दीपक शर्मा की कहानी एवज़ी
वरिष्ठ लेखिका दीपक शर्मा जी की कहानियाँ पढ़ते हुए बिहारी का ये दोहा अनायास ही जुबान पर आ जाता है l सतसइया के दोहरे ज्यों नावक के तीर, देखन में छोटे लगें घाव करे गंभीर, छोटी सी कहानी ‘एवजी’ भी मरीजों, बुजुर्गों, बच्चों की सेवा टहल के लिए अपनी सेवाएँ देने वालों के ऊपर है l इन लोगों का का किस तरह ऐजेंसी वाले शोषण करते हैं l बड़े घरों के लोग जो इनसे तमाम सेवाएँ लेते हैं पर खाने-पीने, रहने का स्थान देने में भेदभाव करते हैं l ये कहानी ऐसी ही लड़की शशि के बारे में है जो अपनी माँ की जगह ‘एवजी’ के रूप में काम पर आई है l तो आइए चलते हैं शशि की अंगुली पकड़कर दीपक शर्मा की कहानी एवज़ी बंगले के बोर्ड पर चार नाम अंकित थे : पति, बृजमोहन नारंग का; पत्नी, श्यामा नारंग का; बड़े बेटे, विजयमोहन नारंग का; और छोटे बेटे इन्द्रमोहन नारंग का। एजेंसी के कर्मचारी ने अपना पत्र बाहर पहरा दे रहे गार्ड को थमा दिया और बोला, ’’अन्दर अपनी मैडम को बता दो मालती की सबस्टीट्यूट (एवज़ी) आई है।’’ मालती मेरी माँ है मगर एजेंसी के मालिक ने कहा था, ’’क्लाइंट को रिश्ता बताने की कोई ज़रूरत नहीं…..।’ इस एजेंसी से माँ पिछले चौदह वर्षों से जुड़ी थीं। जब से मेरे पिता की पहली पत्नी ने माँ की इस शादी को अवैध घोषित करके हमें अपने घर से निकाल दिया था। उस समय मैं चार वर्ष की थी और माँ मुझे लेकर नानी के पास आ गई थीं। नानी विधवा थीं और एक नर्सिंग होम में एक आया का काम करती थीं और इस एजेंसी का पता नानी को उसी नर्सिंग होम से मिला था। एजेंसी अमीर घरों के बच्चों और अक्षम, अस्वस्थ बूढ़ों के लिए निजी टहलिनें सप्लाई करती थी। अपनी कमीशन और शर्तों के साथ। टहलिन को वेतन एजेंसी के माध्यम से मिला करता। उसका पाँचवाँ भाग कमीशन के रूप कटवाकर। साथ ही टहलिन क्लाइंट को छह महीने से पहले नहीं छोड़ सकती थी। यदि छोड़ती तो उसे फिर पूरी अवधि की पूरी तनख्वाह भी छोड़नी होती । माँ की तनख्वाह की चिन्ता ही ने मुझे यहाँ आने पर मजबूर किया था। अपने काम के पाँचवें महीने माँ को टायफ़ायड ने आन घेरा था और डॉक्टर की सलाह पर उन्होंने मुझे पन्द्रह दिनों के लिए अपनी एवज़ में भेज दिया था ताकि उस बीच वे अपना दवा-दरमन और आराम नियमित रूप से पा सकें। बंगले के अगले भाग में एक बड़ी कम्पनी का एक बोर्ड टंगा था और उसके बरामदे के सभी कमरों के दरवाजों में अच्छी-खासी आवाजाही जारी थी। हमें बंगले के पिछले भाग में बने बरामदे में पहुँचाया गया । मेरा सूटकेस मुझे वहीं टिकाने को कहा गया और जभी मेरा प्रवेश श्यामा नारंग के वातानुकूलित आलीशान कमरे में सम्भव हो सका। उसका पैर पलस्तर में था और अपने बिस्तर पर वह दो तकियों की टेक लिए बैठी थी। सामने रखे अपने टी.वी. सेट का रिमोट हाथ में थामे। ’’यह लड़की तो बहुत छोटी है’’, मुझे देखते ही उसने नाक सिकोड़ ली। ’’नहीं, मैडम’’, एजेंसी का कर्मचारी सतर्क हो लिया, ’’हम लोगों ने इसे पूरी ट्रेनिंग दे रखी है और यह पहले भी कई जगह एवज़ी रह चुकी है। और किसी भी क्लाइंट को इससे कोई शिकायत नहीं रही…..’’ ’’जी मैडम’’, मैंने जोड़ा, ’’मैं छोटी नहीं, मेरी उम्र 20 साल है।’’ माँ ने मुझे चेता रखा था। अपनी आयु मुझे दो वर्ष बढ़ाकर बतानी होगी। साथ में अपने को अनुभवी टहलिनी भी बताना पड़ेगा। ’’अपना काम ठीक से जानती हो?’’ वह कुछ नरम पड़ गई। ’’जी, मैडम। टायलट सँभाल लेती हूँ। स्पंज बाथ दे सकती हूँ। कपड़े और बिस्तर सब चेंज कर सकती हूँ……’’ ’’क्या नाम है?’’ ’’जी कमला’’, अपना असली नाम, शशि मैंने छिपा लिया । ’’कहाँ तक पढ़ी हो?’’ ’’आठवीं तक’’, मैंने दूसरा झूठ बोला हालाँकि यू.पी. बोर्ड की इंटर की परीक्षा मैंने उसी साल दे रखी थी जिसका परिणाम उसी महीने निकलने वाला था। किसी भी दिन। ’’परिवार में कौन-कौन हैं?’’ ’’अपाहिज पिता हैं’’, मैंने तीसरा झूठ बोल दिया, ’’पाँच बहनें हैं और दो भाई…..’’ ’’तुम जा सकते हो’’, सन्तुष्ट होकर श्यामा नारंग ने एजेंसी के कर्मचारी की ओर देखा, ’’फ़िलहाल इसी लड़की को रख लेती हूँ। मगर तुम लोग अपना वादा भूलना नहीं, मालती पन्द्रह दिन तक ज़रूर मेरे पास पहुँच जानी चाहिए…..’’ ’’जी, मैडम….’’ उसके लोप होते ही श्यामा नारंग ने मुझे अपने हाथ धोने को बोला और फिर कमरे का दरवाज़ा बन्द करने को। सिटकिनी चढ़ाते हुए। मुझे उसे तत्काल शौच करवाना था। अपने हाथ धोने के उपरान्त हाथ धोने एवं शौच का कमोड लेने मैं उसके कमरे से संलग्न बाथरूम में गई तो उसमें पैर धरते ही मुझे ध्यान आया मुझे भी अपने को हल्का करना था। मगर उसका वह बाथरूम इतनी चमक और खूशबू लिए था कि मैं उसे प्रयोग में लाने का साहस जुटा नहीं पाई। हूबहू माँ के सिखाए तरीके से मैंने उसे शौच करवाया, स्पंज-स्नान दिया। बीच-बीच में अपने वमन को रोकती हुई, फूल रही अपनी साँस को सँभालती हुई, अपनी पूरी ताकत लगाकर। थुलथुले, झुर्रीदार उसके शरीर को बिस्तर पर ठहराए-ठहराए। एकदम चुप्पी साधकर। उसकी प्रसाधन-सामग्री तथा पोशाक पहले ही से बिस्तर पर मौजूद रहीं : साबुन, पाउडर, तौलिए, क्रीम, ऊपरी भाग की कुरती-कमीज, एक पैर से उधेड़कर खोला गया पायजामा ताकि उसके पलस्तर के जाँघ वाला भाग ढँका जा सके। ’’मालूम है?’’ पायजामा पहनते समय वह बोल पड़ी, ’’मेरा पूरा पैर पलस्तर में क्यों है?’’ ’’नहीं, मैडम’’, जानबूझकर मैंने अनभिज्ञता जतलाई। ’’मैं बाथरूम में फिसल गई थी और इस टाँग की मांसपेशियों को इस पैर की एड़ी के साथ जोड़ने वाली मेरी नस फट गई थी। डॉक्टर ने लापरवाही दिखाई। उस नस की मेरी एड़ी के साथ सिलाई तो ठीक-ठाक कर दी मगर सिलाई करने के बाद उसमें पलस्तर ठीक से चढ़ाया नहीं। इसीलिए तीसरे महीने मुझे दोबारा पलस्तर चढ़वाना पड़ा….’’ ’’जी, मैडम’’, पायजामे का इलैस्टिक व्यवस्थित करते हुए मैं बोली। ’’आप लोग को एजेंसी वाले चुप रहने को बोलते हैं?’’ वह थोड़ी झल्लाई, ’’मालती भी बहुत चुप रहा करती थी….’’ मैं समझ गई आगामी मेरी पढ़ाई की फ़ीस की चिन्ता में ध्यानमग्न माँ को उसकी … Read more