गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय -14

यात्रा वृत्त

  आत्मकथा लेखन में ईमानदारी की बहुत जरूरत होती है क्योंकि खुद के सत्य को उजागर करने के लिए साहस चाहिए साथ ही इसमें लेखक को कल्पना को विस्तार नहीं मिल पाता | उसे कहना सहज नहीं होता | बहुत कम लोग अपनी आत्मकथा लिखते हैं | बीनू दी ने यह साहसिक कदम उठाया है | बीनू भटनागर जी की आत्मकथा “गुज़रे हुए लम्हे “को आप अटूट बंधन.कॉम पर एक श्रृंखला के रूप में पढ़ पायेंगे | गुज़रे हुए लम्हे -परिचय गुजरे हुए लम्हे -अध्याय 1 गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 2 गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 3 गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय चार गुज़रे हुए लम्हे अध्याय -5 गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 6 गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 7 गुजरे हुए लम्हे -अध्याय-8 गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 9 गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय -10 गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 11 गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 12 गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 13 अब आगे ….     गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 14 –यात्रा वृत्त (2011 के बाद) मैं छोटी थी तो मेरी यात्रायें जब बुलंदशहर सिकंद्राबाद और ज्यादा से ज्यादा दिल्ली तक होती थीं, जिनका उद्देश्य भी कभी पर्यटन नहीं होता था। पर्यटन के लिये विवाह से पूर्व एक नैनीताल यात्रा की थी और दूसरी काश्मीर की थी। ये इतनी पुरानी बातें है कि उनकी हल्की झलक ही दिमाग़ में है, इनका जिक्र मैं अध्याय 2 और 3 में कर चुकी हूँ।   शादी के बाद ही एक तरह से मैं उत्तर प्रदेश के बाहर निकली थी। मुंबई, केरल और गोवा भी तनु के इलाज के सिलसिले में गये तो वहाँ के प्रमुख आकर्षण देख लिये थे। सिकंद्राबाद हैदराबाद भी घूमा। शोलापुर से आते आते  पंढरपुर, शिरडी,बीजापुर और महाबलेश्वर भी गये थे। इन सब यात्राओं का जिक्र समय समय पर यादों पर ज़ोर डालकर मैंने किया है।   दिल्ली आने के बाद हरिद्वार, ऋषिकेश, शिमला, देहरादून  और मसूरी गये थे।।शिमला तो तीन बार जाना हुआ था, वहाँ रेलवे के रैस्टहाउस में रुके थे। ये तो हर बार ड्यूटी पर ही थे, रेलकार से जब चाहें जहाँ रुके निरीक्षण किया  और आगे बढ़ गये। कुफरी और शिमला का भव्य राषट्रपति निवास देखा जो कि अब उच्च शिक्षा का केंद्र है। अद्भुत इमारत है जिसका एक हिस्सा पर्यटकों के लिये खुला रहता है। यहाँ का लॉन और उद्यान भी बहुत सुंदर है।   जब से लिखना शुरू किया है हर यात्रा की स्मृतियों से कभी कविता सजाई है तो कभी लेख लिखा है और कभी गद्य और पद्य दोनों रूपों में यात्रा वृत्त लिखे हैं। ये स्मृतियाँ मेरे जीवन का अंग हैं, इसलिये इनको इस अध्याय में प्रस्तुत करूँगी। ये सभी यात्रा संस्मरण किसी न किसी पत्रिका या वैब साइट पर आ चुके हैं परन्तु  इनका कॉपी राइट मेरा ही है, यह मैं पहले स्वानुभूति में भी बता चुकी हूँ।  इस अध्याय में मैं दार्जिलिंग, गैंगटॉक यात्रा(2011), केरल यात्रा(2013) और उत्तराखंड यात्रा(2016) और ग्वालियर यात्रा(2019) के संस्मरण ही प्रस्तुत करूँगी। शिमला और हरिद्वार ऋषिकेश यात्राओं पर जो कवितायें लिखी थीं वे पेश करूँगी,तो पहले कवितायें-     शिमला से.. खिड़की खोली, दर्शन किये प्रभात के, सूर्य की किरणें पड़ी जब, हिम शिखर पर, विस्तार ज्योति पुंज का, मेरे द्वार पे।   ये नोकील पेड़ देवदार के, प्रहरी बने खड़े हैं, पर्यावरण के बहार के।     एक सौ तीन सुरंगें, पार करती घूमती चढ़ती हुई, रेल की ये पटरियां, दौड़ती हैं जिन पर सुन्दर, सजीली गाड़ियां। अति सुखद है यात्रा, शिवालिक पहाड़ की।   ऊंचे नीचे, टेढे-मेढे, रास्ते पहाड़ के, रेंगते हैं इन पर वाहन प्रवाह से ऊंचे शिखर, नीची वादी, सौन्दर्य रचनाकार के।   जीवित हूँ या स्वर्ग में, भ्रम मुझे होने लगा है, मुग्ध मुदित मन मेरा, होने लगा है। चारों ओर फैला है, बादलों का एक घेरा, छू लिया है बादलों को, मुट्ठी में बन्द किया है, पागल आशिकों को।   शाम ढली पुलकित हुई मैं, ठंडी बयार से, तन मन शीतल हो रहा है रात्रि के प्रहार से।   तारों भरा आसमां नीचे कैसे हो गया, आकाश ऊपर भी नीचे भी, फिर मुझे कुछ भ्रम हो गया। स्वप्न है या यथार्थ, यथार्थ कबसे इतना सुखद हो गया !   ऊपर निगाह डाली तो बादलों के घेर थे, बूँदें गिरी मौसम ज़रा नम हो गया यह सुख फिर कहीं खो गया।   सूखी चट्टानें, कटे पेड़, देखकर मन विचलित हो गया। सीढियों पर उगती फ़सल देखकर, फिर मन ख़ुश हो गया।   धरती के इस स्वर्ग को बचायेंगे, ये पेड़ देवदार के।   हरिद्वार और ऋषिकेश   उत्तराखण्ड का द्वार हरिद्वार, यहाँ आई गंगा पहाड़ों के पार। पहाड़ों के पार शहर ये सुन्दर। सुन्दर शहर उत्तराखण्ड का मान। मंसादेवी, चंडीदेवी के मन्दिर सुन्दर, मंदिर का रास्ता बन गया है सुगम, केबल कार की यात्रा अति मनोरम। हर की पौड़ी शहर का मान, गंगा की आरती, गंगा की भक्ति, ऊपरी गंगा नहर और गंगा, हरिद्वार का बनी है अभिमान। तैरते हैं यहां प्रज्वलित दीप हर शाम। आयुर्वेद्यशाला पंतजलि संस्थान, गुरुकुल कांगड़ी यहां विद्यमान। हरिद्वार के निकट ही शहर ऋषिकेश, आश्रमों में साधुओं का होता है प्रवेश। विशाल झूला सा पुल झूला लक्ष्मण, राम के नाम का भी झूला विलक्षण। युवा पर्यटकों का भी मन मोहे  ऋषिकेश, डेरों में रहते थे युवा नदी के तट पर, डेरे तो उठ गये प्रदूषण से बचाव को, फिर भी नदी में है राफ़्टिग जारी ।   यहां से ही शुरू होती है शुभ यात्रा, उत्तराखण्ड की चार धाम यात्रा। गंगोत्री, जमनोत्री, केदारनाथ, और बद्रीनाथ की तीर्थयात्रा। (अब राफ्टिंग पूरी तरह बंद हो चुकी है)     दार्जिलिंग और गैंगटॉक यात्रा (2011)   अपूर्व की शादी के बाद ये हमारी पहली पर्यटन यात्रा थी, जिसमें परिवार की नयी सदस्य नेहा भी हमारे साथ थी।  हम दिल्ली से विमान द्वारा बागडोगरा हवाई अड्डे पर पहुँचकर सामान की प्रतीक्षा कर रहे थे। मौसम साफ़ था। अचानक नेहा कभी नीचे ज़मीन पर देख रही थी कभी ऊपर और कहने लगी ये पानी कहाँ से आ रहा है। नीचे कुछ गीला था। कुछ देर में पता चाला कि पानी की बोतल जो कि ठीक से बंद नहीं की गई थी, नेहा के बैग में थी उसी से पानी टपक रहा था।इस ज़रा सी लापरवाही की भेंट उसका मोबाइल हो गया जो बहुत कोशिशों के बाद … Read more

गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 13

गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 13 -कभी ख़ुशी कभी ग़म

आत्मकथा लेखन में ईमानदारी की बहुत जरूरत होती है क्योंकि खुद के सत्य को उजागर करने के लिए साहस चाहिए साथ ही इसमें लेखक को कल्पना को विस्तार नहीं मिल पाता | उसे कहना सहज नहीं होता | बहुत कम लोग अपनी आत्मकथा लिखते हैं | बीनू दी ने यह साहसिक कदम उठाया है | बीनू भटनागर जी की आत्मकथा “गुज़रे हुए लम्हे “को आप अटूट बंधन.कॉम पर एक श्रृंखला के रूप में पढ़ पायेंगे | गुज़रे हुए लम्हे -परिचय गुजरे हुए लम्हे -अध्याय 1 गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 2 गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 3 गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय चार गुज़रे हुए लम्हे अध्याय -5 गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 6 गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 7 गुजरे हुए लम्हे -अध्याय-8 गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 9 गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय -10 गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 11 गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 12 अब आगे …. गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 13 –कभी ख़ुशी कभी ग़म (दिल्ली 2006- अब तक) साहित्यिक गतिविधियों के बाद अब पुनः पारिवारिक कथा-क्रम से जुड़ने का समय आ गया है। अपूर्व  अपनी नौकरी में अभ्यस्त हो गया था और तनु घर में 11 वीं और 12 वीं कक्षा के बच्चों को अर्थशास्त्र पढ़ाने में व्यस्त हो गई थी। सेवानिवृत्त होने के बाद दोबारा काम करने का  इनका मन कभी बना ही नहीं। काफ़ी दबाव के बाद एक काम लिया था, पर बहुत जल्दी छोड़ दिया। दोनों समय घूमने जाना बाज़ार के काम करना, घर के कामों में मेरी मदद कर देना और आराम करना ही इनकी दिनचर्या रही, जिससे इन्हें कभी कोई शिकायत नहीं हुई।   2007 जुलाई में एक छोटी सी दुर्घटना हो गई थी।मैं वाशरूम साफ़ करते समय फिसल गई दर्द बहुत ज़्यादा था, पर मैं ख़ुद उठकर खड़ी हो सकी थी, इसलिये मैंने सोचा कि कोई गंभीर बात नहीं है। थोड़ी देर आराम करके, दर्द की गोली खा कर अपने रोज़ के कामों में लग गई थी।सिंकाई  की, दर्द की गोली खाली, क़रीब 10 दिन तक ऐसे ही चला, परन्तु दर्द कम नहीं हो रहा था।   इसी समय गुड़गाँव में शशि बीबी के बेटे के नये फ्लैट का गृह प्रवेश था , जहाँ हम सब को भी जाना था। कार में भी ढाई तीन घंटे बैठना फिर वहाँ हवन, खाने पीने में पूरा दिन ही लगना था इसलिये मैं नहीं गई। ये और दोनों बच्चे ही गये, पर घर में अकेले मैंने आराम भी नहीं किया, सफ़ाई में लग गई, सारी चादरें और कुशन कवर वगैरह बदले, मशीन में कपड़े धोये और सुखाये। शायद शारीरिक कष्ट सहने की अधिक क्षमता के कारण मैं अपनी चोट की गंभीरता को समझ ही नहीं पाई थी। शाम के समय पास के बाज़ार भी चली गई। बहुत दर्द महसूस हुआ तो वापिस आने के लिये रिक्शा कर  ली। रिक्शा में इतने दचके लगे कि रही सही कसर भी पूरी हो गई। रात भर असहनीय दर्द होता रहा तब अगले दिन ऐक्स रे करवाया और हड्डियों के डाक्टर को दिखाया। रीढ़ की हड्डी में दो जगह फ़्रैक्चर थे, डाक्टर ने 6 सप्ताह के लिये बिस्तर पर सीधे लेटे रहने का निर्देश दे दिया था।   ये छः सप्ताह और उसके बाद का लम्बा समय मेरे लिये और पूरे परिवार के लिये बहुत कष्ट का समय था। 6 सप्ताह तक करवट लेने पर भी प्रतिबंध था। शारीरिक कष्ट के अलावा सामने की दीवार को देखते देखते ऊब गई थी। मैं ऐसी जगह पर लेटी थी जो बाथरूम से निम्नतम दूरी पर थी। यहाँ से दूसरे कमरे में रखा टी वी दरवाज़े से देखा जा सकता था परंतु मुझे सुनाई भी दे इसके लिये वॉल्यूम बहुत तेज रखना पड़ता था जिससे वहाँ बैठकर देखने वालों को कुछ परेशानी अवश्य होती होगी।   सारे काम मिल जुल कर ये तीनों कर रहे थे ।दाल चावल सब्जी मुझ से पूछ पूछ कर किसी तरह बना रहे थे पर रोटी पराँठा बनाना उसके लिये आटा गुँधना मुश्किल था। कभी कभी ब्रैड से काम चला लेते थे। अपूर्व का ऑफिस उन दिनों पास ही में था तो वह लंच के समय आ जाता था क्योंकि घर पर जो भी बना हो वह खा लेता था। सुबह सुबह खाना पैक कर के देना मुमकिन नहीं था। ऐसे में हमारी एक पड़ौसन ने खाना बनाने के लिये एक नौकरानी का प्रबंध किया जो रात का खाना बनाने लगी थी। नयी नौकरानी वह भी खाना बनाने के लिये…………….. जिसे मैं कमरे में बुलाकर ही सब निर्देश देती थी, धीरे धीरे वह हमारी पसंद का भोजन बनाना सीख गई थी। 6 सप्ताह बीतने के बाद, जब मैं खड़ी हुई तो दर्द और भी बढ़ गया था। दर्द निवारक गोलियाँ तो महीनों खाईं। दर्द कम होने में क़रीब दो साल लगे पर ठीक तो आज तक नहीं हुआ है। एम्स और स्पाइन इंजरी संस्थान दोनों जगह  दिखाया परन्तु सर्जरी कर के भी दर्द से मुक्ति मिलने की संभावना डॉक्टरों को नज़र नहीं आई थी और फिज़ियोथैरपी की ही बात हुई थी।  साथ ही सही  तरह से आराम, काम और व्यायाम के बीच समन्वय बनाने की सलाह मिली थी। जब कभी दर्द बढ़ा तो फिज़ियोथैरैपी करवाई, सिंकाई की, बहुत ज़रूरी हुआ तो दर्द की गोली खाली । ये दर्द अब जीवन का अंग है, ये सत्य स्वीकार कर लिया है।   अब तक अपूर्व  को नौकरी  करते  हुए  क़रीब दो ढाई साल हो चुके थे। अपूर्व  की दोस्ती हमेशा लड़कियों  से भी रही है इसलिये  हमें लगता था किसी दिन वह आकर कहेगा कि “मुझे फलां लड़की से शादी करनी है” परन्तु अभी तक ऐसा कुछ नहीं हुआ था ,पूछने पर भी उसने हमेशा यही कहा कि  ऐसा कुछ नहीं है। मुझे लगा था कि अब लड़की ढूँढने की जिम्मेदारी  हमें ही निभाना होगी। अतः मैंने अख़बार  में विज्ञापन  देखना शुरू किया और कुछ चुने हुए परिवारों को मेल भेजीं।  मैंने सजातीय कॉलम ही देखे,  ऐसा नहीं है कि मुझे अंतरजातीय  विवाह से एतराज है,  सजातीय लड़की ढूँढने  के पीछे दो कारण थे पहला तो यह कि रविवार को विवाह विज्ञापन  इतने होते हैं कि सब  को नहीं देखा जा सकता किसी न किसी आधार पर सीमा  रेखा बनानी होती है,  दूसरा कारण यह था कि सजातीय परिवारों के बारे में मालूम … Read more

गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 12

गुज़रे हुए लम्हे-अध्याय 13-साहित्यिक गतिविधियाँ

    आत्मकथा लेखन में ईमानदारी की बहुत जरूरत होती है क्योंकि खुद के सत्य को उजागर करने के लिए साहस चाहिए साथ ही इसमें लेखक को कल्पना को विस्तार नहीं मिल पाता | उसे कहना सहज नहीं होता | बहुत कम लोग अपनी आत्मकथा लिखते हैं | बीनू दी ने यह साहसिक कदम उठाया है | बीनू भटनागर जी की आत्मकथा “गुज़रे हुए लम्हे “को आप अटूट बंधन.कॉम पर एक श्रृंखला के रूप में पढ़ पायेंगे | गुज़रे हुए लम्हे -परिचय गुजरे हुए लम्हे -अध्याय 1 गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 2 गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 3 गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय चार गुज़रे हुए लम्हे अध्याय -5 गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 6 गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 7 गुजरे हुए लम्हे -अध्याय-8 गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 9 गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय -10 गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 11 अब आगे …. गुज़रे हुए लम्हे-अध्याय 12 –साहित्यिक गतिविधियाँ (दिल्ली 2006 – अब तक)   तनु ने मुझे धीरे धीरे मुझे टाइपिंग सिखा दी थी। मूलतः तो मैं कविता ही लिखती थी, जो छोटी होती हैं, उन्हे मैं टाइप कर लेती थी। तनु वैब  साइट्स पर भेज देती थी और उनका डिजिटल मीडिया में प्रकाशन होने लगा था। धीरे धीरे मैं ख़ुद ई मेल भेजने लगी थी।पत्रिकाओं( प्रिंट) में भी काफ़ी रचनाये आने लगी थीं। टाइपिंग का अभ्यास हो गया तो लेख भी टाइप करने लगी थी। कुछ संस्मरण लिखे, कुछ संस्मरणों को कहानी का रूप दिया। वैब मीडिया ने मानों दूर दराज़ के लोगों से रिश्ते जोड़ दिये थे।   मेरे लेखन के पहले दौर की कुछ रचनायें अप्रकाशित थीं, जिनको संशोधित करके मैंने टाइप किया। सबसे पहले मेरी रचनायें  सृजन गाथा में आनी शुरू हुईं थीं।मेरे एक लेख ‘ हिन्दी किसकी है?’ को पढ़कर श्री प्राण शर्मा जी ने अति सकारात्मक प्रतिक्रिया दी थी, इसके बाद उनकी मेल भी मिली जिसमें उन्होंने हैरानी जताई थी कि इतना अच्छा लेख लिखने वाली लेखिका अब तक कहाँ थी ! ज़ाहिर है उन्होंने लेखक का परिचय पढ़ा होगा। मैंने भी सृजन गाथा में प्राण शर्मा जी की ग़जले पढ़ी थी और प्रतिक्रियायें देखकर लगा था कि ये प्रतिष्ठित साहित्यकार ही होंगे। मैंने गूगल में ढूँढा तो पता चला कि वे एक वरिष्ठ ग़ज़लकार होने के साथ कथाकार भी हैं और छंद शास्त्र के पंडित हैं। इतने वरिष्ठ साहित्यकार की प्रशंसा से मैं अभिभूत हो गई। मुझे लगा कुछ तो होगा मेरे लेखन में…….. अब नहीं छोडूँगी……. लिखती रहूँगी। मेरी हर प्रकाशित रचना पर प्राण सर की टिप्पणी आती थी। धीरे धीरे मेरी रचनायें प्रवक्ता.कॉम पर आने लगीं। यहाँ भी मेरी रचनाओं पर प्राण सर टिप्पणी देते थे।वे मेल पर हर तरह से हौसला बढ़ाते, और अलग अलग पत्रिकाओं में भेजने की सलाह देते थे। उन से संपर्क बना अंत तक बना रहा। वे इंग्लैड में रहते थे, मैंने उन्हें कभी नहीं देखा क्योंकि अपने स्वास्थ्य के कारण वे भारत आने की हिम्मत नहीं कर पाते थे, जबकि उनकी आत्मा भारत में ही बसती थी। यहाँ होने वाली छोटी मोटी घटनाये, साहित्य से जुड़ी ख़बरों या राजनैतिक ख़बरों से वे अवगत रहते थे। जब मैंने लिखना शुरू ही किया था तब से श्री प्राण शर्मा की प्रशंसा, आलोचना और मार्ग दर्शन मुझे मिला है , उनसे बहुत कुछ सीखा है उनकी लेखनी के विषय में कोई टिप्पणी करने की मेरी औकात नहीं है। वे मेरे लिये गुरु समान थे।   साहित्य में कुछ करने के लिये आजकल क़लम के साथ कम्प्यूटर और अन्य कई गैजेट काम करने में सहायता करते है, इनके बिना काम नहीं चलता, एक उम्र के बाद इन्हें समझना  सीखना आसान भी नहीं होता उसी पर ये दो व्यंग्यात्मक संस्मरण प्रस्तुत हैं।व्यंग्य का निशाना खुद की तरफ ही है।   हम सीख  रहे हैं….. (संस्मरण 14) कहते हैं सीखने की कोई उम्र नहीं होती।  अब  70 हमारे पास मंडरा रहा है और हम सीखे जा रहे है, शायद कब्र तक पहुँचते पहुँचते भी सीखते रहे, सीखने से छुट्टी नहीं मिलने वाली,  सीखे जाओ सीखे जाओ यही हमारी नियति है। पचास साल हो गये पढ़ाई पूरी  किये पर सीखना बन्द नहीं हुआ। हिन्दी इंगलिश ठीक ठाक लिखना पढ़ना आता था पर जब से ये मुआ कम्पयूटर आया तब से ऐसा लगने लगा कि हम तो अनपढ़ हो  गये, दूसरी तीसरी क्लास के बच्चे भी हमसे ज़्यादा जानते हैं। हमारे बच्चों ने हमें बताया कि लिखकर…..अरे नहीं टाइप करके बातचीत करने को चैट कहते हैं। टाइप करके चिट्ठी एक बटन दबा  के चली जाती है जिसे ई मेल कहते हैं । ई मेल का पता घर का पता नहीं होता ख़ुद ही कोई झूठ मूठ का पता बनाने से सारी चिट्ठिययाँ आ जाती है, बस पासवर्ड याद रखना पड़ता है ,नहीं तो आई हुई चिट्ठी भी पढ़ नहीं सकते। हमारी उत्सुकता इतनी बढ़ी कि हमने ठान ली अब हम अनपढ़ नहीं रहेंगे टाइपिंग भी सीखेंगे और कम्प्यूटर इस्तेमाल करना भी। हिन्दी को रोमन में लिखने पढ़ने में अर्थ का अनर्थ होने लगा था। हमने लिखा  chhat  tapak rahi  hai  (छत टपक रही है)पढ़ने वाले ने पढ़ा ‘चाट टपक रही है।‘ जैसे तैसे देवनागरी में टाइप करने की तकनीक उपलब्ध करवाईं और इस युक्ति से मुक्ति ली पर इस उम्र में ये कोई आसान काम नहीं था पर सीखना तो था ही, सो सीखा। चैट की भाषा सीखना भी  आसान नहीं था यहाँ Tomorrow को tmmro या ऐसा ही कुछ और लिख देते हैं too , 2 हो जाता है great को gr8 कर सकते हैं भाषा का ये अनोखा  रूप पढ़ पाना ही हमारे लिये चुनौती था, पर हमने सीखा वैसे ही जैसे कभी क्लास में  नोट्स लिया करते थे!  वह भी अपनी ही बनाई भाषा होती थी, जिसे हम ख़ुद ही पढ़ पाते थे। हाँ अब हमें साइलैंट अक्षरों का हटाना और are को R और you कोU लिखना अच्छा लगने लगा है । हमारी उम्र  बढ़ रही थी और गैजेट छोटे हो रहे थे। हमने डैस्कटौप पर बड़े से मानीटर पर चूहे की पूंछ पकड़कर कम्प्यूटर का प्रयोग करना सीखा था सब अच्छा चल रहा था कि कम्प्यूटर जी बूढ़े होकर बीमार रहने लगे,तो लैपटौप आ गया जिसका स्क्रीन और की बोर्ड हमें छोटा लगता था लैपटौप आने के बाद भी हमने … Read more

गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 11

गुज़रे हुए लम्हे

  आत्मकथा लेखन में ईमानदारी की बहुत जरूरत होती है क्योंकि खुद के सत्य को उजागर करने के लिए साहस चाहिए साथ ही इसमें लेखक को कल्पना को विस्तार नहीं मिल पाता | उसे कहना सहज नहीं होता | बहुत कम लोग अपनी आत्मकथा लिखते हैं | बीनू दी ने यह साहसिक कदम उठाया है | बीनू भटनागर जी की आत्मकथा “गुज़रे हुए लम्हे “को आप अटूट बंधन.कॉम पर एक श्रृंखला के रूप में पढ़ पायेंगे | गुज़रे हुए लम्हे -परिचय गुजरे हुए लम्हे -अध्याय 1 गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 2 गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 3 गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय चार गुज़रे हुए लम्हे अध्याय -5 गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 6 गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 7 गुजरे हुए लम्हे -अध्याय-8 गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 9 गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय -10 अब आगे ….   गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 11-अमरीका यात्रा और सेवानिवृत्त (दिल्ली 2000 से 06) इन्हें सेवानिवृत्त होने में अधिक समय नहीं था, बच्चे एक बार फिर रेलवे की शान के साथ शिमला जाना चाहते थे। बहुत पहले जब ये दोनों छोटे थे तब इनके काम के सिलसिले में साथ हो लिये थे, वही अनुभव दोहराना चाहते थे।हम जाते समय रेल कार से गये जिसे जहाँ चाहें रोक कर इन्होंने लाइन और सिग्नल सिस्टम की जाँच परख की और आगे बढ़ गये। कुफरी तथा अन्य दर्शनीय स्थल देखे और वापिस कैरिज से आये।   शताब्दी के पहले साल में अप्रैल के महीने में अचानक चाची जी की तबीयत ख़राब हुई और  वे 3-4 घंटे में ही चली गईं। जब तक हम अस्पताल पहुँचे  वे जा चुकी थीं।  दिल की बीमारी तो उन्हें थी ही, उच्च रक्त चाप भी रहता था, परन्तु जाने से पहले कोई विशेष बीमार नहीं हुईं थी। बस वक़्त आ गया था और सुकून से चली गईं। उन दिनों अपूर्व और सौम्या के कॉलिज के दूसरे साल की परीक्षा चल रहीं थी। जिस समय उनकी अंत्येष्टि हुई थी उस समय अपूर्व परीक्षा दे रहा था।   जैसा कि हमारी मान्यता है ,चाची जी की अंतिम विदाई के बाद सादगी से हवन और शांति पाठ करवा दिया, कोई बहुत बड़ा आयोजन नहीं किया न कोई रस्म अदायगी की।  चाची जी के जाने के बाद चाचा  जी बहुत अकेले हो गये थे। चाचा जी को सुनाई कम देता था, चाची जी हर बात उन्हें ज़ोर ज़ोर से बोलकर सुनाती थीं, ख़ासकर जब किसी से फ़ोन पर बात करती थीं, उसके बाद संवाद का उन्हें पूरा विवरण देती थीं। । आवाज़ चाचा  जी की भी तेज़ थी, पर अब वे इतनी फुर्सत से किससे बातें करते!   हमने लखनऊ का मकान जब बनाया था. तब बच्चे छोटे थे पर अब  वे बड़े हो गये थे, दोनों ही लखनऊ नहीं जाना चाहते थे। लखनऊ के मकान के गृह प्रवेश के समय मेरी तबीयत ख़राब हुई फिर एक किराये दार ने बहुत परेशान किया था, इसलिये हमें भी उसकी दरों दीवार से कोई विशेष लगाव नहीं हुआ था, जबकि वह मकान  बहुत बड़ा और अच्छा था और ख़ुद की निगरानी में बना था। ।हमने निश्चय किया कि उसे बेचकर दिल्ली में ही फ्लैट ले लेंगे। अतः वह मकान जिसको बहुत मेहनत से बनाया था, बेच दिया। दिल्ली में वसुंधरा एन्क्वलेव में 3 बैडरूम का फ्लैट ख़रीद लिया, जिसमें हम आज तक रह रहे हैं।   अपूर्व ने 2002 में बी.कॉम कर लिया था अब प्रबंधन (मैनेजमैंट) की प्रवेश परीक्षाओं के लिये एक साल उसकी तैयारी करनी थी। तनु अपने काम पर जा ही रही थी।  मेरी सोच में अब परिवर्तन आने लगा था। पहले मुझे लगता था कि मैं एक असफल इंसान हूँ, अब मैं सोचने लगी थी कि मैंने अपने सब कर्तव्य सही तरीके से निभायें हैं, यदि कोई संतुष्ट नहीं है, तो ये मेरी नहीं उसकी समस्या है। मैंने अपने बच्चों की अच्छी परवरिश की है, पर मैं उनकी किस्मत नहीं लिख सकती। 2002 में बीबी आई थी। रात में हम बहनों में बातचीत हुई और सुबह हमने ऐलान कर दिया कि मैं बीबी के साथ अमरीका जा रही हूँ। पासपोर्ट था ही, वीसा भी जल्दी मिल गया। रघुवीर और उसका परिवार आउट हाउस में थे, जो पूरा घर संभाले हुए थे। इन तीनों को कोई दिक़्कत नहीं होने वाली थी।  दिसम्बर में इनकी सेवानिवृत्ति होनी थी, बस साठवें जन्मदिन और सेवानिवृत्ति के समय दूर रहना अखर रहा था,परंतु यह भी लग रहा था कि अब नहीं गयी तो शायद फिर कभी न जा पाऊँ।   ये मेरी पहली विदेश यात्रा ही नहीं, पहली हवाई यात्रा भी थी।ये भी संयोग की बात है हम दोनों की पहली हवाई यात्रा सीधे अमरीका यात्रा ही थी, भले समय का अंतराल बहुत लम्बा …… कुछ दशकों का था। इनकी रेलवे की सर्विस की वजह से लम्बे लम्बे सफ़र ट्रेन से ही करे थे। रेलवे  साल में व्यक्तिगत यात्रा के लिये भी 6 पास रेलवे देती थी। उस समय तक भी हवाई सफर जनसाधारण के लिये मंहगा ही होता था। हमें उड़ान पैरिस में बदलनी थी, पर बीबी साथ में थी इसलिये कोई परेशानी या घबराहट नहीं थी।  इतनी लम्बी हवाई यात्रा में मैं बहुत थक गई थी पर बीबी उतना थकी हुई नहीं लग रही थीं। डलस एयरपोर्ट पर भाई साहब मिल गये थे। घर पहुँच कर जब घर के सामने खड़े थे तब वहाँ भयंकर सा सन्नाटा महसूस हुआ।  भारत में रहते हुए ऐसा सन्नाटा कभी पहले नहीं महसूस हुआ था। ये सन्नाटा और ठंड जान लेवा सी लगी थी।   मैं जितनी थकान महसूस कर रही थी उतनी ही ताज़गी बीबी के चेहरे पर थी। मुझे विदेश में आकर ऐसा लग रहा था कि मैं अपने माहौल को डेढ दो महीने के लिये बहुत पीछे छोड़ आयी हूँ और वे अपने माहौल, अपने घर लौटीं थी। आते ही उन्होंने झटपट खिचड़ी बना ली। कुछ देर बाद उन्होंने डीप फ्रीज़र में देखा, जाने से पहले( 3-4 सप्ताह) वे बैंगन और कुछ अन्य सब्जियाँ बना गईं थी जो भाईसाहब खा नहीं पाये थे, बची हुईं थी। अब हुआ ये कि ताजी खिचड़ी फ्रीज़र में और पुरानी दाल सब्जी बाहर! धीरे धीरे पता चला कि ये वहाँ लगभग हर घर की कहानी है।मैं इतनी थकान महसूस कर रही थी कि उस रात … Read more

गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय -10

गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय -10

  आत्मकथा लेखन में ईमानदारी की बहुत जरूरत होती है क्योंकि खुद के सत्य को उजागर करने के लिए साहस चाहिए साथ ही इसमें लेखक को कल्पना को विस्तार नहीं मिल पाता | उसे कहना सहज नहीं होता | बहुत कम लोग अपनी आत्मकथा लिखते हैं | बीनू दी ने यह साहसिक कदम उठाया है | बीनू भटनागर जी की आत्मकथा “गुज़रे हुए लम्हे “को आप अटूट बंधन.कॉम पर एक श्रृंखला के रूप में पढ़ पायेंगे | गुज़रे हुए लम्हे -परिचय गुजरे हुए लम्हे -अध्याय 1 गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 2 गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 3 गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय चार गुज़रे हुए लम्हे अध्याय -5 गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 6 गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 7 गुजरे हुए लम्हे -अध्याय-8 गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 9 अब आगे ….     अध्याय 10-लेखन की शुरुआत (दिल्ली 1997 से 2000) 1997 में अपूर्व ने 10 वीं कक्षा पास कर ली थी। हिंदी तो दसवीं तक ही पढ़ी थी उस समय का एक संस्मरण उद्धरित करके इस अध्याय का आरंभ करती हूँ।–   मैं और मेरा बेटा (संस्मरण 9 )   आज कुछ पुरानी बाते याद आ रहीं हैं, अपूर्व मेरा बेटा जब दसवीं कक्षा में था तो  मैं उसे हिन्दी पढ़ाया करती थी विशेषकर कविता। कविता में उसे बिल्कुल रुचि नहीं थी पर परीक्षा देनी थी इसलिये पढ़ना तो था ही। शब्दों का अर्थ समझाने के बाद भावार्थ समझाना बहुत कठिन हो जाता था क्योंकि उसके पाठ्यक्रम की कविताओं में जो विषय लिये गये थे, वो या तो दार्शनिक से थे या फिर उस आयु के लिये बेहद नीरस। अंत में यही होता कि ‘’मां मैं रट लूँगा परीक्षा से 2-3 दिन पहले लिख कर रख दो।  ‘’आखिर मैं कितना लिखूँ और वह कितना रटे!   कवियों का जीवन परिचय और साहित्यिक परिचय भी परीक्षा में अवश्य ही आता था, जब कवि की एक रचना समझना कठिन है तो साहित्यिक परिचय कैसे लिखें!  8-9 कवि और उतने ही लेखक तो होंगे पाठ्यक्रम में।   अपूर्व ने ही सुझाव दिया कि ‘’मां एक चार्ट बना दो उस में सब कवियों और लेखकों के नाम फिर जन्म तिथि जन्म स्थान और हर एक की दो दो किताबों के नाम लिख दो बाकी सब  की कविताओं की तारीफ में कुछ कुछ लिख दूँगा नम्बर लेने के लिये कुछ तारीफ करना ज़रूरी है, बुराई तो कर नहीं सकते।‘’   मैंने चार्ट बना दिया सुपुत्र जी ने देखा फिर अपने अंदाज में बोले ‘’ये बर्थ डे क्यों याद करनी पड़ती है?अब कवियों को फोन कर के हैप्पी बर्थ डे कहना है क्या !   मैं निरुत्तर…   फिर उनके जन्म स्थान ‘’अरे माँ ये सब कहाँ कहाँ जाकर पैदा हुए इन छोटे छोटे गाँवों के नाम कैसे याद होंगे दिल्ली मुंबई में कवि और लेखकों जन्म क्यों नहीं लेते ? यहाँ भी हमसे दुश्मनी !’’ ‘’ माँ आप कहाँ पैदा हुईं थी?’’ अचानक मुझ पर सवाल दाग दिया ।   ‘’बेटा, बुलन्दशहर’’ मैंने बताया।   ‘’तभी कविता लिखने का शौक है’’ उसने निराशा के साथ कहा।‘’   उस समय मेरी कवितायें और लेख पत्रिकाओं में प्रकाशित होने लगे थे।   अपूर्व एकदम बोल पड़ा ‘’लिखना है तो कविता लिखो पर छपवाना बन्द करो।‘’   मैंने पूछा ‘’क्यों ?’’   ‘’अगर किसी NCERT वाले को पसंद आ गईं आपकी कवितायें और कोर्स की किताब में डाल दी गईं तो बच्चे बहुत कोसेंगे। मेरी माँ को कोई बुरा भला कहे मैं बर्दाश्त नहीं कर सकता। ‘’उसने मासूम सा, भावुक सा जवाब दिया ।   समस्त कवि गण इसे चेतावनी समझ सकते हैं ! कृपया ध्यान दें! पाठ्यक्रम निर्धारित करने वाले भी विचार करें।   संस्मरण का सिलसिला शुरू हुआ है तो एक के बाद एक दो संस्मरण और-     नाम गुम जायेगा..   (संस्मरण 10 )   हमारे पति श्री अरुण भटनागर रेलवे में  उच्च अधिकारी रहे हैं, उस समय उनकी आयु 55 के क़रीब होगी। अपने सारे काम पूरी निष्ठा से करते रहे हैं। बुद्धिमान हैं, अपने कार्यालय में अच्छी छवि है। याददाश्त इतनी अच्छी है कि क्रिकेट में कब क्या हुआ या कोई ऐतिहासिक घटना हो तुरन्त बता देते हैं। कभी कभी मैं उनसे कहती  थी कि उन्हें तो ‘कौन बनेगा करोड़पति’ में जाना चाहिये। जब भी यह कार्यक्रम देखते हैं फटाफट उत्तर देते जाते हैं, कोशिश करके एक बार वहाँ पहुंच जायें तो कम से कम 50 लाख तो जीत ही सकते हैं।   याददाश्त इतनी अच्छी होते हुए भी इनके लिये मेरा और बच्चों का जन्मदिन याद रखना मुश्किल होता है, पर बच्चे और मैं इन अवसरों के आने से पहले ही इतने उत्साहित रहते हैं कि उन्हें याद आ जाता है। कभी बच्चे पहले आकर कह देते हैं ‘’मम्मी पापा शादी की साल गिरह मुबारक हो’’ तो उन्हें भी याद आ जाता है कि पत्नी को मुबारकबाद दे दें।   इनकी सबसे बड़ी परेशानी है कि वे लोगों के और कभी कभी स्थानों के नाम भी भूल जाते हैं। कभी किसी पार्टी में कोई बहुत दिन बाद मिलता और उत्साहित होकर पूछता ‘’कैसे हैं भटनागर साहब, पहचाना नहीं क्या ?’’ ‘’अरे, कैसी बात कर रहे हैं पहचानूँगा क्यों नहीं।‘’ कहने को तो ये कह देते, वे उन महाशय को पहचान भी रहे होते, बस नाम दिमाग़ से फिसल जाता। ऐसे में वहाँ से खिसक लेने मे ही भलाई समझते कि कहीं बात बढ़े और पोल खुल जाये।   इनका अपना परिवार काफ़ी बड़ा है। अपने भाई बहनों के नाम तो याद रहते हैं पर उनके बच्चों के नाम कभी कभी भूल जाते है। मेरे परिवार में बहुत लोगों के दो नाम हैं, घर का एक नाम और असली नाम कुछ बिल्कुल अलग!, वहाँ तो उनकी मुश्किल दोगुनी हो जाती है। इन्हें अकसर सरकारी काम से शहर से बाहर जाना पड़ता है। एक बार ये नई दिल्ली से लखनऊ मेल में सवार हुए। रात का समय था ट्रेन चल चुकी थी वे आराम से सोने की तैयारी में थे, कंडक्टर ने आकर भारतीय रेल का पास देखा, जैसे ही वह जाने को हुआ तो इन्होंने कहा ‘’मुझे हरिद्वार मेये जगा देना।‘’   कंडक्टर ने कहा ‘’सर, ये ट्रेन हरिद्वार नहीं जाती।‘’   ‘’अरे, कैसे नहीं जाती लखनऊ मेल ही है न। ‘’   … Read more

गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 7

महानगरीय जीवन का आरंभ

आत्मकथा लेखन में ईमानदारी की बहुत जरूरत होती है क्योंकि खुद के सत्य को उजागर करने के लिए साहस चाहिए साथ ही इसमें लेखक को कल्पना को विस्तार नहीं मिल पाता | उसे कहना सहज नहीं होता | बहुत कम लोग अपनी आत्मकथा लिखते हैं | बीनू दी ने यह साहसिक कदम उठाया है | बीनू भटनागर जी की आत्मकथा “गुज़रे हुए लम्हे “को आप अटूट बंधन.कॉम पर एक श्रृंखला के रूप में पढ़ पायेंगे | गुज़रे हुए लम्हे -परिचय गुजरे हुए लम्हे -अध्याय 1 गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 2 गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 3 गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय चार गुज़रे हुए लम्हे अध्याय -5 गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 6 अब आगे ….   गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 7 –महानगरीय जीवन का आरंभ (दिल्ली1978 से 86 तक) हम लोग ज्यादातर सामान शोलापुर में पैक करके रख आये थे ओर काफ़ी कुछ बेच भी दिया था। बस सूटकेस में कपड़े लेकर दिनेश भैया के यहाँ चले आयेथे।मकान मिलने में कुछ समय लगना था। बाकी लोग रमा दी, चाची जी वगैरह वहाँ से जा चुके थे। दिनेश भै़या को भी सूरत मैडिकल कालेज में नौकरी मिल गईथी तो वह भी चले गयेथे, जयश्री दिल्ली में ही रही, कभी कभी सूरत चली जाती थी। यह मकान कुछ दिन रख तो सकते ही थे। जयश्री भी ज्यादातर अपने माता पिता के पास रहने लगी थी, इसलिये मकान उनका होते हुए भी घर हम ही चला रहेथे। जैसे जैसे दिन बीत रहे थे,सरकारी मकान मिलने और तनु का स्कूल में दाख़िलाकरवाने कीचिंता मन पर बहुत हावी हो रहीं थी।   हम दोनों ही महानगरों में अभी तक नहीं रहे थे। छोटे शहरों और महानगरों की जीवन शैली में बहुत अंतर होता है। इनकी पोस्टिंग रेलवे बोर्ड में हुई थी। जुलाई आते आते सरोजनी नगर के रेलवे बोर्ड के ट्राँज़िट फ्लैट में हमें घर मिल गया था। घर छोटा था परंतु बहुत सुविधाजनक था। आउट हाउस और छोटा सा लॉन भी था। सरोजनी नगर का बाज़ार बहुत पास था। अब तो इसबाज़ार की गिनती दिल्ली के मुख्य बड़े बाज़ारों में होती है।   घर के सामने रिंग रेलवे की लाइन थी और उसके पार कुछ दूर पर ही नेवल पब्लिक स्कूल था।  तनु का दाख़िला वहीं करवाना था। प्रधानाचार्य से जाकर पहले ही बात कर ली थी। हालाँकि उन्होंने बहुत सहृदयता दिखाई और बिना कोई परीक्षा लिये दाख़िला देने को तैयार हो गईं परंतु  दूसरी कक्षा में लिया, क्योंकि उनके अनुसार तीसरी कक्षा में जगह नहीं थी। तनु शोलापुर से दूसरी कक्षा उत्तीर्ण करके आई थी। हमने ये भी स्वीकार कर लिया क्योंकि हमारे पास कोई और विकल्प था ही नहीं। किसी दूर के स्कूल में दाख़िल करवाते तो और बहुत सी कठिनाइयाँ सामने आती।   आउट हाउस वाली नौकरानी इसे स्कूल में कक्षा तक पहुँचा कर आती थी और वापिस भी लाती थी। मैं ब्रेक में नाश्ता लेकर जाती थी और देख लेती थी कि कोई और ज़रूरत तो नहीं है। दो तीन महीने बीतने के बाद इसकी कक्षा अध्यापिका श्रीमती मित्तल ने कहा कि इसको तो सब आता है, समझाने से पहले ही काम पूरा कर देती है। मैंने उन्हें बताया कि इसे तीसरी कक्षा में होना चाहिये था। श्रीमती मित्तल ने प्रधानाचार्य  से बात की और इसे तुरंत तीसरी कक्षा में भेज दिया गया था। इस प्रकार बेवजह एक साल बर्बाद होने से बच गया। नेवल स्कूल पास था यह सुविधा थी ही ,स्कूल में पढ़ाई भी अच्छी थी और सभी अध्यापिकायें तनु का ध्यान रखती थीं। अध्यापिकायें स्कूल के बाहर भी पिकनिक पर और अन्य दर्शनीय स्थानों पर बस में पूरी ज़िम्मेदारी से ले जाती थीं। प्रिंसपल ने कई साल तक इसके क्लास को भूतल पर ही रखा था।   इस समय हम तीनों के अलावा जयश्री भी हमारे साथ रह रही थी। मोती बाग़ में उसके माता पिता रहते थे ,वहाँ आती जाती रहती थी। सूरत से दिनेश भैया दूसरे तीसरे महीने आ जाते थे , उनकी गृहस्थी एक जगह जम नहीं पा रही थी। जयश्री का तनु पर बहुत लाड़ था। तनु भी चाची से, उसके पहनावे से, पर्स व सैंडिल इत्यादि से बेहद  प्रभावित रहती थी। वह घर से बाहर जाती थी तो सलीके से साड़ी पहनती थी जबकि मैं तो घर में रहती थी,  इतना व्यवस्थित नहीं रहती थी। जयश्री जब कोई नयी सी या बढ़िया साड़ी पहनकर तैयार होती तो तनु समझ जाती थी कि आज चाची डिसपैंसरी से सीधी घर नहीं आयेगी। दिनेश भैया का आना भी इसे अखरता था क्योंकि चाची पर एकाधिकार जो नहीं रहता था।  हम हमेशा की तरह दीवाली पर तो ग्वालियर जाते ही थे, साल में एक बार लखनऊ भी चले जाते थे। अधिकतर सुरेन भैया और उनके परिवार से भी वहीं मिलना हो जाता था। ग्वालियर में नीता मैडिकल कालेज में पढ़ रही थी।   सरोजनी नगर के इस छोटे से घर में मेहमानों का आना जाना बहुत रहता था।  उस समय तक लोग रिश्तेदारों के यहाँ बेखटके रहने आ जाते थे।  आजकल लोग अपने काम से आते हैं तो होटल में रुकते हैं, उस समय रिश्तेदारों का रुकना, बिना कहे आना सब सामान्य था।  शोलापुर से आकर ये सब हमें अच्छा लग रहा था। शोलापुर तो कम ही लोग पहुँचते थे। हमारे सरोजिनी नगर के घर से सुरेन भैया की बड़ी बेटी अपर्णा की सगाई का एक शुभ  कार्य भी संपन्न हुआ। दरअसल यह रिश्ता हमने हीतय करवाया था। वर उमा दी की ननद का बेटा अशोक था। लड़के वाले उमा दी के घर ठहरे थे, लड़की वाले हमारे यहाँ।  एक प्रकार से रिश्ता भाई बहन की ससुराल के परिवारों के बीच हुआ था।हमारे यहाँ आकर लड़की लड़के को देखने की औपचारिकताओं के बाद दोनों तरफ़ से ‘हाँ’ हो गई और अगले दिन ही सगाई हो गई। सब कुछ घर में ही हो गया। यहाँ तक कि खाना भी घर में ही बना दोनों तरफ़ केपरिवारके लोग ही थे। अन्य रिश्तेदारों या मित्रों को नहीं बुलाया था। अपर्णा की शादी भी 80 की मई में लखनऊ से भैया के घर से संपन्न हुई।   इस समय तक हमारे पास स्कूटर ही था। कभी कभी उमा दी के घर हम तीनों स्कूटर पर ही चले जाते थे । ये … Read more

गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 6

गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 6

    आत्मकथा लेखन में ईमानदारी की बहुत जरूरत होती है क्योंकि खुद के सत्य को उजागर करने के लिए साहस चाहिए साथ ही इसमें लेखक को कल्पना को विस्तार नहीं मिल पाता | उसे कहना सहज नहीं होता | बहुत कम लोग अपनी आत्मकथा लिखते हैं | बीनू दी ने यह साहसिक कदम उठाया है | बीनू भटनागर जी की आत्मकथा “गुज़रे हुए लम्हे “को आप अटूट बंधन.कॉम पर एक श्रृंखला के रूप में पढ़ पायेंगे | गुज़रे हुए लम्हे -परिचय गुजरे हुए लम्हे -अध्याय 1 गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 2 गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 3 गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय चार गुज़रे हुए लम्हे अध्याय -5 अब आगे ….       गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 6 मुश्किल वक़्त में धैर्य (काज़ीपेट, शोलापुर, सिकंद्राबाद 1972 से 1978)     मुझे लेने ये ओबरा आये और थे ,ग्वालियर  तीन चार दिन रुककर हम काज़ीपेट पहुँच गये थे। इस बीच कोरे गाँव से इनका तबादला काज़ीपेट (आंध्र प्रदेश) हो चुका था, ये सामान सहित वहाँ पहुँच गये थे। काज़ीपेट दरअसल शहर था ही नहीं, रेलवे के महत्व के अलावा,रेलवे के स्टाफ के अलावा, वहाँ कुछ था ही नहीं, पास में वारंगल शहर था। धीरे धीरे गृहस्थी का सामान जुड़ रहा था। वहाँ कोई सरकारी बड़ा मकान खाली नहीं था तो हमें दो कमरों के दो क्वाटरबराबर बराबरलगे हुए मिल गये जिनको एक कमरे से जोड़ दिया गया था। जगह की कमी नहीं थी पर अजीब  लगता था। एक लाइन में चार कमरे दो आँगन दो रसोई। काज़ीपेट में मुझे और तनु दोनों को चिकन पाक्स निकली थी। जब मुझे चिकन पॉक्स हुई तो इनके एक सहकर्मी मित्र और उनकी पत्नी तनु को अपने घर ले गये फिर भी बचाव नहीं हुआ। मैं वहाँ काफ़ी बीमार हुई। इन्होंने तनु को बहुत संभाला था। सिकंद्राबाद( आंध्र)  जाकर चैक-अप और इलाज हुआ। मैं धीरे धीरे ठीक हो गई। काज़ीपेट हम कुछ महीने ही रहे होंगे वह भी बीमारियों में घिरे रहे, साल भर से पहले ही पदोन्नति पर इनकातबादला शोलापुरहो गया। शोलापुर महाराष्ट्र का चौथा या पाँचवाँ बड़ा शहर हैमुंबई, पुने,  नागपुर और कोल्हापुर के बाद,  उस समय ये दक्षिण मध्य रेलवे में था। मुंबई से सिकंद्राबाद या अन्य दक्षिण के शहरों को जाने वाली लाइन पर शोलापुर शहर स्थित है। यहाँ के बैडकवर बहुत मशहूर हैं और बहुत सी कपड़ा मिलें भी वहाँ थी। ।यहाँ हमें पुराना मगर काफ़ी बड़ा बंगला मिल गया था। हम ख़ुश थे और धीरे धीरे गृहस्थी का सामान जोड़ रहे थे।   शोलापुर आने के बाद जून 1972 में हमें एक ऐसा झटका लगा जिसको सोचना भी अब नहीं चाहते। हमारी प्यारी बेटी तनु को अकस्मात बुखार आया और दोनों पैरो में पोलियो हो गया। यद्यपि उस समय पोलियो की बूँदें पिलाई जाने लगी थीं पर कुछ ने कहा था कि साल अंदर पिला दो।  काज़ीपेट में सुविधा थी नहीं और शोलापुर आठ महीने की आयु में ये हो ही गया था, जिस समय बच्चा पकड़कर चलना शुरू करता है,यह वही आयु थी। वहाँ रेलवे के अस्पताल में भर्ती रखा फिर मुंबई भी दो तीन बार गये पर कुछ फर्क नहीं पड़ा। मैं तो विक्षिप्त  सी हो गई थी, परंतु इन्होंने कभी डाँटकर ,कभी समझाकर मुझे इस विकट परिस्थिति  का सामना करने के लिये तैयार किया। धीरे धीरे बदली हुई परिस्थिति  के लिये हम अपने को तैयार कर रहे थे, फिर भी व्याकुलता अपनी चरम सीमा पर थी। कोई कुछ भी कहता हम मान लेते थे। सत्य साईं बाबा के आश्रम पुट्टपर्थी गये,  किसी ने कोई डाक्टर गोवा में बताया, वहाँ भी गये। केरल का आयुर्वेदिक इलाज भी किया। अब तक हम झटके के बाद मजबूत हो चुके थे, इसलिये जहाँ भी इलाज के लिये जाते कोई उम्मीद लेकर नहीं जाते थे। इलाज के बाद कुछ पर्यटन भी हो जाता था। इसको लेकर हमने गोवा और केरल के काफ़ी स्थान देख लिये ।   जब परेशानी में होते है तो हर एक की बात मान लेते हैं। हम पुट्टापर्थी सत्य सांई बाबा के आश्रम में भी गये पर कोई श्रद्धा नहीं उभरी वे एक जादूगर से ज्यादा नहीं लगे। हमारे घर में राधास्वामी सत्संग का माहौल था, मैंने कोशिश की पर मन ज़रा भी नहीं लगा।  लखनऊ के एक वैद्य ने भी कानपुर में पोलियो से ग्रस्त बच्चों के लिये शिविर लगाया था, तब तक भैया भी लखनऊ नहीं आये थे मैं उस शिविर में 15 दिन रही थी। बाद तक भी उन वैद्य का इलाज किया था। मुंबई में एक ज्योतिषी ने त या ट से नाम रखने की सलाह दी थी तो इसका नाम तनुजा रख दिया। जिन चीज़ों पर विश्वास न हो वह भी हम कर लेते हैं किसी करिश्मे की उम्मीद में!   केरल में पालघाट ज़िले  में इनके एक सहयोगी का घर था, उन्होंने वहीं पर आयुर्वेदिक इलाज का प्रबंध करवा दिया था। वहाँ से हम मलमपुज़ाडैम गये जहाँ बहुत खूबसूरत गार्डन था पता नहीं क्यों वह आजकल केरल के पर्यटन स्थलों की सूची में नहीं है। गुरुवयूर  मंदिर देखा। त्रिवेंद्रम में भी इनके सहयोगी मित्र के माता पिता के आतिथ्य में रहे। कन्याकुमारी उस समय बहुत सुंदर था। इतने होटल दुकानें नहीं थे। एक स्थान पर खड़े रहकर महसूस होता था कि एक तरफ बंगाल की खाड़ी है और दूसरी तरफ़ अरब सागर।  एक ही स्थान से सूर्योदय और सूर्यास्त समुद्र में देखने के अनूठा अनुभव था। केरल से हम बंगलौर आये वहाँ स्थानीय भ्रमण करने के बाद मैसूर गये। मैसूर के वृंदावन गार्डन दिन में और रात में देखे और कश्मीर की तरह यहाँ भी ऐसा लगा कि कई फिल्मों के गीतों का छायांकन वहाँ हुआ था।मैसूर का महल भी देखा था।   हम गोवा भी गये थे ट्रेन का अंतिम स्टेशन वास्को था ,पूना से वास्को तो पहुँच  गये परन्तु वास्को से पणजी पहुँचना आसान नहीं था, रास्ते में एक नदी फैरी से पार करनी पड़ती थी, दूसरी ओरजहाँफैरी ने उतारा वह बड़ी सुनसान जगह थी। अंतिम बस पकड़ कर पणजी पहुँचे थे। बस स्टैंड पर टैक्सी औटो मिलने मेंमुश्किल हुई, फिर एक सहयोगी मित्र को फोन किया, तब उन्होंने वहाँ से सर्किट हाउस पहुँचाने के लिये प्रबंध किया, जहाँ हमारे लिये कमरा आरक्षित था। काम हो जाने के … Read more

गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय चार

गुजरे हुए लम्हे

आत्मकथा लेखन में ईमानदारी की बहुत जरूरत होती है क्योंकि खुद के सत्य को उजागर करने के लिए साहस चाहिए साथ ही इसमें लेखक को कल्पना को विस्तार नहीं मिल पाता | उसे कहना सहज नहीं होता | बहुत कम लोग अपनी आत्मकथा लिखते हैं | बीनू दी ने यह साहसिक कदम उठाया है | बीनू भटनागर जी की आत्मकथा “गुज़रे हुए लम्हे “को आप अटूट बंधन.कॉम पर एक श्रृंखला के रूप में पढ़ पायेंगे | गुज़रे हुए लम्हे -परिचय गुजरे हुए लम्हे -अध्याय 1 गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 2 अब आगे …. गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 4 उलझनों में घिरा यौवन व विवाह समारोह (लखनऊ और औबरा 1967 से69)   एम.ए.पास करने के बाद लखनऊ में ललिता और बीबी दोनों नहीं थे। मैं तब लखनऊ में बहुत अकेली हो गई थी।फोन सबके घरों में नहीं होते थे, यह अकेलापन मेरे पहले अवसाद का कारण  बना, जिसे मैं मनोविज्ञान का इतना ज्ञान होने के बाद भी समझ नहीं पाई थी। वैसे इसमें अचंभे वाली कोई बात नहीं है क्योंकि कोई भी मनोवैज्ञानिक अपने या अपने परिवार के बारे में कोई प्रोफैशनल राय नहीं बना सकता।मैं पी. एच. डी. करना चाहती थी परन्तु हमें बताया गयाथा कि वह मिलने में कुछ महीने लग सकते हैं,पर हो अवश्य जायेगा, तब तक विभाग के एक रिसर्च प्रौजैक्ट में रिसर्च असिसटैंट का काम मैं कर सकती हूँ ।मैने उसे स्वीकार लिया।रिसर्च प्रोजैक्ट के लिये मुझे इकट्ठा किये गये डेटा का विश्लेषण करना होता था ।आजकल तो कम्प्यूटर से सब फटाफट हो जाता है, उन दिनों तो हमारे पास कैलकुलेटर भी नहीं होते थे। सारी गणनाये स्वयं करनी पड़ती थी, साँख्यकी(statistics)  का अच्छा ख़ासा ज्ञान था, पर दिन भर यही काम अकेले लायब्रेरी में या किसी साइड रूम में करते रहना आसान नहीं था।हॉस्टल में भी किसी से बात करने का मन नहीं करता था। अपने ही विभाग में भी किसी से बात नहीं की, मुक्ता वहीं थी, उससे भी कभी नहीं मिली । अपने अन्य किसी सहपाठी की भी खोज ख़बर नहीं ली।अब याद करती हूँ तो सहम जाती हूँ, क्योंकि अब मैं अवसाद को अच्छी तरह समझ गई हूँ।उस समय मैं अंदर ही अंदर घुट रही थी,मर रही थी।   मम्मी भी बार बार वापिस आने को कहती रहती थीं, उन्हे मेरा अब लखनऊ में रहना बेकार लग रहा था।मेरा ओबरा जाने का भी कतई मन नहीं था। वहाँ नानी, मम्मी, भैया ,भाभी और उनके तीन बच्चे थे। सुरेन भैया देहरादून ज़िले में कोटी में थे।वहाँ मम्मी साल में एक बार चली जाती थीं।भैया भाभी ने मम्मी और नानी की देखभाल में कोई कमी नहीं रखी फिर भी वैचारिक अंतर तो होते ही हैं, नानी और मम्मी दोनों का बुढ़ापा था, उनमें भी खटपट होती रहती थी।मुझे लग रहा था वहाँ मैं ख़ुश नहीं रह पाऊँगी।अब यह सीखो,वह सीखो, भैया और मम्मी पीछे पड़ेगें…………….. फिर शादी की बातें, लड़की देखना दिखाना, इसके लिये मैं ख़ुद को तैयार नहीं कर पा रही थी। लखनऊ में रहकर भी मैं कुछ नहीं कर पा रही थी, असफल महसूस कर ही थी, अपनी क़ाबलियत पर शक कर रही थी, मैं हार रही थी, मैं बहुत दुखी थी, अवसाद ग्रस्त थी। अंत मे मैने हार स्वीकार करली और मैं ओबरा चली गई।   उस ज़माने में जब संचार के साधन बहुत कम थे, लगता था कि जब अपने विभाग में पी. एच. डी. मिलने में कुछ समय लगने की बात हो रही है तो किसी और विश्वविद्यालय में तुरंत तो नहीं मिलेगी।एक विकल्प था कि बैंगलोर से क्लिनिकल सायकौलोजी में पी.जी. डिप्लोमा करूँ पर, इसकी इजाज़त कभी नहीं मिलती, ये भी मैं जानती थी। कोई जानकारी पाना भी कहीं से बहुत मुश्किल होता था, फिर मानसिक तनाव झेलते हुए कुछ सूझ भी नहीं रहा था।मेरी हार घर वालों की जीत थी,मैं पढ़ाई पूरी करके घर आ गई थी।अब मम्मी ने शादी के लियें वर की तलाश शुरू कर दी मेरे पास भी न करने के लिये कोई कारण नहीं था।बस यही सोचा कि अब ज़िंदगी जिस तरफ़ ले जायेगी चल दूँगी! वैसे ओबरा आकर परिवार के बीच भतीजों भतीजी के साथ रहकर अकेलापन कम होने लगा था। ललिता से कभी कभी पत्रों का आदान प्रदान होता रहा, वह जल्दी ही एक बेटे की माँ बन गई थी। रज्जू भैया भी अमरीका में जाकर बसने की तैयारी में लगे थे।   ओबरा में मुझे कॉन्वैंट स्कूल में नौकरी मिल गई थी,वहाँ की सिस्टर ख़ुद प्रस्ताव लेकर आई थी, जबकि मैने बी.ऐड. नहीं किया हुआ था।मुझे पाँचवीं और छटी क्लास को पढ़ाना था।मैंपाँचवीं की कक्षा अध्यापिका बना दी गईथी।पाँचवीं में मेरा भतीजा भी पढ़ता था।ओबरा में केवल उ.प्र. के बिजली विभाग के लोग थे, वहाँ कुछ और था ही नहीं, इसलिये बच्चे भी जान पहचान के थे, जो स्कूल के बाद मुझे भुआ ही कहते थे। मेरा भतीजा बहुत ज़हीन था, प्रथम आता था,  मुझे लगता था कि कहीं कोई पक्षपात न समझे, कोई बच्चा उसके आस पास भी नहीं था।यह सेक्रेड हार्ट कान्वेंट पाँचवीं तक ही था, मेरे आने के बाद उन्होनेसिर्फ एक लड़की के साथ छटी कक्षा शुरू की थी।   इसके अलावा वहाँ सहशिक्षा का सरकारी इंटर कॉलिज था जो उ.प्र. के बिजली विभाग के प्रबंधन में चल रहा था।यहाँ माध्यम हिन्दी था और इस छोटी सी जगह के विद्यालय ने एक वर्ष उ.प्र. बोर्ड का टॉपर दिया। यहाँ के छात्र अच्छे से अच्छे इजीनियरिंग कॉलिज और मैडिकल कॉलिजों में बिना किसी कोचिंग के प्रवेश पाते रहे थे।   यहाँ पर मेरी एक सहेली बनी साधना भार्गव, जिसकी शादी तय हो चुकी थी। वह पढ़ाई ख़त्म करके ओबरा में अपने माता पिता के साथ रह रही थी, बस इंतज़ार था कि कब उसका मंगेतर अमरीका से आये और वह शादी करके वहाँ जाये। वह शादी के सपने देखने में व्यस्त थी। उसके अपने कोई सपने थे ही नहीं। मैं शादी के लिये तैयार थी, पर उसे लेकर मेरे कोई सपने नहीं थे। मैं कुछ करना चाहती थी, पर लक्ष्य सुनिश्चित नहीं था, पी.एच.डी करने का सपना टूट सा चुका था। शायद मुझमें धैर्य की कमी थी और कोई मार्गदर्शक भी नहीं था।   यहाँ एक संगीत के शिक्षक श्री रवींद्र पाँडे भी थे, जो बनारस से … Read more

गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 3

गुज़रे हुए लम्हे

  आत्मकथा लेखन में ईमानदारी की बहुत जरूरत होती है क्योंकि खुद के सत्य को उजागर करने के लिए साहस चाहिए साथ ही इसमें लेखक को कल्पना को विस्तार नहीं मिल पाता | उसे कहना सहज नहीं होता | बहुत कम लोग अपनी आत्मकथा लिखते हैं | बीनू दी ने यह साहसिक कदम उठाया है | बीनू भटनागर जी की आत्मकथा “गुज़रे हुए लम्हे “को आप अटूट बंधन.कॉम पर एक श्रृंखला के रूप में पढ़ पायेंगे | गुज़रे हुए लम्हे -परिचय गुजरे हुए लम्हे -अध्याय 1 गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 2 अब आगे …. गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 3 बेफिक्र किशोरावस्था (लखनऊ.1963-67)   1963 में मैनपूरी के गवर्नमैंट गर्ल्स इंटर कॉलेज से इंटरमीडिएट की परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद फिर सवाल उठा कि अब बी.ए. कहाँ से करवाया जाये। उस समय अच्छा घर वर मिलने के लिये बी.ए. होना काफ़ी था। मैनपुरी में डिग्री कॉलिज था ही  नहीं तो तय किया गया कि लखनऊ के किसी कॉलिज में मेरादाख़िला करवा दिया जाये। उस समय बीबी लखनऊ आ चुकी थी परन्तु उनके ससुर का निधन होने के कारण ससुराल का सारा परिवार उनके पास था, अत: छात्रावास में ही रहने का निश्चय हुआ। उन दिनों दाख़िला मिलना कोई समस्या नहीं थी, जहाँ चाहें वहाँ मिल जाता था, जो विषय लेना चाहें मिल जाते थे। लखनऊ विश्वविद्यालय में भूगोल केवल एक दो कॉलिज में था। मेरी इच्छा थी कि मैं भूगोल लेकर आई. टी. कॉलिज में पढूँ, परन्तु मम्मी को किसी ने बता दिया था कि वहाँ का वातावरण बहुत स्वछंद है , छात्रावास की लड़कियाँ इधर उधर घूमती रहती हैं। मम्मी के दिमाग़ में कोई बात बैठ जाती थी तो फिर वो किसी की नहीं सुनती थीं। बस बी.ए .करना है विषय कुछ भी ले लो,तो मुझे महिला विद्यालय में दाख़िल करवा दिया गया।यहाँ पर मम्मी और मेरे पिताजी की अलग सोच का अंदाज़ होता है।पिताजी ने बीबी को11,12 साल पहले उत्तर प्रदेश के सबसे अच्छे विश्वविद्यालय में भेजा था जबकि मम्मी के लिये सिर्फ बी.ए. हो जाना काफ़ी था। वैसे भी मैं उनकी नज़र में उदण्ड और स्वछंद थी इसलिये मुझ पर बंदिशें ज्यादा थी। अकेली होने की वजह से वो ज़माने से डरती थीं। उनके अनुभवों ने उन्हे हर एक को शक के दायरेमें रखना सिखा दिया था।   महिला विद्यालय लखनऊ के अमीनाबाद में स्थित था, अभी भी है।जिन्होने लखनऊ नहीं देखा उन्हे बतादूँ कि अमीनाबाद दिल्ली के चाँदनी चौक या चावड़ी बाज़ार की तरह का पुराना बाज़ार है। महिला कॉलिज एक बहुत बड़ा कॉलेज/स्कूल है, अब पता नहीं…. पर उस समय यहाँ के.जी. से लेकर बी.ए. बीएड. किया जा सकता था । स्कूल की हर कक्षा के आठ दस सैक्शन थे। बी.ए. का एक बैच चार सौ पाँच सौ लड़कियों का होता था। सीटों की सीमा कहीं नहीं थी जो आ जाये जगह अपने आप बन जाती थी। पढ़ाई बहुत कम ख़र्च में बहुत अच्छी थी। तीन  छात्रावास थे एक इंटरमीडिएट तक की छात्राओं के लिये और बाकी डिग्री कॉलेज  की छात्राओं के लिये थे। अमीनाबाद जैसे बाज़ार में सड़क पर केवल गेट दिखता था, शायद अभी भी कोई बदलाव नहीं हुआ होगा। दुकानों के बीच, कोई अंदाज़ नहीं लगा सकता कि उसके भीतर इतना बड़ा कैंपस है, ये छात्रावास नहीं ये लड़कियों की जेल थी। यहाँ से कदम बाहर निकालने के लिये स्थानीय अभिभावक  की इजाज़त लेनी होती थी, बीच बाज़ार में होते हुए भी अपनी ज़रूरत की चीज़ लेने भी बाहर नहीं जा सकते थे। ज़रूरत का सामान छात्रावास की नौकरानी ही लाकर देती थी।कमरों में एक बल्ब की रौशनी के अलावा कोई सुविधा नहीं थी गर्मियों में पंखा भी किराये का मँगाते थे, वहाँ बिजली डी.सी. हुआ करती थी , डी सी बिजली के कारणपंखे भी धीरे धीरे चलते थे।गर्मियों में बरामदों में सोते थे। नीचे के फ्लोर वाली लड़कियाँ तो लॉन में अपनी चारपाई डाल लेती थीं। सर्दियों में नहाने का पानी मैस से लेने के लिये लाइन लगती थी, रोज तो  नहीं नहा पाते थे।मैस का खाना ठीक ठाक था। आठ लड़कियों पर एक नौकरानी होती थी जो उनके बर्तन धोती संभालती थी, कमरों में झाड़ू पोंछा करती थी और लड़कियों की ज़रूरत का सामान बाज़ार से लाकर देती थी। शाम की चाय के साथ कभी समोसे, कचौरी या पकौडी मिलती थीं, तो रात के खाने की छुट्टी हो जाती थी।   बी.ए. के सभी इम्तिहान यूनिवर्सिटी कैंपस में होते थे। एक दिन पहले ही जिनके इम्तिहान होते थे उनकी सूची बन जाती थी और मेट्रन सबको उनके परीक्षा भवन पर छोडकर वहीं कहीं इंतज़ार करती थी और रिक्शों में ही वापिस लेकर आती थी।यानी लड़कियों  को अपनी मर्ज़ी से हिलने की भी इजाज़त नहीं थी, सुरक्षा के पुख़्ता इंतज़ाम थे। हमें ये बाते उस वक़्त परेशान नहीं करती थी बल्कि सुरक्षित होने का अहसास होता था। हमें मिलने की इजाज़त केवल उन ही  लोगों से थी जिनके नाम और हस्ताक्षर घरवालों ने दे रखे हों।बीमार होने पर मेट्रन ही डॉक्टर के पास ले जा सकती थी।सिनेमा जाना होता था तो पहले सूची तैयार होती थी, यदि बीस नाम आगये तो मेट्रन के साथ रिक्शों में काफिला चलता था। पहुँचने पर देखा जाता था कि क़ैदी पूरे हैं कि नहीं , वापसी में भी गिनकर लाया जाता था।इस तरह एक दो बार मूवी देखने के बाद कभी कैदियों की तरह जाने का मन ही नहीं किया।   मैनपुरी से ही मेरे स्कूल की एक सहेली उषा कुशवाहा ने भी महिला कॉलिज में दाख़िला लिया था और छात्रावास में भी थी। मैनपुरी में हमारी काफ़ी दोस्ती भी थी। यहाँ बी. ए. में हमने बिलकुल अलग विषय लिये थे, धीरे धीरे मेरी और उसकी अलग अलग सहेलियाँ  बनने लगी और उसके साथ समय बहुत कम बीतने लगा।यहाँ मेरी दो ख़ास सहेलियाँ थीं ललिता कपूर और उमा अग्रवाल। ललिता के साथ दो विषय मिलते थे और उमा के साथ बस एक। दोनों ही छात्रवासीय थी।दिवसीय छात्राओं से दोस्ती करने का मौक़ा कम मिलता था हम दिन रात साथ रहने वाले ही बहुत थे।ललिता कपूर से अब तक संपर्क बना हुआ है पर उमा  से बी ए करने के बाद ही संपर्क कम होता चला गया, उसने संस्कृत मे ऐम ए किया था।उस समय पत्रों … Read more