आज गंगा स्नान की नहीं गंगा को स्नान कराने की आवश्यकता है
गंगा एक शब्द नहीं जीवन है , माँ है , ममता है | गंगा शब्द से ही मन असीम श्रद्धा से भर जाता है | परन्तु क्या सिर्फ श्रद्धा करन ही काफी है या हमारा माँ गंगा के प्रति कुछ कर्तव्य भी है |बरसों पहले एक फ़िल्मी गीत आज भी प्रासंगिक है ” मानों तो मैं गंगा माँ हूँ , न मानों तो बहता पानी “ | जिस गंगा को हम पूजते आये हैं , क्या उसे माँ मानते हैं या हमने उसे बहता पानी ही मान लिया है | और उसे माँ गंगे से गंदे नाले मेंपरिवार्तित करने में लगे हुए हैं | गंगा … पतित पावनी गंगा … विष्णु के कमंडल से निकली , शिव जी की जटाओ में समाते हुए भागीरथ प्रयास के द्वारा धरती पर उतरी | गगा शब्द कहते ही हम भारतीयों को ममता का एक गहरा अहसास होता है | और क्यों न हो माँ की तरह हम भारतवासियों को पालती जो रही है गंगा | मैं उन भाग्यशाली लोगों में हूँ जिनका बचपन गंगा के तट पर बसे शहरों में बीता | अपने बचपन के बारे में जब भी कुछ सोचती हूँ तो कानपुर में बहती गंगा और बिठूर याद आ जाता है | छोटे बड़े हर आयोजन में बिठूर जाने की पारिवारिक परंपरा रही है | हम उत्साह से जाते | कल -कल बहती धारा के अप्रतिम सौंदर्य को पुन : पुन : देखने की इच्छा तो थी ही , साथ ही बड़ों द्वरा अवचेतन मन पर अंकित किया हुआ किसी अज्ञात पुन्य को पाने का लोभ भी था | जाने कितनी स्मृतियाँ मानस पटल पर अंकित हैं पर निर्मल पावन गंगा प्रदूषण का दंश भी झेल रही है | इसका अहसास जब हुआ तब उम्र में समझदारी नहीं थी पर मासूम मन इतना तो समझता ही था की माँ कह कर माँ को अपमानित करना एक निकृष्ट काम है | ऐसा ही एक समय था जब बड़ी बुआ हम बच्चों को अंजुरी में गंगा जल भर कर आचमन करना सिखा रही थी | बुआ ने जैसे ही अंजुरी में गंगा जल भरा , समीप में स्नान कर रहे व्यक्ति का थूकी हुई पान की पीक उनके हाथों में आ गयी | हम सब थोडा पीछे हट गए | थूकने वाले सज्जन उतनी ही सहजता से जय गंगा मैया का उच्चारण भी करते जा रहे थे | माँ भी कहना और थूकना भी , हम बच्चों के लिए ये रिश्तों की एक अजीब ही परिभाषा थी | यह विरोधाभासी परिभाषा बड़े होने तक मानस पटल पर और भी प्रश्न चिन्ह बनाती गयी | हमारे पूर्वजों नें गंगा को मैया कहना शायद इसलिए सिखाया होगा की हम उसके महत्व को समझ सकें | और उसी प्रकार उसकी सुरक्षा का ध्यान दें जैसे अपनी माँ का देते हैं | गंगा के अमृत सामान जल का ज्यादा से ज्यादा लाभ उठा सके इस लिए पुन्य लाभ से जोड़ा गया | पर हम पुन्य पाने की लालसा में कितने पाप कर गए | फूल , पत्ती , धूप दीप , तो छोड़ो , मल मूत्र , कारखानों के अवशिष्ट पदार्थ , सब कुछ बिना ये सोचे मिलाते गए की माँ के स्वास्थ्य पर ही कोख में पल रहे बच्चों का भविष्य टिका है | इस लापरवाही का ही नतीजा है की आज गंगा इतनी दूषित व प्रदूषित हो चुकी है कि पीना तो दूर, इस पानी से नियमित नहाने पर लोगों को कैंसर जैसी बीमारियां होने का खतरा बढ़ गया है। गंगाजल में ई-कोलाई जैसे कई घातक बैक्टीरिया पैदा हो रहे हैं, जिनका नाश करना असंभव हो गया है। इसी तरह गंगा में हर रोज 19,65,900 किलोग्राम प्रदूषित पदार्थ छोड़े जाते हैं। इनमें से 10,900 किलोग्राम उत्तर प्रदेश से छोड़े जाते हैं। कानपुर शहर के 345 कारखानों और 10 सूती कपड़ा उद्योगों से जल प्रवाह में घातक केमिकल छोड़े जा रहे हैं। 1400 मिलियन लीटर प्रदूषित पानी और 2000 मिलियन लीटर औद्योगिक दूषित जल हर रोज गंगा के प्रवाह में छोड़ा जाता है। कानपुर सहित इलाहाबाद, वाराणसी जैसे शहरों के औद्योगिक कचरे और सीवर की गंदगी गंगा में सीधे डाल देने से इसका पानी पीने, नहाने तथा सिंचाई के लिए इस्तेमाल योग्य नहीं रह गया है। गंगा में घातक रसायन और धातुओं का स्तर तयशुदा सीमा से काफी अधिक पाया गया है। गंगा में हर साल 3000 से अधिक मानव शव और 6000 से अधिक जानवरों के शव बहाए जाते हैं।इसी तरह 35000 से अधिक मूर्तियां हर साल विसर्जित की जाती हैं। धार्मिक महत्व के चलते कुंभ-मेला, आस्था विसर्जन आदि कर्मकांडों के कारण गंगा नदी बड़ी मात्रा में प्रदूषित हो चुकी है। स्तिथि इतनी विस्फोटक है की अगर व्यक्ति नदी किनारे सब्जी उगाए तो लोग प्रदूषित सब्जियां खाकर ज्यादा बीमार होंगे। इन आकड़ों को देने का अभिप्राय डराना नहीं सचेत करना है | यह सच है की गंगा की सफाई के अभियान में कई सरकारी योजनायें बनी हैं | अरबों रुपये खर्च हुए फिर भी स्थिति वहीँ की वहीँ है | पर्यावरणीय मानकों के मुताबिक नदी जल के बायोकेमिकल ऑक्सीजन डिमाण्ड (B.O.D )का स्तर अधिकतम 3 मि.ली. ग्राम प्रति लीटर होना चाहिए। सफाई के तमाम दावों के बावजूद वाराणसी के डाउनस्ट्रीम (निचले छोर) पर बीओडी स्तर 16.3 मि.ग्रा. प्रति ली. के बेहद खतरनाक स्तर में पाया गया है। प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की रिपोर्ट दर्शाती है कि गंगा के प्रदूषण स्तर में कोई सुधार नहीं हुआ है। शायद सरकारी योजनायें कागजों पर ही बनती हैं | और उन कागजों में धन का बहाव गंगा के बहाव से भी ज्यादा तेज है | धन तो प्रबल वेग से बह जाता है | पर गंगा अपने आँचल में हमारे ही द्वारा डाली गयी गंदगी समेटे वहीँ की वहीँ रह जाती है | अब सवाल ये उठता है की क्या हम इन सरकारी योजनाओं के भरोसे ( जिनका निष्क्रिय स्वरूप हमने अपनी आँखों से देखा है ) अपनी माँ को छोड़ दें | या माँ को माँ कहना छोड़ दें ? बहुत हो गया पुन्य का लोभ , पीढ़ियाँ बीत गयी गंगा में स्नान करते – करते | अब जब गंगा को स्वयं स्नान की आवश्यकता है तो हम पीछे क्यों हटे | इस का हल … Read more