गेस्ट रूम
गेस्ट रूम यानि मेहमानों का कमरा |आजकल के घरों में बनाया जाने वाला एक आवश्यक कमरा है |जहाँ मेहमानों को आराम से रहने को मिल सके पर क्या इसमें अपनेपन का वो एहसास राहत है जो अगल-बगल खटिया डाल कर तारे गिनने में होता है | पराए होते अपने रिश्तों की डॉ. रंजना जायसवाल जी यथार्थपरक कहानी गेस्ट रूम “रामदीन साहब का सामान गेस्ट रूम रख दो।” “जी साहब!!!…” विजय चाचा प्रथम श्रेणी के अधिकारी थे। गाड़ी,बंगला लाल बत्ती गाड़ी….सब कुछ था।जब भी वो सफारी सूट पहने लाल बत्ती गाड़ी से गाँव आते…. बाबू जी की जी जुड़ा जाता। बाबा दादी के स्वर्ग सिधारने के बाद बाबू जी और अम्मा ने चाचा जी को औलाद की तरह पाला था। चाचा जी भी उन्हें कम आदर नहीं देते थे।बाबू जी हर साल एक बार तो चाचा जी के पास जरूर जाते…पर पता नहीं क्यों माँ का उत्साह चाचा जी के घर जाने के नाम कपूर की तरह उड़ जाता। ऐसा नहीं था कि चाची जी उन्हें मान-सम्मान नहीं देती थी।जब भी चाचा जी का परिवार घर आता तो माँ उनकी सेवा-सत्कार में बिछ सी जाती । चाचा जी अम्मा से लाड़ लड़ाने से बाज नहीं आते।अम्मा कहती रह जाती …तुम्हारा कमरा साफ करवा दिया है पर चाचा बड़े वाले कमरें में गद्दे बिछवा कर सब बच्चों के साथ वही लेट जाते। “इतना बड़ा अफ़सर हो गया है पर इसका बचपना नहीं जा रहा…” “आपके लिए तो विजु ही हूँ न…” चाचा जी अम्मा की गोद में सर रख कर लेट जाते। चाची जी आँचल की ओट से देवर -भाभी का प्यार देख मुस्कुराती रहती। ” विजु हमारे पेट से पैदा नहीं हुए बस …अपनी संतान से कभी कम नहीं समझा।ब्याह कर आये थे बारह बरस के थे…उसकी पसन्द-नापसंद हमसे बेहतर कोई नहीं जानता।” अम्मा कहते-कहते न जाने कहाँ खो जाती…ये बाते अम्मा हमसे कितनी बार कह चुकी थी पर चाचा की बात आती तो उनकी पलके सहज ही सजल हो जाती… “वो क्या जाने माँ …उसके लिए तो हम ही भाभी …हम ही माँ…” चाचा जी भी कही भी घूमने जाते तो अम्मा के लिए साड़ी लाना नहीं भूलते। कितना मजा आता था चाचा जी के घर…घर के हर कमरे में मेज पर घण्टी रखी रहती थी। एक घण्टी दबाओ तो सफेद पैंट शर्ट पहने आदमी खिदमत में हाजिर हो जाता था। “बहन जी!!…कुछ चाहिए??” और हम भाई-बहन एक पल के लिए सकपका से जाते… ” भैया !!…चाची जी कहाँ है।” ” मैडम जी!!! …वो बड़ी मैडम जी के साथ बगीचे में बैठी है।” चाचा जी सरकारी बंगले में रहते थे…एकदम फिल्मों की तरह था चाचा जी का बंगला।बंगले में दो तरफ गेट लगे थे…सफेद रंग की अम्बेसडर में चाचा जी ड्राइवर की पीछे वाली सीट पर बैठते थे। लाल झब्बेदार कपड़े में चपरासी हाथों में फाइलों का पुलिंदा लिए आगे वाली सीट पर बैठता था। जब चाचा जी ऑफिस निकलने के लिए कार की तरफ बढ़ते, तब कार का दरवाजा सिपाही खोलता था और एक जोरदार सलाम ठोकता “जय हिंद सर!!…” कितना रोमांचक और खूबसूरत था ये सब… एक सपनें की तरह…ऐसा सपना जो कभी खत्म न हो। बंगले के आगे एक सुंदर सा बगीचा था जहां गेरुए रंग से रंगे गमलों में गुलदाऊदी, गेंदे और गुलाब के फूल मुस्कुराते रहते थे। लाल-सफेद रंग के ईंटो से बनी मेड के आगे कालीन की तरह बिछी मुलायम घास पर पैर देने में भी संकोच होता था।बंगले के पीछे खेती थी….चाचा जी के परिवार की जरूरत के हिसाब से अनाज भी निकल आता था।…पर माँ तो माँ ही थी गाँव मे अच्छी-खासी खेती थी। माँ हर बार गाड़ी में गेंहू ,चावल,प्याज,आलू की बोरियाँ लाद-फांद कर चाचा जी के घर पहुँचती थी। चाचा जी के शान-शौकत को देखकर वो सकुचा जाती …कही उन्होंने गलती तो नहीं कर दी। चाचा जी की मेहमाननवाजी में कोई कमी नहीं थी…हम जब भी चाचा जी के घर से लौटते चाची जी फल,मिठाई कपड़ों से गाड़ी भर देती।बाबू जी, चाचा जी का रौब-दाब देख कर निहाल हो जाते। उनका छोटा सा विजु कब इतना बड़ा हो गया…उनकी आँखें बरबस भर-भर जाती। चाचा जी के घर से वापस लौटने पर भी कई दिनों तक बाबू जी का चाचा पुराण चलता रहता….पर माँ की आँखों में एक अजीब सी खामोशी तैर जाती। “अजी सुनती हो विजु का फोन आया था…अगले हफ्ते गाड़ी भेजेगा।सबको बुलाया है…अगले महीने उसकी ट्रेनिग है इसलिए बहू को मायके भेज देगा…बोल रहा था…इस बार चित्रकूट और बिठूर भी चलेंगे। गेस्ट हाउस में इंतजाम हो जाएगा एक-दो दिन आराम से रहा जायेगा।” बाबू जी अपनी रौ में बोले जा रहे थे और अम्मा अपनी ही उधेड़बुन में थी। ” पीहू के बाबू जी हर बार ही तो जाते है …इस बार रहने दो अगले साल चले चलेंगे।” “क्यों???…क्या हुआ पिछली बार भी तो तुम्हारी तबीयत की वजह से जा नहीं पाए थे। दिक्कत क्या है…” “कुछ मन नहीं कर रहा।” “चलो न अम्मा…कितना मजा आता है वहाँ” अम्मा की मनाही से पीहू और पवन का चेहरा उतर गया, ” देखो न बच्चे भी कही नहीं जा पाते इसी बहाने उनका भी निकलना हो जाएगा…एक जगह रहते-रहते तुम्हारा भी मन ऊब जाता है …हवा-पानी बदलेगा तो तबीयत भी सुधर जाएगी।” बाबू जी ने दलील दी। “वहाँ वो उस कमरे में ठहरा देता है…!!!” अम्मा ने अस्फुट स्वर में कहा, ” क्या खराबी है उस गेस्ट रूम में…इतना बड़ा कमरा है अपना तो पूरा घर समा जाए।मुझे तो कभी-कभी बड़ी शर्म आती है कि बहू कैसे अपने आप को यहाँ एडजस्ट करती होगी…विजु का तो खैर ये घर ही है…” अम्मा की निगाहें फर्श की तरफ कुछ ढूंढती रही,वो लगातार पैर के नाखून से फर्श को कुरेद रही थी…उनके मन मे बहुत कुछ था जिसे वो कुरेद-कुरेद कर निकालना चाहती थी पर…, “चारों तरफ खिड़की,सोफा, कालीन,ए. सी. और वो गद्देदार बिस्तर …एक घण्टी पर नौकर- चाकर सेवा के लिए हाजिर हो जाते हैं। यहाँ आकर तो बहू को तुम्हारे साथ चौके में … Read more