थी। यहाँ से कदम बाहर निकालने के लिये स्थानीय अभिभावक  की इजाज़त लेनी होती थी, बीच बाज़ार में होते हुए भी अपनी ज़रूरत की चीज़ लेने भी बाहर नहीं जा सकते थे। ज़रूरत का सामान छात्रावास की नौकरानी ही लाकर देती थी।कमरों में एक बल्ब की रौशनी के अलावा कोई सुविधा नहीं थी गर्मियों में पंखा भी किराये का मँगाते थे, वहाँ बिजली डी.सी. हुआ करती थी , डी सी बिजली के कारणपंखे भी धीरे धीरे चलते थे।गर्मियों में बरामदों में सोते थे। नीचे के फ्लोर वाली लड़कियाँ तो लॉन में अपनी चारपाई डाल लेती थीं। सर्दियों में नहाने का पानी मैस से लेने के लिये लाइन लगती थी, रोज तो  नहीं नहा पाते थे।मैस का खाना ठीक ठाक था। आठ लड़कियों पर एक नौकरानी होती थी जो उनके बर्तन धोती संभालती थी, कमरों में झाड़ू पोंछा करती थी और लड़कियों की ज़रूरत का सामान बाज़ार से लाकर देती थी। शाम की चाय के साथ कभी समोसे, कचौरी या पकौडी मिलती थीं, तो रात के खाने की छुट्टी हो जाती थी।   बी.ए. के सभी इम्तिहान यूनिवर्सिटी कैंपस में होते थे। एक दिन पहले ही जिनके इम्तिहान होते थे उनकी सूची बन जाती थी और मेट्रन सबको उनके परीक्षा भवन पर छोडकर वहीं कहीं इंतज़ार करती थी और रिक्शों में ही वापिस लेकर आती थी।यानी लड़कियों  को अपनी मर्ज़ी से हिलने की भी इजाज़त नहीं थी, सुरक्षा के पुख़्ता इंतज़ाम थे। हमें ये बाते उस वक़्त परेशान नहीं करती थी बल्कि सुरक्षित होने का अहसास होता था। हमें मिलने की इजाज़त केवल उन ही  लोगों से थी जिनके नाम और हस्ताक्षर घरवालों ने दे रखे हों।बीमार होने पर मेट्रन ही डॉक्टर के पास ले जा सकती थी।सिनेमा जाना होता था तो पहले सूची तैयार होती थी, यदि बीस नाम आगये तो मेट्रन के साथ रिक्शों में काफिला चलता था। पहुँचने पर देखा जाता था कि क़ैदी पूरे हैं कि नहीं , वापसी में भी गिनकर लाया जाता था।इस तरह एक दो बार मूवी देखने के बाद कभी कैदियों की तरह जाने का मन ही नहीं किया।   मैनपुरी से ही मेरे स्कूल की एक सहेली उषा कुशवाहा ने भी महिला कॉलिज में दाख़िला लिया था और छात्रावास में भी थी। मैनपुरी में हमारी काफ़ी दोस्ती भी थी। यहाँ बी. ए. में हमने बिलकुल अलग विषय लिये थे, धीरे धीरे मेरी और उसकी अलग अलग सहेलियाँ  बनने लगी और उसके साथ समय बहुत कम बीतने लगा।यहाँ मेरी दो ख़ास सहेलियाँ थीं ललिता कपूर और उमा अग्रवाल। ललिता के साथ दो विषय मिलते थे और उमा के साथ बस एक। दोनों ही छात्रवासीय थी।दिवसीय छात्राओं से दोस्ती करने का मौक़ा कम मिलता था हम दिन रात साथ रहने वाले ही बहुत थे।ललिता कपूर से अब तक संपर्क बना हुआ है पर उमा  से बी ए करने के बाद ही संपर्क कम होता चला गया, उसने संस्कृत मे ऐम ए किया था।उस समय पत्रों … Read more

गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 2

बीनू भटनागर

  आत्मकथा लेखन में ईमानदारी की बहुत जरूरत होती है क्योंकि खुद के सत्य को उजागर करने के लिए साहस चाहिए साथ ही इसमें लेखक को कल्पना को विस्तार नहीं मिल पाता | उसे कहना सहज नहीं होता | बहुत कम लोग अपनी आत्मकथा लिखते हैं | बीनू दी ने यह साहसिक कदम उठाया है | बीनू भटनागर जी की आत्मकथा “गुज़रे हुए लम्हे “को आप अटूट बंधन.कॉम पर एक श्रृंखला के रूप में पढ़ पायेंगे | अध्याय दो -थोडा खुश सा बचपन (हरिद्वार, अलीगढ़ और मैनपुरी 1956-63) बुलंदशहहर में मै जिस स्कूल में पाँचवीं कक्षा में गई मुझे उसका नाम याद नहीं है,पर मेरा नाम बीनू कैसे लिखवाया गया वह कहानी याद है। उस समय जन्म प्रमाणपत्र तो बनते नहीं थे, न नाम रखने की जल्दी होती थी, न स्कूल भेजने की जल्दी होती थी। मुन्नी, गुड़िया या गुड्डी से काम चल जाता था। स्वतंत्रता प्राप्त होने के एक महीने बाद आने के कारण स्वतंत्र कुमारी या स्वतंत्रता देवी जैसे नामों के सुझाव भी आये थे।बड़ी बहन कुसुम थीं. तो छोटी बहन का नाम कुमुद या कुमकुम घर वालों ने सोचा हुआ था। कुमकुम और कुमुद के बीच से एक चुनने की बात थी………………. फिर मैं बीनू कैसे हो गई! दरअसल हुआ यह कि मैं ख़ुद को बीनू कहने लगी थी। बचपन में एक दोस्त था जिसका नाम बीनू था, उस दोस्त की मुझे याद भी नहीं है, मैं उससे और उसके नाम से प्रभावित थी, इसलिये मैं ख़ुद को बीनू कहने लगी थी, बचपन में मेरी कितनी बातें मानी जाती रहीं थी ये तो नहीं पता ,पर स्कूल में मेरा नाम बीनू ही लिखा दिया गया, मेरी यह बात मान ली गई,काश यह बात न मानी गई होती तो अच्छा था। इस नाम के कारण जो परेशानियाँ उठानी पड़ीं, उनकी चर्चा आगे आने वाले पन्नों में करूँगी। हरिद्वार आकर मुझे बहुत अच्छा लगने लगा था मेरा छोटा सा भांजा था ,उससे खेलने में मज़ा आता था। मेरा दाखिला एक स्कूल में करवा दिया गया था जिसका मुझे नाम भी याद नहीं है, न किसी सहेली का न किसी अध्यापिका का चेहरा जेहन में है। ताज्जुब की बात ये है कि बुलंदशहर की सहेलियों दोस्तों की हल्की सी छवि दिमाग़ में है, पर हरिद्वार के स्कूल के बारे में कुछ याद ही नहीं है। यह स्कूल गंगा नहर के किनारे था, ब्रेक में पानी में पैर लटका कर सीढ़ियों पर बैठकर नाश्ता खाते थे।कोई हादसा न हो इसलिये आगे चेन लगी हुई थीं हरिद्वार के एक साल प्रवास की बस ये ही याद हैं। मैं हमेशा ही पढ़ाई ख़ुद कर लेती थी, वह कोई समस्या नहीं थी। हरिद्वार में भाई साहब का सरकारी बँगला था जो काफ़ी बड़ा था, ज़मीन भी बहुत थी, ख़ूब सब्ज़ियाँ होती थी। लॉन भी बहुत बड़ा और सुन्दर था। लाड़ प्यार और अनुशासन का सही समन्वय चल रहा था , मैं ख़ुश थी। बुलंदशहर में अब कोई नहीं था।भैया की पढ़ाई ख़त्म हो गई थी वह उत्तर प्रदेश सरकार में बिजली विभाग में इंजीनियर नियुक्त हो गये थे, उनकी पहली नियुक्ति मैनपुरी में हुई थी।मम्मी को उनके लिये अब लड़की की तलाश थी जो भैया के साथ साथ उनसे भी निभा सके।भैया की शादी तय हो गई । बुलंदशहर का जो सामान उन्होनें इधर उधर रखवा दिया था मैनपुरी भेजकर भैया का घर उसके साथ बसाना शुरू हो गया था।मम्मी मैनपुरी और सिकंद्राबाद के बीच आती जाती रहीं, नानी अकेली सिकंद्राबाद रहती रहीं थी, हालाँकि बहुत से रिश्तेदार उसी मकान के अलग अलग हिस्सों में रहते थे।ज़मीने ज़्यादातर बिक चुकी थीं, थोड़ी बहुत बाकी थीं। सिकंद्राबाद का मकान किसका था, किसने किराये पर लिया मुझे नहीं पता । नानी उपर के पिछले हिस्से में रहती थीं। नीचे उनकी छोटी बहन रहती थीं, बाकी हिस्से उनके दूसरे रिश्तेदार रहते थे। मेल मिलाप लड़ाई झगड़े सब होते थे, पर मुश्किल के समय पूरा कुनबा एक हो जाता था।वहाँ मेरे तो सारे मौसी मामा ही थे,उस समय आज की तरह आँटी अँकल नहीं कहलाते थे।।इस मकान का किराया 15 रु था जिसमें से मेरी नानी 3 रु देती थीं।कुनबे के एक सदस्य ये किराया किसको भेजते थे ,इसकी जानकारी मम्मी की कोशिशों के बाद उन्हे नहीं मिली। हरिद्वार से मैंने छटी कक्षा पास कर लीथी, अब मुझे मैनपुरी बुला लिया गया, मैं वहाँ सातवीं कक्षा में दाख़िल हो गई थी। यह सरकारी स्कूल था ,पर यहाँ पढाई बड़ी लग कर होती थी। हर विषय की बुनियाद काफ़ी मजबूत करवाई जाती थी। मुझे पढ़ाई बोझ नहीं लगती थी ,पढ़ना अच्छे नम्बर लाना मुझे अच्छा लगता था ,परन्तु घर में किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता था चाहें जैसे नम्बर आयें। मम्मी का क्रोध भी कम होने लगा था। 1957 नवम्बर के महीने में भैया की शादी हो गई, बारात बस द्वारा मैनपुरी से मथुरा गई थी । बारात उन दिनो तीन दिन रुकती थी। शादी के बाद भैया को छोड़कर सारे बाराती वृंदाबन घूमने गये, भैया को उनके ससुराल वालों ने रोक लिया था। वृंदावन में एक हादसा हो गया जो आज भी मेरे ज़हन में ताज़ा है। वहाँ निधि वन में मैं अपने रिश्तेदारों को छोड़कर किसी दूसरे समूह के साथ चलने लगी कुछ देर बाद अंदाज़ हुआ कि अपने लोग नहीं हैं, सब अजनबी हैं। मैं अपनों से बिछड़कर रोने लगी, मुझे न मथुरा का पता मालूम था, न बस के बारे में कि कहाँ खड़ी है।एक भले परिवार ने मुझे मेरे परिवार से मिलाने की ज़िम्मेदारी उठाई बहुत पूछने पर मैं जो कुछ बता पाई उस मंदिर के बारे में जहाँ हमारी बस खड़ी थी,उसी जानकारी के आधार पर वे लोग मुझे बस तक पहुँचा गये।मैने भी बस चालक को पहचान लिया तो वे लोग चले गये। सारे रिश्तेदार मुझे ढूँढने निकल पड़े थे, सबसे ज्यादा परेशान सुरेन भैया और भाई साहब थे, क्योंकि सबसे ज्यादा जिम्मेदारी उनकी ही थी,सबसे नज़दीकी वो दोनो ही थे । सबको इक्ट्ठा करने में वक़्त लगा ।बस अंत भला तो सब भला !अब भी सोच के डर लगता है कि भले परिवार की जगह किसी ग़लत गिरोह के लोग होते तो न जाने मेरी ज़िन्दगी क्या होती, पर जो नहीं हुआ उसके बारे में ज्यादा न सोचूँगी न … Read more

गुजरे हुए लम्हे -अध्याय एक

शैशव व कुछ घबराया सा बचपन

  हम सब का जीवन एक कहानी है पर हम पढ़ना दूसरे की चाहते हैं | कोई लेखक भी अपनी कहानियों में अपने आस -पास की घटनाओं को संजोता है | कोई लेखक कितनी भी कहानियाँ लिखे उसमें उसके जीवन की छाया या दृष्टिकोण रहता है ही है| आत्मकथा उनको परदे में ना कह  कर खुल कर कहने की बात है | आत्मकथा लेखन में ईमानदारी की बहुत जरूरत होती है क्योंकि खुद के सत्य को उजागर करने के लिए साहस चाहिए साथ ही इसमें लेखक को कल्पना को विस्तार नहीं मिल पाता | उसे कहना सहज नहीं होता | बहुत कम लोग अपनी आत्मकथा लिखते हैं | बीनू दी ने यह साहसिक कदम उठाया है | इस आत्मकथा “गुज़रे हुए लम्हे “को आप अटूट बंधन.कॉम पर एक श्रृंखला के रूप में पढ़ पायेंगे |     अध्याय 1 शैशव व कुछ घबराया सा बचपन (बुलंदशहर1947-56)   1947  सितम्बर  का महीना अफरा तफरी का माहौल, स्वतंत्रता मिलने  की ख़ुशी और विभाजन की त्रासदी, उत्तर प्रदेश का एक छोटा सा शहर………… बुलंदशहर ,वहाँ श्री त्रिलोकीनाथ भटनागर का परिवार  जहाँ से ये कहानी शुरू हुई। श्री त्रिलोकी नाथ के बहुत से रिश्तेदार पाकिस्तान की तरफ रहते थे,  जिन्होंने आकर उनके यहाँ शरण ली थी।  करीब पन्द्रह बीस लोग तो अवश्य वहाँ आये हुए थे ,उनकी हर तरह से देख भाल की ज़िम्मेदारी त्रिलोकीनाथ जी और उनकी पत्नी की थी। त्रिलोकी नाथ जी बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय से इंजीनियर थे, और बिजली  वितरण  की एक कंपनी में उच्चाधिकारी थे।ज़िलाधिकारियों से उनकी अच्छी जान पहचान,उठना बैठना था। संपन्न परिवार था,रिश्तेदार उनके यहाँ चाहें जितने समय तक रह सकते थे। काम करने के लिये भी नौकरों चाकरों  की कमी  नहीं थी। त्रिलोकी नाथ जी की तीन संतानें थी सबसे बड़े रवींद्रनाथ उस समय 16 वर्ष के थे, बेटी कुसुम 13 साल की और छोटे बेटे सुरेंद्र नाथ 11 साल के थे। 11साल बाद उनकी पत्नी फिर गर्भवती थीं, इस समय बहुत बड़ा घर भी मेहमानों से भरा हुआ था इसलिये वे अधिक आराम भी नहीं कर पाती थीं। 14  सितम्बर की रात में शील भटनागर जी ने एक बेटी को जन्म दिया। जी हाँ, आपने सही समझा,  ये मैं ही हूँ, जिसने बटवारे और आज़ादी मिलने के बाद दुनिया में कदम रखा। श्री त्रिलोकीनाथ और श्रीमती शील भटनागर की सबसे छोटी संतान।   अब मैं अपनी कहानी अपनी ज़ुबानी कहूँगी। मेरे दादा दादी का घर अंबाला में था , परंतु वे मेरे जन्म से बहुत पहले परलोक सिधार गये थे, दादा जी वकील थे अंबाला में बहुत अच्छी प्रैक्टिस थी, वहाँ के धनी लोगों में से एक थे ,उनकेएक बेटीऔर तीन बेटे थे । मेरे पिताजी सबसेछोटेऔर सबसेकाबिलथे । छोटे ताऊ जी भी वकील थे ,अच्छा कमाते थे ,पर कुछ बुरी आदतों की वजह से कभी सुख चैन से अपनी गृहस्थी सही तरीके से नहीं संभाल पायेथे। भुआ जल्दी ही गुज़र गईं थीं,बड़े ताऊ जी को भी मैंने नहीं देखा था,हाँ दोनों ताई जी की याद हैं।   माँ को मैं मम्मी ही कहती थी,  वे दो बहने थीं, बड़ी बहन की युवावस्था में ही मृत्यु हो गई थी इसलिये हमें हमेशा यही लगा कि वे अपने माता पिता की इकलौती संतान थीं। नानाजी बुलंदशहर के पास ही एक कस्बे सिकंद्राबाद में रहते थे। वे एक स्कूल में अध्यापक थे, छात्रावास के वार्डन भी थे। आसपास पास के गाँव  से बच्चे आकर छात्रावास में रहते थे ।गाँवों के बच्चों के लिये छोटे कस्बों के मामूली स्कूलों में भी  उन दिनों छात्रावास की व्यवस्था होती  थी। नानाजी के छात्रावास में एक लड़का चोखे  लाल काम करता था, ये आगे जाकर हमारे परिवार का अहम हिस्सा बना , इस वजह से इनका यहाँ जिक्र किया है। मेरे नानाजी बहुत संपन्न नहीं थे, पर कोई कमी भी नहीं थी,वे हमेशा किराये के घर में रहे , अपनी छोटी सी तनख़्वाह से खेती के लिये ज़मीनें और फलों के बाग़ ख़रीदते रहते थे । यह उनके निवेश का तरीका था। यह जमीनें वे खेती करने के लिये किसानों को ठेके पर दे देते थे, जिससे फसल का कुछ हिस्सा और कुछ अतिरिक्त सालाना आमदनी हो जाती थी। नानी के घर में हमेशा ताजी खेत की सब्जियाँ और मौसम के फल होते थे,  अनाज भी सब उनके  अपने खेतों का ही होता था।  सेवानिवृत्त होने के बाद तो नाना जी का पूरा ध्यान खेती पर ही रहा, अच्छी आमदनी होती तो और खेती की ज़मीन ख़रीद ले लेते थे,पर कभी मकान बनाने पर विचार नहीं किया।यह किराये का मकान ही सदा उनका घर रहा यहाँ का माहौल भी कुछ विचित्र सा था जिसकी चर्चा फिलहाल स्थगित करती हूँ, आगे आने वाले पन्नों में जरूर करूँगी।   जिस घर में मेरा जन्म हुआ था ,पहले नौ वर्ष उसी घर में बीते, कुछ याद है, कुछ तस्वीरें हैं , कुछ सुनी हुई बातें हैं। वह बहुत बड़ी दो मंज़िला कोठी थी, जिसको पिताजी की कंपनी ने किराये पर लिया हुआ था, उसके एक हिस्से में उनका दफ्तर था। मेरे जन्म से 14,15 साल पहले से मेरा परिवार उसी कोठी में रहता था। मुझे बताया गया था कि मेरे बड़े भाई जिनका मैं जिक्र कर चुकी हूँ उनको छोड़कर मेरी बहन और दूसरे भाई भी उसी कोठी में पैदा हुए थे। मेरे पिताजी का अंग्रेजों के साथ उठना बैठना था इसलिये हमारे परिवार में थोड़ी अंग्रेज़ियत थी,जैसे डाइनिंग टेबुल पर खाना खाना, अलग ड्राइंग रूम होना। बाकी सामान याद नहीं पर वह डाइनिंग टेबल बहुत बड़ी और भारी थी। मेरे कज़िन ने बतायाथा कि वह डाइनिंग टेबुल सिकंद्राबाद के एक बढ़ई मंगत ने बनाई थी। 30 के दशक के पूर्वार्द्धमें मम्मी  के दहेज़ में आई थी। वह डाइनिंग टेबुल बिना किस्सी मरम्मत के मेरे इन ही कज़िन के घर मे अभी भी उपयोग में है। बस उसमें उन्होंने टॉप पर लाल रंग का माइका लगवा लिया है।संभवतः बाकी फर्नीचर भी वहीं का बना हुआ था।   पिता जी की कंपनी ने उन्हें दो तीन नौकर और एक रसोइया घरेलू काम के लिये दे रखेथे। रसोइये की जगह मेरे नाना जी ने अपने छात्रावास से चोखे लाल को भेज दिया था। वह खाना बनाने काम बहुत अच्छी तरह से सीख चुके थे। हमारे घर … Read more

गुज़रे हुए लम्हे – परिचय

गुज़रे हुए लम्हे

हम सब का जीवन एक कहानी है पर हम पढ़ना दूसरे की चाहते हैं | कोई लेखक भी अपनी कहानियों में अपने आस -पास की घटनाओं को संजोता है | कोई लेखक कितनी भी कहानियाँ लिखे उसमें उसके जीवन की छाया या दृष्टिकोण रहता है ही है| आत्मकथा उनको परदे में ना कह  कर खुल कर कहने की बात है | आत्मकथा लेखन में ईमानदारी की बहुत जरूरत होती है क्योंकि खुद के सत्य को उजागर करने के लिए साहस चाहिए साथ ही इसमें लेखक को कल्पना को विस्तार नहीं मिल पाता | उसे कहना सहज नहीं होता | बहुत कम लोग अपनी आत्मकथा लिखते हैं | बीनू दी ने यह साहसिक कदम उठाया है | इस आत्मकथात्मक उपन्यास “गुज़रे हुए लम्हे “को आप अटूट बंधन.कॉम पर एक श्रृंखला के रूप में पढ़ पायेंगे |   गुज़रे हुए लम्हे – परिचय   समर्पण     गुज़रे हुए लम्हे मैं, मेरे स्वर्गीय माता-पिता श्री त्रिलोकी नाथभटनागरऔरश्रीमती शील भटनागरकी स्मृतियों को समर्पित करती हूँ, जिनकी वजह से मैं हूँ और येगुज़रे हुए लम्हे है |   विषय-क्रम क  आत्मकथा की परिधि में (दोहे) ख स्वानुभूति ग आत्मकथा लिखते लिखते(कविता) अध्याय -विषय          समय                      शहरपृष्ठ                                                                           1शैशव व कुछ घबराया        1947-56बुलंदशहर सा बचपन 2 ख़ुश सा बचपन             1956-1963    हरिद्वार, अलीगढ़ और मैनपुरी 3 बेफिक्र किशोरावस्था        1963-67लखनऊ 4 उलझनों में घिरा यौवन       1967- 69             लखनऊ ओबरा उ.प्र. व विवाह समारोह 5 विवाह के बाद              1969-72ग्वालियर, कोरेगाँव, काज़ीपेट 6 मुश्किल वक़्त मे धैर्य       1972- 78शोलापुर, सिकंद्राबाद 7महानगरीय जीवन         1978 –82 , दिल्ली का आरंभ 8 बच्चे बड़े हो रहे थे        1982 -91 , दिल्ली 9ग्वालियर छोड़ना            1991-96 ,दिल्ली 10 लेखन की शुरुआत         1896-2000, दिल्ली 11अमरीका यात्रा और सेवानिवृति2001 से06 दिल्ली 12 साहित्यिक गतिविधियाँ   2006- अब तक ,दिल्ली 13 कभी ख़ुशी कभी ग़म       2006- अब तक ,दिल्ली 14यात्रा वृत्त2011अब तक       केरल दार्जिलिंग गैंगटाक उत्तराखंड,ग्वालियर उपसंहार   संस्मरण तालिका शीर्षक पृष्ठ संख्या 1आरयूरैड्डी? 2 चित्रकला 3 अपूर्व का पहला सप्ताह स्कूल में 4 अगले 6 महीने में स्कूल मे 5 एकाग्रता 6 कार का पहिया निकलने वाला है 7चॉकलेट 8 रक्षाबंधन पर निबंध 9 मैं और मेरा बेटा 10 नाम गुम जायेगा 11आइने 12आत्मव्यथा(अँश) 13 नाम में क्या रखा है(अंश) 14 किताब तो छप गई मगर 15 शुगरफ्री         आत्मकथा की परिधि में आत्मकथा की परिधि में, सच्चे सब अहसास, झूठा सच्चा काल्पनिक, नहीं लिखा इतिहास।1। आत्मकथ्य लिखते हुए, कभी छू दिये घाव मरहमपट्टी हो रही, शब्दों से सहलाव।2। आत्मकथ्य की सिलवटें, कुछ उलझे से तार, गाँठें सुलझाती गई, शब्द-भाव विस्तार।3। संस्मरण जुड़ते गये, आत्मकथा के संग, समय- सिंधु मे उठ रहीं, देख अमित तरंग!4। आज बुनू कल उधेड़ूँ, अपना ही इतिहास, कलमबद्ध हो रहे हैं, जीवन के अहसास।5। शब्दों की बेचैनियाँ, भीतर हैं तूफ़ान, लिखना चाहूँ कुछ मगर, कलम खड़ी हैरान।6। समय सरित की धार में, उतरी जब हर बार, कभी अमोलक पल मिले, मिले न वही उधार।7। आत्मकथ्य की पुस्तिका, कितने ही किरदार, यात्रा सत्तर वर्ष की, स्मृतियाँ ही आधार।8। गगरी जीवन वृत्त की, डालूँ पल दिन रैन, आत्मकथा पूरी करूँ, शब्द शब्द बेचैन!9। सागर गहरा वक़्त का, उतरी हूँ बहु बार, चुन के मोती लाउँगी, आत्मकथा विस्तार।10। खलिहानों में समय के, यादों के भंडार, धीरे धीरे बह रहे, काग़ज पर उद्गार।11। यादों की मरुभूमि में, खिलते कैक्टस-फूल, फूल संग काँटे घने, उड़ती है बस धूल।12। आत्मकथ्य की डोरियाँ, उलझे जब विश्वास, सुलझाया कुछ इस तरह, दी न बिखरने आस।13। आत्मकथा के सिंधु में, नदियाँ ही किरदार, संगम भी बनते गये, सूखी भी मझधार।14 । सच्चे मोती पिर रहे आत्मकथा के तार, मुतियन की माला पहन, दूँ ख़ुद को उपहार।15। क़लम हाथ में आ गई,आँखों में कोई याद, कानों में अब गूँजते, बीते पल के नाद ।16। यादों की ये पोटली,बाँधी अनुभव डोर, कभी दर्द दे जाय है, मन हो कभी विभोर।17। उलझी सी थीं डोरियाँ, सुलझाये सब तार, शब्दों में पिरते गये, यादों के अम्बार।18। याद पुरानी आ गईं, जब भी मन के द्वार, संस्मरण रचती रही, यादों के विस्तार।19। बीते वक़्त की दास्तां, नहीं रेत पर नाम, हवा समय की उड़ा दे, ये ऐसा न कलाम।20। यादें जुड़ जुड़ कर बनी,आत्मकथा की डोर, सिरा आख़िरी बुन रही,पल पल रही निचोर।21।         स्वानुभूति कभी मैने ही किसी और संदर्भ में लिखा था ‘गुज़रे हुए लम्हों का कोई मोल नहीं है,जो बीत गया उसे बीत जाने दो’ सही है, भूतकाल में जीने का कोई अर्थ नहीं है, यदि वो आपके पुराने घावों को ताज़ा करे। गुज़रे हुए लम्होंको याद करके एक एक पल दोबारा जीना,उन्हे लिखना सुकून पहुँचा रहा है, तो उसे लिखना अच्छा है।डायरी लिखना तो मनोचिकित्सा का अंग है ।मेरे लेखन का तो आरंभ ही यहीं से हुआथा।डायरी लिखते लिखतेकवितायें लेख, कहानियाँ,संस्मरण, यात्रा संस्मरण, साहित्यिक निबंध, व्यंग्य और रिपोतार्ज  लिखती रही, प्रकाशित होते रहे। गुरुवरस्व. प्राण शर्मा जी का मार्गदर्शन भी मिलता रहा। आत्मकथा और डायरी लेखन में कथा वही होती है, पर लिखने का अंदाज़ अलग होता है।आत्मकथा में भी सच्चाई ही होती है और डायरी में भी सच्चाई ही होती है। यदि पूरी सच्चाई नहीं हो तो वो आत्मकथा पर आधारित उपन्यास होता है, आत्मकथा नहीं, जैसे चेतन भगत का ‘’द टूस्टेट्स। ‘’ आत्मकथा लिखने में मेरी यही कोशिश रहेगी कि मेरे आस पास के किसी व्यक्ति को कोई भावनात्मक ठेस न पहुँचे क्योंकि किसी एक घटना को देखने का नज़रिया दो लोगों का एक सा नहीं होता है।यदि किसी प्रियजन की भावना अंजाने में ज़रा भी आहत होती है, तो उसके लिये मैं पहले ही क्षमा माँग लेती हूँ। आम तौर पर जानी मानी हस्तियाँ आत्मकथा लिखती हैं या लिखवाती हैं, क्योंकि उनकी ज़िन्दगी में झाँकने की लोगों में दिलचस्पी होती है। एक आम इंसान की ज़िंदगी मे भी संधर्ष, चुनौतियाँ, रिश्ते उनको निभाने की ज़िम्मेदारी होती है।यदि प्रस्तुतीकरण अच्छा हो तो कोई भी आत्मकथा रोचक हो सकतीहै। आत्मकथा व्यक्ति के जीवन मे घटी घटनाओं का ब्योरा ही नहीं होता, उसमें विचार होते हैं, संधर्ष होते है, किरदार होते है, रिश्ते होते है, अच्छे बुरे दिन होते है।उपन्यास की तरह उत्कर्ष और अंत नहीं होता, पर उत्सुकता जीवंत रहती है, ख़ासकर लिखने वाला यदि कोई आम … Read more