लवर्स -निर्मल वर्मा की कालजयी कहानी

लवर्स - निर्मल वर्मा की कालजयी कहानी

  कुछ शब्द हैं, जो मैंने आज तक नहीं कहे. पुराने सिक्कों की तरह वे जेब में पड़े रहते हैं. न उन्हें फेंक सकता हूं, न भुला पाता हूं. नई कहानी के सर्वाधिक चर्चित कहानीकार निर्मल वर्मा की कहानी “लवर्स” एक ऐसी प्रेम कहानी है जो इस तथ्य को रखती है कि जहाँ प्रेम सफलता व्यक्ति पूर्णता प्रदान करती यही वहीं प्रेम में असफलता व्यक्ति में निराशा और कुंठा को जन्म देती है l लेखक ने एक छोटी घटना को बड़ी कहानी में बदल दिया है l कहानी की शुरुआत में एक लड़का जो कुछ देर पहले बुक स्टॉल पर अर्धनग्न स्त्री की तस्वीर वाली मैगजीन को देखना ही नहीं चाह रहा था क्योंकि उसका सारा ध्यान  अपनी गर्ल फ्रेंड के आने के रास्ते पर था बाद में वही लड़का उस लड़की के जाने के बाद उस मैगजीन को खरीद लेता है |जहाँ से शुरू कहानी वही  पर आ कर खत्म होती है l बीच में हैं स्मृतियों के कुछ चित्र और इंतजार की बेचैनी l यहाँ बेचैनी केवल प्रेम की नहीं है बल्कि उस जवाब की भी है जो नायिका देने आ रही है l यहाँ इंतजार भी रूहानी है l वो हमेशा समय से पहले आता है क्योंकि उसे प्रतीक्षा करना अच्छा लगता है l कहानी की कई पंक्तियाँ पाठक का ध्यान देर तक अपने में अटकाये रहती हैं l नीलकंठ के उड़ जाने और बर्फ के विषय में सोचने का बहुत सुंदर बिंबयात्मक प्रयोग है l प्रेम में असफलता किस तरह से व्यक्ति के हाव-भाव को बदलती है l  किस तरह से असफलता जनित उसकी निराशा कुंठा को जन्म देती है lआइए पढे अद्भुत प्रवाह वाली इस कालजयी कहानी को… लवर्स -निर्मल वर्मा की कालजयी कहानी ‘एल्प्स’ के सामने कॉरिडोर में अंग्रेज़ी-अमरीकी पत्रिकाओं की दुकान है. सीढ़ियों के नीचे जो बित्ते-भर की जगह ख़ाली रहती है, वहीं पर आमने-सामने दो बेंचें बिछी हैं. इन बेंचों पर सेकंड हैंड किताबें, पॉकेट-बुक, उपन्यास और क्रिसमस कार्ड पड़े हैं. दिसंबर… पुराने साल के चंद आख़िरी दिन.   नीला आकाश… कंपकंपाती, करारी हवा. कत्थई रंग का सूट पहने एक अधेड़ किंतु भारी डील-डौल के व्यक्ति आते हैं. दुकान के सामने खड़े होकर ऊबी निगाहों से इधर-उधर देखते हैं. उन्होंने पत्रिकाओं के ढेर के नीचे से एक जर्द, पुरानी-फटी मैगज़ीन उठाई है. मैगज़ीन के कवर पर लेटी एक अर्द्ध-नग्न गौर युवती का चित्र है. वह यह चित्र दुकान पर बैठे लड़के को दिखाते हैं और आंख मारकर हंसते हैं. लड़के को उस नंगी स्त्री में कोई दिलचस्पी नहीं है, किंतु ग्राहक ग्राहक है, और उसे ख़ुश करने के लिए वह भी मुस्कराता है.   कत्थई सूटवाले सज्जन मेरी ओर देखते हैं. सोचते हैं, शायद मैं भी हंसूंगा. किंतु इस दौरान में लड़का सीटी बजाने लगता है, धीरे-धीरे. लगता है, सीटी की आवाज़ उसके होंठों से नहीं, उसकी छाती के भीतर से आ रही है. मैं दूसरी ओर देखने लगता हूं.   मैं पिछली रात नहीं सोया और सुबह भी, जब अक्सर मुझे नींद आ जाती है, मुझे नींद नहीं आई. मुझे यहां आना था और मैं रात-भर यही सोचता रहा कि मैं यहां आऊंगा, कॉरिडोर में खड़ा रहूंगा. मैं उस सड़क की ओर देख रहा हूं, जहां से उसे आना है, जहां से वह हमेशा आती है. उस सड़क के दोनों ओर लैंप-पोस्टों पर लाल फैस्टून लगे हैं… बांसों पर झंडे लगाए गए हैं. आए-दिन विदेशी नेता इस सड़क से गुज़रते हैं.   जब हवा चलती है, फैस्टून गुब्बारे की तरह फूल जाते हैं, आकाश झंडों के बीच सिमट आता है… नीले लिफाफे-सा. मुझे बहुत-सी चीज़ें अच्छी लगती हैं. जब रात को मुझे नींद नहीं आती, तो मैं अक्सर एक-एक करके इन चीज़ों को गिनता हूं, जो मुझे अच्छी लगती हैं, जैसे हवा में रंग-बिरंगे झंडों का फरफराना, जैसे चुपचाप प्रतीक्षा करना…   अब ये दोनों बातें हैं. मैं प्रतीक्षा कर रहा हूं. उसे देर नहीं हुई है. मैं ख़ुद जानबूझकर समय से पहले आ गया हूं. उसे ठीक समय पर आना अच्छा लगता है, न कुछ पहले, न कुछ बाद में, इसीलिए मैं अक्सर ठीक समय से पहले आ जाता हूं. मुझे प्रतीक्षा करना, देर तक प्रतीक्षा करते रहना अच्छा लगता है.   धीरे-धीरे समय पास सरक रहा है. एक ही जगह पर खड़े रहना, एक ही दिशा में ताकते रहना, यह शायद ठीक नहीं है. लोगों का कौतूहल जाग उठता है. मैं कॉरिडोर में टहलता हुआ एक बार फिर किताबों की दुकान के सामने खड़ा हो जाता हूं. कत्थई रंग के सूटवाले सज्जन जा चुके हैं. इस बार दुकान पर कोई ग्राहक नहीं है. लड़का एक बार मेरी ओर ध्यान से देखता है और फिर मैली झाड़न से पत्रिकाओं पर जमी धूल पोंछने लगता है.   कवर पर धूल का एक टुकड़ा आ सिमटा है. बीच में लेटी युवती की नंगी जांघों पर धूल के कण उड़ते हैं. …लगता है, वह सो रही है.   फ़ुटपाथ पर पत्तों का शोर है. यह शोर मैंने पिछली रात को भी सुना था. पिछली रात हमारे शहर में तेज़ हवा चली थी. आज सुबह जब मैं घर की सीढ़ियों से नीचे उतरा था, तो मैंने इन पत्तों को देखा था. कल रात ये पत्ते फ़ुटपाथ से उड़कर सीढ़ियों पर आ ठहरे होंगे. मुझे यह सोचना अच्छा लगता है कि हम दोनों एक ही शहर में रहते हैं, एक ही शहर के पत्ते अलग-अलग घरों की सीढ़ियों पर बिखर जाते हैं और जब हवा चलती है, तो उनका शोर उसके और मेरे घर के दरवाज़ों को एक संग खटखटाता है.   यह दिल्ली है और दिसंबर के दिन हैं और साल के आख़िरी पत्ते कॉरिडोर में उड़ रहे हैं. मैं कनॉट प्लेस के एक कॉरिडोर में खड़ा हूं, खड़ा हूं और प्रतीक्षा कर रहा हूं. वह आती होगी.   मैं जानता था, वह दिन आएगा, जब मैं ‘एल्प्स’ के सामने खड़ा होकर प्रतीक्षा करूंगा. कल शाम उसका टेलीफ़ोन आया था. कहा था कि वह आज सुबह ‘एल्प्स’ के सामने मिलेगी. उसने कुछ और नहीं कहा था… उस पत्र का कोई ज़िक्र नहीं किया था, जिसके लिए वह आज यहां आ रही है. मैं जानता था कि मेरे पत्र का उत्तर वह नहीं भेजेगी, वह लिख नहीं सकती. मैं लिख नहीं सकती-एक दिन उसने … Read more

एक खूबसूरत प्रेम कहानी है सीता रामम- मूवी रिव्यू

सीता रामम मूवी रिव्यू

  सी अश्विनी दत्त द्वारा निर्मित और हनु राघवपुडी द्वारा निर्देशित  ‘सीता रामम’ तेलुगू में बनी वो  फिल्म है जिसे हिंदी में भी रिलीज किया गया है। सीता रामम’ एक ऐसी प्रेम कहानी है,  जिसमें प्रेम अपने विराट रूप में सामने आता है l जो रूहानी है और देह से परे है l इसके अतरिक्त प्रेम के दो प्रकार और हैं जो  पूरी कहानी में साथ- साथ चलते हैं, एक मुखर और एक मौन l मुखर प्रेम है देश के प्रति प्रेम और मौन प्रेम है धार्मिक सौहार्दता के प्रति प्रेम l साधारण शब्दों में कहे तो धर्म की कट्टरता के बीच लिखी गई एक प्रेम कहानी में धर्म का असली मर्म है, ‘परहित सरिस धरम नहिं भाई’। अटूट बंधन की परंपरा के अनुसार हम मुख्य रूप से इसकी कहानी पर ही बात करेंगे l एक खूबसूरत प्रेम कहानी है सीता रामम- मूवी रिव्यू   फिल्म ‘सीता रामम’ दो कालखंडों में एक साथ चलती है।  कहानी का एक सिरा 1964 में शुरु से जुड़ता है l जिसमें बहादुर सैनिको को अपने परिआर के नाम संदेश भेजने के रेडियो कार्यक्रम के दौरान  लेफ्टिनेंट राम की बारी आने पर वो कहता है कि वो अनाथ है और ये सेना, दोस्त और पूरा देश ही उसका परिवार है l ऐसे में रेडियो की तरफ से कार्यक्रम संचालक देश के लोगों से अपील करती है कि वो राम को चिट्ठियाँ लिखे l उसकी वीरता की कहानी सुनकर देश भर के लोग उसे चिट्ठियां लिखने लगते हैं। राम भी उन चिट्ठियों के जवाब लिखता है l इसी में एक चिट्ठी सीतालक्ष्मी की आती है जो राम को अपना पति मानती है। बातें भी सारी वह ऐसी ही लिखती है। पर राम उसको जवाब नहीं लिख पाता क्योंकि वो अपना पता नहीं लिखती l पर एक चिट्ठी से एक खास तारीख में उसका दिल्ली में किसी ट्रेन में होने का जिक्र पढ़ कर  राम अपनी सीता को खोजने निकलता है।   कहानी का दूसरा सिरा 1984 में लंदन सेशुरू होता है । एक पाकिस्तानी लड़की आफ़रीन जो भारत से बेंतहाँ नफरत करती है l लंदन में एक भारतीय सरकारी गाड़ी को नुकसान पहुंचाती है l पकड़े जाने पर परिस्थितियाँ कुछ ऐसी बनती हैं कि अब उसके सामने दो रास्ते हैं या तो दस लाख रुपये दे या माफी मांगे l अपनी नफरत के असर में वो दस लाख रुपये देना चुनती है l और दो साल से अपने परिवार के किसी खट फोन कॉल का जवाब ना देने वाली लड़की अपने बाबा की विरासत हासिल करने पाकिस्तान आती हैं l उसे लंदन भेजा ही इसलिए जाता है क्योंकि उसके बाबा उसके अंदर बढ़ती नफरत और कट्टरता से चिंतित थे l और उन्हें लगता है कि यहाँ के संगियों का साथ छूटने और वहाँ के खुले माहौल में उसमें बदलाव आएगा l खैर पाकिस्तान आने पर उसे पता चलता है की उसके बाबा का इंतकाल हो गया है l और उसे विरासत तभी मिलेगी जब वो पाकिस्तान की जेल में बंद राम की एक चिट्ठी को भारत में  सीतालक्ष्मी तक पहुँचा देगी l मजबूरी में वो ये काम स्वीकार करती है ..  और शुरू होता है फिल्म में रहस्य का एक सफर l हर नुक्कड़ पर एक नया मोड़ है। एक नया किरदार है। सीतालक्ष्मी की असल पहचान क्या है? इसका खुलासा होने के साथ ही फिल्म का पूरा ग्राफ बदल जाता है। ये कहानी प्रेम की नई ऊंचाइयों को छूती है l जहाँ इंसान के गुण प्रेम का कारण तो अंतहीन इंतजार भी प्रेम का ही हिस्सा है l   सीता रामम- मूवी रिव्यू इस प्रेम कहानी के अलावा ये  कहानी समाज, दस्तूरों और परिवार की तंग गलियों से होकर गुजरती है पर विजय प्रेम की ही होती है l भारत पाकिस्तान के बीच 1971 में हुए युद्ध के सात साल पहले के समय के कश्मीर का भी चित्रण है l फिल्म उस सूत्र को तलाशने की कोशिश करती है जिसके चलते ये माना जा रहा था  कि कश्मीरियों ने भारतीय सेना को अपना दुश्मन मान लिया है । हर कोई एक दूसरे पर शक कर रहा है l अवचेतन में ठुसाई गई यह भावना तब टूटती है जब कारगिल में ठंड से ठिठुरते फौजियों के लिए रसद ले कर आते हैं l शुरुआती तहकीकात के बाद सेना भी दिल से स्वागत करती है l रिश्तों में विश्वास का फूल खिलता है पर ये सीमा के उस पार वालों को कहाँ सहन होता है l धार्मिक उन्माद के बीच नायक राम स्थापित करता है कि परहित से बड़ा कोई धर्म नहीं है l चिट्ठी के माध्यम से बहन बनी देह व्यापार में लिप्त स्त्री की व्यथा जानकर राम अपना सारा संचित धन उनके जीवन को नई दिशा देने में लगा देता है l ये समदृष्टि ही एक व्यक्ति को राम बनाती है l कहानी का अंत बेहद प्रभावशाली है l ये पाठक को उदास कर जाता है साथ ही नफरत की चौहद्दी पार ना करने वाली आफ़रीन के मन की सभी दीवारें गिरा कर भारत के लिए प्रेम का बीज बो देता है l यही प्रेम का बीज हर दर्शक के मन मैं भी उतरता है … क्योंकि प्रेम नफरती से बहुत बड़ा है l   युद्ध की कगार पर खड़े दो देशों पर बनी देशभक्ति की फिल्म राजी की तरह ही इस फिल्म में भी ये तथ्य उभर कर आता है कि अपनी देश की सरहद पर प्राण नौछावर कर देने वाला सैनिक… सैनिक ही होता है l देशभक्ति के जज्बे से भरा एक इंसान l जो हमारे लिए खलनायक है वो उस देश के लिए नायक है l   हालंकी फिल्म ने कश्मीर और धर्म के मुद्दे को छुआ है तो दोनों ही तरफ से कुछ- कुछ दृश्यों पर विरोध हो सकता है l हिंदी में डबिंग कई जगह कमी लगती है तो सम्पादन भी सुस्त है…  जिस कारण लिंक टूटता है l गीत-संगीत प्रभवित नहीं करता है l इसे दरकिनार करते हुए अभिनय की दृष्टि से देखें तो फिल्म का हीरो दुलकर सलमान है। किरदार वह राम का कर रहा है। फिल्म की हीरोइन मृणाल ठाकुर है और जो किरदार वह फिल्म में कर रही है, वह पारंपरिक हीरोइन का नहीं है। … Read more

अंधी मोहब्बत

अंधी मुहब्बत

“अंधी मोहब्बत” कहानी का शीर्षक ही अपने आप में किसी प्यार भरे अफ़साने की बात करता है l यूँ तो अंधी मुहब्बत उसे कहते हैं जब इंसान दिल के हाथों इतना मजबूर हो जाए कि दिमाग को ताक पर रख दे l परंतु ये कहानी शुरू होती है एक व्यक्ति की जिसके पति की तेराहवीं हुई है l लेकिन ये कहानी अतीत की ओर नहीं जाती, ये भविष्य की ओर चलती है l अशोक कुमार मतवाला जी व्यंगकार और कथाकार दोनों  के रूप में प्रसिद्ध रहे हैं l और उनके इन्हीं दोनों रूपों को मिलाते हुए कहानी का अंत व्यंग्य का पुट लिए हुए है l जहाँ गंभीर पाठक चौंकता है और फिर एक बार व्यंग्य को समझ मुसकुराता है l   अंधी मोहब्बत  सुनीता डयोढी में पड़ी चारपाई पर औंधी पड़ी थी। सोकर जब उठी तो उसने चारपाई पर पड़े दर्पण में खुद को निहारा. उसे अपनी आँखें लाल सुर्ख और थकी – हारी सी लगी। कुछ पल यूँही वह दर्पण को पथराई दृष्टि से तकती रही। मेहरा साहिब का तेरहवां पिछले बुध को था! पति का साथ छूटने के बाद उसके सिर पर जैसे पहाड़ टूट पड़ा था. अचानक ऐसा हादसा होने की संभावना तक नहीं थी, उसे! अब क्या होगा, कैसे संभाल पाऊंगी सब कुछ अकेले, मैं? मेहरा साहिब थे तो सब कुछ खुद ही संभालते थे. अनगिनत सवाल सुनीता के दिमाग को उथल – पुथल कर रहे थे. बेवश, फफक पड़ी वह! सहसा, बेटे प्रतीक की आवाज उसके कानों में पड़ी, मम्मा, उठो, कुछ खाने को दे दो, प्लीज़. जोरों से भूख लगी है…और खुद तुम भी कुछ खा लो…मम्मा, तुम सुबह कह तो रही थी खाऊंगी, मगर पता नही अभी तक तुमने कुछ खाया भी है या नहीं? तुम भीतर चलो, मैं मुंह धोकर आती हूं! निशा को भी खाने के लिए बुलाले, बेटा, खाने का टाइम तो हो गया है, वह भी गर्म – गर्म खा लेगी! अच्छा, मम्मा!कहकर प्रतीक भीतर आ गया! खाने के बाद, सुनीता ड्राइंग रूम में आई और प्रतीक को टीवी बंद करने का इशारा कर कहने लगी, बेटा, सुन, तूं जिद्द मत कर, अब जब भी तेरा जर्मनी जाने का वीज़ा लगता है, तूं बिना देर किए निशा और अपने बच्चों को लेकर चल… मैं भी इधर कुछ कामों को निपटाकर आती हूं! मैंने कहा है न मम्मा, मैं तुम्हे यहां अकेला छोड़कर जर्मनी नहीं जाऊंगा! तूं पागल मत बन, बेटा, तूं इतना स्याना होता तो अभी से अपनी नौकरी छोड़ कर घर बैठ नही जाता और निशा की भी नौकरी ना छुड़वाता. अब जब तक तेरा वीज़ा नही लगता, क्या करेगा खाली घर बैठ कर? मम्मा, मेरी जर्मनी जाने की बारी तो आई पड़ी थी लेकिन किसी कारणों से जर्मनी सरकार ने  प्रवासियों के  कोटा  पर टेंपरेरी रोक लगा दी है! बेटा, तूने जर्मनी जाना है तो जा, मैने नही अब जाना, वहां! सुनीता अनमने से कहने लगी। “वह कयूं ?” “प्रतीक बेटा समझा कर, मैं और तेरे पापा अभी तो तुम्हारी बहिन सीमा के पास जर्मनी में चार महीने लगा कर आए हैं. बेटी सीमा की जगह अगर तुम वहां होते, बेटा, तो अलग बात थी लेकिन, बिटिया के घर में मेरा रहना ठीक नही। बेटा, सीमा के घर रहने वाली भी बात नहीं. सच कहूं तो जर्मनी में मेरा दिल नही लगा….वहां बहुत बर्फ और ठंड पड़ती है। बेटा, मेरे तो गोडे जुड़ जाते हैं…हाल ही में में जब वहां थी तो सीमा और तुम्हारे जीजा सोम तो अपने-अपने काम पर चले जाते थे और मैं या तो चूल्हे चौके में व्यस्त रहती या उनके बच्चों के सारा दिन डायपर बदलती! न बेटा न, मैं तो अपने घर ही अच्छी, यहां मेरा अपना घर है, घर में सब कुछ है…! जरूरत पड़ी तो काम के लिए मैं एक  को भी रख सकती हूं.” “मम्मा, सुनो…तुमने सीमा के पास थोड़ा ही रहना है…तुम्हें तो मेरे पास रहना है….” “तुमने तो वही बात की बेटा जैसे कहावत है – शहर बसा नहीं और लुटेरे पहले आ गए. तूं अभी जर्मनी पहुंचा नही, नौकरी तेरे पास नही, तेरे अपने रहने का जर्मनी में कोई अता पता नही…आया बड़ा मुझे अपने पास रखने वाला!” “इसीलिए तो कहता हूं, मम्मा, तुम साथ चलो. मैं और निशा काम करेंगे और तुम अंशु बेटे और बिटिया सरिता का घर पर खयाल रखना…बहुत जल्दी ही हमारे पास अपने रहने का इंतजाम भी हो जायेगा…” बेटे का जवाब सुनकर सुनीता खामोश रही! देखा, तुम्हारा स्वार्थ तुम्हारे मुख पर आ ही गया कि तुम मुझे अपने पास अपने बच्चों की आया बनाकर रखोगे. मन ही मन यह कहकर सुनीता सुबक पड़ी! मैं आऊंगी बेटा तेरे पास. तूं खुद तो जर्मनी पहले पहुंच! कहकर सुनीता अपने सोने के कमरे की और बढ़ गई. कमरे में प्रवेश करने के बाद भीतर से उसने दरवाजे की चिटखनी लगा दी और सिरहाने में अपना मुंह छिपाकर फूट-फूट कर रोने लगी थी! सहसा, पास रखा फोन बज उठा. अपने आंसू पोंछते हुए सुनीता ने फोन उठाया. आनंद का कनेडा से फोन था! दोनों की अलग अलग शादियां हुई मगर दोनों एक दूसरे से ऐसे बिछड़े थे जैसे दो दोस्त बचपन में किसी मेले में कही गुम हो गए हों. खैर, विधाता ने सुनीता और आनंद को मिलाने का एक और तरीका निकाला। फेसबुक के जरिए एक बार फिर दोनो आपस में मिल गए थे! सैकड़ों मील दूर होने पर भी दोनों एक अच्छे मित्र की तरह एक-दूसरे के नजदीक बने रहे! समय बदलता गया…दोनो अपने अपने कर्म करते और भुगतते हुए जिंदगी के अपने अपने सफर पर आगे बढ़ रहे थे! सुनीता आनंद को अपने पति मिस्टर मेहरा से अपनी शादी के पहले से जानती थी. मां -बाप के स्तर पर एक गलतफहमी की वजह से दोनों की मंगनी होकर टूट गई थी! दोनों की राहें जुदा हो गई थीं। सुनीता को आज आनंद के फोन का भी इंतजार था! उन्होंने पहले से बात करने का समय तय कर रखा था! काफी देर तक दोनों बातचीत करते रहे थे! दुनियादारी के डर और घर में व्यस्क बच्चों की शर्म ने जैसे सुनीता की खवाइशों का गला घोट दिया हो. उसकी रूह तक कांप उठी थी। “नही, आनंद मुझसे अब यह … Read more

महिमाश्री की कहानी अब रोती नहीं कनुप्रिया ?

अब रोती नहीं कानुप्रिया

  असली जिंदगी में अक्सर दो सहेलियों की एक कहानी विवाह के बाद दो अलग दिशाओं में चल पड़ती हैl पर कभी-कभी ये कहानी पिछली जिंदगी में अटक जाती है l जैसे रामोना और लावण्या की कहानी l कहानी एक सहेली के अपराध बोध और दूसरी के माध्यम से एक धोखा खाई स्त्री के चरित्र को उसके स्वभावगत परिवर्तन को क्या खूब उकेरा है । “अब रोती नहीं कनुप्रिया”  कहानी पाठक को रुलाती है। प्रेम पर भावनाओं पर लिखे  कई वाक्य किसी हार की तरह गुथे हुए बहुत प्रभवशाली व कोट करने लायक हैं । तो आइए पढ़ें महिमाश्री की कहानी अब रोती नहीं कनुप्रिया    पंद्रह साल बहुत ज्यादा होते हैं। लावण्या मेरी बचपन की साथिन। उसे कितने सालों से ढूढ़ती रही हूँ। कहाँ है ?कैसी है? उसकी जिंदगी में क्या चल रहा है। कितने सवाल हैं मेरे ज़हन में। । फेसबुक प्रोफाइल बनने के पहले दिन से ले कर आज तक उसे अलग-अलग सरनेम के साथ कितनी बार ढ़ूढ़ चुकी हूँ।   मॉल में एस्केलेटर से नीचे उतरता सायास मुझे वह पहचाना चेहरा दिखा।जिसकी तलाश में मेरी आँखे रहती हैं। हॉल में उस भरी देहवाली स्त्री को देखते ही मैं चहकी। मैंने अपने आपसे कहा- हाँ- हाँ वही है मेरी बचपन की सहेली लावण्या।मैंने एस्केलेटर पर से  ही आवाज लगाई लावण्या आ आ…….। वह  सुंदर गोलाकार चेहरा आगे ही बढ़ता जा रहा था। मेरा मन आशंकित हो उठा कहीं वह भीड़ में गुम न हो जाये।   इसबार  मैंने जोर से आवाज लगाई लावण्या..आ आ…   कई चेहरे एकसाथ मुड़ कर मुझे देखने लगे।मैंने किसी की परवाह नहीं की। बस लावण्या गुम न हो जाये।इसलिए आशंकित हो रही थी।   लावण्या ने मुड़ कर देख लिया। उसकी आँखों में भी पहचान की खुशी झलक उठी थी।मेरा दिल जोरो से धक -धक कर रहा है।मेरी अभिन्न सखी लावण्या। उसकी चिरपरिचित मुस्कान ने मुझे आशवस्त कर दिया।   हाँ वही है। मैं किसी अजनबी का पीछा नहीं कर रही थी। मेरा अनुमान सही निकला। मेरा दिल बल्लियों उछल रहा है।आखिर मैंने उसे ढ़ूढ निकाला।   आज मेरी आँखों के सामने वह साक्षात खड़ी है।वही हँसता -मुस्कुराता चेहरा।चंचल आँखों में थोड़ी स्थिरता आ गई है। कोमल सुडौल शरीर में चर्बी यहाँ-वहाँ झांकने लगी है।पर वही है। मेरी प्यारी सखी लवण्या  ।   मैं तेजी से सामने आकर लगभग उसे अपने अंक में भिंच ही लिया।कुछ देर के लिए भूल गई कि मॉल के अंदर भीड़-भाड़ के बीच में हूँ। मैं भावूक हुई जा रही हूँ।   “कहाँ थी यार? कितना तुम्हें याद किया। कितना तुम्हें ढ़ूढ़ा।अब भी तू वैसी ही सुंदर है। बस थोड़ी मोटी हो गई है।क्या तुम्हें मेरी याद नहीं आई। तू तो लगता है भुल ही गई थी मुझे।देख मैं तो तुझे देखते ही पहचान लिया। मेरी खुशी का ठिकाना नहीं है।“   लावण्या हल्की स्मित लिए खड़ी रही। वह मेरी हर सवाल पर एक मुस्कान दे रही है।लोग आते-जाते हमें देख रहे हैं।लोगो का क्या है। कुछ देर गिले शिकवे कहने के बाद मैं थोड़ी शांत हो गई।मैंने महसूस किया लावण्या मुझे देखकर उतनी भावूक नहीं हुई।जितनी मैं उसके लिए अभी महसूस कर रही हूँ। या फिर सार्वजनिक स्थान होने के कारण उसने अपनी भावूकता को दबा लिया।आखिरकार एक अभिनेत्री जो ठहरी।   मुझे कुछ सोचता देख उसने मेरे हाथों को अपने हाथों में ले लिया। मुझे थोड़ा सुकून मिला। चलो एकतरफा लगाव तो नहीं रह गया।   फिर  लावण्या ने अपने साथ खड़े  पुरुष से परिचय करवाया।   “रमोना! ये मेरे मेरे पति विनीत ।   विनीत ये मेरी सहेली  है। हम स्कूल से लेकर कॉलेज तक साथ थे।“   फिर से मुझे उसकी आवाज में एक ठंढेपन की तासिर नजर आई। मैंने अपने दिमाग को झटक कर। आँखे पूरी खोल दी।   विनीत। मैंने मन में इस नाम को दोहराया।वे एक मध्यम कद, मध्यम आयु के मोटे थोड़े थुलथुल से व्यक्ति हैं। पहली नजर में वे लावण्या से उन्नीस क्या सत्तरह ही नजर आये।फैब इंडिया का कुर्ता-पायजामा । गले में सोने का चेन और ऊंगलियों में हीरे और माणिक जड़ी अँगुठियाँ।एक हाथ में महँगा लैटेस्ट आई फोन।बायें हाथ की कलाई में रैडो की घड़ी। अमीरी की एक विशेष चमक उनके बॉडी लैंगवेज में झलक रही है।   “नमस्ते।“ “नमस्ते। आईये कभी हमारे गरीबखाने पर।“ विनीत ने अपनी अँगुठियों भरे दोनों हथेलियों को जोड़कर कहा। “आप दोनों बचपन की सहेलियाँ हैं। और एक ही शहर में । कमाल का इत्तिफाक है।ऐसी मुलाकात तो नसीबवालों की ही होती है।“ जी । मेरी आँखों में हजारों प्रश्न चिन्ह एक साथ कौंध गए।लावण्या समझ गई।उसने अपना मोबाइल नम्बर दिया।साथ में अपने घर आने का आमंत्रण भी।   मेरी बेचैनी अपने चरम पर है ।मैं घर पहुँच अपने सारे काम निपटा कर लावण्या से बात करना चाहती हूँ। पंद्रह वर्षों की सारी बातें एक दिन में ही कर लेना चाहती हूँ। अपने मन में घुमड़ते प्रश्नों का हल भी चाहती थी। मन बार-बार अतीत में लौट रहा था ।लावण्या से पहले मेरी शादी हो गई थी ।मेरी शादी के बाद  पापा का भी ट्रांसफर हो गया। जिसके कारण मेरा  उस शहर उससे जुड़े लोग भी छूट गये । शादी के बाद  लड़कियों की जिंदगी ही बदल जाती है।यहाँ तो मेरा  मायका का शहर भी बदल गया था। घर –गृहस्थी में ऐसी उलझी की सहेलियों की याद आती मगर उनसे जुड़ने का माध्यम न मिलता। आज पता चला हमदोंनो सहेलियाँ तो कई वर्षों से एक ही शहर में रह रही हैं । 2   लावण्या का मतलब जिंदगी लाइव।जिंदगी के हर रंग उसके व्यक्तिव में समाया था।वह हर वक्त किसी न किसी रंग में रमी रहती।लवण्या का मतलब लाइफ फुल ऑफ पार्टी। स्कूल-कॉलेज का हर फंक्शन उसके बिना फीका लगता।खेल , नृत्य, नाटक, पाक-कला , सिलाई-बुनाई, बागबानी, साहित्य-इतिहास, बॉटनी जुआल्जी सभी में बराबर दखल रखती।वह हर काम में आगे रहती। किसी से न डरती और हमें भी मोटीवेट करती रहती।उसका दिमाग और पैर कभी शांत नहीं रहते।हमेशा कुछ न कुछ योजना बनाते रहती। फिर उसे पूरा करने में जुट जाती। हमें भी ना ना कहते शामिल कर ही लेती।   लावण्या  हमारी  नायिका जो थी।जिस बात को करने के लिए हम लाख बार सोचते, डरते। वह बेझिझक कर आती।हो भी क्यों … Read more

मज़हब

प्रेम का कोई मजहब  नहीं होता |प्रेम अपने आप में एक मजहब  है | लेकिन क्या समज ऐसा होने देता है ? क्या धर्म की दीवारे दो प्रेमियों को एक होने से रोकती हैं | क्या धर्म परिवर्तन ही प्रेम को पा लेने का एक मात्र विकल्प है और अगर ये  विकल्प है तो अक्सर यह कारगर साबित नहीं होता | आइये पढ़ें इसी विषय पर मृणाल आशुतोष जी की हृदयस्पर्शी कहानी …. मज़हब ” ख़ुदा के वास्ते फोन मत रखना!” आवाज़ सुनते ही मैं समझ गया कि रुखसाना का फोन है। फिर भी बिना जवाब दिए मैं फोन काटने ही वाला था कि ‘ तुझे महादेव की सौगन्ध’ कानों में गूँज उठा और मेरे सामने काशी विश्वनाथ मन्दिर प्रकट से गये। उसका तीर निशाने पर बैठा और मुझे जबाब देना ही पड़ा,”बोलो, क्या चाहती हो तुम?” “अभी कहाँ हो तुम?” आदत अभी भी बदली नहीं थी। सवाल के जबाब में सवाल। ” यही शहर से कोई तीस किलोमीटर दूर। मिश्रा केमिकल्स के कंस्ट्रक्शन का काम चल रहा है।” “आधे घण्टे रुको। मैं आ रही हूँ।” “क्यों आ रही हो?” “आखिरी बार तुमसे मिलने!” “मुझे लगता है कि हम दोनों आखिरी बार मिल चुके हैं। अब मिलने का कोई फायदा नहीं।” “यह आखिरी ही होगा अगर तुम मेरे न हो सके तो।” “अब यह मुमकिन नहीं।” पर उधर से फोन कट हो चुका था। मैं सोच में पड़ गया था कि रुखसाना को मेरा नम्बर आखिर मिला तो मिला कहाँ से? उसी से बचने के लिये तो मैने अपने दोनों नम्बर बन्द कराए। यहाँ तक कि घर भी बदल लिया। फिर उसे नम्बर मिला कहाँ से? यह उधेड़बुन चल ही रहा था कि पीठ पर धप्प से एक हाथ पड़ा। पता तो था ही कि यह हाथ उसके अलावा और किसी का नहीं हो सकता। “तुम यह सोच रहे होगे कि मैंने तुम्हारा नम्बर कैसे निकाला?” “हाँ। बिल्कुल, यही सोच रहा था।” “आखिरी बार मिलने के बाद तुम्हारा फोन लगातार बन्द आ रहा था। तुम्हारे घर पर भी गयी तो पता चला कि तुमने घर बदल लिया।” “हाँ, नई जिंदगी की शुरुआत करने के लिये यह बहुत जरूरी था।” “बहुत अच्छा किया तुमने।” उसके दर्द को मैं महसूस कर रहा था। “नम्बर कहाँ से मिला? यह बता दोगी तो मेहरबानी होगी।” “सावन का महीना आ गया था। मुझे पता था कि तुम्हारी माँ सोमवार को विश्वनाथ मन्दिर जरूर आयेंगी तो सवेरे से ही मंदिर के गेट पर इंतज़ार कर रही थी। उनके आते ही पैर पकड़ ली और उनको कसम भी दे दी कि तुमको यह वाकया बताये नहीं। पर तुम इतने खडूस हो कि अलग अलग नम्बर से फोन करने के बाद भी फोन नहीं उठा रहे थे।” “अब हम कुछ मतलब की भी बात कर लें ताकि मैं भी अपने ऑफिस का कुछ काम कर सकूँ।” “तुम मुझसे शादी करोगे या नहीं?” “इसका जबाब तुमको पहले ही दे चुका हूँ।” “जब तुम्हारी माँ को कोई दिक्कत नहीं है तो तुम क्यों बड़े पण्डित बन रहे हो!” “माँ को तुमने कैसे पटाया है, मुझसे बढिया से पता है। पर मैं अपना धर्म नहीं बदलूँगा तो किसी भी कीमत पर नहीं बदलूंगा।” “मैं ही तुमसे एकतरफा मोहब्बत करती रही। सच तो यह है कि तुमने कभी मुझसे इश्क किया ही नहीं।” “तुम्हारी बातों में कितनी सच्चाई है, तुम्हरा दिल जानता है।” “मेरी खाला की ननद ने भी किसी पण्डित से प्यार किया था। फिर उसने निकाह के लिये धर्म बदला कि नहीं बदला! और एक तुम हो!” “मेरे लिये धर्म बदलना, बाप बदलने के बराबर है।” “सच तो यह है कि दोस्तों की सोहबत में आकर तुम्हें मेरे धर्म से नफरत हो गयी है।” “नफरत! हम किसी से नफरत नहीं करते।” मैं बात जल्दी से जल्दी खत्म करना चाह रहा था पर वह अपने शर्तों पर जीत हासिल करने की हरसम्भव कोशिश कर रही थी। जबकि उसे भी यह पता था कि यह मुमकिन नहीं! “अब तुम्हें पंडित होने का कुछ ज्यादा ही घमण्ड हो गया है।” “घमंड तो बिल्कुल नहीं है पर हाँ, गर्व जरूर है।” “क्या तुम मेरी खातिर, अपनी मुहब्बत की खातिर इतना भी नहीं कर सकते!” “आज़मा कर देख लेना। जरूरत पड़ने पर जान भी दे सकता हूँ!” “जान दे सकते हैं पर शादी के लिये धर्म नहीं बदल सकते। हुँह!” अब रुखसाना की आँखें नम होने लगी थीं। “एक बात बताओ। मैंने कभी तुमको कहा कि अपना धर्म बदल लो।” “तुम्हारे धर्म में ऐसी कट्टरता नहीं है न! मेरे मज़हब को तो तुम समझते हो न!” “हाँ, समझता हूं। तभी तो कह रहा हूँ  कि तुम अपने मज़हब का पालन करो और मुझे अपने धर्म का पालन करने दो।” “तो इसका मतलब यह हुआ कि आखिरकार तुम जीत ही गये “ “काश कि मैं जीत पाता! “…..” ” न मैं जीता और न ही तुम जीती! अलबत्ता मज़हब के जंग में मुहब्बत जरूर हार गई।” उसकी आँखें उसके अधरों को भिंगोने लगी थी। मेरे लिये यह देख पाना बहुत मुश्किल हो रहा था। बहुत हिम्मत जुटा कर उसके होंठ हिले,”आखिरी रुखसत से पहले गले नहीं मिलोगे!” मुझे लगा कि अब मैं भी फूट पडूँगा पर बड़ी मुश्किल से अपने ऊपर काबू रख पाया। उसने फिर दोहराया,”आखिरी रुखसत से पहले गले नहीं मिलोगे क्या!” “गैर मर्द से गले मिलते हैं क्या?” अब आँसू बेकाबू हो गये और बोझिल कदमों से मैं ऑफिस की ओर भागा। एक चीख की आवाज़ सी आयी पर अब मुड़कर देखने की हिम्मत मुझमें न थी। *** मृणाल आशुतोष जिला-समस्तीपुर (बिहार) पिन-848210 मोबाईल: 91-8010814932 ईमेल- mrinalashutosh9@gmail.com यह भी पढ़ें … नया ज़माना आएगा नीलकंठ आपको कहानी ‘मजहब’ कैसी लगी| अपने विचारों से हमें जरूर अवगत करायें | filed under-love story, religion, hindu-muslim

तपते जेठ में गुलमोहर जैसा -प्रेम का एक अलग रूप

आज आपसे ” तपते  जेठ में गुलमोहर सा  उपन्यास के बारे में  बात करने जा रही हूँ |यह  यूँ तो एक प्रेम कहानी है पर थोड़ा  अलग हट के | कहते हैं प्रेम ईश्वर की बनायीं सबसे खूबसूरत शय है पर कौन इसे पूरा पा पाया है या समझ ही पाया है | कबीर दास जी तो इन ढाई आखर को समझ पाने को पंडित की उपाधि दे देते हैं | प्रेम अबूझ है इसीलिए उसे समझने की जानने की ज्यादा से ज्यादा इच्छा होती है | प्रेम में जरूरी नहीं है कि विवाह हो | फिर भी अधिकतर प्रेमी चाहते हैं कि उनके प्रेम की परणीती विवाह मे हो |  विवाह प्रेम की सामजिक रूसे से मान्य एक व्यवस्था है | जहाँ प्रेम कर्तव्य के साथ आता है | मोटे तौर पर देखा जाए तो  किसी भी विवाह के लिए कर्तव्य प्रेम की रीढ़ है | अगर कर्तव्य नहीं होगा तो प्रेम की रूमानियत चार दिन में हवा हो जाती है  | हाथ पकड़ कर ताज को निहारने में रूमानियत तभी घुलेगी जब बच्चो की फीस भर दी हो | अम्मा की दवाई आ गयी हो | कल के खाने का इंतजाम हो | प्रेम के तिलिस्म कई बार कर्तव्य के कठोर धरातल पर टूट जाते हैं | पर ये बात प्रेमियों को उस समय कहाँ समझ आती है जब किसी का व्यक्तित्व अपने अस्तित्व पर छाने लगता है | “कितनी अजीब सी बात है ना …आपके पास तो कई सारे घर हैं …बंगला है , गाँव की हवेली है …पर ऐसी कोई जगह कोई कोना आपके पास नहीं …जहाँ आप इन पत्रों को सहेज सकें | चलो, इस मामले में तो हम दोनों की किस्मत एक जैसी ठहरी, घर होते हुए बेघर |” वैसे भी प्रेम और प्रेमियों में इतनी विविधता है कि उसे घर-गृहस्थी में पंसारी के यहाँ से लाये जाने वाले सामान  की लिस्ट या खर्चे की डायरी में दर्ज नहीं किया जा सकता | फिर तो उसकी विविधता ही खत्म हो जायेगी | ये तो किसी के लिए खर्चे की डायरी  से छुपा कर रखी गयी चवन्नी -अठन्नी भी हो सकता है तो किसी के लिए  पूरी डायरी ….एक खुली किताब | जैसे “तपते जेठ में गुलमोहर जैसा”में डॉ. सुविज्ञ का प्रेम एक ऐसा इकरार है जिसे सात तहों में छिपा कर रखा जाए तो अप्पी के लिए एक खुली किताब | और यही अंतर उनके जीवन के तमाम उतार  चढ़ाव का कारण | तपते  जेठ में गुलमोहर जैसा -प्रेम का एक अलग रूप    अगर विवाहेतर प्रेम की बात की  जाए तो ये हमेशा एक उलझन क्रीएट करता है | जिसमें फंसे दोनों जोड़े बड़ी बेचारगी से गुज़रते हैं | प्रेम की तमाम पवित्रता और प्रतिबद्धता  के बावजूद | दो जो प्रेम कर रहे हैं और दो जो अपने साथी के प्रेम को बर्दाश्त नहीं कर पा रहे हैं | सब कहीं ना कहीं अधूरे हैं | अभी कुछ समय पहले एक वरिष्ठ लेखिका की वाल पर पढ़ा था कि एक स्त्री को अपने प्रेम और अपने विवाह दोनों को सँभालने का हुनर आता है | उस समय भी मेरे अंतस में यह प्रश्न कौंधा था कि मन में प्रेम रख कर विवाह को संभालना क्या स्त्री को दो भागों में नहीं बाँटता | आज के आध्यत्मिक जगत में “Who am I ” का प्रश्न तभी आता है जब हम अपने अस्तित्व को तमाम आवरणों से ढँक लेते हैं | कुछ आवरण सामाज के कुछ अपनों के और कुछ स्वयं अपने बनाये हुए | उनके बीच में पलती हैं मनोग्रंथियाँ | प्रेम अपराध नहीं है पर भौतिक जगत के गणित में ये अपराधी सिद्ध कर दिया जाता है | इससे इतर अप्पी ने यही तो चाहा की उसका अस्तित्व दो भागों में ना बंटे | उसे समग्र रूप से वैसे ही स्वीकार किया जाए जैसी की वो है | पर ऐसा हो नहीं सका | उसका जीवन तपती जेठ सा हो गया | फिर भी उसका प्रेम गर्मी के मौसम में खिलने वाले गुलमोहर के फूलों की तरह उस बेनूर मौसम को रंगता रहा | अप्पी के इसी अनोखे प्रेम को विशाल कैनवास में उतारा है सपना सिंह जी ने  | ये कहानी शुरू होती है  पाओलो  कोएलो के प्रसिद्द  उपन्यास ‘अलेकेमिस्ट  के एक कोट से … “सूरज ने कहा, मैं जहाँ हूँ धरती से बहुत दूर, वहीँ से मैंने प्यार करना सीखा है | मुझे मालूम है मैं धरती के जरा और पास आ गया तो सब कुछ मर जाएगा …हम एक दूसरे के बारे में सोचते हैं, एक दूसरे को चाहते हैं, मैं धरती को जीवन और ऊष्मा देता हूँ , और वह मुझे अपने अस्तित्व को बनाए रखने का कारण |” मुझे लगता है कि प्रेम की एक बहुत ही खूबसूरत परिभाषा इस कोटेशन में कह दी गयी है | प्रेम में कभी कभी एक दूरी बना के रखना भी दोनों के अस्तित्व को बचाये  रखने के लिए जरूरी होता है | अभी तक तो आप जान ही गए होंगे कि ये कहानी है अप्पी यानि अपराजिता और डॉ. सुविज्ञ की | डॉ. सुविज्ञ …शहर के ख्याति प्राप्त सर्जन |मूलरूप से गोरखपुर के रहने वाले | खानदानी रईस | फिर भी उनकी पीढ़ी ने गाँव छोड़ कर डॉक्टर, इंजिनीयर बनने का फैसला किया | वो स्वयं सर्जन बने | हालांकि  पिछले दो साल से सर्जरी नहीं करते | पार्किन्संस डिसीज है | हाथ कांपता है | वैसे उनका  अपना नर्सिंग होम है | डायगोनेस्टिक सेंटर है, ट्रामा सेंटर है | कई बंगले हैं, गाडियाँ  है ….नहीं है तो अप्पी | पर नहीं हो कर भी सुबह की सैर में उनके पास रोज चली आती है भले ही ख्यालों में | “सुबह -सुबह हमें याद करना” अप्पी ने एक बार कहा था उनसे | “सुबह -सुबह ही क्यों ?”उसकी बातें उनके पल्ले नहीं पड़ती थीं | “आप इतने बीजी रहते हो …हमें काहे याद करते होगे …चलो सुबह का एपॉइंट मेंट मेरा !”  अप्पी ..पूर्वी उत्तर  प्रदेश के एक कस्बानुमा शहर में रहने वाली लड़की |साधारण परिवार की लड़की |  लम्बा कद, सलोना लम्बोतरा चेरा …बड़ी -बड़ी भौरेव जैसी आँखें व् ठुड्डी पर हल्का सा गड्ढा | शुरूआती पढाई वहीँ से … Read more