लापता लेडीज- पहचान गुम हो जाने से लेकर अस्तित्व को खोजती महिलाएँ

लापता लेडीज

  हालांकि मैं फिल्मों पर नहीं लिखती हूँ, पर बहुत दिनों बाद ऐसी फिल्म देखी जिस पर बात करने का मन हुआ l लापता लेडीज ऐसी ही फिल्म है, जिसमें इतनी सादगी से, इतने करीने से, एक ‘स्त्री जीवन से जुड़े” महत्वपूर्ण मुद्दों को उठाया जा सकता है, ये फिल्म देखकर पता चलता है l फिल्म देखकर आपको कहीं नहीं लगता कि कोई फिल्म देख रहे हैं l एक सहज जीवन जो आपके सामने परदे पर घट रहा है, कभी आप उसका पात्र हो जाते हैं तो कभी पात्रों को रोक कर गपियाने का मन करता है l जी हाँ ! फिल्म लेकर आई है एक टटका लोक जीवन, बोली और परिवेश के साथ और साथ में सस्पेंस और हास्य l फिल्म की खास बात है कि इसमें कोई नायक नहीं, कोई खलनायक नहीं, अगर कोई खलनायक है तो परिस्थितियाँ l कहानी के केंद्र में है घूँघट, पति का नाम ना लेना, और  पढ़ी लखी होने के बावजूद अकेले कहीं आने- जाने में असमर्थता l यही कहानी का कारण हैं, यही विलेन भी है l ‘घूँघट मात्र चेहरा नहीं छुपाता, बल्कि वो पहचान और व्यक्तित्व भी छीन लेता है l लापता लेडीज- पहचान गुम हो जाने से लेकर अस्तित्व को खोजती महिलाएँ यूँ तो कहानी 2001 की है l पर सच कहें तो अभी भी देश के सारे गाँव रेलवे लाइन से जुड़े हुए नहीं हैं l ऐसे ही एक गाँव में एक लड़की फूल की शादी दीपक से होती है l शादी के बाद मायके वाले फूल और दीपक को किसी देवी की पूजा के लिए रोक देते हैं और बारात वापस लौट जाती है l अब दो दिन बाद फूल की विदा होती है, तो लंबा घूँघट किए, और हाथों में सिधौरा पकड़े फूल, दीपक के साथ बस से, टेम्पो से, नदी पार करके,  ट्रेन में सवार होती है l पर वहाँ वैसा ही लाल जोड़ा पहने तीन और नई दुल्हने हैं l क्योंकि सुपर सहालग का दिन था l हम लोग पढ़ते रहते हैं न कि आज के दिन इस शहर में इतनी शादियाँ  हुई l खैर अब  जगह बना कर फूल को तो बैठा दिया जाता है पर दीपक बाबू खड़े ही रह जाते हैं l ट्रेन का दृश्य बड़ा शानदार है l  सब अपने -अपने को मिले दहेज के बारे में शान से बता रहे हैं , और जिसको दहेज नहीं मिला, मने लड़के में कुछ खोंट है l खैर सुबह 4 बजे अंधेरे में एक बैठे -बैठे सो रही अपनी पत्नी को जगाता है और घर पहुंचता है l घर में स्वागत आरती के समय जब दुल्हन घूँघट उठाती है तो … वो तो कोई और है l वो एक दूसरे जोड़े की दुल्हन  पुष्पा है l जिसे अपने पति का नाम तो पता है पर उसके गाँव का नाम नहीं पता l मायके के गाँव का नाम पता है, फोन नंबर भी पता है … पर और कुछ नहीं पता l शुरुआती रुलाई धुलाई के बाद फूल को खोजने की कोशिशे होती हैं l पुष्पा को उसके ससुराल भेजने की भी l दीपक पुष्पा को लेकर जब थाने में रिपोर्ट लिखाने जाता है तो थानेदार को कुछ शक होता है l उसे लगता है कि पुष्पा लुटेरी दुल्हन गैंग का हिस्सा है l और फिल्म देखते हुए हमें भी ऐसा ही लगता है l थानेदार उसका पीछा करता है, पुष्पा के कई एक्शन संदेहास्पद लगते हैं और दर्शक दिल थाम कर बैठे रहते हैं l उधर फूल किसी अनजान स्टेशन पर उतरती है l पति का नाम वो ले नहीं सकती गाँव का नाम उसे मालूम नहीं है, बस इतना पता है कि वो किसी फूल के नाम पर है l थाना उसे जाना नहीं है l क्योंकि पति ने उससे कहा था कि छोटा दुख गहना खोना, और बड़ा दुख थाना l लेकिन यहाँ भी अच्छे लोग मिलते हैं, उसे मिलती है, मंजु माई, भिखारी अब्दुल और छोटू, जो मंजु माई  के चाय पकौड़ों की दुकान पर काम करता है और अपने पैसे घर में भेजता है l चाइल्ड लेबर पर तमाम कानून के बावजूद ये जमीनी हकीकत है l शैलेश लोढ़ा का एक वीडियो है कि… हम भारतीय किसी चाय के टप्पे पर बैठ कर बच्चों से काम कराने वालों को कोसते हैं और फिर अखबार के पन्ने पलटते हुए आवाज़ लगाते हैं, “ए छोटू जरा तीन कप चाय दे जाना l” खैर फूल के मददगार के रूप में छोटू और अब्दुल तो अच्छे लगते हैं ही l सबसे अच्छा करेकतेर है मंजु माई का l स्त्री विमर्श से संबंधित सारे डायलॉग लगभग वही बोलती हैं l जैसे – “अकेले रहना कठिन है, पर एक बार ये आ गया तो कोई नहीं डरा सकता” “जो तुम्हारी रक्षा नहीं कर सकता, उसकी रक्षा तुम चार दान पोटली में बांध कर करोगी ?” “लड़कियों को पढ़ लिखा भले ही दें पर रास्ते पर अकेले चलना नहीं सिखाते, इतना लाचार तो रखते हैं कि अगर खो जाए तो अकेले ढूँढ- ढाँढ़ कर घर ना पहुँच सकें l “औरतें अकेले घर चला सकती हैं, औरतें बाहर जा कर अकेले पैसे भी कमा सकती हैं और बच्चे भी पैदा कर सकती हैं, उन्हें पाल भी सकती हैं… पर ये बात औरतों को नहीं पता है, और उनसे ये बात छिपाई जाती है l क्योंकि अगर औरतों को ये बात पता चल गई तो वो मर्दों की सुनेंगी नहीं l कुछ अन्य डायलॉग जो तंज या हास्य के रूप में आए प्रभावित करते हैं l     “बुड़बक हो जाना बुरी बात नहीं है, बुड़बक हो जाने को अच्छा मान लेना बुरी बात है l” घूँघट में तो केवल जूते ही दिखते हैं …   तो फिर जूते से ही पहचान लेना था l वहीं … “फूल के नाम पर गाँव है l सारे फूल तो गिन डाले एकदम भौरा ही बना दिया है l” “इतनी देर मंदिर में लगा दी, ससुराल जाए का है या स्वर्ग l” वहीं आशा जगाता एक डायलॉग बहुत अच्छा लगा – “ भगवान करे वो अच्छी हो, जो सहेली बन के रह सके l  हम देवरानी जिठानी तो सब बन जाति हैं पर सहेली नहीं बन पाती l” वास्तव में हमें … Read more