कलर ऑफ लव – प्रेम की अनूठी दास्तान

कलर ऑफ लव

  प्रेम जो किसी पत्थर हृदय को पानी में बदल सकता है, तपती रेत में फूल खिला सकता है, आसमान से तारे तोड़ के ला सकता है तो क्या किसी मासूम बच्चे में उसकी उच्चतम संभावनाओं को विकसित नहीं कर सकता | क्या माँ और बच्चे का प्रेम जो संसार का सबसे शुद्ध, पवित्र, निश्चल प्रेम माना जाता है, समाज की दकियानूसी सोच, तानों -उलाहनों को परे धकेलकर ये करिश्मा नहीं कर सकता है?  एक माँ का अपनी बेटी के लिए किया गया ये संघर्ष ….संघर्ष नहीं प्रेम का ही एक रंग है | बस उसे देखने की नजर चाहिए |    ऐसे ही प्रेम के रंग में निमग्न वंदना गुप्ता जी का  भारतीय ज्ञानपीठ/वाणी से प्रकाशित उपन्यास “कलर ऑफ लव” समस्या प्रधान एक महत्वपूर्ण उपन्यास है| ये उपन्यास “डाउन सिंड्रोम” जैसी एक विरल बीमारी की सिर्फ चर्चा ही नहीं करता बल्कि उसके तमाम वैज्ञानिक और मानसिक प्रभावों पर प्रकाश डालते हुए एक दीप की तरह निराशा के अंधकार में ना डूब कर कर सकारात्मकता की राह दिखाता है | अभी तक हिंदी साहित्य में किसी बीमारी को केंद्र में रख कर सजीव पात्रों और घटनाओं का संकलन करके कम ही उपन्यास लिखे गए है | और जहाँ तक मेरी जानकारी है “डाउन सिंड्रोम” पर यह पहला ही उपन्यास है |  कलर ऑफ लव -डाउन सिन्ड्रोम पर लिखा गया पहला और महत्वपूर्ण उपन्यास   Mirrors should think longer before they reflect. – Jean Cocteau           अगर कोई ऐसा रोग ढूंढा जाए जो सबसे ज्यादा संक्रामक है औ पूरे समाज को रोगग्रस्त करे हुए है तो वो है तुलना | जबकि हर बच्चा, हर व्यक्ति  प्रकृति की नायाब देन है, जो अपने विशेष गुण के साथ पैदा होता है बस जरूरत होती है उसे पहचानने की, उसे उसके हिसाब से खिलने देने की |  ऐसा ही एक विशेष गुण है “डाउन सिंड्रोम” .. ये कहानी है एक ऐसी ही बच्ची पीहू की जो इस विशेष गुण के साथ पैदा हुई है |    शब्दों का हेर-फेर या  समझने का फ़र्क  कि जिसे विज्ञान की भाषा “सिन्ड्रोम” का नाम देती है, प्रकृति प्रयोग का नाम देती है | ऐसे ही प्रयोगों से निऐनडेरथल मानव से होमो सैपियन्स बनता है और होमो फ्यूचरिस की संभावना प्रबल होती है | इसलिए प्रकृति की नजर में “डाउन सिन्ड्रोम” महज एक प्रयोग है .. जिसमें बच्चे में 46 की जगह 47 गुणसूत्र होते है | इस एक अधिक गुणसूत्र के साथ आया बच्चा कुछ विशेष गुण के साथ आता है | जरूरत है उस विशेष गुण के कारण उसकी विशेष परवरिश का ध्यान रखने की, तो कोई कारण नहीं कि ये बच्चे खुद को सफलता के उस पायदान पर स्थापित ना कर दें जहाँ  तथाकथित तौर पर सामान्य कहे जाने वाले बच्चे पहुंचते हैं|  यही मुख्य उद्देश्य है इस किताब को लिखे जाने का |    “कलर ऑफ लव”  उपन्यास मुख्य रूप से एक शोध उपन्यास है जिसे उपन्यास में पत्रकार सोनाली ने लिखा है |  छोटे शहर से दिल्ली तबादला होने के बाद सोनाली की मुलाकात अपनी बचपन की सहेली मीनल और उसकी बेटी पीहू से होती है | पीहू “डाउन सिन्ड्रोम” है| दोनों सहेलियाँ मिलती है और मन बाँटे जाने लगते हैं | संवाद शैली में आगे बढ़ती कथा के साथ सोनाली  पीहू और उसकी माँ मीनल के संघर्ष की कहानी  जान पाती है| पन्ना दर पन्ना जिंदगी खुलती है और अतीत के अनकहे दर्द, तनाव, सफलताएँ सबकी जिल्द खुलती जाती है | पर पीहू और मीनल के बारे में जानने  के बाद सोनाली की रुचि “डाउन सिन्ड्रोम के और शोध में बढ़ जाती है | और जानकारी एकत्र करने के लिए वो विशेष स्कूल के प्रिन्सपल ऑफिस में जाकर केसेस डिस्कस करती है | इन बच्चों के विकास में लगे फ़ेडेरेशन व फोरम जॉइन करके जानकारियाँ और साक्ष्य जुटाती है | एक तरह से नकार, संघर्ष, स्वीकार  और जानकारियों का  कोलाज है ये उपन्यास | जो काफी हद तक  असली जिंदगी और असली पात्रों की बानगी को ले  कर बुना गया एक मार्मिक पर सकारात्मक दस्तावेज है |   इस उपन्यास के चार  महत्वपूर्ण बिन्दुओं पर बात करना पाठकों के दृष्टिकोण से सुविधाजनक रहेगा|  समाज में व्याप्त अशिक्षा  रोगग्रस्त बच्चे के परिवार, विशेषकर माँ का का घर के अंदर और बाहर का संघर्ष  उन बच्चों की चर्चा जिन्होंने “डाउन सिंड्रोम” जैसी बीमारी के बावजूद सफलता के परचम लहराए | जीवन दर्शन जो व्यक्ति को सहज जीवन को स्वीकारने का साहस देता है|    कोई भी अवस्था समस्या तब बनती  है जब समाज में उसके  बारे में पर्याप्त जानकारी ना हो | जैसे बच्चे के जन्म के समय ही यह बातें होने लगती हैँ, “की उसके हाथों में एक भी  लकीर नहीं है, ऐसे बच्चे या तो घर छोड़ देते है या फिर बड़े सन्यासी बन जाते हैं |”   “देख सोनाली, मेरे पीहर में मेरी चाची के एक चोरी हुई थी| जिसकी बाँह के साथ दूसर बाँह भी निकलने के लिए बनी हुई थी |पीर बाबा है, उन्होंने जैसे  ही निगाह डाली वो माँस का लोथड़ा टूट कर गिर गया | तब से आज तक बच्ची बिल्कुल मजे से जी रही है|”      इस अतिरिक्त भी लेखिका ने कई उदाहरण दिए है  जहाँ गरीबी अशिक्षा के चलते लोग  डॉक्टर या विशेष स्कूल की तरफ ना जाकर किसी चमत्कार की आशा में अपनी ही बगिया के फूल के साथ अन्याय करते है | दरअसल अशिक्षा ही नीम हकीम और बाबाओं की तरफ किसी चमत्कार की आशा में भेजती है और इसी के कारण ना तो बच्चे का विकास सही ढंग से हो पाता है ना समाज का नजरिया बदल पाता है|    आज जब की पूरे विश्व में “प्रो. लाइफ वर्सिज प्रो चॉइस” आंदोलन जोर पकड़ रहा है | लेखिका एक ऐसी माँ  की जीवन गाथा लेकर आती है जो डॉक्टर द्वारा जन्म से पहले ही बच्चे को “डाउन सिंड्रोम” घोषित करने के बावजूद अपने बच्चे के जन्म लेने के अधिकार के साथ खड़ी  होती है | यहाँ जैसे दोनों तर्क मिल जाते हैं | क्योंकि ये भी एक चॉइस है जो लाइफ के पक्ष में खड़ी है| एक माँ के संघर्ष के अंतर्गत लेखिका वहाँ से शुरू करती हैं  जहाँ एक माँ को … Read more

पुस्तक समीक्षा -शंख पर असंख्य क्रंदन

संख पर असंख्य क्रंदन

    जो देश और काल को परिभाषित कर दे, उसकी समस्याओं, तकलीफों, बेचैनियों को शब्द दे दे, दुःख सुख, युद्ध शांति, संयोग वियोग, मानवता नृशंसता को व्याख्यायित कर दे, जीवन को आधार प्रदान करे, श्वास लेने के लिए मुफीद जगह उपलब्ध करवा दे, वही कविता है. कविता का संसार अत्यंत व्यापक है जिसका कोई ओर छोर नहीं है. हरी अनंत हरी कथा अनंता की भांति कविता भी अनंत है. कविता को किसी देश काल में विभक्त नहीं किया जा सकता. ये जानते हुए जब कवि की कलम चलती है तब उसकी कविताओं में न केवल हमारा परिवेश, प्रकृति उसकी चिंताएं समाहित होती हैं बल्कि उसमें हमारा समाज, राजनीति, धर्म, स्त्री, मानव जाति, मनुष्य का व्यवहार और स्वभाव सभी का समावेश होता है. कविता किसी एक देश की बात नहीं करती हैं, ये सम्पूर्ण विश्व, सम्पूर्ण मानवता की बात करती हैं. इनकी कविताओं का भी फलक उसी तरह व्यापक है जिस तरह कहानियों का था. कविताओं में पूरे विश्व की चिंताएं समाहित हैं चाहे इतिहास हो या भूगोल. एक ऐसी ही कवयित्री हैं डॉ सुनीता जिनका पहला कविता संग्रह ‘शंख पर असंख्य क्रंदन’ अपने व्यापक फलक का दर्शन कराता है. कविता क्या होती है और क्या कर सकती है, दोनों का दर्शन संग्रह में होता है. इनकी कविताओं में केवल देश या अपना समाज ही नहीं है बल्कि एक कविता सम्पूर्ण विश्व की पीड़ा का दर्शन करा देती है इस प्रकार इन्होंने इतिहास भूगोल और संवेदनाओं को कविताओं में पिरोया है.  शंख पर असंख्य क्रंदन- गाँव की पगडंडी से लेकर वैश्विक चिंताओं को समेटे कविताएँ    पहली ही कविता ‘दोपहर का कोरस’ अपनी संवेदना से ह्रदय विगलित कर देती है जहाँ संवेदनहीनता किस प्रकार मनुष्य के अस्तित्व का हिस्सा बन गयी है उसका दर्शन होता है.  अनगिनत लाशें सूख चुकी थीं जिनको किसी ने दफन नहीं किया आज तक/ क्योंकि वहां मानवीयता के लिए मानव थे ही नहीं/ कुछ परिंदे चोंच मार रहे थे उसकी देह पर  रेगिस्तान की त्रासदी और मानवता के ह्रास का दर्शन है ये कविता जहाँ ऐसे भयावह मंज़र नज़रों के सामने होते हैं और आप उन्हें देख कर सिहर उठते हैं और आगे बढ़ जाते हैं. आप के अन्दर की करुणा आपसे संवाद नहीं करती. एक ऐसे दौर में जी रहा है आज का मानव. संवेदनशील ह्रदय जब भी मानवीय त्रासदी देखता है आहत हो जाता है. आंतरिक घुटन बेचैनी को शब्दबद्ध करने को बेचैन हो जाता है. ऐसे में पहले ही सफ़र में जब ऐसा मंज़र रेगिस्तान में देखता है द्रवीभूत हो जाता है, सोचने को विवश हो जाता है, आखिर किस दौर के साक्षी बन रहे हैं हम? हम सरकारों को कोसते हैं लेकिन क्या हमने कुछ किया? हम भी मुंह फेर आगे बढ़ जाते हैं, त्रासदियाँ घटित होती रहती हैं. कवि ह्रदय मानवता की त्रासदी पर दुखी हो सकता है और अपनी पीड़ा को शब्दबद्ध कर स्वयं को हल्का करने का प्रयास करता है तो साथ ही समाज के सम्मुख एक कटु यथार्थ सामने लाता है.  ‘प्रेम की बारिश को पत्तियों ने जज़्ब किया’ एक ऐसी कविता जहाँ प्रेम का वास्तविक स्वरूप क्या है उसका दर्शन होता है. मानवीय प्रेम नहीं, आत्मिक प्रेम नहीं अपितु प्रकृति का दुलार, प्रकृति का उपहार, बिना किसी भेदभाव के सब पर समान रूप से बरसता प्रकृति का प्रेम ही इस धरा की अमूल्य निधि है. प्रकृति अपना निस्वार्थ प्रेम इसीलिए बांटती है कि धरती पर जीवन पनपता रहे. प्यार बाँटते चलो का सन्देश देती नदियाँ, पहाड़, बादल, धरती, वृक्ष सभी प्रेमगीत गुनगुनाते हैं. जब भी सभ्यता का क्षरण होता है अर्थात प्रलय आती है, यही रखते हैं मानवता की, प्रेम की नींव ताकि जीवन कायम रहे, उम्मीद कायम रहे. यूं ही नहीं कहा – दरार से प्रेम मिटाता नहीं/ सूरज से तेज चमकने लगता है/ जिस दिन धरती डोलना बंद करेगी उस दिन/ बादल पहाड़ों का चुम्बन अन्तरिक्ष में बाँट देंगे/आकाशगंगा पर लिख देंगे स्थायी इश्तहार/ जब धरती प्रलय की योजना बनाएगी तब हम नए सृजन के नाम/ प्रेम में डूबे देश की नींव रखेंगे  ये है प्रकृति का सन्देश, उसका निस्वार्थ प्रेम जिसे मानव समझ नहीं पा रहा, अपने हाथ अपना दोहन कर रहा है.      ‘सदियों से खड़ी मैं दिल्ली’ इस कविता में कवयित्री दिल्ली के माध्यम से केवल दिल्ली की बात नहीं कर रहीं हैं. दिल्ली क्या है – क्या केवल उतनी जितनी हम देखते हैं? आज की दिल्ली या कुछ वर्षों पहले की दिल्ली की हम बात करते हैं जबकि दिल्ली के सीने में सम्पूर्ण सभ्यता का इतिहास समाया है बस उसे देखने वाली नज़र चाहिए. यहाँ एक देश की राजधानी की बात नहीं है. दिल्ली एक प्रवृत्ति का आख्यान है. एक इतिहास विश्व का जिसे दिल्ली न केवल देख रही है बल्कि अपने सीने में जज़्ब कर रही है. डॉ सुनीता दिल्ली के माध्यम से वैश्विक फलक तक की बात करती हैं. वर्तमान समाज और समय की चिंताओं का समावेश इस कविता में हो रहा है. मनुष्यता  की चिंता है इन्हें. जहाँ १९१० का काल भी समाहित हो रहा है तो मदर टेरेसा की करुणा भी इसमें समाहित हो रही है, कैसे युगोस्लाविया से कोलकता तक का सफ़र तय करती है. युद्ध की विभीषिका, मालवीय के प्रयास से पहले अखिल भारतीय हिंदी सम्मलेन कैसे संपन्न हुआ, सभी का आख्यान प्रस्तुत कर रही है. दिल्ली के माध्यम से सम्पूर्ण विश्व की चिंताएं समाहित हो रही हैं. युद्ध हों या सम्मलेन, किसने क्या किया, कैसे सफलता प्राप्त की या असफलता सबकी मूक भाव से साक्षी बनती है.  यहाँ दिल्ली होना सहज नहीं, इतिहास ही नहीं, भूगोल का दर्शन भी होता है. कविता के माध्यम से  सोलहवीं शताब्दी का दर्शन कराती दिल्ली, एक नोस्टाल्जिया में ले जाती हैं और समय की करवट का दर्शन करवा देती हैं. प्राचीनतावाद में डूबे विश्व के बदलते भूगोल को लोमहर्षक नज़रों से देखती/उन सभी पलों में कई सदियों को देख रही होती हूँ   खेती एक सार्वजनिक सेवा है – इनकी कविताओं में प्रतीक और बिम्ब और शैली को समझने के लिए गहराई में उतरना पड़ेगा, विश्लेषण करना पड़ेगा. खेती एक सार्वजनिक सेवा है, इस भाव को वही ग्राह्य कर सकता है जो खेती के महत्त्व को समझता हो, जो अन्न के महत्त्व को जानता हो. जो … Read more

हवा का झोंका थी वह -स्त्री जीवन के यथार्थ की प्रभावशाली अभिव्यक्ति    

हवा का झोंका थी वह

     समकालीन कथाकारों में अनिता रश्मि किसी परिचय की मोहताज़ नहीं है। हवा का झोंका थी वह अनिता रश्मि का छठा कहानी संग्रह है। इनके दो उपन्यास, छ: कहानी संग्रह सहित कुल 14 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। इनकी रचनाएँ निरंतर देश की लगभग सभी पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रही हैं। इस संग्रह में 14 कहानियाँ संग्रहीत हैं। अनिता रश्मि ने स्त्री विमर्श के विविध आयामों को सरई के फूल तथा हवा का झोंका थी वह संग्रहों की कहानियों के माध्यम से सफलतापूर्वक हमारे सामने प्रस्तुत किया हैं। अनिता रश्मि ने स्त्री पीड़ा को, उसकी इच्छाओं, आकांक्षाओं, भावनाओं और सपनों को अपनी कहानियों के माध्यम से चित्रित किया हैं। इस संग्रह की कहानियों में स्त्रियों के जीवन की पीड़ा, उपेक्षा, क्षोभ, संघर्ष को रेखांकित किया है और साथ ही समाज की विद्रूपताओं को उजागर किया है। इन कहानियों का कैनवास काफ़ी विस्तृत हैं। ये कहानियाँ मध्यवर्गीय जीवन से लेकर निम्न वर्ग तक के जीवन की विडंबनाओं और छटपटाहटों को अपने में समेटे हुए है। इन कहानियों में यथार्थवादी जीवन, पारिवारिक रिश्तों के बीच का ताना-बाना, आर्थिक अभाव, पुरूष मानसिकता, स्त्री जीवन का कटु यथार्थ, बेबसी, शोषण, उत्पीड़न, स्त्री संघर्ष, स्त्रीमन की पीड़ा, स्त्रियों की मनोदशा, नारी के मानसिक आक्रोश आदि का चित्रण मिलता है। संग्रह की सभी कहानियाँ मानवीय संवेदनाओं को चित्रित करती मर्मस्पर्शी, भावुक है। इस संग्रह की कहानियाँ जिंदगी की हकीकत से रूबरू करवाती है। लेखिका अपने आसपास के परिवेश से चरित्र खोजती है। कहानियों के प्रत्येक पात्र की अपनी चारित्रिक विशेषता है, अपना परिवेश है जिसे लेखिका ने सफलतापूर्वक निरूपित किया है। अनिता रश्मि की कहानियों में सिर्फ पात्र ही नहीं समूचा परिवेश पाठक से मुखरित होता है।  हवा का झोंका थी वह -स्त्री जीवन के यथार्थ की प्रभावशाली अभिव्यक्ति     संग्रह की पहली कहानी हवा का झोंका थी वह नारी की संवेदनाओं को चित्रित करती आदिवासी स्त्री मीनवा की एक मर्मस्पर्शी, भावुक कहानी है जो विपरीत परिस्थितियों में भी हँसते मुस्कराते घरेलु नौकरानी का काम करती है। मीनवा एक बिंदास स्त्री है। आँखें एक मध्यम वर्गीय परिवार की कहानी है। पायल और सुमंत लीव इन रिलेशनशिप में रहते हैं। पायल शादी इसलिए नहीं करना चाहती क्योंकि वह अपने माता-पिता को हमेशा लड़ते-झगड़ते हुए देखती है। लेकिन कुछ ही सालों में पायल अनुभव करती है कि वह अपनी माँ में और सुमंत उसके पापा में परिवर्तित हो रहा है तो पायल सुमंत से शादी करने का फैसला करती है। सुविधाओं को प्राप्त करने के लिए हम कोल्हू के बैल की तरह जूते रहते हैं लेकिन क्या ये सुविधाएँ हमें खुशियाँ देती है? इस प्रश्न का उत्तर जिस दिन हमें मिल जाएगा उस दिन हम भी इस कहानी के पात्रों मथुरा, जिरगी और कजरा की तरह कोलतार की तपती सड़क पर मुस्कुरा उठेंगे। शहनाई कहानी संगीत की दुनिया में ले जाती है। निशांत अपने बेटे अंकुल की मृत्यु के पश्चात टूट जाता है और उसके हाथ से शहनाई छूट जाती है। निशांत के सैकड़ों शिष्य देश विदेश में निशांत का नाम रोशन कर रहे है लेकिन निशांत अपने बेटे के निधन से उबर नहीं पा रहा था। एक दिन अचानक जब निशांत की मुलाक़ात शहनाई पर बेसुरी तान निकालते हुए प्रकाश पर पड़ती है तो निशांत को प्रकाश में अपना बेटा अंकुल दिखता है और निशांत प्रकाश को शहनाई पर सुर निकालने का प्रशिक्षण देता है और निशांत वापस संगीत की दुनिया में लौट आता है।   एक नौनिहाल का जन्म एक आदिवासी युवक वृहस्पतिया की कहानी है। वृहस्पतिया अमीर बनने के लिए अपने सीधे सादे पिता की ह्त्या कर देता है। वह न तो दूसरों के खेतों पर मजदूरी करता है, न ही अपनी किडनी बेचता है और न ही आत्महत्या करता है। वह अमीर होने के लिए अफीम की खेती करता है और एक बड़ी जमीन का मालिक बन जाता है। लेकिन वह पुलिस के डर से इधर उधर भागता रहता है। उस घर के भीतर एक ऐसे माता पिता की कहानी है जो अपने अर्धविक्षिप्त, विकलांग बेटे को घर के अंदर बाँध कर रखते है। इनके पडोसी को इस तरह की हरकत अमानवीय लगाती है और वह इनको एक पत्र लिखता है कि आप अपने बेटे को खुले वातावरण में सांस लेने दो, फिर देखो कि तुम्हारा बेटा कैसे खिल उठेगा। वह अर्धविक्षिप्त, विकलांग बेटे को अपने बेटे के साथ खेलने के लिए भी बुलाता है। किर्चें एक लेडी डॉक्टर की कहानी है जिसका पति दहेज़ का लोभी है। वह अपनी पत्नी की तनखा स्वयं रख लेता है और अपनी पत्नी के द्वारा अपने ससुर से भी पैसे मांगता रहता है। ससुर की मृत्यु के पश्चात वह पत्नी के भाई से भी पैसा मांगता है। पत्नी अपने पति के लालची स्वभाव के कारण परेशान हो जाती है और अपने पति से अलग हो जाती है। वह अपने बेटे को पढ़ा-लिखाकर डॉक्टर बनाती है।    एक उदास चिट्ठी एक पत्र शैली में एक युवती द्वारा अपनी माँ को लिखी कहानी है। यह एक भारतीय संस्कारों में पली बढ़ी आधुनिक युवती के शोषण की कहानी है। जिसे अपनी विदेशी माँ से उपेक्षा मिलती है। वह अपनी जीवन व्यापन के लिए एक रेस्टोरेंट खोलती है जहां उसके जीवन में एक फौजी आता है। वह फौजी एक दिन उसका बलात्कार करता है। तब वह टूट जाती है और कहती है वह मेरी चीख नहीं थी। वह बेबसी की चीख नहीं थी… वह एक औरत की चीख भी नहीं थी। वह एक घायल, मर्माहत संस्कृति की चीख थी ममा।      लाल छप्पा साड़ी गरीब आदिवासी स्त्री बुधनी की कहानी है। बुधनी रोज रात को डॉक्टर निशा के यहाँ पढ़ने के लिए जाती है। बुधनी का पति जीतना दारु पीकर पड़ा रहता है।  एक दिन जीतना शहर जाने के लिए निकलता है तो बुधनी उसे पैसे देकर अपने लिए लाल छप्पा साड़ी लाने के लिए कहती है। क्योंकि बुधनी जहां काम करती है उस घर की मालकिन के पास भी एक लाल रंग की साड़ी है जो की बुधनी को बहुत पसंद है। बुधनी का पति शहर से नहीं लौटता है। गाँव में लोग बुधनी को डायन समझने लग जाते है। वह विक्षिप्त सी हो जाती है और बुधनी अपने पुत्र को लेकर अपने पति को ढूंढने शहर जाती है। शहर में उसे पता … Read more

पुस्तक समीक्षा -भगवतीचरण वर्मा स्मृति : समकालीन कहानी संग्रह

पुस्तक समीक्षा

  सीमा वशिष्ठ जौहरी जो कि वरिष्ठ साहित्यकार भगवतीचरण वर्मा की पोती हैं, ने अपने दादाजी भगवतीचरण वर्मा की स्मृति में समकालीन कहानी संग्रह का संपादन कर पुस्तक भगवतीचरण वर्मा स्मृति : समकालीन कहानी संग्रह का प्रकाशन संस्कृति, चेन्नई से करवाया है। सीमा जौहरी बाल साहित्य के क्षेत्र में लेखन में सक्रीय हैं। सीमा वशिष्ठ जौहरी ने इस संकलन की कहानियों का चयन और संपादन बड़ी कुशलता से किया हैं। इस संग्रह में देश-विदेश के सोलह  कथाकार शामिल हैं। संग्रह के 16 कथाकारों में भगवतीचरण वर्मा, ममता कालिया, ज़किया ज़ुबेरी, सूर्यबाला, चित्रा मुद्गल, तेजेन्द्र शर्मा, डॉ. हंसा दीप, सुधा ओम ढींगरा, अलका सरावगी, प्रहलाद श्रीमाली जैसे हिंदी के प्रतिष्ठित हस्ताक्षरों के साथ नयी और उभरते कथाकारों की कहानियाँ भी सम्मिलित हैं। इस संग्रह की कहानियाँ पाठकों के भीतर नए चिंतन, नई दृष्टि की चमक पैदा करती हैं। भगवतीचरण वर्मा स्मृति : समकालीन कहानी संग्रह सुप्रसिद्ध वरिष्ठ कथाकार भगवतीचरण वर्मा की वसीयत कहानी बेहद रोचक है। कहानी सामाजिक और पारिवारिक पृष्ठभूमि में लिखी गई है। कहानी में संवाद चुटीले और मार्मिक हैं। इस कहानी के द्वारा भगवती चरण वर्मा ने समाज की आधुनिक व्यवस्था पर करारा कटाक्ष किया गया है। इस कहानी में हास्य है, व्यंग्य और मक्कारी से भरे चरित्र हैं। भगवतीचरण वर्मा की किस्सागोई का शिल्प अनूठा है। भगवतीचरण वर्मा की कहानियों में घटनाएँ, स्थितियाँ और पात्रों के हावभाव साकार हो उठाते हैं। वसीयत कहानी एक कालजयी रचना है। भगवतीचरण वर्मा की रचनाएँ युगीन विसंगतियों पर प्रहार करते हुए नवयुग के सृजन की दिशा में आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करती हैं। वरिष्ठ कथाकार ममता कालिया ने कहानी दो गज़ की दूरी कोरोना काल की त्रासदी को केंद्र में रख कर लिखी है। कहानी में सहजता और सरलता है। यह नारी अस्मिता की कहानी है। यहां समिधा को सशक्त किरदार में दर्शाया गया है। ममता कालिया ने समिधा की सूक्ष्म मनोवृत्तियों, जीवन की धड़कनों, मन में चलने वाली उथल पुथल को इस कहानी में सहजता से अभिव्यक्त किया है। ममता कालिया विडम्बना के सहारे आज के जीवन की अर्थहीनता को तलाशती हैं। इस कहानी में संबंधों के नाम पर समिधा का पति वरुण झूठ, धोखा, अविश्वास, छल-कपट और बनावटीपन का मुखौटा लगाये संबंधों को जीना चाहता है। ज़कीया ज़ुबैरी की गरीब तो कई बार मरता है अमीना की कहानी है। ज़किया जुबैरी स्त्रियों की ज़िन्दगी में आहिस्ता से दाख़िल होकर उनके मन की परतों को खोलती हैं। भीतरी तहों में दबे सच को सामने लाती हैं। ज़किया जुबैरी की कहानियाँ उनकी बेचैनी को शब्द देती है। ज़कीया ज़ुबैरी हिन्दी एवं उर्दू दोनों भाषाओं में समान अधिकार रखती हैं। ज़कीया ज़ुबैरी की भाषा में गंगा जमुनी तहज़ीब की लज़्ज़त महसूस होती है। अमीना का विवाह समी मियाँ से होता है। अमीना का प्रत्येक दिन समी मियाँ की चाकरी में गुजर जाता है। अमीना चार बच्चों की माँ बन जाती है। समी मियाँ बिज़नेस के सिलसिले में एक महीने के लिए बाहर चले जाते हैं, तब अकेलेपन से बचने के लिए अमीना सत्रह साल की नूराँ को अपने पास बुला लेती है। जब समी मियाँ वापस लौट कर आते है, तब एक दिन सुबह अमीना अपने पति समी मियाँ को उनके बेड रूम में जाकर देखती है कि नूराँ समी मियाँ के बिस्तर पर सोई हुई है। अमीना और नूराँ दोनों चौंक जाती हैं।   सूर्यबाला की गौरा गुनवन्ती एक अनाथ लड़की की कहानी है जो अपनी ताई जी के यहाँ रहती है। सूर्यबाला अपनी कहानियों में व्यंग्य का प्रमुखता से प्रयोग करती हैं। सूर्यबाला की कहानियों में यथार्थवादी जीवन का सटीक चित्रण है। इनके कथा साहित्य में स्त्री के कई रूप दिखाई देते हैं। सूर्यबाला के नारी पात्र पुरुष से अधिक ईमानदार, व्यवहारिक, साहसी और कर्मठ दिखाई देती हैं। कहानीकार पाठकों को समकालीन यथार्थ से परिचित कराती हैं और उसके कई पक्षों के प्रति सचेत भी करती हैं। लेखिका जीवन-मूल्यों को विशेष महत्व देती हैं, इसलिए इनकी इस कहानी की मुख्य पात्र गौरा दुःख, अभाव, भय के बीच जीते हुए भी साहस के साथ उनका सामना करते हुए जीवन में सुकुन की तलाश कर ही लेती है। उसमें विद्रोह की भावना कहीं नहीं है। कथाकार चित्रा मुद्गल की कहानी ताशमहल पुरुष मानसिकता और माँ की ममता को अभिव्यक्त करने वाली है। यह एक परिवार की कहानी है, जिसमें संबंध बनते हैं, फिर बिगड़ते है और अंत में ताश के पत्तों की तरह ढह जाते हैं। माता-पिता के झगड़ों में बच्चों पर क्या गुजरती है? इस प्रश्न के उत्तर बारे में केवल माँ ही सोच सकती है। कहानी में बाल मनोविज्ञान का सूक्ष्म चित्रण भी दिखता है। यह एक सशक्त कहानी है जिसमें कथ्य का निर्वाह कुशलतापूर्वक किया गया है। कथाकार ने इस कहानी का गठन बहुत ही बेजोड़ ढंग से प्रस्तुत किया है। रीता सिंह एक ऐसी कथाकार है जो मानवीय स्थितियों और सम्बन्धों को यथार्थ की कलम से उकेरती है और वे भावनाओं को गढ़ना जानती हैं। लेखिका के पास गहरी मनोवैज्ञानिक पकड़ है। साँझ की पीड़ा एक अकेली वृद्ध महिला विमला देवी की कहानी है जो बनारस में अपने घर में रहती है। एक दिन विमला देवी की बेटी और उनका दामाद विमला देवी के यहाँ आकर बनारस के उस घर को बेच देते हैं और विमला देवी को अपने साथ चंडीगढ़ लेकर चले जाते हैं। लेकिन कुछ दिनों बाद ही बेटी और दामाद विमला देवी के साथ बुरा बर्ताव करते हैं, तब एक दिन विमला देवी दिल्ली में अपने भाई रघुवीर के घर चली जाती है। रघुवीर के घर में भी विमला देवी के लिए जगह नहीं थी, तब रघुवीर विमला देवी को एक विधवाश्रम में छोड़ कर आ जाते हैं। चार दिन बाद ही रघुवीर के पास विधवाश्रम के संचालक का फोन आता है कि विमला देवी को दिल का दौरा पड़ा है। रघुवीर जब आश्रम पहुँचते हैं, तब तक विमला देवी का निधन हो चुका होता है। तेजेन्द्र शर्मा ने बुजुर्गों के अकेलेपन को खिड़की कहानी के द्वारा बहुत मार्मिकता के साथ बयां किया है। कहानी के नायक जो कि साठ वर्ष के हैं और अब परिवार में अकेले रह गए हैं, की ड्यूटी रेलवे की इन्क्वारी खिड़की पर होती है। वे इस इन्क्वारी खिड़की पर लोगों के साथ संवाद स्थापित कर के, उनकी सहायता कर … Read more

बेगम हज़रत महल- एक निम्नवर्ग में जन्मी लड़की से बेगम हज़रत महल बनने तक की संघर्षमय गाथा

बेगम हज़रत महल- एक निम्नवर्ग में जन्मी लड़की से बेगम हज़रत महल बनने तक की संघर्षमय गाथा

  1857 का संग्राम याद आते ही लखनऊ यानी की अवध की बेगम हज़रत महल के योगदान को कौन भूल सकता है l  खासकर तब जब आजादी के अमृत महोत्सव मना रहा देश अपने देश पर जाँ निसार करने वाले वीरों को इतिहास के पीले पन्नों से निकाल कर फिर से उसे समकाल और आज की पीढ़ी से जोड़ने का प्रयास कर रहा हो l कितनी वीर गाथाएँ ऐसी रहीं, जिन्होने अपना पूरा जीवन अंग्रेजों से संघर्ष करते हुए बिता दिया और हम उन्हें कृतघ्न संतानों की तरह भूल गए l बेगम हज़रत महल उन्हीं में से एक प्रमुख नाम है l   किसी भी ऐतिहासिक व्यक्तित्व पर लिखना आसान नहीं होता l ज्ञात इतिहास ज्यादातर जीतने वाले के हिसाब से लिखा जाता है जो कई बार सत्य से काफी दूर भी हो सकता है l अतः निष्पक्ष लेखन हेतु लेखक को समय के साथ जमींदोज हुए तथ्यों की बहुत खुदाई करनी पड़ती है, तब जा कर वो कहीं कृति के साथ न्याय कर पाता है l ऐसे में वीणा वत्सल सिंह इतिहास में लगभग भुला दी गई  “बेगम हज़रत महल’ को अपनी कलम के माध्यम से उनके हिस्से का गौरव दिलाने का बीड़ा उठाया है l वो बेगम को उनकी आन-बान-शान के साथ ही नहीं उनके बचपन, मुफलिसी के दिन जबरन परी बनाए जाने की करूण  कहानी से नवाब वाजिद अली शाह के दिल में और अवध में एक खास स्थान बनाने को किसी दस्तावेज की तरह ले कर आई हैं l ये किताब मासूम मुहम्मदी से महक परी और बेगम हज़रत महल तक सफर की बानगी है l जिसमें बेगम हज़रत महल के जीवन के हर पहलू को समेटा गया है l ये कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी की प्रगतिशील सोच रखने वाली एक जुझारू संघर्षशील स्त्री के सारे गुण मुहम्मदी में नजर आते हैं l बेगम हज़रत महल- एक निम्नवर्ग में जन्मी लड़की से बेगम हज़रत महल बनने तक की संघर्षमय गाथा   बेगम हज़रत महल की संघर्ष यात्रा शुरू होती है एक निम्नवर्ग के परिवार में जन्मी बच्ची मुहम्मदी से l कहते है कि होनहार बिरवान के होत चीकने पात” l जब पाठक मुहम्मदी के बचपन से रूबरू होता है तो लकड़ी की तलवार लेने की जिद और जंगी हुनर सीखने कि खवाइश से ही उसके भविष्य की दिशा दिखने लगती है l एक कहावत है “होनहार बिरवान के होत चीकने पात”यानि  विशिष्ट व्यक्तित्व के निर्माण के बीज उनके बचपन से ही दिखने लगते हैं l ऐसा ही मुहम्मदी के साथ हुआ l बच्चों के खेल “बोलो रानी कितना पानी” जिसमें रानी को कभी ना कभी डूबना ही होता है का मुहम्मदी द्वारा विरोध “रानी नहीं डूबेगी” दिखा कर खूबसूरती से उपन्यास की शुरुआत की गई है l और पाठक तुरंत मुहम्मदी से जुड़ जाता है l शुरुआत से ही पाठक को मुहम्मदी में कुछ नया सीखने का जज्बा, जंगी हुनर सीखने का जुनून, करुणा, विपरीत परिस्थितियों को जीवन का एक हिस्सा समझ कर स्वीकार तो कर लेना पर उस में हार मान कर सहने की जगह वहीं से नए रास्ते निकाल कर जमीन से उठ खड़े होने की विशेषताएँ दिखाई देती हैं lये उसका अदम्य साहस ही कहा जाएगा कि जीवन उन्हें बार-बार गिराता है पर वो हर बार उठ कर परिस्थितियों की लगाम अपने हाथ में ले लेती हैं l  उपन्यास में इन सभी बिंदुओं को बहुत ही महत्वपूर्ण तरीके से उभारा गया है l   निम्न वर्ग के परिवार में तीन भाइयों के बाद आई सबसे छोटी मुहम्मदी यूँ तो पिता की बहुत लाड़ली थी पर गरीबी-मुफलिसी और सबसे बड़े भाई अनवर के हर समय बीमार रहने के कारण उसका बचपन आसान नहीं था l अनवर के इलाज लायक पैसे भी अक्सर घर में नहीं होते l ऐसे में जब भी अनवर को दिखाने हकीम के पास जाना होता उस दिन घर में चूल्हा भी नहीं जलता l ऐसे में उसके मामा सलीम ने जब अपनी बीमार पत्नी की देखभाल के लिए मुहम्मदी को अपने साथ ले जाने को कहा तो माता- पिता को अनुमति देनी ही पड़ी l इसका एक कारण यह भी था कि मुहम्मदी की बढ़ती उम्र और सुंदरता के कारण वो इस कमजोर दरवाजे वाले घर में सुरक्षा नहीं कर पाएंगे l पर खुश मिजाज मुहम्मदी ने माता-पिता के बिछोह को भी स्वीकार कर लिया l अपनी ममेरी बहन नरगिस के साथ उसने ना केवल घर के काम सीखे बल्कि मामूजान से उनका हुनर टोपी बनाना भी सीखा l ताकि आर्थिक संबल भी दे सके l हिफ़ाजत और जंग के लिए तलवार चलाना सीखने की खवाइश रखने वाली मुहम्मदी का दिल बेजूबानों के लिए भी करुणा से भरा था l  यहाँ तक की उपन्यास में मुर्गे की लड़ाई के एक दृश्य में मुहम्मदी मुर्गे को बचाती है l और कहती है कि   “मुर्गे का सालन ही खाना है तो सीधे हलाल करके खाइए ना ! ऐसे क्यों इस गरीब को सताये जा रहे हैं ? क्या इसए दर्द नहीं होता होगा?”   मुहम्मदी की ममेरी बहन नरगिस और जावेद की प्रेम कथा उपन्यास की कथा में रूमानियत का अर्क डालती है l “नरगिस का चेहरा सुर्ख, नजरें झुकी हुई l जबकि जावेद का मुँह थोड़ा सा खुला हुआ और आँखें नरगिस के चेहरे पर टिकी हुई l दोनों के पैरों के इर्द-गिर्द गुलाब और मोगरे के फूल बिखरे हुए और बेचारा टोकरा लुढ़क कर थोड़ी दूर पर औंधा पड़ा हुआ l”   जब भी हम कोई ऐतिहासिक उपन्यास पढ़ते हैं तो हम उस कथा के साथ -साथ उस काल की अनेकों विशेषताओं से भी रूबरू होते हैं l उपन्यास में नृत्य नाटिका में वाजिद आली शाह का कृष्ण बनना उनके सभी धर्मों के प्रति सम्मान को दर्शाता हैं तो कथारस वहीं प्रेम की मधुर दस्तक का कारण बुनता है l कथा के अनुसार कृष्ण बने नवाब वाजिद अली शाह द्वारा जब मुहम्मदी की बनाई टोपी पहनते हैं तो जैसे कृष्ण उनके वजूद में उतर आते हैं l परंतु उसके बाद हुए सर दर्द में लोग उनके मन में डाल देते हैं कि उन्होंने शायद जूठी टोपी यानि किसी की पहनी हुई टोपी पहनी है, ये दर्द उसकी वजह से है l वाजिद के गुस्सा होते हुए तुरंत सलीम … Read more

सुनो कहानी नई पुरानी -कहानियों के माध्यम से बच्चों को संस्कृति से जोड़ने का अभिनव प्रयास

“मम्मी इस घर का एक रूल बना दीजिए कि चाहे जो भी हो जाए इस फॅमिली का कोई मेम्बर एक-दूसरे से बात करना बंद नहीं कर सकता है l” यूँ तो साहित्य लेखन ही जिम्मेदारी का काम है पर बाल साहित्य के कंधे पर यह जिम्मेदारी कहीं ज्यादा महती है क्योंकि यहाँ पाठक वर्ग एक कच्ची स्लेट की तरह है, उसके मन पर जो अंकित कर दिया जाएगा उसकी छाप से वो जीवन भर मुक्त नहीं हो सकता l आज इंटरनेट पीढ़ी में जब दो ढाई महीने के बच्चे को चुप कराने के लिए माँ मोबाइल दे देती है तो उसे संस्कार माता-पिता से नहीं तमाम बेहूदा, ऊल-जलूल रील्स या सामग्री से मिलने लगते हैं l ऐसे में बाल साहित्य से बच्चों को जोड़ना क कड़ी चुनौती है l जहाँ उन्हें मनोरंजन और ज्ञान दोनों मिले l किरण सिंह जी के बाल साहित्य के लेखन में ये अनुपम समिश्रण देखने को मिलता है l बाल साहित्य पर उनकी कई पुस्तकें आ चुकी हैं और सब एक से बढ़कर एक है l उनका नया बाल कहानी संग्रह “सुनो कहानी नई पुरानी” इसी शृंखला की एक महत्वपूर्ण कड़ी है l सुनो कहानी नई पुरानी -कहानियों के माध्यम से बच्चों को संस्कृति से जोड़ने का अभिनव प्रयास   संग्रह के आरंभ में बच्चों को लिखी गई चिट्ठी में वो अपनी मंशा को स्पष्ट करते हुए लिखती हैं कि, “कहानियाँ लिखते समय एक बात मन मिएन आई, क्यों नाइन कहानियों के माध्यम से आपको संस्कृति से जोड़ा जाएl” वनिका पब्लिकेशन्स से प्रकाशित 64 पेज के इस बाल कहानी संग्रह में 14 कहानियाँ संकलित हैं l जैसा की नाम “सुनो कहानी नई पुरानी” से स्पष्ट है किरण सिंह जी ने इस बाल् कहानी संग्रह कुछ नई कहानियों के माध्यम से और कुछ पौराणिक कहानियों के माध्यम से बच्चों को अपनी संस्कृति से जोड़ने का अभिनव प्रयास किया है l इससे पहले वो ‘श्री राम कथमृतम के द्वारा सरल गेय छंदों में श्री राम के जीवन प्रसंगों को बच्चों तक पहुँचाने का महत्वपूर्ण काम कर चुकी हैं l कहीं ना कहीं पाश्चात्य संभयता और संस्कृति के बढ़ते प्रभाव के कारण बच्चे अपने पूर्वजों के गौरव को भूलते जा रहे हैं l हमने वो समय भी देखा है, जब ये व्यंग्य खूब प्रचलित था बच्चे ये प्रश्न करते हैं कि, “सीता किसका बाप था ?” बात हँस कर टालने की नहीं, अपितु गंभीर चिंतन की थी क्योंकि व्यंग्य समाज की विसंगतियों पर प्रहार ही होते हैं l पर दुर्भाग्य से इस ओर विशेष कदम नहीं उठाए गए l एक क्रूर सच्चाई ये भी है कि आज के माता- पिता को खुद ही नहीं पता है तो वो बच्चों को क्या बताएंगे l किरण सिंह जी इसे एक बहुत ही रोचक अंदाज में कहानियों के माध्यम से बुना है lफिर चाहें वो दीपावली क्यों मनाई जाती है ? मीरा का श्याम में अद्भुत विलय हो या जिज्ञासु नचिकेता के बाल सुलभ प्रश्न पूछने और जिज्ञासाओं को शांत कर ज्ञान अर्जित करने की कथा हो l हर कथा को इस तरह से बुना गया है कि आज के बच्चे जुड़ सकें l जैसे कृष्ण-सुदामा की कहानी वहाँ से शुरू होती है, जहाँ दक्ष अपने दोस्त की शिकायत करता है कि वो उसका टिफिन खा जाता है l वो उसे मोंटू भी कहता है l माँ कृष्ण सुदामा के माध्यम से दोस्ती के अर्थ बताती हैं l दक्ष को समझ आता है और उसे अपनी गलती का अहसास भी होता है कि उसे अपने दोस्त को “मोंटू” नहीं कहना चाहिए, उसे उसके नाम ‘वीर’ से ही बुलाना चाहिए l वहीं दक्ष की बर्थ डे पार्टी में आया वीर भी वादा करता है कि वो अब दूसरे बच्चों का टिफिन नहीं खाएगा बल्कि खेल कूदकर योग करके खुद को पतला करने की कोशिश करेगा l ये कहानी मुझे इस लिए बेहद अच्छी लागि क्योंकि इसमें कृष्ण-सुदामा की कथा के माध्यम से दोस्ती के सच्चे अर्थ तो बताए ही, बच्चों को किसी दूसरे पर कोई टैग लगाने या बॉडी शेमिंग की प्रवत्ति पर भी प्रहार है l वहीं स्वास्थ्यकर खाने और योग से फिट रहने की समझ पर भी जोर दिया गया है l इस संग्रह में केवल पुरानी कहानियाँ ही नहीं हैं कुछ बिल्कुल आज के बच्चों, और आज के समय को रेखांकित करती कहानियाँ भी हैं l जैसे रौनक ने अपने छोटे भी चिराग के बात-चीत बंद कर दी l छोटू चिराग से भैया की ये चुप्पी झेली नहीं गई l अब बंद बातों के तार जुड़ें कैसे ? लिहाजा उसने मम्मी से गुजारिश कर घर में ये रूल बनवा दिया कि घर में किसी का किसी से झगड़ा हो जाए तो कोई बात-चीत बंद नहीं करेगा l वहीं रौनक ने भी रूल बनवा दिया कि “कोई किसी की चुगली नहीं करेगा l”यहाँ लेखिका बच्चों के मन में ये आरोपित कर देती हैं कि आपसी रिश्तों को सहज सुंदर रखने के लिए संवाद बहुत जरूरी है l “कुछ दाग आच्छे होते हैं कि तर्ज पर कहूँ तो “ऐसे रूल भी अच्छे होते हैं l” रोज रात में दादी की कहानी सुनने की आदी गौरी के माता-पिता जब दादी की तबीयत खराब होने पर गौरी को कहानी ना सुनाने को कहते हैं ताकि उनके ना रहने पर गौरी के कोमल मन पर असर ना पड़ें तो दादी चुपक से टेक्नोलॉजी का सहारा लेकर अपनी कहानियों को पोती के लिए संरक्षित कर देती हैंl यह प्रयोग मन को भिगो देता है l नए जमाने के साथ चलती ये कहानी बाल मन के साथ साथ बुजुर्गों को भी अवश्य बहाएगी और दिशा देगी l बाल कहानियाँ लिखते हुए किरण सिंह जी ने इस बात में पूरी सतर्कता रखी है कि भाषा, शिल्प, शैली आज के बच्चों के अनुरूप हो l कहानी में छोटे-छोटे, रोचक, और बहुत सारे संवादों का प्रयोग कर उसकी पठनीयता को बढ़ाया है l हर कहानी में मजे- मजे में एक शिक्षा नत्थी करके बाल मन को संस्कारित करने का प्रयास किया है l वनिका पब्लिकेशन की मेहनत संग्रह में साफ दिखती है l कागज़, बच्चों को आकर्षित करते चित्र और प्रूफ रीडिंग हर दिशा में नीरज जी और उनकी टीम की मेहनत स्पष्ट नजर आती है l कवर … Read more

बातें किताबों की- नेहा की लव स्टोरी

नेहा की लव स्टोरी

लिव इन जैसे सम्बंधों को भले ही कानूनी मान्यता मिली हो, मगर सामाजिक मान्यता नहीं मिली है।पश्चिमी सभ्यता से प्रभावित होकर युवा पीढ़ी इस ओर आकर्षित तो हुई है पर यह अभी विवाह के विकल्प के रूप में स्थापित नहीं हो सकी है l जिस रिश्ते में प्रवेश करते समय “साथ तो हैं पर साथ नहीं” की तर्ज पर किसी तरह का वादा ना हो उसके टूट जाने पर लगाए जाने आरोप लगाए भी तो किस पर और क्यों? बाज़रवाद से प्रभावित लिव इन का रैपर इतना शानदार है कि युवा इसके शिकंजे में आते जा रहे हैं, और पूरी पीढ़ी गुमराह हो रही हैl ये कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा कि उन्मुक्त जीवन की ओर अंधी दौड़ का दुष्परिणाम महिलाओं के हिस्से ज्यादा आता हैlऐसे में ऐसी विवेक सम्पन्न स्त्री को गढ़ना भी साहित्य का काम है जो अपनी जिंदगी का ये महत्वपूर्ण फैसला देह की कामनाओं की ज्वार में ना ले l आइए पढ़ते  हैं लिव इन जैसे मुद्दे पर अपनी बात रखते सुपरिचित कथाकार सोनाली मिश्रा के उपन्यास “नेहा की लव स्टोरी” पर डॉ. मीनाक्षी स्वामी की समीक्षा बातें किताबों की- नेहा की लव स्टोरी सोनाली मिश्रा का पहला उपन्यास ‘महानायक शिवाजी’ भी पढ़ा था। शिवाजी की वीरता के साथ माता जीजाबाई की भूमिका को भी सोनाली ने जिस तरह रेखांकित किया है, वह बहुत प्रभावी है। श्रेष्ठ समाज के निर्माण में माता की भूमिका के साथ शिवाजी के शौर्य, देशभक्ति आदि का सुगठित संयोजन उपन्यास में है। सोनाली की दृष्टि स्पष्ट है। इसी कारण विचारों में भी स्पष्टता है। वे साहस के साथ उन्हें जो सही लगता है, उसके पक्ष में खड़ी रहती हैं। यही बात सोनाली के व्यक्तित्व को विशिष्ट बनाती है। ‘नेहा की लव स्टोरी’ उपन्यास बहुत दिनों से मंगाकर रखा था। मगर इस दौरान व्यस्तता के कारण अब पढ़ पाई। वर्तमान में समाज में तेजी से नासूर बनी लव जिहाद की समस्या को परत दर परत इस उपन्यास में खोला गया है। नारीवाद एक आयातित विचार है जो हमारे देश की संस्कृति के अनुकूल नहीं है। मगर हीनता ग्रंथि के चलते विदेशी संस्कृति को महान समझने की भूल अब कई समस्याओं के रूप में सामने आ रही है। इसी के चलते सनातन संस्कृति के प्रति पनपी हीन भावना हिंदू लड़कियों को दूसरे धर्म की ओर आकर्षित करने लगी। नारीवाद के प्रति आकर्षण, छद्म प्रगतिशीलता और अपनी जड़ों से दूरी इन लड़कियों को ऐसे शिकंजे में कसने लगी जिसमें जीवन की समाप्ति के अलावा कुछ हाथ न लगा। और जो जीती रहीं, वे मृत्यु से भी बदतर दशाओं में। लिव इन जैसे सम्बंधों को भले ही कानूनी मान्यता मिली हो, मगर सामाजिक मान्यता नहीं मिली है। हमारे पूर्वजों ने बहुत सोच समझकर जीवन से जुड़ी सभी आवश्यकताओं की पूर्ति के गरिमामय और मर्यादित तरीके तय किए थे। ये परम्पराएं एक दिन में नहीं बनती। इनमें पीढ़ियों के सामाजिक अनुभवों का समावेश होता है। ये समाज हित में होती हैं। विवाह जैसी संस्थाएं और अपने जाति समूह में विवाह। समय के साथ परम्पराओं में बदलाव हुआ तो अपने धर्म के भीतर जातीय बंधनों के परे विवाहों को भी समाज द्वारा मान्य किया गया। अन्तरधार्मिक विवाह और लिव इन को मान्यता क्यों न मिली, आज इनके परिणाम देखकर हमें अपनी परम्पराओं पर गर्व के साथ पालन करने में दृढसंकल्पित होने का समय है। ‘नेहा की लव स्टोरी’ उपन्यास इसी बात को बहुत रोचक अंदाज़ में बयान करता है। किस तरह हिंदू लड़कियों को बरगलाया जाता है और फिर उनका जीवन बर्बाद किया जाता है। वे इस जाल में क्यों और कैसे फंसकर किस तरह तबाह हो जाती हैं। सब कुछ उपन्यास में उद्घाटित होता है। इससे बचने के लिए परिवार की भूमिका विशेष तौर पर माता की क्या भूमिका होना चाहिए। इस जाल से कैसे बचें। जिस आयु में लड़कियों की आंखों में अपने जीवन को लेकर सुनहरे सपने होते हैं। उस आयु में उन्हें पूरा करने के लक्ष्य से भटककर वे बहुत सूक्ष्म तंतुओं से बने अदृश्य मगर अत्यंत खतरनाक जाल में फंस जाती हैं, जब उन्हें इसका एहसास होता है, तब तक इतनी देर हो चुकी होती है कि उससे निकल पाना उनके लिए असंभव हो जाता है। जो परिवारजन उन्हें निकाल सकते हैं, वे उस समय उनसे नाराज़गी, उनके उठाए गलत कदम पर उनसे क्रुद्ध होते हैं और सहारा नहीं देते हैं। इन्हें जाल में फंसाने वाले इनके परिवारजनों से दूर करने का जाल भी बड़ी धूर्तता से बुनते हैं। इस सबका मनोवैज्ञानिक, सामाजिक, सांस्कृतिक चित्रण दक्ष लेखिका ने बहुत कौशल से किया है। किस तरह ब्रेन वॉश करते हुए भारतीय संस्कृति का विनाश करने का षड़यंत्र रचा गया है। हमारी परम्पराओं, मूल्यों पर आघात किया जा रहा है। आधुनिकता, प्रगतिशीलता, नारीवाद जैसे विमर्श किस तरह हमारी संस्थाओं पर हमला कर रहे हैं। नारीवाद के नाम पर हमारे समाज को स्त्री पुरुष के खांचे में बांटकर महिला और पुरुष को एक दूसरे के पूरक के स्थान पर विरोधी बनाकर समाज को तोड़ने का विमर्श रचा गया। उपन्यास में सोनाली ने गहन शोध, चिंतन, मनन, विश्लेषण के बाद कथानक को बुना है, यह पढ़कर ही जाना जा सकता है। यह उपन्यास सोए हुए हिंदू समाज को झिंझोड़कर जगाता है कि उठो, जागो और अपनी अस्मिता की रक्षा करो। यह उपन्यास हर किसी को जरूर ही पढ़ना चाहिए। उपन्यास पूरे समय बांधे रखता है। यही कारण है कि एक बैठक में पढ़े बिना छोड़ा नहीं जाता है। सोनाली इस समस्या की जड़ तक जाती हैं और एक एक रेशा पूरी स्पष्टता से सामने रखती हैं। ऐसे साहसिक उपन्यास के लिए सोनाली को साधुवाद। डॉ. मीनाक्षी स्वामी यह भी पढ़ें प्राइड एंड प्रिज्युडिस को हुए 210 साल – जानिए जेन ऑस्टिन के जीवन के कुछ अनछुए पहलू निर्मल वर्मा की कहानी परिंदे का सारांश व समीक्षा रोज़- अज्ञेय की कालजयी कहानी प्रज्ञा की कहानी जड़खोद- स्त्री को करना होगा अपने हिस्से का संघर्ष आपको “बातें किताबों की- नेहा की लव स्टोरी” पर यह समीक्षात्मक आलेख कैसा लगा? अपने विचारों से हमाएं अवश्य अवगत कराएँ l अगर आपको अटूट बंधन की रचनाएँ पसंद आती हैं तो साइट को सबस्क्राइब करें व अटूट बंधन फेसबुक पेज को लाइक करें l

सपनों का शहर सैन फ्रांसिस्को – अमेरिकी और भारतीय संस्कृति के तुलनात्मक विशेषण कराता यात्रा वृतांत

सैन फ्रांसिस्को

“यात्राएँ एक ही समय में खो जाने और पा लेने का सबसे अच्छा तरीका हैं”   कितनी खूबसूरत है ये प्रकृति  कहीं कल-कल करते झरने, कहीं चारों तरफ रेत ही रेत, कहीं ऊँचे पर्वत शिखर तो कहीं  धीर गंभीर समुद्र अथाह जलराशि को अपने में समेटे हुए | प्रकृति के इस सुरम्य शीतल, शांत कर देने वाले अनुभव के अतरिक्त मानव निर्मित कॉक्रीट के आश्चर्यजनक नमूने .. चाहे वो भवन हों, पुल हों, सड़कें हों या अन्य कलाकृतियाँ |   पर क्या भौगोलिक सीमाएँ ही किसी देश, शहर या गाँव का आधार होती हैँ | शायद नहीं, कोई भी  स्थान जाना जाता है वहाँ के लोगों से, उनकी सभ्यता उनकी संस्कृति से, उनके खान-पान पहनावे से, उस शहर के बार-बार बनने-बिगड़ने के इतिहास से | शायद इसीलिए हर यात्रा हमें समृद्ध करती है, हमें बदल देती है, हमारे अंदर कुछ नया जोड़ देती है, कुछ पुराना घटा देती है | इसीलिए शायद हर यात्रा के बाद हम भी वो नहीं रहते जो पहले थे |   हर देश की,  शहर की, स्थान की  अपनी एक धड़कन होती है | अपना एक पहनावा होता है, संस्कृति होती है | वही उसकी पहचान है | कितने लोगों को जब-तब उनकी बोली से पहचाना, “अच्छा तो इटावा के हो, मेरठ के लगते है, आपकी बातचीत के तरीके में मथुरा के पेडे  सी मिठास है | पर इसके लिए शहर के बाहरी और पोर्श कहे जाने वाले इलाकों से काम नहीं चलता | इसके लिए तो शहर के दिल में उतरना होता है | उसके वर्तमान से लेकर इतिहास तक की गहन पड़ताल करनी पड़ती है तब जा के कहीं उस शहर जगह का खास रंग हम पर चढ़ता है |   तमाम यात्रा वृतांत   ऐसी ही कोशिश होती है उन जगहों से लोगों को जोड़ने की जो वहाँ नहीं जा पाए और गए भी ओ बस ऊपरी चमक-धमक देख कर लौट आए | ऐसा ही एक यात्रा वृतांत है वरिष्ठ लेखिका “जयश्री पुरवार” जी का जो अपनी पुस्तक अमेरिका ओ अमेरिका भाग -1,  “सपनों का शहर सैन फ्रांसिस्को” के माध्यम से शहर के इतिहास की रंगत, मिट्टी की खुशबू और हवाओं की चपलता से ही नहीं लोक जीवन से भी परिचय कराती हैँ |  किताब पकड़े-पकड़े पाठक का मन  सैन फ्रांसिस्को घूम आता है | सपनों का शहर सैन फ्रांसिस्को – अमेरिकी और भारतीय संस्कृति के तुलनात्मक विशेषण कराता यात्रा वृतांत     इस पुस्तक की भूमिका में वरिष्ठ साहित्यकार  सूर्यबाला जी लिखती हैँ  कि जयश्री जी ने अमेरिका की प्रकृति समाज और रुचि को समझने की कोशिश की है | जहाँ उन्होंने कुछ विरल विशेषताओं को सराहा है वहीं विकसित सभ्यता के कुछ दुर्भाग्य पूर्ण पक्षों पर अपनी चिंता व्यक्त करने से खुद को नहीं रोक पाई हैँ | जयश्री जी अपनी भूमिका “मेरे अनुभव की गुल्लक” में लिखती हैँ, “ किसी भी देश को चार दिन के लिए घूमकर वहाँ की संस्कृति के बारे में जानना आसान नहीं होता है | कुछ समय वहाँ लोगों के साथ बिताना पड़ता है | दोनों बच्चों के अमेरिका में बसने  के बाद हम निरंतर वहाँ आते  जाते रहे | आज जब वो वहाँ स्थायी रूप से बस गए हैँ, तब हमारा इस देश के साथ स्थायी संबंध जुड़ चुका है |”   कहने की जरूरत नहीं है कि इस यात्रा वृतांत में आप लेखिका की नजर से ही समृद्ध नहीं होते वरन  उनके परिवार के साथ बिताए गए खट्टे-मीठे अनुभवों के भी साक्षी होते हैँ | कहीं बोझिल ना हो जाए इसलिए किसी यात्रा वृतांत को पाठकों से जोड़ने के लिए सहज जीवन की कथा से जोड़ना उसे कितना रुचिकर बना देता है यह इसे पढ़कर जाना जा सकता है | पूरी पुस्तक को उन्होंने 14 खंडों में बाँटा है, फिर उसे अपनी सुविधानुसार कम या ज्यादा उपखंडों में बाँटा है | और उनकी यह यात्रा विमान यात्रा से लेकर “मुझे सैन फ्रांसिस्को से प्यार हो गया तक चलती है | पुस्तक की शुरुआत वो इतिहास से करती हैँ | जहाँ  वो बताती हैँ कि अमेरिका की सभ्यता प्राचीन माया सभ्यता थी जो ग्वाटेमाला मेक्सिको आदि जगहों में प्रचलित थी | यह एक कृषि आधारित सभ्यता थी जो 250 ईस्वी से 900 ईस्वी के मध्य अपने चरम  पर रही | इसके अलावा को 1942 में भारत को खोजने निकले कोलंबस द्वारा वाहन के मूल नागरिकों को रेड इंडियंस कहे जाने यूरोपीय कॉलोनियों के बनने और अमेरिका के स्वतंत्र होने का इतिहास बताती हैँ | इस देश का आप्त वाक्य है “इन गॉड वी ट्रस्ट” और विचारों से उन्मुक्त और प्रगतिशील होने के बावजूद यहाँ के अधिकांश लोग आस्तिक हैँ | साथ ही अमेरिका संस्कृति के यूरोपयन  संस्कृति से प्रभावित  होने के कारण कहा जाता है की  अमेरिका की कोई संस्कृति ही नहीं है | पर कुछ विशेष बातें का भी उन्होंने जिक्र किया जिन्हें आम अमेरिका मानते हैँ जो उन्हें अलहदा बनाती है | खासकर उनका मेहनत करने का जज्बा जिसने अमेरिका को यूरोप से ऊपर विश्व शक्ति घोषित करवा दिया |   एक जगह लेखिका जनसंख्या को भारत के  अपेक्षाकृत कम विकास का कारण मानते हुए लिखती हैं कि अमेरिका की सीमा लगभग 12000 किलोमीटर है और जनसंख्या लगभग 35 करोंण |   अपनी अमेरिका  यात्रा की शुरुआत वो विमान से पहले ही मन की उड़ान से करती हैँ | और अमेरिका पहुँचने से पहले ही उन्हें साथ बैठने वाली आरती से भौतिकता के पीछे भागते अमेरिका का परिचय हो जाता है | जो बताती है कि अमेरिका में चीटिंग एक अलग तरह की पोलिश्ड  चीटिंग होती है | जिसका कारण भौतिकता को और व्यक्तिगत सफलता को बहुत ऊंची नजर से देखना है | वहीं अनुशासन यहाँ के जीवन की स्वाभाविक विशेषता है | किसी कार्यक्रम  या निर्धारित काम के लिए 5 मिनट भी देर से पहुंचना गलती मानी जाती है | एक अशक्त वृद्ध स्त्री के काम पर जाने को देखकर जीवन के प्रति अमेरिका लोगों के सकारात्मक नजरिये  को लेखिका सराहती हैं |   मन ही मन में भारत से तुलना करते हुए अमेरिका के समृद्ध होने का एक और राज उन्होंने खोला कि अमेरिका विकासशील देशों से छोटी -छोटी चीजें मँगवाता है और बड़ी छीजे खुद बना कर उसे … Read more

दूसरी पारी – समीक्षा

दूसरी पारी

कुछ दिनों पहले एक साझा संस्मरण संग्रह ‘दूसरी पारी’ मेरे हाथ आई थी। समयाभाव या अन्य कारणों से पढ़ने का मौका नहीं मिला। लेकिन जब पढ़ा तो …वह आपके सामने है। दस मिनट समय हो पढ़ने को जरूर निकालेंगे। क्योंकि यह पुस्तक सिर्फ संस्मरणों का संग्रह मात्र नहीं है, महिला लेखिकाओं ने परिवार और समाज को जीने की व्यथा: कथा का सजीव चित्रण किया है। पुस्तक जबतक आपके हाथ नहीं आती है, मेरे पढ़े को ही एक नजर देख लें। शायद हमने जो आजतक न सोचा हो, आज के बाद सोचने को मजबूर हो जाएं। अपनों के दिए दंश की गाथा: ‘दूसरी पारी’ “छोरी निचली बैठ, क्यों घोड़ी सी उछल रही है.. तन के मत चल, नीची निगाह करके चल..मुंह फाड़ के क्यों हंस रही है.. छत पे अकेली मत बैठ..दरवज्जे पे क्यों खड़ी है? फ्रॉक नीची करके बैठ।” ये पंक्तियां मेरी नहीं, अर्चना चतुर्वेदी जी की है। सत्रह महिलाओं के आत्मकथात्मक संस्मरणों का संग्रह “दूसरी पारी” की एक लेखिका का। एक लेखिका की मां, चाची, बुआ, दादी की इन नसीहतों में ही समाज का आईना है। बेटी के लिए किसी एक मां को नहीं, माओं को समझने की जरूरत है। किसी समाज को समझना हो, तो पहले उस समाज की महिलाओं को समझना होगा और महिलाओं को समझने के लिए रीति-रिवाजों और परंपराओं की जड़ों में जाना भी जरूरी है। क्योंकि भारतीय समाज की अधिकांश मध्यवर्गीय महिलाएं पुरुषों की नहीं, परंपराओं की गुलाम हैं। परंपराओं की जंजीरों से बंधी हैं। एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक परंपराओं और रीति-रिवाजों की वाहक हैं। रीति-रिवाजों और परंपराओं को निभाने का सर्वाधिकार इनके नाम सुरक्षित है। पीढ़ी-दर-पीढ़ी परिवर्तित ऐसी सत्ता की पात्रता भी उन्हीं के पास है। क्योंकि दिखने में तो लगता है कि शायद ही किसी पुरुष ने अपने घर की महिलाओं को किसी रीति-रिवाजों या परंपराओं को मानने के लिए बाध्य किया हो। क्योंकि ऐसे कार्यों के लिए महिलाओं को महिलाएं ही प्रेरित करती रही हैं, चाहे सास हो, मां या पड़ोसन। भले ही दिखने में न लगे, लेकिन अदृश्य शक्ति के रूप में पितृसत्तात्मक समाज अपना फन काढ़े डराने को बैठा होता है और फनों का विष लिए तथाकथित पंडित और मौलबी घर-घर घूमते रहते हैं। यही कारण है माओं का अंतर्विरोध दिखाई भी नहीं देता, क्योंकि ज्यादातर महिलाएं अपने परिवार के पुरुषों के साथ ही खड़ी दिखती हैं। पुरूष पति हो, पिता या पुत्र। मतलब घर का अंतर्विरोध कभी विरोध बन ही नहीं पाता। इन लेखिकाओं के लिए बीते कल की बातों को जगजाहिर करना कितना आसान था? – ‘अपने बारे में लिखना आसान नहीं है। हमसब के अंदर बहुत कुछ छिपाने की प्रवृत्ति होती है, खासकर महिलाओं में। कभी खंगालिए अपने आसपास के औरतों के दिलों को ‘सब ठीक है’ के अंदर कितने समंदर दबे होते हैं।’… ‘अच्छी लड़कियां जुबान नहीं खोलती’- (मुझे बस चलते जाना है – वंदना वाजपेयी, पृष्ठ 143 ) इसी समंदर से कुछ सीपियां चुनने का साहस कल की कुछ स्वयंसिद्धाओं और आज की लेखिकाओं ने कर दिखाया है। सत्रह लेखिकाओं ने अपनी बात साझा करने के लिए भी साझे संग्रह का ही सहारा लिया। कारण भी इसी संग्रह की एक लेखिका से ही पूछ लेते हैं – ‘जब बाहर के रास्ते बंद हों, तो एक दूसरे का सहारा बन जाओ।….दरअसल पितृसत्ता की जड़ें इतनी गहरी होती हैं कि एक दूसरे का साथ दिए बिना खुल नहीं सकती, जो इसे समझ जाते हैं वो अपने ही नहीं, पूरे समाज में परिवर्तन के वाहक बनते हैं।’ – (मुझे बस चलते जाना है – वंदना वाजपेयी, पृष्ठ 149) वंदना जी का संस्मरण साफ तौर पर इशारा करता है कि कविता कहानी के लिए प्रेरित करने वाले पिता को अपनी बेटी के मेडिकल की परीक्षा में सफलता पर गर्व नहीं होता, उससे अधिक डॉक्टर जमाई की खोज का दुरूह कार्य सताने लगता है। पिता की इच्छा-अनिच्छा को देख सपनों को संजोए लड़की अपने चयन की खुशी का इजहार भी नहीं कर सकती, उल्टे पूरी रात तकिया भिंगोने के बाद सुबह होते ही आगे बीएससी और एमएससी की पढ़ाई के निर्णय की सूचना पिता को इस तरह देती हैं, जैसे अपने लिए चाव से बनाए गए भोजन में छिपकली गिर गई पापा, तो क्या हुआ घर में जो कुछ उपलब्ध है वही खा लेंगे, जैसा ही था। अक्सर ये छिपकलियां मेहनत से तैयार करने वाली लड़की के भोजन की थाली में ही क्यों गिरती है? किसी पुरूष की थाली में क्यों नहीं? जीवन के लिए ऐसे निर्णय पर भी पिता की आंखें नम नहीं होती(होती भी होंगी, तो दिखती नहीं), नजर सामने के समाचार पत्र से नहीं हटती, बेटी को प्रश्नवाची निगाहों से नहीं देख पाते कि ऐसा त्याग! किसके लिए और क्यों? क्योंकि पिता के लिए बेटी का डॉक्टर बनना महत्वपूर्ण नहीं था। शादी कर घर से विदा कर देना प्राथमिकता में था। लेकिन तब भी मां तटस्थ रही। पिता-पुत्री के बीच की संवेदनाओं की अनकही दीवार को गिराने में मदद को आगे नहीं बढ़ी, अगर बढ़ी होती तो शायद पिता अपनी लाडली के सपनों को ढहते हुए नहीं देखते रहते। उल्टे ‘पापा जो कह रहे हैं ठीक ही होगा’ की निश्चिंतता पितृसत्तात्मक समाज के फन का दंश नहीं तो और क्या है? कोई मां भला ऐसा क्यों चाहेगी? मां अपने पति के निर्णय के प्रति आश्वस्त हैं और पति के पेपर पढ़ने से नजर नहीं हटने की तरह वह भी अपने दैनिक कार्यों में व्यस्त है। क्या गरीबी, भुखमरी पर बाल कृष्ण शर्मा ‘नवीन’ की ‘लपक चाटते जूठा पत्तल….आग आज इस दुनिया भर को’ जैसा आक्रोश कहीं दिखा? नहीं न। फिर हम क्यों कहते हैं साहित्य समाज का दर्पण है? दर्पण तो वही दिखाता है जो हम दिखाना चाहते हैं और दर्पण पुरुष सत्ता के हाथ में है। क्योंकि ऐसा थोड़े न है कि एक अकेली वंदना है, समाज की नजरों से ओझल हो गई होगी? वन्दनाओं की भरमार है। हर वन्दनाओं ने तकिया और बाथरूम को अपना साथी बनाया हुआ है। ऐसा भी नहीं है कि ये संस्मरण लिखने वाली किसी एक वंदना का दर्द है। आज भी लाखों वन्दनाएं किसी कोने में सिसकने, तकिया भिंगोने और बाथरूम में सूजे चेहरे पर पानी का छींटा मार फ्रेश होकर किचेन और घर की जिम्मेदारियों … Read more