ताई की बुनाई

  सृजन से स्त्री का गहरा संबंध है | वो जीवंत  संसार को रचती है | उस का सृजन हर क्षेत्र में दीखता है चाहें वो रिश्ते हो , रसोई हो  , गृह सज्जा या फिर फंदे-फंदे  ऊन को पिरो कर बुनी गयी स्नेह की गर्माहट | लेकिन ये सारी  रचनाशीलता उसकी दूसरों को समर्पित हैं , अपने लिए तो चुटकी भर ख्वाब भी नहीं बन पाती | समाज को खटकता है | ताई ने ये जुर्रत करी, और परिणाम में …. ये विषय है वरिष्ठ लेखिका आदरणीय दीपक शर्मा जी की लोकप्रिय कहानी “ताई की बुनाई ” का | आइये पढ़ें शब्दों के फंदों  से बुनी इस बेहद मार्मिक कथा को … कहानी –ताई की बुनाई गेंद का पहला टप्पा मेरी कक्षा अध्यापिका ने खिलाया था|   उस दिन मेरा जन्मदिन रहा| तेरहवां|   कक्षा के बच्चों को मिठाई बांटने की आज्ञा लेने मैं अपनी अध्यापिका के पास गया तो वे पूछ बैठीं, “तुम्हारा स्वेटर किसने बुना है? बहुत बढ़िया नमूना है?”   “मेरी माँ ने,”रिश्ते में वे मेरी ताई लगती थीं लेकिन कई वर्षों तक मैं उन्हें अपनी माँ मानता रहा था, “घर में सभी लोग उनके बुने स्वेटर पहनते हैं|” “अच्छा!” मेरी कक्षा अध्यापिका ने अपनी मांग प्रस्तुत की, “क्या तुम नमूने के लिए मुझे अपना स्वेटर ला दोगे? कल या परसों या फिर अगले सप्ताह?” “वे अपने लिए कभी नहीं बुनतीं,” मैंने सच उगल दिया|   “आज घर जाते ही पिता से कहना उनके स्वेटर के लिए उन्हें ऊन लाकर दें…..” “अब अपने लिए एक स्वेटर बुनना, अम्मा,” शाम को जब ताऊजी घर लौटे तो मैंने चर्चा छेड़ दी, “तुम्हारे पास एक भी स्वेटर नहीं…..” अपने ताऊजी से सीधी बात कहने की मुझमें शुरू से ही हिम्मत न रही| “देखिए,” ताई ने हंस कर ताऊजी की ओर देखा, “क्या कह रहा है?” “हाँ, अम्मा,” मैं ताई से लिपट लिया| वे मुझे प्रिय थीं| बहुत प्रिय| “देखिए,” ताऊजी की स्वीकृति के लिए ताई उतावली हो उठीं, “इसे देखिए|”   “अच्छा, बुन लो| इतनी बची हुई तमाम ऊनें तुम्हारे पास आलमारी मेंधरी हैं| तुम्हारा स्वेटर आराम से बन जाएगा…..” ताई का चेहरा कुछ म्लान पड़ा किन्तु उन्होंने जल्दी ही अपने आपको संभाल लिया, “देखती हूँ…..” अगले दिन जब मैं स्कूल से लौटा तो ताई पालथी मारे ऊन का बाज़ार लगाए बैठी थीं| मुझे देख कर पहले दिनों की तरह मेरे हाथ धुलाने के लिए वे उठीं नहीं….. भांति-भांति के रंगों की और तरह-तरह की बनावट की अपनी उन ऊनों को अलग-अलग करने में लगी रहीं| “खाना,” मैं चिल्लाया| “चाची से कह, वह तुझे संजू और मंजू के साथ खाना परोस दे,” ताई अपनी जगह से हिलीं नहीं, “इधर ये ऊनें कहीं उलझ गयीं तो मेरे लिए एक नयी मुसीबत खड़ी हो जाएगी| तेरे बाबूजी के आने से पहले-पहले मैं इन्हें समेट लेना चाहती हूँ…..” उन दिनों हमसब साथ रहते थे, दादा-दादी, ताऊ-ताई, मंझली बुआ, छोटी बुआ, मेरे माता-पिता जिन्हें आज भी मैं ‘चाची’ और‘चाचा’ के सम्बोधन से पुकारता हूँ और मुझसे बड़े उनके दो बेटे, संजू और मंजू….. मुझसे पहले के अपने दाम्पत्य जीवन के पूरे ग्यारह वर्ष ताऊजी और ताई ने निःसन्तान काटे थे| दोपहर में रोज लम्बी नींद लेने वाली ताई उस दिन दोपहर में भी अपनी ऊनें छाँटने में लगी रहीं| “आज दोपहर में आप सोयींनहीं?” अपनी झपकी पूरी करने पर मैंने पूछा| “सोच रही हूँ अपना स्वेटर चितकबरा रखूँ या एक तरह की गठन वाली ऊनों को किसी एक गहरे रंग में रंग लूं?”   “चितकबरा रखो, चितकबरा,” रंगों का प्रस्तार और सम्मिश्रण मुझे बचपन से ही आकर्षित करता रहा है| अचरज नहीं, जो आज मैं चित्रकला में शोध कर रहा हूँ| शाम को ताऊजी को घर लौटने पर ताई को आवाज देनी पड़ी, “कहाँ हो?” ताई का नाम ताऊजी के मुख से मैंने एक बार न सुना|   यह ज़रूर सुना है सन् सत्तावन में जब ताई ब्याह कर इस घर में आयी थीं तो उनका नाम सुनकर ताऊजी ने नाक सिकोड़ा था, “वीरां वाली?” अपना नाम ताई को अपनी नानी से मिला था| सन् चालीस में| दामाद की निराशा दूर करने के लिए उन्होंने तसल्ली में कहा था, “यह वीरां वाली है| इसके पीछे वीरों की फ़ौज आ रही है…..” पंजाबी भाषा में भाई को वीर कहा जाता है और सचमुच ही ताई की पीठ पर एक के बाद एक कर उनके घर में उनके चार भाई आए| “मैं तुम्हें चन्द्रमुखी कह कर पुकारूँगा,” वैजयन्तीमाला की चन्द्रमुखी ताऊजी के लिए उन दिनों जगत की सर्वाधिक मोहक स्त्री रही होगी| अपने दाम्पत्य के किस पड़ाव पर आकर ताऊजी ने ताई को चन्द्रमुखी कहना छोड़ा था, मैं न जानता रहा| पढ़ें क्वाटर नंबर 23 “कहाँ हो?” ताऊजी दूसरी बार चिल्लाए| उन दिनों हमारे घर में घर की स्त्रियाँ ही भाग-दौड़ का काम किया करतीं| पति के नहाने, खाने, सोनेऔर ओढ़ने की पूरी-पूरी ज़िम्मेदारी पत्नी की ही रहती| “आ रही हूँ,” ताई झेंप गयीं| ताई को दूसरी आवाज देने की नौबत कम ही आती थी| अपने हिस्से के बरामदेमें ताऊजी की आहट मिलते ही हाथ में ताऊजीकी खड़ाऊंलेकर ताई उन्हें अकसर चिक के पास मिला करतीं, किन्तु उस दिन आहट लेने में ताई असफल रही थीं| “क्या कर रही थीं?” ताऊजी गरजे| “आज क्या लाए हैं?” ताऊजी को खड़ाऊ पहना कर ताई ने उनके हाथ से उनका झोला थाम लिया| ताऊजी को फल बहुत पसन्द रहे| अपने शाम के नाश्ते के लिए वे लगभग रोज ही बाज़ार से ताजा फल लाया करते| “एक अमरुद और एक सेब है,” ताऊजी कुछ नरम पड़ गए, “जाओ| इनकासलाद बना लाओ|” आगामी कई दिन ताई ने उधेड़बुन में काटे| अक्षरशः| रंगों और फंदों के साथ वे अभी प्रयोग कर रही थीं| कभी पहली पांत में कोई प्राथमिक रंगभरतीं तो दूसरी कतार में उस रंग के द्वितीय और तृतीय घालमेल तुरप देतीं, किन्तु यदि अगले किसी फेरे में परिणाम उन्हें न भाता तो पूरा बाना उधेड़ने लगतीं| फंदों के रूपविधान के संग भी उनका व्यवहार बहुत कड़ा रहा| पहली प्रक्रिया में यदि उन्होंने फंदों का कोई विशेष अनुक्रम रखा होता और अगले किसी चक्कर में फंदों का वह तांता उन्हें सन्तोषजनक न लगता तो वे तुरन्त सारे फंदे उतार कर नए सिरे से ताना गूंथने लगतीं| इस परीक्षण-प्रणाली से अन्ततोगत्वा … Read more