पूर्वा- कहानी किरण सिंह

“जिस घर में भाई नहीं होते उस घर कि लड़कियाँ मनबढ़ होती हैंl” उपन्यासिक कलेवर समेटे चर्चित साहित्यकार किरण सिंह जी की  कहानी ‘पूर्वा’  आम जिंदगी के माध्यम से रूढ़ियों की टूटती बेड़ियों की बड़ी बात कह जाती है l वहीं  बिना माँ की बेटी अपूर्व सुंदरी पूर्वा का जीवन एक के बाद एक दर्द से भर जाता है, पर हर बार वो जिंदगी की ओर बढ़ती है l  जीवन सुख- दुख का संयोग है l दुख तोड़ देते हैं पर हर दुख के बाद जिंदगी को चुनना ही हमारा उद्देश्य हो का सार्थक सकारात्मक दृष्टिकोण देती है ये कहानी l वहीं  ये कहानी उन सैनिकों की पत्नियों के दर्द से भी रूबरू कराती है, जो सीमा पर हमारे लिये युद्ध कर रहे हैं l सरल – सहज भाषा में गाँव का जीवन शादी ब्याह के रोचक किस्से जहाँ पाठक को गुदगुदाते हैं, वहीं भोजपुरी भाषा का प्रयोग कहानी के आस्वाद को बढ़ा देता है l तो आइए मिलते हैं पूर्वा से – पूर्वा- कहानी किरण सिंह प्रति वर्ष की भांति इस वर्ष भी गणतंत्र दिवस के पूर्व संध्या पर संदूक से तिरंगा को निकालते हुए पूर्वा के हृदय में पीड़ा का सैलाब उमड़ आया और उसकी आँखों की बारिश में तिरंगा नहाने लगा । पूर्वा तिरंगा को कभी माथे से लगा रही थी तो कभी सीने से और कभी एक पागल प्रेमिका की तरह चूम रही थी ।ऐसा करते हुए वह अपने पति के प्रेम को तो महसूस कर रही थी लेकिन लग रहा था कलेजा मुह को आ जायेगा। यह तिरंगा सिर्फ तिरंगा ही नहीं था। यह तो उसके सुहाग की अंतिम भेंट थी जिसमें  उसके पति  लेफ्टिनेंट कर्मवीर मिश्रा का पार्थिव शरीर  लिपटकर आया था। तिरंगा में वह अपने पति के देह की अन्तिम महक को महसूस कर रही थी जो उसे अपने साथ – साथ अतीत में ले गईं । पूर्वा और अन्तरा अपने पिता ( रामानन्द मिश्रा) की दो प्यारी संतानें थीं। बचपन में ही माँ के गुजर जाने के बाद उन दोनों का पालन-पोषण उनकी दादी आनन्दी जी ने किया था। बहु की मृत्यु से आहत आनन्दी जी ने अपने बेटे से कहा – “बबुआ दू – दू गो बिन महतारी के बेटी है आ तोहार ई दशा हमसे देखल न जात बा। ऊ तोहार बड़की माई के भतीजी बड़ी सुन्नर है। तोहरा से बियाह के बात करत रहीं। हम सोचली तोहरा से पूछ के हामी भर देईं।” रामानंद मिश्रा ने गुस्से से लाल होते हुए कहा – “का माई – तोहार दिमाग खराब हो गया है का? एक बात कान खोल कर सुन लो, हम पूर्वा के अम्मा का दर्जा कौनो दूसरी औरत को नहीं  दे सकते। पूर्वा आ अन्तरा त अपना अम्मा से ज्यादा तोहरे संगे रहती थीं। हम जीते जी सौतेली माँ के बुला के आपन दूनो बेटी के  अनाथ नहीं कर सकते ।” आनन्दी जी -” हम महतारी न हईं। तोहार चिंता हमरा न रही त का गाँव के लोग के रही। काल्ह के दिन तोहार दूनो बेटी ससुराल चल जइहें त तोहरा के कोई एक लोटा पानी देवे वाला ना रहिहें। हमार जिनगी केतना दिन के है। ” रामानंद मिश्रा – “माई तू हमार चिंता छोड़के पूर्वा आ अन्तरा के देख।” बेटे की जिद्द के आगे आनन्दी जी की एक न चली। अपनी दादी की परवरिश में पूर्वा और अन्तरा बड़ी हो गईं। अब आनन्दी को उनके विवाह की चिंता सताने लगी। यह बात उन्होंने अपने बेटे से कही तो उन्होंने कहा – “माई अभी उमर ही का हुआ है इनका? अभी पढ़ने-लिखने दो न।” आनन्दी – “बेटा अब हमार उमर बहुते हो गया। अउर देखो बुढ़ापा में ई कवन – कवन रोग धर लिया है। इनकी मैया होती त कौनो बात न रहत। अऊर बियाह बादो त बेटी पढ़ सकत है। का जानी कब भगवान के दुआरे से हमार बुलावा आ जाये। माँ की बात सुनकर पूर्वा के पिता भावनाओं में बह गये और उन्होंने अपनी माँ की बात मान ली। अब वह पूर्वा के लिए लड़का देखने लगे। तभी उनकी रजनी (पूर्वा की मौसी) का फोन आया – “पाहुन बेटी का बियाह तय हो गया है। आप दोनो बेटियों को लेकर जरूर आइयेगा। रामानन्द मिश्रा -” माई का तबियत ठीक नहीं रहता है इसलिए हम दूनो बेटी में  से एकही को ला सकते हैं। ” रजनी -” अच्छा पाहुन आप जइसन ठीक समझें। हम तो दूनो को बुलाना चाहते थे, बाकिर……… अच्छा पूर्वा को ही लेते आइयेगा, बड़ है न। रामानंद मिश्रा – हाँ ई बात ठीक है, हम आ जायेंगे, हमरे लायक कोई काम होखे त कहना। ” रजनी -” न पाहुन, बस आप लोग पहिलहिये आ जाइयेगा। हमार बेटी के बहिन में  अन्तरा अउर पूर्वे न है। रामानंद मिश्रा – ठीक है – प्रणाम। पूर्वा अपने पिता के संग बिहार के आरा जिला से सटे एक गाँव में अपनी मौसेरी बहन शिल्पी की शादी में पहुंच गई । सत्रह वर्ष की वह बाला गज्जब की सुन्दर व आकर्षक थी। तीखे – तीखे नैन नक्स, सुन्दर – सुडौल शरीर, लम्बे – लम्बे घुंघराले केश, ऊपर से गोरा रंग किसी भी कविमन को सृजन करने के लिए बाध्य कर दे। मानो  ब्रम्ह ने उसको गढ़ने में अपनी सारी शक्ति और हुनर का इस्तेमाल कर दिया हो। ऊपर से उसका सरल व विनम्र स्वभाव एक चुम्बकीय शक्ति से युवकों को तो अपनी ओर खींचता ही था साथ ही उनकी माताओं के भी मन में भी उसे बहु बनाने की ललक जगा देता था। लेकिन पूर्वा इस बात से अनभिज्ञ थी। अल्हड़ स्वभाव की पूर्वा चूंकि दुल्हन की बहन की भूमिका में थी इसलिए  विवाह में सरातियों के साथ – साथ बारातियों की भी केन्द्र बिन्दु थी। गुलाबी लहंगा-चोली पर सिल्वर कलर का दुपट्टा उसपर बहुत फब रहा था । उस पर भी सलीके से किया गया मेकप उसके रूप लावण्य को और भी निखार रहा था। ऐसे में किसी युवक का दिल उस पर आ जाना स्वाभाविक ही था। दुल्हन की सखियाँ राहों में फूल बिछा रही थीं और पूर्वा वरमाला के लिए दुल्हन को स्टेज पर लेकर जा रही थी। सभी की नज़रें दुल्हन को देख रही थी लेकिन एक नज़र पूर्वा पर टिकी हुई थी। … Read more

सुनो कहानी नई पुरानी -कहानियों के माध्यम से बच्चों को संस्कृति से जोड़ने का अभिनव प्रयास

“मम्मी इस घर का एक रूल बना दीजिए कि चाहे जो भी हो जाए इस फॅमिली का कोई मेम्बर एक-दूसरे से बात करना बंद नहीं कर सकता है l” यूँ तो साहित्य लेखन ही जिम्मेदारी का काम है पर बाल साहित्य के कंधे पर यह जिम्मेदारी कहीं ज्यादा महती है क्योंकि यहाँ पाठक वर्ग एक कच्ची स्लेट की तरह है, उसके मन पर जो अंकित कर दिया जाएगा उसकी छाप से वो जीवन भर मुक्त नहीं हो सकता l आज इंटरनेट पीढ़ी में जब दो ढाई महीने के बच्चे को चुप कराने के लिए माँ मोबाइल दे देती है तो उसे संस्कार माता-पिता से नहीं तमाम बेहूदा, ऊल-जलूल रील्स या सामग्री से मिलने लगते हैं l ऐसे में बाल साहित्य से बच्चों को जोड़ना क कड़ी चुनौती है l जहाँ उन्हें मनोरंजन और ज्ञान दोनों मिले l किरण सिंह जी के बाल साहित्य के लेखन में ये अनुपम समिश्रण देखने को मिलता है l बाल साहित्य पर उनकी कई पुस्तकें आ चुकी हैं और सब एक से बढ़कर एक है l उनका नया बाल कहानी संग्रह “सुनो कहानी नई पुरानी” इसी शृंखला की एक महत्वपूर्ण कड़ी है l सुनो कहानी नई पुरानी -कहानियों के माध्यम से बच्चों को संस्कृति से जोड़ने का अभिनव प्रयास   संग्रह के आरंभ में बच्चों को लिखी गई चिट्ठी में वो अपनी मंशा को स्पष्ट करते हुए लिखती हैं कि, “कहानियाँ लिखते समय एक बात मन मिएन आई, क्यों नाइन कहानियों के माध्यम से आपको संस्कृति से जोड़ा जाएl” वनिका पब्लिकेशन्स से प्रकाशित 64 पेज के इस बाल कहानी संग्रह में 14 कहानियाँ संकलित हैं l जैसा की नाम “सुनो कहानी नई पुरानी” से स्पष्ट है किरण सिंह जी ने इस बाल् कहानी संग्रह कुछ नई कहानियों के माध्यम से और कुछ पौराणिक कहानियों के माध्यम से बच्चों को अपनी संस्कृति से जोड़ने का अभिनव प्रयास किया है l इससे पहले वो ‘श्री राम कथमृतम के द्वारा सरल गेय छंदों में श्री राम के जीवन प्रसंगों को बच्चों तक पहुँचाने का महत्वपूर्ण काम कर चुकी हैं l कहीं ना कहीं पाश्चात्य संभयता और संस्कृति के बढ़ते प्रभाव के कारण बच्चे अपने पूर्वजों के गौरव को भूलते जा रहे हैं l हमने वो समय भी देखा है, जब ये व्यंग्य खूब प्रचलित था बच्चे ये प्रश्न करते हैं कि, “सीता किसका बाप था ?” बात हँस कर टालने की नहीं, अपितु गंभीर चिंतन की थी क्योंकि व्यंग्य समाज की विसंगतियों पर प्रहार ही होते हैं l पर दुर्भाग्य से इस ओर विशेष कदम नहीं उठाए गए l एक क्रूर सच्चाई ये भी है कि आज के माता- पिता को खुद ही नहीं पता है तो वो बच्चों को क्या बताएंगे l किरण सिंह जी इसे एक बहुत ही रोचक अंदाज में कहानियों के माध्यम से बुना है lफिर चाहें वो दीपावली क्यों मनाई जाती है ? मीरा का श्याम में अद्भुत विलय हो या जिज्ञासु नचिकेता के बाल सुलभ प्रश्न पूछने और जिज्ञासाओं को शांत कर ज्ञान अर्जित करने की कथा हो l हर कथा को इस तरह से बुना गया है कि आज के बच्चे जुड़ सकें l जैसे कृष्ण-सुदामा की कहानी वहाँ से शुरू होती है, जहाँ दक्ष अपने दोस्त की शिकायत करता है कि वो उसका टिफिन खा जाता है l वो उसे मोंटू भी कहता है l माँ कृष्ण सुदामा के माध्यम से दोस्ती के अर्थ बताती हैं l दक्ष को समझ आता है और उसे अपनी गलती का अहसास भी होता है कि उसे अपने दोस्त को “मोंटू” नहीं कहना चाहिए, उसे उसके नाम ‘वीर’ से ही बुलाना चाहिए l वहीं दक्ष की बर्थ डे पार्टी में आया वीर भी वादा करता है कि वो अब दूसरे बच्चों का टिफिन नहीं खाएगा बल्कि खेल कूदकर योग करके खुद को पतला करने की कोशिश करेगा l ये कहानी मुझे इस लिए बेहद अच्छी लागि क्योंकि इसमें कृष्ण-सुदामा की कथा के माध्यम से दोस्ती के सच्चे अर्थ तो बताए ही, बच्चों को किसी दूसरे पर कोई टैग लगाने या बॉडी शेमिंग की प्रवत्ति पर भी प्रहार है l वहीं स्वास्थ्यकर खाने और योग से फिट रहने की समझ पर भी जोर दिया गया है l इस संग्रह में केवल पुरानी कहानियाँ ही नहीं हैं कुछ बिल्कुल आज के बच्चों, और आज के समय को रेखांकित करती कहानियाँ भी हैं l जैसे रौनक ने अपने छोटे भी चिराग के बात-चीत बंद कर दी l छोटू चिराग से भैया की ये चुप्पी झेली नहीं गई l अब बंद बातों के तार जुड़ें कैसे ? लिहाजा उसने मम्मी से गुजारिश कर घर में ये रूल बनवा दिया कि घर में किसी का किसी से झगड़ा हो जाए तो कोई बात-चीत बंद नहीं करेगा l वहीं रौनक ने भी रूल बनवा दिया कि “कोई किसी की चुगली नहीं करेगा l”यहाँ लेखिका बच्चों के मन में ये आरोपित कर देती हैं कि आपसी रिश्तों को सहज सुंदर रखने के लिए संवाद बहुत जरूरी है l “कुछ दाग आच्छे होते हैं कि तर्ज पर कहूँ तो “ऐसे रूल भी अच्छे होते हैं l” रोज रात में दादी की कहानी सुनने की आदी गौरी के माता-पिता जब दादी की तबीयत खराब होने पर गौरी को कहानी ना सुनाने को कहते हैं ताकि उनके ना रहने पर गौरी के कोमल मन पर असर ना पड़ें तो दादी चुपक से टेक्नोलॉजी का सहारा लेकर अपनी कहानियों को पोती के लिए संरक्षित कर देती हैंl यह प्रयोग मन को भिगो देता है l नए जमाने के साथ चलती ये कहानी बाल मन के साथ साथ बुजुर्गों को भी अवश्य बहाएगी और दिशा देगी l बाल कहानियाँ लिखते हुए किरण सिंह जी ने इस बात में पूरी सतर्कता रखी है कि भाषा, शिल्प, शैली आज के बच्चों के अनुरूप हो l कहानी में छोटे-छोटे, रोचक, और बहुत सारे संवादों का प्रयोग कर उसकी पठनीयता को बढ़ाया है l हर कहानी में मजे- मजे में एक शिक्षा नत्थी करके बाल मन को संस्कारित करने का प्रयास किया है l वनिका पब्लिकेशन की मेहनत संग्रह में साफ दिखती है l कागज़, बच्चों को आकर्षित करते चित्र और प्रूफ रीडिंग हर दिशा में नीरज जी और उनकी टीम की मेहनत स्पष्ट नजर आती है l कवर … Read more

अंतर्ध्वनि-हमारे समकाल को दर्शाती सुंदर सरस कुंडलियाँ

अंतर्ध्वनि

लय, धुन, मात्रा भाव जो, लिए चले है साथ दोहा रोला मिल करें, छंद कुंडली नाद छंद कुंडली नाद, लगे है मीठा प्यारा सब छंदों के बीच, अतुल, अनुपम वो न्यारा ज्यों शहद संग नीम, स्वाद को करती गुन-गुन जटिल विषय रसवंत, करे छंदों की लय धुन वंदना बाजपेयी दोहा और रोला से मिलकर बने, जहाँ अंतिम और प्रथम शब्द एक समान हो .. काव्य की ये विधा यानी कुंडलियाँ छंद मुझे हमेशा से आकर्षित करते रहे हैं | इसलिए आज जिस पुस्तक की बात करने जा रही हूँ, उसके प्रति मेरा सहज खिंचाव स्वाभाविक था| पर पढ़ना शुरू करते ही डूब जाने का भी अनुभव हुआ | तो आज बात करते हैं किरण सिंह जी द्वारा लिखित पुस्तक “अंतर्ध्वनि” की | अंतर्ध्वनि-हमारे समकाल को दर्शाती सुंदर सरस कुंडलियाँ लेखिका -किरण सिंह जानकी प्रकाशन द्वारा प्रकाशित एक बेहद खूबसूरत कवर के अंदर समाहित करीब दो सौ कुंडलियाँ कवयित्री के हृदय की वो अंतर्ध्वनि है जो हमारे समकाल से टकराकर उसके हृदय को ही गुंजायमान नहीं करती अपितु पाठक को भी आज के समय का सत्य सारस सुंदर तरीके से समझा कर कई नई परिभाषाएँ गढ़ती है | अपनी गेयता के कारण कुंडलियाँ छंद विधा जितनी सरस लगती है उसको लिखना उतना ही कठिन है | वैसे छंद की कोई भी विधा हो, हर विधा एक कठिन नियम बद्ध रचना होती है | जिसमें कवि को जटिल से जटिल भावों को नियमों की सीमाओं में रहते हुए ही कलम बद्ध करना होता है | ये जीवन की जटिलता थी या काव्य की, जिस कारण कविता की धारा छंदबद्ध से मुक्त छंद की ओर मुड़ गई | कहीं ना कहीं ये भी सच है की मुक्तछंद लिखना थोड़ा आसान लगने के कारण कवियों की संख्या बढ़ी .. लेकिन प्रारम्भिक रचनाएँ लिखने के बाद समझ आता है की मुक्त छंद का भी एक शिल्प होता है जिसे साधना पड़ता है | और लिखते -लिखते ही उसमें निखार आता है | अब प्रेम जैसे भाव को ही लें .. कहत, नटत, रीझत, खिझत, मिलत, खिलत, लजि यात। भरे भौन मैं करत हैं, नैननु ही सब बात॥ बिहारी —— प्यार किसी को करना लेकिन कह कर उसे बताना क्या अपने को अर्पण करना पर और को अपनाना क्या हरिवंश राय बच्चन ——– चम्पई आकाश तुम हो हम जिसे पाते नहीं बस देखते हैं ; रेत में आधे गड़े आलोक में आधे खड़े । केदारनाथ अग्रवाल तीनों का अपना सौन्दर्य है | पर मुक्त छंद में भी शिल्प का आकाश पाने में समय लगता है और छंद बद्ध में कई बार कठिन भावों को नियम में बांधना मुश्किल | जैसा की पुस्तक के प्राक्कथन में आदरणीय भगवती प्रसाद द्विवेदी जी रवींद्र उपाध्याय जी की पंक्तियाँ के साथ कहते हैं की तपन भरा परिवेश, किस तरह इसको शीत लिखूँ जीवन गद्ध हुआ कहिए कैसे गीत लिखूँ ? “मगर इस गद्य में जीवन में छंदास रचनाओं की जरूरत शिद्दत से महसूस की जा रही है, जो कभी पाठक को आंदोलित करे तो कभी अनुभूतिपरक मंदिर फुहार बन शीतलता प्रदान करे |” शायद ऐसा ही अंतरदवंद किरण सिंह जी के मन में भी चल रहा होगा तभी बिहार हिंदी साहित्य सम्मेलन के अध्यक्ष श्री अनिल सुलभ जी के छंद बद्ध रचना लिखने को प्रेरित करने पर उन्होंने छंद बद्ध रचना को विवहित और छंद मुक्त रचना को लिव इन रेलेशन शिप की संज्ञा देते हुए एक बहुत खूबसूरत कविता की रचना की है | जिसे “अपनी बात” में उन्होंने पाठकों से साझा किया है | लिव इन रिलेशनशिप भी एक कविता ही तो है छंद मुक्त ना रीतिरिवाजों की चिंता न मंगलसूत्र का बंधन न चूड़ियों की हथकड़ी न पहनी पायल बेड़ी खैर ! किरण सिंह जी की मुक्त छंद से छंद बद्ध दोहा , कुंडली, गीत आदि की यात्रा की मैं साक्षी रही हूँ और हर बार उन्होंने अपनी प्रतिभा का लोहा पाठकों को मनवाया है | भाव प्रवणता और भाषा दोनों पर पकड़ इसमें उनकी सहायक बनी है | इस पुस्तक की शुरूआत “समर्पण” भी लेखक पाठक रिश्ते को समर्पित एक सुंदर कुंडलिया से की है | लेखक पाठकों की भावनाओं को शब्द देता है और पाठक की प्रतिक्रियाएँ उसे हर्षित हो कर बार -बार शब्द संसार रचने का साहस , देखिए तेरा तुझको अर्पण वाला भाव …. अर्पित करने मैं चली, लेकर अक्षर चंद | सज्ज हो गई भावना, बना पुन: नव छंद | बना पुन :नव छंद, लेखनी चली निरंतर | मुझको दिया समाज हमेशा नव -नव मंतर | देती है सो आज , किरण भी होकर हर्षित | रचनाओं का पुष्प गुच्छ है तुमको अर्पित || शुरुआती पृष्ठों पर प्रथम माता सरस्वती की आराधना करते हुए अन्य देवी देवताओं को प्रणाम करते हुए उन्होंने सूर्यदेव से अपनी लेखनी के लिए भी वरदान मांगा है .. लेकिन यहाँ व्यष्टि में भी समष्टि का भाव है | हर साहित्यकार जब भी कलम उठाता है तो उसका अभिप्राय यही होता है की जिस तरह सूर्य की जीवनदायनी किरणें धरती पर जीवन का कारक हैं उसे प्रकार उसकी लेखनी समाज को दिशा दे कर जीवन की विद्रूपताओं को कुछ कम कर सके , चाहे इसके लिए उसे कितना भी तपना क्यों ना पड़े | मुझको भी वरदान दो, हे दिनकर आदित्य | तुम जैसा ही जल सकूँ, चमकूँ रच साहित्य | चमकूँ रच साहित्य, कामना है यह मेरी | ना माँगूँ साम्राज्य, न चाहूँ चाकर चेरी | लिख -लिख देगी अर्घ्य किरण, रचना की तुमको | कर दो हे आदित्य, तपा कर सक्षम मुझको || अभी हाल में हमने पुरुष दिवस मनाया था | वैसे तो माता पिता में कोई भेद नहीं होता पर आज के पुरुष को कहीं ना कहीं ये लगता है की परिवार में उसके किए कामों को कम करके आँका जाता है | यहाँ पिता की भूमिका बताते हुए किरण जी बताती है कि बड़े संकटों में तो पिता ही काम आते हैं | मेरा विचार है की इसे पढ़कर परिवार के अंदर अपने सहयोग को मिलने वाले मान की पुरुषों की शिकायत कम हो जाएगी … संकट हो छोटा अगर, माँ चिल्लाते आप आया जो संकट बड़ा, कहें बाप रे बाप | कहें बाप रे बाप, बचा लो मेरे दादा | सूझे … Read more

श्री राम के जीवन मूल्यों की धरोहर बच्चों को सौंपती -श्री राम कथामृतम 

श्री राम कथामृतम

      “ राम तुम्हारा चरित स्वंय ही काव्य है,   कोई कवि बन जाय सहज संभाव्य है।“                        मैथिली शरण गुप्त    दशरथ पुत्र राम, कौसल्या नंदन राम, मर्यादा पुरुषोत्तम राम .. राम एक छोटा सा नाम जो अपने आप में अखिल ब्रह्मांड को समेटे हुए है| हिन्दू धर्म की मान्यता के अनुसार राम विष्णु का अवतार हैं | अवतार धरती पर तब ही अवतरित नहीं होते जब पाप बढ़ जाते हैं | अवतार के जन्म के पीछे सिर्फ मानव समाज का उद्धार ही नहीं बल्कि इसके पीछे उद्देश्य यह भी होता है कि साधारण मानव के रूप में जन्म ले कर उसे यह सिखा  सकें कि कि उसमें वो क्षमता है कि विपरीत परिस्थितियों का सामना कर ना सिर्फ हर बाधा पार कर सकता है अपितु  अपने अंदर ईशरत्व के गुण भी  विकसित कर सकता है | जन -जन के मन में व्याप्त राम हमारे धर्म का, इतिहास का हिस्सा है | कुछ लोग राम कथा को मिथक मानते हैं | फिर भी सोचने वाली बात है कि इतिहास हो या मिथक समकालीन वाल्मीकि से लेकर आज तक ना जाने कितनी कलमों ने, कितनी भाषाओं और कितनी शैलियों में, कितने क्षेपकों-रूपकों के साथ  राम कथा से अपनी कलम को पुनीत किया है |  सवाल ये उठता है कि, “आखिर क्या कारण है कि इतने युग बीत जाने के बाद भी राम कथा सतत प्रवाहमान है | इसका उत्तर एक ही है ..  श्री राम का चरित्र, जो सिखाता है कि एक साधारण मानव का चरित्र जीते हुए भी व्यक्ति कैसे ईश्वरीय हो जाता है | इतिहास की इस धरोहर को बार -बार कह कर सुन कर, पढ़कर हम उन गुणों को अपने वंशजों में पुष्पित -पल्लवित करना चाहते हैं | आज तक राम के चरित्र को लिखने में दो तरह की दृष्टियों का प्रयोग होता  रहा है | एक तार्किक दृष्टि दूसरी  भक्त की दृष्टि | तर्क और बौद्धिकता की दृष्टि किसी चरित्र को समझने के लिए जितनी जरूरी है, भक्त की दृष्टि उन गुणों को ग्रहण करने के लिए उतनी ही जरूरी है | भक्त की दृष्टि से लिखी गई  राम चरित मानस की लोकप्रियता इस बात की पुष्टि करती है |  घर -घर पढ़ी जाने वाली राम चरित मानस ने हमारे भारतीय परिवेश में धैर्य, सहनशीलता, क्षमा, परिवार में सामंजस्य आदि गुण तिरोहित होते रहे हैं | श्री राम के जीवन मूल्यों की धरोहर बच्चों को सौंपती -श्री राम कथामृतम  समय बदला और  इंटरनेट की खिड़की से पाश्चात्य सभ्यता व संस्कृति भी देश में आई | ग्लोबल विलेज के लिए ये जरूरी भी है और इसके कई सकारात्मक पहलू भी हैं पर “माता -पिता का आदर करो” के  स्थान पर “पापा डोन्ट प्रीच” बच्चों के सर चढ़ कर बोलने लगा | बड़ों का आदर कम हुआ, परिवार बिखरने लगे, बच्चों में असहनशीलता, अवसाद, अंकुरित होने लगे | घबराए माता-पिता ने संस्कार देने के लिए राम कथाओं की शरण लेनी चाही तो उनका नितांत अभाव दिखा | ऐसे में कि रण सिंह जी सुचिन्तित योजना के तहत बच्चों के लिए श्री राम कथामृतम ले कर आईं |   अपनी संस्कृति से बच्चों को जोड़ने के अभिनव प्रयास और सुंदर छंदबद्ध गेयता से समृद्ध इस पुस्तक को केन्द्रीय हिंदी संस्थान उत्तर प्रदेश के बाल साहित्य को दिए जाने वाले 2020 के सुर पुरुस्कार से सम्मानित किया गया है |   चैत मास की नवमी तिथि को  जन्म लिए थे राम  कथा सुनाती हूँ मैं उनकी  जपकर उनका नाम     अपने आत्मकथ्य में वो कहती हैं कि “कौन बनेगा करोंणपति” देखते हुए उन्हें यह अहसास हुआ कि राम के जीवन से संबंधित छोटे- छोटे प्रश्नों के उत्तर भी जब लोग नहीं बता पाते हैं तो राम के गुणों को अपने अंदर आत्मसात कैसे कर पाएंगे | उन्होंने एक साहित्यकार के तौर पर अपनी नैतिक जिम्मेदारी लेते हुए बच्चों को राम के चरित्र व गुणों से अवगत कराने का मन बनाया | क्योंकि बच्चे कविता को जल्दी याद कर लेते हैं इसलिए ये कथा उन्होंने बाल खंडकाव्य के रूप में प्रस्तुत की है |जिसमें 16 कथा प्रसंग  प्रांजल भाषा में लिखे गए हैं |    बाल रूप श्री राम                गुरुकुल में बच्चे कैसे रहते थे | मित्रता में राजा और -प्रजा बाधक नहीं थी | ये पढ़कर बच्चे समझ सकते हैं कि वो स्कूल में अपने मित्रों के साथ कैसा व्यवहार करें | साथ ही किसी से मित्रता करने का यह अर्थ नहीं है कि आप उसके जैसे बन जाए | हम अपने  गुणों और अपनी विशेष प्रतिभा के साथ भी मित्रता निभा सकते हैं ..    राजा -प्रजा सभी के बच्चे  रहते वहाँ समान  कठिन परिश्रम से करते थे  प्राप्त सभी हर ज्ञान  …… बने राम निषाद गुरुकुल में  अच्छे -सच्चे मित्र  उन दोनों का ही अपना था  सुंदर सहज चरित्र    ताड़का वध  व अहिल्या उद्धार    धोखे से इन्द्र द्वारा छली गई पति द्वारा शापित अहिल्या का राम उद्धार करते हैं | राम उस स्त्री के प्रति संवेदना रखने की शिक्षा देते हैं जिसका शीलहरण हुआ |    छूए राम ज्यों ही पत्थर को  शीला बनी त्यों नार  पतित पावन रामचन्द्र ने  दिया उन्हें भी तार    राम -सिया और लखन का वन गमन  राम, पिता की आज्ञा  मान  कर वन चल देते हैं | उस समय तार्किक मन  ये कह  रहा होता है कि राम के साथ गलत हो रहा है | परंतु राम के राम रूप में स्थापित होने में इस वन गमन का कितना बड़ा योगदान है ये हम  सभी जानते हैं | जो परिस्थितियाँ आज हमें कठिन दिख रहीं हैं, हो सकता है उनका हमारे जीवन को सफल आकार देने में बहुत योगदान हो |    खुशी -खुशी आदेश जनक का राम किये स्वीकार  कौशल्या से आज्ञा  लेने  आए हो तैयार    भरत मिलाप   आज हम जिस रामराज्य की बात करते हैं हैं वो भाई -भाई के प्रेम की नींव पर ही टिक सकता है | जहाँ निजी स्वार्थ के ऊपर आपसी प्रेम हो, देशभक्ति की भावना हो | मान  राम की बात भरत ने  रखी एक फिर शर्त  राजा होंगे राम आप ही  क्योंकि आप समर्थ    सीता हरण   रावण द्वारा सीता का हरण एक दुखद प्रसंग है |फिर भी वो … Read more