घूरे का हंस – पुरुष शोषण की थाह लेती कथा

मैं खटता रहा दिन रात ताकि जुटा सकूँ हर सुख सुविधा का सामान तुम्हारे लिए और देख सकूँ तुम्हें मुस्कुराते हुए पर ना तुम खुश हुई ना मुस्कुराई तुमने कहा मर्दों के दिल नहीं होता और मैं चुपचाप आँसूँ पिता रहा कविता का यह अंश मैंने लिया है सुपरिचित लेखिका अर्चना चतुर्वेदी जी के उपन्यास “घूरे का हंस” से, जो भावना प्रकाशन से प्रकाशित है और जिसे मैंने अभी पढ़कर समाप्त किया है l   घूरे का हंस – पुरुष शोषण की थाह लेती कथा जैसा की कविता से स्पष्ट है ये उपन्यास पुरुष की पीड़ा को उकेरता है l जो कर्तव्यों  के बोझ तले दब रहा है, पर स्नेह के दो बोल उसके लिए नहीं हैं l उपन्यास सवाल उठाता है,  आज के बदलते सामाजिक परिवेश में जब स्त्रियों को कानून से सुरक्षित किया गया है, जो कि अभी भी जरूरी हैं पर उत्तरोत्तर ऐसी महिलाओं की संख्या में भी इजाफा हो रहा है, जो इनका दुरप्रयोग कर रहीं हैं, और अपने ही घर में पुरुष शोषित हो रहा है l इन महिलाओं को अधिकार तो चाहिए पर कर्तव्य से पीछा छुड़ाना चाहती हैं l तो क्या ऐसे में उस तकलीफ को रेखांकित नहीं किया जाना चाहिए ? समाज के इस बदलते समीकार से साहित्य अछूता रह जाना चाहिए l जबकि ऐसे तमाम दुखड़े आपको आस -पास मिल जायेगे l यू ट्यूब पर तमाम साइट्स पर भी हैं जिन पर पुरुष अपना दर्द साझा कर रहे हैं l फिर भी परिवार या सामाज में आम चलन में हम उस पर बात करने से कतराते रहे हैं, कंधा देने से कतराते हैं l   अर्चना जी उसी दर्द को सामने लाने के लिए एक बिल्कुल देशी , मौलिक कथा लाती हैं l ये कहानी है गाँव के लच्छु पहलवान के घर चार पोतियों के बाद पोता होने की l जिसके जन्म पर थाली पीटी जा रही है, पर उस नवजात को नहीं पता कि ये थाली उसके ऊपर तमाम जिम्मेदारियों का बोझ डालने के कारण पीटी जा रही है l कहानी रघु के जन्म से पहले की दो पीढ़ियों की कथा बताकर आगे बढ़ती है तो जैसे रघु अपने जीवन की व्यथा बताने के लिए पाठक का हाथ पकड़कर आगे चलने लगता है और उसके साथ भ्रमित चकित पाठक उसके दर्द के प्रवाह में बहता चला जाता है और अंत में एक बड़े दर्द को समेट कई प्रश्नों से जूझता हुआ, कई बदलावों की जरूरत को महसूस करता हुआ  विचार मगन रह जाता है l अर्चना जी ने  रघु के साथ पूरे समाज को कटघरे में खड़ा किया है l सबसे पहले माता-पिता जो बेटे के जन्म के लिए 4 बेटियों की लाईन लगाते हैं पर उनकी जिम्मेदारी जन्मते ही बेटे के कंधों पर होती है l  और भाई कितना ही छोटा क्यों ना हो, बहनों को कहीं जाना हो भाई को साथ जाना पड़ता है, चाहे खेल छोड़ कर, चाहे पढ़ाई छोड़ कर, लड़कियों पर पढ़ाई का दवाब नहीं है पर लड़कों पर माता -पिता के सपनों का बोझ है l हॉस्टल गए लड़कों को किस तरह से लड़कियाँ मौन या चालाकी भरे अंदाज आमंत्रण देती हैं और इच्छा पूरी ना होने पर उनपर ही आरोप लगा देती हैं, या उन पर कुछ ऐसे लेबल् लगा देती हैं, जिसमें पुरुष, पुरुषों के मध्य हंसी का पात्र बन जाता है l हमारे पौराणिक आख्यानों  में भी ऐसी स्त्रियाँ रहीं हैं,ये हम सब जानते हैं l रघु के साथ यात्रा करते हुए हम उसकी पारिवारिक कलह से रूबरू होते हैं, अपने घर के अंदर दम घोटू स्थिति से रूबरू होते हैं l कहानी को ना खोलते हुए मैं ये कहना चाहूँगी कि रघु की निरीह दयनीय स्थिति पर करुणा आती हैं l ये वो सच है जो हमने अपने आस -पास जरूर देखा होगा, पर उसके साथ खड़े नहीं हुए जरूरत नहीं समझी, क्यों?   तो क्या ये पुरुष विमर्श का युग है और स्त्री को सब कुछ मिल गया है और अब हमें उसके संघर्षों को ताक पर रख देना चाहिए ? अमूमन पुरुष विमर्श की बात आते ही ये सहज प्रश्न आम उदारवादी जन मानस के मन में आता है, खासकर तब जब वो एनिमल जैसी फिल्म देखकर सकते में हों, जहाँ टाक्सिक अल्फा मेल स्थापित किए जा रहे हैं l इसका उत्तर उपन्यास में बहुत सावधानी और तार्किकता से दर्ज है, वो भी कथा रस को बाधित किए बिनाl जहाँ पुरुष की पीड़ा बताते हुए स्त्रियों की पीड़ा गाथा भी है l जहाँ दहेज के कारण जलाई गई सुमन भी है, तो पढ़ाई बीच में रोक कर शराबी -कबाबी से ब्याह दी गई राधा भी है, नकारा पति को झेलती दादी भी हैं, तो पति से पिटती स्त्रियाँ भी हैं, जिन्हे अपना पति माचोमैँन लगता है l  अर्चना जी कहीं भी शोषित स्त्री के दर्द को कम नहीं आँकती हैं, बल्कि कई स्थानों पर भावुक भी कर देती है, पर इसके साथ ही वो आगाह करती हैं कि पीड़ित स्त्री के साथ हमें पीड़ित पुरुष को सुनना चाहिए l ये आवाज नासूर बन जाए उससे पहले सुनना होगा क्योंकि एक स्वस्थ समाज के लिए सत्ता किसी की  भी हो  सही नहीं है, शोषण किसी का भी हो सही नहीं है l हमें आँसू और आँसू में फर्क करने से बचना होगा l   अब आती हूँ उपन्यास के कथा शिल्प पर, तो 160 पेज की इस कहानी में गजब का प्रवाह है l किताब पाठक को आगे “क्या ?” की उत्सुकता के साथ पढ़वा ले जाती है l भाषा सरल -सुलभ है और कथा- वस्तु के साथ न्याय करती है l कहानी के साथ-साथ  बहते हुए व्यंग्य भी है और अर्चना जी का चुटीला अंदाज भी l दादा -दादी की रंग तरंग जहाँ गुदगुदाती है तो हॉस्टल के दृश्य कॉलेज के जमाने की याद दिलाते हैं l लेकिन इसके बीच कहानी पाठक के मन में प्रश्नों के बीज बोती चलती है, जो उसे बाद तक परेशान करते हैं l यहीं उपन्यास अपने मकसद में सफल होता है l प्रतीकात्मक कवर पेज कहानी का सार प्रतिबिंबित करता है l अंत में यही कहूँगी कि व्यंग्य के क्षेत्र में अपनी खासी पहचान बना चुकी अर्चना जी का ये संवेदन … Read more

दरवाजा खोलो बाबा – साहित्य में बदलते पुरुष की दस्तक

दरवाजा खोलो बाबा

  “पिता जब माँ बनते हैं, ममता की नई परिभाषा गढ़ते हैं” कविता क्या है? निबंध में आचार्य रामचन्द्र शुक्ल कहते हैं कि, “जिस प्रकार आत्मा की मुक्तावस्था ज्ञानदशा कहलाती है, उसी प्रकार हृदय की यह मुक्तावस्था रसदशा कहलाती है। हृदय की इसी मुक्ति की साधाना के लिए मनुष्य की वाणी जो शब्द-विधान करती आई है, उसे कविता कहते हैं।“ इस परिभाषा में हृदय की मुक्तवस्था सबसे जरूरी शब्द है | यूँ तो हमारे अवचेतन पर हमारे जीवन, देखे सुने कहे गए शब्द अंकित होते हैं इसलिए हर व्यक्ति एक खास कन्डीशनिंग से निर्मित होता है | परंतु साहित्य में हम अक्सर चीजों को एक दृष्टि से देखने के इतने आदि हो जाते हैं कि दूसरा पक्ष गौढ़ हो जाता है | इसका कारण तमाम तरह के वाद और विचार धाराएँ भी हैं और पत्र -पत्रिकारों में उससे  प्रभावित लेखन को मिलने वाली सहज स्वीकृति भी है | पर क्या इतना आसान है एक लकीर खींच देना जिसके एक तरफ अच्छे लोग हं और दूसरी तरफ बुरे  | एक तरफ शोषक हों और दूसरी तरफ शोषित | मुझे उपासना जी की कहानी सर्वाइवल याद आ रही है जहाँ शोषित कब शोषक बन जाता है पता ही नहीं चलता| हब सब कहीं ना कहीं शोषक हैँ और कहीं ना कहीं शोषित |   हम मान  के चलते हैं कि खास तरह की पढ़ाई के लिए माता -पिता बच्चों पर दवाब बनाते हैं और संपत्ति के लिए बच्चे वृद्ध माता पिता का शोषण करते हैं | जबकि इसके विपरीत भी उदाहरण है | शिक्षा के लिए माँ -पिता से जबरदस्ती लोन लिवा कर  बच्चे ऐश करने में बर्बाद कर देते है | वृद्ध माता पिता अपने बच्चों  का इमोशनल शोषण भी करते है | पुरुषों द्वारा अधिकतर सताई गई है स्त्री पर कई बार शोषक के रूप में भी सामने आती है | कई बार खेल महीन होता है| वहीं पुरुष कई बार पिता के रूप में, भाई के रूप में, पति के रूप में स्त्री का सहायक भी होता है|   साहित्य में हर किसी के लिए जगह होनी चाहिए हर बदलाव दर्ज होना चाहिए तभी वो आज के समकाल का सही सही खाका खींच पाएगा |   ये सब सोचने-कहने का कारण डॉ.मोनिका शर्मा का नया कविता संग्रह “दरवाजा खोलो बाबा” है | निरंतर विभिन्न पत्र -पत्रिकाओं में अपने विचारोत्तेजक  लेखों द्वारा समाज को सोचने को विवश करती मोनिका जी अपने इस संग्रह में बदले हुए पुरुष को ले कर आई है | पिता, पति, भाई, पुत्र के रूप में स्त्री के जीवन में खुशियों के रंग घोलने, उनको विकास की जमीन देने और हमसफ़र बन कर साथ सहयोग देने में पुरुष की भूमिका पर भी ध्यान दिया जाना चाहिए | खासकर तब जब वो बदलने की कोशिश कर रहा है | दरवाजा खोलो बाबा – साहित्य में बदलते पुरुष की दस्तक “19 नवंबर” को मनाए जाने वाले “अंतर्राष्ट्रीय पुरुष दिवस” में घरेलू कामों में अपने द्वारा किये जाने वाले सहयोग का संज्ञान लेने  की माँग उठी है | ऐसे में साहित्य का इस दिशा में ध्यान ना जाना उचित नहीं | मोनिका जी पुस्तक “दरवाजा खोलो बाबा” की भूमिका में लिखती हैं कि, “भावी जीवन की हर परिस्थिति से जूझने का साहस, बेटियों को अपने बाबा के आँगन से मिली सबसे अनमोल थाती होती है | आज के दौर में संवेदनशील भावों को जीते भाई जीवनसाथी  और बेटों से मिल स्नेह सम्मान, भरोसे और भावनाओं की इस विरासत को सहेजते प्रतीत होते हैं | यह वक्त की दरकार है की साझी कोशिशों और स्त्री पुरुष के भेद से परे मानवीय सरोकारों की उजास को सामाजिक -पारिवारिक परिवेश में सहज स्वीकार्यता मिले | पूरे संग्रह चार खंडों में बँटा हुआ है जिसमें पिता, पिता -बेटी, पुरुष मन और प्रश्न हैं.. पिता खंड में उन त्यागों को रेखांकित किया है जो अपने बच्चों, घर -परिवार के लिए एक पुरुष करता है | मुझे प्रेमचंद् जी का एक वाक्य का भाव याद आ रहा  है, “पिता मटर -पनीर है और माँ दूध-रोटी” थोड़ी देर भी ना मिले तो बच्चे व्याकुल हो जाते हैं | बात गलत भी नहीं है .. दरअसल पिता का त्याग अदृश्य  रहता है | बच्चों की जरूरतें माँ से पूरी होती रहतीं हैं, घर के बाहर पिता भी उस नींव की ईंट है इसका ध्यान कम ही जाता है | इसी पर ध्यान दिलाते हुए  मोनिका जी लिखती हैं.. “कमाने, जुटाने के चिर  स्थायी फेर ने सारथी बन गृहस्थी का रथ खींचते एक पुरुष को गढ़ा सनातन यात्री के रूप में”   ———————————– घर स्त्री से होता है पर उस घर को बनाने में पुरुष भी बहुत कुछ खोता है … “किताबों के पल्ले  चढ़ते ही तालों में बंद हो गए समस्त रुचि रुझान चिकना-चौरस आँगन पक्का होते ही फिसल गए जीवन की मुट्ठी से मैत्री बंध, मेल जोल के पल चौखट -चौबारों की रंग रोगन की साज धज के निर्मल निखार से फीकी पड़ गईं मर्म की समस्त चाहनाएँ” ——————————– स्त्री के शोषक के रूप में दर्ज क्या पुरुष समाज की कन्डीशनिंग का शिकार नहीं है | क्या अपने को अच्छा पुत्र और अच्छा पिता साबित करने का भार उस पर नहीं है | संतुलन उसे भी बनाना है | महीन रस्सी उसके सामने भी है |   “बहुत सीमित -समवृत होता है आकाश पिता की इच्छाओं का माता -पिता का कर्तव्य पारायण बच्चा होने के दायित्व बोध की धूरी से अपने बच्चे के उत्तरदायित्वों के यक्ष तक सिमटा” ————————– “अपनी कविता “प्रवक्ता” में वो लिखती है.. आँगन के बीचों -बीच हर बहस, हर विमर्श में चुप रह जाने वाले पिता देहरी के उस पार बन जाते हैं  आवाज घर के हर सदस्य की” पिता -पुत्री खंड में पिता पुत्री के बदलते हुए रिश्तों की बात करती हैं | एक जमाना था जब पिता परिवार के सामने अपने बच्चों को प्यार नहीं करते थे, फिर एक उम्र के बड़ी  बेटियों से थोड़ी दूरी बनाते थे | विवाह के बाद अपनी मर्जी से मायके आने का हक बेटियों का नहीं रहता था | इस सब दिशाओं में आज बदले हुए पिता-पुत्री दिखते हैं | अब लड़कियाँ “बकी बरस भेज भैया को बाबुल सावन में लिजों बुलाए” नहीं … Read more

अंतर्राष्ट्रीय पुरुष दिवस -परिवार में अपनी भूमिका के प्रति सम्मान की मांग

  मिसेज गुप्ता कहती हैं की उस समय परिवार में सब  कहते थे, “लड़की है बहुत पढाओ  मत | एक पापा थे जिन्होंने सर पर हाथ फेरते हुए कहा, “तुम जितना चाहो पढो” |   श्रीमती देसाई बड़े गर्व से बताती हैं की उनका भाई शादी में सबसे ज्यादा रोया था | अभी भी हर छोटी बड़ी जरूरत में उसके घर दौड़ा चला जाता है |   कात्यायनी जी ( काल्पनिक नाम ) अपने लेखन का सारा श्री पति को देती हैं | अगर ये न साथ देते तो मैं एक शब्द भी न लिख पाती | जब मैं लिखती तो घंटो सुध न रहती | खाना लेट हो जाता पर ये कुछ कहते नहीं | भले ही भूख के मारे पेट में चूहे कूद रहे हों | श्रीमान देशमुख अपनी पत्नी की ख़ुशी के लिए  स्कूटर न लेकर उसके लिए उसकी पसंद का सामान लेते हैं |                            फेहरिस्त लम्बी है पर  ये सब हमारे आपके जैसे आम घरों के उदाहरण है | ये सही है  कि हमारे पिता , भाई , पति बेटे और मित्र हमारे लिए बहुत कुछ करते हैं |पर क्या हम उनके स्नेह को नज़रअंदाज कर देते हैं | अगर ऐसा नहीं है तो क्यों पुरुष ऐसा महसूस कर रहे हैं |  अंतर्राष्ट्रीय  पुरुष दिवस -परिवार में अपनी भूमिका के प्रति  सम्मान की मांग है  कल व्हाट्स एप्प पर एक वीडियो वायरल हुआ जिसमें एक खूबसूरत गीत के साथ अन्तराष्ट्रीय पुरुष दिवस मानाने की अपील की गयी थी .. गीत के बोल कुछ इस तरह से थे “ मेन्स डे पर ही क्यों सन्नाटा एवेरीवेयर , सो नॉट फेयर-२” … पूरे गीत में उन कामों का वर्णन था जो पुरुष घर परिवार के लिए करता है, फिर भी उसके कामों को कोईश्रेय नहीं मिलता है | जाहिर है उसे देख कर कुछ पल मुस्कुराने के बाद एक प्रश्न दिमाग में उठा “ मेन्स डे’ ? ये क्या है ? तुरंत विकिपिडिया पर सर्च किया | जी हां गाना सही था |  अंतर्राष्ट्रीय  पुरुष दिवस कब मनाया जाता है    १९ नवम्बर को इंटरनेशनल मेन्स डे होता है | यह लगातार १९९२ से मनाया जा रहा है | पहले पहल इसे ७ फरवरी को मनाया गया | फिर १९९९ में इसे दोबारा त्रिनिदाद और टुबैगो में शुरू किया गया |     अब पूरे विश्व भर में पुरुषों द्वारा किये गए कामों को मुख्य रूप से घर में , शादी को बनाये रखने में , बच्चों की परवरिश में , या समाज में निभाई जाने वाली भूमिका के लिए सम्मान की मांग उठी है |     पुरुष हो या स्त्री घर की गाडी के दो पहिये हैं | दोनों का सही संतुलन , कामों का वर्गीकरण एक खुशहाल परिवार के लिए बेहद जरूरी होता है | क्योंकि परिवार समाज की इकाई है | परिवारों का संतुलन समाज का संतुलन है | इसलिए स्त्री या पुरुष हर किसी के काम का सम्मान किया जाना जरूरी हैं | काम का सम्मान न सिर्फ उसे महत्वपूर्ण होने का अहसास दिलाता है अपितु उसे और बेहतर काम करने के लिए प्रेरित भी करता है | क्यों उठ रही है अंतर्राष्ट्रीय  पुरुष दिवस की मांग    यह एक  सच्चाई  है की दिन उन्हीं के बनाये जाते हैं जो कमजोर होते हैं |पितृसत्तात्मक  समाज में हुए महिलाओं के शोषण को से कोई इनकार नहीं कर सकता | महिला बराबरी की मांग जायज है | उसे किसी तरह से गलत नहीं ठहराया जा सकता है | पर इस अंतर्राष्ट्रीय  पुरुष दिवस  की मांग क्यों ? तस्वीर का एक पक्ष यह है की दिनों की मांग वही करतें हैं जो कमजोर होते हैं | तो क्या स्त्री इतनी सशक्त हो चुकी है की पुरुष को मेन्स डे सेलेब्रेट करने की आवश्यकता आन पड़ी | या ये एक बेहूदा मज़ाक है | जैसा पहले स्त्री के बारे में कहा जाता था की पुरुष से बराबरी की चाह में स्त्री अपने प्रकृति प्रदत्त गुणों का नाश कर रही है , अपनी कोमलता खो रही है | क्योंकि उसने पुरुष की सफलता को मानक मान लिया है | इसलिए वो पुरुषोचित गुण अपना रही हैं |अब पुरुष स्त्री की बराबरी करने लगे हैं |      सवाल ये उठता है की पुरुषों को ऐसी कौन सी आवश्यकता आ गयी की वो स्त्री के नक़्शे कदम पर चल कर मेन्स डे की मांग कर बैठा | क्या नारी को अपनी इस सफलता पर हर्षित होना चाहिए “ की वास्तव में वो सशक्त साबित हो गयी है | पर आस पास के समाज में देखे तो ऐसा तो लगता नहीं , फिर अंतर्राष्ट्रीय  पुरुष दिवस की मांग क्यों ?     अपने प्रश्नों के साथ मैंने फिर से वीडियो देखा …. और उत्तर भी मिला | इस वीडियों के अनुसार पुरुष घर के अन्दर अपने कामों के प्रति सम्मान व् स्नेह की मांग कर रहा है | कहीं न कहीं मुझे लग रहा है की ये बदलते समाज की सच्चाई है | पहले महिलाएं घर में रहती थी और पुरुष बाहर धनोपार्जन में | पुरुष को घर के बाहर सम्मान मिलता था और वो घर में परिवार व् बच्चों के लिए पूर्णतया समर्पित स्त्री का घर में बच्चो व् परिवार द्वारा ज्यादा मान दिया जाना सहर्ष स्वीकार कर लेता था |समय बदला , परिसतिथियाँ  बदली |आज उन घरों में जहाँ स्त्री और पुरुष दोनों बाहर धनोपार्जन कर रहे हैं |   बाहर दोनों को सम्मान मिल रहा है | घर आने के बाद जहाँ स्त्रियाँ रसोई का मोर्चा संभालती हैं वही पुरुष बिल भरने ,घर की टूट फूट की मरम्मत कराने , सब्जी तरकारी लाने का काम करते हैं | संभ्रांत पुरुषों का एक बड़ा वर्ग इन सब से आगे निकल कर बच्चों के डायपर बदलने , रसोई में थोडा बहुत पत्नी की मदद करने और बच्चों को कहानी सुना कर सुलाने की नयी भूमिका में नज़र आ रहा है | पर कहीं न कहीं उसे लग रहा है की बढ़ते महिला समर्थन या पुरुष विरोध के चलते उसे उसे घर के अन्दर या समाज में उसके स्नेह भरे कामों के लिए पर्याप्त सम्मान नहीं मिल रहा है |     अपने परिचित का एक उदाहरण … Read more