बिछोह

बिछोह

वरिष्ठ लेखिका दीपक शर्मा जी की कहानियों की खास बात होती है उनके शीर्षक, और कथ्य को कहने का वो ढंग जहाँ पाठक एक बात पढ़ते समझते आगे बढ़ता है पर अचानक कहानी के मूल से उसका साम्य स्थापित हो जाता है |इसलिए अंत चमृतकृत  करता है | जीवन जीने के दो तरीके हैं एक तो कुछ पाने की खातिर स्वाभिमान को दाँव पर लगा देना और दूसरा स्वाभिमान की खातिर तकलीफें झेल लेना | ये कहानी गडुलिया लुहारों की कथा कहते -कहते उन लोगों पर भी प्रहार करती है जिन्हें स्वाभिमान के नाम पर बस स्त्री पर नकेल कसना आता है | आइए पढ़ें , दीपक शर्मा जी की कहानी .. बिछोह   बहन मुझ से सन् १९५५ में बिछुड़ी| उस समय मैं दस वर्ष का था और बहन बारह की| “तू आज पिछाड़ी गयी थी?” एक शाम हमारे पिता की आवाज़ हम बहन-भाई के बाल-कक्ष में आन गूँजी| बहन को हवेली की अगाड़ी-पिछाड़ी जाने की सख़्त मनाही थी| अगाड़ी, इसलिए क्योंकि वहाँ अजनबियों की आवाजाही लगी रहती थी| लोकसभा सदस्य, मेरे दादा, के राजनैतिक एवं सरकारी काम-काज अगाड़ी ही देखे-समझे जाते थे| और पिछाड़ी, इसलिए क्योंकि वहाँ हमारा अस्तबल था, जहाँ उन दिनों एक लोहार-परिवार घोड़ों के नाल बदल रहा था| “मैं ले गया था,” बहन के बचाव के लिए मैं तत्काल उठ खड़ा हुआ| “उसे साथ घसीटने की क्या ज़रुरत थी?” पिता ने मेरे कान उमेठे| “लड़की ही सयानी होती तो मना नहीं कर देती?” दरवाज़े की ओट सुनाई दे रही चूड़ियों की खनक हमारे पास आन पहुँची| पिछले वर्ष हुई हमारी माँ की मृत्यु के एक माह उपरान्त हमारे पिता ने अपना दूसरा ब्याह रचा डाला था और हमारी सौतेली माँ उस छवि पर खरी उतरती थीं जो छवि हमारी माँ ने हमारे मन में उकेर रखी थी| रामायण की कैकेयी से ले कर परिकथाओं की ‘चुड़ैल-रुपी सौतेली माँ के’ हवाले से| “भूल मेरी ही है,” बहन पिता के सामने आ खड़ी हुई, “घोड़ों के पास मैं ही भाई को ले कर गयी थी…..” “घोड़ों के पास या लोहारों के पास?” नई माँ ठुनकीं| उस लोहार-परिवार में तीन सदस्य थे : लोहार, लोहारिन और उनका अठारह-उन्नीस वर्षीय बेटा| “हमें घोड़ों के नाल बदलते हुए देखने थे,” मैं बोल पड़ा, “और वे नाल वे लोहार-लोग बदल रहे थे…..” “वही तो!” नई माँ ने अपनी चूड़ियाँ खनकायीं, “टुटपुंजिए, बेनाम उन हथौड़ियों के पास जवान लड़की का जाना शोभा देता है क्या?” “वे टुटपुंजिए नहीं थे,” मैं उबल लिया, “एक बैलगाड़ी के मालिक थे| कई औज़ारों के मालिक थे| और बेनाम भी नहीं थे| गाडुलिया लोहार थे| हमारी तरह चित्तौरगढ़ के मूल निवासी थे…..” “लो,” नई माँ ने अपनी चूड़ियों को एक घुमावदार चक्कर खिलाया, “उन लोग ने हमारे संग साझेदारी भी निकाल ली| हमारी लड़की को अपने साथ भगा ले जाने की ज़मीन तैयार करने के वास्ते…..” “आप ग़लत सोचती हैं,” मैं फट पड़ा, “वे लोग हम से रिश्ता क्यों जोड़ने लगे? वे हमें देशद्रोही मानते हैं क्योंकि हम लोग ने पहले मुगलों की गुलामी की और फिर अंगरेज़ों की…..” “ऐसा कहा उन्होंने?” हमारे पिता आगबबूले हो लिए| “यह पूछिए ऐसा कैसे सुन लिया इन लोग ने? और यही नहीं, सुनने के बाद इसे हमें भी सुना दिया…..” “यह सच ही तो है,” पहली बार उन दोनों का विरोध करते समय मैं सिकुड़ा नहीं, काँपा नहीं, डरा नहीं, “जभी तो हम लोग के पास यह बड़ी हवेली है| वौक्सवेगन है| दस घोड़े हैं| एम्बैसेडर है| तीन गायें हैं| दो भैंसे हैं…..” “क्या बकते हो?” पिता ने एक ज़ोरदार तमाचा मेरे मुँह पर दे मारा| “भाई को कुछ मत कहिए,” बहन रोने लगी, “दंड देना ही है तो मुझे दीजिए…..” “देखिए तो!” नई माँ ने हमारे पिता का बिगड़ा स्वभाव और बिगाड़ देना चाहा, “कहती है, ‘दंड देना ही है तो…..’ मानो यह बहुत अबोध हो, निर्दोष हो, दंड की अधिकारी न हो…..” “दंड तो इसे मिलेगा ही मिलेगा,” हमारे पिता की आँखें अंगारे बन लीं “लेकिन पहले भड़कुए अपने साईस से मैं उन का नाम-पता तो मालूम कर लूँ| वही उन्हें खानाबदोशों की बस्ती से पकड़ कर इधर हवेली में लाया था…..” “उन लोहारों को तो मैं भी देखना चाहती हूँ,” नई माँ ने आह्लादित हो कर अपनी चूड़ियाँ खनका दीं, “जो हमारे बच्चों को ऐसे बहकाए-भटकाए हैं…..” “उन्हें तो अब पुलिस देखेगी, पुलिस धरेगी| बाबूजी के दफ़्तर से मैं एस.पी. को अभी फ़ोन लगवाता हूँ…..” हमारे पिता हमारे बाल-कक्ष से बाहर लपक लिए| बहन और मैं एक दूसरे की ओर देख कर अपनी अपनी मुस्कराहट नियन्त्रित करने लगे| हम जानते थे वह लोहार-परिवार किसी को नहीं मिलने वाला| वह चित्तौरगढ़ के लिए रवाना हो चुका था| (२) उस दोपहर जब मैं पिछली तीन दोपहरों की तरह अस्तबल के लिए निकलने लगा था तो बहन मेरे साथ हो ली थी, “आज साईस काका की छुट्टी है और नई माँ आज बड़े कमरे में सोने गयी हैं…..” बड़ा कमरा मेरे पिता का निजी कमरा था और जब भी दोपहर में नई माँ उधर जातीं, वे दोनों ही लम्बी झपकी लिया करते| अपने पिता और नई माँ की अनभिज्ञता का लाभ जैसे ही बहन को उपलब्ध हुआ था, उसे याद आया था, स्कूल से उसे बग्घी में लिवाते समय साईस ने उस दोपहर की अपनी छुट्टी का उल्लेख किया था| पुराना होने के कारण वह साईस हमारे पिता का मुँह लगा था और हर किसी की ख़बर उन्हें पहुँचा दिया करता| और इसी डर से उस दोपहर से पहले बहन मेरे संग नहीं निकला करती थी| वैसे इन पिछली तीन दोपहरों की अपनी झाँकियों की ख़ाका मैं बहन को रोज़ देता रहा था : कैसे अपनी कर्मकारी के बीच लोहार, लोहारिन और लोहार-बेटा गपियाया करते और किस प्रकार कर्मकारी उन तीनों ने आपस में बाँट रखी थी; लोहार-बेटा मोटी अपनी रेती और छुरी से बंधे घोड़े के तलुवे और खुर के किनारे बराबर बनाता, लोहार अपने मिस्त्रीखाने के एक झोले में से अनुमानित नाप का यू-आकृति लिए एक नया नाल चुनता और उसे सुगठित रूप देने के लिए पहले झनझना रही चिनगारियों से भरी भट्टी में झोंकता और फिर ठंडे पानी में| लोहारिन अपनी धौंकनी से भट्टी में आग दहकाए रखती और जब नाल तैयार हो जाता तो उसे … Read more