गीत अटपटे-बड़े चटपटे

गीत अटपटे बड़े चटपटे

लगभग 50 वर्षों पूर्व हिन्दी के बालसाहित्यकारों का एक बड़ा जमावड़ा उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ में हुआ था। जमावड़ा शब्द का प्रयोग मैं इसलिए कर रहा हूँ कि तब बालसाहित्य भी जमने के लिए निरंतर प्रयत्नशील था, ऐसे में इस अधिवेशन को मुझे वास्तव में जमावड़ा कहना ही अधिक प्रासंगिक लगा। इसकी सबसे बड़ी विशेषता यह थी कि इसमें उन सभी बालसाहित्यकारों की विशेष रूप से उपस्थिति थी, जो आगे चलकर बालसाहित्य में मानक बने। कुछ नाम छूटने के डर से यहाँ नामोल्लेख करना उचित प्रतीत नहीं हो रहा है। पूरे कार्यक्रम में लखनऊ के तत्कालीन बालसाहित्यकारों ने एक पाँव पर खड़े होकर जो सहयोग किया था, उसकी कल्पना से ही मन आह्लादित हो उठता है। जब मैं यह टिप्पणी लिख रहा हूँ तो उनमें से अधिकांश का स्मरण करते हुए मेरा माथा श्रद्धा से झुका जा रहा है, जो अब इस दुनिया में नहीं हैं। हुआ यह कि किसी को भी बालसाहित्य पर केन्द्रित ऐसे सफल अधिवेशन की न तो कल्पना थी, और न ही बालसाहित्य की गंभीरता को लेकर उठाए गए सवालों पर गंभीर विमर्श की उम्मीद थी। यह अच्छा रहा कि आज बालसाहित्य के नाम पर चहलकदमी करने वाले लोग तब तो इस क्षेत्र में आए ही नहीं थे। कुछ लोग जरूर दूर से ही तमाशा देख रहे थे। विष्णुकांत पांडेय : गीत अटपटे-बड़े चटपटे इस पूरे कार्यक्रम को लेकर दिनमान में एक रिपोर्ट छपी —–चमकदार अस्तबल: कमज़ोर घोड़े। महत्त्वपूर्ण बात यह है कि इस रिपोर्ट को जिसने लिखा था, वह कोई छोटा- मोटा साहित्यकार नहीं था, साहित्य जगत में उसके नाम की तूती बोलती थी। तीसरा सप्तक का वह कवि बालसाहित्य में भी बराबर की दखल रखता था। आगे चलकर उसने पराग जैसी बच्चों की प्रतिष्ठित पत्रिका का संपादन भी किया। उसका नाम था —-सर्वेश्वरदयाल सक्सेना , और वे दिनमान में नियमित चरचे और चरखे स्तंभ लिखा करते थे। (पाठक इस स्तंभ में छपी सामग्री सर्वेश्वरदयाल सक्सेना ग्रंथावली के भाग 8-9 में पढ़ सकते हैं)। इसके छपते ही पहले दबी जुबान से फिर मुखर रूप में हंगामा शुरू हो गया। मोतिहारी बिहार के साहित्यकार विष्णुकांत पांडेय उस समय परिकल्पना पत्रिका निकालते थे। उन्होंने इसका मुख्य रूप से विरोध किया, तथा आगामी बालसाहित्य की क‌ई संगोष्ठियों में भी यह चर्चा मुखर रही। यह बात मैं इसलिए कह रहा हूँ कि मुझे विष्णुकांत पांडेय की पांडुलिपि बालसाहित्य विवेचन पढ़ने को सन् 1982-83 में निरंकारदेव सेवक के घर पर बरेली में मिली थी। उस पांडुलिपि को बिहार सरकार ने पुरस्कृत भी किया था, मगर पांडुलिपि पुस्तक के रूप में कभी छप नहीं सकी। इसकी चर्चा मैंने सन् 1992 में प्रकाशित अपनी पुस्तक हिन्दी बाल पत्रकारिता: उद्भव और विकास में किया है। कुछ लोग विष्णुकांत पांडेय को बालसाहित्य का दुर्वासा भी कहते थे, लेकिन सही अर्थों में वे दुर्वासा इसलिए थे कि उन्हें गलत बात किसी भी कीमत पर बर्दाश्त नहीं थी। उनके शिशुगीतों की खूब चोरी हुई है। ऐसे क‌ई लेखकों पर उन्होंने कानूनी कार्रवाई भी की थी, वकील की नोटिस भिजवाई थी। उ.प्र. हिन्दी संस्थान, लखनऊ के कार्यक्रम में जब वे लखनऊ आए थे, तो मेरी उनसे क‌ई मुद्दों पर बात हुई थी। एक लेखक ने उनके शिशुगीतों की पूरी पुस्तक ही अपने नाम से छपवा ली थी। इसकी जानकारी मुझे थी। जब चर्चा चली तो वे आगबबूला हो गए थे। उनका गुस्सा जायज़ था। उन्हें पेसमेकर लगा था, इसलिए उन्हें ज़्यादा छेड़ना मैंने उचित नहीं समझा। दरअसल, इस भूमिका की पीछे असली तथ्य यह था कि पहले विष्णुकांत पांडेय की साहित्यिक रचनात्मकता, मान्यताओं और प्रवृत्तियों को समझ लिया जाए, फिर उनके शिशुगीतों पर चर्चा की जाए,ताकि पाठक समझ जाएँ कि वैसे साहित्यकार संवेदनशील होता है, मगर जब बात आत्मसम्मान की आ जाए तो फिर वह किसी भी कीमत पर समझौता नहीं करता है। ऐसे गुणी, आत्मसम्मानी और बालसाहित्य के लिए प्राणप्रण से लगे रहने वाले साहित्यकार विष्णुकांत पांडेय ने वैसे तो बालसाहित्य की अनेक विधाओं में लेखन किया है, मगर उनके शिशुगीतों का कोई सानी नहीं है। यह कहना बड़ा कठिन है कि हिन्दी का पहला शिशु गीत कौन सा है, परन्तु इतना निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि हिन्दी में शिशु गीतों का आरंभ स्वतंत्रता प्राप्ति के पूर्व ही हो गया था और छठवें दशक तक आते-आते अनेक रोचक और महत्त्वपूर्ण शिशु गीत लिखे ग‌ए। शिशु गीतों को एक सफल मंच प्रदान करने का श्रेय बच्चों की सुप्रसिद्ध पत्रिका पराग को है। पराग में पूरे दो पृष्ठों में शिशु गीत आकर्षक साज-सज्जा के साथ प्रकाशित किए जाते थे। शिशुगीतों के सृजन और चयन के पीछे संपादक की अपनी गहरी सूझबूझ होती थी। संपादक आनंदप्रकाश जैन की यह टिप्पणी बड़ी महत्त्वपूर्ण है:—– “पिछले कई वर्षों से पराग में शिशुगीत छापे जा रहे हैं। इन शिशुगीतों के चयन में बड़ी सावधानी बरती जाती है क्योंकि शुद्ध शिशुगीत लिखना उतना आसान नहीं है जितना समझा जाता है। इसलिए अच्छे शिशु गीत बहुत कम लिखे जा रहे हैं। शिशुगीत ऐसे होने चाहिए कि इन्हें 4 से 6 साल तक के बच्चे आसानी से ज़बानी याद कर लें और अन्य भाषा-भाषी बच्चे और बड़े भी इनका आनंद ले सकें। इनसे मुहावरेदार हिन्दी सरलता से जु़बान पर चढ़ जाती है।” – पराग: अक्टूबर 1996: पृष्ठ 52 शिशुगीतों के सबसे बड़ी विशेषता यह है कि उसमें कुछ ऊलजलूलपन (नॉनसेंस) हो। उनकी यही विशेषता शिशुओं को अपनी ओर आकर्षित करती है। शिशु गीतों में एक और महत्त्वपूर्ण बात है-भाषा के चयन की, परंतु पराग के भूतपूर्व संपादक आनंदप्रकाश जैन कहते हैं —शिशुगीतों की भाषा कोई भी हो, उनकी पहली शर्त यही है कि उनमें कुछ ऐसा अटपटापन हो जो बरबस ही गुदगुदाए, खास तौर पर बच्चों के सरल बोध को और उन बड़ों को भी ,जिनकी प्रवृत्ति बच्चों के समान हो। वास्तव में अटपटे शिशुगीतों का अपना चटपटा संसार होता है। इतना तो तय है कि शिशुगीतों को बहुत शाश्वत बंधन में बाँधकर नहीं लिखा जा सकता है। अटपटेपन के साथ-साथ, खट्टे-मीठे चटपटेपन का स्वाद देने वाले शिशुगीतों की अपनी ही परिभाषा है और अपनी ही विशेषता। इनसे बच्चे बिना रोक-टोक के आनंद लें, यही शिशु गीतों का मूल-मंतव्य भी है। हिन्दी में लगभग सभी बालसाहित्यकारों ने शिशुगीतों का सृजन किया है, परंतु जो बात विष्णुकांत पांडेय के शिशुगीतों में … Read more

कोई शॉर्टकट नहीं दीर्घकालीन साधना है बाल साहित्य लेखन -भगवती प्रसाद द्विवेदी

  यूँ तो साहित्य लेखन ही जिम्मेदारी का काम है पर बाल साहित्य के कंधे पर यह जिम्मेदारी कहीं ज्यादा महती है क्योंकि यहाँ पाठक वर्ग एक कच्ची स्लेट की तरह है, उसके मन पर जो अंकित कर दिया जाएगा उसकी छाप से वो जीवन भर मुक्त नहीं हो सकता l आज इंटरनेट पीढ़ी में जब दो ढाई महीने के बच्चे को चुप कराने  के लिए माँ मोबाइल दे देती है तो उसे संस्कार माता-पिता से नहीं तमाम बेहूदा, ऊल-जलूल रील्स या सामग्री से मिलने लगते हैं l ऐसे में बाल साहित्य से बच्चों को जोड़ना एक कड़ी चुनौती है l  जहाँ उन्हें मनोरंजन और ज्ञान दोनों मिले और बाल साहित्य को दिशा कैसे मिले ? आइए जानते हैं ऐसे तमाम प्रश्नों के उत्तर सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार भगवती प्रसाद द्विवेदी जी से, जिनसे बातचीत कर रही हैं कवि-कथाकार वंदना बाजपेयी l सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार भगवती प्रसाद द्विवेदी जी से कवि -कथाकार वंदना बाजपेयी की बातचीत कोई शॉर्टकट नहीं गंभीर साधन है बाल साहित्य लेखन  प्रश्न- नमस्कार सर ! मेरा आपसे पहला प्रश्न है कि आप रसायन विज्ञान के छात्र रहे हैं, फिर साहित्य में आपका आना कैसे हुआ ? कहाँ और क्षार की शुष्कता और कहाँ साहित्यिक भावुकता की अनवरत बहती धारा l सुमित्रानंदन पंत की पंक्तियों “आह से उपजा होगा ज्ञान” का आश्रय लेते हुए मेरी सहज जिज्ञासा है कि वो कौन सी घटना थी जिससे आपके मन में साहित्य सृजन का भाव जागा? भगवती प्रसाद द्विवेदी जी – वंदना जी! मैं विज्ञान का विध्यार्थी  जरूर रहा, क्योंकि वो दौर ही ऐसा था कि शिक्षा के क्षेत्र में मेधावी व प्रतिभाशाली छात्रों को अमूमन अभिवावक विज्ञान ही पढ़ाना चाहते थे l मेरे साथ भी वही हुआ l हालांकि साहित्य और संस्कृति में मेरी बचपन से ही अभिरुचि रही l महज़ डेढ़ साल की उमर में ही मैं अपनी माँ को खो चुका था l दादी मुझे एक पल को भी खुद से दूर नहीं करना चाहती थीं और उन्होंने ही मेरी परवरिश की थी l फिर भी होश संभालने पर मैं आहिस्ता-आहिस्ता अंतर्मुखी होता चला गया था और शिशु सुलभ चंचलता खेलकूद आदि से मैं प्रायः दूर ही रहता था l रात को जब मैं दादी के साथ सोता, वे रोज बिना नागा लोककथाएँ, पौराणिक कथाएँ आदि सुनाया करती थीं और मैं उन कथाओं के अनुरूप जार-जार आँसू बहाने लगता तो कभी प्रसंगानुरूप आल्हादित भी हो उठता l उन कथा- कहानियों से जुड़कर मैं तरह-तरह की कल्पनाएँ किया करता था l संभवतः दादी की इन वाचिक कथाओं से ही मेरे भीतर सृजन का बीजारोपण  हुआ  होगा l   प्रश्न- आज आप साहित्य जगत के स्थापित नाम हैं l जबकि आपने विज्ञान से साहित्य की दिशा में प्रवेश किया है तो जाहिर है कि आपकी यहाँ तक की यात्रा सरल नहीं रही होगी l कृपया अपने संघर्षों से हमें अवगत कराएँ ? भगवती प्रसाद द्विवेदी जी – मैं तो खुद को आज़ भी विद्यार्थी ही मानता हूँ और बच्चों और बड़ों से कुछ न कुछ नया सीखने की कोशिश करता हूँ l मगर मैंने विज्ञान से साहित्य में प्रवेश नहीं किया l बचपन से ही मैंने साहित्य रचते हुए विज्ञान की पढ़ाई की l छठी कक्षा से ही लेखन और प्रकाशन का सिलसिला प्रारंभ हो गया था l उसी का परिणाम था कि हिन्दी संकाय के छात्र- छात्राओं के बावजूद स्कूल कॉलेज कि पत्र-पत्रिकाओं के सम्पादन में बतौर छात्र संपादक मेरी ही सेवाएँ ली जाती थीं l विज्ञान ने ही प्रगतिशील सोच के साथ ही रूढ़ियों और अंधविश्वास से मुक्त होने की दृष्टि दी l साथ ही लेखन, व्याख्यान में मुझे अनावश्यक विस्तार के स्थान पर “टू द पॉइंट” में विश्वास दृण हुआ l मेरी आस्था स्वाध्याय व सृजन में रही, किसी वाद-विवाद में नहीं l जहाँ तक संघर्ष का सवाल है वो बाल्यकाल से लेकर आज तक अनवरत जारी है l अनेक व्यवधानों के बावजूद अध्ययन और सरकारी सेवा के दौरान भी मैंने इस लौ को मद्धिम नहीं होना दिया l   प्रश्न- आपने लगभग हर विधा में अपनी कलम का योगदान देकर उसे समृद्ध किया है l बच्चों के लिए लिखने यानि बाल साहित्य की ओर आपका रुझान कब और कैसे हुआ ?   भगवती प्रसाद द्विवेदी जी- मेरा यह मानना है कि बाल साहित्य लेखन की कसौटी हैl अतः हर रचनाकार को बच्चों के लिए जरूर लिखना चाहिए, मगर जैसे -तैसे नहीं, पूरी जिम्मेदारी के साथ l जिन दिनों मेरा दाखिला, जूनियर हाई स्कूल रेवती में हुआ, वहाँ की एक स्वस्थ परिपाटी ने मुझे बहुत प्रभावित किया l प्रत्येक शनिवार को विद्यालय में बाल सभा हुआ करती थी, जिसमें हर बच्चे को कुछ न कुछ सुनाना होता था l कोई चुटकुला सुनाता, तो कोई पाठ्य पुस्तक की कविता सुनाता l रात में मैंने एक बाल कहानी लिख डाली और बाल सभा में उसकी प्रस्तुति कर दी l जब शिक्षक ने पूछा, किसकी कहानी है ये? तो मैंने डरते-डरते कहा, “गुरु जी, मैंने ही कोशिश की है l” तो उन्होंने उठकर मेरी पीठ थपथपाई “अच्छी” है! ऐसी कोशिश लगातार करते रहो l”  फिर तो मेरा हौसला ऐसा बढ़ा कि हर शनिवार को मैं एक कहानी सुनाने लगा और कुछ ही माह में “चित्ताकर्षक कहानियाँ” नाम से एक पांडुलिपि भी तैयार कर दी l मगर गुरुजी ने धैर्य रखने की सलाह दी और पत्र-पत्रिकाओं में कहानियाँ भेजने की सलाह दी l आमतौर पर लेखन की शुरुआत कविता से होती है पर मेरी तो शुरुआत ही कहानी से हुई l मेरी पहली कहानी ही प्रकाशन विभाग की पत्रिका ‘बाल भारती’ में प्रकाशित हुई l जब पत्रिका और पारिश्रमिक की प्राप्ति हुई तो मेरी खुशी का पारावार ना रहा l फिर तो समर्पित भाव से लिखने और छपने का सिलसिला कभी थमा ही नहीं l   प्रश्न –4 आज का समाज बाजार का समाज है l पैसे और पैसे की दौड़ में मनुष्य भावनाहीन रोबोट बनता जा रहा है l इससे साहित्यकार भी अछूता नहीं रह गया है l बड़ों की कहानियों में विसंगतियों को खोजना और उन पर अपनी कलम चलाना कहीं सहज है पर ऐसे समय और समाज में बाल मन में प्रवेश करना कितना दुष्कर है ? भगवती प्रसाद द्विवेदी जी-  बहुत ही सही और जरूरी सवाल … Read more

सुनो कहानी नई पुरानी -कहानियों के माध्यम से बच्चों को संस्कृति से जोड़ने का अभिनव प्रयास

“मम्मी इस घर का एक रूल बना दीजिए कि चाहे जो भी हो जाए इस फॅमिली का कोई मेम्बर एक-दूसरे से बात करना बंद नहीं कर सकता है l” यूँ तो साहित्य लेखन ही जिम्मेदारी का काम है पर बाल साहित्य के कंधे पर यह जिम्मेदारी कहीं ज्यादा महती है क्योंकि यहाँ पाठक वर्ग एक कच्ची स्लेट की तरह है, उसके मन पर जो अंकित कर दिया जाएगा उसकी छाप से वो जीवन भर मुक्त नहीं हो सकता l आज इंटरनेट पीढ़ी में जब दो ढाई महीने के बच्चे को चुप कराने के लिए माँ मोबाइल दे देती है तो उसे संस्कार माता-पिता से नहीं तमाम बेहूदा, ऊल-जलूल रील्स या सामग्री से मिलने लगते हैं l ऐसे में बाल साहित्य से बच्चों को जोड़ना क कड़ी चुनौती है l जहाँ उन्हें मनोरंजन और ज्ञान दोनों मिले l किरण सिंह जी के बाल साहित्य के लेखन में ये अनुपम समिश्रण देखने को मिलता है l बाल साहित्य पर उनकी कई पुस्तकें आ चुकी हैं और सब एक से बढ़कर एक है l उनका नया बाल कहानी संग्रह “सुनो कहानी नई पुरानी” इसी शृंखला की एक महत्वपूर्ण कड़ी है l सुनो कहानी नई पुरानी -कहानियों के माध्यम से बच्चों को संस्कृति से जोड़ने का अभिनव प्रयास   संग्रह के आरंभ में बच्चों को लिखी गई चिट्ठी में वो अपनी मंशा को स्पष्ट करते हुए लिखती हैं कि, “कहानियाँ लिखते समय एक बात मन मिएन आई, क्यों नाइन कहानियों के माध्यम से आपको संस्कृति से जोड़ा जाएl” वनिका पब्लिकेशन्स से प्रकाशित 64 पेज के इस बाल कहानी संग्रह में 14 कहानियाँ संकलित हैं l जैसा की नाम “सुनो कहानी नई पुरानी” से स्पष्ट है किरण सिंह जी ने इस बाल् कहानी संग्रह कुछ नई कहानियों के माध्यम से और कुछ पौराणिक कहानियों के माध्यम से बच्चों को अपनी संस्कृति से जोड़ने का अभिनव प्रयास किया है l इससे पहले वो ‘श्री राम कथमृतम के द्वारा सरल गेय छंदों में श्री राम के जीवन प्रसंगों को बच्चों तक पहुँचाने का महत्वपूर्ण काम कर चुकी हैं l कहीं ना कहीं पाश्चात्य संभयता और संस्कृति के बढ़ते प्रभाव के कारण बच्चे अपने पूर्वजों के गौरव को भूलते जा रहे हैं l हमने वो समय भी देखा है, जब ये व्यंग्य खूब प्रचलित था बच्चे ये प्रश्न करते हैं कि, “सीता किसका बाप था ?” बात हँस कर टालने की नहीं, अपितु गंभीर चिंतन की थी क्योंकि व्यंग्य समाज की विसंगतियों पर प्रहार ही होते हैं l पर दुर्भाग्य से इस ओर विशेष कदम नहीं उठाए गए l एक क्रूर सच्चाई ये भी है कि आज के माता- पिता को खुद ही नहीं पता है तो वो बच्चों को क्या बताएंगे l किरण सिंह जी इसे एक बहुत ही रोचक अंदाज में कहानियों के माध्यम से बुना है lफिर चाहें वो दीपावली क्यों मनाई जाती है ? मीरा का श्याम में अद्भुत विलय हो या जिज्ञासु नचिकेता के बाल सुलभ प्रश्न पूछने और जिज्ञासाओं को शांत कर ज्ञान अर्जित करने की कथा हो l हर कथा को इस तरह से बुना गया है कि आज के बच्चे जुड़ सकें l जैसे कृष्ण-सुदामा की कहानी वहाँ से शुरू होती है, जहाँ दक्ष अपने दोस्त की शिकायत करता है कि वो उसका टिफिन खा जाता है l वो उसे मोंटू भी कहता है l माँ कृष्ण सुदामा के माध्यम से दोस्ती के अर्थ बताती हैं l दक्ष को समझ आता है और उसे अपनी गलती का अहसास भी होता है कि उसे अपने दोस्त को “मोंटू” नहीं कहना चाहिए, उसे उसके नाम ‘वीर’ से ही बुलाना चाहिए l वहीं दक्ष की बर्थ डे पार्टी में आया वीर भी वादा करता है कि वो अब दूसरे बच्चों का टिफिन नहीं खाएगा बल्कि खेल कूदकर योग करके खुद को पतला करने की कोशिश करेगा l ये कहानी मुझे इस लिए बेहद अच्छी लागि क्योंकि इसमें कृष्ण-सुदामा की कथा के माध्यम से दोस्ती के सच्चे अर्थ तो बताए ही, बच्चों को किसी दूसरे पर कोई टैग लगाने या बॉडी शेमिंग की प्रवत्ति पर भी प्रहार है l वहीं स्वास्थ्यकर खाने और योग से फिट रहने की समझ पर भी जोर दिया गया है l इस संग्रह में केवल पुरानी कहानियाँ ही नहीं हैं कुछ बिल्कुल आज के बच्चों, और आज के समय को रेखांकित करती कहानियाँ भी हैं l जैसे रौनक ने अपने छोटे भी चिराग के बात-चीत बंद कर दी l छोटू चिराग से भैया की ये चुप्पी झेली नहीं गई l अब बंद बातों के तार जुड़ें कैसे ? लिहाजा उसने मम्मी से गुजारिश कर घर में ये रूल बनवा दिया कि घर में किसी का किसी से झगड़ा हो जाए तो कोई बात-चीत बंद नहीं करेगा l वहीं रौनक ने भी रूल बनवा दिया कि “कोई किसी की चुगली नहीं करेगा l”यहाँ लेखिका बच्चों के मन में ये आरोपित कर देती हैं कि आपसी रिश्तों को सहज सुंदर रखने के लिए संवाद बहुत जरूरी है l “कुछ दाग आच्छे होते हैं कि तर्ज पर कहूँ तो “ऐसे रूल भी अच्छे होते हैं l” रोज रात में दादी की कहानी सुनने की आदी गौरी के माता-पिता जब दादी की तबीयत खराब होने पर गौरी को कहानी ना सुनाने को कहते हैं ताकि उनके ना रहने पर गौरी के कोमल मन पर असर ना पड़ें तो दादी चुपक से टेक्नोलॉजी का सहारा लेकर अपनी कहानियों को पोती के लिए संरक्षित कर देती हैंl यह प्रयोग मन को भिगो देता है l नए जमाने के साथ चलती ये कहानी बाल मन के साथ साथ बुजुर्गों को भी अवश्य बहाएगी और दिशा देगी l बाल कहानियाँ लिखते हुए किरण सिंह जी ने इस बात में पूरी सतर्कता रखी है कि भाषा, शिल्प, शैली आज के बच्चों के अनुरूप हो l कहानी में छोटे-छोटे, रोचक, और बहुत सारे संवादों का प्रयोग कर उसकी पठनीयता को बढ़ाया है l हर कहानी में मजे- मजे में एक शिक्षा नत्थी करके बाल मन को संस्कारित करने का प्रयास किया है l वनिका पब्लिकेशन की मेहनत संग्रह में साफ दिखती है l कागज़, बच्चों को आकर्षित करते चित्र और प्रूफ रीडिंग हर दिशा में नीरज जी और उनकी टीम की मेहनत स्पष्ट नजर आती है l कवर … Read more