कलर ऑफ लव – प्रेम की अनूठी दास्तान

कलर ऑफ लव

  प्रेम जो किसी पत्थर हृदय को पानी में बदल सकता है, तपती रेत में फूल खिला सकता है, आसमान से तारे तोड़ के ला सकता है तो क्या किसी मासूम बच्चे में उसकी उच्चतम संभावनाओं को विकसित नहीं कर सकता | क्या माँ और बच्चे का प्रेम जो संसार का सबसे शुद्ध, पवित्र, निश्चल प्रेम माना जाता है, समाज की दकियानूसी सोच, तानों -उलाहनों को परे धकेलकर ये करिश्मा नहीं कर सकता है?  एक माँ का अपनी बेटी के लिए किया गया ये संघर्ष ….संघर्ष नहीं प्रेम का ही एक रंग है | बस उसे देखने की नजर चाहिए |    ऐसे ही प्रेम के रंग में निमग्न वंदना गुप्ता जी का  भारतीय ज्ञानपीठ/वाणी से प्रकाशित उपन्यास “कलर ऑफ लव” समस्या प्रधान एक महत्वपूर्ण उपन्यास है| ये उपन्यास “डाउन सिंड्रोम” जैसी एक विरल बीमारी की सिर्फ चर्चा ही नहीं करता बल्कि उसके तमाम वैज्ञानिक और मानसिक प्रभावों पर प्रकाश डालते हुए एक दीप की तरह निराशा के अंधकार में ना डूब कर कर सकारात्मकता की राह दिखाता है | अभी तक हिंदी साहित्य में किसी बीमारी को केंद्र में रख कर सजीव पात्रों और घटनाओं का संकलन करके कम ही उपन्यास लिखे गए है | और जहाँ तक मेरी जानकारी है “डाउन सिंड्रोम” पर यह पहला ही उपन्यास है |  कलर ऑफ लव -डाउन सिन्ड्रोम पर लिखा गया पहला और महत्वपूर्ण उपन्यास   Mirrors should think longer before they reflect. – Jean Cocteau           अगर कोई ऐसा रोग ढूंढा जाए जो सबसे ज्यादा संक्रामक है औ पूरे समाज को रोगग्रस्त करे हुए है तो वो है तुलना | जबकि हर बच्चा, हर व्यक्ति  प्रकृति की नायाब देन है, जो अपने विशेष गुण के साथ पैदा होता है बस जरूरत होती है उसे पहचानने की, उसे उसके हिसाब से खिलने देने की |  ऐसा ही एक विशेष गुण है “डाउन सिंड्रोम” .. ये कहानी है एक ऐसी ही बच्ची पीहू की जो इस विशेष गुण के साथ पैदा हुई है |    शब्दों का हेर-फेर या  समझने का फ़र्क  कि जिसे विज्ञान की भाषा “सिन्ड्रोम” का नाम देती है, प्रकृति प्रयोग का नाम देती है | ऐसे ही प्रयोगों से निऐनडेरथल मानव से होमो सैपियन्स बनता है और होमो फ्यूचरिस की संभावना प्रबल होती है | इसलिए प्रकृति की नजर में “डाउन सिन्ड्रोम” महज एक प्रयोग है .. जिसमें बच्चे में 46 की जगह 47 गुणसूत्र होते है | इस एक अधिक गुणसूत्र के साथ आया बच्चा कुछ विशेष गुण के साथ आता है | जरूरत है उस विशेष गुण के कारण उसकी विशेष परवरिश का ध्यान रखने की, तो कोई कारण नहीं कि ये बच्चे खुद को सफलता के उस पायदान पर स्थापित ना कर दें जहाँ  तथाकथित तौर पर सामान्य कहे जाने वाले बच्चे पहुंचते हैं|  यही मुख्य उद्देश्य है इस किताब को लिखे जाने का |    “कलर ऑफ लव”  उपन्यास मुख्य रूप से एक शोध उपन्यास है जिसे उपन्यास में पत्रकार सोनाली ने लिखा है |  छोटे शहर से दिल्ली तबादला होने के बाद सोनाली की मुलाकात अपनी बचपन की सहेली मीनल और उसकी बेटी पीहू से होती है | पीहू “डाउन सिन्ड्रोम” है| दोनों सहेलियाँ मिलती है और मन बाँटे जाने लगते हैं | संवाद शैली में आगे बढ़ती कथा के साथ सोनाली  पीहू और उसकी माँ मीनल के संघर्ष की कहानी  जान पाती है| पन्ना दर पन्ना जिंदगी खुलती है और अतीत के अनकहे दर्द, तनाव, सफलताएँ सबकी जिल्द खुलती जाती है | पर पीहू और मीनल के बारे में जानने  के बाद सोनाली की रुचि “डाउन सिन्ड्रोम के और शोध में बढ़ जाती है | और जानकारी एकत्र करने के लिए वो विशेष स्कूल के प्रिन्सपल ऑफिस में जाकर केसेस डिस्कस करती है | इन बच्चों के विकास में लगे फ़ेडेरेशन व फोरम जॉइन करके जानकारियाँ और साक्ष्य जुटाती है | एक तरह से नकार, संघर्ष, स्वीकार  और जानकारियों का  कोलाज है ये उपन्यास | जो काफी हद तक  असली जिंदगी और असली पात्रों की बानगी को ले  कर बुना गया एक मार्मिक पर सकारात्मक दस्तावेज है |   इस उपन्यास के चार  महत्वपूर्ण बिन्दुओं पर बात करना पाठकों के दृष्टिकोण से सुविधाजनक रहेगा|  समाज में व्याप्त अशिक्षा  रोगग्रस्त बच्चे के परिवार, विशेषकर माँ का का घर के अंदर और बाहर का संघर्ष  उन बच्चों की चर्चा जिन्होंने “डाउन सिंड्रोम” जैसी बीमारी के बावजूद सफलता के परचम लहराए | जीवन दर्शन जो व्यक्ति को सहज जीवन को स्वीकारने का साहस देता है|    कोई भी अवस्था समस्या तब बनती  है जब समाज में उसके  बारे में पर्याप्त जानकारी ना हो | जैसे बच्चे के जन्म के समय ही यह बातें होने लगती हैँ, “की उसके हाथों में एक भी  लकीर नहीं है, ऐसे बच्चे या तो घर छोड़ देते है या फिर बड़े सन्यासी बन जाते हैं |”   “देख सोनाली, मेरे पीहर में मेरी चाची के एक चोरी हुई थी| जिसकी बाँह के साथ दूसर बाँह भी निकलने के लिए बनी हुई थी |पीर बाबा है, उन्होंने जैसे  ही निगाह डाली वो माँस का लोथड़ा टूट कर गिर गया | तब से आज तक बच्ची बिल्कुल मजे से जी रही है|”      इस अतिरिक्त भी लेखिका ने कई उदाहरण दिए है  जहाँ गरीबी अशिक्षा के चलते लोग  डॉक्टर या विशेष स्कूल की तरफ ना जाकर किसी चमत्कार की आशा में अपनी ही बगिया के फूल के साथ अन्याय करते है | दरअसल अशिक्षा ही नीम हकीम और बाबाओं की तरफ किसी चमत्कार की आशा में भेजती है और इसी के कारण ना तो बच्चे का विकास सही ढंग से हो पाता है ना समाज का नजरिया बदल पाता है|    आज जब की पूरे विश्व में “प्रो. लाइफ वर्सिज प्रो चॉइस” आंदोलन जोर पकड़ रहा है | लेखिका एक ऐसी माँ  की जीवन गाथा लेकर आती है जो डॉक्टर द्वारा जन्म से पहले ही बच्चे को “डाउन सिंड्रोम” घोषित करने के बावजूद अपने बच्चे के जन्म लेने के अधिकार के साथ खड़ी  होती है | यहाँ जैसे दोनों तर्क मिल जाते हैं | क्योंकि ये भी एक चॉइस है जो लाइफ के पक्ष में खड़ी है| एक माँ के संघर्ष के अंतर्गत लेखिका वहाँ से शुरू करती हैं  जहाँ एक माँ को … Read more

उर्मिला शुक्ल के उपन्यास बिन ड्योढ़ी का घर भाग – तीन का अंश

बिन ड्योढ़ी का घर भाग -3

यूँ  तो अटूट बंधन आगामी पुस्तकों  के अंश प्रस्तुत करता रहा है l इसी क्रम में आज हम आगामी पुस्तक मेले में में लोकार्पित एक ऐसे उपन्यास का अंश प्रस्तुत करने जा रहे हैं, जो हिन्दी साहित्य जगत में एक इतिहास बना रहा है l ये है एक उपन्यास का तीन भागों  का आना l  अंग्रेजी में “उपन्यास त्रयी हम सुनते रहे हैं पर हिन्दी में ऐसा पहली बार हो रहा है l विशेष हर्ष की बात ये हैं कि  इस द्वार को एक महिला द्वारा खोला जा रहा है l ‘बिन ड्योढ़ी का घर’ के पिछले दो भागों की विशेष सफलता के पश्चात छत्तीसगढ़ के आदिवासी जिलों के लोक को जीवित करती ये कहानी आगे क्या रूप लेगी ये तो कहानी पढ़ कर ही जाना जा सकेगा l फिलहाल उर्मिला शुक्ल जी को बहुत बहुत बधाई और शुभकामनाएँ के साथ उपन्यास का एक अंश “अटूट बंधन” के पाठकों के लिए बिन ड्योढ़ी का घर भाग – तीन उपन्यास अंश   भाऊ अब अतीतमुखी हो गये थे | सो वर्तमान को भूलकर ,अपने किशोरवय और यौवन में टहल रहे थे | अब वे भाऊ नहीं सखाराम थे | बालक और युवा सखाराम | सो कभी उन्हें अपना गाँव याद हो आता ,तो कभी युवा जलारी | बचपन की यादों में याद आती वह नदी ,जो बारिश में तो इस कदर उफनती कि सामने जो भी आता, उसे बहा ले जाती ,पर बारिश के बीतते ही वह रेत का मैदान का बन जाती | नदी स्कूल के पीछे बहती थी | सो छुट्टी होते ही सखाराम की बाल फ़ौज वहाँ जा पहुँचती फिर शुरू हो जाती रेत दौड़ | लक्ष्य होती वह डाल ,जिसकी शाखें नदी में झुक आयी थीं | रेत में दौड़ना आसान नहीं होता फिर भी बच्चे दौड़ते, गिरते फिर उठते | वह डाल बहुत दूर थी | हर कोई उसे छू नहीं पाता ,बस सखाराम और सखु ही वहाँ तक पहुँचते | दोनों घंटो डाली पर लटक – लटककर झूला झूलते | सखु बहुत अच्छी लगती थी उसे | वह उसके लिए थालीपीठ (मोटी रोटी ) लाया करती | सखा को जुवारी ( ज्वार ) की थालीपीठ बहुत पसंद थी | खेलने के बाद दोनों थालीपीठ खाते और घंटों बतियाते | उनकी बातों में सखु की आई (माँ ) होती ,उसके भाई बहन होते और होतीं उसकी बकरियाँ | सखाराम की बातों में परिवार नहीं होता | परिवार को याद करते ही सबसे पहले आई ( सौतेली माँ ) का चेहरा ही सामने आता और याद हो आतीं उसकी ज्यादतियाँ और पिता की ख़ामोशी ,जिसे याद करने का मन ही नहीं होता | सो उसकी बातों में उसके खेल ही होते | सखा भौंरा चलाने में माहिर था | भौंरा चलाने में उसे कोई हरा नहीं पाता | उसका भौंरा सबसे अधिक देर तक घूमता | इतना ही नहीं वह भौंरे में डोरी लपेट , एक झटके से छोड़ता और उसके जमीन पर जाने के पहले ,उसे अपनी ह्थेली पर ले लेता | भौंरा उसकी हथेली पर देर तक घूमता रहता | सखु को उसका भौंरा नचाना बहुत पसंद था | वह नदी के किनारे के पत्थर पर अपना भौंरा नचाता और सखु मुदित मन देखा करती |   फिर उनकी उम्र बढ़ी ,बढ़ती उम्र के साथ उनकी बातों का दायरा भी उनके ही इर्द गिर्द सिमटने लगा | सो एक दिन सखा ने पूछा – “सखु तेरे कू भौंरा पसंद है |” “हो भोत पसंद |” “मय इस बार के मेला से बहुत सुंदर और बड़ा भौंरा लायेंगा | लाल,हरा और पीला रंग वाला |” “वो भौंरा बहुत देर तलक नाचेंगा क्या?” कहते सखु की आँखों में ख़ुशी थिरकी | “हाँ जेतना देर तू कहेगी वोतना देर |” कहता सखा उस थिरकन को देखता रहा | उस दिन उसने पहली बार गौर से देखा था | सखु सुंदर थी और उसकी आँखें तो बहुत ही सुंदर |जैसे खिलते कँवल पर झिलमिल करती सुबह की ओस | सो देर तक उसकी आँखों को देखता रहा | उसकी आँखों की वह झिलमिल उसके मन में उतरती चली गयी | अब सखा को मेले का इंतजार था | वह चाहता था कि मेला जल्दी आ जाए ,पर मेला तो अपने नियत समय पर यानी माघ पुन्नी को ही भरना था, पर सखा के दिलो दिमाग में तो मेला ही छाया हुआ था | सो वह सपने में भी मेला जाता और भौंरों के ढेर से सबसे सुंदर भौंरा ढूँढ़ता | अब खेल के समय ,वे खेलते कम बातें ज्यादा करते | बातें भी सखा ही करता | वह भी मेले और भौंरे की बातें | ऐसे ही एक दिन – “ क्यों रे सखु अपुन संग – संग मेला घूमें तो ?” “तेरे संग ? नको आई जानेच नई देगी |” “हव ये बात तो हय | पन तू मेला देखने जाती न ?” “हो पिछला बरस तो गया | आई ,भाऊ, ताई सब गया था |” सखु पिछले मेले के बारे में बता रही थी और सखा आने वाले मेले की कल्पना कर रहा था | वह सोच रहा था ‘अगर मेले में सखु मिल जाय तो ? पन कैसे?’ कुछ देर सोचता रहा फिर –“सुन तू जब मेले को निकलेंगी न ,मेरे कू बताना | मय संग – संग चलेंगा |” “ये पगला है क्या रे ? भाऊ देखेंगा तो मारेंगा तेरे कू |” सखा का दिमाग सटक गया -“काहे ? डगर उसके बाप की है क्या?” फिर उसे याद हो आया ,ऐसे तो वह सखु के बाप तक चढ़ रहा है | सो तुरंत ही मिश्री घोली –“ तू ठीक कहती | अइसे संग – संग जाने से पंगा होयेंगा | पन मैं तुम लोग के पीछू – पीछू चले तो ?” “हव ये सही रहेंगा |” सो उनके बीच तय हो गया कि मेले वाले दिन वे सुबह नदी पर मिलेंगे | सखु उसे मेला जाने का समय बताएगी और वह उनके पीछे चल पड़ेगा | सो उनका समय मेले की कल्पनाओं में बीतने लगा | सखा मेले की ही बातें करता | एक दिन उसने पूछा –“बता तू मेले से क्या लेंगी |” “मय ? लाल रंग का फीता और जलेबी | मेरे … Read more

बेगम हज़रत महल- एक निम्नवर्ग में जन्मी लड़की से बेगम हज़रत महल बनने तक की संघर्षमय गाथा

बेगम हज़रत महल- एक निम्नवर्ग में जन्मी लड़की से बेगम हज़रत महल बनने तक की संघर्षमय गाथा

  1857 का संग्राम याद आते ही लखनऊ यानी की अवध की बेगम हज़रत महल के योगदान को कौन भूल सकता है l  खासकर तब जब आजादी के अमृत महोत्सव मना रहा देश अपने देश पर जाँ निसार करने वाले वीरों को इतिहास के पीले पन्नों से निकाल कर फिर से उसे समकाल और आज की पीढ़ी से जोड़ने का प्रयास कर रहा हो l कितनी वीर गाथाएँ ऐसी रहीं, जिन्होने अपना पूरा जीवन अंग्रेजों से संघर्ष करते हुए बिता दिया और हम उन्हें कृतघ्न संतानों की तरह भूल गए l बेगम हज़रत महल उन्हीं में से एक प्रमुख नाम है l   किसी भी ऐतिहासिक व्यक्तित्व पर लिखना आसान नहीं होता l ज्ञात इतिहास ज्यादातर जीतने वाले के हिसाब से लिखा जाता है जो कई बार सत्य से काफी दूर भी हो सकता है l अतः निष्पक्ष लेखन हेतु लेखक को समय के साथ जमींदोज हुए तथ्यों की बहुत खुदाई करनी पड़ती है, तब जा कर वो कहीं कृति के साथ न्याय कर पाता है l ऐसे में वीणा वत्सल सिंह इतिहास में लगभग भुला दी गई  “बेगम हज़रत महल’ को अपनी कलम के माध्यम से उनके हिस्से का गौरव दिलाने का बीड़ा उठाया है l वो बेगम को उनकी आन-बान-शान के साथ ही नहीं उनके बचपन, मुफलिसी के दिन जबरन परी बनाए जाने की करूण  कहानी से नवाब वाजिद अली शाह के दिल में और अवध में एक खास स्थान बनाने को किसी दस्तावेज की तरह ले कर आई हैं l ये किताब मासूम मुहम्मदी से महक परी और बेगम हज़रत महल तक सफर की बानगी है l जिसमें बेगम हज़रत महल के जीवन के हर पहलू को समेटा गया है l ये कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी की प्रगतिशील सोच रखने वाली एक जुझारू संघर्षशील स्त्री के सारे गुण मुहम्मदी में नजर आते हैं l बेगम हज़रत महल- एक निम्नवर्ग में जन्मी लड़की से बेगम हज़रत महल बनने तक की संघर्षमय गाथा   बेगम हज़रत महल की संघर्ष यात्रा शुरू होती है एक निम्नवर्ग के परिवार में जन्मी बच्ची मुहम्मदी से l कहते है कि होनहार बिरवान के होत चीकने पात” l जब पाठक मुहम्मदी के बचपन से रूबरू होता है तो लकड़ी की तलवार लेने की जिद और जंगी हुनर सीखने कि खवाइश से ही उसके भविष्य की दिशा दिखने लगती है l एक कहावत है “होनहार बिरवान के होत चीकने पात”यानि  विशिष्ट व्यक्तित्व के निर्माण के बीज उनके बचपन से ही दिखने लगते हैं l ऐसा ही मुहम्मदी के साथ हुआ l बच्चों के खेल “बोलो रानी कितना पानी” जिसमें रानी को कभी ना कभी डूबना ही होता है का मुहम्मदी द्वारा विरोध “रानी नहीं डूबेगी” दिखा कर खूबसूरती से उपन्यास की शुरुआत की गई है l और पाठक तुरंत मुहम्मदी से जुड़ जाता है l शुरुआत से ही पाठक को मुहम्मदी में कुछ नया सीखने का जज्बा, जंगी हुनर सीखने का जुनून, करुणा, विपरीत परिस्थितियों को जीवन का एक हिस्सा समझ कर स्वीकार तो कर लेना पर उस में हार मान कर सहने की जगह वहीं से नए रास्ते निकाल कर जमीन से उठ खड़े होने की विशेषताएँ दिखाई देती हैं lये उसका अदम्य साहस ही कहा जाएगा कि जीवन उन्हें बार-बार गिराता है पर वो हर बार उठ कर परिस्थितियों की लगाम अपने हाथ में ले लेती हैं l  उपन्यास में इन सभी बिंदुओं को बहुत ही महत्वपूर्ण तरीके से उभारा गया है l   निम्न वर्ग के परिवार में तीन भाइयों के बाद आई सबसे छोटी मुहम्मदी यूँ तो पिता की बहुत लाड़ली थी पर गरीबी-मुफलिसी और सबसे बड़े भाई अनवर के हर समय बीमार रहने के कारण उसका बचपन आसान नहीं था l अनवर के इलाज लायक पैसे भी अक्सर घर में नहीं होते l ऐसे में जब भी अनवर को दिखाने हकीम के पास जाना होता उस दिन घर में चूल्हा भी नहीं जलता l ऐसे में उसके मामा सलीम ने जब अपनी बीमार पत्नी की देखभाल के लिए मुहम्मदी को अपने साथ ले जाने को कहा तो माता- पिता को अनुमति देनी ही पड़ी l इसका एक कारण यह भी था कि मुहम्मदी की बढ़ती उम्र और सुंदरता के कारण वो इस कमजोर दरवाजे वाले घर में सुरक्षा नहीं कर पाएंगे l पर खुश मिजाज मुहम्मदी ने माता-पिता के बिछोह को भी स्वीकार कर लिया l अपनी ममेरी बहन नरगिस के साथ उसने ना केवल घर के काम सीखे बल्कि मामूजान से उनका हुनर टोपी बनाना भी सीखा l ताकि आर्थिक संबल भी दे सके l हिफ़ाजत और जंग के लिए तलवार चलाना सीखने की खवाइश रखने वाली मुहम्मदी का दिल बेजूबानों के लिए भी करुणा से भरा था l  यहाँ तक की उपन्यास में मुर्गे की लड़ाई के एक दृश्य में मुहम्मदी मुर्गे को बचाती है l और कहती है कि   “मुर्गे का सालन ही खाना है तो सीधे हलाल करके खाइए ना ! ऐसे क्यों इस गरीब को सताये जा रहे हैं ? क्या इसए दर्द नहीं होता होगा?”   मुहम्मदी की ममेरी बहन नरगिस और जावेद की प्रेम कथा उपन्यास की कथा में रूमानियत का अर्क डालती है l “नरगिस का चेहरा सुर्ख, नजरें झुकी हुई l जबकि जावेद का मुँह थोड़ा सा खुला हुआ और आँखें नरगिस के चेहरे पर टिकी हुई l दोनों के पैरों के इर्द-गिर्द गुलाब और मोगरे के फूल बिखरे हुए और बेचारा टोकरा लुढ़क कर थोड़ी दूर पर औंधा पड़ा हुआ l”   जब भी हम कोई ऐतिहासिक उपन्यास पढ़ते हैं तो हम उस कथा के साथ -साथ उस काल की अनेकों विशेषताओं से भी रूबरू होते हैं l उपन्यास में नृत्य नाटिका में वाजिद आली शाह का कृष्ण बनना उनके सभी धर्मों के प्रति सम्मान को दर्शाता हैं तो कथारस वहीं प्रेम की मधुर दस्तक का कारण बुनता है l कथा के अनुसार कृष्ण बने नवाब वाजिद अली शाह द्वारा जब मुहम्मदी की बनाई टोपी पहनते हैं तो जैसे कृष्ण उनके वजूद में उतर आते हैं l परंतु उसके बाद हुए सर दर्द में लोग उनके मन में डाल देते हैं कि उन्होंने शायद जूठी टोपी यानि किसी की पहनी हुई टोपी पहनी है, ये दर्द उसकी वजह से है l वाजिद के गुस्सा होते हुए तुरंत सलीम … Read more

घूरे का हंस – पुरुष शोषण की थाह लेती कथा

मैं खटता रहा दिन रात ताकि जुटा सकूँ हर सुख सुविधा का सामान तुम्हारे लिए और देख सकूँ तुम्हें मुस्कुराते हुए पर ना तुम खुश हुई ना मुस्कुराई तुमने कहा मर्दों के दिल नहीं होता और मैं चुपचाप आँसूँ पिता रहा कविता का यह अंश मैंने लिया है सुपरिचित लेखिका अर्चना चतुर्वेदी जी के उपन्यास “घूरे का हंस” से, जो भावना प्रकाशन से प्रकाशित है और जिसे मैंने अभी पढ़कर समाप्त किया है l   घूरे का हंस – पुरुष शोषण की थाह लेती कथा जैसा की कविता से स्पष्ट है ये उपन्यास पुरुष की पीड़ा को उकेरता है l जो कर्तव्यों  के बोझ तले दब रहा है, पर स्नेह के दो बोल उसके लिए नहीं हैं l उपन्यास सवाल उठाता है,  आज के बदलते सामाजिक परिवेश में जब स्त्रियों को कानून से सुरक्षित किया गया है, जो कि अभी भी जरूरी हैं पर उत्तरोत्तर ऐसी महिलाओं की संख्या में भी इजाफा हो रहा है, जो इनका दुरप्रयोग कर रहीं हैं, और अपने ही घर में पुरुष शोषित हो रहा है l इन महिलाओं को अधिकार तो चाहिए पर कर्तव्य से पीछा छुड़ाना चाहती हैं l तो क्या ऐसे में उस तकलीफ को रेखांकित नहीं किया जाना चाहिए ? समाज के इस बदलते समीकार से साहित्य अछूता रह जाना चाहिए l जबकि ऐसे तमाम दुखड़े आपको आस -पास मिल जायेगे l यू ट्यूब पर तमाम साइट्स पर भी हैं जिन पर पुरुष अपना दर्द साझा कर रहे हैं l फिर भी परिवार या सामाज में आम चलन में हम उस पर बात करने से कतराते रहे हैं, कंधा देने से कतराते हैं l   अर्चना जी उसी दर्द को सामने लाने के लिए एक बिल्कुल देशी , मौलिक कथा लाती हैं l ये कहानी है गाँव के लच्छु पहलवान के घर चार पोतियों के बाद पोता होने की l जिसके जन्म पर थाली पीटी जा रही है, पर उस नवजात को नहीं पता कि ये थाली उसके ऊपर तमाम जिम्मेदारियों का बोझ डालने के कारण पीटी जा रही है l कहानी रघु के जन्म से पहले की दो पीढ़ियों की कथा बताकर आगे बढ़ती है तो जैसे रघु अपने जीवन की व्यथा बताने के लिए पाठक का हाथ पकड़कर आगे चलने लगता है और उसके साथ भ्रमित चकित पाठक उसके दर्द के प्रवाह में बहता चला जाता है और अंत में एक बड़े दर्द को समेट कई प्रश्नों से जूझता हुआ, कई बदलावों की जरूरत को महसूस करता हुआ  विचार मगन रह जाता है l अर्चना जी ने  रघु के साथ पूरे समाज को कटघरे में खड़ा किया है l सबसे पहले माता-पिता जो बेटे के जन्म के लिए 4 बेटियों की लाईन लगाते हैं पर उनकी जिम्मेदारी जन्मते ही बेटे के कंधों पर होती है l  और भाई कितना ही छोटा क्यों ना हो, बहनों को कहीं जाना हो भाई को साथ जाना पड़ता है, चाहे खेल छोड़ कर, चाहे पढ़ाई छोड़ कर, लड़कियों पर पढ़ाई का दवाब नहीं है पर लड़कों पर माता -पिता के सपनों का बोझ है l हॉस्टल गए लड़कों को किस तरह से लड़कियाँ मौन या चालाकी भरे अंदाज आमंत्रण देती हैं और इच्छा पूरी ना होने पर उनपर ही आरोप लगा देती हैं, या उन पर कुछ ऐसे लेबल् लगा देती हैं, जिसमें पुरुष, पुरुषों के मध्य हंसी का पात्र बन जाता है l हमारे पौराणिक आख्यानों  में भी ऐसी स्त्रियाँ रहीं हैं,ये हम सब जानते हैं l रघु के साथ यात्रा करते हुए हम उसकी पारिवारिक कलह से रूबरू होते हैं, अपने घर के अंदर दम घोटू स्थिति से रूबरू होते हैं l कहानी को ना खोलते हुए मैं ये कहना चाहूँगी कि रघु की निरीह दयनीय स्थिति पर करुणा आती हैं l ये वो सच है जो हमने अपने आस -पास जरूर देखा होगा, पर उसके साथ खड़े नहीं हुए जरूरत नहीं समझी, क्यों?   तो क्या ये पुरुष विमर्श का युग है और स्त्री को सब कुछ मिल गया है और अब हमें उसके संघर्षों को ताक पर रख देना चाहिए ? अमूमन पुरुष विमर्श की बात आते ही ये सहज प्रश्न आम उदारवादी जन मानस के मन में आता है, खासकर तब जब वो एनिमल जैसी फिल्म देखकर सकते में हों, जहाँ टाक्सिक अल्फा मेल स्थापित किए जा रहे हैं l इसका उत्तर उपन्यास में बहुत सावधानी और तार्किकता से दर्ज है, वो भी कथा रस को बाधित किए बिनाl जहाँ पुरुष की पीड़ा बताते हुए स्त्रियों की पीड़ा गाथा भी है l जहाँ दहेज के कारण जलाई गई सुमन भी है, तो पढ़ाई बीच में रोक कर शराबी -कबाबी से ब्याह दी गई राधा भी है, नकारा पति को झेलती दादी भी हैं, तो पति से पिटती स्त्रियाँ भी हैं, जिन्हे अपना पति माचोमैँन लगता है l  अर्चना जी कहीं भी शोषित स्त्री के दर्द को कम नहीं आँकती हैं, बल्कि कई स्थानों पर भावुक भी कर देती है, पर इसके साथ ही वो आगाह करती हैं कि पीड़ित स्त्री के साथ हमें पीड़ित पुरुष को सुनना चाहिए l ये आवाज नासूर बन जाए उससे पहले सुनना होगा क्योंकि एक स्वस्थ समाज के लिए सत्ता किसी की  भी हो  सही नहीं है, शोषण किसी का भी हो सही नहीं है l हमें आँसू और आँसू में फर्क करने से बचना होगा l   अब आती हूँ उपन्यास के कथा शिल्प पर, तो 160 पेज की इस कहानी में गजब का प्रवाह है l किताब पाठक को आगे “क्या ?” की उत्सुकता के साथ पढ़वा ले जाती है l भाषा सरल -सुलभ है और कथा- वस्तु के साथ न्याय करती है l कहानी के साथ-साथ  बहते हुए व्यंग्य भी है और अर्चना जी का चुटीला अंदाज भी l दादा -दादी की रंग तरंग जहाँ गुदगुदाती है तो हॉस्टल के दृश्य कॉलेज के जमाने की याद दिलाते हैं l लेकिन इसके बीच कहानी पाठक के मन में प्रश्नों के बीज बोती चलती है, जो उसे बाद तक परेशान करते हैं l यहीं उपन्यास अपने मकसद में सफल होता है l प्रतीकात्मक कवर पेज कहानी का सार प्रतिबिंबित करता है l अंत में यही कहूँगी कि व्यंग्य के क्षेत्र में अपनी खासी पहचान बना चुकी अर्चना जी का ये संवेदन … Read more

शंख में समंदर-सोशल मीडिया के अनदेखे रिश्तों के नाम

शंख समुद्र में पाए जाते हैं और शंख में भी में समंदर रहता है l लेकिन इस आध्यात्मिक बात को अगर लौकिक जगत में ले आयें तो संसार में सोशल मीडिया है और सोशल मीडिया में जीता जागता संसारl अपने- अपने घरों में, बाजार में, स्कूल में, ऑफिस में बैठकर इसमें आवाजाही करते रहते हैं| तो कभी लाइक और कमेन्ट के माध्यम से अपनी उपस्थिति दर्शाते हैंl कभी कोई एक घटना हर वाल पर उसकी प्रतिक्रिया के रूप में शंख के अंदर के जल की तरह ठहर जाती है तो कहीं हम एक पोस्ट पर बधाई और दूसरी पर विनम्र श्रद्धांजलि लिखते हुए भावनाओं के सागर में लहर-लहर बहते हैंl सच तो ये है कि हम ऐसे तमाम रिश्तों में बँध जाते हैं जिनसे हम कभी मिले ही नहीं...l

शंख समुद्र में पाए जाते हैं और शंख में भी में समंदर रहता है l लेकिन इस आध्यात्मिक बात को अगर लौकिक जगत में ले आयें तो संसार में सोशल मीडिया है और सोशल मीडिया में जीता जागता संसारl अपने- अपने घरों में, बाजार में, स्कूल में, ऑफिस में बैठकर इसमें आवाजाही करते रहते हैं| तो कभी लाइक और कमेन्ट के माध्यम से अपनी उपस्थिति दर्शाते हैंl कभी कोई एक घटना हर वाल पर उसकी प्रतिक्रिया के रूप में शंख के अंदर के जल की तरह ठहर जाती है तो कहीं हम एक पोस्ट पर बधाई और दूसरी पर विनम्र श्रद्धांजलि लिखते हुए भावनाओं के सागर में लहर-लहर बहते हैंl सच तो ये है कि हम ऐसे तमाम रिश्तों में बँध जाते हैं जिनसे हम कभी मिले ही नहीं…l शंख में समंदर-सोशल मीडिया के अनदेखे रिश्तों के नाम अनेक सम्मनों से सम्मानित डॉ. अजय शर्मा जी इससे पहले कई उपन्यास और कहानी संग्रह लिख चुके हैंl कुछ विश्वविध्यालयों में पढ़ाए भी जाते हैंl तकरीबन हर उपन्यास में वो नया विषय लाते हैंl साहित्य को समृद्ध करने के लिए ये आवश्यक भी है कि नए विषयों पर या उसी विषय पर नए तरीके से लिखा जाएl समकाल को दर्ज करने का साहित्यिक फर्ज वो हमेशा से निभाते रहे है पर शंख और समुद्र के बिम्ब के साथ लिखा गया उपन्यास “शंख में समुंदर” उनके पिछले उपन्यासों से ही नहीं साहित्य की दृष्टि से भी कई मामले में अलग हैl क्योंकि इसमें हमारी फेसबुक की घटनाओं का जीता जागता संसार हैl जहाँ ममता कालिया जी की “रविकथा” की समीक्षा पोस्ट करते हुए वंदना बाजपेयी की “वो फोन कॉल” की समीक्षा को कल डालने के लिए सेव करते डॉ.केशव हैंl जो कभी तमाम लेखकों और उनकी रचनाओं के बारे में विस्तृत चर्चा करते नजर आते हैं तो कभी वंदना गुप्ता जी के “कलर ऑफ लव” के मेसज का जवाब देते हुए जागरूकता का प्रसार करती उसकी विषय वस्तु की आवश्यकता पर प्रसन्न होते हैंl तो कहीं डॉ. सुनीता नाट्य आलोचना पर लंबा आख्यान देती हुई नजर आती हैंl डॉ. शर्मा के उपन्यासों में उन्हें अक्सर पत्रकार, लेखक, डॉक्टर वाली उनकी असली त्रिदेव भूमिका में देखा होगा पर यहाँ खुद को किसी उपन्यास के पात्र के रूप में देखना सुखद हैl निराला ने जब छंद- बद्ध से अतुकांत कविता की ओर रुख किया तो वो गहन भावों की सरल सम्प्रेषणनीयता के कारण शीघ्र ही लोकप्रिय हो गई l आजकल एक कदम आगे बढ़कर साहित्य में एक विधा से दूसरी विधा में आवाजाही का चलन हैl कविता में कहानी है तो कहानी में कविता का लालित्य, समीक्षा में पुस्तक परिचय का भाव सन्निहित है तो आलोचना थोड़े जटिल शब्दों में लिखी गई समीक्षा… पर उन सब का भी एक अलग स्वाद हैl ये स्वाद आज की युवा पीढ़ी को भा भी रहा है जो हर नई चीज का खुले दिल से स्वागत करती हैl ऐसे ही प्रयोग के तहत पाठक को इस उपन्यास में कविता, कहानी- “पर्त दर पर्त”, नाटक-“छल्ला नाव दरिया”, बौद्धिक विमर्श, प्रेरक कथाएँ, ऑनलाइन ऐक्टिविटी, पत्नी बच्चों के साथ सामान्य घरेलू जीवन सब कुछ मिल जाएगाl खास बात ये है कि इसमें मूल कथा कहीं भी प्रभावित नहीं होती, वो मूल कथा का एक हिस्सा ही लगते हैं और आम जीवन की कहानी आगे बढ़ती जाती हैl कहानी के केंद्र में कोरोना की दूसरी लहर हैl कोरोना ने कितनी तकलीफ दी कि जगह ये उपन्यास कोरोना के उस सकारात्मक पहलू को देखता है जो इस समय “आपदा में अवसर” के रूप में उभर कर आएl लॉकडाउन के शुरुआती दिनों में समय कैसे कटेगा के अवसाद में गए लोगों की जिजीविषा ने शीघ्र ही उन्हें समय के संसाधन का सदुपयोग करने की ओर मोड़ाl सोशल मीडिया का उपयोग साहित्यिक व अन्य कार्यक्रमों के लाइव के रूप में होने लगाl बाल काटने से लेकर नाली साफ करने तक के यू ट्यूब चैनल खुले, जो लोगों के खूब काम आएl महिलाओं ने नए-नए व्यंजन बनाने सीखे तो किसी ने गायन या नृत्य के अपने पुराने शौक आजमाने शुरू कियेl ऐसे में एक लेखक डॉ. केशव की नजर एक ऐक्टिंग सिखाने वाले ऑनलाइन कोर्स पर पड़ती हैl अपनी युवावस्था में वो अभिनेता बनना चाहते थे लेकिन तब वक्त ने साथ नहीं दियाlविज्ञापन देखकर एक बार वो “पुनीत प्रीत” फिर से जाग उठती है, और वो कोर्स में रजिस्ट्रेशन करवा देते हैंl यहाँ से कहानी अभिनय कला पर एक गहन शोध को ले कर आगे बढ़ती जाती है l हम एक शब्द सुनते हैं “वॉयस मॉड्यूलेशन’ पर इसके लिए किस तरह से ओम की ध्वनि को साध कर स्वर तन्तु खोलने हैंl “फ्लावर और कैन्डल” पर ध्यान लगा कर आवाज ही कंठ के गड्डे से नीचे से निकालनी है, ताकि स्टेज पर आते समय या बाहर जाते समय अभिनेता की जल्दी में ली गई साँस की आवाज दर्शकों को ना सुनाई देl किस तरह से सुर का बेस बदल कर के अशोक कुमार की आवाज से शक्ति कपूर की आवाज और अक्षय कुमार की आवाज तक पहुँचा जा सकता हैl रसों के प्रकार, भाव सम्प्रेषण आदि की विस्तृत चर्चा ने एक पाठक के तौर पर मुझे तृप्त किया l आजकल ऑडियो युग लौट रहा है, ऐसे में भावों को शब्दों में साधने की कला ऑडियो स्टोरी टेलिंग के काम में लगे लोगों के लिए फायदेमंद साबित होगीl उपन्यास में गुथी हुई कहानी, नाटक और प्रेरक कहानियाँ इसे गति देते हैं और रोचकता को भी बढ़ाते हैंl कुल मिला हमारी सोशल मीडिया की आम जिंदगी से निकला ये उपन्यास कई तरह का संतुलन साधते हुए सरपट भागता हैlउपन्यास विधा में इस नए प्रयोग के लिए डॉ.अजय शर्मा को हार्दिक बधाई व शुभकामनाएँ l वंदना बाजपेयी यह भी पढ़ें मीमांसा- आम जीवन से जीवन दर्शन की यात्रा बातें किताबों की- नेहा की लव स्टोरी प्राइड एंड प्रिज्युडिस को हुए 210 साल – जानिए जेन ऑस्टिन के जीवन के कुछ अनछुए पहलू अब तो बेलि फैल गई- जीवन के पछतावे को पीछे छोड़कर आगे बढ़ने की कथा आपको ‘शंख में समंदर-सोशल मीडिया के अनदेखे रिश्तों के नाम” लेख कैसा लगाl  अगर आओको अटूट बंधन की रचनाएँ पसंद आती है तो कृपया साइट को सबस्क्राइब करें व अटूट बंधन फेसबुक … Read more

मीमांसा- आम जीवन से जीवन दर्शन की यात्रा

    मीमांसा शब्द का शादिक अर्थ है किसी बात या विषय का ऐसा विवेचन जिसके द्वारा कोई निर्णय निकाला जाता होl अगर छः प्रसिद्ध भारतीय दर्शनों की बात करें तो उनमें से एक दर्शन मूलतः पूर्व मीमांसा और उत्तर मीमांसा नामक दो भागों में विभक्त था। लेकिन लेखक अनूपलाल मण्डल का उपन्यास “मीमांसा” अपने शाब्दिक अर्थ और दर्शन दोनों को साधता हुआ आगे बढ़ता है l और इस बात को प्रतिपादित करता है कि सहज जीवन की मीमांसा ही जीवन दर्शन को समझने के सूत्र दे देती है l पुस्तक की भूमिका में लेखक लिखते हैं कि, “मनुष्य सृष्टा का अंशमात्र अवश्य है जबकि आत्मा परमात्मा के एक लघु रूप से भिन्न और कुछ नहीं और इस नाते वह सृष्टा के अधिकार भार  को अपने संयम की सीमा से आबद्ध हो, रखने की चेष्टा करता है l वही चेष्टा आप यहाँ देखेंगेl   जब पाठक किताब पढ़ता है तो यह चेष्टा है उसके सामने रेशा-रेशा खुलने लगती है l यह चेष्टा है मानव हृदय की दुर्बलताओं को स्वीकार करने, समझने और उसके ऊपर विजय पाने के प्रयासों की l समस्त दर्शन इसी में निहित है l अन्वेषण- अनुसंधान और दुर्गम पर विजय ही समस्त प्राणियों में मानव को सर्वोच्च स्थान प्रदान करती है l जब वो प्रकृति  पर विजय पाता है तो भौतिक जीवन सुखद बनता है, जब वो जीवन और जीवन से संबंधित समस्त नियमों को समझता और सुलझाता है तब वैज्ञानिक प्रगति होती है l और जब वो खुद को समझता है और मन पर विजय पाता है तो आध्यात्मिक प्रगति होती है l ये उपन्यास इसी आध्यात्मिक प्रगति के लिए जीवन की मीमांसा करता है l   उपन्यास हाथ में लेने और पढ़ना प्रारंभ करने के कुछ ही समय बाद पाठक को बाँध लेता है l शिल्प के रूप में जहाँ  गुरुवर रवींद्र नाथ टैगोर की “आँख की किरकिरी” की स्मृति हो आती है वहीं शरतचंद्र की लेखनी सा ठहराव और प्रेमचंद जैसे संवेदना पाठक को रोकती है l और एक पाठक के तौर पर 1965 से पहले प्रकाशित इस पुस्तक को अभी तक ना पढ़ पाने का खेद भी उत्पन्न होता है l   मीमांसा- आम जीवन से जीवन दर्शन की यात्रा   मानवीय संवेदना को को गहरे उकेरती इस कथा की मुख्य पात्र अरुणा के जीवन की गाथा है, जिसे हीनभावना, भय, अपराधबोध और प्रेम के महीन तंतुओं से बुना गया है l नायिका अरुणा जो मात्र 11 वर्ष की आयु में ब्याह कर पति गृह आ गई है l विवाह का अर्थ भी नहीं समझती पर उसकी स्मृतियों में अंकित है माँ के हृदय का भय l वो भय जो उसके प्रेम और सेवा के समर्पण के रूप में खिला था अरुणा के रूप में, पर समाज ने उसे नहीं स्वीकारा और उस के माथे पर एक नाम लिख दिया ‘पतिता” l समाज द्वारा बहिष्कृत माँ भयभीत तब होती है जब उसे असाध्य रोग घेर लेता है l वो अरुणा को अपनी कथा बताना चाहती है l समाज के विरोध से उस नाजुक कन्या को बचाना चाहती है पर उस समय ‘पतिता’ जैसा भारी शब्द अरुणा की समझ से परे की चीज है l उसके जीवन में कुछ है तो उगते सूर्य की लालिमा, चाँदनी की शीतलता, मीलों फैले खेतों सा विशाल धैर्य l यही अरुणा अपने पास एक छोटा सा इतिहास रखती है, एक छोटा स्मृत-विस्मृत सा इतिहास l लेखक के शब्दों में, “बाबूजी! … दूर पगली ! बाबूजी नहीं -काकाजी….नहीं, बाबूजी ही कह सकती हो! पर तुम्हारे बाबूजी वह नहीं कोई और थेl”   अरुणा के इन शब्दों की मीमांसा करना चाहती यही पर उसके सामने काकाजी और बाबूजी का यह सवाल अमीमांसित ही रह जाता है l उसी समय नायक विजय किसी विवाह समारोह में गाँव आता है और अरुणा के रूप, शीलनता, सहजता से पहली ही दृष्टि में उसके प्रति प्रेम में पड़ जाता है l अगले दिन उसे पुनः देखकर भावनाएँ उफान मारती है और वह अरुणा के घर जाकर उसकी माँ से उसका हाथ मांग लेता है l अंधे को क्या चाहिए दो आँखें l माँ भी उसका विवाह कर देती है l पति गृह में आई अरुणा का साथ देती हैं विजय की विधवा दीदी और 4 सालों में अरुणा बालिका से तरुणी बनती है.. उसके हृदय में भी प्रेम की दस्तक होती है l उसे समझ में आता है कि पति विजय उसको दर्पण में क्यों देखता था l  पति के कमरे और सामान पर एकाअधिकार भाव जागता है और प्रेम  अपना प्रारबद्ध पाता है l पति द्वारा उसे अंधेरे में उसकी तस्वीर देखता पाकर लैंप जला कर देखने को कहने पर सहसा निकले अरुणा के शब्द उसकी गहन वैचारिका को दर्शाते हैं… “जो स्वयं प्रकाशवान हो उसको देखने के लिए लैंप की आवश्यकता नहीं पड़ती”   अरुणा के मन में पति के प्रति प्रेम है पर एक पतिता की बेटी होने का अपराधबोध भी l प्रेम का पुष्प तो समानता पर खिलता है l अरुणा के मन में दासत्व भाव है और उसका पति उसका तारण हार l विजय के हृदय प्रदेश में अरुणा किसी ईश्वर की मूरत की तरह विराजमान है पर अरुणा का यह मौन जिसे पढ़ने में विजय असमर्थ है उनके प्रेम में वो सहजता नहीं आने देता जो एक पति-पत्नी के मध्य होनी चाहिए l विजय के तमाम प्रयास उसके मन की ग्रन्थि को खोलने में असमर्थ रहते हैं l अरुण इस बात को समझती है पर अपने दासत्व भाव की सीमा को लांघ नहीं पाती l प्रेम के उसके हिस्से के अधूरेपन की यह बात उसे तब समझ आती है जब दीदी का देवर लल्लन दीदी को अपने विवाह के तय हो जाने पर लेने आता है l एक सहज संवाद में प्रेम की पहली दस्तक का आस्वादन अरुणा के हृदय में होता है l वो कहती है, “वो अनिश्चित तीथि क्या हमारे जीवन में फिर कभी आएगा लल्लन बाबू” और स्वयं ही स्वयं को सहेजती है…   “जो मिलने वाला नहीं, जिस पर अपना कोई अख्तियार नहीं,जिसके बारे में सोचना भी गुनाह हो सकता है, उसकी कल्पना में वो विभोर क्यों रहे? क्यों ना मानसपट पर अंकित उस चित्र को धुंधला कर दे-उसे मिटा दे और इतना … Read more

अब तो बेलि फैल गई- जीवन के पछतावे को पीछे छोड़कर आगे बढ़ने की कथा

अब तो बेलि फैल गई- जीवन के पछतावे को पीछे छोड़कर आगे बढ़ने की कथा

  जिन दरवाज़ों को खुला होना चाहिए था स्वागत के लिए, जिन खिड़कियों से आती रहनी चाहिए थी ताज़गी भरी बयार, उनके बंद होने पर जीवन में कितनी घुटन और बासीपन भर जाता है इसका अनुमान सिर्फ वही लगा सकते हैं जिन्होंने अपने आसपास ऐसा देखा, सुना या महसूस किया हो। रिक्तता सदैव ही स्वयं को भरने का प्रयास करती है। भले ही इस प्रयास में व्यक्ति छीजता चला जाए या शनै-शनै समाप्त होता चला जाए… रिश्तों में आई दूरियाँ और रिक्तता व्यक्ति को भीतर ही भीतर न केवल तोड़ देती हैं,अकेला कर देती हैं बल्कि उसका स्वयं पर से, दुनिया पर से भरोसा भी डिगने लगता है। ऐसे सूने जीवन से जूझते पात्रों की भावपूर्ण और मर्मस्पर्शी कहानी है ‘अब तो बेलि फैल गई’ उपन्यास में।   अब तो बेलि फैल गई- जीवन के पछतावे को पीछे छोड़कर आगे बढ़ने की कथा   कविता वर्मा किसी लेखकीय परिचय की मोहताज नहीं हैं। उनके रचना कौशल, संवेदनशीलता और सामाजिक सरोकारों से उनकी सम्बद्धता के साथ ही स्पष्टवादिता और निडरता से भी हम सभी भलि भांति परिचित हैं। बावजूद इसके उनके स्नेहिल मित्रों, शुभचिंतकों एवं पाठकों की बड़ी संख्या यही बताती है कि वे अपनी जगह कितनी सही हैं। इस उपन्यास में भी उनके पात्रों में उन्होंने तमाम मानवीय और परिस्थितियों से जुड़ी कमज़ोरियों के साथ ही इन गुणों को भी अवस्थित किया है जिनके बल पर वे पात्र सही-गलत के पाले में झूला झूलते हुए सही पाले में जाकर रुक जाते हैं और कहानी एक खूबसूरत मोड़ पर पहुँचती है। सुने अटूट बंधन यू ट्यूब चैनल पर ‘अब तो बेलि फैल गई’ पर परिचर्चा  मध्यम वर्गीय जीवन की विरूपताओं और विडंबनाओं को अनावृत करने वाले घटनाक्रमों की एक बड़ी श्रृंखला के बीच, पुनर्मूल्यांकन और नैतिकता को किसी ऐसे कुशल चितेरे की भांति अपनी कृति में सजा दिया है कि सब कुछ सहज ही प्रभावित करने वाली अनुपम कृति में सामने आया है। रिश्तों के ताने-बाने में उपेक्षा, छल, अपमान, कटुता और अलगाव के काँटे हैं तो वहीं प्रेम, विश्वास, आदर, अपनापन, सहयोग और समायोजन के बेल-बूटे और फूल-पत्ती की कसी हुई बुनावट भी है जो पूरे उपन्यास को सम्पूणता प्रदान कर रही है। लेखिका- कविता वर्मा इस उपन्यास को ट्रेन यात्रा के दौरान इसे पढ़ा, पढ़कर कई बार मैं स्तब्ध सी रह गई थी कि इतना महीन सच का धागा लेकर कैसे ही इतने खूबसूरत और मजबूत उपन्यास की चादर बुन ली है! जिसको‌ चाहे हम ओढ़ें, बिछाएं या शॉल की तरह लपेटें, हम खुद को एहसासों की गर्मी से नम ही रखेंगे! एहसासों की ये गर्मी कभी झुलसाती भी है तो कभी ठंडे पड़ते रिश्तो में गर्माहट लाने का काम भी करती है! उपन्यास की कथा वस्तु दो आधे-अधूरे रह गए परिवारों के संघर्ष, पछतावे और इन्हें पीछे छोड़ आगे बढ़ने की कोशिश करने के इर्दगिर्द घूमती है। एक हैं मिस्टर सहाय जिनके मन में अत्यधिक ग्लानि और पछतावा है अपनी भूलों को लेकर। जो कुछ अपने परिवार के लिए नहीं कर पाए,वही सब एक अन्जान परिवार के लिए करते हुए स्वयं को एक अवसर और देने की कोशिश करते हैं। तो दूसरी तरफ नेहा है, संघर्ष जिसके जीवन में स्थाई रूप से ठहरा हुआ है और जो खुद को ठगा हुआ महसूस करती है। बिना किसी गल्ती के उसके जीवन में अकेलापन भर गया। रिश्तों ने कदम-कदम पर उसे छला है। परन्तु अनजाने में ही एक अनजान व्यक्ति पर किया गया भरोसा उसके मन में दुनिया से उठते हुए भरोसे के दंश पर मरहम लगाने का काम करता है। जो बीत गया उसे बदला तो नहीं जा सकता,पर आने वाले समय को बेहतर बनाने का प्रयास अवश्य किया जा सकता है। मुझे इस उपन्यास का मूलभाव यही लग रहा है। आज हमें ऐसे ही कथानकों की ही भारी आवश्यकता है जो केवल संघर्ष, दुख-दर्द, आपत्तियों और विपत्तियों का ही मार्मिक चित्रण कर सहानुभूति बटोरने के उद्देश्य पर काम न करके, कुछ ऐसा प्रस्तुत करें कि बहने की बजाय खुद जाएँ आँखें कि अरे हाँ! रोते रहने की बजाय जीवन को ऐसे भी जिया जा सकता है… कम से कम कोशिश तो की ही जा सकती है। इस दृष्टि से यह उपन्यास एकदम सफल है। मिस्टर सहाय के साथ उनके बेटे सनी की बात चलती है और नेहा के साथ उसके बेटे राहुल की कहानी चलती रहती है जिसके माध्यम से बालपन और युवावस्था की जटिलताओं, कमज़ोरियों और समझदारी का सहज, सुंदर वर्णन किया गया है। एक और महत्वपूर्ण पात्र है सौंदर्या, जिसकी चर्चा के बिना बात अधूरी ही रहेगी। मिस्टर सहाय और नेहा की कथा को पूर्णता प्रदान करने के लिए इस पात्र को गढ़ा गया है। हालांकि वास्तविक जीवन में ऐसे पात्रों का होना थोड़ा संशयात्मक है, फिर भी असंभव तो नहीं। और फिर जैसा कि मुझे लगता है कि ऐसे पात्रों को रचकर ही तो समाज में ऐसे पात्रों को पैदा किया जा सकता है, एक राह सुझाई जा सकती है। इसलिए सौंदर्या का होना भी उचित ही ठहराया जा सकता है। तमाम मानवीय संवेदनाओं के अजीबोगरीब ड्रामे और उठा-पटक के बिना ये संवेदनशील कहानी अपनी सहज गति से आगे बढ़ती हुई मंज़िल तक पहुँचती है और पाठकों के चेहरों पर मुस्कान सजा जाती है। ऐसी पुस्तकें पढ़कर कभी-कभी मेरे मन में आता है वही कहूँ जो हम पौराणिक व्रत-कथाओं को कहने- सुनने के बाद कहते हैं। हे ईश्वर सबके जीवन में ऐसे ही सुख बरसाना जैसे इस कथा के पात्रों के जीवन में बरसाया है। मज़ाक से इतर, कविता वर्मा की लेखनी की सदैव प्रशंसक रही हूँ, इस उपन्यास ने उसमें और बढ़ोतरी की है। ऐसे ही अच्छा लिखते रहें। ये लेखन ही समाज को दिशा दिखाएगा। शुभकामनाएँ शिवानी जयपुर   यह भी पढ़ें बातें किताबों की- नेहा की लव स्टोरी जासूसी उपन्यासों में हत्या की भूमिका – दीपक शर्मा शहर सुंदर है -आम जीवन की समस्याओं को उठाती कहानियाँ आपको “अब तो बेलि फैल गई- जीवन के पछतावे को पीछे छोड़कर आगे बढ़ने की कथा” समीक्षात्मक लेख कैसा लगा ? हमें अपनी राय से अवश्य अवगत कराइएगाl अगर आपको अटूट बंधन की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया साइट को सबस्क्राइब करें व अटूट बंधन फेकबूक पेज को लाइक करें l

बातें किताबों की- नेहा की लव स्टोरी

नेहा की लव स्टोरी

लिव इन जैसे सम्बंधों को भले ही कानूनी मान्यता मिली हो, मगर सामाजिक मान्यता नहीं मिली है।पश्चिमी सभ्यता से प्रभावित होकर युवा पीढ़ी इस ओर आकर्षित तो हुई है पर यह अभी विवाह के विकल्प के रूप में स्थापित नहीं हो सकी है l जिस रिश्ते में प्रवेश करते समय “साथ तो हैं पर साथ नहीं” की तर्ज पर किसी तरह का वादा ना हो उसके टूट जाने पर लगाए जाने आरोप लगाए भी तो किस पर और क्यों? बाज़रवाद से प्रभावित लिव इन का रैपर इतना शानदार है कि युवा इसके शिकंजे में आते जा रहे हैं, और पूरी पीढ़ी गुमराह हो रही हैl ये कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा कि उन्मुक्त जीवन की ओर अंधी दौड़ का दुष्परिणाम महिलाओं के हिस्से ज्यादा आता हैlऐसे में ऐसी विवेक सम्पन्न स्त्री को गढ़ना भी साहित्य का काम है जो अपनी जिंदगी का ये महत्वपूर्ण फैसला देह की कामनाओं की ज्वार में ना ले l आइए पढ़ते  हैं लिव इन जैसे मुद्दे पर अपनी बात रखते सुपरिचित कथाकार सोनाली मिश्रा के उपन्यास “नेहा की लव स्टोरी” पर डॉ. मीनाक्षी स्वामी की समीक्षा बातें किताबों की- नेहा की लव स्टोरी सोनाली मिश्रा का पहला उपन्यास ‘महानायक शिवाजी’ भी पढ़ा था। शिवाजी की वीरता के साथ माता जीजाबाई की भूमिका को भी सोनाली ने जिस तरह रेखांकित किया है, वह बहुत प्रभावी है। श्रेष्ठ समाज के निर्माण में माता की भूमिका के साथ शिवाजी के शौर्य, देशभक्ति आदि का सुगठित संयोजन उपन्यास में है। सोनाली की दृष्टि स्पष्ट है। इसी कारण विचारों में भी स्पष्टता है। वे साहस के साथ उन्हें जो सही लगता है, उसके पक्ष में खड़ी रहती हैं। यही बात सोनाली के व्यक्तित्व को विशिष्ट बनाती है। ‘नेहा की लव स्टोरी’ उपन्यास बहुत दिनों से मंगाकर रखा था। मगर इस दौरान व्यस्तता के कारण अब पढ़ पाई। वर्तमान में समाज में तेजी से नासूर बनी लव जिहाद की समस्या को परत दर परत इस उपन्यास में खोला गया है। नारीवाद एक आयातित विचार है जो हमारे देश की संस्कृति के अनुकूल नहीं है। मगर हीनता ग्रंथि के चलते विदेशी संस्कृति को महान समझने की भूल अब कई समस्याओं के रूप में सामने आ रही है। इसी के चलते सनातन संस्कृति के प्रति पनपी हीन भावना हिंदू लड़कियों को दूसरे धर्म की ओर आकर्षित करने लगी। नारीवाद के प्रति आकर्षण, छद्म प्रगतिशीलता और अपनी जड़ों से दूरी इन लड़कियों को ऐसे शिकंजे में कसने लगी जिसमें जीवन की समाप्ति के अलावा कुछ हाथ न लगा। और जो जीती रहीं, वे मृत्यु से भी बदतर दशाओं में। लिव इन जैसे सम्बंधों को भले ही कानूनी मान्यता मिली हो, मगर सामाजिक मान्यता नहीं मिली है। हमारे पूर्वजों ने बहुत सोच समझकर जीवन से जुड़ी सभी आवश्यकताओं की पूर्ति के गरिमामय और मर्यादित तरीके तय किए थे। ये परम्पराएं एक दिन में नहीं बनती। इनमें पीढ़ियों के सामाजिक अनुभवों का समावेश होता है। ये समाज हित में होती हैं। विवाह जैसी संस्थाएं और अपने जाति समूह में विवाह। समय के साथ परम्पराओं में बदलाव हुआ तो अपने धर्म के भीतर जातीय बंधनों के परे विवाहों को भी समाज द्वारा मान्य किया गया। अन्तरधार्मिक विवाह और लिव इन को मान्यता क्यों न मिली, आज इनके परिणाम देखकर हमें अपनी परम्पराओं पर गर्व के साथ पालन करने में दृढसंकल्पित होने का समय है। ‘नेहा की लव स्टोरी’ उपन्यास इसी बात को बहुत रोचक अंदाज़ में बयान करता है। किस तरह हिंदू लड़कियों को बरगलाया जाता है और फिर उनका जीवन बर्बाद किया जाता है। वे इस जाल में क्यों और कैसे फंसकर किस तरह तबाह हो जाती हैं। सब कुछ उपन्यास में उद्घाटित होता है। इससे बचने के लिए परिवार की भूमिका विशेष तौर पर माता की क्या भूमिका होना चाहिए। इस जाल से कैसे बचें। जिस आयु में लड़कियों की आंखों में अपने जीवन को लेकर सुनहरे सपने होते हैं। उस आयु में उन्हें पूरा करने के लक्ष्य से भटककर वे बहुत सूक्ष्म तंतुओं से बने अदृश्य मगर अत्यंत खतरनाक जाल में फंस जाती हैं, जब उन्हें इसका एहसास होता है, तब तक इतनी देर हो चुकी होती है कि उससे निकल पाना उनके लिए असंभव हो जाता है। जो परिवारजन उन्हें निकाल सकते हैं, वे उस समय उनसे नाराज़गी, उनके उठाए गलत कदम पर उनसे क्रुद्ध होते हैं और सहारा नहीं देते हैं। इन्हें जाल में फंसाने वाले इनके परिवारजनों से दूर करने का जाल भी बड़ी धूर्तता से बुनते हैं। इस सबका मनोवैज्ञानिक, सामाजिक, सांस्कृतिक चित्रण दक्ष लेखिका ने बहुत कौशल से किया है। किस तरह ब्रेन वॉश करते हुए भारतीय संस्कृति का विनाश करने का षड़यंत्र रचा गया है। हमारी परम्पराओं, मूल्यों पर आघात किया जा रहा है। आधुनिकता, प्रगतिशीलता, नारीवाद जैसे विमर्श किस तरह हमारी संस्थाओं पर हमला कर रहे हैं। नारीवाद के नाम पर हमारे समाज को स्त्री पुरुष के खांचे में बांटकर महिला और पुरुष को एक दूसरे के पूरक के स्थान पर विरोधी बनाकर समाज को तोड़ने का विमर्श रचा गया। उपन्यास में सोनाली ने गहन शोध, चिंतन, मनन, विश्लेषण के बाद कथानक को बुना है, यह पढ़कर ही जाना जा सकता है। यह उपन्यास सोए हुए हिंदू समाज को झिंझोड़कर जगाता है कि उठो, जागो और अपनी अस्मिता की रक्षा करो। यह उपन्यास हर किसी को जरूर ही पढ़ना चाहिए। उपन्यास पूरे समय बांधे रखता है। यही कारण है कि एक बैठक में पढ़े बिना छोड़ा नहीं जाता है। सोनाली इस समस्या की जड़ तक जाती हैं और एक एक रेशा पूरी स्पष्टता से सामने रखती हैं। ऐसे साहसिक उपन्यास के लिए सोनाली को साधुवाद। डॉ. मीनाक्षी स्वामी यह भी पढ़ें प्राइड एंड प्रिज्युडिस को हुए 210 साल – जानिए जेन ऑस्टिन के जीवन के कुछ अनछुए पहलू निर्मल वर्मा की कहानी परिंदे का सारांश व समीक्षा रोज़- अज्ञेय की कालजयी कहानी प्रज्ञा की कहानी जड़खोद- स्त्री को करना होगा अपने हिस्से का संघर्ष आपको “बातें किताबों की- नेहा की लव स्टोरी” पर यह समीक्षात्मक आलेख कैसा लगा? अपने विचारों से हमाएं अवश्य अवगत कराएँ l अगर आपको अटूट बंधन की रचनाएँ पसंद आती हैं तो साइट को सबस्क्राइब करें व अटूट बंधन फेसबुक पेज को लाइक करें l

सिन्हा बंधु- पाठक के नोट्स

सिंह बंधु

  “जिस तरह जड़ों से कटा वृक्ष बहुत ऊंचा नहीं उठ सकता|उसी तरह समृद्धिशाली भविष्य की दास्तानें अतीत को बिसरा कर नहीं लिखी जा सकती |” “सिन्हा बंधु” उपन्यास ऐसे ही स्वतंरता संग्राम सेनानी “राजकुमार सिन्हा” व उनके छोटे भाई “विजय कुमार सिन्हा” की जीवन गाथा है .. जिनकी माँ ने अपने एक नहीं दो-दो बेटों को भारत माँ की सेवा में सौंप दिया |  बड़े भाई को काकोरी कांड और छोटे को साडर्स कांड में सजा हुई l दोनों ने अपनी युवावस्था के महत्वपूर्ण वर्ष देश को स्वतंत्र कराने में लगा दिये l उपन्यास को 8 प्रमुख भागों में बांटा गया है – कानपुर, कारांचीखाना, मार्कन्डेय भवन, काकोरी कांड, राजकुमार सिन्हा जी का विवाह, अंडमान जेल, बटुकेश्वर दत्त, स्मृतियाँ l   “सिन्हा बंधु”-स्वतंत्रता संग्राम में महत्वपूर्ण योगदान देने वाले सिन्हा बंधुओं  के त्याग वीरता और देशभक्ति को सहेजता उपन्यास     उपन्यास की शुरुआत उत्तर प्रदेश के औधयोगिक नगर कानपुर गौरवशाली इतिहास से हुई है | लेखिका लिखती हैं कि, “हाँफते- दाफ़ते शहरों के बीच पूरे आराम और इत्मीनान के साथ चलने वाले कानपुर नगर का अपना ही ठेठ कनपुरिया मिज़ाज है l और ताप्ती गर्मी में गुस्से के बढ़ते पारे को शांत करने वाली माँ गंगा है ना.. जो कनपुरियों का मिज़ाज ही नहीं शांत करती, ब्रह्मा जी को भी संसार की रचना करने के बाद शांति से बिठूर में अपनी गोद में बिठाती हैं l वही बिठूर जहाँ वाल्मीकि आश्रम में रामायण जैसा कालातीत ग्रंथ लिखा गया l माँ सीता ने लव- कुश को जन्म दिया और शस्त्रों से लेकर शास्त्रों तक की शिक्षा दी l अपने पुत्र से यौवन की मांगने वाले राजा ययाति का किला भी गंगा के किनारे जाजमऊ में था l उन्हीं के बड़े पुत्र यदु के नाम से यदुवंश बना l     आज भी उत्तर प्रदेश का प्रमुख  औधयोगिक नगर कानपुर स्वतंत्रता संग्राम के यज्ञ में अपने युवाओं की आहुति देने वाले उत्तर प्रदेश का केंद्र था।  कानपुर 1857 के स्वतंत्रता संग्राम ( जिसे अंग्रेज़ों ने ‘सिपाही-विद्रोह’ या ‘गदर’ कहकर पुकारा) के प्रमुख स्थलों में से एक रहा  है। नाना राव और तात्या टोपे के योगदान को भला कौन भूल सकता है | यहां का इतिहास कई तरह की कहानियों को खुद में समेटे हुए है। नाना राव पार्क भी इस इतिहास का गवाह है। वह अपने वीर सपूतों की कुर्बानी पर खून के आंसू रोया था। यहीं पर बरगद के पेड़ से चार जून 1857 को 133 क्रांतिकारियों को फांसी दी गई थी। तब से  यह पेड़ न भुलाने वाली यादों को संजोए रहा और  कुछ साल पहले ही  जमींदोज हो गया।   भगत सिंह और चंद्रशेखर ‘आजाद’ जैसे वीर सपूतों  की  कानपुर कर्म भूमि रहा है | शहर ने भी इसे अपना अहोभाग्य माना और बड़े सम्मान से कानपुर में इनकी मूर्तियाँ स्थापित की  गई | इनके अतिरिक्त  कानपुर में बड़ा चौराहे पर कोतवाली रोड के किनारे स्वतंत्रता संग्राम सेनानी डॉ. मुरारी लाल की प्रतिमा स्थापित है, जिन्होंने आजादी के लड़ाई में अपने प्राणों का उत्सर्ग किया था। कानपुर के डीएवी कॉलेज के अंदर क्रांतिकारी “शालिग्राम शुक्ल” की  मूर्ती है। इस मूर्ति को वर्ष 1963 में स्थापित किया गया | “शालिग्राम शुक्ल” हिन्दुस्तान रिपब्लिकन आर्मी के कानपुर चीफ थे, और  चंद्रशेखर आजाद के साथी थे। एक दिसंबर 1930 में अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाई में वो चंद्रशेखर आजाद की रक्षा करने के दौरान, मात्र 19 वर्ष की आयु में,  शहीद हो गये।   सिन्हा बंधुओं के बारे में बताते -बताते किताब कानपुर के बटुकेश्वर दत्त के बारे में भी बताती है l तो चंद्रशेखर आजाद, गणेश शंकर विध्यार्थी और भगत सिंह के बारे में  भी रोचक किस्से जरूरी  बातों की जानकारी देती है l     अपने देश और गौरव को सहेजने की चाह रखने वाले साहित्यकारों लेखकों को लगा कि इन्हें वर्तमान पीढ़ी से जोड़ना आवश्यक है क्योंकि वर्तमान ही अतीत और भविष्य के मध्य का सेतु है | जाहिर है एक बिसराये हुए इतिहास में, उजड़े हुए शब्द कोश में और विकास की बदली हुई परिभाषाओं में ये काम आसान नहीं था | पर इसे करने का जिम्मा उठाया कानपुर की ही एक बेटी वरिष्ठ लेखिका “आशा सिंह” जी ने | उम्र के इस पड़ाव पर जब बहुओं को घर की चाभी सौंप कर महिलायेँ  ग्रहस्थी के ताम-झाम  से निकल दो पल सुकून  की सांस लेना चाहती हैं तब आशा दी मॉल और मेट्रो  की चमक से दमकते कानपुर की जमीन में दफन गौरवशाली इतिहास को खोजने शीत, घाम और वर्षा की परवाह किए बिना निरंतर इस श्रम साध्य उद्देश्य में जुटी हुई थीं l पर आखिरकार उनका परिश्रम इस किताब के माध्यम से मूर्त रूप में सामने आया | यह किताब एक नमन है, एक श्रद्धा का पुष्प है सिन्हा ब्रदर्स नाम से प्रसिद्ध कानपुर के स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों को |   हार्दिक बधाई और शुभकामनाएँ वंदना बाजपेयी

कमरा नंबर 909-दर्शनिकता को समेटे सच कि दास्तान

कमरा नंबर -909

– डॉ. अजय कुमार शर्मा डॉक्टर  होने के साथ-साथ एक संवेदनशील साहित्यकार भी हैं |  इसका पता उनकी रचनाओं को पढ़कर लगता है जो किसी विषय कि गहराई तक जाकर उसकी पड़ताल करती हैं | डॉ.  अजय शर्मा कि किताबें कई  यूनिवर्सिटीज़ में पढ़ाई जाती हैं | देश के कई प्रतिष्ठित साहित्यिक पुरुस्कारों से सम्मानित डॉ.  अजय शर्मा का  नया  उपन्यास कमरा नंबर 909 विषय कि गहन पड़ताल कि उनकी चीर-परिचित शैली के साथ  दर्शनिकता को समेटे हुए सच कि दास्तान कहता है | कमरा नंबर 909-दर्शनिकता को समेटे सच कि दास्तान   सन 2020 में पूरे विश्व में तबाही मचाने वाले कोविड-19 (कोरोना वायरस) ने हमारे देश में दस्तक दी|  और देखते ही देखते हम सबकी  जिंदगी बदल गई | लॉकडाउन, मास्क, सैनिटाइज़र ये नए शब्द हमारे शब्दकोश में जुड़ गए| जब जीवन इतना प्रभावित हुआ तो साहित्य कैसे ना  होता| कविता, कहानी, लेख आदि में कोरोना ने दस्तक दी| ऐसे में सुप्रसिद्ध साहित्यकार अजय शर्मा जी ने कमरा नंबर 909 के माध्यम से कोरोनाकाल (फर्स्ट वेव) को अपने उपन्यास का विषय बनाया| कमरा नंबर 909 अस्पताल के कोविड वार्ड का कमरा है| ये उपन्यास इस विषय पर लिखे गए अन्य उपन्यासों से अलग इसलिए हैं क्योंकि  जहां यह एक मरीज के रूप में निजी अनुभवों का सटीक चित्रण करता है वहीं मृत्यु को सामने देख कर भयभीत मनुष्य की संवेदनाओं, उनके रिश्तों की गहन पड़ताल भी करता है| कोरोना ने भय का जो वातावरण बना रखा है, जिससे सोशल डिस्टेंसिग, एमोशनल डिस्टेंसिग में बदल गई है ये उपन्यास इसे सूक्ष्मता से रेखांकित करता है कि कैसे एक बहन अपने भाई को राखी बांधने से ही भयभीत है | घरों  में काम करने वाली भोली है जो घर -घर जा कर कोरोना फैलाने के आरोप के लिए कहती है, “हम किसी को क्या दे सकते हैं|” पति  -पत्नी के मिठास भरे संबंधों और पूरे परिवार कि एकजुटता इस आपदा काल में हमारे देश के पारिवारिक ढांचे कि रीढ़ कि तरह उभरती है| उपन्यास में डॉ. आकाश कोरोना ग्रस्त होकर अस्पताल में भर्ती हैं| वहाँ कमरा नंबर 909 उनकी पहचान है| यहाँ  और मरीज भी हैं|  सभी कोरोना से ग्रस्त हैं| मृत्यु सामने दिख रही है | ऐसे में नकली परदे उतर जाते हैं और इंसान का असली स्वभाव सामने  आता है | व्यक्ति  जो जीवंतता से भरपूर होने के समय करता है असल में वो उससे उलट भी हो सकता है |यहीं पर गुप्ता जी है व  एक ऐसे गुरु हैं और उनका चेला विकास हैं जो “जीवन में खुश कैसे रहे” सिखाते थे | विकास तो मुलाजिम है जो गुरु के यहाँ  काम करता है पर गुरु का सारा अभिनय खुल कर आता है| जो दूसरों को मृत्यु के भय से निकल जीने कि कला सिखाता है वह स्वयं मृत्यु से इस कदर भयभीत है|एक अंश  देखिए .. “लोगों का भगवान जो लोगों के दिल और दिमाग में रोशिनी  का दिया जलाता है, वह कुछ ही मिनटों का अंधेरा बर्दाश्त नहीं कर सका|”    हम सब ने कभी ना  कभी ऐसे गुरु देखे हैं और हो सकता है निराशा के आलम में मोटी फीस दे कर उनके चंगुल में भी फंसे हों | बहुत खूबसूरती से यहाँ ये बात समझ में या जाती है कि ये उनका महज प्रोफेशन है असलियत नहीं | इसी उपन्यास में मेडिटेशन कि एक बहुत खूबसूरत  परिभाषा मिली जिसे कोट करना और याद रखना मुझे जरूरी लगा … “सत्य हर व्यक्ति का नैसर्गिक गुण है|असत्य  हम अर्जित करते हैं |बोलने का हम लोग अभ्यास करती हैं |ऐसे ही मेडिटेशन का हम लोग अभ्यास करते हैं|जो अपने आप लग जाए वही सहज ध्यान है    इसमें वो सहज ध्यान कि प्रकृति के बारे में बानी और बुल्ले शाह का उदाहरण देते हुए बताते हैं | मैंने भी अभी कुछ साल  पहले U. G. Krishnamurti की किताब “Mind is a myth में सहज धीं के ऊपर पढ़ा था | उसके अनुसार .. “The so called self-realization is the discovery for yourself and by yourself that there is no self to discover.”   गुप्ता जी एक उदार व्यक्ति हैं | दूसरे कि पीड़ा को समझने का एक संवेदनशील हृदय उनके पास है | गुप्ता जी और  आकाश की  बातचीत के माध्यम से आध्यात्म  व दर्शन कि सहज व सुंदर चर्चा पाठकों को पढ़ने को मिलती है |डॉ. अजय शर्मा स्वयं डॉक्टर हैं, इसलिए उपन्यास में कई मेडिकल टर्म्स पढ़ने को मिलते हैं |   इसके अतिरिक्त कोरोना के विषय में फैली गफलत कि वो वास्तव में वायरस है या 5G टेक्नॉलजी से उभरा  एलेक्टरोमैगनैटिक रेडिऐशन, अमेरिका -इराक का युद्ध,सद्दाम हुसैन का अंत और अमेरिका कि सुपरमेस्सी कि लड़ाई इसे व्यापक फलक प्रदान करती हैं|एक अंश देखिए ..   जब डोनाल्ड ट्रम्प को कोरोना हुया, तो वह इलाज के तुरंत बाद अस्पताल से निकला और गाड़ी में उसने मास्क को उतार फेंका| उसका विरोध भी हुआ लेकिन उसने परवाह नहीं की|लोगों के लिए मास्क उतारना शायद एक साधारण सी घटना हो सकती है| लेकिन मुझे लगता है कि उसने मास्क उतार कर चीन के मुँह पर तमाचा मारते हुए ये बताने कि कोशिश कि है, “तुम लाख कोशिश कर लो पर अमेरिका सुपर पावर था, है और रहेगा| आज जब फिर से ये मांग उठ रही है कि कोरोना वायरस कि उत्पत्ति कि जांच हो| चीन ने जिस मांग को उस समय दबा दिया |आज अमेरिका में दूसरी सरकार होते हुए भी इस मांग का अगुआ अमेरिका ही है और भारत भी अब इस मांग में शामिल हो गया है | इस बात कि भनक इस उपन्यास ने पहले ही दे दी थी |  क्योंकि राजनैतिक परिस्थितियाँ सामाजिक परिस्थितियों को प्रभावित करती हैं | पृष अभी भी वही है कि क्या सुप्रिमेसी कि इस लड़ाई ने ही सारे विश्व और उसकी अर्थव्यवस्था को अस्पतालों में लिटा दिया है | अस्पताल के बिस्तर से सुप्रिमेसी कि लड़ाई तक पहुँच जाना उपन्यास कि खासियत है| संक्षेप में कहें तो सरल सहज भाषा में लिखा ये उपन्यास सिर्फ कोरोनाकल और उससे उत्पन्न परिस्थितियों को ही नहीं दर्शाता बल्कि इसमें दर्शन और आध्यात्म कि की ऐसी बातें पिरोई गई हैं जिन् पर पाठक ठहर कर चिंतन में डूब जाता है … Read more