कलर ऑफ लव – प्रेम की अनूठी दास्तान

कलर ऑफ लव

  प्रेम जो किसी पत्थर हृदय को पानी में बदल सकता है, तपती रेत में फूल खिला सकता है, आसमान से तारे तोड़ के ला सकता है तो क्या किसी मासूम बच्चे में उसकी उच्चतम संभावनाओं को विकसित नहीं कर सकता | क्या माँ और बच्चे का प्रेम जो संसार का सबसे शुद्ध, पवित्र, निश्चल प्रेम माना जाता है, समाज की दकियानूसी सोच, तानों -उलाहनों को परे धकेलकर ये करिश्मा नहीं कर सकता है?  एक माँ का अपनी बेटी के लिए किया गया ये संघर्ष ….संघर्ष नहीं प्रेम का ही एक रंग है | बस उसे देखने की नजर चाहिए |    ऐसे ही प्रेम के रंग में निमग्न वंदना गुप्ता जी का  भारतीय ज्ञानपीठ/वाणी से प्रकाशित उपन्यास “कलर ऑफ लव” समस्या प्रधान एक महत्वपूर्ण उपन्यास है| ये उपन्यास “डाउन सिंड्रोम” जैसी एक विरल बीमारी की सिर्फ चर्चा ही नहीं करता बल्कि उसके तमाम वैज्ञानिक और मानसिक प्रभावों पर प्रकाश डालते हुए एक दीप की तरह निराशा के अंधकार में ना डूब कर कर सकारात्मकता की राह दिखाता है | अभी तक हिंदी साहित्य में किसी बीमारी को केंद्र में रख कर सजीव पात्रों और घटनाओं का संकलन करके कम ही उपन्यास लिखे गए है | और जहाँ तक मेरी जानकारी है “डाउन सिंड्रोम” पर यह पहला ही उपन्यास है |  कलर ऑफ लव -डाउन सिन्ड्रोम पर लिखा गया पहला और महत्वपूर्ण उपन्यास   Mirrors should think longer before they reflect. – Jean Cocteau           अगर कोई ऐसा रोग ढूंढा जाए जो सबसे ज्यादा संक्रामक है औ पूरे समाज को रोगग्रस्त करे हुए है तो वो है तुलना | जबकि हर बच्चा, हर व्यक्ति  प्रकृति की नायाब देन है, जो अपने विशेष गुण के साथ पैदा होता है बस जरूरत होती है उसे पहचानने की, उसे उसके हिसाब से खिलने देने की |  ऐसा ही एक विशेष गुण है “डाउन सिंड्रोम” .. ये कहानी है एक ऐसी ही बच्ची पीहू की जो इस विशेष गुण के साथ पैदा हुई है |    शब्दों का हेर-फेर या  समझने का फ़र्क  कि जिसे विज्ञान की भाषा “सिन्ड्रोम” का नाम देती है, प्रकृति प्रयोग का नाम देती है | ऐसे ही प्रयोगों से निऐनडेरथल मानव से होमो सैपियन्स बनता है और होमो फ्यूचरिस की संभावना प्रबल होती है | इसलिए प्रकृति की नजर में “डाउन सिन्ड्रोम” महज एक प्रयोग है .. जिसमें बच्चे में 46 की जगह 47 गुणसूत्र होते है | इस एक अधिक गुणसूत्र के साथ आया बच्चा कुछ विशेष गुण के साथ आता है | जरूरत है उस विशेष गुण के कारण उसकी विशेष परवरिश का ध्यान रखने की, तो कोई कारण नहीं कि ये बच्चे खुद को सफलता के उस पायदान पर स्थापित ना कर दें जहाँ  तथाकथित तौर पर सामान्य कहे जाने वाले बच्चे पहुंचते हैं|  यही मुख्य उद्देश्य है इस किताब को लिखे जाने का |    “कलर ऑफ लव”  उपन्यास मुख्य रूप से एक शोध उपन्यास है जिसे उपन्यास में पत्रकार सोनाली ने लिखा है |  छोटे शहर से दिल्ली तबादला होने के बाद सोनाली की मुलाकात अपनी बचपन की सहेली मीनल और उसकी बेटी पीहू से होती है | पीहू “डाउन सिन्ड्रोम” है| दोनों सहेलियाँ मिलती है और मन बाँटे जाने लगते हैं | संवाद शैली में आगे बढ़ती कथा के साथ सोनाली  पीहू और उसकी माँ मीनल के संघर्ष की कहानी  जान पाती है| पन्ना दर पन्ना जिंदगी खुलती है और अतीत के अनकहे दर्द, तनाव, सफलताएँ सबकी जिल्द खुलती जाती है | पर पीहू और मीनल के बारे में जानने  के बाद सोनाली की रुचि “डाउन सिन्ड्रोम के और शोध में बढ़ जाती है | और जानकारी एकत्र करने के लिए वो विशेष स्कूल के प्रिन्सपल ऑफिस में जाकर केसेस डिस्कस करती है | इन बच्चों के विकास में लगे फ़ेडेरेशन व फोरम जॉइन करके जानकारियाँ और साक्ष्य जुटाती है | एक तरह से नकार, संघर्ष, स्वीकार  और जानकारियों का  कोलाज है ये उपन्यास | जो काफी हद तक  असली जिंदगी और असली पात्रों की बानगी को ले  कर बुना गया एक मार्मिक पर सकारात्मक दस्तावेज है |   इस उपन्यास के चार  महत्वपूर्ण बिन्दुओं पर बात करना पाठकों के दृष्टिकोण से सुविधाजनक रहेगा|  समाज में व्याप्त अशिक्षा  रोगग्रस्त बच्चे के परिवार, विशेषकर माँ का का घर के अंदर और बाहर का संघर्ष  उन बच्चों की चर्चा जिन्होंने “डाउन सिंड्रोम” जैसी बीमारी के बावजूद सफलता के परचम लहराए | जीवन दर्शन जो व्यक्ति को सहज जीवन को स्वीकारने का साहस देता है|    कोई भी अवस्था समस्या तब बनती  है जब समाज में उसके  बारे में पर्याप्त जानकारी ना हो | जैसे बच्चे के जन्म के समय ही यह बातें होने लगती हैँ, “की उसके हाथों में एक भी  लकीर नहीं है, ऐसे बच्चे या तो घर छोड़ देते है या फिर बड़े सन्यासी बन जाते हैं |”   “देख सोनाली, मेरे पीहर में मेरी चाची के एक चोरी हुई थी| जिसकी बाँह के साथ दूसर बाँह भी निकलने के लिए बनी हुई थी |पीर बाबा है, उन्होंने जैसे  ही निगाह डाली वो माँस का लोथड़ा टूट कर गिर गया | तब से आज तक बच्ची बिल्कुल मजे से जी रही है|”      इस अतिरिक्त भी लेखिका ने कई उदाहरण दिए है  जहाँ गरीबी अशिक्षा के चलते लोग  डॉक्टर या विशेष स्कूल की तरफ ना जाकर किसी चमत्कार की आशा में अपनी ही बगिया के फूल के साथ अन्याय करते है | दरअसल अशिक्षा ही नीम हकीम और बाबाओं की तरफ किसी चमत्कार की आशा में भेजती है और इसी के कारण ना तो बच्चे का विकास सही ढंग से हो पाता है ना समाज का नजरिया बदल पाता है|    आज जब की पूरे विश्व में “प्रो. लाइफ वर्सिज प्रो चॉइस” आंदोलन जोर पकड़ रहा है | लेखिका एक ऐसी माँ  की जीवन गाथा लेकर आती है जो डॉक्टर द्वारा जन्म से पहले ही बच्चे को “डाउन सिंड्रोम” घोषित करने के बावजूद अपने बच्चे के जन्म लेने के अधिकार के साथ खड़ी  होती है | यहाँ जैसे दोनों तर्क मिल जाते हैं | क्योंकि ये भी एक चॉइस है जो लाइफ के पक्ष में खड़ी है| एक माँ के संघर्ष के अंतर्गत लेखिका वहाँ से शुरू करती हैं  जहाँ एक माँ को … Read more

वंदना बाजपेयी की कविता -हमारे प्रेम का अबोला दौर

हमारे प्रेम का अबोला दौर

  आजकल हमारी बातचीत बंद है, यानि ये हमारे प्रेम का अबोला दौर है l  अब गृहस्थी के सौ झंझटों के बीच बात क्या थी, याद नहीं पर इतना जरूर है कि कोई बड़ी बात रही होगी जो उस बात के बाद नहीं मन हुआ बात करने का और हमारे मध्य शुरू हो गया “कन्डीशंड एप्लाइड वाली बातचीत बंद का एक नया अध्याय प्यार का एक रंग रूठना और मनाना भी है l प्यार की एव तक्ररार बहुत भारी पड़ती है l कई बार बातचीत बंद होती है , कारण छोटा ही क्यों ना हो पर अहंकार फूल कर कुप्पा हो जाता है जो बार बार कहता है कि मैं ही क्यों बोलूँ ? लेकिन दिल को तो एक एक पल सालों से लगते हैं l फिर देर कहाँ लगती है बातचीत शुरू होने में …. इन्हीं भावों को पिरोया है एक कविता के माध्यम से l सुनिए … वंदना बाजपेयी की यह कविता आप को अपनी सी लगेगी l हमारे प्रेम का अबोला दौर ——————————– आजकल हमारी बातचीत बंद है अब गृहस्थी के सौ झंझटों के बीच बात क्या थी, याद नहीं पर इतना जरूर है कि कोई बड़ी बात रही होगी जो उस बात के बाद नहीं मन हुआ बात करने का और हमारे मध्य शुरू हो गया “कन्डीशंड एप्लाइड वाली बातचीत बंद का एक नया अध्याय माने गृहस्थी की जरूरी बातें नहीं होती हैं इसमें शामिल ना ही साथ में निपटाए जाने वाले वाले काम-काज रिश्तेदारों के आने का समय नहीं जोड़ा जाता इसमें ना ही शामिल होता है डायरी से खंगाल कर बताना गुड्डू जिज़्जी की बिटिया की शादी में दिया था कितने रुपये का गिफ्ट या फिर अखबार वाले ने नहीं डाला है तीन दिन अखबार हाँ, कभी पड़ोसन के किस्से या ऑफिस की कहानी सबसे पहले बताने की तीव्र उत्कंठा पर भींच लिए जाते हैं होंठ पहले मैं क्यों ? अलबत्ता हमारे प्रेम के इस अबोले दौर में हम तलाशते हैं संवाद के दूसरे रास्ते लिहाजा बच्चों के बोलने कि लग जाती है डबल ड्यूटी ‘पापा’ को बता देना और ‘मम्मी’ से कह देना के नाम पर आधी बातें तो कह-समझ ली जाती हैं बर्तनों की खट- खट या फ़ाइलों कि फट- फट के माध्यम से ऐसे ही दौर में पता चलता है कौन कर रहा था बेसब्र इंतजार कि दरवाजे की घंटी बजने से पहले ही मात्र सीढ़ियाँ चढ़ते हुए पैरों की आहट से खुल जाता है मेन गेट और रसोई में मुँह से जरा सा आह-आउच निकलते ही पर कौन चला आया दौड़ता हुआ और पास में रख जाता है आयोडेक्स या मूव पढ़ते-पढ़ते सो जाने पर चश्मा उतार कर रख देने, लाइट बंद कर देने जैसी छोटी-छोटी बातों से भी हो सकता है संवाद बाकी आधी की गुंजाइश बनाने के लिए मैं बना देती हूँ तुम्हारा मनपसंद व्यंजन और तुम ले आते हो मेरी मन पसंद किताबें तुम्हारे घर पर होने पर बढ़ जाता है मेरा राजनीति पर बच्चों से डिस्कसन और तुम उन्हें सुनाने लगते हो कविताएँ रस ले-ले कर नाजो- अंदाज से गुनगुनाते हुए किसी सैड लव सॉन्ग का मुखड़ा ब्लड प्रेशर कि दवाई सीधा रखते हो मेरी हथेली पर और मैं अदरक और शहद वाला चम्मच तुम्हारे मुँह में ऐसे में कब कहाँ शुरू हो जाती है बातचीत याद नहीं रहता जैसे याद नहीं रहा था बातचीत बंद करने का कारण हाँ ये जरूर है कि हर बार इस अबोले दौर से गुजरने के बाद याद रह जाते हैं ये शब्द यार, कुछ भी कर लो पर बोलना बंद मत किया करो ऐसा लगता है जैसे संसार की सारी आवाजें रुक गई हों l वंदना बाजपेयी #lovesong #love #lovestory #poetry #hindisong #valentinesday #valentine यह भी पढ़ें – जरूरी है प्रेम करते रहना – सरल भाषा  में गहन बात कहती कविताएँ तपते जेठ में गुलमोहर जैसा -प्रेम का एक अलग रूप प्रेम कभी नहीं मरेगा आपको वंदना बाजपेयी की कविता -हमारे प्रेम का अबोला दौर कैसी लगी ? अपने विचारों से हमें अवश्य अवगत कराए l अगर आपको अटूट बंधन की रचनाएँ अच्छी लगती हैं तो कृपया अटूट बंधन की साइट को सबस्करीब करें व अटूट बंधन फ़ेसबुक पेज लाइक करें l  

लवर्स -निर्मल वर्मा की कालजयी कहानी

लवर्स - निर्मल वर्मा की कालजयी कहानी

  कुछ शब्द हैं, जो मैंने आज तक नहीं कहे. पुराने सिक्कों की तरह वे जेब में पड़े रहते हैं. न उन्हें फेंक सकता हूं, न भुला पाता हूं. नई कहानी के सर्वाधिक चर्चित कहानीकार निर्मल वर्मा की कहानी “लवर्स” एक ऐसी प्रेम कहानी है जो इस तथ्य को रखती है कि जहाँ प्रेम सफलता व्यक्ति पूर्णता प्रदान करती यही वहीं प्रेम में असफलता व्यक्ति में निराशा और कुंठा को जन्म देती है l लेखक ने एक छोटी घटना को बड़ी कहानी में बदल दिया है l कहानी की शुरुआत में एक लड़का जो कुछ देर पहले बुक स्टॉल पर अर्धनग्न स्त्री की तस्वीर वाली मैगजीन को देखना ही नहीं चाह रहा था क्योंकि उसका सारा ध्यान  अपनी गर्ल फ्रेंड के आने के रास्ते पर था बाद में वही लड़का उस लड़की के जाने के बाद उस मैगजीन को खरीद लेता है |जहाँ से शुरू कहानी वही  पर आ कर खत्म होती है l बीच में हैं स्मृतियों के कुछ चित्र और इंतजार की बेचैनी l यहाँ बेचैनी केवल प्रेम की नहीं है बल्कि उस जवाब की भी है जो नायिका देने आ रही है l यहाँ इंतजार भी रूहानी है l वो हमेशा समय से पहले आता है क्योंकि उसे प्रतीक्षा करना अच्छा लगता है l कहानी की कई पंक्तियाँ पाठक का ध्यान देर तक अपने में अटकाये रहती हैं l नीलकंठ के उड़ जाने और बर्फ के विषय में सोचने का बहुत सुंदर बिंबयात्मक प्रयोग है l प्रेम में असफलता किस तरह से व्यक्ति के हाव-भाव को बदलती है l  किस तरह से असफलता जनित उसकी निराशा कुंठा को जन्म देती है lआइए पढे अद्भुत प्रवाह वाली इस कालजयी कहानी को… लवर्स -निर्मल वर्मा की कालजयी कहानी ‘एल्प्स’ के सामने कॉरिडोर में अंग्रेज़ी-अमरीकी पत्रिकाओं की दुकान है. सीढ़ियों के नीचे जो बित्ते-भर की जगह ख़ाली रहती है, वहीं पर आमने-सामने दो बेंचें बिछी हैं. इन बेंचों पर सेकंड हैंड किताबें, पॉकेट-बुक, उपन्यास और क्रिसमस कार्ड पड़े हैं. दिसंबर… पुराने साल के चंद आख़िरी दिन.   नीला आकाश… कंपकंपाती, करारी हवा. कत्थई रंग का सूट पहने एक अधेड़ किंतु भारी डील-डौल के व्यक्ति आते हैं. दुकान के सामने खड़े होकर ऊबी निगाहों से इधर-उधर देखते हैं. उन्होंने पत्रिकाओं के ढेर के नीचे से एक जर्द, पुरानी-फटी मैगज़ीन उठाई है. मैगज़ीन के कवर पर लेटी एक अर्द्ध-नग्न गौर युवती का चित्र है. वह यह चित्र दुकान पर बैठे लड़के को दिखाते हैं और आंख मारकर हंसते हैं. लड़के को उस नंगी स्त्री में कोई दिलचस्पी नहीं है, किंतु ग्राहक ग्राहक है, और उसे ख़ुश करने के लिए वह भी मुस्कराता है.   कत्थई सूटवाले सज्जन मेरी ओर देखते हैं. सोचते हैं, शायद मैं भी हंसूंगा. किंतु इस दौरान में लड़का सीटी बजाने लगता है, धीरे-धीरे. लगता है, सीटी की आवाज़ उसके होंठों से नहीं, उसकी छाती के भीतर से आ रही है. मैं दूसरी ओर देखने लगता हूं.   मैं पिछली रात नहीं सोया और सुबह भी, जब अक्सर मुझे नींद आ जाती है, मुझे नींद नहीं आई. मुझे यहां आना था और मैं रात-भर यही सोचता रहा कि मैं यहां आऊंगा, कॉरिडोर में खड़ा रहूंगा. मैं उस सड़क की ओर देख रहा हूं, जहां से उसे आना है, जहां से वह हमेशा आती है. उस सड़क के दोनों ओर लैंप-पोस्टों पर लाल फैस्टून लगे हैं… बांसों पर झंडे लगाए गए हैं. आए-दिन विदेशी नेता इस सड़क से गुज़रते हैं.   जब हवा चलती है, फैस्टून गुब्बारे की तरह फूल जाते हैं, आकाश झंडों के बीच सिमट आता है… नीले लिफाफे-सा. मुझे बहुत-सी चीज़ें अच्छी लगती हैं. जब रात को मुझे नींद नहीं आती, तो मैं अक्सर एक-एक करके इन चीज़ों को गिनता हूं, जो मुझे अच्छी लगती हैं, जैसे हवा में रंग-बिरंगे झंडों का फरफराना, जैसे चुपचाप प्रतीक्षा करना…   अब ये दोनों बातें हैं. मैं प्रतीक्षा कर रहा हूं. उसे देर नहीं हुई है. मैं ख़ुद जानबूझकर समय से पहले आ गया हूं. उसे ठीक समय पर आना अच्छा लगता है, न कुछ पहले, न कुछ बाद में, इसीलिए मैं अक्सर ठीक समय से पहले आ जाता हूं. मुझे प्रतीक्षा करना, देर तक प्रतीक्षा करते रहना अच्छा लगता है.   धीरे-धीरे समय पास सरक रहा है. एक ही जगह पर खड़े रहना, एक ही दिशा में ताकते रहना, यह शायद ठीक नहीं है. लोगों का कौतूहल जाग उठता है. मैं कॉरिडोर में टहलता हुआ एक बार फिर किताबों की दुकान के सामने खड़ा हो जाता हूं. कत्थई रंग के सूटवाले सज्जन जा चुके हैं. इस बार दुकान पर कोई ग्राहक नहीं है. लड़का एक बार मेरी ओर ध्यान से देखता है और फिर मैली झाड़न से पत्रिकाओं पर जमी धूल पोंछने लगता है.   कवर पर धूल का एक टुकड़ा आ सिमटा है. बीच में लेटी युवती की नंगी जांघों पर धूल के कण उड़ते हैं. …लगता है, वह सो रही है.   फ़ुटपाथ पर पत्तों का शोर है. यह शोर मैंने पिछली रात को भी सुना था. पिछली रात हमारे शहर में तेज़ हवा चली थी. आज सुबह जब मैं घर की सीढ़ियों से नीचे उतरा था, तो मैंने इन पत्तों को देखा था. कल रात ये पत्ते फ़ुटपाथ से उड़कर सीढ़ियों पर आ ठहरे होंगे. मुझे यह सोचना अच्छा लगता है कि हम दोनों एक ही शहर में रहते हैं, एक ही शहर के पत्ते अलग-अलग घरों की सीढ़ियों पर बिखर जाते हैं और जब हवा चलती है, तो उनका शोर उसके और मेरे घर के दरवाज़ों को एक संग खटखटाता है.   यह दिल्ली है और दिसंबर के दिन हैं और साल के आख़िरी पत्ते कॉरिडोर में उड़ रहे हैं. मैं कनॉट प्लेस के एक कॉरिडोर में खड़ा हूं, खड़ा हूं और प्रतीक्षा कर रहा हूं. वह आती होगी.   मैं जानता था, वह दिन आएगा, जब मैं ‘एल्प्स’ के सामने खड़ा होकर प्रतीक्षा करूंगा. कल शाम उसका टेलीफ़ोन आया था. कहा था कि वह आज सुबह ‘एल्प्स’ के सामने मिलेगी. उसने कुछ और नहीं कहा था… उस पत्र का कोई ज़िक्र नहीं किया था, जिसके लिए वह आज यहां आ रही है. मैं जानता था कि मेरे पत्र का उत्तर वह नहीं भेजेगी, वह लिख नहीं सकती. मैं लिख नहीं सकती-एक दिन उसने … Read more

जरूरी है प्रेम करते रहना – सरल भाषा  में गहन बात कहती कविताएँ

जरूरी है प्रेम करते रहना

  कविताएँ हो कहानियाँ हों या लेख, समीक्षा  सरल भाषा में गहन बात कह देने वाली महिमा पाठकों को हमेशा पहले से बेहतर,  नया  लिख कर चौंकाती रही हैं | सबकी प्रिय, जीवट, कलम की धनी साहित्यकार पत्रकार महिमा श्री का नया कविता संग्रह “जरूरी है प्रेम करते रहना” अपनी अलहदा कविताओं के माध्यम से बहुत जल्द ही पाठक को अपनी गिरफ्त में ले लेता है | हर कविता आपको रोकती है | एक गहन चिंतन मन में शुरू हो जाता है | क्योंकि हर कविता गहरी संवेदना से निकल कर आरी है और  उनमें एक जीवन दर्शन है |   जब महिमा किताब का शीर्षक “जरूरी है प्रेम करते रहना” रखना चुनती हैं, तब वो चुनती हैं जिजीविषा उन तमाम विपरीत परिस्थितियों के विरुद्ध जो हिम्मत और हौसला तोड़ देती है .. ये प्रेम, जीवन का राग है | बुरे में से अच्छा बचा लेने की ख्वाहिश  भर नहीं है जीवन जीने का सकारात्मक दृष्टिकोण है | तमाम विद्रूपताओं के बीच जीवन के पक्ष में युद्धरत सेनानी का जीवन को देखने का नजरिया कभी सतही नहीं हो सकता, वो गहनता  एक -एक  शब्द में एक -एक कविता में दृष्टिगोचर होती है |   जरूरी है प्रेम करते रहना – सरल भाषा  में गहन बात कहती कविताएँ   अपनी भूमिका में वो लिखती हैं, “पीड़ा से एक रागात्मक संबंध इस कदर हो गया था कि लगता ही ना था  कि इससे आजाद हो पाऊँगी |इस दौरान सीखा की कठिन परिस्थितियों से जीवन में मुँह मोड़ने के बजाय “जरूरी है प्रेम करते रहना” ये भव पाठक को पूरे संग्रह में दिखता है |   कविता संग्रह तीन खंडों में हैं | हर खंड एक खूबसूरत कोट से शुरू होता है |जैसे  पहला खंड काफ्का के कथन “हम मरने के लिए नहीं जीने के लिए अभिशप्त हैं”| दूसरा खंड स. बी. फग्रयुसन के कोट “प्रेम संवेदना से ज्यादा कुछ नहीं पर प्रेम प्रतिबद्धता  से अधिक है|” तीसरा “अकुलाहटें मेरे मन की” कविताओं को विभिन्न नजरिए से पढ़ते हुए महिमा की कविताओं पर अपने विचार रखने के लिए मैंने स्वयं उन्हें कुछ खंडों में रखने की कोशिश की है | जिन पर क्रमवार अपने दृष्टिकोण को साझा करना चाहूँगी | महिमाश्री  की कविताओं में जीवन की साँझ हम मनुष्य हैं, टूटते हैं, जुडते हैं, फिर टूटते हैं और फिर फिर जुडते हैं | कई बार दुख उदासी हावी हो जाती  है पर उनसे जूझ कर निकलना ही जीवन है | जिजीविषा का अर्थ ये नहीं की हर समय सकारात्मक रहना है बल्कि तमाम निराशाओं  का मुकाबला कर सकारात्मकता चुनना है | ऐसे में जीवन की साँझ के दर्शन कई कविताओं में होते है | अगर अंधेरा ना हो तो उजाले का महत्व क्या है ? उजाले की राह जाने से पहले इस अंधकार से  रूबरू होना भी जरूरी है | इन कविताओं में कहीं कहीं T. S. Eliot की गहनता देखने को मिलेगी |मुझे Mollow Men की कुछ पंक्तियाँ याद आ रही हैं … Is it like this In death’s other kingdom Waking alone At the hour when we are Trembling with tenderness Lips that would kiss Form prayers to broken stone. संग्रह की पहली कविता “कर्क रोग से लड़ते हुए” में ही उस गहनता के दर्शन हो जाते हैं | जब हम जीत के करीब होता हैं तो अक्सर नई चुनौतियाँ सामने आ जाती हैं |   वो कहती हैं.. “धारा के विपरीत चलने की ख्वाहिशों ने कुछ अलग करने का हौसला तो दिया पर सोचा ही था अब इस पर साथ चल कर देखते हैं खुद धारा ने रास्ता बदल लिया”   आदमी एक पर ख्वाहिशें अनेक हैं | कब पूरी हुई हैं किसी की सारी तभी तो कविता “ख्वाहिशों के दिए “में वो लिखती हैं .. “ख्वाहिशें हजार वाट की आँखों में जलती हैं जैसे गंगा में जलते हैं असंख्य दिए”   कविता “विकलता एक श्राप है में जब वो लिखती हैं, “टूटे हुए पंख किताबों में ही अच्छे लगते हैं” तब वो शिकस्त झेले हुए इंसान की पीड़ा व्यक्त करती हैं |   महिमाश्री  की कविताओं में आशा का उजाला                           निराशा को परे झटक कर शुरू होता है एक युद्ध, आस-निराश के बीच में वहाँ  से कविताएँ सँजोती हैं जीवन के कतरे जिन्हें गूथ कर तैयार होता है आशा का पुष्प हार …तभी तो हाल नंबर 206 कविता में कहती हैं हॉल नंबर 206 के बेड के सिरहाने जिंदगी सुबह की धूप सी पसरने लगती है आहिस्ता .. आहिस्ता   “मेरी यायावरी” में वो कहती हैं .. “ढूँढना है मुझे फ़ानी हों से पहले स्वेद बूंदों के सूखने का रहस्य जीवन चाहे दो पल का शेष हो, दो बरस काया दो युगों का  मृत्यु अवश्यंभावी है | दिक्कत ये नहीं है जी जीवन कितना शेष है, पीड़ा ये है की जो जीवन हम जी रहे हैं उसमें जीवन कितना था |  “विदा होने स पहले” कविता पढ़ते हुए मुझे बेन जॉनसन की कविता “A lily of a day” याद आ गई | जीवन जीवंतता से भरपूर होना चाहिए | इस कविता  में महिमा  जीवन के अंतिम क्षण तक कुछ सीखने की बात करती हैं | यही जीवन जीने का सही तरीका है .. जीवन वीथिका में शेष बचे वर्ष के झड़ने से पहले सीख लेना है मल्लाहों के गीत अंकित कर लेना है अधर राग पर कुछ नाम जिन्हें पुकार सकूँ विदा होने से पहले मेरी  यायावरी हो या “विदा होने  से पहले” दोनों कविताएँ जीवन के पक्ष में खड़ी कविताएँ हैं |   महिमा की कविताओं में प्रेम महिमा की कविताओं में प्रेम किसी किशोरी का दैहिक आकर्षण नहीं है | वो परमात्मा से आत्मा से एकीकार है | वो केवल स्त्री पुरुष के प्रेम की ही बात नहीं करती अपितु उनके प्रेम राग में बहन भाई और तमाम रिश्ते समाहित हैं | अब “दीदिया के लिए” एक ऐसी कविता है जिसमें बहन के प्रति उमड़ते हुए प्रेम की सहज धारा को महसूस किया जा सकता है | अधिकांशतः छोटी बहनों ने बड़ी बहन के विदा हो जाने पर यह महसूस किया होगा | कविता के सौन्दर्य को बढ़ाते रूपक को देखिए, यहाँ  बेटी को मायके का  वसंत कह कर संबोधित किया है जिसके विदा  होते ही … Read more

जीकाजि

जिकाजि

प्रेम न बाडी उपजे, प्रेम न हाट बिकाई । राजा परजा जेहि रुचे, सीस देहि ले जाई ॥ कितनी खूबसूरत बात कही है कबीर दास जी ने , प्रेम कोई खरीदी, बेची जाने वाली वस्तु थोड़ी ही है | ये तो गहन भावना है जो त्याग और समर्पण की नीव पर टिकी होती है | कुछ ऐसा ही प्रेम था रीवा और तेजस में |सब कुछ कितना आसान सा लगता था ….वो दौड़, भाग, वो गणित के सवाल, वो शरारतों भरी दोस्ती | पर जिंदगी अपनी मर्जी से चली है क्या ? ये गाड़ी कम धीमी रफ्तार हो जाए, कब ब्रेक ले ले और कब .. ? ऐसे में ही तो पता चलता है की प्रेम कितना गहरा था या कितना उथला | रीवा और तेजस कए प्रेम क्या इस कसौटी पर खरा उतर पाएगा ? आइए पढ़ते हैं सुपरिचित लेखिका “निर्देश निधि”जी की कहानी  “जीकाजि”   “मैं ही जीतूँगा, मैं ही जीतूँगा, मैं ही जीतूँगा । म्याऊँ देख लेना । सिर्फ रेस ही नहीं जीतूँगा, हर बार की तरह  फुटबॉल के गेम में भी सबसे ज़्यादा गोल मैं ही करूंगा । मतलब ये कि वहाँ भी मैं और मेरी ही टीम जीतेगी ।“  “चल – चल अपना काम कर, हर  बार मैं ही जीतूँगा आया बड़ा, जीकाजि ।“ तेजस रीवा को म्याऊँ कहकर चिढ़ाता और रीवा तेजस को जीकाजि (जीत का जिन्न) पुकारकर चिढ़ाती ।  “क्यों नहीं जीत सकता मैं हर बार? तू आखिर अंडर ऐस्टिमेट कैसे कर सकती है मुझे म्याऊँ ?” “कभी तो कोई हार भी सकता ही है जीकाजि, खेल में हारना कोई कैरेक्टर लूज़ कर जाना थोड़े ही होता है, स्टुपिड।“  “मैं कभी नहीं हार सकता, कम से कम इस जीवन में तो कभी नहीं ।  इन फ़ैक्ट, मैं हारने के लिए बना ही नहीं, समझी……..।“ प्रैक्टिस के दौरान स्टेडियम में दौड़ते – हाँफते हुए वह चिल्ला – चिल्ला कर यह घोषणा करता । जिसकी श्रोता सिर्फ रीवा ही होती । वाकई, वह हर रेस जीतता, चाहे वह सौ मीटर की हो या दो सौ मीटर की । फुटबॉल के मैच में भी सबसे ज़्यादा गोल दागने वाला वही होता । यूं तो रीवा उसकी जीत पर खुद को विजेता समझती, पर उसे चिढ़ाती, “तुझे और आता ही क्या है जीकाजि । कोई ढंग का काम आता भी है तुझे रेस और फुटबॉल के सिवा ?”   “भूल गई म्याऊँ, एड़ी चोटी के ज़ोर लगाकर भी तू आज तक मैथ्स में मुझसे अच्छे मार्क्स ला नहीं सकी है।  ज़्यादा से ज़्यादा मेरे बराबर यानी सौ में से सौ ही ला सकी है,एक सौ एक तो कभी तू भी ला नहीं पाई ।“ यह भी वो स्टेडियम में दौड़ लगाते – लगाते चिल्ला कर कहता । उसके पैरों में जैसे कोई तीव्र गति यंत्र फिट था, वे कभी थकते नहीं, हारते नहीं । अपनी प्रैक्टिस के दौरान वह घंटों रीवा को स्टेडियम में बैठाए रखता, वह उस पर ऐहसान तो दिखाती रहती पर वहीं बैठ कर अपनी पढ़ाई करती रहती ।  “क्या हुआ बाकी सारे सब्जेक्ट्स में तो मैं ही नंबर वन हूँ जीकाजि । और हाँ यह भी मत भूलना कि मैं अगर म्याऊँ हूँ तो तू सिर्फ चूहा है चूहा, दौड़ मुझसे दूर वरना…. तू तो गया जीकाजि ।“   तेजस और रीवा की लगभग रोज़-रोज़ की बहस थी यह, पर दोनों की दोस्ती में बीच से हवा को भी गुज़र जाने की इजाज़त नहीं थी। दोनों बचपन से पड़ोसी थे और घर में माता – पिता का भी अच्छा मेल – जोल था, दोनों का बचपन एक साथ खेलते गुज़रा था । दोनों एक ही स्कूल, एक ही कक्षा, एक ही सैक्शन में पढ़ते, एक ही रिक्शा में बैठकर स्कूल जाते । दोनों के घर के बीच की  दीवार एक ही थी । रीवा के पिता सरकारी स्कूल की सीनियर विंग में अध्यापक थे और तेजस के पिता जूनियर विंग में । रीवा और तेजस दोनों ही अपने – अपने माता – पिता की इकलौती संतान थे, यह भी इत्तफ़ाकन एक ही जैसा था । बचपन में जब किसी एक की माँ खाना देती तो वो झट से दूसरे को बुलाने उसके घर भागता । धीरे – धीरे जिस भी घर में खाना लगाया जाता दोनों के लिए ही लगाया जाने लगा । दोनों के घर वालों की कुछ ऐसी उदारता रही कि उन दोनों के बड़े हो जाने पर भी इस मेल – जोल को किसी ने रोका नहीं ।    बचपन से ही एक – दूसरे के कंधे पर हाथ रखकर चलने, गले लग जाने, एक दूसरे को छू लेने में न कोई असहजता  थी, न असहज होने का ज्ञान ही था । बड़े हुए तो सब कुछ वैसा ही होने के बावजूद स्पर्श कुछ बदला – बदला सा लगने लगा। अब कुछ दिनों से, कुछ असहज से हो जाने लगे, दोनों ही । बचपन पीछे छूट रहा था, दोनों के शारीरिक परिवर्तनों की उद्दाम लहरें अपनी ताज़गी, खुशबू, नयेपन के कौतूहल और नशे में सराबोर किशोरावस्था के कोरे साहिलों से टकरा रही थीं । तेजस का व्यक्तित्व बहुत आकर्षक बनकर उभर रहा था । रीवा सामान्य कद – काठी की गंभीर और समझदार और दृढ़निश्चयी लड़की बन कर बड़ी हो रही थी । पर उसने अपना चुलबुलापन भी खोया नहीं था । दोनों हैरान थे यह सोचकर कि आखिर यह कौन सा मोड़ था जीवन का, जिस पर ना चाहते हुए भी बचपन की दोस्ती खत्म हुई जा रही थी । अब एक – दूसरे से एक नई पहचान हो रही थी, जैसे उनके पुराने रिश्ते का नवीनीकरण हो रहा हो । हो जो भी रहा था पर रिश्ता और प्रगाढ़ होता जा रहा था । कुछ – कुछ अलग से इस एहसास पर एक दिन बोल ही दिया था मुँहफट तेजस ने,  “ए म्याऊँ, तू क्या जादू करने लगी है अब ? तेरे कंधे पर भी हाथ रख लूँ तो करंट सा लग जाता है यार ।“ इस पर रीवा आँखें झपकाकर बोली थी,  “मैं तो कुछ एक्स्ट्रा एफ़र्ट नहीं डालती, अब तुझमें ही कोई प्रॉब्लम हो गई लगती है । सिंपल, अब मेरे कंधे पर हाथ रखा ही मत कर, बचा रह जाएगा करंट से ।“ और वह खूब ज़ोर … Read more

मज़हब

प्रेम का कोई मजहब  नहीं होता |प्रेम अपने आप में एक मजहब  है | लेकिन क्या समज ऐसा होने देता है ? क्या धर्म की दीवारे दो प्रेमियों को एक होने से रोकती हैं | क्या धर्म परिवर्तन ही प्रेम को पा लेने का एक मात्र विकल्प है और अगर ये  विकल्प है तो अक्सर यह कारगर साबित नहीं होता | आइये पढ़ें इसी विषय पर मृणाल आशुतोष जी की हृदयस्पर्शी कहानी …. मज़हब ” ख़ुदा के वास्ते फोन मत रखना!” आवाज़ सुनते ही मैं समझ गया कि रुखसाना का फोन है। फिर भी बिना जवाब दिए मैं फोन काटने ही वाला था कि ‘ तुझे महादेव की सौगन्ध’ कानों में गूँज उठा और मेरे सामने काशी विश्वनाथ मन्दिर प्रकट से गये। उसका तीर निशाने पर बैठा और मुझे जबाब देना ही पड़ा,”बोलो, क्या चाहती हो तुम?” “अभी कहाँ हो तुम?” आदत अभी भी बदली नहीं थी। सवाल के जबाब में सवाल। ” यही शहर से कोई तीस किलोमीटर दूर। मिश्रा केमिकल्स के कंस्ट्रक्शन का काम चल रहा है।” “आधे घण्टे रुको। मैं आ रही हूँ।” “क्यों आ रही हो?” “आखिरी बार तुमसे मिलने!” “मुझे लगता है कि हम दोनों आखिरी बार मिल चुके हैं। अब मिलने का कोई फायदा नहीं।” “यह आखिरी ही होगा अगर तुम मेरे न हो सके तो।” “अब यह मुमकिन नहीं।” पर उधर से फोन कट हो चुका था। मैं सोच में पड़ गया था कि रुखसाना को मेरा नम्बर आखिर मिला तो मिला कहाँ से? उसी से बचने के लिये तो मैने अपने दोनों नम्बर बन्द कराए। यहाँ तक कि घर भी बदल लिया। फिर उसे नम्बर मिला कहाँ से? यह उधेड़बुन चल ही रहा था कि पीठ पर धप्प से एक हाथ पड़ा। पता तो था ही कि यह हाथ उसके अलावा और किसी का नहीं हो सकता। “तुम यह सोच रहे होगे कि मैंने तुम्हारा नम्बर कैसे निकाला?” “हाँ। बिल्कुल, यही सोच रहा था।” “आखिरी बार मिलने के बाद तुम्हारा फोन लगातार बन्द आ रहा था। तुम्हारे घर पर भी गयी तो पता चला कि तुमने घर बदल लिया।” “हाँ, नई जिंदगी की शुरुआत करने के लिये यह बहुत जरूरी था।” “बहुत अच्छा किया तुमने।” उसके दर्द को मैं महसूस कर रहा था। “नम्बर कहाँ से मिला? यह बता दोगी तो मेहरबानी होगी।” “सावन का महीना आ गया था। मुझे पता था कि तुम्हारी माँ सोमवार को विश्वनाथ मन्दिर जरूर आयेंगी तो सवेरे से ही मंदिर के गेट पर इंतज़ार कर रही थी। उनके आते ही पैर पकड़ ली और उनको कसम भी दे दी कि तुमको यह वाकया बताये नहीं। पर तुम इतने खडूस हो कि अलग अलग नम्बर से फोन करने के बाद भी फोन नहीं उठा रहे थे।” “अब हम कुछ मतलब की भी बात कर लें ताकि मैं भी अपने ऑफिस का कुछ काम कर सकूँ।” “तुम मुझसे शादी करोगे या नहीं?” “इसका जबाब तुमको पहले ही दे चुका हूँ।” “जब तुम्हारी माँ को कोई दिक्कत नहीं है तो तुम क्यों बड़े पण्डित बन रहे हो!” “माँ को तुमने कैसे पटाया है, मुझसे बढिया से पता है। पर मैं अपना धर्म नहीं बदलूँगा तो किसी भी कीमत पर नहीं बदलूंगा।” “मैं ही तुमसे एकतरफा मोहब्बत करती रही। सच तो यह है कि तुमने कभी मुझसे इश्क किया ही नहीं।” “तुम्हारी बातों में कितनी सच्चाई है, तुम्हरा दिल जानता है।” “मेरी खाला की ननद ने भी किसी पण्डित से प्यार किया था। फिर उसने निकाह के लिये धर्म बदला कि नहीं बदला! और एक तुम हो!” “मेरे लिये धर्म बदलना, बाप बदलने के बराबर है।” “सच तो यह है कि दोस्तों की सोहबत में आकर तुम्हें मेरे धर्म से नफरत हो गयी है।” “नफरत! हम किसी से नफरत नहीं करते।” मैं बात जल्दी से जल्दी खत्म करना चाह रहा था पर वह अपने शर्तों पर जीत हासिल करने की हरसम्भव कोशिश कर रही थी। जबकि उसे भी यह पता था कि यह मुमकिन नहीं! “अब तुम्हें पंडित होने का कुछ ज्यादा ही घमण्ड हो गया है।” “घमंड तो बिल्कुल नहीं है पर हाँ, गर्व जरूर है।” “क्या तुम मेरी खातिर, अपनी मुहब्बत की खातिर इतना भी नहीं कर सकते!” “आज़मा कर देख लेना। जरूरत पड़ने पर जान भी दे सकता हूँ!” “जान दे सकते हैं पर शादी के लिये धर्म नहीं बदल सकते। हुँह!” अब रुखसाना की आँखें नम होने लगी थीं। “एक बात बताओ। मैंने कभी तुमको कहा कि अपना धर्म बदल लो।” “तुम्हारे धर्म में ऐसी कट्टरता नहीं है न! मेरे मज़हब को तो तुम समझते हो न!” “हाँ, समझता हूं। तभी तो कह रहा हूँ  कि तुम अपने मज़हब का पालन करो और मुझे अपने धर्म का पालन करने दो।” “तो इसका मतलब यह हुआ कि आखिरकार तुम जीत ही गये “ “काश कि मैं जीत पाता! “…..” ” न मैं जीता और न ही तुम जीती! अलबत्ता मज़हब के जंग में मुहब्बत जरूर हार गई।” उसकी आँखें उसके अधरों को भिंगोने लगी थी। मेरे लिये यह देख पाना बहुत मुश्किल हो रहा था। बहुत हिम्मत जुटा कर उसके होंठ हिले,”आखिरी रुखसत से पहले गले नहीं मिलोगे!” मुझे लगा कि अब मैं भी फूट पडूँगा पर बड़ी मुश्किल से अपने ऊपर काबू रख पाया। उसने फिर दोहराया,”आखिरी रुखसत से पहले गले नहीं मिलोगे क्या!” “गैर मर्द से गले मिलते हैं क्या?” अब आँसू बेकाबू हो गये और बोझिल कदमों से मैं ऑफिस की ओर भागा। एक चीख की आवाज़ सी आयी पर अब मुड़कर देखने की हिम्मत मुझमें न थी। *** मृणाल आशुतोष जिला-समस्तीपुर (बिहार) पिन-848210 मोबाईल: 91-8010814932 ईमेल- mrinalashutosh9@gmail.com यह भी पढ़ें … नया ज़माना आएगा नीलकंठ आपको कहानी ‘मजहब’ कैसी लगी| अपने विचारों से हमें जरूर अवगत करायें | filed under-love story, religion, hindu-muslim

नीलकंठ

प्रेम, सृष्टि की सबसे पवित्र भावना, ईश्वर का वरदान, संसार की सबसे दुर्लभ वस्तु …कितनी उपमाएं दी गयीं हो प्रेम को पर स्त्री के लिए ये एक वर्जित फल ही हैं …खासकर विवाहित स्त्री के लिए | समाज द्वारा मान लिया है कि विवाह के बंधन में प्रेम का पुष्प खिल ही जाता है | परतु विवाहित स्त्री के रीते मन पर अगर ये पुष्प सामाजिक मान्यता के विपरीत  खिल जाए तो …तो ये एक हलाहल है जिसे अपने कंठ में रख निरंतर विष पीती रहती है स्त्री | हमारे आस –पास कितनी स्त्रियाँ के  गरल पिए हुए स्याह पड़े कंठ हम देख नहीं पाते |  आज अक्सर कहानियों में देह विमर्श की बात होती है, परन्तु देह से परे भी प्रेम है जो सिर्फ जलाता, सुलगाता है और उस विष के साथ जीवन जीने को विवश करता है| सच्चाई ये है कि तमाम देह विमर्शों के परे  स्त्री मन का यह बंद पन्ना दबा ही रह जाता है| इस पर पुरुष साहित्यकारों की दृष्टि बहुधा नहीं पड़ती और स्त्रियाँ भी कम ही कलम चलातीं हैं | आज पढ़ते हैं उसी गरल को पी नीलकंठ बनी स्त्री की दशा पर लिखी गयी सोनी पाण्डेय जी की मार्मिक कहानी …         नीलकंठ     अच्छा यह बताओ आप कि आज बात बे बात इतना मुस्कुरा क्यों रही हो ? प्रिया ने पायल को झकझोरते हुए कहा। पायल मुस्कुरा कर रह गयी।आदतन प्रिया ने दाँत कटकटाते हुए बनावटी गुस्से में चिल्ला कर पूछा- बता दो की तुम इतना क्यों मुस्कुरा रही हो? पायल अब पत्रिका से मुँह ढ़क कर हँसने लगी।प्रिया उसके पैरों पर सिर रख ज़मीन पर बैठ गयी…मेरी अम्मा, मेरी दीदी,मेरी बहन जी…प्लीज बता दो!..मनुहार करते उसकी आँखें भर आईं थीं। पायल को दया आ गयी,सिर पर हाथ रख कर दुलारते हुए कहा…तुम बहुत जिद्दी लड़की हो, हठ कर बैठ जाती हो किसी भी बात पर। उसका गाल सहलाते हुए वह फिरसे मुस्कुरा उठी। इस बार प्रिया ने तुनक कर कह ही दिया…आपको बताना ही होगा,ऐसे तो आपको पिछले आठ साल में अकेले बैठकर मुस्कुराते नहीं देखा।गले में हाथ डाल कर कहा….पता है, ऐसे लड़कियाँ प्रेम होने पर मुस्कुराती हैं। पायल को जैसे हजारों वॉल्ट का करेंट का झटका एक साथ लगा हो ,वह सिहर उठी , यह पच्चीस साल की लड़की इतनी अनुभवी है कि मन के कोने में उपजी एक मध्यम सी लकीर जो होठोंं तक अनायास खिंची चली आ रही है को पढ़ लेती है।वह झट पत्रिका को समेट पर्स में रख खड़ी हो गयी। प्रिया पैर पटकती उसके पीछे पीछे चलने लगी…बता दीजिए न प्लीज पायल मैम! पायल के चेहरे पर तनाव उभर आया था, उसने लम्बी साँस लेते हुए कहा, “आज एक कहानी पढ़ी,उसी को सोच-सोच कर मुग्ध हो रही हूँ प्रिया।” प्रिया ने मुँह बिचका लिया….बस इतना ही,बक्क! आप बहुत खराब हैं।मैंने तो सोचा… पायल उसके मुँह से अगला शब्द निकले उससे पहले ही टोकते हुए रोकने लगी।प्लीज प्रिया,एक भी फालतू शब्द मत बोलना,जानती हो यहाँ दीवारों के बहत्तर कान हैं और मैं खामाखां मुसीबत में पड़ जाउंगी। पायल  का दिल धौंकनी की तरह धड़क रहा था…माथे पर पसीने की बूदें चुहचुहाने लगीं,पेट में गुड़गुड़ाहट होने लगी…घबराहट और बेचैनी में वह सामने के खण्डहर हो चुके क्लास रूम में आकर दीवार की टेक ले खडी हो गयी।आज उसे झाड झंखाड से भरे इस कमरे में बिल्कुल डर नहीं लग रहा था…सैकडों साँपों का जमावडा जिस कमरे में बरसात में रहता आज उस भयानक से कमरे की दीवार से चिपकी रोए जा रही थी।उधर प्रिया उसे खोज कर जब थक गयी तो क्लास में जाकर बच्चों को पढ़ाने लगी। आज मोहित स्कूल नहीं आया था,मोहित पिछले साल स्कूल में आया नया शिक्षक ,जैसा नाम वैसा ही स्वाभाव।सभी को अपने आकर्षक व्यक्तित्व और विनम्र स्वभाव से मोहित कर लेता।शुरू में सभी को लगा कि मोहित प्रिया को पसन्द करता है।पायल ने एक दिन कह भी दिया कि प्रिया तुम्हारी और मोहित की जोडी बहुत सुन्दर लगेगी.. प्रिया ने लम्बी साँस लेते हुए पायल से कान में कहा था उस दिन…मोहित आपको पसन्द करता है।पायल ने प्रिया को उस दिन बहुत डांटा था।वह समझ ही नहीं पा रही थी कि वह मोहित को कैसे समझाए कि वह जो कहता फिरता है सबके सामने वह एक दिन उसके जीवन में तूफान खड़ा कर सकता है।मोहित पायल से इतना प्रभावित रहता कि उसे दर्द निवारक मैम कह कर हँस पड़ता।चाहे कितनी मुश्किलें सामने हो पायल धैर्यपूर्वक उसका हल खोज निकालती।चाहे बच्चों की समस्या हो या शिक्षकों की वह कुछ न कुछ करके सब ठीक कर लेती।उसके पास हर समस्या का समाधान रहता..हर एक अपनी मुश्किल उसे सुना हल्का हो लेता ,ऐसी पायल अपने अन्दर के असीम तूफान को समेटे हर पल मुस्कुराते हुए सबसे मिलती और मोहित मुग्ध हो उसके गुन गाता फिरता।एक दिन तो इतना तक कह दिया कि यदि आप शादीशुदा नहीं होतीं तो आपसे ही शादी करता और परसों उसने सारी सीमाएँ तोड़ते हुए पायल से कह ही दिया..आई लव यू पायल।पायल ने उसे जोर से चांटा मारा था..वह कल से स्कूल नहीं आया था।पायल को छोड इस बात की जानकारी किसी को नहीं थी।हाँ प्रिया जरूर मोहित का पक्ष जानती थी और पायल को छेड़ती रहती थी। पायल के जीवन का यह साल भी अजीब था , शादी के एक दसक खत्म होने को है।चल रहा सब,जैसे हर आम औरत की दुनिया में चलता है।जिस उम्र में प्रेम के कोंपल फूटते हैं उस उम्र में कुछ बनने की धुन में वह लड़कों की तरफ देखती तक नहीं। दिल के बंजर ज़मीन पर कभी प्रेम के अंकुर नहीं फूटे.और अब जो घट रहा था वह अजीब था.।..शादी होनी थी, हुई…पति के लिए वह जरूरत थी,समाज के लिए एक सुखी परिवार, बच्चे ,पति ,घर परिवार से घिरी एक औरत जिसे जरूरत की किसी चीज की कमी नहीं थी वह आखिर क्यों नहीं खुलकर हँसती नहीं थी?उसे खुश रहना चाहिए… औरत को इसी में खुश रहना है और क्या चाहिए उसे।खाओ पहनो घूमो और चुपचाप सबकी जरूरतें पूरी करती रहो। उसे याद आता है कि काजल उसे देख कैसे बिफर पड़ी थी…क्या पायल! तुम्हारे जैसी जहीन लड़की ने अपना क्या हाल बना रखा है?जानती हो! … Read more

तपते जेठ में गुलमोहर जैसा -प्रेम का एक अलग रूप

आज आपसे ” तपते  जेठ में गुलमोहर सा  उपन्यास के बारे में  बात करने जा रही हूँ |यह  यूँ तो एक प्रेम कहानी है पर थोड़ा  अलग हट के | कहते हैं प्रेम ईश्वर की बनायीं सबसे खूबसूरत शय है पर कौन इसे पूरा पा पाया है या समझ ही पाया है | कबीर दास जी तो इन ढाई आखर को समझ पाने को पंडित की उपाधि दे देते हैं | प्रेम अबूझ है इसीलिए उसे समझने की जानने की ज्यादा से ज्यादा इच्छा होती है | प्रेम में जरूरी नहीं है कि विवाह हो | फिर भी अधिकतर प्रेमी चाहते हैं कि उनके प्रेम की परणीती विवाह मे हो |  विवाह प्रेम की सामजिक रूसे से मान्य एक व्यवस्था है | जहाँ प्रेम कर्तव्य के साथ आता है | मोटे तौर पर देखा जाए तो  किसी भी विवाह के लिए कर्तव्य प्रेम की रीढ़ है | अगर कर्तव्य नहीं होगा तो प्रेम की रूमानियत चार दिन में हवा हो जाती है  | हाथ पकड़ कर ताज को निहारने में रूमानियत तभी घुलेगी जब बच्चो की फीस भर दी हो | अम्मा की दवाई आ गयी हो | कल के खाने का इंतजाम हो | प्रेम के तिलिस्म कई बार कर्तव्य के कठोर धरातल पर टूट जाते हैं | पर ये बात प्रेमियों को उस समय कहाँ समझ आती है जब किसी का व्यक्तित्व अपने अस्तित्व पर छाने लगता है | “कितनी अजीब सी बात है ना …आपके पास तो कई सारे घर हैं …बंगला है , गाँव की हवेली है …पर ऐसी कोई जगह कोई कोना आपके पास नहीं …जहाँ आप इन पत्रों को सहेज सकें | चलो, इस मामले में तो हम दोनों की किस्मत एक जैसी ठहरी, घर होते हुए बेघर |” वैसे भी प्रेम और प्रेमियों में इतनी विविधता है कि उसे घर-गृहस्थी में पंसारी के यहाँ से लाये जाने वाले सामान  की लिस्ट या खर्चे की डायरी में दर्ज नहीं किया जा सकता | फिर तो उसकी विविधता ही खत्म हो जायेगी | ये तो किसी के लिए खर्चे की डायरी  से छुपा कर रखी गयी चवन्नी -अठन्नी भी हो सकता है तो किसी के लिए  पूरी डायरी ….एक खुली किताब | जैसे “तपते जेठ में गुलमोहर जैसा”में डॉ. सुविज्ञ का प्रेम एक ऐसा इकरार है जिसे सात तहों में छिपा कर रखा जाए तो अप्पी के लिए एक खुली किताब | और यही अंतर उनके जीवन के तमाम उतार  चढ़ाव का कारण | तपते  जेठ में गुलमोहर जैसा -प्रेम का एक अलग रूप    अगर विवाहेतर प्रेम की बात की  जाए तो ये हमेशा एक उलझन क्रीएट करता है | जिसमें फंसे दोनों जोड़े बड़ी बेचारगी से गुज़रते हैं | प्रेम की तमाम पवित्रता और प्रतिबद्धता  के बावजूद | दो जो प्रेम कर रहे हैं और दो जो अपने साथी के प्रेम को बर्दाश्त नहीं कर पा रहे हैं | सब कहीं ना कहीं अधूरे हैं | अभी कुछ समय पहले एक वरिष्ठ लेखिका की वाल पर पढ़ा था कि एक स्त्री को अपने प्रेम और अपने विवाह दोनों को सँभालने का हुनर आता है | उस समय भी मेरे अंतस में यह प्रश्न कौंधा था कि मन में प्रेम रख कर विवाह को संभालना क्या स्त्री को दो भागों में नहीं बाँटता | आज के आध्यत्मिक जगत में “Who am I ” का प्रश्न तभी आता है जब हम अपने अस्तित्व को तमाम आवरणों से ढँक लेते हैं | कुछ आवरण सामाज के कुछ अपनों के और कुछ स्वयं अपने बनाये हुए | उनके बीच में पलती हैं मनोग्रंथियाँ | प्रेम अपराध नहीं है पर भौतिक जगत के गणित में ये अपराधी सिद्ध कर दिया जाता है | इससे इतर अप्पी ने यही तो चाहा की उसका अस्तित्व दो भागों में ना बंटे | उसे समग्र रूप से वैसे ही स्वीकार किया जाए जैसी की वो है | पर ऐसा हो नहीं सका | उसका जीवन तपती जेठ सा हो गया | फिर भी उसका प्रेम गर्मी के मौसम में खिलने वाले गुलमोहर के फूलों की तरह उस बेनूर मौसम को रंगता रहा | अप्पी के इसी अनोखे प्रेम को विशाल कैनवास में उतारा है सपना सिंह जी ने  | ये कहानी शुरू होती है  पाओलो  कोएलो के प्रसिद्द  उपन्यास ‘अलेकेमिस्ट  के एक कोट से … “सूरज ने कहा, मैं जहाँ हूँ धरती से बहुत दूर, वहीँ से मैंने प्यार करना सीखा है | मुझे मालूम है मैं धरती के जरा और पास आ गया तो सब कुछ मर जाएगा …हम एक दूसरे के बारे में सोचते हैं, एक दूसरे को चाहते हैं, मैं धरती को जीवन और ऊष्मा देता हूँ , और वह मुझे अपने अस्तित्व को बनाए रखने का कारण |” मुझे लगता है कि प्रेम की एक बहुत ही खूबसूरत परिभाषा इस कोटेशन में कह दी गयी है | प्रेम में कभी कभी एक दूरी बना के रखना भी दोनों के अस्तित्व को बचाये  रखने के लिए जरूरी होता है | अभी तक तो आप जान ही गए होंगे कि ये कहानी है अप्पी यानि अपराजिता और डॉ. सुविज्ञ की | डॉ. सुविज्ञ …शहर के ख्याति प्राप्त सर्जन |मूलरूप से गोरखपुर के रहने वाले | खानदानी रईस | फिर भी उनकी पीढ़ी ने गाँव छोड़ कर डॉक्टर, इंजिनीयर बनने का फैसला किया | वो स्वयं सर्जन बने | हालांकि  पिछले दो साल से सर्जरी नहीं करते | पार्किन्संस डिसीज है | हाथ कांपता है | वैसे उनका  अपना नर्सिंग होम है | डायगोनेस्टिक सेंटर है, ट्रामा सेंटर है | कई बंगले हैं, गाडियाँ  है ….नहीं है तो अप्पी | पर नहीं हो कर भी सुबह की सैर में उनके पास रोज चली आती है भले ही ख्यालों में | “सुबह -सुबह हमें याद करना” अप्पी ने एक बार कहा था उनसे | “सुबह -सुबह ही क्यों ?”उसकी बातें उनके पल्ले नहीं पड़ती थीं | “आप इतने बीजी रहते हो …हमें काहे याद करते होगे …चलो सुबह का एपॉइंट मेंट मेरा !”  अप्पी ..पूर्वी उत्तर  प्रदेश के एक कस्बानुमा शहर में रहने वाली लड़की |साधारण परिवार की लड़की |  लम्बा कद, सलोना लम्बोतरा चेरा …बड़ी -बड़ी भौरेव जैसी आँखें व् ठुड्डी पर हल्का सा गड्ढा | शुरूआती पढाई वहीँ से … Read more