इत्ती-सी खुशी
रात को जब सब सो जाते हैं तो चाँदनी सबकी आँखों में चाँद पाने का ख्वाब परोस देती है | सुबह उठते ही सब निकल पड़ते हैं अपने हिस्से के के उस चाँद को पाने के लिए | जो चाँद सपनों में आया था उसे पाने में कितनी नींदें खराब करनी पड़ती हैं | कभी चाँद मिल भी जाता है तो पता चलता है .. हरी -भरी धरती कहाँ बुरी थी ? अतीत सी पीछा छुड़ा कर वर्तमान जब भविष्य के लिए खुद को होम रहा होता है तो उसे कहाँ पता होता है वहाँ पहुँचकर इस हिस्से की घास दिखाई देगी |घबराता मन सोचता है कल में आज में या कल में आखिर कहानी है खुशी | पाठकों को अपनी कहानी के माध्यम से इत्ती सी पर असली खुशी का पता दे रही है सुपरिचित लेखिका कल्पना मनोरमा जी की कहानी ….. इत्ती-सी खुशी घरों की मुंडेरें हों या कॉलोनी के पेड़-पौधे, सभी पर छोटे-छोटे बल्बों की रंगीन लड़ियाँ लगा दी गई थीं । उजाले का मर्म अबोले कहाँ जानते हैं; वे तो उजाले को पाकर खुद उत्स में बदल जाते हैं। चौंधियाती साँझ अपने प्रेमी के साथ पसरने को बेताब थी लेकिन चारों ओर बिजली का रुआब इस क़दर तारी था कि पेड़ों का हरा रंग के साथ धरती का भी रंग खिल उठा था। इस बार दीवाली आने से पहले मेरा भी पता बदल गया था। भले एक कमरे का ही सही अपना घर खरीदकर केतन ने मेरी जिंदगी को रोशन कर दिया था। किराए के सीलन भरे घर से निजात मिल चुकी थी।जिंदगी की भव्यता का छोटा-सा परिचय मिला था। सातवीं मंजिल पर खड़ी मैं नीचे झाँक-झाँक कर देखे जा रही थी। पार्क का मनभावन दृश्य धूसर हो चुकी मेरी आँखों के लिऐ भोर की ओस जैसा लग रहा था। पलट कर अपने चारों ओर देखा तो जल्दी-जल्दी बालकनी में पड़ीं पुरानी चीज़ों को धकेलकर किनारे कर ढक दिया। दो चार ठीक-ठीक गमलों को थोड़े ऊँचे पर रख दिए ताकि आठवीं मंजिल के घरों से हम अच्छे दिख सकें।अभी मैं पौधों पर जमी मिट्टी साफ कर ही रही थी कि मन फिर से हुआ कि लाओ और देंखें नीचे हो क्या रहा है ? जैसा सोचा वैसा ही किया। देखा, एक महिला सुंदर परिधान में निकली और चट से गाड़ी में बैठकर फ़ुर्र गयी। ये निश्चित ही कुछ खरीदने जा रही होगी।दीवाली है भई!मैंने मन ही मन स्वयं से कहा। क्या मुझे भी इस धनतेरस कुछ ख़रीदना चाहिए? वैसे तो न जाने कब से जिंदगी की मीनमेख ने धनतेरस को कुछ ख़रिदवाना बंद ही करवा दिया था। पर इस बार क्या सच्ची में कुछ ख़रीद लूँ? एक कटोरदान ही सही जैसा वृंदा मौसी के घर देखा था। मैंने जैसे खुद से ही पूछा और खुद ही उत्तर दे दिया। न न बेटे से इतना ख़र्च करवाने के बाद धनतेरस का शगुन करने के लिए नहीं कहूँगी। कुछ न खरीद पाने के बावजूद भी मन हल्का था। मैं आँखें उठा कर अपने सिर के ऊपर तनी छत को शुक्रिया के साथ निहारा। मैं अपने विचारों में निमग्न बालकनी में पड़ी कुर्सी पर ही बैठ गयी और धीरे-धीरे धनिक बस्ती में शर्मीली शाम का उतरना देखने लगी। मन शांत हुआ तो कान हरकत में आ गए और घर के भीतर हो रही खुरस-फुसर पर केंद्रित हो गए। “मेट्रो सिटी में रहने के अपने ही दुख होते हैं भाई। यहाँ न चैन से जिया जा सकता है न मरा।” एक आदमी बोल रहा था। उसको सही ठहराते हुए दूसरे ने अपनी मोटी आवाज़ में कहा, “तभी तो अक्सर लोग कहते मिल ही जाते हैं कि”बृहस्पतिवार की लोई के लिए गाय नहीं,नवरात्रियों में कन्यायें नहीं और दाता को जल्दी से सच्चे जरूरतमंद नहीं मिलते और यदि मिलते भी हैं, तो जुआरी-शराबी; जिनको कुछ देना मतलब उनके परिवार को विपत्ति में डालना। उनसे तो लोगों को तौबा ही कर लेनी चाहिए।” “चल छोड़ो यार! आज तो अपनी जमेगी न..?” दोनों आवाज़ें थमी तो खिखियाकर हँसने की समलित आवाज़ गूँज उठी। झपटकर मैंने अंदर झाँकते हुए बेटे से पूछा। “ये कौन अजीब-अज़ीब बातें कर रहा है ?” मेरे चेहरे पर डर छितरा चुका था। “अम्मा! मैं बताना भूल गया था। मुख्य द्वार पर बत्ती वाली बंदनवार लगाने के लिए इलेक्ट्रीशियन को बुलाया था। वही अपने हेल्पर के साथ आया है ।” “अच्छा, बड़ी अलग-सी बातें कर रहे हैं दोनों।” “अम्मा धीरे बोलो प्लीज़ अब आप गलियों वाली बस्ती में नहीं सोसायटी में रह रही हो। वे लोग अपनी बातें कर रहे हैं। सबके जीवन के अपने-अपने प्रसंग होते हैं। चलो तुम्हारे छालों की दवाई दिलवा लाता हूँ । देर होगी तो बाज़ार में ठेलम-ठेल मच जाएगी।” मुझे समझाकर वह तुरंत भीतर की ओर मुड़ गया । “अम्मा जल्दी करना…!” उसने फिर कहा। “हाँ, इन लोगों के जाने के बाद ही न!” “हाँ जी अम्मा!” सही तो कहा उसने बाज़ार का दूसरा नाम ठेलम-ठेल ही होता है। लाने को मैं खुद भी दवाई ला सकती थी लेकिन त्योहार के दिनों में बच्चे जितना नज़दीक रहें उतनी ज़्यादा ख़ुशी मिलती है। वैसे देखा जाए तो आजकल के बच्चे नौकरी की चकल्लस में नाक तक डूबे रहते हैं। कब वे अपने साथ बैठें और कब परिवार के? अब देखो न आज मेरा ही घर से निकलने का बिल्कुल मन नहीं था लेकिन शरीर की व्यथा कहाँ समझती है मन के संकल्पों को। “चलता हूँ सर !” अपनी ऊब-चूब में डूबी में फिर से बालकनी में जा बैठी थी कि अचानक उन दोनों ने जाने की आज्ञा बेटे से माँगी तो मुझे भी छुट्टी मिली। “चलो अच्छा हुआ जल्दी चले गए। केतन कौन से कपड़े पहनूँ ?” “अम्मा जो आपको पसंद हों।” बेटे ने कमरे की खिड़की बंद करते हुए कहा । “बस दो मिनट का समय दो अभी चलती हूँ।” कहते हुए मैंने अलमारी खोली। एक तोतयी रँग का कुरता मेरे हाथ में आया। उलट-पलटकर देखा और वापस रख दिया।अब इसे बाहर नहीं पहनूँगी। गलियों में रहने की और बात थी और मैंने एक ठीक-ठाक साड़ी निकालकर पहन ली। घर से निकलते हुए बेटे ने कहा,‘क्या बात है अम्मा? आप किन ख़्यालों में खोई हो? सब ठीक तो है न! छाला ज्यादा दर्द कर … Read more