पिता पुराने दरख़्त की तरह होते हैं-पिता पर महेश कुमार केशरी की 9 कविताएँ
अगर माँ धरती है तो पिता आसमान, माँ घर है की नीव है तो पिता उसकी छत, माँ धड़कन है तो पिता साँसे l माता और पिता से ही हर जीव हर संतान आकार लेता है और आकार लेती हैं भावनाएँ l ऐसे में माँ के लिए व्यक्त उद्गारों में पिता कैसे अछूते रह सकते हैं l अटूट बंधन में पढिए महेश कुमार केशरी जी की पिता पर लिखी ऐसी ही भावप्रवण 9 कविताएँ … पिता पुराने दरख़्त की तरह होते हैं-पिता पर महेश कुमार केशरी की 9 कविताएँ पिता दु:ख को समझते थें ! “””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””” पिता गाँव जाते तो पुराने समय में घोड़ेगाड़ी का चलन था l स्टेशन के बाहर प्राय: मैं इक्के वाले और उसके साथ खड़े घोड़े को देखता लोग इक्के से स्टेशन से अपने गाँव तक आते -जाते थें इन घोड़ों की आँखें किचियाई होतीं घोड़वान के चेहरे पर हवाईयाँ उड़तीं पिताजी के अलावे अन्य सवारियों को देखकर ही इक्के वाले की आँखें खुशी से चमकने लगती l घोड़े को लगता कि आज उसे खूब हरी घास खाने को मिलेगी l इक्के वाला हफ्तों से उपवास चूल्हे में आग जलती देखता उसकी आँखों में नूमायाँ हो जाती रोटी और तरकारी जरूर उसने आज किसी भले आदमी का चेहरा देखा होगा तभी तो दिख रहीं हैं सवारियाँ पिता साधारण इंसान थें मरियल घोड़े पर सवार होना उन्हें , यातना सा लगता लगता उन्हें सश्रम कारावास की सजा मिल रही है वो , परिवार के सारे लोगों को इक्के पर बैठने को कहते लेकिन , वो खुद घोड़े के बगल से पैदल – पैदल ही चलते माँ , बार -बार खिजती कि कैसा भोंभड़ है मेरा बाप लेकिन , पिता घोड़े के दु:ख को समझते थें तभी तो समझते थे , वो रिक्शेवाले के दु:ख को भी परिवार के सारे लोग रिक्शे पर चढ़ते लेकिन पिता पैदल ही रिक्शे के साथ चलते .. चाहे दूरी जितनी लंबी हो कभी – कभी दु:ख को समझने के लिये घोड़ा या इक्के वाला नहीं होना पड़ता बस हमें नजरों को थोड़ा सीधा करने की जरूरत होती है l लोगों का दु:ख हमारे साथ – साथ चल रहा होता है l ठीक हमारी परछाई की तरह ही लोगों का भोंभड़ या मूर्ख संबोधन पिता को कभी विचलित नहीं कर सका था l वो जानते थें कि मूर्ख होने का अर्थ अगर संवेदन हीन होना नहीं है तो , वो मूर्ख ही ठीक हैं मूर्ख आदमी कहाँ जानता है दुनिया के दाँव पेंच ! इससे पिता को कोई फर्क नहीं पड़ता था लोग पिता के बारे में तरह – तरह की बातें करते कहतें पिता सनकी हैं लेकिन , मैं हमेशा यही सोचता हूँ कि पिता , घोड़े और रिक्शेवाले का दु:ख समझते थें l मुझे ये भी लगता है कि हर आदमी को जानवर और आदमी के दु:खों को पढ़ लेना चाहिये या कि समझ लेना चाहिये जो इस दुनिया में सबसे ज्यादा दु:खी हैं l पिता समझते थे या सोचते थें घोड़े की हरी घास की उपलब्धता के बारे में इक्के वाले के बिना धु़ँआये चूल्हे के बारे में हमें भी समझना चाहिये सबके दु:खों को ताकि हम बेहतर इंसान बन सकें l “””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””” (2)कविता-परिणत होते पिता ‘”””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””” जीवण की तरूणाई वाली सुबह पिता हट्टे- कठ्ठे थे। गबरू और जवान उनकी एक डाँट पर हम कोनों में दुबक जाते उनका रौब कुछ ऐसा होता जैसे तूफान के बाद का सन्नाटा दादा जी और पिताजी की शक्ल आपस में बहुत मिलती थी l जहाँ दादाजी , सौम्य , मृदु भाषी थें वहीं..पिता , कठोर .. कुछ , समय बाद दादाजी नहीं रहे .. अब , पिता संभालने लगे घर जो , पिता बहुत धीरे से हँसते देखकर भी हमें डपट देते थे वही पिता , अब हमारी , हँसी और शैतानियों को नजर अंदाज करने लगे धीरे – धीरे पिता कृशकाय होने लगे वो ,नाना प्रकार के व्याधियों से ग्रसित हो गये… बहुत , दुबले -पतले और कमजोर पिता कुछ- ज्यादा ही खाँसनें लगे बहुत- बाद में हमेशा हँसते- मुस्कुराते रहनेवाले पिता और घर के सारे फैसले अकेले लेने वाले पिता अब खामोश रहने लगे वे अलग -थलग से अपने कमरे में पड़े रहते उन्होंने अब निर्णय लेने बंद कर दिये थे… अपनी अंतिम अवस्था से कुछ पहले जैसे दादा जी को देखता था ठीक , वैसे ही एक दिन पिताजी को मोटर साइकिल पर कहीं बाहर जाते हुए पीछे से देखा हड्डियों का ढ़ाँचा निकला हुआ आँखों पर मोटे लेंस का चश्मा मुझे पता नहीं क्यों ऐसा ..लगा दादाजी के फ्रेम में जड़ी तस्वीर में धीरे – धीरे परिणत होने लगें हैं..पिता .. “””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””” (3) तहरीर में पिता.. “””””””””””””””””‘””””””‘””””””””””””””””””””””””””””””” ये कैसे लोग हैं ..? जो एक दूधमुँही नवजात बच्ची के मौत को नाटक कह रहें हैं… वो, तहरीर में ये लिखने को कह रहे हैं कि मौत की तफसील बयानी क्या थी…? पिता, तहरीर में क्या लिखतें… ? अपनी अबोध बच्ची की , किलकारियों की आवाजें… या… नवजात बच्ची… ने जब पहली बार… अपने पिता को देखा होगा मुस्कुराकर… या, जन्म के बाद जब, अस्पताल से बेटी को लाकर उन्होंने बहुत संभालकर रखा होगा… पालने.. में… और झूलाते… हुए… पालना… उन्होंने बुन रखा होगा… उस नवजात को लेकर कोई…. सपना.. वो तहरीर में उन खिलौनों के बाबत क्या लिखते..? जिसे उन्होंने.. बड़े ही शौक से खरीदकर लाया था.. वो तहरीर में क्या लिखतें…. ? कि जब, उस नवजात ने दम तोड़ दिया था बावजूद… इसके वो अपनी नवजात बेटी में भरते रहे थें , साँसें… ! मैं, सोचकर भी काँप जाता हूँ कि कैसे, अपने को भ्रम में रखकर एक बाप लगातार मुँह से भरता रहा होगा अपनी बेटी में साँसें…! किसी नवजात बेटी का मरना अगर नाटक है… तो, फिर, आखिर एक बाप अपनी तहरीर में बेटी की मौत के बाद क्या लिखता…? “””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””” (4)कविता..किसान पिता.. “”””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””” पिता, किसान थे वे फसल, को ही ओढ़ते और, बिछाते थे.. बहुत कम पढ़े- लिखे थे पिता, लेकिन गणित में बहुत ही निपुण हो चले थे या, यों कह लें कि कर्ज ने पिता को गणित में निपुण बना दिया था… वे रबी की बुआई में, टीन बनना चाहते घर, के छप्पर के लिए.. या फिर, कभी तंबू या , तिरपाल, … Read more