अब तो बेलि फैल गई- जीवन के पछतावे को पीछे छोड़कर आगे बढ़ने की कथा

अब तो बेलि फैल गई- जीवन के पछतावे को पीछे छोड़कर आगे बढ़ने की कथा

  जिन दरवाज़ों को खुला होना चाहिए था स्वागत के लिए, जिन खिड़कियों से आती रहनी चाहिए थी ताज़गी भरी बयार, उनके बंद होने पर जीवन में कितनी घुटन और बासीपन भर जाता है इसका अनुमान सिर्फ वही लगा सकते हैं जिन्होंने अपने आसपास ऐसा देखा, सुना या महसूस किया हो। रिक्तता सदैव ही स्वयं को भरने का प्रयास करती है। भले ही इस प्रयास में व्यक्ति छीजता चला जाए या शनै-शनै समाप्त होता चला जाए… रिश्तों में आई दूरियाँ और रिक्तता व्यक्ति को भीतर ही भीतर न केवल तोड़ देती हैं,अकेला कर देती हैं बल्कि उसका स्वयं पर से, दुनिया पर से भरोसा भी डिगने लगता है। ऐसे सूने जीवन से जूझते पात्रों की भावपूर्ण और मर्मस्पर्शी कहानी है ‘अब तो बेलि फैल गई’ उपन्यास में।   अब तो बेलि फैल गई- जीवन के पछतावे को पीछे छोड़कर आगे बढ़ने की कथा   कविता वर्मा किसी लेखकीय परिचय की मोहताज नहीं हैं। उनके रचना कौशल, संवेदनशीलता और सामाजिक सरोकारों से उनकी सम्बद्धता के साथ ही स्पष्टवादिता और निडरता से भी हम सभी भलि भांति परिचित हैं। बावजूद इसके उनके स्नेहिल मित्रों, शुभचिंतकों एवं पाठकों की बड़ी संख्या यही बताती है कि वे अपनी जगह कितनी सही हैं। इस उपन्यास में भी उनके पात्रों में उन्होंने तमाम मानवीय और परिस्थितियों से जुड़ी कमज़ोरियों के साथ ही इन गुणों को भी अवस्थित किया है जिनके बल पर वे पात्र सही-गलत के पाले में झूला झूलते हुए सही पाले में जाकर रुक जाते हैं और कहानी एक खूबसूरत मोड़ पर पहुँचती है। सुने अटूट बंधन यू ट्यूब चैनल पर ‘अब तो बेलि फैल गई’ पर परिचर्चा  मध्यम वर्गीय जीवन की विरूपताओं और विडंबनाओं को अनावृत करने वाले घटनाक्रमों की एक बड़ी श्रृंखला के बीच, पुनर्मूल्यांकन और नैतिकता को किसी ऐसे कुशल चितेरे की भांति अपनी कृति में सजा दिया है कि सब कुछ सहज ही प्रभावित करने वाली अनुपम कृति में सामने आया है। रिश्तों के ताने-बाने में उपेक्षा, छल, अपमान, कटुता और अलगाव के काँटे हैं तो वहीं प्रेम, विश्वास, आदर, अपनापन, सहयोग और समायोजन के बेल-बूटे और फूल-पत्ती की कसी हुई बुनावट भी है जो पूरे उपन्यास को सम्पूणता प्रदान कर रही है। लेखिका- कविता वर्मा इस उपन्यास को ट्रेन यात्रा के दौरान इसे पढ़ा, पढ़कर कई बार मैं स्तब्ध सी रह गई थी कि इतना महीन सच का धागा लेकर कैसे ही इतने खूबसूरत और मजबूत उपन्यास की चादर बुन ली है! जिसको‌ चाहे हम ओढ़ें, बिछाएं या शॉल की तरह लपेटें, हम खुद को एहसासों की गर्मी से नम ही रखेंगे! एहसासों की ये गर्मी कभी झुलसाती भी है तो कभी ठंडे पड़ते रिश्तो में गर्माहट लाने का काम भी करती है! उपन्यास की कथा वस्तु दो आधे-अधूरे रह गए परिवारों के संघर्ष, पछतावे और इन्हें पीछे छोड़ आगे बढ़ने की कोशिश करने के इर्दगिर्द घूमती है। एक हैं मिस्टर सहाय जिनके मन में अत्यधिक ग्लानि और पछतावा है अपनी भूलों को लेकर। जो कुछ अपने परिवार के लिए नहीं कर पाए,वही सब एक अन्जान परिवार के लिए करते हुए स्वयं को एक अवसर और देने की कोशिश करते हैं। तो दूसरी तरफ नेहा है, संघर्ष जिसके जीवन में स्थाई रूप से ठहरा हुआ है और जो खुद को ठगा हुआ महसूस करती है। बिना किसी गल्ती के उसके जीवन में अकेलापन भर गया। रिश्तों ने कदम-कदम पर उसे छला है। परन्तु अनजाने में ही एक अनजान व्यक्ति पर किया गया भरोसा उसके मन में दुनिया से उठते हुए भरोसे के दंश पर मरहम लगाने का काम करता है। जो बीत गया उसे बदला तो नहीं जा सकता,पर आने वाले समय को बेहतर बनाने का प्रयास अवश्य किया जा सकता है। मुझे इस उपन्यास का मूलभाव यही लग रहा है। आज हमें ऐसे ही कथानकों की ही भारी आवश्यकता है जो केवल संघर्ष, दुख-दर्द, आपत्तियों और विपत्तियों का ही मार्मिक चित्रण कर सहानुभूति बटोरने के उद्देश्य पर काम न करके, कुछ ऐसा प्रस्तुत करें कि बहने की बजाय खुद जाएँ आँखें कि अरे हाँ! रोते रहने की बजाय जीवन को ऐसे भी जिया जा सकता है… कम से कम कोशिश तो की ही जा सकती है। इस दृष्टि से यह उपन्यास एकदम सफल है। मिस्टर सहाय के साथ उनके बेटे सनी की बात चलती है और नेहा के साथ उसके बेटे राहुल की कहानी चलती रहती है जिसके माध्यम से बालपन और युवावस्था की जटिलताओं, कमज़ोरियों और समझदारी का सहज, सुंदर वर्णन किया गया है। एक और महत्वपूर्ण पात्र है सौंदर्या, जिसकी चर्चा के बिना बात अधूरी ही रहेगी। मिस्टर सहाय और नेहा की कथा को पूर्णता प्रदान करने के लिए इस पात्र को गढ़ा गया है। हालांकि वास्तविक जीवन में ऐसे पात्रों का होना थोड़ा संशयात्मक है, फिर भी असंभव तो नहीं। और फिर जैसा कि मुझे लगता है कि ऐसे पात्रों को रचकर ही तो समाज में ऐसे पात्रों को पैदा किया जा सकता है, एक राह सुझाई जा सकती है। इसलिए सौंदर्या का होना भी उचित ही ठहराया जा सकता है। तमाम मानवीय संवेदनाओं के अजीबोगरीब ड्रामे और उठा-पटक के बिना ये संवेदनशील कहानी अपनी सहज गति से आगे बढ़ती हुई मंज़िल तक पहुँचती है और पाठकों के चेहरों पर मुस्कान सजा जाती है। ऐसी पुस्तकें पढ़कर कभी-कभी मेरे मन में आता है वही कहूँ जो हम पौराणिक व्रत-कथाओं को कहने- सुनने के बाद कहते हैं। हे ईश्वर सबके जीवन में ऐसे ही सुख बरसाना जैसे इस कथा के पात्रों के जीवन में बरसाया है। मज़ाक से इतर, कविता वर्मा की लेखनी की सदैव प्रशंसक रही हूँ, इस उपन्यास ने उसमें और बढ़ोतरी की है। ऐसे ही अच्छा लिखते रहें। ये लेखन ही समाज को दिशा दिखाएगा। शुभकामनाएँ शिवानी जयपुर   यह भी पढ़ें बातें किताबों की- नेहा की लव स्टोरी जासूसी उपन्यासों में हत्या की भूमिका – दीपक शर्मा शहर सुंदर है -आम जीवन की समस्याओं को उठाती कहानियाँ आपको “अब तो बेलि फैल गई- जीवन के पछतावे को पीछे छोड़कर आगे बढ़ने की कथा” समीक्षात्मक लेख कैसा लगा ? हमें अपनी राय से अवश्य अवगत कराइएगाl अगर आपको अटूट बंधन की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया साइट को सबस्क्राइब करें व अटूट बंधन फेकबूक पेज को लाइक करें l

लकीर-कहानी कविता वर्मा

लकीर

कोयल के सुत कागा पाले, हित सों नेह लगाए, वे कारे नहीं भए आपने, अपने कुल को धाए ॥ ऊधो मैंने —                                             जब भी माँ की बात आती है | यशोदा और देवकी की बात आती है | परंतु जब यशोदा कृष्ण को पाल रहीं थीं तब उन्हें पता नहीं था की वो उनके पुत्र नहीं देवकी के पुत्र हैं, ना ही कृष्ण को पता था .. परंतु यह बात पता होती है तो रिश्ते में एक लकीर खिचती है | क्या पुत्र के प्रति अपने कर्तव्यों को निभाती  माँ को सारे अधिकार मिल जाते हैं या पुत्र अधिकार  दे पाता है ? हर प्रश्न एक लकीर है जो एक सहज रिश्ते को रोकती है | कौन बनाता है ये लकीरे और क्या होता है इनका परिणाम | आइए इसी विषय पर पढ़ें सुपरिचित कथाकार कविता वर्मा की कहानी .. लकीर  जिसने भी इस खबर को सुना भौंचक रह गया। कुछ लोगों ने तो एकदम से विश्वास ही नहीं किया, तो कुछ ने विश्वास कर इस बात का विश्वास दिलाने की कोशिश की कि ऐसा ही कुछ होना था, हम तो पहले से जानते थे। शुभचिंतकों ने पूछा कि अब उनका क्या हाल है, तो अति शुभचिंतकों ने कहा कि ऐसा करना ही नहीं था। पराये को अपना बना ले इतना बड़ा दिल नहीं होता किसी का।शायद उन्हें यही अफ़सोस था कि हम तो इतना बड़ा दिल कभी न कर पाते उन्होंने कैसे कर लिया? कुछ लोग ये कयास लगाते नज़र आये कि आखिर हुआ क्या होगा? कुछ सयाने यहाँ तक कहते दिखे कि बेकार में बात बिगाड़ी। जितने मुँह उतनी बातें। वैसे अब तक जो कुछ देखा सुना समझा वह इस घटना की नींव तो नहीं थी, फिर उसकी परिणिति इस तरह क्यों हुई? उस चाल से थोड़े ऊपर के स्तर की बड़ी सी बिल्डिंग में रहने वाले दस-बारह परिवार अपनी स्तरीयता को कायम रखते हुए स्वतंत्र भी थे और साथ में एक दूसरे से जुड़े हुए भी। इसलिए कभी कभी घर के राज़ साझा दीवारों से रिस कर दूसरे घर तक पहुँच जाते थे। . इसी बिल्डिंग के दो कमरों में रहता था वह परिवार या कहें पति-पत्नी। शादी के कई साल बाद भी गोद सूनी थी और उन्होंने इसे स्वीकार कर लिया था। ऊपरी तौर पर तो कर ही लिया था लेकिन मन में बहती ममता की नदी को सुखा पाना कहाँ संभव होता है वह बहती थी और कभी-कभी तो तटबंध तोड़ बहती थी। यह उनका बरसों का प्रयास ही था कि वे इस उफान को थाम लेतीं और वहाँ से हट जातीं। उस नदी का प्रवाह मोड़ने के लिए खुद को किसी काम में या अपने कृष्ण कन्हैया की सेवा में व्यस्त कर देतीं। तब मन के रेगिस्तान में रह जाती एक लकीर सुगबुगाती सी। उनकी दिनचर्या बड़ी सुनियोजित थी। ठीक छह बजे उनके घर के दरवाजे खुल जाते। सात बजे घंटी की आवाज़ आती और सब अपनी घडी मिला लेते। तभी उनके बगल के तीन कमरों में वह परिवार रहने आया। पति-पत्नी और दो प्यारे से बच्चे। परिवार के वहाँ आकर रहने के कुछ ही दिनों बाद इस दिनचर्या में सिर्फ इतना अंतर आया कि घंटी की आवाज़ से पहले चिंटू के नाम की पुकार होने लगी। जिस घर में बिना स्नान किये कोई रसोई में नहीं घुस सकता था वहाँ चिंटू जी बिना नहाये पूजा की आरती में शामिल होते, ताली बजाते, आरती की लय पर झूमते और उनकी हथेली को सहारा दे कर उस पर न सिर्फ प्रसाद दिया जाता बल्कि उसके बाद उनका मुँह भी साफ किया जाता। चिंटू के आने से उनकी पूजा को एक सार्थकता मिलने लगी। उन्होंने तो जिंदगी को इसी रूप में स्वीकार कर लिया था। भगवान से जितनी मनौतियाँ मानी जा सकती थीं माँग ली गयीं थीं। भगवान उनकी आशा पूरी नहीं करेंगे इसका भी उन्हें विश्वास हो गया था। उनकी गोद न भरने के लिए भगवान से जितनी शिकायतें की जा सकती थीं कर ली गयीं थीं। और अब सारी मान-मनौतियों, शिकवे शिकायतों को भूला कर पूरे श्रध्दा भाव से सुबह की पूजा, आरती,भोग से लेकर तीज त्यौहार तक मनाये जाते थे। पता नहीं मन से शिकायतें ख़त्म हुई या नहीं लेकिन ये उनके जीवन की लय को बनाये रखने के लिए जरूरी थे और ये उसी का पुण्य प्रभाव था कि ममत्व की धारा जीवन की कठोर धूप की परवाह किये बिना भी उनके मन में प्रवाहमान थी। उस चिलचिलाती धूप में जब सभी घर बंद किये गरम हवा फेंकते पंखों के नीचे पसरे पड़े थे और किसी बच्चे के रोने की आवाज़ को सुनकर भी अनसुना कर रहे थे वे घर से बाहर आ कर हर घर की आहट भाँप चुकीं थीं। उस पर भी मन न माना तो छत पर जाकर अडोस पड़ोस के हर घर आँगन में झाँक आयीं। कहीं कोई न दिखा लेकिन बच्चे के रोने चीखने की आवाज़ बदस्तूर सुनाई देती रही। उनका मन भर आया शिकायत होंठों पर आने को हुई उस माँ की बेपरवाही पर झुँझलाती सी सोने की कोशिश करती रहीं लेकिन वह आवाज़ तो उनकी ममता को ही पुकार रही थी उन्हें सोने कैसे देती? वे फिर उठ बैठीं और कुछ सतर्क सी आवाज़ का पीछा कर छत पर पहुँच गयीं। धूप की तपिश में भी वात्सल्य की नदी हरहरा रही थी सतर्क आँखें छत पर पड़े कबाड़ की टोह सी लेती लकड़ी की पेटी पर आकर रुक गयी। पास ही रजाइयों का ढेर सूख रहा था। उनकी आहट में ही प्रेम का स्पर्श पा कर वह रोने की आवाज़ बंद हो गयी। उन्होंने एक बार फिर चारों ओर देखा। नज़र फिर पेटी पर टिकी उसे बंद देख कर वे पलटीं और सीढ़ियों की ओर बढ़ गयीं। लेकिन मन को अभी भी बच्चे के रोने की आवाज़ व्यथित कर रही थी। प्रेम पूरित मन के साथ लौटते क़दमों ने अपनी सारी शक्ति कानों को दे दी और बंद पेटी के ढक्कन के धीरे से खटके को पकड़ वे फिर उस तक पहुँच गयीं। किसी और की पेटी को नहीं खोले जाने का … Read more

भ्रम 

कहानी -भ्रम

भ्रम में जीना कभी अच्छा नहीं होता, लेकिन हम खुद कई बार भ्रम पालते हैं .. बहुत लोग हैं हमारे अपने, बस जरा सा  कह  देंगे तो सबका साथ मिल जाएगा | कई बार हम अपने इस भ्रम को जिंदा रखने के लिए कहते भी नहीं हैं | पर एक दिन ऐसा आता है की भ्रम के इस चढ़ते हुए बोझ से हमारा अपना अस्तित्व तार -तार होने लगता है | उस समय ये भ्रम की गठरी उतार कर फेंक देते हैं |असली सशक्तता वहीं से होती हैं | आइए पढ़ते हैं सुपरिचित कथाकार कविता  वर्मा की बरसों -बरस ऐसे ही भ्रम में जीती लड़की की कहानी .. भ्रम    गर्मियों के दिन में सूरज उगते ही सिर पर चढ़ जाता है उसके तेवर से सुबह का सुहानापन यूँ झुलस जाता है जैसे गिरे हुए पानी पर गर्म तवा रख दिया गया हो। कहीं से ठंडक चुरा कर लाई हवाएँ भी सूरज की तपिश के आगे दम तोड़ देती हैं। उनका हश्र देख दिल दिमाग मुस्तैदी से काम निपटाने की ताकीद करता है। वैसे भी इतने सालों की अनुशासित जीवन शैली ने मेघना को सुबह टाइमपास करना या अलसाना कभी सीखने ही कहाँ दिया? आँख खुलते ही घर के कामों की फेहरिस्त दिमाग में दौड़ने लगती है और उन्हें पूरा करने की बैचेनी भी। बरसों की आदत और कहीं कोई कोताही होने पर मिलने वाले कड़वे बोल आलस को आसपास भी न फटकने देते। मेघना अभी घर के काम निपटा कर फुर्सत ही हुई थी कि उसका मोबाइल बज उठा। एक झुंझलाहट सी हुई जब यह विचार आया कि किसका फोन होगा लेकिन फोन बज रहा है तो उठाना तो होगा ही। नए नंबर को देख उसने असमंजस में फोन उठाया दूसरी तरफ एक चहकती हुई आवाज थी “हेलो मेघना कैसी है तू? क्या यार कितने साल हो गए न मिले हुए, बात किए हुए, हमेशा तेरी याद आती है लेकिन तेरा नंबर ही नहीं था मेरे पास।” दूसरी ओर की चुप्पी से बेखबर वह आवाज अपनी खुशी बिखेरती जा रही थी, जबकि मेघना ने उसी आवाज के सहारे पहचान के सभी सूत्रों को तलाशना शुरू कर दिया था। इतना तो तय था कि फोन उसकी किसी पुरानी सखी का है लेकिन कौन नाम याद ही नहीं आ रहा था। उस तरफ से जितनी खुशी और उत्साह छलक रहा था मेघना उतने ही संकोच से भरती जा रही थी। खुशी की खनक में संकोच की चुप्पी सुनाई ही नहीं दे रही थी और इस खनक पर अपरिचय का छींटा मारने का साहस मेघना नहीं जुटा पा रही थी। तभी शायद चुप्पी ने चीख कर अपने होने का एहसास करवाया और वहाँ से आवाज आई, “अरे पहचाना नहीं क्या मैं सुमन बोल रही हूँ जबलपुर से”  नाम सुनते ही दिमाग में पड़े पहचान सूत्र एक बार फिर उथल-पुथल हुए और कहीं दबा पड़ा नाम सुमन कश्यप सतह पर आ गया। “अरे सुमन तू कैसी है कहाँ है आजकल और तुझे नंबर कैसे मिला” मेघना के स्वर में भी थोड़ा उत्साह थोड़ी खुशी छलकी जो सायास ही लाई गई थी। जबलपुर से जुड़े सूत्र के साथ बहुत आत्मीयता अब उसमें शेष न बची थी लेकिन उसे प्रकट करना इतना सहज भी न था। कम से कम प्रचलित मान्यताओं के अनुसार तो पुरानी सखी और मायके के नाम का जिक्र प्रसन्न होने की अनिवार्यता थी। पति बच्चे ससुराल की बातों के बाद आखिर वह प्रश्न आ ही गया जिसकी आशंका मेघना को प्रसन्न नहीं होने दे रही थी। सुमन ने बताया था कि बाजार में बड़ी भाभी मिली थीं और नंबर उन्हीं से मिला है। नंबर के साथ ही उन्होंने कुछ उलाहने भी अवश्य दिए होंगे जानती थी मेघना। वही उलाहने प्रश्न बनकर आने से आशंकित थी वह। अचानक उसे तेज गर्मी लगने लगी जैसे सुमन के प्रश्न सूरज की तपिश लपेट कर उसके ठीक सामने आ खड़े हुए हैं। अच्छा कहकर बात खत्म करने की कोशिश की उसने लेकिन उस तरफ से बात तो अब शुरू होना थी। “भाभी कह रही थी कि तू मायके नहीं आती दो-तीन साल हो गए ऐसा क्यों, कोई बात हो गई क्या?” सुमन ने कुरेदते हुए पूछा तो थोड़ी अनमनी सी हो गई वह। यह भाभी भी न, हर किसी के सामने पुराण बाँचने बैठ जाती हैं। सुमन ने नंबर माँगा था दे देतीं, मैं मायके आती हूँ नहीं आती बताने की क्या जरूरत थी? मन में उठते इन असंतोषी भावों को दबाकर वह हँसी की आवाज निकालते हुए बोली “अरे ऐसा कुछ नहीं है पहले संयुक्त परिवार था तो पीछे से सुकेश के खाने-पीने की चिंता नहीं रहती थी, बच्चे भी छोटे थे तो लंबी छुट्टी मिल जाती थी। अब गर्मी की छुट्टियाँ उनकी हॉबी क्लास स्किल क्लास में निकल जाती हैं अब बच्चों को छोड़कर जाना नहीं हो सकता न अभी इतने समझदार भी नहीं हुए हैं। वैसे कभी-कभार किसी शादी में हमें निकलना होता है तो जबलपुर रुक जाती हूँ। और तू सुना कब आई जबलपुर, कब तक रुकेगी? ” मेघना ने बिना रुके प्रश्नों की झड़ी लगाकर बातचीत की दिशा मोड़ दी। लगभग बीस मिनट की इस बातचीत ने मेघना को थका दिया फोन रख कर उसने पूरा गिलास भर पानी पिया और बेडरूम में आकर लेट गई।   यादों की गठरी के साथ दिक्कत ही यही है कि अगर उसे जरा सा छेड़ा तो यादें रुई के फाहे सी हवा में तैरने लगती हैं, फिर उन्हें समेट कर वापस बाँधना मुश्किल होता है जब तक उन्हें सहला कर समेटा न जाए। मेघना ने बिस्तर पर लेट कर आँखें बंद की तो अतीत के फाहे उसकी आँखों के आगे नाचने लगे।n बाईस की हुई थी वह जब उसकी सगाई सुकेश के साथ हुई थी। उसके पहले का जीवन आम भारतीय लड़की की तरह था, होश संभालते ही खाना बनाना, घर के काम करना सिखा दिया गया था। तीन भाइयों की इकलौती बहन थी। यूँ खाने कपड़े की कोई कमी न थी सरकारी कॉलेज में पढ़ाई का विशेष खर्च भी न था लेकिन फिर भी कभी-कभी बहुत छोटी-छोटी बातों में भी लड़के लड़की के बीच का भेद उसे चुभता था। अम्मा खूब पढ़ी लिखी तो न थीं, लेकिन सामाजिकता व्यवहारिकता निभाना खूब … Read more

परछाइयों के उजाले 

प्रेम को देह से जोड़ कर देखना उचित नहीं पर समाज इसी नियम पर चलता है | स्त्री पुरुष मैत्री संबंधों को शक की निगाह से देखना समाज की फितरत है फिर अगर बात प्रेम की हो …शुद्ध खालिस प्रेम की , तब ? आज हम भले ही प्लैटोनिक लव की बात करते हैं पर क्या एक पीढ़ी पीछे ये संभव था | क्या ये अपराध बोध स्वयं प्रेमियों के मन में नहीं था | बेनाम रिश्तों की इन पर्चियों के उजाले कहाँ दफ़न रह गए | आइये जानते हैं कविता वर्मा जी की कहानी से … परछाइयों के उजाले    सुमित्रा जी है? दरवाजे पर खड़े उन सज्जन ने जब पूछा तो में बुरी तरह चौंक पड़ी। करीब साठ बासठ की उम्र ऊँचा पूरा कद सलीके से पहने कपडे,चमचमाते जूते, हाथ में सोने की चेन वाली महँगी घडी, चेहरे पर अभिजात्य का रुआब, उससे कहीं अधिक उनका बड़ी माँ के बारे में यूं नाम लेकर पूछना. यूं तो पिछले एक महिने से घर में आना जाना लगा है, लेकिन बड़ी माँ, जीजी, भाभी, बुआ, मामी, दादी जैसे संबोधनों से ही पुकारी जाती रहीं हैं, ये पहली बार है की किसी ने उन्हें उनके नाम से पुकारा है और वो भी नितांत अजनबी ने। मैं  अचकचा गयी.हाँ जी हैं आप कौन? उनका परिचय जाने बिना मैं बड़ी माँ से कहती भी क्या? उनसे कहिये मुरादाबाद से सक्सेना जी आये हैं. उन्हें ड्राइंग रूम में बैठा कर मैंने पंखा चलाया और पानी लाकर दिया. क्वांर की धूप में आये आगंतुक को पानी के लिए इंतज़ार करवाना भी तो ठीक नहीं था. आप बैठें मैं बड़ी माँ को बुलाती हूँ. लगभग एक महिने की गहमा गहमी के बाद बस कुछ दो-चार दिनों से ही सब कुछ पुराने ढर्रे पर आया है.पापा भैया काम पर गए हैं घर में कोई भी पुरुष सदस्य नहीं है.मम्मी भाभी सुबह की भागदौड के बाद दोपहर में कुछ देर आराम करने अपने अपने कमरों में बंद हैं.बड़ी माँ तो वैसे भी अब ज्यादातर अपने कमरे में ही रहती हैं.मैं भी खाली दुपहरी काटने के लिए यूं ही बैठे कोई पत्रिका उलट-पलट रही थी,तभी गेट खोल कर इन सज्जन को अन्दर आते देखा.घंटी बजने से सबकी नींद में खलल पड़ता इसलिए पहले ही दौड़ कर दरवाजा खोल दिया. बड़ी माँ के कमरे का दरवाज़ा धीरे से खटखटाया वह जाग ही रहीं थीं। कौन है?अन्दर आ जाओ। कुर्सी पर बैठी वह दीवार पर लगी बाबूजी और उनकी बड़ी सी तस्वीर को देख रहीं थीं.मुझे देखते ही उन्होंने अपनी आँखों की कोरें पोंछी।  मैंने पीछे से जाकर उनके दोनों कन्धों पर अपने हाथ रख दिए. बड़ी माँ को ऐसे देख कर मन भीग जाता है। एक ऐसी बेबसी का एहसास होता है जिसमे चाह कर भी कुछ नहीं किया जा सकता। कुछ नहीं रे बस ऐसे ही बैठी थी. उन्होंने मुस्कुराने की कोशिश की.तू क्या कर रही है सोयी नहीं? बड़ी माँ आपसे मिलने कोई आये हैं। कौन हैं?उन्होंने आश्चर्य से पूछा माथे पर सलवटें उभर आयीं शायद वह याद करने की कोशिश कर रहीं थी की अब कौन रह गया आने से? कोई सक्सेना जी हैं मुरादाबाद से आये हैं.बड़ी माँ के चेहरे पर अचानक ही कई रंग आये और गए। ऐसा लगा जैसे वह अचानक ही किसी सन्नाटे में डूब गयीं हों। वह कुछ देर बाबूजी की तस्वीर को देखती रहीं फिर उन्होंने पलकें झपकाई और गहरी सांस छोड़ी. उन्हें बिठाओ कुछ ठंडा शरबत वगैरह बना दो में आती हूँ. कुछ नाश्ता और शरबत लेकर जब मैं ड्राइंग रूम में पहुंची तो दरवाजे पर ही ठिठक गयी। वह अजनबी सज्जन बड़ी माँ के हाथों को अपने हाथों में थामे बैठे थे। मेरे लिए ये अजब ही नज़ारा था जिसने मेरे कौतुक को फिर जगा दिया, आखिर ये सज्जन हैं कौन? पहले उन्होंने बड़ी माँ को नाम से पुकारा फिर अब उनके हाथ थामे बैठे हैं. बाबूजी के जाने के बाद पिछले एक महिने में मातम पुरसी के लिए आने जाने वालों का तांता लगा था.दूर पास के रिश्तेदार जान पहचान वाले कई लोग आये।कुछ करीबी रिश्तेदारों को छोड़ दें जो बड़ी माँ के गले लगे बाकियों में मैंने किसी को उनके हाथ थामे नहीं देखा। तो आखिर ये हैं कौन? मैंने ट्रे टेबल पर रख दी। उन सज्जन ने धीरे से बड़ी माँ का हाथ छोड़ दिया। बड़ी माँ वैसे ही खामोश बैठी रहीं। जैसे कुछ हुआ ही न हो। कहीं कोई संकोच कोई हडबडाहट नहीं। जैसे उनका हाथ पकड़ना कोई नया या अटपटा काम नहीं है। बड़ी माँ को मैंने हमेशा एक अभिजात्य में देखा है. उन्हें कभी किसी से ऐसे वैसे हंसी मजाक करते नहीं देखा।छुट्टियों में जब बुआ, मामी, भाभी सब इकठ्ठी होती तब भी उनकी उपस्थिति में सबकी बातों में हंसी मजाक की एक मर्यादा होती थी।फिर उनकी अनुपस्थिति में सब चाहे जैसी चुहल करते रहें। बाबूजी के साथ भी वह ऐसे हाथ पकडे कभी ड्राइंग रूम में तो नहीं बैठी। एक बार छुटपन में छुपा छई खेलते मैं उनके कमरे का दरवाजा धडाक से खोल कर अन्दर चली गयी थी बाबूजी ने बड़ी माँ का हाथ पकड़ रखा था। लेकिन मुझे देखते ही उन्होंने तेज़ी से अपना हाथ छुड़ा लिया था जैसे उनकी कोई चोरी पकड़ा गयी हो।लेकिन आज वह बिना किसी प्रतिक्रिया के चुपचाप बैठी हैं,मानों उन सज्जन का उनका हाथ पकड़ना बहुत सामान्य सी बात है। लेकिन वे सज्जन आखिर हैं कौन? मैं इसी उहापोह में खड़ी रही तभी बड़ी माँ ने मेरी ओर देखा हालांकि उन्होंने कुछ कहा नहीं लेकिन उन नज़रों का आशय में समझ गयी। वे कह रहीं थीं मैं वहां क्यों खड़ी हूँ?   बड़ी माँ, मम्मी को बुला लाऊं? मैंने अपने वहां होने को मकसद दिया? नहीं रहने दो। संक्षिप्त सा उत्तर मिला जिसका आशय मेरे वहां होने की अर्थ हीनता से था।   मैं वहां से चुपचाप चल पड़ी लेकिन वह प्रश्न भी मेरे साथ ही चला आया था की आखिर वे सज्जन हैं कौन? एक बार नाश्ते की ट्रे उठाने मैं फिर वहां गयी। उनके बीच ख़ामोशी पसरी थी शायद उनका वहां होना ही बड़ी माँ के लिए बहुत बड़ी सान्तवना थी और उसके लिए शब्दों की जरूरत नहीं थी। बड़ी माँ कुछ और लाऊं? उन्होंने इनकार में सिर हिला दिया और मैं खाली ट्रे में अपने कौतुक के साथ वापस आ गयी।वे … Read more