जीकाजि
प्रेम न बाडी उपजे, प्रेम न हाट बिकाई । राजा परजा जेहि रुचे, सीस देहि ले जाई ॥ कितनी खूबसूरत बात कही है कबीर दास जी ने , प्रेम कोई खरीदी, बेची जाने वाली वस्तु थोड़ी ही है | ये तो गहन भावना है जो त्याग और समर्पण की नीव पर टिकी होती है | कुछ ऐसा ही प्रेम था रीवा और तेजस में |सब कुछ कितना आसान सा लगता था ….वो दौड़, भाग, वो गणित के सवाल, वो शरारतों भरी दोस्ती | पर जिंदगी अपनी मर्जी से चली है क्या ? ये गाड़ी कम धीमी रफ्तार हो जाए, कब ब्रेक ले ले और कब .. ? ऐसे में ही तो पता चलता है की प्रेम कितना गहरा था या कितना उथला | रीवा और तेजस कए प्रेम क्या इस कसौटी पर खरा उतर पाएगा ? आइए पढ़ते हैं सुपरिचित लेखिका “निर्देश निधि”जी की कहानी “जीकाजि” “मैं ही जीतूँगा, मैं ही जीतूँगा, मैं ही जीतूँगा । म्याऊँ देख लेना । सिर्फ रेस ही नहीं जीतूँगा, हर बार की तरह फुटबॉल के गेम में भी सबसे ज़्यादा गोल मैं ही करूंगा । मतलब ये कि वहाँ भी मैं और मेरी ही टीम जीतेगी ।“ “चल – चल अपना काम कर, हर बार मैं ही जीतूँगा आया बड़ा, जीकाजि ।“ तेजस रीवा को म्याऊँ कहकर चिढ़ाता और रीवा तेजस को जीकाजि (जीत का जिन्न) पुकारकर चिढ़ाती । “क्यों नहीं जीत सकता मैं हर बार? तू आखिर अंडर ऐस्टिमेट कैसे कर सकती है मुझे म्याऊँ ?” “कभी तो कोई हार भी सकता ही है जीकाजि, खेल में हारना कोई कैरेक्टर लूज़ कर जाना थोड़े ही होता है, स्टुपिड।“ “मैं कभी नहीं हार सकता, कम से कम इस जीवन में तो कभी नहीं । इन फ़ैक्ट, मैं हारने के लिए बना ही नहीं, समझी……..।“ प्रैक्टिस के दौरान स्टेडियम में दौड़ते – हाँफते हुए वह चिल्ला – चिल्ला कर यह घोषणा करता । जिसकी श्रोता सिर्फ रीवा ही होती । वाकई, वह हर रेस जीतता, चाहे वह सौ मीटर की हो या दो सौ मीटर की । फुटबॉल के मैच में भी सबसे ज़्यादा गोल दागने वाला वही होता । यूं तो रीवा उसकी जीत पर खुद को विजेता समझती, पर उसे चिढ़ाती, “तुझे और आता ही क्या है जीकाजि । कोई ढंग का काम आता भी है तुझे रेस और फुटबॉल के सिवा ?” “भूल गई म्याऊँ, एड़ी चोटी के ज़ोर लगाकर भी तू आज तक मैथ्स में मुझसे अच्छे मार्क्स ला नहीं सकी है। ज़्यादा से ज़्यादा मेरे बराबर यानी सौ में से सौ ही ला सकी है,एक सौ एक तो कभी तू भी ला नहीं पाई ।“ यह भी वो स्टेडियम में दौड़ लगाते – लगाते चिल्ला कर कहता । उसके पैरों में जैसे कोई तीव्र गति यंत्र फिट था, वे कभी थकते नहीं, हारते नहीं । अपनी प्रैक्टिस के दौरान वह घंटों रीवा को स्टेडियम में बैठाए रखता, वह उस पर ऐहसान तो दिखाती रहती पर वहीं बैठ कर अपनी पढ़ाई करती रहती । “क्या हुआ बाकी सारे सब्जेक्ट्स में तो मैं ही नंबर वन हूँ जीकाजि । और हाँ यह भी मत भूलना कि मैं अगर म्याऊँ हूँ तो तू सिर्फ चूहा है चूहा, दौड़ मुझसे दूर वरना…. तू तो गया जीकाजि ।“ तेजस और रीवा की लगभग रोज़-रोज़ की बहस थी यह, पर दोनों की दोस्ती में बीच से हवा को भी गुज़र जाने की इजाज़त नहीं थी। दोनों बचपन से पड़ोसी थे और घर में माता – पिता का भी अच्छा मेल – जोल था, दोनों का बचपन एक साथ खेलते गुज़रा था । दोनों एक ही स्कूल, एक ही कक्षा, एक ही सैक्शन में पढ़ते, एक ही रिक्शा में बैठकर स्कूल जाते । दोनों के घर के बीच की दीवार एक ही थी । रीवा के पिता सरकारी स्कूल की सीनियर विंग में अध्यापक थे और तेजस के पिता जूनियर विंग में । रीवा और तेजस दोनों ही अपने – अपने माता – पिता की इकलौती संतान थे, यह भी इत्तफ़ाकन एक ही जैसा था । बचपन में जब किसी एक की माँ खाना देती तो वो झट से दूसरे को बुलाने उसके घर भागता । धीरे – धीरे जिस भी घर में खाना लगाया जाता दोनों के लिए ही लगाया जाने लगा । दोनों के घर वालों की कुछ ऐसी उदारता रही कि उन दोनों के बड़े हो जाने पर भी इस मेल – जोल को किसी ने रोका नहीं । बचपन से ही एक – दूसरे के कंधे पर हाथ रखकर चलने, गले लग जाने, एक दूसरे को छू लेने में न कोई असहजता थी, न असहज होने का ज्ञान ही था । बड़े हुए तो सब कुछ वैसा ही होने के बावजूद स्पर्श कुछ बदला – बदला सा लगने लगा। अब कुछ दिनों से, कुछ असहज से हो जाने लगे, दोनों ही । बचपन पीछे छूट रहा था, दोनों के शारीरिक परिवर्तनों की उद्दाम लहरें अपनी ताज़गी, खुशबू, नयेपन के कौतूहल और नशे में सराबोर किशोरावस्था के कोरे साहिलों से टकरा रही थीं । तेजस का व्यक्तित्व बहुत आकर्षक बनकर उभर रहा था । रीवा सामान्य कद – काठी की गंभीर और समझदार और दृढ़निश्चयी लड़की बन कर बड़ी हो रही थी । पर उसने अपना चुलबुलापन भी खोया नहीं था । दोनों हैरान थे यह सोचकर कि आखिर यह कौन सा मोड़ था जीवन का, जिस पर ना चाहते हुए भी बचपन की दोस्ती खत्म हुई जा रही थी । अब एक – दूसरे से एक नई पहचान हो रही थी, जैसे उनके पुराने रिश्ते का नवीनीकरण हो रहा हो । हो जो भी रहा था पर रिश्ता और प्रगाढ़ होता जा रहा था । कुछ – कुछ अलग से इस एहसास पर एक दिन बोल ही दिया था मुँहफट तेजस ने, “ए म्याऊँ, तू क्या जादू करने लगी है अब ? तेरे कंधे पर भी हाथ रख लूँ तो करंट सा लग जाता है यार ।“ इस पर रीवा आँखें झपकाकर बोली थी, “मैं तो कुछ एक्स्ट्रा एफ़र्ट नहीं डालती, अब तुझमें ही कोई प्रॉब्लम हो गई लगती है । सिंपल, अब मेरे कंधे पर हाथ रखा ही मत कर, बचा रह जाएगा करंट से ।“ और वह खूब ज़ोर … Read more