एक खूबसूरत प्रेम कहानी है सीता रामम- मूवी रिव्यू

सीता रामम मूवी रिव्यू

  सी अश्विनी दत्त द्वारा निर्मित और हनु राघवपुडी द्वारा निर्देशित  ‘सीता रामम’ तेलुगू में बनी वो  फिल्म है जिसे हिंदी में भी रिलीज किया गया है। सीता रामम’ एक ऐसी प्रेम कहानी है,  जिसमें प्रेम अपने विराट रूप में सामने आता है l जो रूहानी है और देह से परे है l इसके अतरिक्त प्रेम के दो प्रकार और हैं जो  पूरी कहानी में साथ- साथ चलते हैं, एक मुखर और एक मौन l मुखर प्रेम है देश के प्रति प्रेम और मौन प्रेम है धार्मिक सौहार्दता के प्रति प्रेम l साधारण शब्दों में कहे तो धर्म की कट्टरता के बीच लिखी गई एक प्रेम कहानी में धर्म का असली मर्म है, ‘परहित सरिस धरम नहिं भाई’। अटूट बंधन की परंपरा के अनुसार हम मुख्य रूप से इसकी कहानी पर ही बात करेंगे l एक खूबसूरत प्रेम कहानी है सीता रामम- मूवी रिव्यू   फिल्म ‘सीता रामम’ दो कालखंडों में एक साथ चलती है।  कहानी का एक सिरा 1964 में शुरु से जुड़ता है l जिसमें बहादुर सैनिको को अपने परिआर के नाम संदेश भेजने के रेडियो कार्यक्रम के दौरान  लेफ्टिनेंट राम की बारी आने पर वो कहता है कि वो अनाथ है और ये सेना, दोस्त और पूरा देश ही उसका परिवार है l ऐसे में रेडियो की तरफ से कार्यक्रम संचालक देश के लोगों से अपील करती है कि वो राम को चिट्ठियाँ लिखे l उसकी वीरता की कहानी सुनकर देश भर के लोग उसे चिट्ठियां लिखने लगते हैं। राम भी उन चिट्ठियों के जवाब लिखता है l इसी में एक चिट्ठी सीतालक्ष्मी की आती है जो राम को अपना पति मानती है। बातें भी सारी वह ऐसी ही लिखती है। पर राम उसको जवाब नहीं लिख पाता क्योंकि वो अपना पता नहीं लिखती l पर एक चिट्ठी से एक खास तारीख में उसका दिल्ली में किसी ट्रेन में होने का जिक्र पढ़ कर  राम अपनी सीता को खोजने निकलता है।   कहानी का दूसरा सिरा 1984 में लंदन सेशुरू होता है । एक पाकिस्तानी लड़की आफ़रीन जो भारत से बेंतहाँ नफरत करती है l लंदन में एक भारतीय सरकारी गाड़ी को नुकसान पहुंचाती है l पकड़े जाने पर परिस्थितियाँ कुछ ऐसी बनती हैं कि अब उसके सामने दो रास्ते हैं या तो दस लाख रुपये दे या माफी मांगे l अपनी नफरत के असर में वो दस लाख रुपये देना चुनती है l और दो साल से अपने परिवार के किसी खट फोन कॉल का जवाब ना देने वाली लड़की अपने बाबा की विरासत हासिल करने पाकिस्तान आती हैं l उसे लंदन भेजा ही इसलिए जाता है क्योंकि उसके बाबा उसके अंदर बढ़ती नफरत और कट्टरता से चिंतित थे l और उन्हें लगता है कि यहाँ के संगियों का साथ छूटने और वहाँ के खुले माहौल में उसमें बदलाव आएगा l खैर पाकिस्तान आने पर उसे पता चलता है की उसके बाबा का इंतकाल हो गया है l और उसे विरासत तभी मिलेगी जब वो पाकिस्तान की जेल में बंद राम की एक चिट्ठी को भारत में  सीतालक्ष्मी तक पहुँचा देगी l मजबूरी में वो ये काम स्वीकार करती है ..  और शुरू होता है फिल्म में रहस्य का एक सफर l हर नुक्कड़ पर एक नया मोड़ है। एक नया किरदार है। सीतालक्ष्मी की असल पहचान क्या है? इसका खुलासा होने के साथ ही फिल्म का पूरा ग्राफ बदल जाता है। ये कहानी प्रेम की नई ऊंचाइयों को छूती है l जहाँ इंसान के गुण प्रेम का कारण तो अंतहीन इंतजार भी प्रेम का ही हिस्सा है l   सीता रामम- मूवी रिव्यू इस प्रेम कहानी के अलावा ये  कहानी समाज, दस्तूरों और परिवार की तंग गलियों से होकर गुजरती है पर विजय प्रेम की ही होती है l भारत पाकिस्तान के बीच 1971 में हुए युद्ध के सात साल पहले के समय के कश्मीर का भी चित्रण है l फिल्म उस सूत्र को तलाशने की कोशिश करती है जिसके चलते ये माना जा रहा था  कि कश्मीरियों ने भारतीय सेना को अपना दुश्मन मान लिया है । हर कोई एक दूसरे पर शक कर रहा है l अवचेतन में ठुसाई गई यह भावना तब टूटती है जब कारगिल में ठंड से ठिठुरते फौजियों के लिए रसद ले कर आते हैं l शुरुआती तहकीकात के बाद सेना भी दिल से स्वागत करती है l रिश्तों में विश्वास का फूल खिलता है पर ये सीमा के उस पार वालों को कहाँ सहन होता है l धार्मिक उन्माद के बीच नायक राम स्थापित करता है कि परहित से बड़ा कोई धर्म नहीं है l चिट्ठी के माध्यम से बहन बनी देह व्यापार में लिप्त स्त्री की व्यथा जानकर राम अपना सारा संचित धन उनके जीवन को नई दिशा देने में लगा देता है l ये समदृष्टि ही एक व्यक्ति को राम बनाती है l कहानी का अंत बेहद प्रभावशाली है l ये पाठक को उदास कर जाता है साथ ही नफरत की चौहद्दी पार ना करने वाली आफ़रीन के मन की सभी दीवारें गिरा कर भारत के लिए प्रेम का बीज बो देता है l यही प्रेम का बीज हर दर्शक के मन मैं भी उतरता है … क्योंकि प्रेम नफरती से बहुत बड़ा है l   युद्ध की कगार पर खड़े दो देशों पर बनी देशभक्ति की फिल्म राजी की तरह ही इस फिल्म में भी ये तथ्य उभर कर आता है कि अपनी देश की सरहद पर प्राण नौछावर कर देने वाला सैनिक… सैनिक ही होता है l देशभक्ति के जज्बे से भरा एक इंसान l जो हमारे लिए खलनायक है वो उस देश के लिए नायक है l   हालंकी फिल्म ने कश्मीर और धर्म के मुद्दे को छुआ है तो दोनों ही तरफ से कुछ- कुछ दृश्यों पर विरोध हो सकता है l हिंदी में डबिंग कई जगह कमी लगती है तो सम्पादन भी सुस्त है…  जिस कारण लिंक टूटता है l गीत-संगीत प्रभवित नहीं करता है l इसे दरकिनार करते हुए अभिनय की दृष्टि से देखें तो फिल्म का हीरो दुलकर सलमान है। किरदार वह राम का कर रहा है। फिल्म की हीरोइन मृणाल ठाकुर है और जो किरदार वह फिल्म में कर रही है, वह पारंपरिक हीरोइन का नहीं है। … Read more

द कश्मीर फाइल्स-फिल्म समीक्षा

द कश्मीर फाइल्स-फिल्म समीक्षा

  लगभग दो साल से लोग घरों में कैद रहें और सिनेमा हाल बंद प्राय रहें, फिर एक हिन्दी मूवी रिलीज होती है “द कश्मीर फाइल्स”। इसने रिलीज के साथ ही पहले ही शो से टिकट खिड़की पर आग लगा दी। कम बजट की इस फिल्म पर वितरकों को जरा भी विश्वास नहीं था तभी तो शुक्रवार को पूरे देश में सिर्फ 500 स्क्रीन पर लाया गया। अन्य बड़ी मूवीज की तरह न ही इसका कोई खास प्रचार हुआ और न शुरुआत में कोई चर्चा। कुछ लोगो ने महज मौखिक रूप से सोशल मीडिया पर इसकी चर्चा की, पर करोड़ों खर्च कर भी जो सफलता नहीं हासिल होती है इस फिल्म ने सिर्फ मौखिक और जबरदस्त कंटेन्ट की वजह से झंडे गाड़ दिए। एक मामूली बजट और लो स्टारकास्ट मूवी का बॉक्स ऑफिस, निश्चित ही ट्रेंड सर्किल को हैरान करने वाला माना जाएगा। रिलीज के चौथे दिन 4 गुना से ज्यादा शोज बढ़ने का उदाहरण इससे पहले कभी नहीं देखा। ‘द कश्मीर फाइल्स’ एक केस स्टडी हो सकती है, क्योंकि आज के समय 3 दिनों की कमाई पर निर्माता फ़ोकस करते हैं, यानी ज्यादा से ज्यादा स्क्रीन पर (4000+) स्क्रीन पर फ़िल्म रिलीज किया जाए। धुआंधार प्रचार से दर्शकों को खींचते हैं, फिर सोमवार से शोज कम हो जाते हैं। इस फ़िल्म में ठीक इसका उल्टा हुआ, यानी शुक्रवार से 4 गुना शोज सोमवार को हो गए।   नब्बे की दशक की शुरुआत में हुई भीषण नर संहार की खबर को महज एक पलायन के रूप में खबरों में स्थान मिली थी। कश्मीर के आधे-अधूरे उस वक़्त की प्रसारित की गई सच – झूठ की सच्चाई को निर्माता विवेक अग्निहोत्री ने पूरी बेबाकी से उधेड़ कर रख दिया है इस फिल्म के जरिए। सच हमेशा कड़वा ही होता है। ये मूवी वाकई एक दस्तावेज है जो कश्मीरी पंडितो के दुखद नरसंहार (सिर्फ पलायन नहीं) की सच्ची तस्वीर प्रस्तुत करती है। ये फिल्म कई परतों में एक साथ चलती है। आज जब अनुच्छेद 370 हट चुका है की चर्चा के साथ साथ 1990 की घटनाओं का बेहतरीन वर्णन है। मुझे तो सबसे बढ़िया फिल्म का वो हिस्सा लगा जिसमें कैसे कश्मीर सदियों से अखंड भारत का हिस्सा रहा है का जिक्र है।   एक प्रशासनिक अफसर, एक पत्रकार, एक डॉक्टर और एक आम जन – को बिम्ब की तरह प्रस्तुत किया गया है दोस्तों के रूप में, जिन्होंने प्रतिनिधित्व किया उस वक़्त के इन चारों की भूमिका और असहायता को दर्शाने हेतु। एक आज का brainwashed युवा भी है और है JNU भी। बहुत गुत्थियों को सुलझाने का प्रयास है, कई राज खुलते हैं तो कई फ़ेक न्यूज़ और चलते आ रहे प्रोपैगैंडा की धज्जियाँ उड़ती है। बहुत जरूरी है इस तरह की फिल्मों का भी बनना जो परिपक्व और गंभीर दर्शक मांगते हैं। ये एक Eye opener और बेबाक मूवी है जिसकी सभी घटनाओं को सत्य बताया गया है। तत्कालीन सरकारों की उदासीनता दिल को ठेस पहुँचाती है। टीवी पर अफगानिस्तान और यूक्रेन से बेघर होते लोगो को देख आँसू बहाने वालों को शायद मालूम ही नहीं कि अपने ही देश में लाखों लोग बेहद जिल्लत और तकलीफों के साथ शरणार्थी बनने को मजबूर किये गए थें, जिस पर यदा-कदा ही चर्चा हुई। लेखिका रीता गुप्ता  कई लोग सवाल उठा रहें हैं कि 32 वर्षों के बाद इस वीभत्स घटना पर से पर्दा उठाना अनावश्यक है। तो वहीं कुछ लोग इस की गांभीर्य कथ्य में मनोरंजन के अभाव के कारण विचलित हो रहे हैं। फिर ऐसे लोगो की भी कमी नहीं है जो इस मूवी को राजनीति से जोड़ रहें हैं। कुछ लोग इसे डार्क व अवसादपूर्ण बता रहें। उन लोगो को भारी निराशा हुई होगी जो इसे एकपक्षीय मान दंगा और दुर्भावना की आशंका कर रहे थे। किसी समस्या का निदान उसे छिपाने, नज़रंदाज़ करने या उस पर चुप्पी साधने यानि शुतुरमर्ग बन जाने से नहीं होता। पहले हम स्वीकार करें कि समस्या है, तभी उसका हल भी निकलेगा। बिगाड़ के डर से ईमान की बात ना करके अब यह समस्या विकराल रूप धारण कर चुकी है। इस फ़िल्म में भी कई कमियां होंगी मगर इस फ़िल्म की सबसे बड़ी सफलता इस बात में है कि इसने कश्मीरी हिंदुओं के विस्थापन पर जो सालों से रुकी बहस, चर्चा थी उसे पूरे विश्व में आरंभ कर दिया है।       दुनिया भर में इस तरह की हिंसा पर काफी फ़िल्में बनी हैं। रवांडा में हुए नरसंहार पर ‘100 Days (2001)’ से लेकर ’94 Terror (2018)’ तक एक दर्जन फ़िल्में बनीं। हिटलर द्वारा यहूदियों के नरसंहार पर तो ‘The Pianist (2002)’ और ‘Schindler’s List’ (1993) जैसी दर्जनों फ़िल्में बन चुकी हैं। कंबोडिया के वामपंथी खमेर साम्राज्य पर The Killing Fields (1984) तो ऑटोमोन साम्राज्य द्वारा अर्मेनिया में कत्लेआम पर Ararat (2002) और ‘The Cut (2014)’ जैसी फ़िल्में दुनिया को मिलीं। holocaust Holocaust (1978) एक अमेरिकन सीरीज है जो जर्मनी के द्वारा यहूदियों की नर संहार की कहानी है।   बहरहाल “द कश्मीर फाइल्स” फिल्म की सफलता इस बात का द्योतक है कि बॉलीवुड फिल्मों के शौकीन सिर्फ नाच-गाना और कॉमेडी से इतर मुद्दों पर आधारित गंभीर कथानक भी पसंद करते हैं। सिनेमा एक सशक्त माध्यम है जनमानस तक पहुँचने का और ये फिल्म इसमें पूरी तरह सफल होती दिख रही है। इस फिल्म की सफलता भविष्य में भी गंभीर मुद्दों पर फिल्मांकन की राह प्रशस्त करती है। रीता गुप्ता Rita204b@gmail.com ये लेख प्रभात खबर की पत्रिका सुरभि में भी प्रकाशित है |   यह भी पढ़ें … राजी -“आखिर युद्ध क्यों होते है “सवाल उठाती बेहतरीन फिल्म फिल्म ड्रीम गर्ल के बहाने -एक तिलिस्म है पूजा फ्रोजन -एक बेहतरीन एनिमेटेड फिल्म कारवाँ -हँसी के माध्यम से जीवन के सन्देश देती सार्थक फिल्म आपको “द कश्मीर फाइल्स-फिल्म समीक्ष” लेख कैसा लगा ? अपने विचारों से हमें अवश्य अवगत कराए | अगर आपको अटूट बंधन की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया साइट को सबस्क्राइब करें और अटूट बंधन फेसबू पेज को लाइक करें |  

कानपुर में धनुक की गूँज –एक विस्तृत रिपोर्ट

कानपुर में धनुक की गूँज कानपुर एक ऐसा शहर जो चारों तरफ से गाँवों से घिरा हुआ  हुआ है | आम बोली-बानी में सहज ही देशज शब्द शामिल हैं | उत्तर प्रदेश की देशी  संस्कृति से धडकता है इसका दिल |  वैसे आम तौर पर  कानपुर की पहचान उत्तर के प्रमुख औद्योगिक शहर के रूप में है | यहाँ का हैंडलूम व् चमड़ा उद्द्योग पूरे देश में प्रसिद्द है | जहाँ पर किसान, श्रमिक और पूंजीपति वर्ग मिलजुल कर रहते हों वहाँ  की धरती स्वत : ही साहित्य के लिए उर्वरा हो जाती है | इन आम लोगों के जीवन, उनकी दुश्वारियों उनकी संवेदनाओं से मिलकर ही तो बनता है साहित्य | कानपुर और साहित्य का अटूट संबंध  है | महर्षि वाल्मीकि ने आदि  कानपुर  कहे जाने वाले बिठूर में ही रामायण की रचना की | जो विश्व साहित्य की अनमोल धरोहर है | धरती पर साहित्य सृजन का सिलसिला वहीँ से आरम्भ माना जाता है |  1857 की क्रांति का विस्फोट यहाँ  से हुआ। बिठूर के नानाराव पेशवा, अजीमुल्ला खां, अजीजन बाई सहित कई ऐसे चरित्र हुए, जिन्होंने कलम के सिपाहियों को आकर्षित किया। उन्हीं के प्रभाव से ‘प्रताप अखबार’ के जरिये गणेश शंकर विद्यार्थी ने तेजस्वी हिंदी पत्रकारिता की शुरुआत कानपुर से की। महान क्रांतिकारी भगत सिंह भी यहां रहक उर्दू में छद्म नाम प्रताप अखबार में लिखते थे |  “धनपत राय” कानपुर में पोस्टिंग के दौरान यहाँ मजदूरों की स्थिति, ट्रेड यूनियन के आन्दोलन देखकर हिंदी में लिखना शुरू किया और कथा सम्राट ‘प्रेमचन्द्र’ का साहित्यिक जन्म कानपुर में हुआ | महावीर प्रसाद द्विवेदी को कानपुर से विशेष लगाव रहा। इलाहाबाद से प्रकाशित होने वाली पत्रिका ‘सरस्वती’ का उन्हें संपादक बनाया गया तो उन्होंने रेलवे की नौकरी छोड़ दी। शर्त रख दी कि वह संपादन करेंगे एक ही शर्त पर। कानपुर में रहकर लेखन करेंगे और यहां से इलाहाबाद लेख भेजे | अटल बिहारी बाजपेयी और गोपाल दास नीरज जी की  हिंदी की काव्यधारा का उद्गम स्थल भी कानपुर ही है | वर्तमान दौर में सबसे वरिष्ठ और सशक्त साहित्यकारों में कथाकार पद्मश्री गिरिराज किशोर और प्रियंवद का नाम सम्मान से लिया जाता है। फिर औद्योगिक परिवेश ने ही शहर को राजेंद्र राव, श्रीनाथ और सुनील कौशिक जैसे साहित्यकार दिए। कहानीकारों में ललित मोहन अवस्थी, सुशील शुक्ल, प्रकाश बाथम और हृषिकेश भी उल्लेखनीय नाम हुए। सुमित अय्यर और अमरीक सिंह दीप भी कानपुर के साहित्यिक आकाश के सितारे हैं । कानपुर में धनुक की गूँज –एक विस्तृत रिपोर्ट इतना सब कुछ होने के बावजूद साहित्य  के बड़े उत्सव दिल्ली, भोपाल, पटना, जयपुर में सिमिटने लगे | साहित्य की शुरुआत करने वाला कानपुर पीछे होता चला गया | जरूरत थी एक धनुष  के टंकार की जो कानपुर के साहित्य व् यहाँ की साहित्यिक सोच से समृद्ध जनता का गौरव फिर से स्थापित कर सके | और ये काम किया साहित्यिक संस्था “धनुक” ने | इसकी खास बात ये है कि इस संस्था की अध्यक्षा कानपुर में ही पली बढ़ी डॉ. ज्योत्स्ना मिश्रा हैं | जो शरीर के साथ –साथ मन को भी दुरुस्त करने का माद्दा रखती हैं | और इसी सन्दर्भ में एक फरवरी 2020 को कानपुर के लाजपत भवन प्रेक्षागार में एक वृहद् साहित्यिक आयोजन किया गया | पूरे दिन चलने वाले इस कार्यक्रम के कई सत्र थे | जहाँ कविता ग़ज़ल कहानी के साथ –साथ स्त्री विमर्श, गांधी दर्शन और कश्मीरी पंडितों के दर्द के जरूरी मुद्दों पर भी विमर्श हुए |   कार्यक्रम का शुभ आरंभ प्रात 11 बजे कवि अग्निशेखर, प्रियंवद, विजय किशोर मानव, लीलाधर जगूड़ी , ज्योत्स्ना मिश्रा व्  सभी गणमान्य अतिथियों द्वारा दीप प्रज्जलन के साथ हुआ । इस अवसर पर आचार्य नरेंद्रदेव कॉलेज से आई एक टीम द्वारा सरस्वती वंदना का भी गयां किया गया | कार्यक्रम का पहला सत्र “गांधी से डरता कौन है “में महात्मा गाँधी पर एक गंभीर विमर्श हुआ | इसके बाद प्रथम सत्र में “गांधी से को डरता है” विषय पर गंभीर चर्चा हुई जिसमें देहरादून से आए वरिष्ठ साहित्यकार पदम श्री लीलाधर जगुड़ी  जी कानपुर के साहित्यकार प्रियवद जी , एवम पत्रकार श्री विजय किशोर मानव जी और नासिक से आए गांधी अभ्यासक पराग मांडले ने भाग लिया संचालन सर्वोदय जगत पत्रिका के सह संपादक प्रेम प्रकाश जी  ने किया। पराग मांडले जी ने जहाँ इस बात पर जोर दिया कि गांधी जी की मूर्तियों को ह्रदय में स्थापित करना है | उनके चश्में पर सत्य और अहिंसा के स्थान पर स्वच्छ भारत लिख देने से क्या फर्क  पड़ता है अगर उसे अमल  में ना लाया जाए | उनका कहना था कि गांधी जी से सत्ताएं डरती हैं | प्रियंवद जी ने कहा कि गांधी जी का प्रयोग उनके पक्ष और विपक्ष के सभी लोगों ने अपनी सुविधानुसार किया | उन्होंने जोर दिया कि गांधी जी के फॉलोअर बनने  के स्थान पर उनकी शिक्षाओं पर अमल  करना चाहिए | विजय किशोर मानव जी ने कहा कि गांधी से हर वो व्यक्ति डरता है जो सच से डरता है | क्योंकि जिसके पास सत्य का अवलंबन होता है वो निडर हो जाता है, निर्भय हो जाता है | उनका कहना था कि हिंसा शाब्दिक भी होती है |  पद्मश्री लीलाधर  जगूडी जी ने उन सब परिस्थितियों की चर्चा की जिनसे एक साधारण इंसान गाँधी बनता है | क्योंकि वो अपने जीवन से सीखता और उसे सुधारता  चलता है | उन्होंने रविन्द्रनाथ टैगोर और गाँधी जी का एक बहुत खूबसूरत प्रसंग सुनाया | जहाँ उन्होंने कहा कि असुंदर दिखना भी हिंसा है | हर हिंसा दिखाई नहीं देती पर कई प्रव्त्तियाँ हिंसक होती है | गांधी से वो सब डरते हैं जिनके अंदर हिंसा शेष है |   दूसरे सत्र सम्मान समारोह का रहा जिसमें सखी केंद्र की संस्थापक और सामाजिक कार्यकर्ता सुश्री नीलम चतुर्वेदी और पर्यावरण विध श्री नरेन्द्र नीरव को व्यक्तित्व सम्मान 2020 दिया गया। तीसरे सत्र में वंकुश अरोरा की पुस्तक लव ड्राइव का विमोचन किया गया। युवा कथाकार वंकुश  की कहानियाँ आम जनमानस के ह्रदय को स्पर्श  करती हुई है | चौथे सत्र में स्त्री विमर्श में वरिष्ठ पत्रकार रोमी अरोड़ा ,  वरिष्ठ साहित्यकार चित्रा देसाई , युवा विचारक कव्या मिश्रा, और ‘अटूट बंधन’ की कार्यकारी संपादक व् साहित्यकार वंदना बाजपेयी … Read more