गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 6

गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 6

    आत्मकथा लेखन में ईमानदारी की बहुत जरूरत होती है क्योंकि खुद के सत्य को उजागर करने के लिए साहस चाहिए साथ ही इसमें लेखक को कल्पना को विस्तार नहीं मिल पाता | उसे कहना सहज नहीं होता | बहुत कम लोग अपनी आत्मकथा लिखते हैं | बीनू दी ने यह साहसिक कदम उठाया है | बीनू भटनागर जी की आत्मकथा “गुज़रे हुए लम्हे “को आप अटूट बंधन.कॉम पर एक श्रृंखला के रूप में पढ़ पायेंगे | गुज़रे हुए लम्हे -परिचय गुजरे हुए लम्हे -अध्याय 1 गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 2 गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 3 गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय चार गुज़रे हुए लम्हे अध्याय -5 अब आगे ….       गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 6 मुश्किल वक़्त में धैर्य (काज़ीपेट, शोलापुर, सिकंद्राबाद 1972 से 1978)     मुझे लेने ये ओबरा आये और थे ,ग्वालियर  तीन चार दिन रुककर हम काज़ीपेट पहुँच गये थे। इस बीच कोरे गाँव से इनका तबादला काज़ीपेट (आंध्र प्रदेश) हो चुका था, ये सामान सहित वहाँ पहुँच गये थे। काज़ीपेट दरअसल शहर था ही नहीं, रेलवे के महत्व के अलावा,रेलवे के स्टाफ के अलावा, वहाँ कुछ था ही नहीं, पास में वारंगल शहर था। धीरे धीरे गृहस्थी का सामान जुड़ रहा था। वहाँ कोई सरकारी बड़ा मकान खाली नहीं था तो हमें दो कमरों के दो क्वाटरबराबर बराबरलगे हुए मिल गये जिनको एक कमरे से जोड़ दिया गया था। जगह की कमी नहीं थी पर अजीब  लगता था। एक लाइन में चार कमरे दो आँगन दो रसोई। काज़ीपेट में मुझे और तनु दोनों को चिकन पाक्स निकली थी। जब मुझे चिकन पॉक्स हुई तो इनके एक सहकर्मी मित्र और उनकी पत्नी तनु को अपने घर ले गये फिर भी बचाव नहीं हुआ। मैं वहाँ काफ़ी बीमार हुई। इन्होंने तनु को बहुत संभाला था। सिकंद्राबाद( आंध्र)  जाकर चैक-अप और इलाज हुआ। मैं धीरे धीरे ठीक हो गई। काज़ीपेट हम कुछ महीने ही रहे होंगे वह भी बीमारियों में घिरे रहे, साल भर से पहले ही पदोन्नति पर इनकातबादला शोलापुरहो गया। शोलापुर महाराष्ट्र का चौथा या पाँचवाँ बड़ा शहर हैमुंबई, पुने,  नागपुर और कोल्हापुर के बाद,  उस समय ये दक्षिण मध्य रेलवे में था। मुंबई से सिकंद्राबाद या अन्य दक्षिण के शहरों को जाने वाली लाइन पर शोलापुर शहर स्थित है। यहाँ के बैडकवर बहुत मशहूर हैं और बहुत सी कपड़ा मिलें भी वहाँ थी। ।यहाँ हमें पुराना मगर काफ़ी बड़ा बंगला मिल गया था। हम ख़ुश थे और धीरे धीरे गृहस्थी का सामान जोड़ रहे थे।   शोलापुर आने के बाद जून 1972 में हमें एक ऐसा झटका लगा जिसको सोचना भी अब नहीं चाहते। हमारी प्यारी बेटी तनु को अकस्मात बुखार आया और दोनों पैरो में पोलियो हो गया। यद्यपि उस समय पोलियो की बूँदें पिलाई जाने लगी थीं पर कुछ ने कहा था कि साल अंदर पिला दो।  काज़ीपेट में सुविधा थी नहीं और शोलापुर आठ महीने की आयु में ये हो ही गया था, जिस समय बच्चा पकड़कर चलना शुरू करता है,यह वही आयु थी। वहाँ रेलवे के अस्पताल में भर्ती रखा फिर मुंबई भी दो तीन बार गये पर कुछ फर्क नहीं पड़ा। मैं तो विक्षिप्त  सी हो गई थी, परंतु इन्होंने कभी डाँटकर ,कभी समझाकर मुझे इस विकट परिस्थिति  का सामना करने के लिये तैयार किया। धीरे धीरे बदली हुई परिस्थिति  के लिये हम अपने को तैयार कर रहे थे, फिर भी व्याकुलता अपनी चरम सीमा पर थी। कोई कुछ भी कहता हम मान लेते थे। सत्य साईं बाबा के आश्रम पुट्टपर्थी गये,  किसी ने कोई डाक्टर गोवा में बताया, वहाँ भी गये। केरल का आयुर्वेदिक इलाज भी किया। अब तक हम झटके के बाद मजबूत हो चुके थे, इसलिये जहाँ भी इलाज के लिये जाते कोई उम्मीद लेकर नहीं जाते थे। इलाज के बाद कुछ पर्यटन भी हो जाता था। इसको लेकर हमने गोवा और केरल के काफ़ी स्थान देख लिये ।   जब परेशानी में होते है तो हर एक की बात मान लेते हैं। हम पुट्टापर्थी सत्य सांई बाबा के आश्रम में भी गये पर कोई श्रद्धा नहीं उभरी वे एक जादूगर से ज्यादा नहीं लगे। हमारे घर में राधास्वामी सत्संग का माहौल था, मैंने कोशिश की पर मन ज़रा भी नहीं लगा।  लखनऊ के एक वैद्य ने भी कानपुर में पोलियो से ग्रस्त बच्चों के लिये शिविर लगाया था, तब तक भैया भी लखनऊ नहीं आये थे मैं उस शिविर में 15 दिन रही थी। बाद तक भी उन वैद्य का इलाज किया था। मुंबई में एक ज्योतिषी ने त या ट से नाम रखने की सलाह दी थी तो इसका नाम तनुजा रख दिया। जिन चीज़ों पर विश्वास न हो वह भी हम कर लेते हैं किसी करिश्मे की उम्मीद में!   केरल में पालघाट ज़िले  में इनके एक सहयोगी का घर था, उन्होंने वहीं पर आयुर्वेदिक इलाज का प्रबंध करवा दिया था। वहाँ से हम मलमपुज़ाडैम गये जहाँ बहुत खूबसूरत गार्डन था पता नहीं क्यों वह आजकल केरल के पर्यटन स्थलों की सूची में नहीं है। गुरुवयूर  मंदिर देखा। त्रिवेंद्रम में भी इनके सहयोगी मित्र के माता पिता के आतिथ्य में रहे। कन्याकुमारी उस समय बहुत सुंदर था। इतने होटल दुकानें नहीं थे। एक स्थान पर खड़े रहकर महसूस होता था कि एक तरफ बंगाल की खाड़ी है और दूसरी तरफ़ अरब सागर।  एक ही स्थान से सूर्योदय और सूर्यास्त समुद्र में देखने के अनूठा अनुभव था। केरल से हम बंगलौर आये वहाँ स्थानीय भ्रमण करने के बाद मैसूर गये। मैसूर के वृंदावन गार्डन दिन में और रात में देखे और कश्मीर की तरह यहाँ भी ऐसा लगा कि कई फिल्मों के गीतों का छायांकन वहाँ हुआ था।मैसूर का महल भी देखा था।   हम गोवा भी गये थे ट्रेन का अंतिम स्टेशन वास्को था ,पूना से वास्को तो पहुँच  गये परन्तु वास्को से पणजी पहुँचना आसान नहीं था, रास्ते में एक नदी फैरी से पार करनी पड़ती थी, दूसरी ओरजहाँफैरी ने उतारा वह बड़ी सुनसान जगह थी। अंतिम बस पकड़ कर पणजी पहुँचे थे। बस स्टैंड पर टैक्सी औटो मिलने मेंमुश्किल हुई, फिर एक सहयोगी मित्र को फोन किया, तब उन्होंने वहाँ से सर्किट हाउस पहुँचाने के लिये प्रबंध किया, जहाँ हमारे लिये कमरा आरक्षित था। काम हो जाने के … Read more