पुस्तक समीक्षा -भगवतीचरण वर्मा स्मृति : समकालीन कहानी संग्रह

पुस्तक समीक्षा

  सीमा वशिष्ठ जौहरी जो कि वरिष्ठ साहित्यकार भगवतीचरण वर्मा की पोती हैं, ने अपने दादाजी भगवतीचरण वर्मा की स्मृति में समकालीन कहानी संग्रह का संपादन कर पुस्तक भगवतीचरण वर्मा स्मृति : समकालीन कहानी संग्रह का प्रकाशन संस्कृति, चेन्नई से करवाया है। सीमा जौहरी बाल साहित्य के क्षेत्र में लेखन में सक्रीय हैं। सीमा वशिष्ठ जौहरी ने इस संकलन की कहानियों का चयन और संपादन बड़ी कुशलता से किया हैं। इस संग्रह में देश-विदेश के सोलह  कथाकार शामिल हैं। संग्रह के 16 कथाकारों में भगवतीचरण वर्मा, ममता कालिया, ज़किया ज़ुबेरी, सूर्यबाला, चित्रा मुद्गल, तेजेन्द्र शर्मा, डॉ. हंसा दीप, सुधा ओम ढींगरा, अलका सरावगी, प्रहलाद श्रीमाली जैसे हिंदी के प्रतिष्ठित हस्ताक्षरों के साथ नयी और उभरते कथाकारों की कहानियाँ भी सम्मिलित हैं। इस संग्रह की कहानियाँ पाठकों के भीतर नए चिंतन, नई दृष्टि की चमक पैदा करती हैं। भगवतीचरण वर्मा स्मृति : समकालीन कहानी संग्रह सुप्रसिद्ध वरिष्ठ कथाकार भगवतीचरण वर्मा की वसीयत कहानी बेहद रोचक है। कहानी सामाजिक और पारिवारिक पृष्ठभूमि में लिखी गई है। कहानी में संवाद चुटीले और मार्मिक हैं। इस कहानी के द्वारा भगवती चरण वर्मा ने समाज की आधुनिक व्यवस्था पर करारा कटाक्ष किया गया है। इस कहानी में हास्य है, व्यंग्य और मक्कारी से भरे चरित्र हैं। भगवतीचरण वर्मा की किस्सागोई का शिल्प अनूठा है। भगवतीचरण वर्मा की कहानियों में घटनाएँ, स्थितियाँ और पात्रों के हावभाव साकार हो उठाते हैं। वसीयत कहानी एक कालजयी रचना है। भगवतीचरण वर्मा की रचनाएँ युगीन विसंगतियों पर प्रहार करते हुए नवयुग के सृजन की दिशा में आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करती हैं। वरिष्ठ कथाकार ममता कालिया ने कहानी दो गज़ की दूरी कोरोना काल की त्रासदी को केंद्र में रख कर लिखी है। कहानी में सहजता और सरलता है। यह नारी अस्मिता की कहानी है। यहां समिधा को सशक्त किरदार में दर्शाया गया है। ममता कालिया ने समिधा की सूक्ष्म मनोवृत्तियों, जीवन की धड़कनों, मन में चलने वाली उथल पुथल को इस कहानी में सहजता से अभिव्यक्त किया है। ममता कालिया विडम्बना के सहारे आज के जीवन की अर्थहीनता को तलाशती हैं। इस कहानी में संबंधों के नाम पर समिधा का पति वरुण झूठ, धोखा, अविश्वास, छल-कपट और बनावटीपन का मुखौटा लगाये संबंधों को जीना चाहता है। ज़कीया ज़ुबैरी की गरीब तो कई बार मरता है अमीना की कहानी है। ज़किया जुबैरी स्त्रियों की ज़िन्दगी में आहिस्ता से दाख़िल होकर उनके मन की परतों को खोलती हैं। भीतरी तहों में दबे सच को सामने लाती हैं। ज़किया जुबैरी की कहानियाँ उनकी बेचैनी को शब्द देती है। ज़कीया ज़ुबैरी हिन्दी एवं उर्दू दोनों भाषाओं में समान अधिकार रखती हैं। ज़कीया ज़ुबैरी की भाषा में गंगा जमुनी तहज़ीब की लज़्ज़त महसूस होती है। अमीना का विवाह समी मियाँ से होता है। अमीना का प्रत्येक दिन समी मियाँ की चाकरी में गुजर जाता है। अमीना चार बच्चों की माँ बन जाती है। समी मियाँ बिज़नेस के सिलसिले में एक महीने के लिए बाहर चले जाते हैं, तब अकेलेपन से बचने के लिए अमीना सत्रह साल की नूराँ को अपने पास बुला लेती है। जब समी मियाँ वापस लौट कर आते है, तब एक दिन सुबह अमीना अपने पति समी मियाँ को उनके बेड रूम में जाकर देखती है कि नूराँ समी मियाँ के बिस्तर पर सोई हुई है। अमीना और नूराँ दोनों चौंक जाती हैं।   सूर्यबाला की गौरा गुनवन्ती एक अनाथ लड़की की कहानी है जो अपनी ताई जी के यहाँ रहती है। सूर्यबाला अपनी कहानियों में व्यंग्य का प्रमुखता से प्रयोग करती हैं। सूर्यबाला की कहानियों में यथार्थवादी जीवन का सटीक चित्रण है। इनके कथा साहित्य में स्त्री के कई रूप दिखाई देते हैं। सूर्यबाला के नारी पात्र पुरुष से अधिक ईमानदार, व्यवहारिक, साहसी और कर्मठ दिखाई देती हैं। कहानीकार पाठकों को समकालीन यथार्थ से परिचित कराती हैं और उसके कई पक्षों के प्रति सचेत भी करती हैं। लेखिका जीवन-मूल्यों को विशेष महत्व देती हैं, इसलिए इनकी इस कहानी की मुख्य पात्र गौरा दुःख, अभाव, भय के बीच जीते हुए भी साहस के साथ उनका सामना करते हुए जीवन में सुकुन की तलाश कर ही लेती है। उसमें विद्रोह की भावना कहीं नहीं है। कथाकार चित्रा मुद्गल की कहानी ताशमहल पुरुष मानसिकता और माँ की ममता को अभिव्यक्त करने वाली है। यह एक परिवार की कहानी है, जिसमें संबंध बनते हैं, फिर बिगड़ते है और अंत में ताश के पत्तों की तरह ढह जाते हैं। माता-पिता के झगड़ों में बच्चों पर क्या गुजरती है? इस प्रश्न के उत्तर बारे में केवल माँ ही सोच सकती है। कहानी में बाल मनोविज्ञान का सूक्ष्म चित्रण भी दिखता है। यह एक सशक्त कहानी है जिसमें कथ्य का निर्वाह कुशलतापूर्वक किया गया है। कथाकार ने इस कहानी का गठन बहुत ही बेजोड़ ढंग से प्रस्तुत किया है। रीता सिंह एक ऐसी कथाकार है जो मानवीय स्थितियों और सम्बन्धों को यथार्थ की कलम से उकेरती है और वे भावनाओं को गढ़ना जानती हैं। लेखिका के पास गहरी मनोवैज्ञानिक पकड़ है। साँझ की पीड़ा एक अकेली वृद्ध महिला विमला देवी की कहानी है जो बनारस में अपने घर में रहती है। एक दिन विमला देवी की बेटी और उनका दामाद विमला देवी के यहाँ आकर बनारस के उस घर को बेच देते हैं और विमला देवी को अपने साथ चंडीगढ़ लेकर चले जाते हैं। लेकिन कुछ दिनों बाद ही बेटी और दामाद विमला देवी के साथ बुरा बर्ताव करते हैं, तब एक दिन विमला देवी दिल्ली में अपने भाई रघुवीर के घर चली जाती है। रघुवीर के घर में भी विमला देवी के लिए जगह नहीं थी, तब रघुवीर विमला देवी को एक विधवाश्रम में छोड़ कर आ जाते हैं। चार दिन बाद ही रघुवीर के पास विधवाश्रम के संचालक का फोन आता है कि विमला देवी को दिल का दौरा पड़ा है। रघुवीर जब आश्रम पहुँचते हैं, तब तक विमला देवी का निधन हो चुका होता है। तेजेन्द्र शर्मा ने बुजुर्गों के अकेलेपन को खिड़की कहानी के द्वारा बहुत मार्मिकता के साथ बयां किया है। कहानी के नायक जो कि साठ वर्ष के हैं और अब परिवार में अकेले रह गए हैं, की ड्यूटी रेलवे की इन्क्वारी खिड़की पर होती है। वे इस इन्क्वारी खिड़की पर लोगों के साथ संवाद स्थापित कर के, उनकी सहायता कर … Read more

पूर्वा- कहानी किरण सिंह

“जिस घर में भाई नहीं होते उस घर कि लड़कियाँ मनबढ़ होती हैंl” उपन्यासिक कलेवर समेटे चर्चित साहित्यकार किरण सिंह जी की  कहानी ‘पूर्वा’  आम जिंदगी के माध्यम से रूढ़ियों की टूटती बेड़ियों की बड़ी बात कह जाती है l वहीं  बिना माँ की बेटी अपूर्व सुंदरी पूर्वा का जीवन एक के बाद एक दर्द से भर जाता है, पर हर बार वो जिंदगी की ओर बढ़ती है l  जीवन सुख- दुख का संयोग है l दुख तोड़ देते हैं पर हर दुख के बाद जिंदगी को चुनना ही हमारा उद्देश्य हो का सार्थक सकारात्मक दृष्टिकोण देती है ये कहानी l वहीं  ये कहानी उन सैनिकों की पत्नियों के दर्द से भी रूबरू कराती है, जो सीमा पर हमारे लिये युद्ध कर रहे हैं l सरल – सहज भाषा में गाँव का जीवन शादी ब्याह के रोचक किस्से जहाँ पाठक को गुदगुदाते हैं, वहीं भोजपुरी भाषा का प्रयोग कहानी के आस्वाद को बढ़ा देता है l तो आइए मिलते हैं पूर्वा से – पूर्वा- कहानी किरण सिंह प्रति वर्ष की भांति इस वर्ष भी गणतंत्र दिवस के पूर्व संध्या पर संदूक से तिरंगा को निकालते हुए पूर्वा के हृदय में पीड़ा का सैलाब उमड़ आया और उसकी आँखों की बारिश में तिरंगा नहाने लगा । पूर्वा तिरंगा को कभी माथे से लगा रही थी तो कभी सीने से और कभी एक पागल प्रेमिका की तरह चूम रही थी ।ऐसा करते हुए वह अपने पति के प्रेम को तो महसूस कर रही थी लेकिन लग रहा था कलेजा मुह को आ जायेगा। यह तिरंगा सिर्फ तिरंगा ही नहीं था। यह तो उसके सुहाग की अंतिम भेंट थी जिसमें  उसके पति  लेफ्टिनेंट कर्मवीर मिश्रा का पार्थिव शरीर  लिपटकर आया था। तिरंगा में वह अपने पति के देह की अन्तिम महक को महसूस कर रही थी जो उसे अपने साथ – साथ अतीत में ले गईं । पूर्वा और अन्तरा अपने पिता ( रामानन्द मिश्रा) की दो प्यारी संतानें थीं। बचपन में ही माँ के गुजर जाने के बाद उन दोनों का पालन-पोषण उनकी दादी आनन्दी जी ने किया था। बहु की मृत्यु से आहत आनन्दी जी ने अपने बेटे से कहा – “बबुआ दू – दू गो बिन महतारी के बेटी है आ तोहार ई दशा हमसे देखल न जात बा। ऊ तोहार बड़की माई के भतीजी बड़ी सुन्नर है। तोहरा से बियाह के बात करत रहीं। हम सोचली तोहरा से पूछ के हामी भर देईं।” रामानंद मिश्रा ने गुस्से से लाल होते हुए कहा – “का माई – तोहार दिमाग खराब हो गया है का? एक बात कान खोल कर सुन लो, हम पूर्वा के अम्मा का दर्जा कौनो दूसरी औरत को नहीं  दे सकते। पूर्वा आ अन्तरा त अपना अम्मा से ज्यादा तोहरे संगे रहती थीं। हम जीते जी सौतेली माँ के बुला के आपन दूनो बेटी के  अनाथ नहीं कर सकते ।” आनन्दी जी -” हम महतारी न हईं। तोहार चिंता हमरा न रही त का गाँव के लोग के रही। काल्ह के दिन तोहार दूनो बेटी ससुराल चल जइहें त तोहरा के कोई एक लोटा पानी देवे वाला ना रहिहें। हमार जिनगी केतना दिन के है। ” रामानंद मिश्रा – “माई तू हमार चिंता छोड़के पूर्वा आ अन्तरा के देख।” बेटे की जिद्द के आगे आनन्दी जी की एक न चली। अपनी दादी की परवरिश में पूर्वा और अन्तरा बड़ी हो गईं। अब आनन्दी को उनके विवाह की चिंता सताने लगी। यह बात उन्होंने अपने बेटे से कही तो उन्होंने कहा – “माई अभी उमर ही का हुआ है इनका? अभी पढ़ने-लिखने दो न।” आनन्दी – “बेटा अब हमार उमर बहुते हो गया। अउर देखो बुढ़ापा में ई कवन – कवन रोग धर लिया है। इनकी मैया होती त कौनो बात न रहत। अऊर बियाह बादो त बेटी पढ़ सकत है। का जानी कब भगवान के दुआरे से हमार बुलावा आ जाये। माँ की बात सुनकर पूर्वा के पिता भावनाओं में बह गये और उन्होंने अपनी माँ की बात मान ली। अब वह पूर्वा के लिए लड़का देखने लगे। तभी उनकी रजनी (पूर्वा की मौसी) का फोन आया – “पाहुन बेटी का बियाह तय हो गया है। आप दोनो बेटियों को लेकर जरूर आइयेगा। रामानन्द मिश्रा -” माई का तबियत ठीक नहीं रहता है इसलिए हम दूनो बेटी में  से एकही को ला सकते हैं। ” रजनी -” अच्छा पाहुन आप जइसन ठीक समझें। हम तो दूनो को बुलाना चाहते थे, बाकिर……… अच्छा पूर्वा को ही लेते आइयेगा, बड़ है न। रामानंद मिश्रा – हाँ ई बात ठीक है, हम आ जायेंगे, हमरे लायक कोई काम होखे त कहना। ” रजनी -” न पाहुन, बस आप लोग पहिलहिये आ जाइयेगा। हमार बेटी के बहिन में  अन्तरा अउर पूर्वे न है। रामानंद मिश्रा – ठीक है – प्रणाम। पूर्वा अपने पिता के संग बिहार के आरा जिला से सटे एक गाँव में अपनी मौसेरी बहन शिल्पी की शादी में पहुंच गई । सत्रह वर्ष की वह बाला गज्जब की सुन्दर व आकर्षक थी। तीखे – तीखे नैन नक्स, सुन्दर – सुडौल शरीर, लम्बे – लम्बे घुंघराले केश, ऊपर से गोरा रंग किसी भी कविमन को सृजन करने के लिए बाध्य कर दे। मानो  ब्रम्ह ने उसको गढ़ने में अपनी सारी शक्ति और हुनर का इस्तेमाल कर दिया हो। ऊपर से उसका सरल व विनम्र स्वभाव एक चुम्बकीय शक्ति से युवकों को तो अपनी ओर खींचता ही था साथ ही उनकी माताओं के भी मन में भी उसे बहु बनाने की ललक जगा देता था। लेकिन पूर्वा इस बात से अनभिज्ञ थी। अल्हड़ स्वभाव की पूर्वा चूंकि दुल्हन की बहन की भूमिका में थी इसलिए  विवाह में सरातियों के साथ – साथ बारातियों की भी केन्द्र बिन्दु थी। गुलाबी लहंगा-चोली पर सिल्वर कलर का दुपट्टा उसपर बहुत फब रहा था । उस पर भी सलीके से किया गया मेकप उसके रूप लावण्य को और भी निखार रहा था। ऐसे में किसी युवक का दिल उस पर आ जाना स्वाभाविक ही था। दुल्हन की सखियाँ राहों में फूल बिछा रही थीं और पूर्वा वरमाला के लिए दुल्हन को स्टेज पर लेकर जा रही थी। सभी की नज़रें दुल्हन को देख रही थी लेकिन एक नज़र पूर्वा पर टिकी हुई थी। … Read more

स्टेपल्ड पर्चियाँ -समझौतों की बानगी है ये पर्चियाँ

स्टैपलेड पर्चियाँ

    जीवन अनगिनत समझौतों का नाम है | कुछ दोस्ती के नाम पर, कुछ प्रेम की परीक्षा में खरे उतरने के नाम पर,  कुछ घर गृहस्थी चलाने के नाम पर और कुछ घर गृहस्थी बचाने के नाम पर .. हर पर्ची एक समझौता है और  “स्टेपल्ड पर्चियाँ” उन समझौतों का पूरा दस्तावेज .. जीवन का दस्तावेज हमारा आपका सबका मन कभी ना कभी तो करता है की खोल दें उस पूरे गट्ठर को, खोल दें  पर्चियों वाली इस रवायत को और  जी के देखें जिंदगी जिसमें किसी कपड़ों की अलमारी में साड़ियों की तहों में छिपाई गई स्टेपल्ड पर्चियाँ की कोई जगह ना हो | पर क्या अतीत को बदला जा सकता  है? खासकर उस अतीत को जिसकी पर्चियों को रंग हल्के पड़ गए हैं | कब वो रंग पर्चियों से निकलर हमारे मन को इस कदर रंग देते हैं की हमें पता ही नहीं चलता की इससे इतर हमारा भी कोई रंग है ?इस संग्रह के माध्यम से उन्होंने गंभीर सवाल उठाए हैं |   “स्टेपल्ड पर्चियाँ” भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित प्रगति गुप्ता जी के कहानी संग्रह की ज्यादातर कहनीनियाँ इन्हीं पर्चियों को खोलने की कोशिश है | कुछ में खुली हैं, कुछ  में फाड़कर फेंक दी गई हैं और कुछ पढ़कर वापस वैसे ही रख दी  गई है | सबकी अपनी लड़ाई है, उलझने हैं, फिर सबका अपना -अपना मन है, कन्डीशनिंग भी है | “विधोतमा सम्राट सम्मान”से सम्मानित इस पुस्तक में 11 कहानियाँ हैं जिनमें लेखिका प्रगति गुप्ता जी ने, जो की मरीजों की कॉउनसिलिंग भी करती हैं मन की कई गिरहों को खोलने का प्रयास किया है | स्टेपल्ड पर्चियाँ -समझौतों की बानगी है ये पर्चियाँ   हालांकि अपनी बात में वो लिखती हैं की “सामाजिक सरोकारों से जुड़े विषयों का चयन करते समय मर्यादाओं को भी साधना होता है | यही वजह है की घटित पूर्णतःअन्वेषित नहीं हो पाता | तभी तो एक ही घटना पर विभिन्न दृष्टिकोणों से कई कहानियाँ व उपन्यास रचे जाते हैं |पुन: कुछ ना कुछ छूटता है और नवीन दृष्टि के साथ कुछ नया रचा जाता है |”   कहनियों में लेखिका ने ये खास  बात रखी है की स्त्री पुरुष का भेद भाव  नहीं रखा है | परंतु ज्यादातर समझौते स्त्री के हिस्से आते हैं तो वो कहानियों में परिलक्षित होते हैं, परंतु पुरुष की पीड़ा को कहने से भी उन्होंने गुरेज नहीं किया है |   “घर उसका, रुपया पैसा उसका पर वो अपने माता-पिता को हक से अपने घर नहीं रोक सकता | .. उस रोज अंकित को अपनी बेबसी पर बहुत अफसोस हुआ |” “तमाचा” कहानी आज की बदली हुई स्त्री और बदले हुए पुरुष के मुद्दे को सामने लाती  है | परदेश में अपने माता -पिता से दूर रहने वाला पुरुष भी क्या उतना ही असहाय नहीं है ? यहाँ विमर्श का एक दूसरा कोण  सामने आता है | पुरुष के घर में भी उसके माता-पिता के लिए जगह नहीं है | अच्छी पोस्ट, तनख्वाह,  पर शादी से पहले कैजुअल ड्रिंक कहने वाली लड़की जब पत्नी बन कर पार्टियों में नशे में धुत हो जाए, पति की सार्वजनिक निंदा करे और तमाचा भी मारे तो उसे विमर्श के किसी खांचे में नहीं रखा जा सकता | भले ही उसके पीछे उसका परिवार और पालन -पोषण रहा हो | अवगुण अगर स्त्री पुरुष नहीं देखते तो शोषण भी नहीं देखता |इस बारे में बात होनी चाहिए |  नए समाज के नए यथार्थ का दरवाजा खोलती अच्छी कहानी |     शीर्षक  कहानी “स्टेपल्ड पर्चियाँ” एक तथाकथित सुखी कहे जाने वाले परिवार के मृतप्राय संबंधों की दास्तान  है | जहाँ  पति पत्नी के बीच प्रेम के नाम पर एक चुप्पा समझौता है बच्चों को अच्छी परवरिश देने के लिए | जहाँ कोई बातचीत मन मुटाव सहमति असहमति नहीं होती .. ना ही विवेचना करने के लिए कुछ “की हम कहाँ  गलत थे” जो कुछ  था वो सब बस स्वीकार करना था और भरती जानी थी अलमारी की दराजे  “स्टेपल्ड पर्चियों” से  | लेकिन एक दिन ये पर्चियाँ खुलती हैं | और समझ में आता है की दो लोगों के मध्य मौन भी दो तरह का हो सकता है |एक वो जहाँ दोनों एक दूसरे में मानसिक स्तर पर समाए हों और एक वो जहाँ सन्नाटा हो |   एक परिपक्व उम्र में जब  इंसान अपने बच्चों को दुनिया से, चालाकियों से  आगाह करता है ठीक उसी  वक्त स्वयं का स्नेहापेक्षी मन किसी के शब्दों के फरेब में फँस रहा होता है | “काश” कहानी मानसिक स्तर पर मन के बातों में आ जाने का शोकगीत है |   अभी हाल ही में डॉ. अर्चना शर्मा की आत्महत्या की दुखद घटना सामने आई है | कहानी “गलत कौन” में लेखिका यही मुद्दा उठाती हैं | जिस डॉक्टर को मौका पड़ने पर भगवान का दर्जा दिया जाता है उसके साथ मार -पिटाई करने से भी लोग बाज नहीं आते |   “अदृश्य आवाजों का विसर्जन” कोख  में मारी गई बेटियों की का सामूहिक मार्मिक  रुदन है | “सोलह दिनों का सफर” मृत्यु से पहले के तीन दिन व बाद के तेरह दिन की  आत्मा की वो यात्रा है जिसमें वो अपनों का ही स्वार्थ भरा चेहरा देख स्वयं ही उस घर से मुक्त होना चाहती है | एक तरफ बी प्रैक्टिकल, गुम  होते क्रेडिट कार्ड्स, माँ ! मैं जान गई हूँ, खिलवाड़, आम रिश्तों की उलझती सुलझती कहानियाँ हैं तो दूसरी तरफ “अनुत्तरित प्रश्न “ में एक ऐसे जोड़े का दर्द है जिनके संतान भी है पर पिता समलिंगी है | और एक दिन सारे परदों से बाहर आकर अपनी पहचान घोषित करता है | आखिर क्यों समाज हर व्यक्ति को उसकी तरह से नहीं अपनाता | जिंदगी को दाँव पर लगाने वाले ये अनुत्तरित प्रश्न पति  के भी हैं, पत्नी के भी और उस मासूम बच्ची के भी जो बार -बार जानना चाहती है की उसके पापा कहाँ हैं ?  एक अच्छी कहानी |   अंत में मैं यही कहूँगी की सारी कहानियाँ खोखले होते संबंधों की कहानियाँ हैं जो बाहर से भले ही चमकीले दिखते हों पर अंदर से दरके  हुए हैं | और प्रेम में देह  की भले ही भूमिका हो पर मन से … Read more

शहर सुंदर है -आम जीवन की समस्याओं को उठाती कहानियाँ

शहर सुंदर है -आम जीवन की समस्याओं को उठाती कहानियाँ

  शब्द संधान प्रकाशन से प्रकाशित आदरणीय रमेश उपाध्याय जी के कहानी संग्रह  “शहर सुंदर है”  के 250 पेज में समाई 19 कहानियों में  आम जीवन में हाशिये पर रहने वाले दलित,  शोषित, वंचित तबके के जीवन की वो गाथाएँ हैं जिन्हें सुनने का अमूमन किसी के पास वक्त नहीं होता है | पर ये कहानियाँ हमारी पूंजीवादी व्यवस्था के मखमली कालीन के उन छिद्रों को  दिखाती हैं जो असमान  विकास का वाहक है | जहाँ अमीर और.. और अमीर और गरीब और गरीब हो हाशिये पर छूटता जाता है | कमजोर नींवों पर खड़ी विकास की अट्टालिकाओं का भविष्य क्या हो सकता है ? पर लेखक हतोत्साहित नहीं है | वह  एक यथार्थवादी लेखक के तौर पर उस  यथार्थ की सीवन खोल कर दिखाते हुए भी  एक सुंदर भविष्य का सपना देखते हैं और  इस सपने को पूरा करने के लिए संघर्ष पर जोर देते हैं | इस संग्रह की कहनियाँ  बहुत ही सरल सहज भाषा में हैं, इसमें शामिल हर कहानी में शिल्पगत प्रयोग हैं, पर वो ऐसे नहीं हैं की दुरूह हो और पाठकों को अति बौद्धिकता के जंगल में  भटका दें बल्कि वो कहानी की सहजता और प्रवाह में वृद्धि करने वाले है |   संग्रह की भूमिका में संज्ञा उपाध्याय जी लिखती हैं कि यथार्थवादी साहित्य का काम होता है, अपने समय और समाज के मुख्य अंतर्विरोधों को सामने लाकर सामाजिक यथार्थ का उद्घाटन करना|”   यथार्थ को उद्घाटित करती इस संग्रह  की कहानियाँ  जैसे “दूसरी आजादी”  में वैचारिक जकड़बंदी से आजादी की, “अग्निसम्भवा” में समाज में स्त्री के ऊपर लगाए गए पहरों की, “शहर सुंदर है” में ऐशियाई खेलों के दौरान चमकती दिल्ली में गंदे गुमनाम इलाकों की तो “राष्ट्रीय राजमार्ग” में पूरे सरकारी तंत्र में फैले भ्रस्टाचार की बात करती हैं | इन सारी बड़ी कहानियों में गंभीर मुद्दों के साथ भले ही पात्रों के नाम हों पर संग्रह की छोटी कहानियाँ उन नामों से भी मुक्त हैं | यहाँ मौसम विभाग का वैज्ञानिक है, नल की लाइन खोलने वाला नलसाज है | मिट्टी खोदने वाला है, बिजली के बल्ब बदलने वाला एक कर्मचारी है | यहाँ वो उन पात्रों के नाम नहीं देते हैं बल्कि मिट्टी खोदने वाला एक आदमी आदि कह कर पूरे वर्ग की पीड़ा संप्रेषित करते हैं | शिल्प के लिहाज से अलहदा ये छोटी परंतु मारक कहानियाँ हैं | जो सीधे -सीधे व्यवस्था पर तंज करती हैं |   शहर सुंदर है -आम जीवन की समस्याओं को उठाती कहानियाँ वैसे तो सभी कहानियाँ सर्वहारा वर्ग को केंद्र में रख कर लिखी गयी है| फिर भी संग्रह  की कहानियों को मैं तीन भागों में बाँट कर देख रही हूँ | मुख्य रूप से स्त्री अधिकारों की बात करती कहनियाँ भ्रस्टाचार का मुद्दा उठाती कहानियाँ वर्ग चेतना को जागृत करती कहानियाँ   सबसे पहले बात करते हैं स्त्री अधिकारों की बात करती  हुई कहानियाँ  दो कहनियाँ प्रमुख हैं “दूसरी आजादी और अग्निसंभवा   संग्रह की पहली ही कहानी “दूसरी आजादी” ही इस मामले में खास है |  यह  कहानी दलित वर्ग की एक ग्रामीण स्त्री मँगो की कहानी है | मँगो खुली जेल में है,  वो भी उसके यहाँ  जिस ठाकुर फूल सिंह ने उसके परिवार के चारों सदस्यों को  पूरी चमार टोले  में आग लगवा कर भस्म किया था | बेगार करती मँगो को दिन भर मेहनत के बदले में रूखा-सूखा खाना मिलता है | जेल इतनी सख्त की उसे अपनी टोले  में जाने की, अपनी बेटी से मिल आने की इजाजत नहीं है | इस कहानी में इमरजेंसी और उसके बाद की स्थिति भी दिखाई गई है | जहाँ इमरजेंसी के दिनों में  उसके टोले के सभी लोगों को कानून का डर दिखा कर चुप करा दिया जाता है, वहीं इमर्जेंसी हटने पर उसकी टोली के किसान फिर जुडने लगते हैँ | किसान  यूनियन उसे  “भारत माता” के नाम से संबोधित करती है | वो उसे आजाद कराना चाहते हैँ | पाठक को लगता है कि गाँव में शारीरिक शोषण से आजादी ही संभवत : दूसरी आजादी होगी, पर कहानी आगे बढ़ती है | उसको उस जेल से आजादी मिलती है पर उसको दूसरी जेल में डाल दिया जाता है | यहाँ भावनात्मक शोषण है | जहाँ  तनख्वाह नहीं मिलती | आप तो हमारे घर का सदस्य हैं कह कर  इज्जत तो दी जाती है, पर कामवाली मानकर काम पूरा करवाया जाता है | दरअसल  वो इज्जत असली इज्जत नहीं है वो इज्जत रुपये ना देने का एक बहाना है | देखा जाए ये भावनात्मक शोषण हर स्त्री का होता है, खासकर माँ के रूप में | माँ को देवी कहा जाता है पर उसका शोषण घर-घर में होता है | यहाँ मँगो मालिक की माँ से अपनी तुलना करती रहती है .. वही काम तो माँ करती थी अब वो करती है | यानि वो माँ की ऐवजी है उसकी नौकरी स्थायी  नहीं है | जब माँ कहती है की मँगो यहाँ है तो अब वो इस रसोई का पानी भी नहीं पी सकती तो मँगो मन में सोचती है, “धौंस किस बात की देती है | बड़ी बामनी बनी फिरती हो | काम करेगी तो दो रोटी डाल देंगे | नहीं तो कहीं भी जा कर मर | यहाँ पानी देने वाला बैठा  ही कौन है| इमोशनल शोषण जो हमारे घरों में होता है उस का एक रूप तब दिखाई देता है, जब विश्वकान्त घर में जितना जेवर था सब निकाल लाते हैं |और मँगो से कहते हैं, “लो सब रख लो, सब तुम्हारा है |” मँगो भी गुलाम बनाए जाने के इस इस ट्रैप में फँसती है | और ये उसे का परिवार है सोच कर  तनख्वाह माँगने के अपने जायज हक का ख्याल छोड़ देती है | लेकिन मालिक पति-पत्नी की बातों से उसे अंदाजा होने लगता है, और वो इसके विरोध में अपनी आवाज उठाती है |   इस कहानी के अंत में मँगो जब कहती है, नाम बदल देने से असलियत थोड़ी ही बदल जाती है बाबूजी |  अपनी अम्मा को तुम मँगो जैसी नौकरानी मानो तो  मानो पर मैं तुम्हारी अम्मा कैसे हो सकती हूँ | मँगो द्वारा अपने श्रम का मूल्य हासिल करना कहानी को एक न्यायोचित सकारात्मक अंत … Read more

स्वागत नई किताब का -कबीर जग में जस रहे

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स्वागत नई किताब का कॉलम के अंतर्गत हम आने वाली किताब का टीजर सभी मित्रों, पाठकों से साझा करते हैं | इस बार शिवानी जयपुर की आने वाले कहानी संग्रह “कबीर जग में जस रहे” का चयन किया गया है | कवयित्री, कथाकार, पत्रकार और विभिन्न कार्यक्रमों के संचालक के तौर पर अपनी पुख्ता पहचान बनाने वाली शिवानी जयपुर का  पहला कहानी संग्रह “कबीर जग में जस रहे” शीघ्र ही बोधि प्रकाशन से आने वाला है | शिवानी जी की पहली कहानी “बातशाला” अटूट बंधन हार्ड कॉपी मैगजीन में प्रकाशित हुई थी | ये पहली कहानी ही काफी चर्चित रही थी | तबसे निरंतर अपनी पैनी लेखनी  के माध्यम से वो सार्थक साहित्य का सृजन कर रही हैं  | प्रस्तुत है उनकी आने वाले कहानी संग्रह का टीजर .. स्वागत नई किताब का -कबीर जग में जस रहे “तुम? तुम कब से…” मुझे जो नहीं कहना चाहिए था वही जिव्हा के अग्रभाग पर आकर लटक गया। बिना हाड़ की ये जिव्हा, जितनी बाहर दिखाई देती है उससे अधिक भीतर छिपी होती है! जाने क्या क्या संचित रहता है उस भीतरी भाग में जो रपटीली सड़क पर फिसलते किसी ब्रेक फेल वाहन की तरह आखिरी छोर पर आकर लटक जाता है! अब टपका तो क्या और लटका रहा तो क्या? वापस पीछे तो जाने से रहा! मैं अपने शब्दों के ऐसे लटकने-भटकने को लेकर शर्मिंदा हो कर कुछ कहती उससे पहले अंबु ने मुस्कुराते हुए कहा “मुझे पता था आप सब अब तक यही समझते होंगे!” 2 … अब हाल ये था कि सिलीगुड़ी में कम और अंबु के घर-परिवार में अधिक दिलचस्पी हो गई थी! बात भले ही अजीब सी थी पर धरती, चाँद, सूरज, हवा और पानी की उपस्थिति की तरह सच्ची थी! इंसान दुनिया भर से झूठ बोल सकता है पर अपने हिये की थाह वो स्वयं ही ले सकता है! अपनी पीठ का तिल दिखाई भले ही न दे,पर हम ही जानते हैं कि वो है और कहाँ है! मेरे मन की स्थिति भी कुछ ऐसी ही थी! अंबु की उदासीनता से मुझे एतराज़ था,पर क्यों? ये समझ नहीं आ रहा था। बीस साल… बहुत बड़ा अर्सा था। जीवन में कितना कुछ बदलाव आ गया था! मुड़ कर देखने की फुर्सत ही नहीं मिली थी!अब मिली थी तो… अजीब उलझन में फँस गई थी। 3…. मुझे कई बार लगता है कि हमारा मस्तिष्क एक विशाल समन्दर की तरह होता है! हमारे क्रिया-कलापों के माध्यम से जो कुछ ऊपर से दृष्यमान होता है उससे कई गुना अधिक सामग्री हमारे सुप्त मस्तिष्क में संचित रहती हैं! क्या-क्या यादें और बातें जमा रहती हैं ये हम तब तक नहीं जान पाते जब तक कोई घटना,गोताखोर सी भीतर जाकर कुछ उथल-पुथल, कुछ तहकीकात न करे! और जिस तरह गोताखोर समुद्रतल तक पहुँचने के क्रम में कई तरह की वनस्पतियों और जीव-जंतुओं के सम्पर्क में आते हैं, उनके बारे में और अधिक नये-नये तथ्य जान पाते हैं, उसी तरह से कोई एक घटना, कोई एक बात हमें अतीत की गहराइयों में ले जा सकती है। इस दौरान हम उन पर नये सिरे से,नये दृष्टिकोण से विचार कर चकित हो रहे होते हैं! 4… “सबने अपने मन का किया! उन्होंने छोड़ना चाहा, छोड़ दिया! नन्नू ने जाना चाहा,चला गया! उन दोनों केे लिए कोई सज़ा नहीं! पर मेरे मन का क्या हुआ? मैंने भी तो वही किया जो मुझे ठीक लगता था! जिस बात का मन नहीं मानता था, नहीं किया! पर उसके लिए इतनी बड़ी सज़ा भुगतनी पड़ी! मैं उस मरुभूमि की तरह बंजर रह गई जिसकी मिट्टी की गुणवत्ता पानी के अभाव में अनजानी ही रह जाती है…” 5 … दुखों की पोटलियाँ अगर समय-समय पर खोली न जाएँ तो वो सीलन से भारी होने लगती हैं। उसी सीलन के बढ़ते बोझ को कम करने के लिए दोनों सखियाँ अपने-अपने दुखों की पोटलियाँ एक दूसरे के सामने खोलकर थोड़ी हवा और धूप दिखाकर बोझ कम कर लेती थीं। 6 … अखबार खिड़की में लगाते हुए बिसना के हाथ काँप रहे थे। कंपकंपाते हाथों से अखबार और उसके ऊपर गत्ते अच्छी तरह फिट करके जब वो स्टूल से नीचे उतरा तब भी बाल्टी के पानी में पड़ गए कीड़ों का कुलबुलाना जारी था।रश्मि की बात उसके कानों में लगातार गूँज रही थी…”इतना गुस्सा आया कि बस हाथ पहुँच सकता तो गर्दन पकड़ कर वहीं मरोड़ देती! छुप-छुप के देखता है इडियट… बेशर्म! थू है थू ऐसे लोगों पर…हम हमारे घर में कुछ भी करें! हमारी मर्जी! कोई चुपचाप कैसे देख सकता है? कोई प्राइवेसी नहीं है क्या हमारी?” “थैंक्यू भैया” कहकर खुश होती रश्मि स्टूल उठा कर बाहर निकल गई। बिसना ने बाथरूम की बाल्टी का पानी फर्श पर बिखेर दिया। कीड़े बहकर नाली में जा रहे थे और बिसना उस शाम चुपचाप सारा सामान समेट कर घर जा रहा था… 7…. जब बच्चे माता-पिता को छोड़कर अपनी खुद की नई दुनिया बसा कर मस्त हो जाते हैं! तब माता-पिता अपना बचा हुआ जीवन,गुज़रे हुए जीवन की समीक्षा में ही निकालने लगते हैं! कारण ढूँढते रहते हैं कि ऐसा क्यों हुआ! कभी-कभी गल्तियाँ समझ आती हैं तो अफसोस करते हैं। नहीं तो तकदीर को दोष देकर जी बहलाने की कोशिश करते हैं। नए कहानी संग्रह के के लिए शिवानी जयपुर को बहुत बहुत शुभकामनाएँ आपको “स्वागत नई किताब का -कबीर जग में जस रहे” कैसा लगा ? अपनी राय हमाएं अवश्य बताएँ |अगर आप को अटूट बंधन की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया साइट को सबस्क्राइब करें और अटूट बंधन फेसबुक पेज लाइक करें |

वो फोन कॉल-मानवीय संबंधों के ताने-बाने बुनती कहानियाँ

वो फोन कॉल

अटूट बंधन की संपादक ,बेहद सक्रिय, संवेदनशील साहित्यकार वंदना बाजपेयी जी का दूसरा कहानी संग्रह “ वो फोन कॉल” भावना प्रकाशन से आया है।इस संग्रह में कुल 12 कहानियाँ हैं। आपकी तीन कहानियाँ “वो फोन कॉल, दस हजार का मोबाईल और “जिंदगी की ई. एम. आई” पढ़ते हुये “मार्टिन कूपर” याद आये। तीनों कहानियाँ में मोबाइल ही प्रमुख पात्र है या परिवेश में मौजूद है। “वो फोन कॉल” में मोबाइल जिंदगी बचाने का माध्यम बना है तो “जिंदगी की ई.एम.आई” में किसी को मौत के मुहाने तक ले जाने का बायस भी वही है। वहीं “दस हजार का मोबाइल” कहानी में मद्धयमवर्गीय जीवन के कई सपनों की तरह ही महंगा मोबाइल भी किस तरह एक सपना बन कर ही रह जाने की कथा है।“दस हजार का मोबाइल” लाखों मद्धयमवर्गीय परिवारों की एक सच्ची और यथार्थवादी कथा है। मानवीय संबंधों के ताने-बाने बुनती- “वो फोन कॉल” मोबाइल के जनक “मार्टिन कूपर” ने जब मोबाइल का अविष्कार किया होगा तो कल्पना भी नहीं की होगी की इक्सवीं सदी में आम से लेकर खास और भारत के गांव से लेकर विदेशों तक फोन कॉल लोगों के मानसिक, अद्ध्यात्मिक , वैवसायिक और राजनैतिक जीवन में इंटरनेट से जुडते ही संचार क्रांति की अविस्मरणीय आमूल-चूल परिवर्तन का वाहक साबित होगा। मोबाइल इंटरनेट के साथ संचार माध्यम का सबसे सस्ता और अतिआवश्यक जरुरत साबित होगा।वैसे देखा जाये तो मोबाइल से लाभ ज्यादा और नुकसान कम ही हुये हैं। बहुत पीछे नहीं अभी का ही लेखा-जोखा लेकर बैठे तो वैश्विक महामारी “कोरोना “और उसके पश्चात लॉकडाउन में लोगों के बीच मोबाइल इंटनेट किसी वरदान की तरह ही काम आया। कोरोना के अप्रत्याशित हमले से घबड़ायी- पगलाई और भयभीत दुनिया ने फोन कॉल्स और सोशल मीडिया के द्वारा एक-दूसरे की खूब मदद की और एक-दूसरे के हृदय में समयाये मृत्यु के भय और अकेलापन को दूर किया। कनाडाई विचारक मार्क्स मैकलुहान ने जब अपनी पुस्तक “अंडरस्टैंडिंग मीडिया” (1960) में” ग्लोबल विलेज” शब्द को गढ़ा था उस वक्त किसी ने कल्पना भी नहीं कि होगी इस दार्शनिक की ग्लोबल विलेज की अवधारणा इतनी दूरदर्शी साबित होगी।और वाकई में 21वीं सदी में दुनिया मोबाइल-इंटरनेट के तीव्र संचार माध्यम के कारण ग्लोबल विलेज में बदल जायेगी। एक क्लिक पर दुनिया के किसी कोने में बैठे व्यक्ति से मानसिक तौर पर जुड़ जायेंगे। मैकलुहान की ग्लोबल विलेज की अवधारणा दुनिया भर में व्यक्तिगत बातचीत और परिणामों को शामिल करने के साथ लोगों की समझ पर आधारित था।इंटरनेट के आने के बाद (1960 के दशक इंटरनेट आ चुका था ।) शीत युद्ध के दौरान गुप्त रूप से बहुत तेज गति से सूचनाओं के आदान प्रदान करने की आवश्यकता हुई । अमेरिका के रक्षा विभाग ने अपने सैनिकों के लिए इसका आविष्कार कर किया था) साइबर क्राइम और ट्रोलिंग की नई संस्कृति ने मानसिक तनाव भी खूब दिये।बरहाल मोबाइल और इंटरनेट की अच्छाइयाँ और बुराइयाँ गिनने लगे तो कई पन्ने भर जायेंगे। और मोबाइल और मास मीडिया पर निबंध लिखने की कोई मंशा नहीं है मेरी। लेखिका की पहली कहानी “वो फोन कॉल” जो संग्रह का शीर्षक भी बना है ।इस शीर्षक से मैंने अनुमान किया था, कोई संस्पेंस से भरी थ्रीलर कहानी होगी। संस्पेंस तो है पर यह कोई जासूसी कहानी नहीं है। यह समाजिक अवधारणायों पर विचार- विमर्श तैयार करती, जीवन संघर्ष के लिए मजबूत करती मानवीय संबंधों की भावनात्मक सच्ची सरोकारों की कहानी है। एक ऐसे व्यक्ति की कहानी है। जो हमारे आस-पास है। उसे हमारी जरुरत है पर हम उसे नहीं जानते। या हमें समय ही नहीं है उसे जानने की। या जान भी गये तो उसकी सच्चाई को स्वीकार करने का मनोबल नहीं है। अपनी रुढीगत अवधारणाओं को तोड़ कर ही उसकी पीड़ा को समझ सकते हैं। “वो फोन कॉल” पाठक को जीवन संघर्ष को स्वीकार करने की प्रेरणा देती है। प्रकृति सबको समान रुप से देखती है। वह विभिन्नता के कारण किसी को कम या ज्यादा नहीं देती है। अपने ऊपर सबको समान अधिकार देती है। मनुष्य ही है जो विभिन्नता को अवगुण समझ भेद-भाव करता है।“ वो फोन कॉल” इस विमर्श को सधे शब्दों में पूरजोर तरीके से उठाती है। “वो फोन कॉल” में जहाँ मोबाइल एक अनजान व्यक्ति की जिंदगी बचाने के काम आता है। मानवीय संवेदनाओं और संबंधों की नई खिड़की भी खोलता है। “ जिंदगी की ई. एम.आई”में उसी मोबाइल इंटनेट के विकृत चेहरे और संबंधों में आई तकनीकी कठोरता के कारण सहज संबंधों से दूर जटिल उलझन भरे रास्तों पर जाते हुये देखा जा सकता है। किंतु कहानी के पात्र भाग्यशाली हैं।समय रहते भटके हुये रास्तों से अपने मूल जड़ों की ओर उनकी वापसी हो जाती है। किंतु आम जीवन में सबका भाग्य साथ दे। जरुरी नहीं है। शहरी दंपत्ति अपने महंगे फ्लैट की ई एम आई भरने के लिए 24 घन्टे तनाव भरी जिंदगी जीते हैं और अपने बच्चे को अकेला छोड़ देते हैं जिसकी वजह से वह हत्यारिन ब्लू व्हेल गेम के चक्रव्यूह में फंस जाता है। बड़े- बुजुर्ग हमेशा कहते हैं-“ जैसा अन्न वैसा मन”।खान-पान की शुचिता कोई रुढीगत अवधारणा नहीं बल्कि वैज्ञानिक सोच इसके पीछे रही है। समय के साथ इस परंपरागत अवधारणा में छूत-छात जैसी मैल पड़ गई थी। किंतु मूल भाव यही था कि ईमानदारी से मेहनत करें, किसी प्रकार की चलाकियाँ न करें,किसी कमजोर को सताये नहीं। और ईमानदारीपूर्वक कमाये धन से जीवन चलाये ।तभी तन और मन दोनों स्वस्थ रहेंगे।“ प्रेम की नयी वैराइटी” कहानी इस कथन की सार्थकता को बहुत ही सुंदर और वैज्ञानिक तरीके से कहती है। आज प्रेम संबंध मोबाइल की तरह हर एक-दो साल में बदल जाते हैं। आधुनिक प्रेमी किसी एक से संतुष्ट नहीं है। वह नये एडवेंचर के लिए नये रिश्ते बनाता है। कुछ नया , कुछ और बेहतर की तलाश में भटकता रहता है। संबंधों की शुचिता उसके लिए पुरातन अवधारणा है। वह आज अपना औचित्य खोता जा रहा है। इसतरह की बेचैनी- भटकाव कहीं न कहीं अत्यधिक लाभ के लिए अप्राकृतिक तरीके से फलों- सब्जियों और अन्न का उत्पादन और आमजन द्वारा उसका सेवन करने का परिणाम है। मन की चंचलता। अस्थिरता। असंतुष्टी की भावना। संवेदनहीनता।अत्यधिक की चाहना।महत्वकांक्षाओं की अंधी दौड़ में शामिल होकर दौड़े जा रहे हैं।सिर्फ एक व्यक्ति नहीं, एक परिवार नहीं आस-पास का … Read more

समीक्षा – कहानी संग्रह विसर्जन

प्रस्तुत है डेजी नेहरा के द्वारा वंदना बाजपेयी के कहानी संग्रह ‘विसर्जन ‘की समीक्षा समीक्षा – विसर्जन (कहानी-संग्रह) वंदना वाजपेयी के 2019 में आये कहानी-संग्रह “विसर्जन” की 11 अविस्मरणीय कहानियों में पहली ‘विसर्जन’ से लेकर अंतिम ‘मुक्ति’ तक हर कहानी अपने आप में सोचने पर विवश करती है. आम माध्यम परिवारों के दयनीय-बेकुसूर पात्रों की ये कथाएँ कभी वर्तमान में आस-पास की लगती हैं, कभी अतीत के किसी देखे-सुने पात्र की याद दिलाती हैं. महत्वपूर्ण यह है कि फिर भी पाठक के दिल को छू कर, उसकी आँखों में झाँक ऐसे सवाल कर बैठती हैं जिनका जवाब या तो पाठक के पास है नहीं या घिसी-पिटी सामाजिक मान्यताओं की अनदेखी स्वीकार्यता पाठक को इस कदर खामोश एवं लाचार कर देती है कि अश्रु धारा स्वतः ही बहने लगती है. एक कहानी पढ़ने पर पुस्तक बंद कर भावुक हो आँसू टपकाने के पश्चात अगली पढ़ने के लिए ‘ब्रेक’ लेना ही लेना ही पड़ता है, सिर्फ इसलिए नहीं कि आँसू सुखाने हैं, अपितु इसलिए कि वो पात्र और उसकी परिस्थितियाँ आपके मानस पटल पर छा जाती हैं और विश्लेषण पर मजबूर करती हैं. वंदना जी स्वयं मानती हैं कि औरत होते हुए वह स्त्रियों के दर्द को अधिक समझती हैं, अतः अधिकतर पात्र स्त्री ही हैं. चाहे वह ‘अशुभ’ की दुलारी हो जिसके माथे पर सदा अभागी होने का ठप्पा इस क़दर रहा कि दुर्घटनाग्रस्त हो मृत्यु को प्राप्त हो जाने पर भी सरकारी मुआवज़े की रक़म के पति और भाई (जो जीते जी उससे पीछा छुड़ाने में लगे थे) में आधे-आधे बँटने पर दोनों के द्वारा वह ‘अशुभ’ ही कहलाई क्यूँकि रक़म बँट गयी, या ‘काकी का करवाचौथ’ की काकी जिसने असली सुहाग को राम और खुद को अहिल्या मान अंतहीन प्रतीक्षा की दोषमुक्त होने के लिए, किन्तु उसे राम ने नहीं ‘ज्ञान’ ने मुक्त किया. पुरुषों के दिखते दोषी होने पर भी इल्ज़ामों के घेरे में स्त्री ही है. ‘पुरस्कार’, ‘फॉरगिव मी’, ‘अस्तित्व’ व ‘मुक्ति’ बिलकुल आज की कहानियाँ हैं जो वास्तव में अपने आस-पास के ऐसे पात्रों (जिनमें पति, बेटियां, बेटे शामिल हैं) को यदि पढ़वा दी जाएँ तो उनके जीवन की पेचीदगियां सुलझ सकती हैं. ‘दीदी’ सामाजिक बंधनों में बंधे रिश्तों, खून के रिश्तों और मन के पवित्र रिश्तों के सार्थक-निरर्थक पहलू को दर्शाती मार्मिक कहानी है. विशेषतः बहुत सी कहानियों में हम मनुष्यों पर अपनी-अपनी त्रासदियों के कारण छाते जा रहे मानसिक अवसाद की छाया नज़र आती है, जिसका अहसास लेखिका बहुत कुशलता से करवाती है. इस कड़ी में सबसे दमदार कहानियाँ हैं – ‘विसर्जन’ और ‘चूड़ियाँ’, जिनमें पात्र की मानसिक अवस्था या तो समझ में आने में बहुत देर लग जाती है, या जान-बूझ कर परम्पराएँ निबाहने हेतु उसे अनदेखा कर किसी की ज़िंदगी से खिलवाड़ किया जाता है. वंदना जी एक अत्यंत सुलझी हुई साहित्यकारा हैं जो वर्तमान में परिस्थितियों की ज़िम्मेवारी भली-भाँति समझते हुए मानसिक अवसाद जैसे विषय पर न केवल पात्रों के साथ न्याय करती हैं, अपितु एक मनोवैज्ञानिक की तरह पाठकों को भी जीवन में ऐसे पात्रों के साथ न्याय करने के तरीके समझाती-सिखाती प्रतीत होती हैं. अंततः मैं उनको ‘विसर्जन’ कहानी संग्रह के लिये बहुत बधाई देती हूँ और भविष्य के लिये शुभकामनाएँ देती हूँ कि वे अपने यथार्थ को चित्रित करते साहित्य के ज़रिये पाठकों के जीवन की विचित्र उलझनों को विसर्जित करती रहें. डॉ. डेज़ी Dr Daisy Associate Prof. & Head Dept. of English, BPS Institute of Higher Learning Director, Women Studies Centre  Additional Public Relations Officer Haryana, INDIA यह भी पढ़ें … बाली उमर-बचपन की शरारतों , जिज्ञासाओं के साथ भाव नदी में उठाई गयी लहर समीक्षा –कहानी संग्रह किरदार (मनीषा कुलश्रेष्ठ) गयी झुलनी टूट -उपन्यास :उषा किरण खान विसर्जन कहानी संग्रह पर किरण सिंह की समीक्षा आपको  लेख “ समीक्षा -कहानी संग्रह विसर्जन “ कैसा लगा  | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन”की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें |  keywords; review , book review,  Hindi book , story book, , vandana bajpai, emotional stories

लिट्टी-चोखा व् अन्य कहानियाँ –धीमी आंच में पकी स्वादिष्ट कहानियाँ

आज मैं आप के साथ बात करुँगी गीताश्री जी के नए कहानी संग्रह लिट्टी-चोखा के बारे में | लिट्टी-चोखा बिहार का एक स्वादिष्ट व्यंजन है | किसी कहानी संग्रह का नाम उस पर रख देना चौंकाता है | लेकिन गौर करें तो दोनों में बहुत समानता है | एक अच्छी कहानी से भी वही तृप्ति  मिलती है जो लिट्टी- चोखा खाने से | एक शरीर का भोजन है और एक मन का | और इस मन पर  पर तरह –तरह की संवेदनाओं के स्वाद का असर ऐसा पड़ता है कि देर तक नशा छाया रहता है | जिस तरह से धीमी आंच पर पकी लिट्टी ही ज्यादा स्वादिष्ट होती है वैसे ही कहानियाँ भी, जिसमें लेखक पूरी तरह से डूब कर मन की अंगीठी  में भावनाओं को हौले –हौले से सेंक कर पकाता है | गीताश्री जी ने इस कहानी संग्रह में पूरी ऐतिहात बरती है कि एक –एक कहानी धीमी आंच पर पके | इसलिए इनका स्वाद उभरकर आया है |     ये नाम इतना खूबसूरत और लोक से जुड़ा है कि इसके ट्रेंड सेटर बन जाने की पूरी सम्भावना है | हो  सकता है आगे हमें दाल –बाटी, कढ़ी, रसाजें, सरसों का साग आदि नाम के नाम कहानी संग्रह पढने को मिलें | इसका पूरा श्रेय गीताश्री जी और राजपाल एंड संस को जाना चाहिए | कहानीकारों से आग्रह है कि वो भारतीय व्यंजनों को ही वरीयता दें | मैगी, नूडल्स, पिजा, पास्ता हमारे भारतीय मानस के अनकूल नहीं | ना ही इनके स्वाद में वो अनोखापन होगा जो धीमी आँच में पकने से आता है | भविष्य के कहानी संग्रहो के नामों की खोज पर विराम लगाते हुए बात करते हैं लिट्टी –चोखा की थाली यानि कवर पेज की | कवर पेज की मधुबनी पेंटिंग सहज ही आकर्षित करती है | इसमें बीजना डुलाती हुई स्त्री है | सर पर घूँघट. नाक में नाथ माथे पर बिंदिया | देर तक चूल्हे की आंच के सामने बैठ सबकी अपेक्षाओं पर खरी उतरने वाली, फुरसत के दो पलों में खुद पर बीजना झल उसकी बयार में सुस्ता रही है | शायद कोई लोकगीत गा रही हो | यही तो है हमारा लोक, हमारा असली भारत जिसे सामने लाना भी साहित्यकारों का फर्ज है | यहाँ ये फर्ज गीताश्री जी ने निभाया है |   गीताश्री जी लंबे अरसे तक पत्रकार रहीं हैं, दिल्ली में रहीं हैं |  लेकिन उनके अन्दर लोक बसता है | चाहें बात ‘हसीनाबाद’ की हो या ‘लेडीज सर्किल’ की, यह बात प्रखरता से उभर कर आती है | शायद यही कारण है कि पत्रकारिता की कठोर जीवन शैली और दिल्ली निवास के बावजूद उनके अंदर सहृदयता का झरना प्रवाहमान है | मैंने उनके अंदर सदा एक सहृदय स्त्री देखी है जो बिना अपने नफा –नुक्सान का गणित लगाए दूसरी स्त्रियों का भी हाथ थाम कर आगे बढ़ाने  में विश्वास रखती हैं | साहित्य जगत में यह गुण बहुत कम लोगों में मिलता है | क्योंकि मैंने उन्हें काफी पढ़ा है इसलिए यह दावे के साथ कह सकती हूँ कि उन्होंने लोक और शहरी जीवन दोनों ध्रुवों को उतनी ही गहनता से संभाल रखा है | ऐसा इसलिए कि वो लंबे समय से दिल्ली में रहीं हैं | बहुत यात्राएं करती हैं | इसलिए शहर हो या गाँव हर स्त्री के मन को वो खंगाल लेती है | सात पर्दों के नीचे छिपे दर्द को बयान कर देती हैं |जब वो स्त्री पर लिखती हैं या बोलती हैं तो ऐसा लगता है कि वो हर स्त्री के मन की बात कह रही हैं | उनके शब्द बहुत धारदार होते हैं जो चेहरे की किताबों के अध्यन से व गहराई में अपने मन में उतरने से आते हैं | उनकी रचनाओं में बोलते पात्र हैं पर वहाँ हर स्त्री का अक्स नज़र आता है | यही बात है की उनकी कहानियों में स्त्री पात्र मुख्य होते हैं | हालांकि वो केवल स्त्री पर ही नहीं लिखती वो निरंतर अपनी रेंज का विस्तार करती हैं | भूतों पर लिखी गयी ‘भूत –खेला ‘इसी का उदाहरण है | अभी वो पत्रकारिता पर एक उपन्यास ‘वाया  मीडिया’ ला रही हैं | उनकी रेंज देखकर लगता है कि उन्हें कहानियाँ ढूँढनी नहीं पड़ती | वो उनके अन्दर किसी स्वर्णिम संदूक में रखी हुई हैं | जबी उन्हें जरूरत होती है उसे जरा सा हिला कर कुछ चुन लेती हैं और उसी से बन जाता है उनकी रचना का एक नया संसार | वो निरंतर लिख कर साहित्य को समृद्ध कर रही हैं | एक पाठक के तौर मुझे उनकी कलम से  अभी और भी बहुत से नए विषयों की , नयी कहानियों की, उपन्यासों की प्रतीक्षा है |   लिट्टी-चोखा व् अन्य कहानियाँ –धीमी आंच में पकी स्वादिष्ट कहानियाँ            “लिट्टी-चोखा” कहानी संग्रह में गीताश्री जी दस कहानियाँ लेकर आई हैं | कुछ कहानियाँ अतीत से लायी हैं जहाँ उन्होंने झाड़ पोछ कर साफ़ करके प्रस्तुत किया है | कुछ वर्तमान की है तो कुछ अतीत और वर्तमान को किसी सेतु की तरह जोडती हुई | तिरहुत मिथिला का समाज वहाँ  की बोली, सामाजिकता, जीवन शैली और लोक गीत उनकी कहानियों में सहज ही स्थान पा गए हैं | शहर में आ कर बसे पात्रों में विस्थापन की पीड़ा झलक रही है | इन कहानियों में कलाकार पमपम तिवारी व् राजा बाबू हैं, कस्बाई प्रेमी को छोड़कर शहर में बसी नीलू कुमारी है , एक दूसरे की भाषा ना जानने वाले प्रेमी अरुण और जयंती हैंअपने बल सखा को ढूँढती रम्या है और इन सब के बीच सबसे अलग फिर भी मोती सी चमकती कहानी गंध-मुक्ति है | एक खास बात इस संग्रह किये है कि गीताश्री जी ने इसमें शिल्प में बहुत प्रयोग किये हैं जो बहुत आकर्षक लग रहे हैं | जो लगातार उन्हें पढ़ते आ रहे हैं उन्हें यहाँ उनकी कहन शैली और शिल्प एक खूबसूरत बदलाव नज़र आएगा |   अक्सर मैं किसी कहानी संग्रह पर लिखने की शुरुआत उस कहानी से करती हूँ जो मुझे सबसे ज्यादा पसंद आई होती है |  पर इस बार दो कहानियों के बीच में मेरा मन फँस गया | ये कहानियाँ हैं  “नजरा गईली … Read more