गुजरे हुए लम्हे (परिशिष्ट)-अध्याय 15

गुज़रे हुए लम्हे

  आत्मकथा लेखन में ईमानदारी की बहुत जरूरत होती है क्योंकि खुद के सत्य को उजागर करने के लिए साहस चाहिए साथ ही इसमें लेखक को कल्पना को विस्तार नहीं मिल पाता | उसे कहना सहज नहीं होता | बहुत कम लोग अपनी आत्मकथा लिखते हैं | बीनू दी ने यह साहसिक कदम उठाया है | बीनू भटनागर जी की आत्मकथा “गुज़रे हुए लम्हे “को आप अटूट बंधन.कॉम पर एक श्रृंखला के रूप में पढ़ पायेंगे | गुज़रे हुए लम्हे -परिचय गुजरे हुए लम्हे -अध्याय 1 गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 2 गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 3 गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय चार गुज़रे हुए लम्हे अध्याय -5 गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 6 गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 7 गुजरे हुए लम्हे -अध्याय-8 गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 9 गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय -10 गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 11 गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 12 गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 13 गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय -14 अब आगे ….   गुजरे हुए लम्हे (परिशिष्ट)अध्याय 15 2019 से आज तक एक ख़ुशी और दुख अनेक  (कोरोना- काल) ‘गुजरे हुए लम्हे’ के अंत में मैंने लिखा था यह जीवन यात्रा है… जब तक यात्रा समाप्त नहीं होती इसमें पन्ने जुड़ते रहेंगे। अंतिम अध्याय में मैंने महत्वपूर्ण यात्राओं का वर्णन किया था। अब हम 2019 में आ जाते हैं। मैं इस वर्ष आगरा गई थी जहाँ की कवि गोष्ठी का मैंने विवरण पहले दिया था। इसी साल हमारी शादी की पचासवीं वर्ष  गाँठ होने वाली थी।  नेहा ने मुझसे पूछा कि हम कहीं घूमने जाना चाहेंगे या एक पार्टी करें। इन्हें तो किसी भी अवसर पर कोई जश्न मनाना इतना पसंद नहीं है इसलिये उसने मुझसे ही पूछा। घूमने जाने के लिये उस समय कमर का दर्द इजाजत नहीं दे रहा था अतः पार्टी करने का ही सोचा । वैन्यू और बाकी चीज़ों पर विचार करने के लिये बहुत समय था पर आगरा में मैंने पूनम के साथ मिल कर मेहमानों की विदाई में देने वाले उपहार की योजना बना ली।  मुझे हमेशा से ही ख़रीदकर देने की बजाय हाथ की बनाई या ख़ुद से डिज़ाइन की हुई चीज़ें देना  पसंद है।  हमने एक कलैंडर बनाया जिसमें अलग अलग फूलों पर मेरे लिखे हुए दोहे और उसी फूल के चित्र थे। 12 दोहे 12 फूलों के चित्र 12 महीनों में। जैसी कि उम्मीद थी पहले तो ये  थोड़ा नाराज़ हुए  कि ये सब करने की क्या ज़रूरत है फिर थोड़ा समझाने पर मान गये और कहा कि पार्टी सादगी से हो। मुझे भी सादगी ही पसंद है। दोबारा शादी की रस्में पूरी करने की नौटंकी तो मुझे भी पसंद नहीं है। बस एक बार मित्रों और परिवार को इकट्ठा करने का बहाना चाहिये होता है। पार्टी में बस केक काटा जायेगा और कुछ खास नहीं होगा यह निश्चित हो गया। पहले सोचा था अपूर्व की सोसायटी के कम्यूनिटी हॉल को बुक कर दें पर वह कई जगह से बहुत दूर पड़ता, इसलिये CSOI में ही करवा दिया वहाँ मेरी पहली किताब  ‘मैं सागर ने एक बूंद सही’ का अनावरण भी हुआ था।  स्थान चयन कर लेने के बाद तारीख़ तय करके बुकिंग कराना भी ज़रूरी था 12 दिसंबर की जगह हमने 15 दिसंबर की तारीख़ तय की क्योंकि रविवार को अधिकतर लोगों को आने में सुविधा होती है। बीबी को तो सर्दियों में आना ही था उनको पहले से ही सूचित कर दिया तो उन्होंने उसके ही अनुसार आने का कार्यक्रम बनाया। उनके साथ नीरू को भी आना था। सब से पहले इन्हीं तीनों के आने की पुष्टि हुई। बाकी लोगों का तो अंतिम क्षण तक ही हाँ और न  चलता रहा।लोगों को कहाँ ठहराना है इसका इंतज़ाम तो तब होता जब पता होता कि कौन कौन आ  रहा है। बीबी को तो घर में ही ठहरना था उनकी तारीख़ भी पक्की थी। अंत में हमें बगल वाले और एक ऊपर वाले फ्लैट की चाबी मिल गई वे लोग दिल्ली से बाहर गये  हुए थे। अत: सब के रहने की व्यवस्था अच्छी हो गई। आगरा से सभी  आये थे लखनऊ से आशा भाभी और अनुज आये बड़ौदा से चारू सुखदेव भी आये यद्यपि वो शाम को चले गये। पार्टी में शिरकत नहीं कर सके बस सब से मिल लिये। इनके परिवार से नीता और स्वीटी शामिल हुए। दिनेश भैया और उमा दीदी तो यहीं थे। जयश्री की कमी खली वह लंदन गई थी। शशि बीबी के परिवार से कोई नहीं आया, लोकेश भाई साहब भी नहीं आ पाये थे। बीबी की ससुराल के लोग और नेहा के मायके के लोग भी शामिल हुए। पार्टी में क़रीब 50 लोग थे और घर में 20 के लगभग रिश्तेदार ठहरे थे। काफ़ी अच्छा माहौल रहा सब ने मज़े किये। पार्टी में कुछ लोगों ने पुरानी यादें ताज़ा की , कोई पार्टी गेम नहीं रखा था बस एक लकी डिप था। रात को जब हम लौट रहे थे तभी पता चला था कि  CCA, NRC के विरोध में दिल्ली में कुछ थे हिंसक घटनायें हुई है। धीरे धीरे ये हिंसक विरोध देश भर में उग्र होते चले गये। दिल्ली में शाहीनबाग़ में महिलाओं ने सड़क को घेर लिया और दिल्ली में काफ़ी बड़े स्तर पर दंगे हुए। देश की शांति व्यवस्था बुरे दौर में थी। देश की राजनीति के साथ पारिवारिक स्तर पर और पड़ौस के स्तर पर भी 2019 में 15 दिसंबर के बाद बुरा वक्त चल रहा था। बीबी वापिस चली गईं थी पर उनके वापिस पहुँचने के दो दिन बाद ही सूचना मिली कि उनका  बड़ा पुत्र जो केवल 62 साल का था अचानक चल बसा। उसकी तो मामूली सी बीमारी की भी कभी ख़बर नहीं आई थी। रिटायरमैट लेने के बाद वह अपनी पत्नी के साथ पर्यटन पर ही रहता था चाहें देश हो या विदेश।  बीबी की  रोती  हुई सूरत  देख कर गले लगाने का मन होता था पर….. मजबूर थे। मेरा अशोक से बचपन का नाता था… मेरे से सिर्फ 9 साल छोटा  था बचपन में उसके हाथ बहुत खेली थी। यहाँ घर में मातम छा गया था। बीबी भाई साहब के दुख का हम अंदाज भी नहीं लगा सकते, परन्तु दोनों ने ही अपने दुख के साथ जीना सीख लिया और ख़ुद को सामान्य जिंदगी … Read more

गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय -14

यात्रा वृत्त

  आत्मकथा लेखन में ईमानदारी की बहुत जरूरत होती है क्योंकि खुद के सत्य को उजागर करने के लिए साहस चाहिए साथ ही इसमें लेखक को कल्पना को विस्तार नहीं मिल पाता | उसे कहना सहज नहीं होता | बहुत कम लोग अपनी आत्मकथा लिखते हैं | बीनू दी ने यह साहसिक कदम उठाया है | बीनू भटनागर जी की आत्मकथा “गुज़रे हुए लम्हे “को आप अटूट बंधन.कॉम पर एक श्रृंखला के रूप में पढ़ पायेंगे | गुज़रे हुए लम्हे -परिचय गुजरे हुए लम्हे -अध्याय 1 गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 2 गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 3 गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय चार गुज़रे हुए लम्हे अध्याय -5 गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 6 गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 7 गुजरे हुए लम्हे -अध्याय-8 गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 9 गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय -10 गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 11 गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 12 गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 13 अब आगे ….     गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 14 –यात्रा वृत्त (2011 के बाद) मैं छोटी थी तो मेरी यात्रायें जब बुलंदशहर सिकंद्राबाद और ज्यादा से ज्यादा दिल्ली तक होती थीं, जिनका उद्देश्य भी कभी पर्यटन नहीं होता था। पर्यटन के लिये विवाह से पूर्व एक नैनीताल यात्रा की थी और दूसरी काश्मीर की थी। ये इतनी पुरानी बातें है कि उनकी हल्की झलक ही दिमाग़ में है, इनका जिक्र मैं अध्याय 2 और 3 में कर चुकी हूँ।   शादी के बाद ही एक तरह से मैं उत्तर प्रदेश के बाहर निकली थी। मुंबई, केरल और गोवा भी तनु के इलाज के सिलसिले में गये तो वहाँ के प्रमुख आकर्षण देख लिये थे। सिकंद्राबाद हैदराबाद भी घूमा। शोलापुर से आते आते  पंढरपुर, शिरडी,बीजापुर और महाबलेश्वर भी गये थे। इन सब यात्राओं का जिक्र समय समय पर यादों पर ज़ोर डालकर मैंने किया है।   दिल्ली आने के बाद हरिद्वार, ऋषिकेश, शिमला, देहरादून  और मसूरी गये थे।।शिमला तो तीन बार जाना हुआ था, वहाँ रेलवे के रैस्टहाउस में रुके थे। ये तो हर बार ड्यूटी पर ही थे, रेलकार से जब चाहें जहाँ रुके निरीक्षण किया  और आगे बढ़ गये। कुफरी और शिमला का भव्य राषट्रपति निवास देखा जो कि अब उच्च शिक्षा का केंद्र है। अद्भुत इमारत है जिसका एक हिस्सा पर्यटकों के लिये खुला रहता है। यहाँ का लॉन और उद्यान भी बहुत सुंदर है।   जब से लिखना शुरू किया है हर यात्रा की स्मृतियों से कभी कविता सजाई है तो कभी लेख लिखा है और कभी गद्य और पद्य दोनों रूपों में यात्रा वृत्त लिखे हैं। ये स्मृतियाँ मेरे जीवन का अंग हैं, इसलिये इनको इस अध्याय में प्रस्तुत करूँगी। ये सभी यात्रा संस्मरण किसी न किसी पत्रिका या वैब साइट पर आ चुके हैं परन्तु  इनका कॉपी राइट मेरा ही है, यह मैं पहले स्वानुभूति में भी बता चुकी हूँ।  इस अध्याय में मैं दार्जिलिंग, गैंगटॉक यात्रा(2011), केरल यात्रा(2013) और उत्तराखंड यात्रा(2016) और ग्वालियर यात्रा(2019) के संस्मरण ही प्रस्तुत करूँगी। शिमला और हरिद्वार ऋषिकेश यात्राओं पर जो कवितायें लिखी थीं वे पेश करूँगी,तो पहले कवितायें-     शिमला से.. खिड़की खोली, दर्शन किये प्रभात के, सूर्य की किरणें पड़ी जब, हिम शिखर पर, विस्तार ज्योति पुंज का, मेरे द्वार पे।   ये नोकील पेड़ देवदार के, प्रहरी बने खड़े हैं, पर्यावरण के बहार के।     एक सौ तीन सुरंगें, पार करती घूमती चढ़ती हुई, रेल की ये पटरियां, दौड़ती हैं जिन पर सुन्दर, सजीली गाड़ियां। अति सुखद है यात्रा, शिवालिक पहाड़ की।   ऊंचे नीचे, टेढे-मेढे, रास्ते पहाड़ के, रेंगते हैं इन पर वाहन प्रवाह से ऊंचे शिखर, नीची वादी, सौन्दर्य रचनाकार के।   जीवित हूँ या स्वर्ग में, भ्रम मुझे होने लगा है, मुग्ध मुदित मन मेरा, होने लगा है। चारों ओर फैला है, बादलों का एक घेरा, छू लिया है बादलों को, मुट्ठी में बन्द किया है, पागल आशिकों को।   शाम ढली पुलकित हुई मैं, ठंडी बयार से, तन मन शीतल हो रहा है रात्रि के प्रहार से।   तारों भरा आसमां नीचे कैसे हो गया, आकाश ऊपर भी नीचे भी, फिर मुझे कुछ भ्रम हो गया। स्वप्न है या यथार्थ, यथार्थ कबसे इतना सुखद हो गया !   ऊपर निगाह डाली तो बादलों के घेर थे, बूँदें गिरी मौसम ज़रा नम हो गया यह सुख फिर कहीं खो गया।   सूखी चट्टानें, कटे पेड़, देखकर मन विचलित हो गया। सीढियों पर उगती फ़सल देखकर, फिर मन ख़ुश हो गया।   धरती के इस स्वर्ग को बचायेंगे, ये पेड़ देवदार के।   हरिद्वार और ऋषिकेश   उत्तराखण्ड का द्वार हरिद्वार, यहाँ आई गंगा पहाड़ों के पार। पहाड़ों के पार शहर ये सुन्दर। सुन्दर शहर उत्तराखण्ड का मान। मंसादेवी, चंडीदेवी के मन्दिर सुन्दर, मंदिर का रास्ता बन गया है सुगम, केबल कार की यात्रा अति मनोरम। हर की पौड़ी शहर का मान, गंगा की आरती, गंगा की भक्ति, ऊपरी गंगा नहर और गंगा, हरिद्वार का बनी है अभिमान। तैरते हैं यहां प्रज्वलित दीप हर शाम। आयुर्वेद्यशाला पंतजलि संस्थान, गुरुकुल कांगड़ी यहां विद्यमान। हरिद्वार के निकट ही शहर ऋषिकेश, आश्रमों में साधुओं का होता है प्रवेश। विशाल झूला सा पुल झूला लक्ष्मण, राम के नाम का भी झूला विलक्षण। युवा पर्यटकों का भी मन मोहे  ऋषिकेश, डेरों में रहते थे युवा नदी के तट पर, डेरे तो उठ गये प्रदूषण से बचाव को, फिर भी नदी में है राफ़्टिग जारी ।   यहां से ही शुरू होती है शुभ यात्रा, उत्तराखण्ड की चार धाम यात्रा। गंगोत्री, जमनोत्री, केदारनाथ, और बद्रीनाथ की तीर्थयात्रा। (अब राफ्टिंग पूरी तरह बंद हो चुकी है)     दार्जिलिंग और गैंगटॉक यात्रा (2011)   अपूर्व की शादी के बाद ये हमारी पहली पर्यटन यात्रा थी, जिसमें परिवार की नयी सदस्य नेहा भी हमारे साथ थी।  हम दिल्ली से विमान द्वारा बागडोगरा हवाई अड्डे पर पहुँचकर सामान की प्रतीक्षा कर रहे थे। मौसम साफ़ था। अचानक नेहा कभी नीचे ज़मीन पर देख रही थी कभी ऊपर और कहने लगी ये पानी कहाँ से आ रहा है। नीचे कुछ गीला था। कुछ देर में पता चाला कि पानी की बोतल जो कि ठीक से बंद नहीं की गई थी, नेहा के बैग में थी उसी से पानी टपक रहा था।इस ज़रा सी लापरवाही की भेंट उसका मोबाइल हो गया जो बहुत कोशिशों के बाद … Read more

गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 13

गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 13 -कभी ख़ुशी कभी ग़म

आत्मकथा लेखन में ईमानदारी की बहुत जरूरत होती है क्योंकि खुद के सत्य को उजागर करने के लिए साहस चाहिए साथ ही इसमें लेखक को कल्पना को विस्तार नहीं मिल पाता | उसे कहना सहज नहीं होता | बहुत कम लोग अपनी आत्मकथा लिखते हैं | बीनू दी ने यह साहसिक कदम उठाया है | बीनू भटनागर जी की आत्मकथा “गुज़रे हुए लम्हे “को आप अटूट बंधन.कॉम पर एक श्रृंखला के रूप में पढ़ पायेंगे | गुज़रे हुए लम्हे -परिचय गुजरे हुए लम्हे -अध्याय 1 गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 2 गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 3 गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय चार गुज़रे हुए लम्हे अध्याय -5 गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 6 गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 7 गुजरे हुए लम्हे -अध्याय-8 गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 9 गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय -10 गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 11 गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 12 अब आगे …. गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 13 –कभी ख़ुशी कभी ग़म (दिल्ली 2006- अब तक) साहित्यिक गतिविधियों के बाद अब पुनः पारिवारिक कथा-क्रम से जुड़ने का समय आ गया है। अपूर्व  अपनी नौकरी में अभ्यस्त हो गया था और तनु घर में 11 वीं और 12 वीं कक्षा के बच्चों को अर्थशास्त्र पढ़ाने में व्यस्त हो गई थी। सेवानिवृत्त होने के बाद दोबारा काम करने का  इनका मन कभी बना ही नहीं। काफ़ी दबाव के बाद एक काम लिया था, पर बहुत जल्दी छोड़ दिया। दोनों समय घूमने जाना बाज़ार के काम करना, घर के कामों में मेरी मदद कर देना और आराम करना ही इनकी दिनचर्या रही, जिससे इन्हें कभी कोई शिकायत नहीं हुई।   2007 जुलाई में एक छोटी सी दुर्घटना हो गई थी।मैं वाशरूम साफ़ करते समय फिसल गई दर्द बहुत ज़्यादा था, पर मैं ख़ुद उठकर खड़ी हो सकी थी, इसलिये मैंने सोचा कि कोई गंभीर बात नहीं है। थोड़ी देर आराम करके, दर्द की गोली खा कर अपने रोज़ के कामों में लग गई थी।सिंकाई  की, दर्द की गोली खाली, क़रीब 10 दिन तक ऐसे ही चला, परन्तु दर्द कम नहीं हो रहा था।   इसी समय गुड़गाँव में शशि बीबी के बेटे के नये फ्लैट का गृह प्रवेश था , जहाँ हम सब को भी जाना था। कार में भी ढाई तीन घंटे बैठना फिर वहाँ हवन, खाने पीने में पूरा दिन ही लगना था इसलिये मैं नहीं गई। ये और दोनों बच्चे ही गये, पर घर में अकेले मैंने आराम भी नहीं किया, सफ़ाई में लग गई, सारी चादरें और कुशन कवर वगैरह बदले, मशीन में कपड़े धोये और सुखाये। शायद शारीरिक कष्ट सहने की अधिक क्षमता के कारण मैं अपनी चोट की गंभीरता को समझ ही नहीं पाई थी। शाम के समय पास के बाज़ार भी चली गई। बहुत दर्द महसूस हुआ तो वापिस आने के लिये रिक्शा कर  ली। रिक्शा में इतने दचके लगे कि रही सही कसर भी पूरी हो गई। रात भर असहनीय दर्द होता रहा तब अगले दिन ऐक्स रे करवाया और हड्डियों के डाक्टर को दिखाया। रीढ़ की हड्डी में दो जगह फ़्रैक्चर थे, डाक्टर ने 6 सप्ताह के लिये बिस्तर पर सीधे लेटे रहने का निर्देश दे दिया था।   ये छः सप्ताह और उसके बाद का लम्बा समय मेरे लिये और पूरे परिवार के लिये बहुत कष्ट का समय था। 6 सप्ताह तक करवट लेने पर भी प्रतिबंध था। शारीरिक कष्ट के अलावा सामने की दीवार को देखते देखते ऊब गई थी। मैं ऐसी जगह पर लेटी थी जो बाथरूम से निम्नतम दूरी पर थी। यहाँ से दूसरे कमरे में रखा टी वी दरवाज़े से देखा जा सकता था परंतु मुझे सुनाई भी दे इसके लिये वॉल्यूम बहुत तेज रखना पड़ता था जिससे वहाँ बैठकर देखने वालों को कुछ परेशानी अवश्य होती होगी।   सारे काम मिल जुल कर ये तीनों कर रहे थे ।दाल चावल सब्जी मुझ से पूछ पूछ कर किसी तरह बना रहे थे पर रोटी पराँठा बनाना उसके लिये आटा गुँधना मुश्किल था। कभी कभी ब्रैड से काम चला लेते थे। अपूर्व का ऑफिस उन दिनों पास ही में था तो वह लंच के समय आ जाता था क्योंकि घर पर जो भी बना हो वह खा लेता था। सुबह सुबह खाना पैक कर के देना मुमकिन नहीं था। ऐसे में हमारी एक पड़ौसन ने खाना बनाने के लिये एक नौकरानी का प्रबंध किया जो रात का खाना बनाने लगी थी। नयी नौकरानी वह भी खाना बनाने के लिये…………….. जिसे मैं कमरे में बुलाकर ही सब निर्देश देती थी, धीरे धीरे वह हमारी पसंद का भोजन बनाना सीख गई थी। 6 सप्ताह बीतने के बाद, जब मैं खड़ी हुई तो दर्द और भी बढ़ गया था। दर्द निवारक गोलियाँ तो महीनों खाईं। दर्द कम होने में क़रीब दो साल लगे पर ठीक तो आज तक नहीं हुआ है। एम्स और स्पाइन इंजरी संस्थान दोनों जगह  दिखाया परन्तु सर्जरी कर के भी दर्द से मुक्ति मिलने की संभावना डॉक्टरों को नज़र नहीं आई थी और फिज़ियोथैरपी की ही बात हुई थी।  साथ ही सही  तरह से आराम, काम और व्यायाम के बीच समन्वय बनाने की सलाह मिली थी। जब कभी दर्द बढ़ा तो फिज़ियोथैरैपी करवाई, सिंकाई की, बहुत ज़रूरी हुआ तो दर्द की गोली खाली । ये दर्द अब जीवन का अंग है, ये सत्य स्वीकार कर लिया है।   अब तक अपूर्व  को नौकरी  करते  हुए  क़रीब दो ढाई साल हो चुके थे। अपूर्व  की दोस्ती हमेशा लड़कियों  से भी रही है इसलिये  हमें लगता था किसी दिन वह आकर कहेगा कि “मुझे फलां लड़की से शादी करनी है” परन्तु अभी तक ऐसा कुछ नहीं हुआ था ,पूछने पर भी उसने हमेशा यही कहा कि  ऐसा कुछ नहीं है। मुझे लगा था कि अब लड़की ढूँढने की जिम्मेदारी  हमें ही निभाना होगी। अतः मैंने अख़बार  में विज्ञापन  देखना शुरू किया और कुछ चुने हुए परिवारों को मेल भेजीं।  मैंने सजातीय कॉलम ही देखे,  ऐसा नहीं है कि मुझे अंतरजातीय  विवाह से एतराज है,  सजातीय लड़की ढूँढने  के पीछे दो कारण थे पहला तो यह कि रविवार को विवाह विज्ञापन  इतने होते हैं कि सब  को नहीं देखा जा सकता किसी न किसी आधार पर सीमा  रेखा बनानी होती है,  दूसरा कारण यह था कि सजातीय परिवारों के बारे में मालूम … Read more

गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 12

गुज़रे हुए लम्हे-अध्याय 13-साहित्यिक गतिविधियाँ

    आत्मकथा लेखन में ईमानदारी की बहुत जरूरत होती है क्योंकि खुद के सत्य को उजागर करने के लिए साहस चाहिए साथ ही इसमें लेखक को कल्पना को विस्तार नहीं मिल पाता | उसे कहना सहज नहीं होता | बहुत कम लोग अपनी आत्मकथा लिखते हैं | बीनू दी ने यह साहसिक कदम उठाया है | बीनू भटनागर जी की आत्मकथा “गुज़रे हुए लम्हे “को आप अटूट बंधन.कॉम पर एक श्रृंखला के रूप में पढ़ पायेंगे | गुज़रे हुए लम्हे -परिचय गुजरे हुए लम्हे -अध्याय 1 गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 2 गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 3 गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय चार गुज़रे हुए लम्हे अध्याय -5 गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 6 गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 7 गुजरे हुए लम्हे -अध्याय-8 गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 9 गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय -10 गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 11 अब आगे …. गुज़रे हुए लम्हे-अध्याय 12 –साहित्यिक गतिविधियाँ (दिल्ली 2006 – अब तक)   तनु ने मुझे धीरे धीरे मुझे टाइपिंग सिखा दी थी। मूलतः तो मैं कविता ही लिखती थी, जो छोटी होती हैं, उन्हे मैं टाइप कर लेती थी। तनु वैब  साइट्स पर भेज देती थी और उनका डिजिटल मीडिया में प्रकाशन होने लगा था। धीरे धीरे मैं ख़ुद ई मेल भेजने लगी थी।पत्रिकाओं( प्रिंट) में भी काफ़ी रचनाये आने लगी थीं। टाइपिंग का अभ्यास हो गया तो लेख भी टाइप करने लगी थी। कुछ संस्मरण लिखे, कुछ संस्मरणों को कहानी का रूप दिया। वैब मीडिया ने मानों दूर दराज़ के लोगों से रिश्ते जोड़ दिये थे।   मेरे लेखन के पहले दौर की कुछ रचनायें अप्रकाशित थीं, जिनको संशोधित करके मैंने टाइप किया। सबसे पहले मेरी रचनायें  सृजन गाथा में आनी शुरू हुईं थीं।मेरे एक लेख ‘ हिन्दी किसकी है?’ को पढ़कर श्री प्राण शर्मा जी ने अति सकारात्मक प्रतिक्रिया दी थी, इसके बाद उनकी मेल भी मिली जिसमें उन्होंने हैरानी जताई थी कि इतना अच्छा लेख लिखने वाली लेखिका अब तक कहाँ थी ! ज़ाहिर है उन्होंने लेखक का परिचय पढ़ा होगा। मैंने भी सृजन गाथा में प्राण शर्मा जी की ग़जले पढ़ी थी और प्रतिक्रियायें देखकर लगा था कि ये प्रतिष्ठित साहित्यकार ही होंगे। मैंने गूगल में ढूँढा तो पता चला कि वे एक वरिष्ठ ग़ज़लकार होने के साथ कथाकार भी हैं और छंद शास्त्र के पंडित हैं। इतने वरिष्ठ साहित्यकार की प्रशंसा से मैं अभिभूत हो गई। मुझे लगा कुछ तो होगा मेरे लेखन में…….. अब नहीं छोडूँगी……. लिखती रहूँगी। मेरी हर प्रकाशित रचना पर प्राण सर की टिप्पणी आती थी। धीरे धीरे मेरी रचनायें प्रवक्ता.कॉम पर आने लगीं। यहाँ भी मेरी रचनाओं पर प्राण सर टिप्पणी देते थे।वे मेल पर हर तरह से हौसला बढ़ाते, और अलग अलग पत्रिकाओं में भेजने की सलाह देते थे। उन से संपर्क बना अंत तक बना रहा। वे इंग्लैड में रहते थे, मैंने उन्हें कभी नहीं देखा क्योंकि अपने स्वास्थ्य के कारण वे भारत आने की हिम्मत नहीं कर पाते थे, जबकि उनकी आत्मा भारत में ही बसती थी। यहाँ होने वाली छोटी मोटी घटनाये, साहित्य से जुड़ी ख़बरों या राजनैतिक ख़बरों से वे अवगत रहते थे। जब मैंने लिखना शुरू ही किया था तब से श्री प्राण शर्मा की प्रशंसा, आलोचना और मार्ग दर्शन मुझे मिला है , उनसे बहुत कुछ सीखा है उनकी लेखनी के विषय में कोई टिप्पणी करने की मेरी औकात नहीं है। वे मेरे लिये गुरु समान थे।   साहित्य में कुछ करने के लिये आजकल क़लम के साथ कम्प्यूटर और अन्य कई गैजेट काम करने में सहायता करते है, इनके बिना काम नहीं चलता, एक उम्र के बाद इन्हें समझना  सीखना आसान भी नहीं होता उसी पर ये दो व्यंग्यात्मक संस्मरण प्रस्तुत हैं।व्यंग्य का निशाना खुद की तरफ ही है।   हम सीख  रहे हैं….. (संस्मरण 14) कहते हैं सीखने की कोई उम्र नहीं होती।  अब  70 हमारे पास मंडरा रहा है और हम सीखे जा रहे है, शायद कब्र तक पहुँचते पहुँचते भी सीखते रहे, सीखने से छुट्टी नहीं मिलने वाली,  सीखे जाओ सीखे जाओ यही हमारी नियति है। पचास साल हो गये पढ़ाई पूरी  किये पर सीखना बन्द नहीं हुआ। हिन्दी इंगलिश ठीक ठाक लिखना पढ़ना आता था पर जब से ये मुआ कम्पयूटर आया तब से ऐसा लगने लगा कि हम तो अनपढ़ हो  गये, दूसरी तीसरी क्लास के बच्चे भी हमसे ज़्यादा जानते हैं। हमारे बच्चों ने हमें बताया कि लिखकर…..अरे नहीं टाइप करके बातचीत करने को चैट कहते हैं। टाइप करके चिट्ठी एक बटन दबा  के चली जाती है जिसे ई मेल कहते हैं । ई मेल का पता घर का पता नहीं होता ख़ुद ही कोई झूठ मूठ का पता बनाने से सारी चिट्ठिययाँ आ जाती है, बस पासवर्ड याद रखना पड़ता है ,नहीं तो आई हुई चिट्ठी भी पढ़ नहीं सकते। हमारी उत्सुकता इतनी बढ़ी कि हमने ठान ली अब हम अनपढ़ नहीं रहेंगे टाइपिंग भी सीखेंगे और कम्प्यूटर इस्तेमाल करना भी। हिन्दी को रोमन में लिखने पढ़ने में अर्थ का अनर्थ होने लगा था। हमने लिखा  chhat  tapak rahi  hai  (छत टपक रही है)पढ़ने वाले ने पढ़ा ‘चाट टपक रही है।‘ जैसे तैसे देवनागरी में टाइप करने की तकनीक उपलब्ध करवाईं और इस युक्ति से मुक्ति ली पर इस उम्र में ये कोई आसान काम नहीं था पर सीखना तो था ही, सो सीखा। चैट की भाषा सीखना भी  आसान नहीं था यहाँ Tomorrow को tmmro या ऐसा ही कुछ और लिख देते हैं too , 2 हो जाता है great को gr8 कर सकते हैं भाषा का ये अनोखा  रूप पढ़ पाना ही हमारे लिये चुनौती था, पर हमने सीखा वैसे ही जैसे कभी क्लास में  नोट्स लिया करते थे!  वह भी अपनी ही बनाई भाषा होती थी, जिसे हम ख़ुद ही पढ़ पाते थे। हाँ अब हमें साइलैंट अक्षरों का हटाना और are को R और you कोU लिखना अच्छा लगने लगा है । हमारी उम्र  बढ़ रही थी और गैजेट छोटे हो रहे थे। हमने डैस्कटौप पर बड़े से मानीटर पर चूहे की पूंछ पकड़कर कम्प्यूटर का प्रयोग करना सीखा था सब अच्छा चल रहा था कि कम्प्यूटर जी बूढ़े होकर बीमार रहने लगे,तो लैपटौप आ गया जिसका स्क्रीन और की बोर्ड हमें छोटा लगता था लैपटौप आने के बाद भी हमने … Read more

गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 11

गुज़रे हुए लम्हे

  आत्मकथा लेखन में ईमानदारी की बहुत जरूरत होती है क्योंकि खुद के सत्य को उजागर करने के लिए साहस चाहिए साथ ही इसमें लेखक को कल्पना को विस्तार नहीं मिल पाता | उसे कहना सहज नहीं होता | बहुत कम लोग अपनी आत्मकथा लिखते हैं | बीनू दी ने यह साहसिक कदम उठाया है | बीनू भटनागर जी की आत्मकथा “गुज़रे हुए लम्हे “को आप अटूट बंधन.कॉम पर एक श्रृंखला के रूप में पढ़ पायेंगे | गुज़रे हुए लम्हे -परिचय गुजरे हुए लम्हे -अध्याय 1 गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 2 गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 3 गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय चार गुज़रे हुए लम्हे अध्याय -5 गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 6 गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 7 गुजरे हुए लम्हे -अध्याय-8 गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 9 गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय -10 अब आगे ….   गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 11-अमरीका यात्रा और सेवानिवृत्त (दिल्ली 2000 से 06) इन्हें सेवानिवृत्त होने में अधिक समय नहीं था, बच्चे एक बार फिर रेलवे की शान के साथ शिमला जाना चाहते थे। बहुत पहले जब ये दोनों छोटे थे तब इनके काम के सिलसिले में साथ हो लिये थे, वही अनुभव दोहराना चाहते थे।हम जाते समय रेल कार से गये जिसे जहाँ चाहें रोक कर इन्होंने लाइन और सिग्नल सिस्टम की जाँच परख की और आगे बढ़ गये। कुफरी तथा अन्य दर्शनीय स्थल देखे और वापिस कैरिज से आये।   शताब्दी के पहले साल में अप्रैल के महीने में अचानक चाची जी की तबीयत ख़राब हुई और  वे 3-4 घंटे में ही चली गईं। जब तक हम अस्पताल पहुँचे  वे जा चुकी थीं।  दिल की बीमारी तो उन्हें थी ही, उच्च रक्त चाप भी रहता था, परन्तु जाने से पहले कोई विशेष बीमार नहीं हुईं थी। बस वक़्त आ गया था और सुकून से चली गईं। उन दिनों अपूर्व और सौम्या के कॉलिज के दूसरे साल की परीक्षा चल रहीं थी। जिस समय उनकी अंत्येष्टि हुई थी उस समय अपूर्व परीक्षा दे रहा था।   जैसा कि हमारी मान्यता है ,चाची जी की अंतिम विदाई के बाद सादगी से हवन और शांति पाठ करवा दिया, कोई बहुत बड़ा आयोजन नहीं किया न कोई रस्म अदायगी की।  चाची जी के जाने के बाद चाचा  जी बहुत अकेले हो गये थे। चाचा जी को सुनाई कम देता था, चाची जी हर बात उन्हें ज़ोर ज़ोर से बोलकर सुनाती थीं, ख़ासकर जब किसी से फ़ोन पर बात करती थीं, उसके बाद संवाद का उन्हें पूरा विवरण देती थीं। । आवाज़ चाचा  जी की भी तेज़ थी, पर अब वे इतनी फुर्सत से किससे बातें करते!   हमने लखनऊ का मकान जब बनाया था. तब बच्चे छोटे थे पर अब  वे बड़े हो गये थे, दोनों ही लखनऊ नहीं जाना चाहते थे। लखनऊ के मकान के गृह प्रवेश के समय मेरी तबीयत ख़राब हुई फिर एक किराये दार ने बहुत परेशान किया था, इसलिये हमें भी उसकी दरों दीवार से कोई विशेष लगाव नहीं हुआ था, जबकि वह मकान  बहुत बड़ा और अच्छा था और ख़ुद की निगरानी में बना था। ।हमने निश्चय किया कि उसे बेचकर दिल्ली में ही फ्लैट ले लेंगे। अतः वह मकान जिसको बहुत मेहनत से बनाया था, बेच दिया। दिल्ली में वसुंधरा एन्क्वलेव में 3 बैडरूम का फ्लैट ख़रीद लिया, जिसमें हम आज तक रह रहे हैं।   अपूर्व ने 2002 में बी.कॉम कर लिया था अब प्रबंधन (मैनेजमैंट) की प्रवेश परीक्षाओं के लिये एक साल उसकी तैयारी करनी थी। तनु अपने काम पर जा ही रही थी।  मेरी सोच में अब परिवर्तन आने लगा था। पहले मुझे लगता था कि मैं एक असफल इंसान हूँ, अब मैं सोचने लगी थी कि मैंने अपने सब कर्तव्य सही तरीके से निभायें हैं, यदि कोई संतुष्ट नहीं है, तो ये मेरी नहीं उसकी समस्या है। मैंने अपने बच्चों की अच्छी परवरिश की है, पर मैं उनकी किस्मत नहीं लिख सकती। 2002 में बीबी आई थी। रात में हम बहनों में बातचीत हुई और सुबह हमने ऐलान कर दिया कि मैं बीबी के साथ अमरीका जा रही हूँ। पासपोर्ट था ही, वीसा भी जल्दी मिल गया। रघुवीर और उसका परिवार आउट हाउस में थे, जो पूरा घर संभाले हुए थे। इन तीनों को कोई दिक़्कत नहीं होने वाली थी।  दिसम्बर में इनकी सेवानिवृत्ति होनी थी, बस साठवें जन्मदिन और सेवानिवृत्ति के समय दूर रहना अखर रहा था,परंतु यह भी लग रहा था कि अब नहीं गयी तो शायद फिर कभी न जा पाऊँ।   ये मेरी पहली विदेश यात्रा ही नहीं, पहली हवाई यात्रा भी थी।ये भी संयोग की बात है हम दोनों की पहली हवाई यात्रा सीधे अमरीका यात्रा ही थी, भले समय का अंतराल बहुत लम्बा …… कुछ दशकों का था। इनकी रेलवे की सर्विस की वजह से लम्बे लम्बे सफ़र ट्रेन से ही करे थे। रेलवे  साल में व्यक्तिगत यात्रा के लिये भी 6 पास रेलवे देती थी। उस समय तक भी हवाई सफर जनसाधारण के लिये मंहगा ही होता था। हमें उड़ान पैरिस में बदलनी थी, पर बीबी साथ में थी इसलिये कोई परेशानी या घबराहट नहीं थी।  इतनी लम्बी हवाई यात्रा में मैं बहुत थक गई थी पर बीबी उतना थकी हुई नहीं लग रही थीं। डलस एयरपोर्ट पर भाई साहब मिल गये थे। घर पहुँच कर जब घर के सामने खड़े थे तब वहाँ भयंकर सा सन्नाटा महसूस हुआ।  भारत में रहते हुए ऐसा सन्नाटा कभी पहले नहीं महसूस हुआ था। ये सन्नाटा और ठंड जान लेवा सी लगी थी।   मैं जितनी थकान महसूस कर रही थी उतनी ही ताज़गी बीबी के चेहरे पर थी। मुझे विदेश में आकर ऐसा लग रहा था कि मैं अपने माहौल को डेढ दो महीने के लिये बहुत पीछे छोड़ आयी हूँ और वे अपने माहौल, अपने घर लौटीं थी। आते ही उन्होंने झटपट खिचड़ी बना ली। कुछ देर बाद उन्होंने डीप फ्रीज़र में देखा, जाने से पहले( 3-4 सप्ताह) वे बैंगन और कुछ अन्य सब्जियाँ बना गईं थी जो भाईसाहब खा नहीं पाये थे, बची हुईं थी। अब हुआ ये कि ताजी खिचड़ी फ्रीज़र में और पुरानी दाल सब्जी बाहर! धीरे धीरे पता चला कि ये वहाँ लगभग हर घर की कहानी है।मैं इतनी थकान महसूस कर रही थी कि उस रात … Read more

गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय -10

गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय -10

  आत्मकथा लेखन में ईमानदारी की बहुत जरूरत होती है क्योंकि खुद के सत्य को उजागर करने के लिए साहस चाहिए साथ ही इसमें लेखक को कल्पना को विस्तार नहीं मिल पाता | उसे कहना सहज नहीं होता | बहुत कम लोग अपनी आत्मकथा लिखते हैं | बीनू दी ने यह साहसिक कदम उठाया है | बीनू भटनागर जी की आत्मकथा “गुज़रे हुए लम्हे “को आप अटूट बंधन.कॉम पर एक श्रृंखला के रूप में पढ़ पायेंगे | गुज़रे हुए लम्हे -परिचय गुजरे हुए लम्हे -अध्याय 1 गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 2 गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 3 गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय चार गुज़रे हुए लम्हे अध्याय -5 गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 6 गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 7 गुजरे हुए लम्हे -अध्याय-8 गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 9 अब आगे ….     अध्याय 10-लेखन की शुरुआत (दिल्ली 1997 से 2000) 1997 में अपूर्व ने 10 वीं कक्षा पास कर ली थी। हिंदी तो दसवीं तक ही पढ़ी थी उस समय का एक संस्मरण उद्धरित करके इस अध्याय का आरंभ करती हूँ।–   मैं और मेरा बेटा (संस्मरण 9 )   आज कुछ पुरानी बाते याद आ रहीं हैं, अपूर्व मेरा बेटा जब दसवीं कक्षा में था तो  मैं उसे हिन्दी पढ़ाया करती थी विशेषकर कविता। कविता में उसे बिल्कुल रुचि नहीं थी पर परीक्षा देनी थी इसलिये पढ़ना तो था ही। शब्दों का अर्थ समझाने के बाद भावार्थ समझाना बहुत कठिन हो जाता था क्योंकि उसके पाठ्यक्रम की कविताओं में जो विषय लिये गये थे, वो या तो दार्शनिक से थे या फिर उस आयु के लिये बेहद नीरस। अंत में यही होता कि ‘’मां मैं रट लूँगा परीक्षा से 2-3 दिन पहले लिख कर रख दो।  ‘’आखिर मैं कितना लिखूँ और वह कितना रटे!   कवियों का जीवन परिचय और साहित्यिक परिचय भी परीक्षा में अवश्य ही आता था, जब कवि की एक रचना समझना कठिन है तो साहित्यिक परिचय कैसे लिखें!  8-9 कवि और उतने ही लेखक तो होंगे पाठ्यक्रम में।   अपूर्व ने ही सुझाव दिया कि ‘’मां एक चार्ट बना दो उस में सब कवियों और लेखकों के नाम फिर जन्म तिथि जन्म स्थान और हर एक की दो दो किताबों के नाम लिख दो बाकी सब  की कविताओं की तारीफ में कुछ कुछ लिख दूँगा नम्बर लेने के लिये कुछ तारीफ करना ज़रूरी है, बुराई तो कर नहीं सकते।‘’   मैंने चार्ट बना दिया सुपुत्र जी ने देखा फिर अपने अंदाज में बोले ‘’ये बर्थ डे क्यों याद करनी पड़ती है?अब कवियों को फोन कर के हैप्पी बर्थ डे कहना है क्या !   मैं निरुत्तर…   फिर उनके जन्म स्थान ‘’अरे माँ ये सब कहाँ कहाँ जाकर पैदा हुए इन छोटे छोटे गाँवों के नाम कैसे याद होंगे दिल्ली मुंबई में कवि और लेखकों जन्म क्यों नहीं लेते ? यहाँ भी हमसे दुश्मनी !’’ ‘’ माँ आप कहाँ पैदा हुईं थी?’’ अचानक मुझ पर सवाल दाग दिया ।   ‘’बेटा, बुलन्दशहर’’ मैंने बताया।   ‘’तभी कविता लिखने का शौक है’’ उसने निराशा के साथ कहा।‘’   उस समय मेरी कवितायें और लेख पत्रिकाओं में प्रकाशित होने लगे थे।   अपूर्व एकदम बोल पड़ा ‘’लिखना है तो कविता लिखो पर छपवाना बन्द करो।‘’   मैंने पूछा ‘’क्यों ?’’   ‘’अगर किसी NCERT वाले को पसंद आ गईं आपकी कवितायें और कोर्स की किताब में डाल दी गईं तो बच्चे बहुत कोसेंगे। मेरी माँ को कोई बुरा भला कहे मैं बर्दाश्त नहीं कर सकता। ‘’उसने मासूम सा, भावुक सा जवाब दिया ।   समस्त कवि गण इसे चेतावनी समझ सकते हैं ! कृपया ध्यान दें! पाठ्यक्रम निर्धारित करने वाले भी विचार करें।   संस्मरण का सिलसिला शुरू हुआ है तो एक के बाद एक दो संस्मरण और-     नाम गुम जायेगा..   (संस्मरण 10 )   हमारे पति श्री अरुण भटनागर रेलवे में  उच्च अधिकारी रहे हैं, उस समय उनकी आयु 55 के क़रीब होगी। अपने सारे काम पूरी निष्ठा से करते रहे हैं। बुद्धिमान हैं, अपने कार्यालय में अच्छी छवि है। याददाश्त इतनी अच्छी है कि क्रिकेट में कब क्या हुआ या कोई ऐतिहासिक घटना हो तुरन्त बता देते हैं। कभी कभी मैं उनसे कहती  थी कि उन्हें तो ‘कौन बनेगा करोड़पति’ में जाना चाहिये। जब भी यह कार्यक्रम देखते हैं फटाफट उत्तर देते जाते हैं, कोशिश करके एक बार वहाँ पहुंच जायें तो कम से कम 50 लाख तो जीत ही सकते हैं।   याददाश्त इतनी अच्छी होते हुए भी इनके लिये मेरा और बच्चों का जन्मदिन याद रखना मुश्किल होता है, पर बच्चे और मैं इन अवसरों के आने से पहले ही इतने उत्साहित रहते हैं कि उन्हें याद आ जाता है। कभी बच्चे पहले आकर कह देते हैं ‘’मम्मी पापा शादी की साल गिरह मुबारक हो’’ तो उन्हें भी याद आ जाता है कि पत्नी को मुबारकबाद दे दें।   इनकी सबसे बड़ी परेशानी है कि वे लोगों के और कभी कभी स्थानों के नाम भी भूल जाते हैं। कभी किसी पार्टी में कोई बहुत दिन बाद मिलता और उत्साहित होकर पूछता ‘’कैसे हैं भटनागर साहब, पहचाना नहीं क्या ?’’ ‘’अरे, कैसी बात कर रहे हैं पहचानूँगा क्यों नहीं।‘’ कहने को तो ये कह देते, वे उन महाशय को पहचान भी रहे होते, बस नाम दिमाग़ से फिसल जाता। ऐसे में वहाँ से खिसक लेने मे ही भलाई समझते कि कहीं बात बढ़े और पोल खुल जाये।   इनका अपना परिवार काफ़ी बड़ा है। अपने भाई बहनों के नाम तो याद रहते हैं पर उनके बच्चों के नाम कभी कभी भूल जाते है। मेरे परिवार में बहुत लोगों के दो नाम हैं, घर का एक नाम और असली नाम कुछ बिल्कुल अलग!, वहाँ तो उनकी मुश्किल दोगुनी हो जाती है। इन्हें अकसर सरकारी काम से शहर से बाहर जाना पड़ता है। एक बार ये नई दिल्ली से लखनऊ मेल में सवार हुए। रात का समय था ट्रेन चल चुकी थी वे आराम से सोने की तैयारी में थे, कंडक्टर ने आकर भारतीय रेल का पास देखा, जैसे ही वह जाने को हुआ तो इन्होंने कहा ‘’मुझे हरिद्वार मेये जगा देना।‘’   कंडक्टर ने कहा ‘’सर, ये ट्रेन हरिद्वार नहीं जाती।‘’   ‘’अरे, कैसे नहीं जाती लखनऊ मेल ही है न। ‘’   … Read more

गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 9

ग्वालियर का छूटना

आत्मकथा लेखन में ईमानदारी की बहुत जरूरत होती है क्योंकि खुद के सत्य को उजागर करने के लिए साहस चाहिए साथ ही इसमें लेखक को कल्पना को विस्तार नहीं मिल पाता | उसे कहना सहज नहीं होता | बहुत कम लोग अपनी आत्मकथा लिखते हैं | बीनू दी ने यह साहसिक कदम उठाया है | बीनू भटनागर जी की आत्मकथा “गुज़रे हुए लम्हे “को आप अटूट बंधन.कॉम पर एक श्रृंखला के रूप में पढ़ पायेंगे | गुज़रे हुए लम्हे -परिचय गुजरे हुए लम्हे -अध्याय 1 गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 2 गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 3 गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय चार गुज़रे हुए लम्हे अध्याय -5 गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 6 गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 7 गुजरे हुए लम्हे -अध्याय-8 अब आगे …. गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 9:ग्वालियर छोड़ना (दिल्ली 1992 से 96)   इस समय तक ग्वालियर में सिर्फ चाचा जी चाची जी रह गये थे। शशि बीबी का बेटा जो दसवीं के बाद से ग्वालियर में ही पढ़ा था, इंजीनीयरिंग करके दिल्ली में नौकरी करने लगा था। शशि बीबी (बड़ी ननद) के पति रवि भाई साहब सेवानिवृत्तहो कर सिंदरी (बिहार) से लखनऊ आ चुके थे। तनु कॉलिजके अंतिम वर्ष में थी।   इसी साल होली से कुछ पहले परिवार को एक बहुत बड़ा झटका लगा जिसने सब को हिला दिया। आधी रात को पता चला कि सड़क दुर्घटना में नीता के पति की मृत्यु हो गई थी । वह होली मनाने अपने घर रायपुर जा रहे थे। सिर की चोट ने वहीं प्राण ले लिये, नीता के हाथ में ज़रा सी खरोंचे आईं, बच्ची और नीता के देवर को कोई चोट नहीं लगी। उनकी जीप एक खड़े हुए ट्रक से टकराती हुई निकली तो उनके सिर को आघात लगा था। नीता की शादी को केवल आठ साल हुए थे और ढाई साल की बेटी थी। नीता के पति के निधन की सूचना सबसे पहले हमें ही मिली। ग्वालियर में केवल दुर्घटना की सूचना दी गई थी,उनके निधन की नहीं।   उन दिनों दिनेश भैया गुरु तेग बहादुर अस्पताल से सऱदर जंग अस्पताल में आ गये थे और लक्ष्मी बाई नगर में रह रहे थे परन्तु जयश्री की नौकरी अभी भी पूर्वी दिल्ली में थी, बच्चे भी वहीं पढ़ रहे थे इसलिये वह अपने माता पिता के साथ रह रही थी। दक्षिण दिल्ली तबादले की कोशिश थी और अगले सत्र में बच्चों को भी द.दिल्ली के स्कूल में दाखिला करवाना था। ये सब यहाँ बताना ज़रूरी है क्योंकि आगे आने वाले घटनाक्रम में ये बातें महत्वपूर्ण होंगी।   मृत्यु  की सूचना पाते ही हम दिनेश भैया के यहाँ गये,  जो होना था हो चुका था,  अब क्या करना है यह विचार करना था। उमा दीदी भी वहाँ जाना चाहती थीं। नागपुर से कुछ घंटे की सड़क यात्रा करनी थी। इन्होंने अपना दिनेश भैया और उमा दी का रेल आरक्षण  करवा लिया था, उसी ट्रेन से मैं और उमा दी के पति ब्रजेश भाई  साहब भी चले, पर हम ग्वालियर उतर गये, चाचा जी और चाची जी को संभालने के लिये । अभी तक उनको मृत्यु की सूचना नहीं दी गई थी।  जयश्री हमारे और अपने बच्चों की देखभाल करने हमारे घर आ गई थी ।   ग्वालियर पहुँचकर मैंने जो नज़ारा देखा उसकी सपने में भी कल्पना नहीं की थी। दुख से ज़्यादा चाची जी को क्रोध था जिसमें उन्होंने शब्दों की सभ्य सीमा को पार करके अपने दोनों बेटों को कोसना शुरू कर दिया था, जो मेरे लिये तो असह्य थापरंतु मौका ऐसा था कि मेरे लिये चुप रहना ही सही था। अड़ौसी पड़ौसी रिश्तेदारों की संवेदनायें स्वाभाविक था, कि उन  ही के साथ थीं। मुझमें सुनने का साहस नहीं रहा तो मैंने दूसरे कमरे में जाकर शरण ली।   उनका निशाना उनके दोनों लायक बेटे थे जो उस समय दुनिया के सबसे बुरे बेटे बने हुए थे। उनको सबसे बड़ी शिकायत यह थी कि दोनों उन्हें लेकर नहीं गये, दूसरी शिकायत थी कि पैसे बचानेके लिये ट्रेन से गये, हवाई जहाज़ से जाना चाहिये था। उनकी दोनों ही शिकायत वाजिब नहीं थी। उन दोनों का स्वास्थ्य सफ़र के लायक नहीं था, यदि उन दोनों को ले जाते तो इतनी जल्दी नहीं पहुँच सकते थे।   जहाँ तक हवाई जहाज़ से जाने का सवाल था उन दिनों ए.टी.ऐम.  क्रैडिट कार्ड डैबिट कार्ड नहीं होते थे। एयरलाइंस की बुकिंग के लिये पैसे निकालने के लिये सुबह बैंक खुलने की प्रतीक्षा करनी पड़ती।इंटरनैट नहीं था, ट्रैवल एजैंसी बहुत कम होती थी और हमें उनके बारे में कुछ मालूम नहीं था। रेलवे में होने के कारण सुबह की ट्रेन का आरक्षण तुरंत मिल गया, संबंधित अधिकारी को पैसे बाद में भिजवा दिये गये। जहाँ वे रहते थे वहाँ के लिये नागपुर स्थित सहकर्मियों ने कैब का भी प्रबंध पहले ही कर दियाथा। आख़िरी बात शिकायत में विरोधाभासथा!यदि उन्हें ग्वालियर से लेना ही था तो हवाई जहाज़ से कैसे जाते!  अतः उनकी किसी भी शिकायत में दम नहीं था, गहरा दुख था पर यह दुख उनके बेटों ने नहीं दिया था, प्रभु इच्छा थी, जिसके आगे किसी की नहीं चलती, पता नहीं कौन सी कुंठाये और शिकायतें मौक़ा पाकर लावा की तरह ज्वालामुखी से फूट रही थीं।   अभी तक मैं अवसाद और व्याकुलता (depression& anxiety) से पूरी तरह उभरी नहीं थी,यहाँ के वातावरण ने मुझे फिर अँधेरों में ढकेल दिया था। मैंने सबसे अलक थलक अपने को एक कमरे में बंद कर लिया था, तीन चार दिन सिर्फ चाय और पार्ले जी बिस्किट पर रही थी। जब दोनों भाई वहाँ से लौटे तो बिना समय गँवाये उसी समय ये मुझे लेकर  पहली उपलब्ध ट्रेन से दिल्ली आ गये।  यहाँ मेरा इलाज चल ही रहा था।जितने दिन मैं ग्वालियर रही दिनेश भैया के एक डाक्टर मित्र ने मेरा बहुत ध्यान रखा, दवाॉइयों का प्रबंध किया औरनींद काइंजैक्शन भी लगाना पड़ा था। ये वही मित्र थे जिन्होने तनु के पैदा होने के समय भी मेरा बहुत ख़याल रखा था।   कुछ दिनों से यह बात चल रही थी कि चाचा  जी और चाची जी का अब ग्वालियर में रहना मुश्किल है और अब वह दिल्ली आकर रहेंगे। वे दोनों निश्चय कर चुके थे कि उन्हें दिनेश भैया और जयश्री के साथ रहना हैं … Read more

गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 7

महानगरीय जीवन का आरंभ

आत्मकथा लेखन में ईमानदारी की बहुत जरूरत होती है क्योंकि खुद के सत्य को उजागर करने के लिए साहस चाहिए साथ ही इसमें लेखक को कल्पना को विस्तार नहीं मिल पाता | उसे कहना सहज नहीं होता | बहुत कम लोग अपनी आत्मकथा लिखते हैं | बीनू दी ने यह साहसिक कदम उठाया है | बीनू भटनागर जी की आत्मकथा “गुज़रे हुए लम्हे “को आप अटूट बंधन.कॉम पर एक श्रृंखला के रूप में पढ़ पायेंगे | गुज़रे हुए लम्हे -परिचय गुजरे हुए लम्हे -अध्याय 1 गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 2 गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 3 गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय चार गुज़रे हुए लम्हे अध्याय -5 गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 6 अब आगे ….   गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 7 –महानगरीय जीवन का आरंभ (दिल्ली1978 से 86 तक) हम लोग ज्यादातर सामान शोलापुर में पैक करके रख आये थे ओर काफ़ी कुछ बेच भी दिया था। बस सूटकेस में कपड़े लेकर दिनेश भैया के यहाँ चले आयेथे।मकान मिलने में कुछ समय लगना था। बाकी लोग रमा दी, चाची जी वगैरह वहाँ से जा चुके थे। दिनेश भै़या को भी सूरत मैडिकल कालेज में नौकरी मिल गईथी तो वह भी चले गयेथे, जयश्री दिल्ली में ही रही, कभी कभी सूरत चली जाती थी। यह मकान कुछ दिन रख तो सकते ही थे। जयश्री भी ज्यादातर अपने माता पिता के पास रहने लगी थी, इसलिये मकान उनका होते हुए भी घर हम ही चला रहेथे। जैसे जैसे दिन बीत रहे थे,सरकारी मकान मिलने और तनु का स्कूल में दाख़िलाकरवाने कीचिंता मन पर बहुत हावी हो रहीं थी।   हम दोनों ही महानगरों में अभी तक नहीं रहे थे। छोटे शहरों और महानगरों की जीवन शैली में बहुत अंतर होता है। इनकी पोस्टिंग रेलवे बोर्ड में हुई थी। जुलाई आते आते सरोजनी नगर के रेलवे बोर्ड के ट्राँज़िट फ्लैट में हमें घर मिल गया था। घर छोटा था परंतु बहुत सुविधाजनक था। आउट हाउस और छोटा सा लॉन भी था। सरोजनी नगर का बाज़ार बहुत पास था। अब तो इसबाज़ार की गिनती दिल्ली के मुख्य बड़े बाज़ारों में होती है।   घर के सामने रिंग रेलवे की लाइन थी और उसके पार कुछ दूर पर ही नेवल पब्लिक स्कूल था।  तनु का दाख़िला वहीं करवाना था। प्रधानाचार्य से जाकर पहले ही बात कर ली थी। हालाँकि उन्होंने बहुत सहृदयता दिखाई और बिना कोई परीक्षा लिये दाख़िला देने को तैयार हो गईं परंतु  दूसरी कक्षा में लिया, क्योंकि उनके अनुसार तीसरी कक्षा में जगह नहीं थी। तनु शोलापुर से दूसरी कक्षा उत्तीर्ण करके आई थी। हमने ये भी स्वीकार कर लिया क्योंकि हमारे पास कोई और विकल्प था ही नहीं। किसी दूर के स्कूल में दाख़िल करवाते तो और बहुत सी कठिनाइयाँ सामने आती।   आउट हाउस वाली नौकरानी इसे स्कूल में कक्षा तक पहुँचा कर आती थी और वापिस भी लाती थी। मैं ब्रेक में नाश्ता लेकर जाती थी और देख लेती थी कि कोई और ज़रूरत तो नहीं है। दो तीन महीने बीतने के बाद इसकी कक्षा अध्यापिका श्रीमती मित्तल ने कहा कि इसको तो सब आता है, समझाने से पहले ही काम पूरा कर देती है। मैंने उन्हें बताया कि इसे तीसरी कक्षा में होना चाहिये था। श्रीमती मित्तल ने प्रधानाचार्य  से बात की और इसे तुरंत तीसरी कक्षा में भेज दिया गया था। इस प्रकार बेवजह एक साल बर्बाद होने से बच गया। नेवल स्कूल पास था यह सुविधा थी ही ,स्कूल में पढ़ाई भी अच्छी थी और सभी अध्यापिकायें तनु का ध्यान रखती थीं। अध्यापिकायें स्कूल के बाहर भी पिकनिक पर और अन्य दर्शनीय स्थानों पर बस में पूरी ज़िम्मेदारी से ले जाती थीं। प्रिंसपल ने कई साल तक इसके क्लास को भूतल पर ही रखा था।   इस समय हम तीनों के अलावा जयश्री भी हमारे साथ रह रही थी। मोती बाग़ में उसके माता पिता रहते थे ,वहाँ आती जाती रहती थी। सूरत से दिनेश भैया दूसरे तीसरे महीने आ जाते थे , उनकी गृहस्थी एक जगह जम नहीं पा रही थी। जयश्री का तनु पर बहुत लाड़ था। तनु भी चाची से, उसके पहनावे से, पर्स व सैंडिल इत्यादि से बेहद  प्रभावित रहती थी। वह घर से बाहर जाती थी तो सलीके से साड़ी पहनती थी जबकि मैं तो घर में रहती थी,  इतना व्यवस्थित नहीं रहती थी। जयश्री जब कोई नयी सी या बढ़िया साड़ी पहनकर तैयार होती तो तनु समझ जाती थी कि आज चाची डिसपैंसरी से सीधी घर नहीं आयेगी। दिनेश भैया का आना भी इसे अखरता था क्योंकि चाची पर एकाधिकार जो नहीं रहता था।  हम हमेशा की तरह दीवाली पर तो ग्वालियर जाते ही थे, साल में एक बार लखनऊ भी चले जाते थे। अधिकतर सुरेन भैया और उनके परिवार से भी वहीं मिलना हो जाता था। ग्वालियर में नीता मैडिकल कालेज में पढ़ रही थी।   सरोजनी नगर के इस छोटे से घर में मेहमानों का आना जाना बहुत रहता था।  उस समय तक लोग रिश्तेदारों के यहाँ बेखटके रहने आ जाते थे।  आजकल लोग अपने काम से आते हैं तो होटल में रुकते हैं, उस समय रिश्तेदारों का रुकना, बिना कहे आना सब सामान्य था।  शोलापुर से आकर ये सब हमें अच्छा लग रहा था। शोलापुर तो कम ही लोग पहुँचते थे। हमारे सरोजिनी नगर के घर से सुरेन भैया की बड़ी बेटी अपर्णा की सगाई का एक शुभ  कार्य भी संपन्न हुआ। दरअसल यह रिश्ता हमने हीतय करवाया था। वर उमा दी की ननद का बेटा अशोक था। लड़के वाले उमा दी के घर ठहरे थे, लड़की वाले हमारे यहाँ।  एक प्रकार से रिश्ता भाई बहन की ससुराल के परिवारों के बीच हुआ था।हमारे यहाँ आकर लड़की लड़के को देखने की औपचारिकताओं के बाद दोनों तरफ़ से ‘हाँ’ हो गई और अगले दिन ही सगाई हो गई। सब कुछ घर में ही हो गया। यहाँ तक कि खाना भी घर में ही बना दोनों तरफ़ केपरिवारके लोग ही थे। अन्य रिश्तेदारों या मित्रों को नहीं बुलाया था। अपर्णा की शादी भी 80 की मई में लखनऊ से भैया के घर से संपन्न हुई।   इस समय तक हमारे पास स्कूटर ही था। कभी कभी उमा दी के घर हम तीनों स्कूटर पर ही चले जाते थे । ये … Read more

गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 6

गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 6

    आत्मकथा लेखन में ईमानदारी की बहुत जरूरत होती है क्योंकि खुद के सत्य को उजागर करने के लिए साहस चाहिए साथ ही इसमें लेखक को कल्पना को विस्तार नहीं मिल पाता | उसे कहना सहज नहीं होता | बहुत कम लोग अपनी आत्मकथा लिखते हैं | बीनू दी ने यह साहसिक कदम उठाया है | बीनू भटनागर जी की आत्मकथा “गुज़रे हुए लम्हे “को आप अटूट बंधन.कॉम पर एक श्रृंखला के रूप में पढ़ पायेंगे | गुज़रे हुए लम्हे -परिचय गुजरे हुए लम्हे -अध्याय 1 गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 2 गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 3 गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय चार गुज़रे हुए लम्हे अध्याय -5 अब आगे ….       गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 6 मुश्किल वक़्त में धैर्य (काज़ीपेट, शोलापुर, सिकंद्राबाद 1972 से 1978)     मुझे लेने ये ओबरा आये और थे ,ग्वालियर  तीन चार दिन रुककर हम काज़ीपेट पहुँच गये थे। इस बीच कोरे गाँव से इनका तबादला काज़ीपेट (आंध्र प्रदेश) हो चुका था, ये सामान सहित वहाँ पहुँच गये थे। काज़ीपेट दरअसल शहर था ही नहीं, रेलवे के महत्व के अलावा,रेलवे के स्टाफ के अलावा, वहाँ कुछ था ही नहीं, पास में वारंगल शहर था। धीरे धीरे गृहस्थी का सामान जुड़ रहा था। वहाँ कोई सरकारी बड़ा मकान खाली नहीं था तो हमें दो कमरों के दो क्वाटरबराबर बराबरलगे हुए मिल गये जिनको एक कमरे से जोड़ दिया गया था। जगह की कमी नहीं थी पर अजीब  लगता था। एक लाइन में चार कमरे दो आँगन दो रसोई। काज़ीपेट में मुझे और तनु दोनों को चिकन पाक्स निकली थी। जब मुझे चिकन पॉक्स हुई तो इनके एक सहकर्मी मित्र और उनकी पत्नी तनु को अपने घर ले गये फिर भी बचाव नहीं हुआ। मैं वहाँ काफ़ी बीमार हुई। इन्होंने तनु को बहुत संभाला था। सिकंद्राबाद( आंध्र)  जाकर चैक-अप और इलाज हुआ। मैं धीरे धीरे ठीक हो गई। काज़ीपेट हम कुछ महीने ही रहे होंगे वह भी बीमारियों में घिरे रहे, साल भर से पहले ही पदोन्नति पर इनकातबादला शोलापुरहो गया। शोलापुर महाराष्ट्र का चौथा या पाँचवाँ बड़ा शहर हैमुंबई, पुने,  नागपुर और कोल्हापुर के बाद,  उस समय ये दक्षिण मध्य रेलवे में था। मुंबई से सिकंद्राबाद या अन्य दक्षिण के शहरों को जाने वाली लाइन पर शोलापुर शहर स्थित है। यहाँ के बैडकवर बहुत मशहूर हैं और बहुत सी कपड़ा मिलें भी वहाँ थी। ।यहाँ हमें पुराना मगर काफ़ी बड़ा बंगला मिल गया था। हम ख़ुश थे और धीरे धीरे गृहस्थी का सामान जोड़ रहे थे।   शोलापुर आने के बाद जून 1972 में हमें एक ऐसा झटका लगा जिसको सोचना भी अब नहीं चाहते। हमारी प्यारी बेटी तनु को अकस्मात बुखार आया और दोनों पैरो में पोलियो हो गया। यद्यपि उस समय पोलियो की बूँदें पिलाई जाने लगी थीं पर कुछ ने कहा था कि साल अंदर पिला दो।  काज़ीपेट में सुविधा थी नहीं और शोलापुर आठ महीने की आयु में ये हो ही गया था, जिस समय बच्चा पकड़कर चलना शुरू करता है,यह वही आयु थी। वहाँ रेलवे के अस्पताल में भर्ती रखा फिर मुंबई भी दो तीन बार गये पर कुछ फर्क नहीं पड़ा। मैं तो विक्षिप्त  सी हो गई थी, परंतु इन्होंने कभी डाँटकर ,कभी समझाकर मुझे इस विकट परिस्थिति  का सामना करने के लिये तैयार किया। धीरे धीरे बदली हुई परिस्थिति  के लिये हम अपने को तैयार कर रहे थे, फिर भी व्याकुलता अपनी चरम सीमा पर थी। कोई कुछ भी कहता हम मान लेते थे। सत्य साईं बाबा के आश्रम पुट्टपर्थी गये,  किसी ने कोई डाक्टर गोवा में बताया, वहाँ भी गये। केरल का आयुर्वेदिक इलाज भी किया। अब तक हम झटके के बाद मजबूत हो चुके थे, इसलिये जहाँ भी इलाज के लिये जाते कोई उम्मीद लेकर नहीं जाते थे। इलाज के बाद कुछ पर्यटन भी हो जाता था। इसको लेकर हमने गोवा और केरल के काफ़ी स्थान देख लिये ।   जब परेशानी में होते है तो हर एक की बात मान लेते हैं। हम पुट्टापर्थी सत्य सांई बाबा के आश्रम में भी गये पर कोई श्रद्धा नहीं उभरी वे एक जादूगर से ज्यादा नहीं लगे। हमारे घर में राधास्वामी सत्संग का माहौल था, मैंने कोशिश की पर मन ज़रा भी नहीं लगा।  लखनऊ के एक वैद्य ने भी कानपुर में पोलियो से ग्रस्त बच्चों के लिये शिविर लगाया था, तब तक भैया भी लखनऊ नहीं आये थे मैं उस शिविर में 15 दिन रही थी। बाद तक भी उन वैद्य का इलाज किया था। मुंबई में एक ज्योतिषी ने त या ट से नाम रखने की सलाह दी थी तो इसका नाम तनुजा रख दिया। जिन चीज़ों पर विश्वास न हो वह भी हम कर लेते हैं किसी करिश्मे की उम्मीद में!   केरल में पालघाट ज़िले  में इनके एक सहयोगी का घर था, उन्होंने वहीं पर आयुर्वेदिक इलाज का प्रबंध करवा दिया था। वहाँ से हम मलमपुज़ाडैम गये जहाँ बहुत खूबसूरत गार्डन था पता नहीं क्यों वह आजकल केरल के पर्यटन स्थलों की सूची में नहीं है। गुरुवयूर  मंदिर देखा। त्रिवेंद्रम में भी इनके सहयोगी मित्र के माता पिता के आतिथ्य में रहे। कन्याकुमारी उस समय बहुत सुंदर था। इतने होटल दुकानें नहीं थे। एक स्थान पर खड़े रहकर महसूस होता था कि एक तरफ बंगाल की खाड़ी है और दूसरी तरफ़ अरब सागर।  एक ही स्थान से सूर्योदय और सूर्यास्त समुद्र में देखने के अनूठा अनुभव था। केरल से हम बंगलौर आये वहाँ स्थानीय भ्रमण करने के बाद मैसूर गये। मैसूर के वृंदावन गार्डन दिन में और रात में देखे और कश्मीर की तरह यहाँ भी ऐसा लगा कि कई फिल्मों के गीतों का छायांकन वहाँ हुआ था।मैसूर का महल भी देखा था।   हम गोवा भी गये थे ट्रेन का अंतिम स्टेशन वास्को था ,पूना से वास्को तो पहुँच  गये परन्तु वास्को से पणजी पहुँचना आसान नहीं था, रास्ते में एक नदी फैरी से पार करनी पड़ती थी, दूसरी ओरजहाँफैरी ने उतारा वह बड़ी सुनसान जगह थी। अंतिम बस पकड़ कर पणजी पहुँचे थे। बस स्टैंड पर टैक्सी औटो मिलने मेंमुश्किल हुई, फिर एक सहयोगी मित्र को फोन किया, तब उन्होंने वहाँ से सर्किट हाउस पहुँचाने के लिये प्रबंध किया, जहाँ हमारे लिये कमरा आरक्षित था। काम हो जाने के … Read more

गुजरे हुए लम्हे -अध्याय एक

शैशव व कुछ घबराया सा बचपन

  हम सब का जीवन एक कहानी है पर हम पढ़ना दूसरे की चाहते हैं | कोई लेखक भी अपनी कहानियों में अपने आस -पास की घटनाओं को संजोता है | कोई लेखक कितनी भी कहानियाँ लिखे उसमें उसके जीवन की छाया या दृष्टिकोण रहता है ही है| आत्मकथा उनको परदे में ना कह  कर खुल कर कहने की बात है | आत्मकथा लेखन में ईमानदारी की बहुत जरूरत होती है क्योंकि खुद के सत्य को उजागर करने के लिए साहस चाहिए साथ ही इसमें लेखक को कल्पना को विस्तार नहीं मिल पाता | उसे कहना सहज नहीं होता | बहुत कम लोग अपनी आत्मकथा लिखते हैं | बीनू दी ने यह साहसिक कदम उठाया है | इस आत्मकथा “गुज़रे हुए लम्हे “को आप अटूट बंधन.कॉम पर एक श्रृंखला के रूप में पढ़ पायेंगे |     अध्याय 1 शैशव व कुछ घबराया सा बचपन (बुलंदशहर1947-56)   1947  सितम्बर  का महीना अफरा तफरी का माहौल, स्वतंत्रता मिलने  की ख़ुशी और विभाजन की त्रासदी, उत्तर प्रदेश का एक छोटा सा शहर………… बुलंदशहर ,वहाँ श्री त्रिलोकीनाथ भटनागर का परिवार  जहाँ से ये कहानी शुरू हुई। श्री त्रिलोकी नाथ के बहुत से रिश्तेदार पाकिस्तान की तरफ रहते थे,  जिन्होंने आकर उनके यहाँ शरण ली थी।  करीब पन्द्रह बीस लोग तो अवश्य वहाँ आये हुए थे ,उनकी हर तरह से देख भाल की ज़िम्मेदारी त्रिलोकीनाथ जी और उनकी पत्नी की थी। त्रिलोकी नाथ जी बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय से इंजीनियर थे, और बिजली  वितरण  की एक कंपनी में उच्चाधिकारी थे।ज़िलाधिकारियों से उनकी अच्छी जान पहचान,उठना बैठना था। संपन्न परिवार था,रिश्तेदार उनके यहाँ चाहें जितने समय तक रह सकते थे। काम करने के लिये भी नौकरों चाकरों  की कमी  नहीं थी। त्रिलोकी नाथ जी की तीन संतानें थी सबसे बड़े रवींद्रनाथ उस समय 16 वर्ष के थे, बेटी कुसुम 13 साल की और छोटे बेटे सुरेंद्र नाथ 11 साल के थे। 11साल बाद उनकी पत्नी फिर गर्भवती थीं, इस समय बहुत बड़ा घर भी मेहमानों से भरा हुआ था इसलिये वे अधिक आराम भी नहीं कर पाती थीं। 14  सितम्बर की रात में शील भटनागर जी ने एक बेटी को जन्म दिया। जी हाँ, आपने सही समझा,  ये मैं ही हूँ, जिसने बटवारे और आज़ादी मिलने के बाद दुनिया में कदम रखा। श्री त्रिलोकीनाथ और श्रीमती शील भटनागर की सबसे छोटी संतान।   अब मैं अपनी कहानी अपनी ज़ुबानी कहूँगी। मेरे दादा दादी का घर अंबाला में था , परंतु वे मेरे जन्म से बहुत पहले परलोक सिधार गये थे, दादा जी वकील थे अंबाला में बहुत अच्छी प्रैक्टिस थी, वहाँ के धनी लोगों में से एक थे ,उनकेएक बेटीऔर तीन बेटे थे । मेरे पिताजी सबसेछोटेऔर सबसेकाबिलथे । छोटे ताऊ जी भी वकील थे ,अच्छा कमाते थे ,पर कुछ बुरी आदतों की वजह से कभी सुख चैन से अपनी गृहस्थी सही तरीके से नहीं संभाल पायेथे। भुआ जल्दी ही गुज़र गईं थीं,बड़े ताऊ जी को भी मैंने नहीं देखा था,हाँ दोनों ताई जी की याद हैं।   माँ को मैं मम्मी ही कहती थी,  वे दो बहने थीं, बड़ी बहन की युवावस्था में ही मृत्यु हो गई थी इसलिये हमें हमेशा यही लगा कि वे अपने माता पिता की इकलौती संतान थीं। नानाजी बुलंदशहर के पास ही एक कस्बे सिकंद्राबाद में रहते थे। वे एक स्कूल में अध्यापक थे, छात्रावास के वार्डन भी थे। आसपास पास के गाँव  से बच्चे आकर छात्रावास में रहते थे ।गाँवों के बच्चों के लिये छोटे कस्बों के मामूली स्कूलों में भी  उन दिनों छात्रावास की व्यवस्था होती  थी। नानाजी के छात्रावास में एक लड़का चोखे  लाल काम करता था, ये आगे जाकर हमारे परिवार का अहम हिस्सा बना , इस वजह से इनका यहाँ जिक्र किया है। मेरे नानाजी बहुत संपन्न नहीं थे, पर कोई कमी भी नहीं थी,वे हमेशा किराये के घर में रहे , अपनी छोटी सी तनख़्वाह से खेती के लिये ज़मीनें और फलों के बाग़ ख़रीदते रहते थे । यह उनके निवेश का तरीका था। यह जमीनें वे खेती करने के लिये किसानों को ठेके पर दे देते थे, जिससे फसल का कुछ हिस्सा और कुछ अतिरिक्त सालाना आमदनी हो जाती थी। नानी के घर में हमेशा ताजी खेत की सब्जियाँ और मौसम के फल होते थे,  अनाज भी सब उनके  अपने खेतों का ही होता था।  सेवानिवृत्त होने के बाद तो नाना जी का पूरा ध्यान खेती पर ही रहा, अच्छी आमदनी होती तो और खेती की ज़मीन ख़रीद ले लेते थे,पर कभी मकान बनाने पर विचार नहीं किया।यह किराये का मकान ही सदा उनका घर रहा यहाँ का माहौल भी कुछ विचित्र सा था जिसकी चर्चा फिलहाल स्थगित करती हूँ, आगे आने वाले पन्नों में जरूर करूँगी।   जिस घर में मेरा जन्म हुआ था ,पहले नौ वर्ष उसी घर में बीते, कुछ याद है, कुछ तस्वीरें हैं , कुछ सुनी हुई बातें हैं। वह बहुत बड़ी दो मंज़िला कोठी थी, जिसको पिताजी की कंपनी ने किराये पर लिया हुआ था, उसके एक हिस्से में उनका दफ्तर था। मेरे जन्म से 14,15 साल पहले से मेरा परिवार उसी कोठी में रहता था। मुझे बताया गया था कि मेरे बड़े भाई जिनका मैं जिक्र कर चुकी हूँ उनको छोड़कर मेरी बहन और दूसरे भाई भी उसी कोठी में पैदा हुए थे। मेरे पिताजी का अंग्रेजों के साथ उठना बैठना था इसलिये हमारे परिवार में थोड़ी अंग्रेज़ियत थी,जैसे डाइनिंग टेबुल पर खाना खाना, अलग ड्राइंग रूम होना। बाकी सामान याद नहीं पर वह डाइनिंग टेबल बहुत बड़ी और भारी थी। मेरे कज़िन ने बतायाथा कि वह डाइनिंग टेबुल सिकंद्राबाद के एक बढ़ई मंगत ने बनाई थी। 30 के दशक के पूर्वार्द्धमें मम्मी  के दहेज़ में आई थी। वह डाइनिंग टेबुल बिना किस्सी मरम्मत के मेरे इन ही कज़िन के घर मे अभी भी उपयोग में है। बस उसमें उन्होंने टॉप पर लाल रंग का माइका लगवा लिया है।संभवतः बाकी फर्नीचर भी वहीं का बना हुआ था।   पिता जी की कंपनी ने उन्हें दो तीन नौकर और एक रसोइया घरेलू काम के लिये दे रखेथे। रसोइये की जगह मेरे नाना जी ने अपने छात्रावास से चोखे लाल को भेज दिया था। वह खाना बनाने काम बहुत अच्छी तरह से सीख चुके थे। हमारे घर … Read more