पुस्तक समीक्षा -शंख पर असंख्य क्रंदन

संख पर असंख्य क्रंदन

    जो देश और काल को परिभाषित कर दे, उसकी समस्याओं, तकलीफों, बेचैनियों को शब्द दे दे, दुःख सुख, युद्ध शांति, संयोग वियोग, मानवता नृशंसता को व्याख्यायित कर दे, जीवन को आधार प्रदान करे, श्वास लेने के लिए मुफीद जगह उपलब्ध करवा दे, वही कविता है. कविता का संसार अत्यंत व्यापक है जिसका कोई ओर छोर नहीं है. हरी अनंत हरी कथा अनंता की भांति कविता भी अनंत है. कविता को किसी देश काल में विभक्त नहीं किया जा सकता. ये जानते हुए जब कवि की कलम चलती है तब उसकी कविताओं में न केवल हमारा परिवेश, प्रकृति उसकी चिंताएं समाहित होती हैं बल्कि उसमें हमारा समाज, राजनीति, धर्म, स्त्री, मानव जाति, मनुष्य का व्यवहार और स्वभाव सभी का समावेश होता है. कविता किसी एक देश की बात नहीं करती हैं, ये सम्पूर्ण विश्व, सम्पूर्ण मानवता की बात करती हैं. इनकी कविताओं का भी फलक उसी तरह व्यापक है जिस तरह कहानियों का था. कविताओं में पूरे विश्व की चिंताएं समाहित हैं चाहे इतिहास हो या भूगोल. एक ऐसी ही कवयित्री हैं डॉ सुनीता जिनका पहला कविता संग्रह ‘शंख पर असंख्य क्रंदन’ अपने व्यापक फलक का दर्शन कराता है. कविता क्या होती है और क्या कर सकती है, दोनों का दर्शन संग्रह में होता है. इनकी कविताओं में केवल देश या अपना समाज ही नहीं है बल्कि एक कविता सम्पूर्ण विश्व की पीड़ा का दर्शन करा देती है इस प्रकार इन्होंने इतिहास भूगोल और संवेदनाओं को कविताओं में पिरोया है.  शंख पर असंख्य क्रंदन- गाँव की पगडंडी से लेकर वैश्विक चिंताओं को समेटे कविताएँ    पहली ही कविता ‘दोपहर का कोरस’ अपनी संवेदना से ह्रदय विगलित कर देती है जहाँ संवेदनहीनता किस प्रकार मनुष्य के अस्तित्व का हिस्सा बन गयी है उसका दर्शन होता है.  अनगिनत लाशें सूख चुकी थीं जिनको किसी ने दफन नहीं किया आज तक/ क्योंकि वहां मानवीयता के लिए मानव थे ही नहीं/ कुछ परिंदे चोंच मार रहे थे उसकी देह पर  रेगिस्तान की त्रासदी और मानवता के ह्रास का दर्शन है ये कविता जहाँ ऐसे भयावह मंज़र नज़रों के सामने होते हैं और आप उन्हें देख कर सिहर उठते हैं और आगे बढ़ जाते हैं. आप के अन्दर की करुणा आपसे संवाद नहीं करती. एक ऐसे दौर में जी रहा है आज का मानव. संवेदनशील ह्रदय जब भी मानवीय त्रासदी देखता है आहत हो जाता है. आंतरिक घुटन बेचैनी को शब्दबद्ध करने को बेचैन हो जाता है. ऐसे में पहले ही सफ़र में जब ऐसा मंज़र रेगिस्तान में देखता है द्रवीभूत हो जाता है, सोचने को विवश हो जाता है, आखिर किस दौर के साक्षी बन रहे हैं हम? हम सरकारों को कोसते हैं लेकिन क्या हमने कुछ किया? हम भी मुंह फेर आगे बढ़ जाते हैं, त्रासदियाँ घटित होती रहती हैं. कवि ह्रदय मानवता की त्रासदी पर दुखी हो सकता है और अपनी पीड़ा को शब्दबद्ध कर स्वयं को हल्का करने का प्रयास करता है तो साथ ही समाज के सम्मुख एक कटु यथार्थ सामने लाता है.  ‘प्रेम की बारिश को पत्तियों ने जज़्ब किया’ एक ऐसी कविता जहाँ प्रेम का वास्तविक स्वरूप क्या है उसका दर्शन होता है. मानवीय प्रेम नहीं, आत्मिक प्रेम नहीं अपितु प्रकृति का दुलार, प्रकृति का उपहार, बिना किसी भेदभाव के सब पर समान रूप से बरसता प्रकृति का प्रेम ही इस धरा की अमूल्य निधि है. प्रकृति अपना निस्वार्थ प्रेम इसीलिए बांटती है कि धरती पर जीवन पनपता रहे. प्यार बाँटते चलो का सन्देश देती नदियाँ, पहाड़, बादल, धरती, वृक्ष सभी प्रेमगीत गुनगुनाते हैं. जब भी सभ्यता का क्षरण होता है अर्थात प्रलय आती है, यही रखते हैं मानवता की, प्रेम की नींव ताकि जीवन कायम रहे, उम्मीद कायम रहे. यूं ही नहीं कहा – दरार से प्रेम मिटाता नहीं/ सूरज से तेज चमकने लगता है/ जिस दिन धरती डोलना बंद करेगी उस दिन/ बादल पहाड़ों का चुम्बन अन्तरिक्ष में बाँट देंगे/आकाशगंगा पर लिख देंगे स्थायी इश्तहार/ जब धरती प्रलय की योजना बनाएगी तब हम नए सृजन के नाम/ प्रेम में डूबे देश की नींव रखेंगे  ये है प्रकृति का सन्देश, उसका निस्वार्थ प्रेम जिसे मानव समझ नहीं पा रहा, अपने हाथ अपना दोहन कर रहा है.      ‘सदियों से खड़ी मैं दिल्ली’ इस कविता में कवयित्री दिल्ली के माध्यम से केवल दिल्ली की बात नहीं कर रहीं हैं. दिल्ली क्या है – क्या केवल उतनी जितनी हम देखते हैं? आज की दिल्ली या कुछ वर्षों पहले की दिल्ली की हम बात करते हैं जबकि दिल्ली के सीने में सम्पूर्ण सभ्यता का इतिहास समाया है बस उसे देखने वाली नज़र चाहिए. यहाँ एक देश की राजधानी की बात नहीं है. दिल्ली एक प्रवृत्ति का आख्यान है. एक इतिहास विश्व का जिसे दिल्ली न केवल देख रही है बल्कि अपने सीने में जज़्ब कर रही है. डॉ सुनीता दिल्ली के माध्यम से वैश्विक फलक तक की बात करती हैं. वर्तमान समाज और समय की चिंताओं का समावेश इस कविता में हो रहा है. मनुष्यता  की चिंता है इन्हें. जहाँ १९१० का काल भी समाहित हो रहा है तो मदर टेरेसा की करुणा भी इसमें समाहित हो रही है, कैसे युगोस्लाविया से कोलकता तक का सफ़र तय करती है. युद्ध की विभीषिका, मालवीय के प्रयास से पहले अखिल भारतीय हिंदी सम्मलेन कैसे संपन्न हुआ, सभी का आख्यान प्रस्तुत कर रही है. दिल्ली के माध्यम से सम्पूर्ण विश्व की चिंताएं समाहित हो रही हैं. युद्ध हों या सम्मलेन, किसने क्या किया, कैसे सफलता प्राप्त की या असफलता सबकी मूक भाव से साक्षी बनती है.  यहाँ दिल्ली होना सहज नहीं, इतिहास ही नहीं, भूगोल का दर्शन भी होता है. कविता के माध्यम से  सोलहवीं शताब्दी का दर्शन कराती दिल्ली, एक नोस्टाल्जिया में ले जाती हैं और समय की करवट का दर्शन करवा देती हैं. प्राचीनतावाद में डूबे विश्व के बदलते भूगोल को लोमहर्षक नज़रों से देखती/उन सभी पलों में कई सदियों को देख रही होती हूँ   खेती एक सार्वजनिक सेवा है – इनकी कविताओं में प्रतीक और बिम्ब और शैली को समझने के लिए गहराई में उतरना पड़ेगा, विश्लेषण करना पड़ेगा. खेती एक सार्वजनिक सेवा है, इस भाव को वही ग्राह्य कर सकता है जो खेती के महत्त्व को समझता हो, जो अन्न के महत्त्व को जानता हो. जो … Read more

ताबूत में कैद जिन्दगी सांस ले रही है•••डॉ. सुनीता

मुशर्रफ आलम जौकी

  उर्दू व हिंदी साहित्य का जाना-पहचाना नाम मुशर्रफ आलम जौकी जी का कल दिनांक 19 अप्रैल 2021 को निधन हो गया| नए साल के स्वागत में ‘2021: एक नई सुबह की शुरुआत करें’ शीर्षक से लिखे लेख में जब उर्दू के जानेमाने लेखक मुशर्रफ आलम जौकी ने लिखा था कि, “मैं इतनी बुरी दुनिया की कल्पना नहीं कर सकता. क्या वास्तव में वायरस थे? या फिर महाशक्तियों ने दुनिया को मूर्ख बनाना शुरू कर दिया? अब मुझे एहसास हो रहा है कि वायरस ने देश में एक भयानक खेल की नींव रखी है|” दुखद है कोरोना ने इतने महान लेखक को हमसे छीन लिया| उनके निधन पर समस्त साहित्य जगत में शोक है| विनम्र  श्रद्धांजलि | पढिए युवा आलोचक डॉ. सुनीता जी की उनके कृतित्व पर  टिप्पणी   ताबूत में कैद जिन्दगी सांस ले रही है••• हिंदी, ऊर्दू अदब के शीर्ष अफ़सानानिगार मुशर्रफ आलम जौकी के  निधन पर उन्हें विनम्र श्रद्धांजलि ! सूचना मिलते ही मुझे #पाखी के दिसम्बर अंक में #पानी की सतह’ की याद आ गयी। यह शायद आख़िरी कहानी है जिसे मैंने पढ़ा है। ‘And the spirit of God moved upon the face of the waters’ (और ख़ुदा की रूह पानी की सतह पर तैरती थी) बाइबल। कहानी की शुरुआत उपरोक्त संदर्भ से होती है। धीरे-धीरे प्रजापति शुक्ला और तारा शुक्ला के साथ आगे बढ़ती है। हसन और॰॰॰ पेंटिंग से बाहर आने के साथ नये आयाम देती है। कहानी के नैरेटर नये अंदाज में सामने आते हैं। वैसे तो कहानी चुपके से ख़त्म हो जाती है, सिर्फ़ बरक में ख़त्म होती है जबकि पेंटिंग और हसन के साथ दिल-दिमाग में पुनः द्वंद्व के साथ शुरू होती है। ‘धूप का मुसाफ़िर’ एक छोटी सी कहानी है मगर मानस को झकझोरने में सक्षम है। दरअसल भावुक जज़्बाती रूह को कंपा देने वाले चेहरों की झुर्रियों को पढ़ने की कला सभी के पास नहीं होती है। लेकिन यह कला जौकी साहब में मौजूद है। अपने कथानक में संक्षिप्तता की अनिवार्यता का बख़ूबी ख़्याल रखते हुये जौकी साहब ने भाषायी संतुलन से हमेशा चमत्कृत किया है। जब उन्होंने ‘फ़िज़िक्स, केमिस्ट्री अलजेब्रा’ रचा तब साहित्य के लिये नयी परिभाषा भी इजात की है।यह बात और है कि अभी तक डीकोड नहीं किया गया है। जब भविष्य में इतिहास रचा जाये तब शायद डिकोडिंग का बीजलेख मिले। बहरहाल रचना के बरक्स ‘लैंडस्केप के घोड़े, ले साँस भी आहिस्ता, बाज़ार की एक रात, मत रो शालिग्राम, लेबोरट्री, फ़रिश्ते भी मरते हैं, सदी को अलविदा कहते हुये, बुख़ा इथोपिया जैसी तमाम रचनाओं से हमें लबालब भर दिया है। उलीचने का शऊर हमें स्वयं तय करना होगा। ‘प्रेम संबंधों की कहानी’ में इतनी विविधता है कि प्रेम की भी स्थायी परिधि और परिभाषा हो सकती है यह यक़ीन करने को जी चाहता है लेकिन फिर दिल व दिमाग़ जंग करते हैं और कहते हैं कि नहीं अभी तक प्रेम पर बहुत कुछ अलिखित है जिसका लिखा जाना शेष है। ‘फ़्रिज में औरत’ यह एक फंतासी तत्व से भरपूर रचना है। औरत फ़्रिज से प्रकट होती है जबकि शहर प्रतीक बनकर उभरता है। ग़ौरतलब है कि कहानी सिम्बोलिज्म की यथार्थ की भूमि को खुरचकर पढ़ने की कला की ओर उन्मुख करती है। उपरोक्त को पढ़ते वक्त रजनी गुप्त की पुस्तक ‘एक न एक दिन’, डॉ. अनुसूया त्यागी की ‘मैं भी औरत’, नूर ज़हीर की ‘अपना ख़ुदा एक औरत और वंदना गुप्ता की ‘मैं बुरी औरत हूँ’ के साथ-साथ सुधा अरोड़ा की पुस्तक ‘एक औरत ज़िंदा सवाल’ के समानांतर में उड़िया की रचनाकार प्रतिभा केड़िया को भी समकक्ष रख सकते हैं। इससे रचना की परतें तो अधिक खुलेंगी ही और दो हज़ार साल पहले और मौजूदा वक्त की औरत की भी गिरहें खुलेंगी। तकनीकी स्टोरेज में क़ैद मुसाफ़िर भी बोलेंगे। रचनाओं के आलोक में स्त्रियाँ झांकती हैं और प्रवृत्तियों की प्रक्रिया को बदल देती हैं। जौकी साहब की स्त्रियाँ मल्टीप्लेक्स, मल्टीलेयर्ड और यूनाइटेड फ़ैमिली का सेनेरियो भी बदलती चलती हैं। सूक्ष्मता से समाकलित विश्लेषण के परिप्रेक्ष्य में जौकी साहब की अधिकांश रचना बेशक हिंदी में ही लिखी गयी हैं बावजूद सभी रचनाओं का परिवेश भारतीय नहीं है। आप चाहें तो भाषायी खिलंदड़पन और कथ्यात्मकता में चुटीलेपन के बीच ऊर्दू की तमीज़ के नेपथ्य से भेदक, तीक्ष्ण दर्द पर नज़र व नज़रिया के लिये याद रखते हुये कुफ़्र की रात में चाँद वाली चौपर बिछाकर चौसर खेल भी सकते हैं। सरल क़बीलाई जीवन में कुलाँचे भरते मुस्लिम समाज के जीवन-स्थितियों का यथार्थपरक चित्रण किया है। अपने प्रौढ़, गहन-गंभीर व सशक्त शैली के कारण ख्यातिलब्ध शख़्सियत में शुमार रहे हैं। द्वंद्वात्मक मानसिकता का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण तो किया ही है, जीवन-मूल्यों के चटखने की प्रतिध्वनियों की सघनता को भी पकड़ा है। आख़िर में यह कह सकती हूँ कि ‘प्रिमिटिव पैसिव सिंपैथी’ में बंधे होकर भी मुक्तिवादी भावाभिव्यक्ति करते रहे। ताबूत में कैद जिन्दगी सांस ले रही है। आगे भी लेती रहेगी। डाॅ. सुनीता     यह भी पढ़ें .. प्रिडिक्टेबली इरेशनल की समीक्षा -book review of predictably irrational in Hindi “सुशांत सुप्रिय के काव्य संग्रह – इस रूट की सभी लाइनें व्यस्त हैं “की शहंशाह आलम की समीक्षा ” गहरी रात के एकांत की कविताएँ विसर्जन कहानी संग्रह -समीक्षा किरण सिंह ताबूत में कैद जिन्दगी सांस ले रही है•••डॉ. सुनीता के बारे में अपनी राय अवश्य व्यक्त करें |अगर आपको अटूट बंधन के लेख पसंद आटे हैं तो साइट को सबस्क्राइब करें व अटूट बंधन फेसबुक पेज लाइक करें |