जेल के पन्नों से – अंतिम इच्छा

अंतिम इच्छा

रिश्ते भी कितने अजीब होते हैं | कभी अनजान अपने हो जाते हैं तो अपने अनजान |वरिष्ठ लेखिका आशा सिंह जी के धारावाहिक “जेल के पन्नों से” सत्य पर आधारित  शृंखला” की ये कहानी एक ऐसे ही भाई की कहानी है जो अपनी बहन के लिए हत्या बना |जेल गया | अंतिम समय में टी . बी हो गया | साक्षात मृत्यु सामने थी |ऐसे समय में उस की एक ही अंतिम इच्छा थी |क्या वो पूरी हुई | आइए जाने ….. अंतिम इच्छा उत्तर प्रदेश के सुल्तानपुर जेल में टी बी पीड़ित कैदी रखे जाते हैं।आजादी से पहले जेल परिसर में एक कुआं था,जिसके पानी के सेवन से टी बी रोग  के कीटाणु कम हो जाते थे। इसीलिए टी बी के कैदी यहां रखे जाते।१९४७मेंअंग्रेजों ने भारत छोड़ा,इस कुएं को पटवा गये ।साथ तो नहीं ले जा सकते थे।विजेता की हताशा या मानवता का ह्रास। पर वह राजयक्ष्मा से पीड़ित कैदियों की जेल रही है। अब दवाओं और स्वास्थ्यवर्धक आहार से इलाज किया जाता है। जब भी डाक्टर निरीक्षण पर जाते, सारे कैदी अपने बिस्तर पर बैठ जाते, परीक्षण के बाद दवा और डायट लिखी जाती। एक कैदी निहायत बदतमीजी से बेड पर लेटा रहा। कर्मचारी ने उठने को कहा। बेहद नाराजगी से बोला- हम बागी हैं। किसी की नहीं सुनते। खींच कर वार्ड ब्वाय ने उसे बैठाया। परीक्षण बाद दवा और पथ्य लिखा। आहार में अंडा और मांस देखते ही बिफर उठा-ऐ डाक्टर,हम ब्राह्मण है,मांसमछली नहीं छूते। डाक्टर-पर कर्म तो ब्राह्मणों वाले नहीं किया। बाकी कैदी आश्चर्य से ताक रहे थे।कितना जिद्दी है,हम लोगों को दे देता। खैर डाक्टर ने फल दूध बढ़ा दिया। ‘पंडित जी, अच्छी तरह इलाज करवाओ , जल्दी ठीक हो जाओगे। वह गुर्राया – ठीक किसको होना है। उसके व्यवहार को अन्देखा कर डाक्टर आगे बढ़ गये।उसके दोनों फेफड़े बुरीतरह संक्रमित थे। ज्यादा समय नहीं बचा था। बाद में जेलर से पता चला कि वह दुर्दांत डाकू था। हत्या तो ऐसे करता  जैसे मक्खी मच्छर मार रहा है। फांसी और आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई थी। महात्मा गांधी की जन्म शती के उपलक्ष्य में फांसी की सजा माफ कर दीगई। सांस लेने में दिक्कत हो रही थी,अक्सर बदतमीजी करता। जेल में हर वर्ष उच्च अधिकारियों की बैठक होती। गंभीर मरीजों को छोड़ने केलिए शासन को लिखा जाता।सारे कैदी कान लगाये रहते। शुकुल बड़बड़ाता-सब साले घूंस खोर हैं।जिसके घर वाले मुठ्ठी गरम करदेंगे,उसी का नाम जायेगा। चारों ओर भ्रष्टाचार की गंगा बह रही है। पड़ोसी कैदी ने कहा- यह डाक्टर ऐसा नहीं है। उसे तो सारे ज़माने से चिढ़ थी। मीटिंग के दिन पता चला कि शुकुल का नाम सबसे ऊपर है। पुलिस कप्तान बोले-यह बहुत क्रूर हत्यारा है। गाजर मूली की तरह आदमीकाटता है। डाक्टर ने दलील दी-यह तबकी बात है।अब तो वह सूजा(मोटी सुई) नहीं उठासकता। उसके पास ज्यादा समय नहीं है। अंतिम पल अपने परिवार के साथ रहलेगा। सारे अधिकारी सहमत हुए,लिहाजा उसकी रिहाई के लिए अनुमोदन पत्र शासनको भेजा गया।शुकुल को सारी बात पता चली। अगले दिन जब डाक्टर राउन्ड पर आते,उसने खड़े होकर प्रणाम किया। डाक्टर ने कहा -अब तुम अपने परिवार के पास जल्दी चले जाओगे। वह कहना चाहता था कि- मेरे लिए क्यों इतना किया,पर गला रूंध गया।आपपहले क्यों नहीं मेरे जीवन में आये। डाक्टर ने कुर्सी खींची बेड के पास बैठ गया।- अब तुमने प्रायश्चित कर लियाहै।कोई बात हो तो कह सकते हो। शुकुल ने अपनी कहानी शुरू की।साहब,मेरे माता पिता बचपन में ही हमें अनाथकर गये। मैं और बड़ी बहन चाचा के पास पले।सारी जमीन जायदाद पर उन्हींका कब्जा था।चाचा के सात बेटे थे।जरा बड़े होते ही मुझे खेतों में भेज दियागया।चाचा के बेटे पढ़ने जाते।बहन घर के सारे काम करती।हम दोनों को बचाखुचा खाना मिलता।घर में गाय भैंस थी,दूध घी चचेरे भाइयों के हिस्से में,छाछमुझे दिया जाता। साहब, गांवों की परंपरा है कि पुरुष बाहर तथा स्त्रियां घर के अंदर सोती है। मैंने एक दिन चचेरे भाई को बहन से बदतमीजी करते देख लिया। वह हिरणीजैसी थर थर कांप रही थी, भेड़िया घात लगाए आगे बढ़ रहा था कि मैं पहुंचगया। मुझे देख कर भेड़िया दुम दबाकर भाग गया। साहब मुझे कभी भरपूर भोजन नहीं मिला,पर खेतों में फावड़ा चला कर शरीर मेंबल था। मैंने चुपचाप फरसे पर सान चढ़वायी।सान चढ़ाते हुए लुहार ने पूछा-अरे महाराजक्या परशुरामी करना है। रात को जब सब गहरी नींद में थे, मैंने फरसे के प्रहार से चाचा और चचेरे भाइयोंके सिर को धड़ से अलग कर दिया।आक्रोश इतना ज्यादा था कि किसीकीआवाज भी नहीं निकली। पौ फटने वाली थी, मैं चुपचाप बैठा था।बहन बाहर आई।उसने मुझे भाग जानेको कहा। भागता रहा। एक डाकूओं के गिरोह में शामिल हो गया। हत्या करतेहुए मेरे हाथ नहीं कांपते थे। धीरे धीरे गिरोह का सरदार बन गया। किसी से पता चला कि चाची भी अपने पति और बेटों के दुख के कारण मर गई।मैंने रिश्तेदार की मदद से बहन का विवाह करवा दिया।बहन और जीजा को घरखेती की जिम्मेदारी सौंपी। स्वयं डकैती डालता।दूर दराज से बहन और उसकेबच्चों को देख लेता।अब जीवन में और क्या बचा था। वह बुरी तरह हांफने लगा। उसे दवा देकर लिटा दिया गया। डाक्टर ने तसल्ली दी-अब तुम छिपकर नहीं सबके साथ रहोगे। राज काज में समय लगता ही है।उसकी हालत बिगड़ती जा रही थी। आंखें डूब रही थी। उसने बहन से मिलने की इच्छा जताई। घर के पते पर पत्रडाला गया।उस समय मोबाइल नहीं आये थे।वायर लेस से थाने को सूचना दीगई,पर कोई नहीं आया। प्रतीक्षा की घड़ी बढ़ रही थी,और सांस उखड़ रही थी। सुबह जब डाक्टर राउन्ड पर आये, उसने अपने कांपते हाथों से डाक्टर का हाथपकड़ लिया-मुझे छोड़कर मत जाइए,वरना यमदूत मुझे ले जायेंगे। निरुपाय डाक्टर उसके पास बैठ गया।वह बड़बड़ाने लगा -सब मुझे छोड़ करचले गए।अम्मा बाबू। यहां तक कि दीदी भी भूल गयी। आप मत जाइए। डाक्टर जरा सा उठने की कोशिश करते,वह किसी कोमल शिशु की भांति हाथपकड़ लेता जो मां को नहीं छोड़ता। ‘मसीहा के रहने से इरादा मौत का बदला जाएगा‘ लंच का समय हो गया था, पर उसने हाथ नहीं छोड़ा। पूरा जेल स्तब्ध,बार बार वायरलेस भेजा जा रहा था। सुबह से शाम हो गई। दूसरे डॉ पर मरीज की जिम्मेदारी देकर केवल चाय पीनेघर आये।कप मुंह से लगाया ही था,टूट गया। कदाचित यमदूत भी मसीहा के सामने प्राण खींचने का साहस नहीं जुटा सके।जब कोई संसार छोड़ता है, आसपास कुछ अपने आंसू बहाते हैं, कुछ अभागे ऐसेहोते हैं,जिनके पास अपने नहीं होते। सूचना देने पर भी परिवार का कोई व्यक्ति नहीं आया, लिहाजा जेल प्रशासन नेअंतिम संस्कार कर दिया। पन्द्रह दिन बाद उसके बहनोई आये।जेलर के समक्ष न पहुंच सकने के बहानेबताया। जेलर बड़ी मुश्किल से अपने जज्बातों पर काबू रख सके।जाने का इशाराकिया। ‘साहब उसके आखिरी क्षणों में कौन उसके पास था।‘ ‘क्यों डाक्टर साहब थे।‘ ‘उनसे मिलना है।‘ ‘क्यों मिलना चाहते हो।‘जेलर ने पूछा। जीजा ने रिरियाते हुए कहा-‘शायद साहब को बताया हो कि माल कहां छिपा रखा है।‘ लंबे तड़गें जेलर साहब का गुस्सा सातवें आसमान पर पहुंच गया। बड़ी मुश्किलसे अपने को रोका-‘ निकल जा मेरी नजरों से।जब वह अपनी बहन को देखेने केलिए तड़प रहा था, नहीं आया। डाक्टर साहब तो हाथ उठा देंगे।‘ जेलर हतप्रभ थे मानवता का उत्थान और पतन देखकर। आशा सिंह … जेल के पन्नों से जेल के पन्नों से–हत्यारिन माँ आपको कहानी “जेल के पन्नों से – अंतिम इच्छा”कैसी लगी | अपने विचारों से हमें अवश्य अवगत कराये |अगर आपको अटूट बंधन की रचनाएँ पसंद आती हैं तो साइट को सबस्क्राइब करें व हमारा फेसबुक पेज लाइक करें |

लाल चप्पल

लाल चप्पल

कभी महंगी डिजाइनदार चप्पल खरीदते समय हम ये सोचते हैं कि कितने लोग हैं जिन्हें नंगे पाँव ही धूप ,सर्दी और बरसात का सामना करना पड़ता है | अमीर और गरीब को बांटने वाली रेखाओं में चप्पल भी एक ऐसी ही रेखा है और ये कहानी गरीब कामवाली द्वारा उस रेखा को मिटाने के लिए की गई एक छोटी सी कोशिश .. क्या वो कामयाब होगी ? आइए जानते हैं अर्चना अनुप्रिया जी की कहानी लाल चप्पल से लाल चप्पल  दूर दूर तक कोई भी नहीं था। पूरी सड़क सुनसान थी।दोपहर का वक्त था और गर्मी के दिन थे। चिलचिलाती धूप में रधिया नंगे पाँव जलती हुई सड़क पर लगभग दौड़ती हुई बाजार की तरफ चली जा रही थी। उसे बाजार पहुँचने की कोई जल्दी नहीं थी पर एक पैर सड़क पर रखते ही सड़क की चारकोल पैर जलाने लगती थी तो झट दूसरा पैर खुद ही आगे आ जाता था। सूरज की कड़कड़ाती धूप से सड़क पर बिछी चारकोल इतनी गरम हो चुकी थी कि रधिया का चलना दौड़ने में परिवर्तित हो रहा था। कल ही मालकिन ने रधिया को पैसे दिए थे कि वह अपने लिए एक चप्पल खरीद ले। पहले तो उसने सोचा था कि उन पैसों से चप्पल की जगह बुधवा के लिए एक काली वाली छतरी खरीदेगी… बेचारा इतनी धूप में मजदूरी करने शहर के एकदम दूसरी छोर तक जाता है… दिन भर माथे पर ईंटें लाद-लाद कर तीन मंजिलें चढ़ता- उतरता है, फिर जब तक ठेकेदार न बोले, खाना भी नहीं खा पाता है। बारिश हो कि कड़ी धूप..दिन-दिन भर खुले आसमान के नीचे काम करता रहता है। छतरी होगी तो दम भर धूप और पानी से बच कर बैठ तो सकेगा। परंतु,बीती रात को रोटी खिलाते समय जब से रधिया ने बुधवा को मालकिन के लिए पैसों के विषय में बताया था, तभी से वह उसके पीछे पड़ गया था कि पैसे दे दो क्योंकि पिछले महीने उसके दोस्त हरमू ने सब दोस्तों को ताड़ी पिलाई थी, मीट-भात खिलाया था… तो इस बार वह सब को अपनी तरफ से ताड़ी की पार्टी देगा। उसका इरादा समझते ही रधिया ने तय कर लिया था कि चुपचाप चप्पल ले आने में ही उसकी भलाई है, वरना एक बार पैसे बुधवा के हाथ में गए.. तो न छतरी आएगी न चप्पल।वह पैसों को दोस्तों के बीच उड़ा देगा और फिर मालकिन दुबारा पैसे देने से तो रहीं…उलटा कहीं डाँट न सुननी पड़े। इसीलिए रधिया शाम तक बुधवा के आने से पहले ही चप्पल खरीदकर छुपा देना चाहती थी। बुधवा पूछेगा तो कह देगी पैसे कहीं गिर गए, नहीं तो चप्पल देखकर बुधवा उसी चप्पल से उसकी पिटाई कर देगा… कहेगा कि ‘बड़ी महारानी बनती है, चप्पल पहनकर काम करने जाएगी स्साली… दोस्तों के सामने मेरी इज्जत रहे ना रहे, महारानी को चप्पल जरूर चाहिए।’ रधिया अच्छी तरह से जानती है उसे, भले वह उससे प्रेम करता है, लेकिन उसकी खुद की जो पसंद है, उसे रधिया से ज्यादा प्यारी है…जो बोल दिया सो बोल दिया। बुधवा को बताकर अपनी शामत थोड़े ही न लानी है। रधिया के कदम और तेज हो गए।   बाजार में बहुत कम दुकानें खुली थीं। अधिकतर दुकानें या तो दोपहर की गर्मी की वजह से बंद थीं या फिर दुकानदार खाना खा रहे थे तो शटर आधी गिरा रखी थी। रधिया को समझ नहीं आया कि वह क्या करे। इतनी मुश्किल से तो पाँव जला-जला कर पहुँची थी वह… अब वापस जाकर फिर से आना कहाँ संभव था। दो-ढाई बज चुके थे तीन-साढ़े तीन बजे तक कोठी में काम करने जाना होगा, फिर कहाँ टाईम मिलेगा..?.. अभी अगर चप्पल नहीं खरीद पायी तो फिर तो नहीं ही ले पाएगी। शाम को लौट कर बुधवा फिर पैसे माँगेगा और नहीं देने पर मारेगा… छतरी खरीदेगी तो वह उसे भी बेच कर पैसे ताड़ी पार्टी में उड़ा देगा… नहीं नहीं.. उसे चप्पल खरीदनी ही होगी।   रधिया ने इधर उधर देखा, कोने में चप्पलों की एक छोटी सी दुकान दिखी..वह उधर ही बढ़ गई। दुकान का मालिक उन्हीं चप्पलों के बीच बैठकर खाना खा रहा था। छोटी सी दुकान थी पर जूतों-चप्पलों का अंबार लगा था। सामने थोड़ी हिलती-डुलती सी एक बेंच रखी थी।दीवार के ऊपर एक छोटा सा पंखा तिरछा करके लगा था, जो सीधा दुकानदार के ऊपर ही हवा फेंक रहा था हालांकि उसकी गर्म हवा बीच-बीच में थोड़ी बेंच की तरफ भी आ रही थी।रधिया उस गर्मी में तेजी से चलती-चलती थक गई थी। बेंच देखते ही जल्दी से जाकर बैठ गई। दुकानदार ने एक बार खाते-खाते सिर उठाकर उसे देखा,फिर इशारे से गर्दन उचकाकर पूछा कि क्या चाहिए..? “भईया, एगो चप्पल देखाइए न… मेरे लिए”.. रधिया ने कहा। दुकानदार ने खाते-खाते पूछा-“हवाई चप्पल चाहिए कि फैंसी वाला देखावें?” “हवाइए चप्पल देखाइए….फैंसिया लेकर का करेंगे भईया,हम लोग त काम-काज वाले आदमी हैं”- रधिया का जवाब था। दायें हाथ से खाते-खाते दुकानदार ने बायें हाथ से चप्पल का एक डब्बा उठाया, खोला और उसे उलटकर उसमें से चप्पल नीचे गिरा दी– “पहिन के देखिए, ठीक है..?” रधिया झट से उठकर चप्पल में एक पैर डाल कर देखने लगी-“लगता तो ठीके है, पर तनी कड़ा है, दोसर देखाइए न।” “अरे दुन्नू पैर में पहिन के देखिए, एगो पैर में थोड़े पता चलेगा..” दुकानदार बोला। गर्मी से बेहाल,थकी हुई रधिया का बेंच पर से दुबारा उठने का मन नहीं हो रहा था, पर क्या करती,जल्दी से लौटकर काम पर भी जाना था। बेमन से उठकर दोनों पैरों में चप्पल पहन कर देखा… तलवे के नीचे मोटा का गद्दा..अहा, जलते हुए पैरों को बड़ी ठंडक सी मिली, पल भर के लिए उसने अपनी आँखें बंद कर लीं… बंद आँखों से ही उसे कोठी की मालकिन के पैरों की लाल चप्पल दिखी, जो उनके गोरे से पैरों में बड़ी खिलती थी। रधिया का मन मचल उठा, बोली-“ए साइज तो ठीके  लग रहा है, लाल कलर में नहीं है..?” लाल वाला देखाइए ना..।” दुकानदार का खाना भी तब तक समाप्त हो चुका था। हाथ हिला कर रधिया को बैठने का इशारा करते हुए पानी की बोतल लेकर दुकान से बाहर चला गया।हाथ मुँह धोकर तुरंत ही वापस आ गया, फिर एक फटे से तौलिये में … Read more

मंथरा

मंथरा

इतिहास साक्षी है कि केकैयी अपने पुत्र राम के प्रति अपार स्नेह भाव रखती थीं | पर उन को सौतेली माँ का दर्जा दिलाने में मंथरा की अहम भूमिका रही है | कबसे सौतेली माएँ कैकेयी के उपनाम का सहारा ले कर ताने झेलती रहीं हैं और मंथराएँ आजाद रहीं हैं | सौतेली सिद्ध होती माँ के पास मंथरा जरूर रही है पर जरूरी नहीं कि वह स्त्री ही हो | आइए जानते हैं वरिष्ठ लेखिका दीपक शर्मा जी की कहानी मंथरा .. मंथरा  इस बार हम पति-पत्नी मेरी स्टेप-मॉम की मृत्यु की सूचना पर इधर पापा के कस्बापुर आये हैं। “मंथरा अभी भी जमी हुई है,” हमारे गेट खोलने की आवाज़ पर बाहर के बरामदे में मालती के प्रकट होने पर विभा बुदबुदाती है। “यह मौका है क्या? तुम्हारे उस पुराने मज़ाक़ का?” मैं उस पर झल्लाता हूँ। मालती को परिवार में पापा लाये थे चार वर्ष पहले। ‘केयर-गिवर’ (टहलिनी) की एक एजेंसी के माध्यम से। इन्हीं स्टेप-मॉम की देखभाल के लिए। जो अपने डिमेन्शिया, मनोभ्रंश, के अंतर्गत अपनी स्मृति एवं चेतना तेज़ी से खो रही थीं। समय, स्थान अथवा व्यक्ति का उन्हें अकसर बोध न रहा करता। और अगली अपनी एक टिकान के दौरान विभा ने जब उन्हें न केवल अपने प्रसाधन, भोजन एवं औषधि ही के लिए बल्कि अपनी सूई-धागे की थैली से लेकर अपने निजी माल-मते की सँभाल तक के लिए मालती पर निर्भर पाया था तो वह बोल उठी थी, “कैकेयी अब अकेली नहीं। उसके साथ मंथरा भी आन जुटी है।” “पापा कहाँ हैं?” समीप पहुँच रही मालती से मैं पूछता हूँ। आज वह अपना एप्रन नहीं पहने है जिसकी आस्तीनें वह हमेशा ऊपर चढ़ाकर रखी रहती थी। उसकी साड़ी का पल्लू भी उसकी कमर में कसे होने के बजाय खुला है और हवा में लहरा रहा है-चरबीदार उसके कन्धों और स्थूल उसकी कमर को अपरिचित एक गोलाई और मांसलता प्रदान करते हुए। “वह नहा रहे हैं…” “नहाना तो मुझे भी है,” विभा पहियों वाला अपना सूटकेस मालती की ओर बढ़ा देती है। सोचती है पिछली बार की तरह इस बार भी मालती हमारा सामान हमारे कमरे में पहुँचा देगी। किन्तु मालती विभा के संकेत को नज़र-अन्दाज़ कर देती है और बरामदे के हाल वाले कमरे के दरवाज़े की ओर बढ़कर उसे हमारे प्रवेश के लिए खोल देती है। बाहर के इस बरामदे में तीन दरवाज़े हैं। एक यह हाल-वाला, दूसरा पापा के क्लीनिक वाला और तीसरा उनके रोगियों के प्रतीक्षा-कक्ष का। विभा और मैं अपने-अपने सूटकेस के साथ हाल में दाखिल होते हैं। अन्दर गहरा सन्नाटा है। दोनों सोफ़ा-सेट और खाने की मेज़ अपनी कुर्सियों समेत जस-की-तस अपनी-अपनी सामान्य जगह पर विराजमान हैं। यहाँ मेरा अनुमान ग़लत साबित हो रहा है। रास्ते भर मेरी कल्पना अपनी स्टेप-मॉम की तस्वीर की बग़ल में जल रही अगरबत्ती और धूप के बीच मंत्रोच्चार सुन रहे पापा एवं उनके मित्रों की जमा भीड़ देखती रही थी। लगभग उसी दृश्य को दोहराती हुई जब आज से पन्द्रह वर्ष पूर्व मेरी माँ की अंत्येष्टि क्रिया के बाद इसी हाल में शान्तिपाठ रखा गया था। और इसे विडम्बना ही कहा जाएगा कि उस दिन माँ की स्मृति में अगरबत्ती जलाने वाले हाथ इन्हीं स्टेप-मॉम के रहे थे। “मौसी?” सम्बोधन के स्तर पर मेरी स्टेपमॉम मेरे लिए मौसी ही रही हैं। रिश्ते में वह मेरी मौसी थीं भी, माँ के ताऊ की बेटी। जो उन्हीं के घर पर पली बढ़ी थीं। कारण, माँ के यह ताऊ जब अपने तेइसवें वर्ष ही में विधुर हो गये तो उन्होंने दो साल की अपनी इस बच्ची को अपनी माँ की झोली में डालकर संन्यास ले लिया था। “अम्माजी बिजली की भट्टी में भस्म कर दी गयी हैं। उनका अस्थिकलश उनके कमरे में रखवाया गया है…।” आयु में मालती ज़रूर सैंतीस-वर्षीया मेरी स्टेप-मॉम से दो-चार बरस बड़ी ही रही होगी किन्तु पापा के आदेशानुसार घर में काम करने वालों के लिए वह ‘अम्माजी’ ही थीं। “हमारा कमरा तैयार है क्या?” विभा मालती से पूछती है। “तैयार हो चुका है,” मालती सिर हिलाती है। बैठक का पिछला दरवाज़ा एक लम्बे गलियारे में खुलता है जो अपने दोनों ओर बने दो-दो कमरों के दरवाज़े लिए है। बायीं ओर के कमरों में पहला रसोईघर है और दूसरा हमारा शयनकक्ष। जबकि दायीं ओर के कमरों में पहला कमरा गेस्टरूम रह चुका है किन्तु जिसे मालती के आने पर स्टेप-मॉम के काम में लाया जाता रहा है और जिसे विभा ने अपनी ठिठोली के अंतर्गत ‘सिक-रूम’ का नाम दे रखा है। जिस चौथे कमरे को यह गलियारा रास्ता देता है, कहने को वह पापा का शयनकक्ष है मगर पापा अब उसे कम ही उपयोग में लाते हैं। उसके स्थान पर उन्होंने घर के उस चौथे शयनकक्ष को अपने अधिकार में ले लिया है जो घर के बाक़ी कमरों से कटा हुआ है। मेरे विद्यार्थी जीवन में वह मेरा कमरा रहा है जिसमें मैंने अपनी उठती जवानी के अनेक स्मरणीय पल बिताये हैं। कुछ आर्द्र तो कुछ विस्फोटक। कुछ उर्वर तो कुछ उड़ाऊ। यह कमरा गलियारा पार करने पर आता है। उस बड़े घेरे के एक चौथाई भाग में, जिसका तीन-चौथाई भाग सभी का है। किसी भी एक के अधिकार में नहीं। इसमें एक तख़्त भी बिछा है और चार आराम-कुर्सियाँ भी। माँ और फिर बाद में अपने डिमेंशिया से पूर्व मेरी स्टेप-मॉम भी अपने दिन का और बहुत बार रात का भी अधिकांश समय यहीं बिताया करती थीं। स्वतंत्र रूप से : कभी अकेली और कभी टोली में। “तुम पहले हमें चाय पिलाओ, मालती।” हमारे कमरे की ओर अपना सूटकेस ठेल रही विभा को रसोई-घर का दरवाज़ा चाय की आवश्यकता का एहसास दिला जाता है। उधर मालती रसोई की ओर मुड़ती है तो इधर अपना सूटकेस गलियारे ही में छोड़कर मैं स्टेप-मॉम के कमरे की ओर बढ़ लेता हूँ। उनका बिस्तर पहले की तरह बिछा है। बिना एक भी सिलवट लिए। मालती की सेवा-टहल में औपचारिक दक्षता की कमी कभी नहीं रही थी। हमेशा की तरह बिस्तर के बग़ल वाली बड़ी मेज़ पर दवाओं के विभिन्न डिब्बे अपनी अपनी व्यवस्थित क़तार में लगे हैं। धूल का उन पर एक भी कण ढूँढने पर भी नहीं मिल सकता। स्टेप-मॉम की पहियेदार वह कुर्सी आज ख़ाली है जिस पर वह मुझे मेरे … Read more

ऊँटकी करवट

ऊँट किस करवट बैठता है यह बहुत ही प्रसिद्द मुहावरा है | ये एक संदेह की स्थिति है | दरअसल वो परिणाम जो हमें पता नहीं होते हैं | फिर भी मर्जी तो ऊँट की ही चलती है | ये कहानी भी कुछ ऐसी ही हैं | जहाँ पुरुष या पितृसत्ता की तुलना ऊँट से की गयी है | कयास लगाए जाते हैं पर मर्जी उसी की चलती है | ये कहानी वैसे तो १९६१ की हैं पर स्त्री -पुरुष के समीकरण में बहुत अंतर नहीं आया है | आइये जानते हैं दीपक शर्मा जी की मार्मिक कहानी से … ऊँटकी करवट यह घटना सन् इकसठ की है किन्तु उसका ध्यान आते ही समय का बिन्दु-पथ अपना आधार छोड़ कर नए उतार-चढ़ाव ग्रहण करने लगता है. बीत चुके उन लोगों के साए अकस्मात् धूप समान उजागर हो उठते हैं और मेरे पीछे चलने की बजाय वे मेरे आगे चलने लगते हैं. और कई बार तो ऐसा लगता है उस घटना को अभी घटना है और बहुत बाद में घटना है….. अभी तो उस घटना के वर्तमान में मेरा आना बाक़ी है….. कौन कहता है कोई भी व्यक्ति समय से आगे या पीछे पहुँचकर भविष्य अथवा अतीत के अंश नहीं देख सकता? यदि प्रत्येक बीत रहे अनुभव का समय बोध वाले वर्तमान में घटना ज़रूरी हैं तो फिर तो स्मृति क्या है? अन्तर्बोध क्या है? “देखो” अपनागौना लाए जब खिलावन को दो सप्ताह से ऊपर हो गए तो माँ ने बागीचे से ढेर सारी अमिया तुड़वायीं और खिलावन से कहा, “गुलाब को आज इधर बँगले पर भेजना. अमिया कद्दूकस कर देगी. आज मैं मीठी चटनी बनाऊँगी.” उन दिनों बँगले पर तैनात हमारे दूसरे नौकरों की पत्नियों के ज़िम्मे माँ ने अनन्य काम सौंप रखे थे : माली हरिप्रसाद की पत्नी फ़र्श पर गीला पोंछा लगाती और रसोइए पुत्तीलाल की पत्नी घर का कपड़े धोया करती. “मैं बताऊँ मालकिन?” खिलावन थोड़ा खिसिया गया, “गुलाब के घर वालों ने मुझसे वादा लिया है उससे बँगले का काम न करवाऊँगा.” “ऐसा है क्या?” ‘न’ सुनने की माँ को आदत न थी किन्तु खिलावन उनका चहेता नौकर था. पाँच साल पहले सत्रह वर्ष की आयु में उसने यहाँ जो काम सीखना शुरू किया था सो अब वह बहुत काम का आदमी बन गया था. उसकी फुरती और कार्यकुशलता देखने लायक रही. मिनटों-सैकंडों में वह जूठे बर्तनों की ढेरी चमका देता, चुटकियों में पूरा बँगला बुहार लेता; तिस पर ईमानदार इतना कि सामने रखे सोने को देखकर भी उसका चित्त डुलाये न डोलता. “जी, मालकिन,” खिलावन ने अपने हाथ जोड़े, “गुलाब ग़रीब घर की ज़रूर है मगर उसके यहाँ औरत जात से बाहर का काम करवाने काप्रचलन नहीं.” दोपहर में माँ ने मेरे पिता से यह बात दोहरायी तो माँ की झल्लाहट में सम्मिलित होने की बजाय वे हँस पड़े, “देखने में ज़रूर अच्छी होगी.” मेरे पिता अत्यन्त सुदर्शन रहे जब कि माँ देखने में बहुत मामूली. मुझेयक़ीन है माँ मेरे धनाढ्य नानाकी यदि इकलौती सन्तान न रहीहोतीं तो मेरेपिता कदापि उनसे शादी न करते. “देखने में अच्छी है,” जवाबी वारमें माँ का जवाब नथा, “तभी तो काम में फिसड्डीहै.” काम के मामले में मेरे पिता खासे चोर रहे. साड़ियोंके विक्रेता मेरे नाना की दुकान पर वेकभी-कभार ही बैठते. बस, उनके हाथ बँटाने के नाम पर केवल साड़ियों को उठाने या पहुँचाने का कामही करते; वहभी इसलिए क्योंकि उस काम में हरतिमाही-छमाही रेलपर घूमनेका उन्हेंअच्छा अवसर मिल जाता. कभी बनारस तो कभी कलकत्ता और कभी हैदराबाद तो कभी त्रिवेन्द्रम. वरना इधर तो आधा दिन वे सजने-सँवरने मेंबिताते औरआधा रात की नींद पूरी करने में. रात को क्लबमें देरतक शराब पीनेऔर ब्रिज खेलने की उन्हें बुरी लत रही. रात का खाना वे ज़रूर घर पर लेते. कभीग्यारहबजेतोकभीसाढ़ेग्यारहबजे. अकेले. खिलावन की मदद लेकर माँ उन्हें खाना परोसतीं ज़रूर किन्तु स्वयं कुछ न खातीं. असल में माँका रात में रोज़ व्रतरहता. “भली मानस तेरी माँ तेरे पिता को तो दण्ड दे नहीं सकती,” रात में जल्दी सोने की आदत की वजह से विधुर मेरे नाना ठीक साढ़े आठ बजे मेरी बगल में खाने की मेज पर अपना आसन ग्रहण करते ही रोज़ कहते, “इसीलिए खुद को दंड दे रही है.” नौ साल पहले मेरे पिता को मेरे नाना के पास बी. ए. में पढ़ रही माँ ही लायी रहीं, “इनसे मिलिए. हमारे इलाके के एम. पी. के मँझले बेटे.” सन् बावन के उन दिनों में हाल ही में संगठित हुई देश की पहली लोक सभा का रुतबा बहुत बड़ा था और मेरे नाना उनके परिचय के‘क्या’, ‘कितना’ और‘क्यों’ के चक्कर में न पड़े थे. वैसे माँ मेरे पिता को क्लब के लॉन टेनिस टूर्नामेंट के अन्तर्गत मिली रहीं. उनकी तरह माँ भी टेनिस की बहुत अच्छी खिलाड़ी थीं. दोनों ने एक साथ मिक्स्ड डबल्स कीकई प्रतियोगिताओं में भाग भी लिया. आप चाहें तो सन् तिरपनकी कुछ अख़बारों में उन दोनों की एक तस्वीर भी देख सकते हैं. राजकुमारी अमृत कौर के हाथों एक शील्ड लेते हुए. “कहो जगपाल,” अगले दिन सुबह गोल्फ़ के लिए मोटर में सवार मेरे पिता ने ड्राइवर को टोहा, “खिलावन के क्या हाल हैं?” मोटर में उस समय मैं भी रहा. मेरे पिता का गोल्फ-ग्राउण्ड मेरे स्कूल के समीप था. “बंदर के हाथ हिरणीलग गयी,” जगपाल ने अपने दाँत निपोरे, “वह गुलाब नहीं गुलनार है, सरकार!” “दूर से ही लार टपकाते हो या कभी पार भी गए हो?” मेरे पिता और जगपाल के बीच असंयत ठिठोली का सिलसिला पुराना था. हरिप्रसाद और पुत्तीलाल की पत्नियों के बारे में लापरवाह बातें करते हुए भी मैं उन्हें अक्सर पकड़चुका था. हरिप्रसाद की पत्नी को वे ‘चिकनिया’ कहते और पुत्तीलाल की पत्नी को ‘लिल्ली घोड़ी’. “आप कहें तो आजमाइश करें, सरकार?” जगपाल ने अपना सिर पीछे घुमाया- मेरे पिताकी दिशा में- “आप के लिए यह भी सही-” “आजमाइश नहीं, तुम निगहबानी करना. पहरा रखना.” “रखवाली किसकी करनी है, सरकार? उसकी या आपकी?” स्कूल पर पहुँच जाने की मजबूरी के कारण उसी समय मुझे मोटर से उतरना पड़ा और अपने पिता का उत्तर मैं जान न पाया. मगर स्कूल से लौटते ही खाना खाने के उपरान्त मैं बाग़ीचे की तरफ़ आ निकला. हमारे नौकर लोगों के कमरे हमारे पिछवाड़े के बागीचे की तरफ़ रहे. हमारे निजी कुएँ के … Read more

मन की गाँठ (कोरोना इफ़ेक्ट )

ये समय जब इतिहास में लिखा जाएगा तो शायद कोरोना काल के रूप में जाना जाएगा | साहित्य पर समय और समाज का प्रभाव पड़ना स्वाभाविक ही है | आज कई कहानियाँ , कवितायें कोरोना को केंद्र में ले कर लिखी जा रही हैं | प्रस्तुत कहानी मे भी  कविता सिंह जी ने भी कोरोना को केंद्र में लिख कर एक बहुत मर्मस्पर्शी कहानी बुनी है | हालांकि ये कहानी स्त्री मन की कोमल भावनाओं को इंगित करती है ..उसके मन की परतों को खोलती है | स्त्री ममत्व का दरिया है जो चाहकर भी उन रिश्तों के प्रति कठोर नहीं हो पाती जिन्हें उसने जीवन भर संजोया -संवारा है | यहाँ कोरोना मन की गांठों को खलने का कारण  बनता है …. मन की गाँठ (कोरोना इफेक्ट) साठ साल की सोमवती जी बेचैनी से करवट बदल रही थीं, कभी उठती बाथरूम जातीं कभी ग्लास में पानी उड़ेलतीं। उन्हें समझ नहीं आ रहा था कि आज की खबर से वो इतनी बेचैन क्यों थीं। बार-बार खिड़की के पर्दे हटाकर देखतीं, सुबह हुई या नहीं। कोई तो दुःख था जो उन्हें मथ रहा था। कितनी रात गए उनकी आंख लगी उन्हें पता ही नहीं चला। “दादी..दादी उठो! आज कितनी देर कर दी तुमने, देखो तो दस बज गए।” दस साल के पोते वीर की आवाज सुनकर उनकी आंख खुल गयी। “अरे इतनी देर हो गयी आज!” वो बड़बड़ाते हुए उठी और वीर को प्यार करके बाथरूम में घुस गयीं। ” पापा! दादी अभी सो रही थीं, मैं अभी जगाकर आया उनको।” बेटे की बात सुनकर लक्ष्मण और सीमा एकदूसरे का मुँह देखने लगे। उनके लिए ये बेहद आश्चर्य की बात थी। मां को यहाँ आये दो साल हो गए थे पर कभी भी वो इतनी देर तक नहीं सोई। अबतक तो वो सोसाइटी के बाहर वाले मंदिर के भजन कीर्तन में शामिल होकर घर भी आ जाती थीं। लक्ष्मण को चिंता हुई वो मां के कमरे की ओर बढ़ गया। वहाँ जाकर देखा तो सोमवती जी चुपचाप कुर्सी पर बैठी खिड़की के बाहर देख रही थीं। ” क्या हुआ माई, तबियत ठीक नहीं क्या तुम्हारी? आज तुमने पूजा भी नही किया?” ‘नहीं लछमन ऐसी कोई बात नही, रात में देर से आँख लगी तो उठने में देर हो गई।” “तो क्या हुआ माई चलो बाहर वीरू बैठा नाश्ते के लिए इंतजार कर रहा।” लक्ष्मण ने मां को सहारा देने के लिए हाथ बढ़ाया। “तु चल हम आ रहे हैं, आज तो तुम्हारी ऑफिस भी नहीं होगी, कोई बीमारी फैली है ना!” “हाँ माई, बड़ी खराब बीमारी है, एक आदमी से दूसरे के हो जाती है। इसी कारण सरकार ने सबकुछ  बन्द कर दिया है।” “चल!” कहते हुए वो अपने चेहरे की मायूसी को ढकने की नाकाम कोशिश करते हुए लक्ष्मण के साथ बाहर हॉल में आ गईं जहाँ लक्ष्मण की पत्नी सीमा और वीर उनदोनों का इंतजार कर रहे थे। सीमा ने सबको नाश्ता परोसा और उनकी तरफ देखते हुए चिंतित स्वर में बोली– “क्या हुआ मां जी? आपकी तबियत तो ठीक है ना?” “हाँ! तबियत सही है हमारी। अच्छा ये बताओ कबतक बन्द रहेगा सबकुछ?” “बस कुछ दिन की बात है माई।” लक्ष्मण ने जवाब दिया। सबलोग नाश्ता करके उठने लगे, उन्होंने देखा सोमवती जी ने तो कुछ खाया ही नहीं। उन्हें लगा लोकडाउन के वजह से उनका मन उदास है।   सोमवती जी पिछले दो साल से अपने छोटे बेटे के साथ शहर में रह रहीं थी और उनके पति बड़े बेटे के साथ पास के गाँव में।    उन्होंने दो सालों से अपने पति का मुँह नहीं देखा था। पर आज जब टीवी में सुना कि ये बीमारी बच्चों और बूढ़ों के लिए ज्यादा खतरनाक है तब से उनका मन बेचैन था। दो वर्ष की नाराजगी आँखों के रास्ते पिघलने लगी थी। बार-बार सोचती बच्चों से एकबार गाँव की खबर लें पर चाह के भी वो ऐसा नहीं कर पातीं आखिर करें भी तो कैसे करें, खुद ही कसम दे रखीं थीं इस घर में उनके सामने गाँव की कोई बात नहीं होगी। हाँ कभी- कभी बड़े बेटे राम से बात जरूर कर लेतीं पर वहाँ भी पिता के बारे में बात करने की मनाही थी उनकी तरफ से। आखिर क्या किया था राम के बाबूजी ने, जिससे तिलमिलाकर उनकी जैसी धैर्यवान स्त्री ने इतना बड़ा फैसला ले लिया। आज सबकुछ फ़िल्म की तरह उनके आँखों के सामने घूमने लगा था।   पैंतालीस बरस पहले ब्याह के आईं थी उस घर में। जहाँ सास, विधवा चचिया सास और एक बड़ी ननद ने उनका स्वागत किया था। भरा पूरा घर था, अपनी उम्र से तीन साल छोटा एक देवर और उससे दो साल छोटी एक और ननद, जिनकी जिम्मेदारी सास ने उनको हांडी छुआते समय ही सौंप दिया। पंद्रह बरस की नादान उमर में ही पूरी गृहस्थी का बोझ ढ़ोते हुए वो कब परिपक्व हो गयीं उन्हें खबर ही नहीं लगी। बड़ी ननद ससुराल में झगड़ा करके नैहर में आके बैठ गयीं थीं जिनका हुक्म बजाते-बजाते रात हो जाती पर उनको सोमवती जी कभी सन्तुष्ट नहीं कर पायीं। ससुरजी दबंग इंसान थे उनके सामने किसी के मुँह से आवाज भी नहीं निकलती। सबकी दबी कुचली कुंठाएँ बिचारी सोमवती पर ही उतरने लगी थीं। ले देकर एक पति थे जो अपना सा लगते थे पर वो भी मां और बड़ी बहन के सामने केवल उन्हींलोगों का पक्ष लेते। सोमवती जी को संस्कार घुट्टी में पिलाकर पाला गया था, कुछ भी हो जाता मुँह नहीं खोलती बस चुपके से अँधेरी रातों में आँसू बहा लिया करतीं। दिनरात सबको खुश करने में अपना जी जान लगा देतीं पर पर वो कभी अपनी इस कोशिश में कामयाब नहीं हो पायीं। बस एक सहारा रहा जीवन का कि पति ने कभी उनमें मीनमेख नहीं निकाला ये अलग बात थी कि कभी परिवार के अन्याय के खिलाफ उनका पक्ष भी नहीं लिया। जीवन के इन कटु अनुभवों को अपनी नियति मानकर वो चुपचाप सब सहती रहीं पर कभी किसी से कोई शिकायत नहीं की। प्यार के दो मीठे बोल को तरसती सोमवती को भगवान ने समय पर दो बेटे राम और लक्ष्मण के रूप में उनके जीने के लिए दो बड़े मकसद दे दिए, … Read more

नीलकंठ

प्रेम, सृष्टि की सबसे पवित्र भावना, ईश्वर का वरदान, संसार की सबसे दुर्लभ वस्तु …कितनी उपमाएं दी गयीं हो प्रेम को पर स्त्री के लिए ये एक वर्जित फल ही हैं …खासकर विवाहित स्त्री के लिए | समाज द्वारा मान लिया है कि विवाह के बंधन में प्रेम का पुष्प खिल ही जाता है | परतु विवाहित स्त्री के रीते मन पर अगर ये पुष्प सामाजिक मान्यता के विपरीत  खिल जाए तो …तो ये एक हलाहल है जिसे अपने कंठ में रख निरंतर विष पीती रहती है स्त्री | हमारे आस –पास कितनी स्त्रियाँ के  गरल पिए हुए स्याह पड़े कंठ हम देख नहीं पाते |  आज अक्सर कहानियों में देह विमर्श की बात होती है, परन्तु देह से परे भी प्रेम है जो सिर्फ जलाता, सुलगाता है और उस विष के साथ जीवन जीने को विवश करता है| सच्चाई ये है कि तमाम देह विमर्शों के परे  स्त्री मन का यह बंद पन्ना दबा ही रह जाता है| इस पर पुरुष साहित्यकारों की दृष्टि बहुधा नहीं पड़ती और स्त्रियाँ भी कम ही कलम चलातीं हैं | आज पढ़ते हैं उसी गरल को पी नीलकंठ बनी स्त्री की दशा पर लिखी गयी सोनी पाण्डेय जी की मार्मिक कहानी …         नीलकंठ     अच्छा यह बताओ आप कि आज बात बे बात इतना मुस्कुरा क्यों रही हो ? प्रिया ने पायल को झकझोरते हुए कहा। पायल मुस्कुरा कर रह गयी।आदतन प्रिया ने दाँत कटकटाते हुए बनावटी गुस्से में चिल्ला कर पूछा- बता दो की तुम इतना क्यों मुस्कुरा रही हो? पायल अब पत्रिका से मुँह ढ़क कर हँसने लगी।प्रिया उसके पैरों पर सिर रख ज़मीन पर बैठ गयी…मेरी अम्मा, मेरी दीदी,मेरी बहन जी…प्लीज बता दो!..मनुहार करते उसकी आँखें भर आईं थीं। पायल को दया आ गयी,सिर पर हाथ रख कर दुलारते हुए कहा…तुम बहुत जिद्दी लड़की हो, हठ कर बैठ जाती हो किसी भी बात पर। उसका गाल सहलाते हुए वह फिरसे मुस्कुरा उठी। इस बार प्रिया ने तुनक कर कह ही दिया…आपको बताना ही होगा,ऐसे तो आपको पिछले आठ साल में अकेले बैठकर मुस्कुराते नहीं देखा।गले में हाथ डाल कर कहा….पता है, ऐसे लड़कियाँ प्रेम होने पर मुस्कुराती हैं। पायल को जैसे हजारों वॉल्ट का करेंट का झटका एक साथ लगा हो ,वह सिहर उठी , यह पच्चीस साल की लड़की इतनी अनुभवी है कि मन के कोने में उपजी एक मध्यम सी लकीर जो होठोंं तक अनायास खिंची चली आ रही है को पढ़ लेती है।वह झट पत्रिका को समेट पर्स में रख खड़ी हो गयी। प्रिया पैर पटकती उसके पीछे पीछे चलने लगी…बता दीजिए न प्लीज पायल मैम! पायल के चेहरे पर तनाव उभर आया था, उसने लम्बी साँस लेते हुए कहा, “आज एक कहानी पढ़ी,उसी को सोच-सोच कर मुग्ध हो रही हूँ प्रिया।” प्रिया ने मुँह बिचका लिया….बस इतना ही,बक्क! आप बहुत खराब हैं।मैंने तो सोचा… पायल उसके मुँह से अगला शब्द निकले उससे पहले ही टोकते हुए रोकने लगी।प्लीज प्रिया,एक भी फालतू शब्द मत बोलना,जानती हो यहाँ दीवारों के बहत्तर कान हैं और मैं खामाखां मुसीबत में पड़ जाउंगी। पायल  का दिल धौंकनी की तरह धड़क रहा था…माथे पर पसीने की बूदें चुहचुहाने लगीं,पेट में गुड़गुड़ाहट होने लगी…घबराहट और बेचैनी में वह सामने के खण्डहर हो चुके क्लास रूम में आकर दीवार की टेक ले खडी हो गयी।आज उसे झाड झंखाड से भरे इस कमरे में बिल्कुल डर नहीं लग रहा था…सैकडों साँपों का जमावडा जिस कमरे में बरसात में रहता आज उस भयानक से कमरे की दीवार से चिपकी रोए जा रही थी।उधर प्रिया उसे खोज कर जब थक गयी तो क्लास में जाकर बच्चों को पढ़ाने लगी। आज मोहित स्कूल नहीं आया था,मोहित पिछले साल स्कूल में आया नया शिक्षक ,जैसा नाम वैसा ही स्वाभाव।सभी को अपने आकर्षक व्यक्तित्व और विनम्र स्वभाव से मोहित कर लेता।शुरू में सभी को लगा कि मोहित प्रिया को पसन्द करता है।पायल ने एक दिन कह भी दिया कि प्रिया तुम्हारी और मोहित की जोडी बहुत सुन्दर लगेगी.. प्रिया ने लम्बी साँस लेते हुए पायल से कान में कहा था उस दिन…मोहित आपको पसन्द करता है।पायल ने प्रिया को उस दिन बहुत डांटा था।वह समझ ही नहीं पा रही थी कि वह मोहित को कैसे समझाए कि वह जो कहता फिरता है सबके सामने वह एक दिन उसके जीवन में तूफान खड़ा कर सकता है।मोहित पायल से इतना प्रभावित रहता कि उसे दर्द निवारक मैम कह कर हँस पड़ता।चाहे कितनी मुश्किलें सामने हो पायल धैर्यपूर्वक उसका हल खोज निकालती।चाहे बच्चों की समस्या हो या शिक्षकों की वह कुछ न कुछ करके सब ठीक कर लेती।उसके पास हर समस्या का समाधान रहता..हर एक अपनी मुश्किल उसे सुना हल्का हो लेता ,ऐसी पायल अपने अन्दर के असीम तूफान को समेटे हर पल मुस्कुराते हुए सबसे मिलती और मोहित मुग्ध हो उसके गुन गाता फिरता।एक दिन तो इतना तक कह दिया कि यदि आप शादीशुदा नहीं होतीं तो आपसे ही शादी करता और परसों उसने सारी सीमाएँ तोड़ते हुए पायल से कह ही दिया..आई लव यू पायल।पायल ने उसे जोर से चांटा मारा था..वह कल से स्कूल नहीं आया था।पायल को छोड इस बात की जानकारी किसी को नहीं थी।हाँ प्रिया जरूर मोहित का पक्ष जानती थी और पायल को छेड़ती रहती थी। पायल के जीवन का यह साल भी अजीब था , शादी के एक दसक खत्म होने को है।चल रहा सब,जैसे हर आम औरत की दुनिया में चलता है।जिस उम्र में प्रेम के कोंपल फूटते हैं उस उम्र में कुछ बनने की धुन में वह लड़कों की तरफ देखती तक नहीं। दिल के बंजर ज़मीन पर कभी प्रेम के अंकुर नहीं फूटे.और अब जो घट रहा था वह अजीब था.।..शादी होनी थी, हुई…पति के लिए वह जरूरत थी,समाज के लिए एक सुखी परिवार, बच्चे ,पति ,घर परिवार से घिरी एक औरत जिसे जरूरत की किसी चीज की कमी नहीं थी वह आखिर क्यों नहीं खुलकर हँसती नहीं थी?उसे खुश रहना चाहिए… औरत को इसी में खुश रहना है और क्या चाहिए उसे।खाओ पहनो घूमो और चुपचाप सबकी जरूरतें पूरी करती रहो। उसे याद आता है कि काजल उसे देख कैसे बिफर पड़ी थी…क्या पायल! तुम्हारे जैसी जहीन लड़की ने अपना क्या हाल बना रखा है?जानती हो! … Read more

गीदड़-गश्त

गीदड़ एक ऐसा पशु है जो खंडहरों में गश्त लगाते हैं |कहानी में वरिष्ठ लेखिका दीपक शर्मा जी ने अतीत में बार -बार जाने की बात की तुलना इसी गीदड़ गश्त से करी है | स्वाभाविक है कि हम अतीत में बार -बार तभी जाते हैं जब वहाँ कोई ट्रामा हो, गिल्ट हो, या कोई ऐसा सिरा हो जो अधूरा रह गया हो | जिसको खोजने मन बार -बार वहां पहुँच जाता है | आखिर क्या है कि कहानी का नायक बैंकुवर में बस जाने के बाद भी ४० साल पीछे की स्मृतियों में जाकर कर बार बार गश्त लगाता है |ये कहानी बहुत कम शब्दों में बहुत गहन संवेदना प्रस्तुत करती है |  आइये पढ़ते हैं किसी  के विश्वास को ठगे जाने की मार्मिक कहानी …. गीदड़-गश्त किस ने बताया था मुझे गीदड़, सियार, लोमड़ी और भेड़िये एक ही जाति के जीव जरूर हैं मगर उनमें गीदड़ की विशेषता यह है कि वह पुराने शहरों के जर्जर, परित्यक्त खंडहरों में विचरते रहते हैं? तो क्या मैं भी कोई गीदड़ हूँ जो मेरा चित्त पुराने, परित्यक्त उस कस्बापुर में जा विचरता है जिसे चालीस साल पहले मैं पीछे छोड़ आया था, इधर वैनकूवर में बस जाने हेतु स्थायी रूप से? क्यों उस कस्बापुर की हवा आज भी मेरे कानों में कुन्ती की आवाज आन बजाती है, ‘दस्तखत कहाँ करने हैं?’ और क्यों उस आवाज के साथ अनेक चित्र तरंगें भी आन जुड़ती हैं? कुन्ती को मेरे सामने साकार लाती हुई? मुझे उसके पास ले जाती हुई? सन् उन्नीस सौ पचहत्तर के उन दिनों मैं उस निजी नर्सिंग होम के एक्स-रे विभाग में टैक्नीशियन था जिस के पूछताछ कार्यालय में उसके चाचा किशोरी लाल क्लर्क थे| उसे वह मेरे पास अपने कंधे के सहारे मालिक, हड्डी-विशेषज्ञ डॉ. दुर्गा दास की पर्ची के साथ लाये थे| उसका टखना सूजा हुआ था और मुझे उसके तीन तरफ से एक्स-रे लेने थे| “छत का पंखा साफ करते समय मेरी इस भतीजी का टखना ऐसा फिरका और मुड़का है कि इस का पैर अब जमीन पकड़ नहीं पा रहा है,” किशोरी लाल ने कारण बताया था| तीनों एक्स-रे में भयंकर टूटन आयी थी| कुन्ती की टांग की लम्बी शिन बोन, टिबिया और निचली छोटी हड्डी फिबुला टखने की टैलस हड्डी के सिरे पर जिस जगह जुड़ती थीं, वह जोड़ पूरी तरह उखड़ गया था| वे लिगामेंट्स, अस्थिबंध भी चिर चुके थे जिन से हमारे शरीर का भार वहन करने हेतु स्थिरता एवं मजबूती मिलती है| छः सप्ताह का प्लास्टर लगाते समय डॉ. दुर्गादास ने जब कुन्ती को अपने उस पैर को पूरा आराम देने की बात कही थी तो वह खेद्सूचक घबराहट के साथ किशोरी लाल की ओर देखने लगी थी| जभी मैंने जाना था वह अनाथ थी मेरी तरह| मुझे अनाथ बनाया था मेरे माता-पिता की संदिग्ध आत्महत्या ने जिसके लिए मेरे पिता की लम्बी बेरोजगारी जिम्मेदार रही थी जबकि उसकी माँ को तपेदिक ने निगला था और पिता को उनके फक्कड़पन ने| अगर अनाथावस्था ने जहाँ मुझे हर किसी पारिवारिक बन्धन से मुक्ति दिलायी थी, वहीं कुन्ती अपने चाचा-चाची के भरे-पूरे परिवार से पूरी तरह संलीन रही थी, जिन्होंने उसकी पढ़ाई पर ध्यान देने के बजाए उसे अपने परिवार की सेवा में लगाए रखा था| मेरी कहानी उस से भिन्न थी| मेरी नौ वर्ष की अल्प आयु में मेरे नाना मुझे अपने पास ले जरूर गए थे किन्तु न तो मेरे मामा मामी ने ही मुझे कभी अपने परिवार का अंग माना था और न ही मैंने कभी उनके संग एकीभाव महसूस किया था| मुझ पर शासन करने के उन के सभी प्रयास विफल ही रहे थे और अपने चौदहवें साल तक आते-आते मैंने सुबह शाम अखबार बांटने का काम पकड़ भी लिया था| न्यूज़ एजेन्सी का वह सम्पर्क मेरे बहुत काम आया था| उसी के अन्तर्गत उस अस्पताल के डॉ. दुर्गादास से मेरा परिचय हुआ था जहाँ उनके सौजन्य से मैंने एक्स-रे मशीनरी की तकनीक सीखी-समझी थी और जिस पर जोर पकड़ते ही मैंने अपनी सेवाएँ वहां प्रस्तुत कर दी थीं| पहले एक शिक्षार्थी के रूप में और फिर एक सुविज्ञ पेशेवर के रूप में| उस कस्बापुर में मुझे मेरी वही योग्यता लायी थी जिसके बूते पर उस अस्पताल से सेवा-निवृत्त हुए डॉ. दुर्गादास मुझे अपने साथ वहां लिवा ले गए थे| कस्बापुर उनका मूल निवास स्थान रहा था और अपना नर्सिंग होम उन्हीं ने फिर वहीं जा जमाया था| कस्बापुर के लिए बेशक मैं निपट बेगाना रहा था किन्तु अपने जीवन के उस बाइसवें साल में पहली बार मैंने अपना आप पाया था| पहली बार मैं आप ही आप था| पूर्णतया स्वच्छन्द एवं स्वायत्त| अपनी नींद सोता था और उस कमरे का किराया मेरी जेब से जाता था| जी जानता है कुन्ती से हुई उस पहली भेंट ने क्यों उसे अपनी पत्नी बनाने के लिए मेरा जी बढ़ाया था? जी से? मेरे उस निर्णय को किस ने अधिक बल दिया था? किशोरी लाल की ओर निर्दिष्ट रही उस की खेदसूचक घबराहट ने? अथवा अठारह वर्षीया सघन उसकी तरुणाई ने? जिस ने मुझ में विशुद्ध अपने पौरुषेय को अविलम्ब उसे सौंप देने की लालसा आन जगायी थी? किशोरी लाल को मेरे निर्णय पर कोई आपत्ति नहीं रही थी और मैंने उसी सप्ताह उस से विवाह कर लिया था| आगामी पांच सप्ताह मेरे जीवन के सर्वोत्तम दिन रहे थे| प्यार-मनुहार भरे….. उमंग-उत्साह के संग….. कुन्ती ने अपने प्लास्टर और पैर के कष्ट के बावजूद घरेलू सभी काम-काज अपने नाम जो कर लिए थे| रसोईदारी के….. झाड़ू-बुहारी के….. धुनाई-धुलाई के….. बुरे दिन शुरू किए थे कुन्ती के प्लास्टर के सातवें सप्ताह ने….. जब उस के पैर का प्लास्टर काटा गया था और टखने के नए एक्स-रे लिए गए थे| जिन्हें देखते ही डॉ. दुर्गादास गम्भीर हो लिए थे “मालूम होता है इस लड़की के पैर को पूरा आराम नहीं मिल पाया| जभी इसकी फ़िबुला की यह प्रक्षेपीय हड्डी में लियोलस और टिबिया की दोनों प्रक्षेपीय हड्डियाँ मैलिलायी ठीक से जुड़ नहीं पायी हैं| उनकी सीध मिलाने के निमित्त सर्जरी अब अनिवार्य हो गयी है| टखने में रिपोसिशनिंग पुनः अवस्थापन, अब मेटल प्लेट्स और पेंच के माध्यम ही से सम्भव हो पाएगा….. तभी ओ.आर.आए.एफ. (ओपन रिडक्शन एंड इन्टरनल फिक्सेशन) के बिना कोई विकल्प है … Read more

बाहें

  माता और पिता दोनों का हमारे जीवन में बहुत महत्व है | जहाँ माँ धरती है जो जीवन की डोर थाम लेती है वही पिता आकाश जो बाहर आने वाली हर मुसीबत पर एक साया बन के छा जाते हैं | तभी तो नन्हीं बाहें हमेशा सहारे के लिए पिता की बाहें खोजती हैं | पर अगर …   पढ़िए मार्मिक कहानी – बाहें  चालीसवां सावन चल रहा था तृप्ति का, पर ज़िन्दगी चार दिन के सुकून के लिए तरस गयी थी आजकल. एक के बाद एक कहर बरपा हो रहा था तृप्ति की ज़िन्दगी में. दो बच्चों को अकेले पालने की ज़िम्मेवारी छोटी बात होती, फिर भी तृप्ति ने कभी उन्हें पिता की कमी महसूस नहीं होने दी. उनकी हर ज़रुरत को अपनी सामर्थ्य के अनुसार इस तरह पूरा किया कि अच्छे-भले सब साधनों से संपन्न व् सुखी कहे जाने वाले दम्पत्तियों के बच्चे भी उसके बच्चों – मन्नत और मनस्वी से जलते थे. हर क़दम पर नित-नई परेशानियां आई पर हर परेशानी उसे और भी मज़बूत करती चली गयी. दुनिया की तो रीत है कि सामाजिक दृष्टि से ‘बेचारा’ कहा जाने वाला यदि सर उठा कर स्वाभिमान से यानि बिना दुनिया कि मदद के आगे बढ़ने की जुर्रत करे तो उसे सुहाता नहीं है, और यदि वो कामयाब भी होता नज़र आये तो इस क़दर सबकी नज़रों में खटकता  है कि वही दुनिया जो कुछ समय पहले उसके पहाड़ से दुःख को देखकर सहानुभूति प्रकट करते हुए उस ‘बेचारे’ को हर संभव सहायता का वचन देते नहीं थकती थी, वही दुनिया उसकी राहों में हरदम- हरक़दम पर रोड़ा अटकाने से बाज़ नहीं आती. दुनिया ने अपनी रीत बखूबी निभायी. अभी दो महीने पहले ही मन्नत ने ग्यारहवीं में प्रवेश लिया. तृप्ति को आजकल के प्रतियोगितावादी युग के रिवाज़ के मुताबिक़ उसकी विज्ञान और गणित कि ट्यूशन्स लगानी पड़ी. और क्योंकि मन्नत पढ़ाई में बहुत होशियार थी उसे ऊंचे स्तर कि ट्यूशन्स दिलवाई तृप्ति ने – उस सेंटर में जो शहर से थोड़ा बाहर पड़ता था. नज़दीक ऐसे स्तर का कोई भी सेंटर न था. बेटी को आने जाने में किसी पर आश्रित न रहना पड़े, इसलिए उसे स्कूटी भी लेकर दी. सर्दियों में तो पांच बजे ही सूरज छिप जाता है, अतः जब ६ बजे कि ट्यूशन ख़त्म कर के साढ़े छह बजे घर पहुँचती थी मन्नत तो अन्धेरा हो चुका होता था. छोटे शहर की निवासी बेचारी तृप्ति बेटी के घर पहुंचने तक किसी तरह दिल की धड़कनों को समेटती घडी-घडी दरवाज़े को निहारती रहती और उसके घर आने पर ही चैन की सांस लेती. पर तृप्ति का चैन, मोहल्ले वालों की बेचैनी का कारण था. आखिर बच्ची जवान जो होने लगी थी. सो  देर-सवेर उसके देर से घर आने पर लगी बातें बनने – ‘आज तो पीछे कोई बैठा था…’, ‘आज पूरे दस मिनट देरी से आई…’, ‘हद्द है इसकी माँ की… अरे हम तो सब होते हुए भी कभी न इजाज़त दें बेटी को इत्ती देर से अँधेरे में घर आने की’, ‘बाप नहीं रहता न साथ में तभी…’, ‘अपनी ज़िन्दगी का किया सो किया, इस अच्छी खासी छोरी को बिगड़ैल बनाकर ही छोड़ेगी ये औरत’. ओह… ! चीखें मार मार कर रोने को जी चाहता था तृप्ति का. अभी तक तो उस पर ही अकेले रहने की बाबत ताने दिए जाते थे – ‘जाने क्या क्या करना पड़ता होगा बिचारी को इतनी सुख सुविधाएं जुटाने के लिए, अब एक नौकरी में तो इत्ती ऐश से कोई न रह सके…’, ‘ अरे भाई, इन तलाकशुदा औरतों को ऐश के बगैर नहीं सरता जभी तो अलग होती हैं…’, ‘ कल तो वो … हाँ-हाँ वही ऑफिस वाला, लम्बा सा, पूरा एक घंटे के क़रीब अंदर ही था…’ ‘खैर… हमें क्या, उसकी ज़िन्दगी है – वो जाने…’ आदि. अब उसकी बच्ची को भी निशाना बना लिया इन्होने… हे भगवान! रूह काँप जाती थी तृप्ति की अपनी चार साल की शादीशुदा ज़िन्दगी के बारे में सोच कर. अपने बच्चों के बाप के बारे में तो सोच कर भी ग्लानि हो आती थी उसे. अगर आज वो साथ होता तो शायद अपनी मन्नत पर ही बुरी नज़र… ??? और मंन ही मंन अपने तलाक़शुदा होने पर गर्व होने लगा उसे और अपने मंन को पत्थर सा ठोस व इरादों को पहले से भी कहीं अधिक मज़बूत कर अपने बच्चों के सुनहरे भविष्य के बारे में सोचने लगी. जागती आँखों से कुछ अच्छा होने का सोचा भर था कि मनस्वी की दुर्घटना की खबर ले कर उसके दोस्त आ गए. उसका दोस्त आर्यन अपने पापा की नई मोटर बाइक उनसे बिना इजाज़त चला रहा था और मनस्वी को उसने अपने साथ ले लिया था. कच्ची उम्र में ही पक्की स्पीड का मज़ा ले रहे थे दोनों कि रिक्शा से टक्कर हो गयी. अब दोनों बच्चे अस्पताल में थे. राम राम करते अस्पताल पहुंचे तो पता चला कि मनस्वी कि दायीं टांग में फ्रैक्चर है. तीन महीने लगेंगे मनस्वी के प्लास्टर को उतरने में. हिम्मत – बहुत हिम्मत से काम ले रही है तृप्ति. नौकरी की जिम्मेवारियां निबाहती है, घर की ज़रूरतों को पूरा करती है, अपनी जवान होती मन्नत को (जो करियर बनाने के लिए सजग है)  प्रेरणा ही नहीं देती, डगमगाने पर संभालती भी है. किशोरावस्था की दहलीज पर खड़े घायल मनस्वी की सेवा सुश्रुषा से ले कर उसके मनोबल को बढ़ाने तक का सारा ज़िम्मा संभालती है. और सबसे बढ़कर दोनों बच्चों को जब-तब अपनी बाहों में भरकर जो सुरक्षा का भाव वह उनके अंतरमन तक उनमे भर देती है वह अतुलनीय है. किन्तु स्वयं को उस सुरक्षित कर देने वाले भाव से सदा अछूता  ही पाया उसने. उस भाव के लिए स्वयं क्या उसके जीवन में तरसना ही लिखा है? हर तन-मन की टूटन-थकन पर उसका भी मन होता है कि वो स्वयं को किसी आगोश में छिपा कर कुछ देर सिसक ले, कुछ अपना दर्द स्थानांतरित कर दे और कुछ सुकून आत्मसात कर नई शक्ति अर्जित कर फिर कूद पड़े दुनिया के रणक्षेत्र में. बचपन में तो हर छोटी-बड़ी मुसीबत पर पापा अपनी बाहें पसारे सदैव यूं खड़े नज़र आते थे जैसे अल्लादीन का जिन्न अपने आका के याद करते ही ‘हुकुम मेरे आका’ … Read more