हवा का झोंका थी वह -स्त्री जीवन के यथार्थ की प्रभावशाली अभिव्यक्ति    

हवा का झोंका थी वह

     समकालीन कथाकारों में अनिता रश्मि किसी परिचय की मोहताज़ नहीं है। हवा का झोंका थी वह अनिता रश्मि का छठा कहानी संग्रह है। इनके दो उपन्यास, छ: कहानी संग्रह सहित कुल 14 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। इनकी रचनाएँ निरंतर देश की लगभग सभी पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रही हैं। इस संग्रह में 14 कहानियाँ संग्रहीत हैं। अनिता रश्मि ने स्त्री विमर्श के विविध आयामों को सरई के फूल तथा हवा का झोंका थी वह संग्रहों की कहानियों के माध्यम से सफलतापूर्वक हमारे सामने प्रस्तुत किया हैं। अनिता रश्मि ने स्त्री पीड़ा को, उसकी इच्छाओं, आकांक्षाओं, भावनाओं और सपनों को अपनी कहानियों के माध्यम से चित्रित किया हैं। इस संग्रह की कहानियों में स्त्रियों के जीवन की पीड़ा, उपेक्षा, क्षोभ, संघर्ष को रेखांकित किया है और साथ ही समाज की विद्रूपताओं को उजागर किया है। इन कहानियों का कैनवास काफ़ी विस्तृत हैं। ये कहानियाँ मध्यवर्गीय जीवन से लेकर निम्न वर्ग तक के जीवन की विडंबनाओं और छटपटाहटों को अपने में समेटे हुए है। इन कहानियों में यथार्थवादी जीवन, पारिवारिक रिश्तों के बीच का ताना-बाना, आर्थिक अभाव, पुरूष मानसिकता, स्त्री जीवन का कटु यथार्थ, बेबसी, शोषण, उत्पीड़न, स्त्री संघर्ष, स्त्रीमन की पीड़ा, स्त्रियों की मनोदशा, नारी के मानसिक आक्रोश आदि का चित्रण मिलता है। संग्रह की सभी कहानियाँ मानवीय संवेदनाओं को चित्रित करती मर्मस्पर्शी, भावुक है। इस संग्रह की कहानियाँ जिंदगी की हकीकत से रूबरू करवाती है। लेखिका अपने आसपास के परिवेश से चरित्र खोजती है। कहानियों के प्रत्येक पात्र की अपनी चारित्रिक विशेषता है, अपना परिवेश है जिसे लेखिका ने सफलतापूर्वक निरूपित किया है। अनिता रश्मि की कहानियों में सिर्फ पात्र ही नहीं समूचा परिवेश पाठक से मुखरित होता है।  हवा का झोंका थी वह -स्त्री जीवन के यथार्थ की प्रभावशाली अभिव्यक्ति     संग्रह की पहली कहानी हवा का झोंका थी वह नारी की संवेदनाओं को चित्रित करती आदिवासी स्त्री मीनवा की एक मर्मस्पर्शी, भावुक कहानी है जो विपरीत परिस्थितियों में भी हँसते मुस्कराते घरेलु नौकरानी का काम करती है। मीनवा एक बिंदास स्त्री है। आँखें एक मध्यम वर्गीय परिवार की कहानी है। पायल और सुमंत लीव इन रिलेशनशिप में रहते हैं। पायल शादी इसलिए नहीं करना चाहती क्योंकि वह अपने माता-पिता को हमेशा लड़ते-झगड़ते हुए देखती है। लेकिन कुछ ही सालों में पायल अनुभव करती है कि वह अपनी माँ में और सुमंत उसके पापा में परिवर्तित हो रहा है तो पायल सुमंत से शादी करने का फैसला करती है। सुविधाओं को प्राप्त करने के लिए हम कोल्हू के बैल की तरह जूते रहते हैं लेकिन क्या ये सुविधाएँ हमें खुशियाँ देती है? इस प्रश्न का उत्तर जिस दिन हमें मिल जाएगा उस दिन हम भी इस कहानी के पात्रों मथुरा, जिरगी और कजरा की तरह कोलतार की तपती सड़क पर मुस्कुरा उठेंगे। शहनाई कहानी संगीत की दुनिया में ले जाती है। निशांत अपने बेटे अंकुल की मृत्यु के पश्चात टूट जाता है और उसके हाथ से शहनाई छूट जाती है। निशांत के सैकड़ों शिष्य देश विदेश में निशांत का नाम रोशन कर रहे है लेकिन निशांत अपने बेटे के निधन से उबर नहीं पा रहा था। एक दिन अचानक जब निशांत की मुलाक़ात शहनाई पर बेसुरी तान निकालते हुए प्रकाश पर पड़ती है तो निशांत को प्रकाश में अपना बेटा अंकुल दिखता है और निशांत प्रकाश को शहनाई पर सुर निकालने का प्रशिक्षण देता है और निशांत वापस संगीत की दुनिया में लौट आता है।   एक नौनिहाल का जन्म एक आदिवासी युवक वृहस्पतिया की कहानी है। वृहस्पतिया अमीर बनने के लिए अपने सीधे सादे पिता की ह्त्या कर देता है। वह न तो दूसरों के खेतों पर मजदूरी करता है, न ही अपनी किडनी बेचता है और न ही आत्महत्या करता है। वह अमीर होने के लिए अफीम की खेती करता है और एक बड़ी जमीन का मालिक बन जाता है। लेकिन वह पुलिस के डर से इधर उधर भागता रहता है। उस घर के भीतर एक ऐसे माता पिता की कहानी है जो अपने अर्धविक्षिप्त, विकलांग बेटे को घर के अंदर बाँध कर रखते है। इनके पडोसी को इस तरह की हरकत अमानवीय लगाती है और वह इनको एक पत्र लिखता है कि आप अपने बेटे को खुले वातावरण में सांस लेने दो, फिर देखो कि तुम्हारा बेटा कैसे खिल उठेगा। वह अर्धविक्षिप्त, विकलांग बेटे को अपने बेटे के साथ खेलने के लिए भी बुलाता है। किर्चें एक लेडी डॉक्टर की कहानी है जिसका पति दहेज़ का लोभी है। वह अपनी पत्नी की तनखा स्वयं रख लेता है और अपनी पत्नी के द्वारा अपने ससुर से भी पैसे मांगता रहता है। ससुर की मृत्यु के पश्चात वह पत्नी के भाई से भी पैसा मांगता है। पत्नी अपने पति के लालची स्वभाव के कारण परेशान हो जाती है और अपने पति से अलग हो जाती है। वह अपने बेटे को पढ़ा-लिखाकर डॉक्टर बनाती है।    एक उदास चिट्ठी एक पत्र शैली में एक युवती द्वारा अपनी माँ को लिखी कहानी है। यह एक भारतीय संस्कारों में पली बढ़ी आधुनिक युवती के शोषण की कहानी है। जिसे अपनी विदेशी माँ से उपेक्षा मिलती है। वह अपनी जीवन व्यापन के लिए एक रेस्टोरेंट खोलती है जहां उसके जीवन में एक फौजी आता है। वह फौजी एक दिन उसका बलात्कार करता है। तब वह टूट जाती है और कहती है वह मेरी चीख नहीं थी। वह बेबसी की चीख नहीं थी… वह एक औरत की चीख भी नहीं थी। वह एक घायल, मर्माहत संस्कृति की चीख थी ममा।      लाल छप्पा साड़ी गरीब आदिवासी स्त्री बुधनी की कहानी है। बुधनी रोज रात को डॉक्टर निशा के यहाँ पढ़ने के लिए जाती है। बुधनी का पति जीतना दारु पीकर पड़ा रहता है।  एक दिन जीतना शहर जाने के लिए निकलता है तो बुधनी उसे पैसे देकर अपने लिए लाल छप्पा साड़ी लाने के लिए कहती है। क्योंकि बुधनी जहां काम करती है उस घर की मालकिन के पास भी एक लाल रंग की साड़ी है जो की बुधनी को बहुत पसंद है। बुधनी का पति शहर से नहीं लौटता है। गाँव में लोग बुधनी को डायन समझने लग जाते है। वह विक्षिप्त सी हो जाती है और बुधनी अपने पुत्र को लेकर अपने पति को ढूंढने शहर जाती है। शहर में उसे पता … Read more

पुस्तक समीक्षा -भगवतीचरण वर्मा स्मृति : समकालीन कहानी संग्रह

पुस्तक समीक्षा

  सीमा वशिष्ठ जौहरी जो कि वरिष्ठ साहित्यकार भगवतीचरण वर्मा की पोती हैं, ने अपने दादाजी भगवतीचरण वर्मा की स्मृति में समकालीन कहानी संग्रह का संपादन कर पुस्तक भगवतीचरण वर्मा स्मृति : समकालीन कहानी संग्रह का प्रकाशन संस्कृति, चेन्नई से करवाया है। सीमा जौहरी बाल साहित्य के क्षेत्र में लेखन में सक्रीय हैं। सीमा वशिष्ठ जौहरी ने इस संकलन की कहानियों का चयन और संपादन बड़ी कुशलता से किया हैं। इस संग्रह में देश-विदेश के सोलह  कथाकार शामिल हैं। संग्रह के 16 कथाकारों में भगवतीचरण वर्मा, ममता कालिया, ज़किया ज़ुबेरी, सूर्यबाला, चित्रा मुद्गल, तेजेन्द्र शर्मा, डॉ. हंसा दीप, सुधा ओम ढींगरा, अलका सरावगी, प्रहलाद श्रीमाली जैसे हिंदी के प्रतिष्ठित हस्ताक्षरों के साथ नयी और उभरते कथाकारों की कहानियाँ भी सम्मिलित हैं। इस संग्रह की कहानियाँ पाठकों के भीतर नए चिंतन, नई दृष्टि की चमक पैदा करती हैं। भगवतीचरण वर्मा स्मृति : समकालीन कहानी संग्रह सुप्रसिद्ध वरिष्ठ कथाकार भगवतीचरण वर्मा की वसीयत कहानी बेहद रोचक है। कहानी सामाजिक और पारिवारिक पृष्ठभूमि में लिखी गई है। कहानी में संवाद चुटीले और मार्मिक हैं। इस कहानी के द्वारा भगवती चरण वर्मा ने समाज की आधुनिक व्यवस्था पर करारा कटाक्ष किया गया है। इस कहानी में हास्य है, व्यंग्य और मक्कारी से भरे चरित्र हैं। भगवतीचरण वर्मा की किस्सागोई का शिल्प अनूठा है। भगवतीचरण वर्मा की कहानियों में घटनाएँ, स्थितियाँ और पात्रों के हावभाव साकार हो उठाते हैं। वसीयत कहानी एक कालजयी रचना है। भगवतीचरण वर्मा की रचनाएँ युगीन विसंगतियों पर प्रहार करते हुए नवयुग के सृजन की दिशा में आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करती हैं। वरिष्ठ कथाकार ममता कालिया ने कहानी दो गज़ की दूरी कोरोना काल की त्रासदी को केंद्र में रख कर लिखी है। कहानी में सहजता और सरलता है। यह नारी अस्मिता की कहानी है। यहां समिधा को सशक्त किरदार में दर्शाया गया है। ममता कालिया ने समिधा की सूक्ष्म मनोवृत्तियों, जीवन की धड़कनों, मन में चलने वाली उथल पुथल को इस कहानी में सहजता से अभिव्यक्त किया है। ममता कालिया विडम्बना के सहारे आज के जीवन की अर्थहीनता को तलाशती हैं। इस कहानी में संबंधों के नाम पर समिधा का पति वरुण झूठ, धोखा, अविश्वास, छल-कपट और बनावटीपन का मुखौटा लगाये संबंधों को जीना चाहता है। ज़कीया ज़ुबैरी की गरीब तो कई बार मरता है अमीना की कहानी है। ज़किया जुबैरी स्त्रियों की ज़िन्दगी में आहिस्ता से दाख़िल होकर उनके मन की परतों को खोलती हैं। भीतरी तहों में दबे सच को सामने लाती हैं। ज़किया जुबैरी की कहानियाँ उनकी बेचैनी को शब्द देती है। ज़कीया ज़ुबैरी हिन्दी एवं उर्दू दोनों भाषाओं में समान अधिकार रखती हैं। ज़कीया ज़ुबैरी की भाषा में गंगा जमुनी तहज़ीब की लज़्ज़त महसूस होती है। अमीना का विवाह समी मियाँ से होता है। अमीना का प्रत्येक दिन समी मियाँ की चाकरी में गुजर जाता है। अमीना चार बच्चों की माँ बन जाती है। समी मियाँ बिज़नेस के सिलसिले में एक महीने के लिए बाहर चले जाते हैं, तब अकेलेपन से बचने के लिए अमीना सत्रह साल की नूराँ को अपने पास बुला लेती है। जब समी मियाँ वापस लौट कर आते है, तब एक दिन सुबह अमीना अपने पति समी मियाँ को उनके बेड रूम में जाकर देखती है कि नूराँ समी मियाँ के बिस्तर पर सोई हुई है। अमीना और नूराँ दोनों चौंक जाती हैं।   सूर्यबाला की गौरा गुनवन्ती एक अनाथ लड़की की कहानी है जो अपनी ताई जी के यहाँ रहती है। सूर्यबाला अपनी कहानियों में व्यंग्य का प्रमुखता से प्रयोग करती हैं। सूर्यबाला की कहानियों में यथार्थवादी जीवन का सटीक चित्रण है। इनके कथा साहित्य में स्त्री के कई रूप दिखाई देते हैं। सूर्यबाला के नारी पात्र पुरुष से अधिक ईमानदार, व्यवहारिक, साहसी और कर्मठ दिखाई देती हैं। कहानीकार पाठकों को समकालीन यथार्थ से परिचित कराती हैं और उसके कई पक्षों के प्रति सचेत भी करती हैं। लेखिका जीवन-मूल्यों को विशेष महत्व देती हैं, इसलिए इनकी इस कहानी की मुख्य पात्र गौरा दुःख, अभाव, भय के बीच जीते हुए भी साहस के साथ उनका सामना करते हुए जीवन में सुकुन की तलाश कर ही लेती है। उसमें विद्रोह की भावना कहीं नहीं है। कथाकार चित्रा मुद्गल की कहानी ताशमहल पुरुष मानसिकता और माँ की ममता को अभिव्यक्त करने वाली है। यह एक परिवार की कहानी है, जिसमें संबंध बनते हैं, फिर बिगड़ते है और अंत में ताश के पत्तों की तरह ढह जाते हैं। माता-पिता के झगड़ों में बच्चों पर क्या गुजरती है? इस प्रश्न के उत्तर बारे में केवल माँ ही सोच सकती है। कहानी में बाल मनोविज्ञान का सूक्ष्म चित्रण भी दिखता है। यह एक सशक्त कहानी है जिसमें कथ्य का निर्वाह कुशलतापूर्वक किया गया है। कथाकार ने इस कहानी का गठन बहुत ही बेजोड़ ढंग से प्रस्तुत किया है। रीता सिंह एक ऐसी कथाकार है जो मानवीय स्थितियों और सम्बन्धों को यथार्थ की कलम से उकेरती है और वे भावनाओं को गढ़ना जानती हैं। लेखिका के पास गहरी मनोवैज्ञानिक पकड़ है। साँझ की पीड़ा एक अकेली वृद्ध महिला विमला देवी की कहानी है जो बनारस में अपने घर में रहती है। एक दिन विमला देवी की बेटी और उनका दामाद विमला देवी के यहाँ आकर बनारस के उस घर को बेच देते हैं और विमला देवी को अपने साथ चंडीगढ़ लेकर चले जाते हैं। लेकिन कुछ दिनों बाद ही बेटी और दामाद विमला देवी के साथ बुरा बर्ताव करते हैं, तब एक दिन विमला देवी दिल्ली में अपने भाई रघुवीर के घर चली जाती है। रघुवीर के घर में भी विमला देवी के लिए जगह नहीं थी, तब रघुवीर विमला देवी को एक विधवाश्रम में छोड़ कर आ जाते हैं। चार दिन बाद ही रघुवीर के पास विधवाश्रम के संचालक का फोन आता है कि विमला देवी को दिल का दौरा पड़ा है। रघुवीर जब आश्रम पहुँचते हैं, तब तक विमला देवी का निधन हो चुका होता है। तेजेन्द्र शर्मा ने बुजुर्गों के अकेलेपन को खिड़की कहानी के द्वारा बहुत मार्मिकता के साथ बयां किया है। कहानी के नायक जो कि साठ वर्ष के हैं और अब परिवार में अकेले रह गए हैं, की ड्यूटी रेलवे की इन्क्वारी खिड़की पर होती है। वे इस इन्क्वारी खिड़की पर लोगों के साथ संवाद स्थापित कर के, उनकी सहायता कर … Read more

मीमांसा- आम जीवन से जीवन दर्शन की यात्रा

    मीमांसा शब्द का शादिक अर्थ है किसी बात या विषय का ऐसा विवेचन जिसके द्वारा कोई निर्णय निकाला जाता होl अगर छः प्रसिद्ध भारतीय दर्शनों की बात करें तो उनमें से एक दर्शन मूलतः पूर्व मीमांसा और उत्तर मीमांसा नामक दो भागों में विभक्त था। लेकिन लेखक अनूपलाल मण्डल का उपन्यास “मीमांसा” अपने शाब्दिक अर्थ और दर्शन दोनों को साधता हुआ आगे बढ़ता है l और इस बात को प्रतिपादित करता है कि सहज जीवन की मीमांसा ही जीवन दर्शन को समझने के सूत्र दे देती है l पुस्तक की भूमिका में लेखक लिखते हैं कि, “मनुष्य सृष्टा का अंशमात्र अवश्य है जबकि आत्मा परमात्मा के एक लघु रूप से भिन्न और कुछ नहीं और इस नाते वह सृष्टा के अधिकार भार  को अपने संयम की सीमा से आबद्ध हो, रखने की चेष्टा करता है l वही चेष्टा आप यहाँ देखेंगेl   जब पाठक किताब पढ़ता है तो यह चेष्टा है उसके सामने रेशा-रेशा खुलने लगती है l यह चेष्टा है मानव हृदय की दुर्बलताओं को स्वीकार करने, समझने और उसके ऊपर विजय पाने के प्रयासों की l समस्त दर्शन इसी में निहित है l अन्वेषण- अनुसंधान और दुर्गम पर विजय ही समस्त प्राणियों में मानव को सर्वोच्च स्थान प्रदान करती है l जब वो प्रकृति  पर विजय पाता है तो भौतिक जीवन सुखद बनता है, जब वो जीवन और जीवन से संबंधित समस्त नियमों को समझता और सुलझाता है तब वैज्ञानिक प्रगति होती है l और जब वो खुद को समझता है और मन पर विजय पाता है तो आध्यात्मिक प्रगति होती है l ये उपन्यास इसी आध्यात्मिक प्रगति के लिए जीवन की मीमांसा करता है l   उपन्यास हाथ में लेने और पढ़ना प्रारंभ करने के कुछ ही समय बाद पाठक को बाँध लेता है l शिल्प के रूप में जहाँ  गुरुवर रवींद्र नाथ टैगोर की “आँख की किरकिरी” की स्मृति हो आती है वहीं शरतचंद्र की लेखनी सा ठहराव और प्रेमचंद जैसे संवेदना पाठक को रोकती है l और एक पाठक के तौर पर 1965 से पहले प्रकाशित इस पुस्तक को अभी तक ना पढ़ पाने का खेद भी उत्पन्न होता है l   मीमांसा- आम जीवन से जीवन दर्शन की यात्रा   मानवीय संवेदना को को गहरे उकेरती इस कथा की मुख्य पात्र अरुणा के जीवन की गाथा है, जिसे हीनभावना, भय, अपराधबोध और प्रेम के महीन तंतुओं से बुना गया है l नायिका अरुणा जो मात्र 11 वर्ष की आयु में ब्याह कर पति गृह आ गई है l विवाह का अर्थ भी नहीं समझती पर उसकी स्मृतियों में अंकित है माँ के हृदय का भय l वो भय जो उसके प्रेम और सेवा के समर्पण के रूप में खिला था अरुणा के रूप में, पर समाज ने उसे नहीं स्वीकारा और उस के माथे पर एक नाम लिख दिया ‘पतिता” l समाज द्वारा बहिष्कृत माँ भयभीत तब होती है जब उसे असाध्य रोग घेर लेता है l वो अरुणा को अपनी कथा बताना चाहती है l समाज के विरोध से उस नाजुक कन्या को बचाना चाहती है पर उस समय ‘पतिता’ जैसा भारी शब्द अरुणा की समझ से परे की चीज है l उसके जीवन में कुछ है तो उगते सूर्य की लालिमा, चाँदनी की शीतलता, मीलों फैले खेतों सा विशाल धैर्य l यही अरुणा अपने पास एक छोटा सा इतिहास रखती है, एक छोटा स्मृत-विस्मृत सा इतिहास l लेखक के शब्दों में, “बाबूजी! … दूर पगली ! बाबूजी नहीं -काकाजी….नहीं, बाबूजी ही कह सकती हो! पर तुम्हारे बाबूजी वह नहीं कोई और थेl”   अरुणा के इन शब्दों की मीमांसा करना चाहती यही पर उसके सामने काकाजी और बाबूजी का यह सवाल अमीमांसित ही रह जाता है l उसी समय नायक विजय किसी विवाह समारोह में गाँव आता है और अरुणा के रूप, शीलनता, सहजता से पहली ही दृष्टि में उसके प्रति प्रेम में पड़ जाता है l अगले दिन उसे पुनः देखकर भावनाएँ उफान मारती है और वह अरुणा के घर जाकर उसकी माँ से उसका हाथ मांग लेता है l अंधे को क्या चाहिए दो आँखें l माँ भी उसका विवाह कर देती है l पति गृह में आई अरुणा का साथ देती हैं विजय की विधवा दीदी और 4 सालों में अरुणा बालिका से तरुणी बनती है.. उसके हृदय में भी प्रेम की दस्तक होती है l उसे समझ में आता है कि पति विजय उसको दर्पण में क्यों देखता था l  पति के कमरे और सामान पर एकाअधिकार भाव जागता है और प्रेम  अपना प्रारबद्ध पाता है l पति द्वारा उसे अंधेरे में उसकी तस्वीर देखता पाकर लैंप जला कर देखने को कहने पर सहसा निकले अरुणा के शब्द उसकी गहन वैचारिका को दर्शाते हैं… “जो स्वयं प्रकाशवान हो उसको देखने के लिए लैंप की आवश्यकता नहीं पड़ती”   अरुणा के मन में पति के प्रति प्रेम है पर एक पतिता की बेटी होने का अपराधबोध भी l प्रेम का पुष्प तो समानता पर खिलता है l अरुणा के मन में दासत्व भाव है और उसका पति उसका तारण हार l विजय के हृदय प्रदेश में अरुणा किसी ईश्वर की मूरत की तरह विराजमान है पर अरुणा का यह मौन जिसे पढ़ने में विजय असमर्थ है उनके प्रेम में वो सहजता नहीं आने देता जो एक पति-पत्नी के मध्य होनी चाहिए l विजय के तमाम प्रयास उसके मन की ग्रन्थि को खोलने में असमर्थ रहते हैं l अरुण इस बात को समझती है पर अपने दासत्व भाव की सीमा को लांघ नहीं पाती l प्रेम के उसके हिस्से के अधूरेपन की यह बात उसे तब समझ आती है जब दीदी का देवर लल्लन दीदी को अपने विवाह के तय हो जाने पर लेने आता है l एक सहज संवाद में प्रेम की पहली दस्तक का आस्वादन अरुणा के हृदय में होता है l वो कहती है, “वो अनिश्चित तीथि क्या हमारे जीवन में फिर कभी आएगा लल्लन बाबू” और स्वयं ही स्वयं को सहेजती है…   “जो मिलने वाला नहीं, जिस पर अपना कोई अख्तियार नहीं,जिसके बारे में सोचना भी गुनाह हो सकता है, उसकी कल्पना में वो विभोर क्यों रहे? क्यों ना मानसपट पर अंकित उस चित्र को धुंधला कर दे-उसे मिटा दे और इतना … Read more

कितने गांधी- महात्मा गांधी को नए दृष्टिकोण से देखने की कोशिश करता नाटक 

कितने गांधी

व्यक्ति अपने विचारों के सिवा कुछ नहीं है. वह जो सोचता है, वह बन जाता है. महात्मा गांधी इस वर्ष जबकि आजादी का अमृत महोत्सव मनाया गया है, तमाम लेखक और साहित्यकार ढूंढ-ढूंढ कर हमें स्वतंत्रता दिलाने वाले उन शहीदों पर लिख रहें हैं जिन के नाम या गुमनाम रह गए या हमने कृतघ्न वंशज की तरह उन्हें भुला दिया | ऐसे समय में जब वरिष्ठ साहित्यकार, पत्रकार चिकित्सक अजय शर्मा जी की का नाटक “कितने गांधी“ मेरी नज़रों के सामने से गुजरा तो नाम पढ़ते ही मन में पहला प्रश्न यही आया कि हमारे स्वतंत्रता संग्राम में राष्ट्र पिता महात्मा गांधी, हमारे प्रिय बापू के योगदान को कौन नहीं जानता | गुमनाम स्वतंत्रता सेनानियों की जगह लेखक ने इन्हें क्यों चुना ? परंतु जैसे-जैसे किताब के पन्ने पलटती गई तो पाया कि लेखक ने गाँधी जी के प्रति नई दृष्टि और दृष्टिकोण को पुस्तक में समाहित किया है | विचार कभी ऐकांगी नहीं होते | वो हर दिशा में उठते हैं | प्रश्नों की तलवार और उत्तरों की ढाल के साथ सिद्ध हो जाने तक अपनी यात्रा करते है | व्यक्ति की हत्या हो सकती है, विचारों की नहीं | परंतु क्या ये प्रश्न नहीं उठता है कि किसी एक विचार का महिमामंडन किसी दूसरे विचार की अपरोक्ष रूप से हत्या होती है ? शायद इसीलिए आज कल इतिहास को नए दृष्टिकोण से लिखा जा रहा है | सवाल ये भी उठता है कि ये नया दृष्टिकोण क्या होता है ? बहुत सारी महिला कथाकार स्त्री दृष्टिकोण से इतिहास को खंगाल रही है, तो चुन-चुन कर उनके साथ पुरुष लेखकों द्वारा किये गए अन्याय की गाथाएँ सामने आ रही हैं | कितनी सशक्त स्त्रियाँ केवल भावों के मोती बहाती अबलाएँ नजर आती हैं | तो क्या ये पुरुष विरोध है? नहीं ! ये न्याय है उन चरित्रों के साथ जिन् के साथ पितृसत्तात्मक समाज और उससे पोषित लेखकों ने न्याय नहीं किया | कितने गांधी- महात्मा गांधी को नए दृष्टिकोण से देखने की कोशिश करता नाटक  इन पर सवाल उठाने से पहले सवाल ये भी है कि निष्पक्ष तो उन्होंने भी नहीं लिखा, जिन्होंने पहले लिखा था | अभिव्यक्ति की आजादी कलम को वर्जनाओं में बांधने के विरुद्ध यही | समझना ये भी होगा कि इतिहास लिखने में क्या कोई ऐसा नियम है कि हमें इतना ही पीछे जाना चाहिए ….क्या पचास साल पीछे नहीं जाया जा सकता, साथ साल, सत्तर साल ….क्या समय घड़ी प्रतिबंधित है? शायद नहीं | क्योंकि जब हम कहते हैं कि सूरज डूब रहा है तो कहीं ना कहीं ये भी सत्य होता है कि वो कहीं उग रहा होता है | और सूरज डूबता ही नहीं है ये जानने के लिए ये दोनों पक्ष जानना जरूरी होता है | इस किताब को पढ़ने के बाद कुछ ऐसा ही महसूस हुआ | “ये विश्व एक रंगमंच है, और सभी स्त्री-पुरुष सिर्फ पात्र हैं, उनका प्रवेश और प्रस्थान होता है, और एक व्यक्ति अपने जीवनकाल में कई किरदार निभाता है”…विलियम शेक्सपियर इस किताब को पढ़ते हुए शेक्सपीयर का ये कथन बार-बार मेरे दिमाग में आता रहा | हर व्यक्ति कितने सारे किरदारों को निभाता है| एक अच्छा बेटा बुरा पति हो सकता है या ये भी बुरा भाई अच्छा दोस्त हो सकता है | पर किसी किरदार का महिमा मंडन करते हुए या उसके प्रति नकारात्मकता रखते हुए हमारा दृष्टिकोण संकुचित हो जाता है | हम उस किरदार के अन्य पहलूओं पर बात नहीं करते | इस नाटक में अजय शर्मा जी गांधी जी के व्यक्तित्व को तीन भागों में बाँट कर देखते हैं | उनका सामाजिक व्यक्तित्व, राजनैतिक व्यक्तित्व और नैतिकता की परिभाषा में स्वयं को सिद्ध करने वाला हठीला व्यक्तिव | महात्मा गांधी जी के सामाजिक व्यक्तित्व की लेखक द्वारा भूरि-भूरि प्रशंसा की गई है | महात्मा नाम भी उनके साथ इसीलिए जुड़ा क्योंकि उन्होंने गरीबों, वंचितों, असहायों में सदा परमात्मा को देखा | उनके हित के लिए समाज में महती भूमिका निभाई | अहिंसा और सत्य जिनके जीवन का अवलंबन था, ये नाटक जाति-पात के भेदभाव मिटाने की उनकी कोशिशों की सराहना करता है | अलबत्ता नैतिकता के दृष्टिकोण से वो स्वयं को सिद्ध करने की धुन में हठी साबित होते हैं | अपने ब्रह्मचर्य को साबित करने के लिए वो मासूम बच्चियों के मन में जीवन पर्यंत रह जाने वाले मानसिक ट्रॉमा की परवाह भी नहीं करते का भी मुद्दा उठाया गया है | कुछ अन्य मुद्दे नैतिकता की परिभाषा के उठाते हुए मुख्य रूप से नाटक गांधी जी के राजनैतिक व्यक्तित्व पर बात करता है | लेखक के अनुसार राजनैतिक व्यक्ति के रूप में गांधी जी उस समय की लोकप्रिय पार्टी का प्रतिनिधित्व भी कर रहे थे | जो गरम दल और नरम दल में बँटी थी | स्वतंत्रता में दोनों ही दलों की भूमिका थी परंतु एक विचार को आगे बढ़ाने के लिए दूसरे को दबाना जरूरी था | लेखक राजनैतिक उठापटक के उसी आधार पर मूल्यांकन करते हुए अपनी बात रखते हैं | ये राजनीति ही है जिसने बहुत खूबसूरत शब्द सेकुलरिज्म को भी सिलेक्टिव चुप्पियों और सेलेक्टिव विरोध के पिंजरे में कैद कर दिया | फिर निष्पक्ष कौन है ? आम जन मानस का ये सवाल नाटक में लेखक ने बार-बार उठाया है | अब प्रश्न ये उठता है | महात्मा गांधी हमारे राष्ट्र पिता है, क्या उनको किसी नए दृष्टिकोण से देखा जा सकता है ? उत्तर “नहीं” भी हो सकता है और ये भी हो सकता है आज नेहरू पर बात होती है सिकंदर पर बात होती है राम और कृष्ण पर बात होती है | पुराण के हर पात्र को नए दृष्टिकोण से देखा जा रहा है | तो महात्मा गांधी को क्यों नहीं ?लेखक ने कई जगह प्रश्न उठाया है कि इतिहास हमेशा जीतने वाले के पक्ष में लिखा जाता है | जो सिकंदर को विश्व विजेता कहता है और अंग्रेजों को तानाशाह | जब भी किसी प्रसिद्ध व्यक्ति, राजा या नेता या साहित्यकार का हम उसके जीवल काल में मूल्यांकन करते हैं तो निष्पक्ष नहीं रह जाते | उसका प्रभा मण्डल निष्पक्ष होने नहीं देता | किसी का असली मूल्यांकन उसके बाद ही होता है जब उसके प्रभा मण्डल के प्रभाव … Read more

शिलाएं मुस्काती हैं-प्रेम के भोजपत्र पर लिखीं  यामिनी नयन की कविताएँ 

शिलाएं मुस्काती हैं-प्रेम के भोजपत्र पर लिखीं  यामिनी नयन की कविताएँ 

  नारी की काया  में प्रवेश कर कोई भी रचनाकार स्त्री की पीड़ा  को उतनी  साफगोई से व्यक्त नहीं कर सकता जितनी वाक् निपुणता से एक महिला सृजनधर्मी | फिर भी यह आवश्यक है कि यह पीड़ा उसकी झेली या भोगी हुई हो| आत्मसात की हो संत्रस्त महिला  की त्रासदी | आजकल समय के शिलाखंड पर प्रेम की अभीप्सा  से लेकर  प्रेम में छली  गई किशोरियों, परित्यक्ताओं, भुलाई हुई स्त्रियों या  खुरदरे  दाम्पत्य जीवन पर बहुत कुछ लिखा जा रहा है |इस में  भोगा और ओढ़ा हुआ दोनों हैं |विमर्शवादियों का हल्ला -गुल्ला भी | यामिनी नयन गुप्ता हिंदी कविता की  ऐसी स्थापित साहित्यधर्मी  है जो  महिलाओं के मन की उथल -पुथल,बदलती सामाजिक जीवन शैली से पैदा  हुई बेचैनी और नए समीकरणों को सशक्त स्वर दे रही हैं |उनके स्वर में छिछली भावुकता नहीं, महिलाओं के हर्ष –विषाद  की गहरी अनुभूति है| साक्षी हैं ‘शिलाएँ  मुस्काती हैं’ नामक संकलन की बासठ कविताएँ | शिलाएं मुस्काती हैं-प्रेम के भोजपत्र पर लिखीं  यामिनी नयन की कविताएँ    शिलाएं मुस्काती हैं की कविताओं में चाहे सामाजिक सरोकार हों या जीवन की निजता के  प्रश्न ; इनमें  जुड़ा है  ”प्रेम ,नेह ,और देह का त्रिकोण”|”व्याकुल मन का संगीत”  और प्रेम में पड़े होने का एहसास |”प्रेम ,नेह और देह” की इस यात्रा में कभी देह पिछड़ जाती है ‘अदेह’ को जगह देने हेतु, तो कहीं  सशक्त  साम्राज्ञी बन बैठती है (अब मैंने जाना -क्यों तुम्हारी हर आहट पर मन हो जाता है सप्तरंग\मैं  लौट जाना चाहती हूँ अपनी  पुरानी दुनिया में देह से परे —बार बार तुम्हारा आकर कह देना\यूँ ही -\मन की बात \बेकाबू जज्बात ,\मेरे शब्दोँ में जो खुशबू है \तुम्हारी अतृप्त बाँहोँ की गंध है)|  कहाँ  देह से परे की पुरानी दुनिया ,कहाँ ‘अतृप्त बाँहोँ की गंध’ |  हर मंजर बदल गया|  छा गई प्रेम की खुमारी — (तुम संग एक संवाद के बाद \पृष्ठों पर उभरने लगती हैं \सकारात्मक कविताएँ \निखरने लगते हैं उदासी के घने साये \छा जाता है स्याह जीवन में\इंद्रधनुषी फाग)| प्रेम में डूबी स्त्री को प्रेम के अतिरिक्त और कुछ दीखता ही नहीं | वह प्रेमास्पद से नहीं, उसके प्रेम से प्रेम करती है (मुझे तुम से नहीं \तुम्हारे प्रेम से प्रेम है  \तुम खुद को -प्रेम से नहीं कर पाते हो अलग \और अर्जुन के लक्ष्य सदृश्य \मुझे दीखता है बस प्रेम )| स्त्री ”हर काल  ,हर उमर  में’  बनी रहना चाहती है प्रेयसी | वैवाहिक जीवन उसके लिए विडंबना है ,जिसमें हैं ”गृहस्थी की उलझने\पौरुष दम्भ से जूझती पति  की लालसाएँ–जबकि ये  चाहती  हैं ”कि बची रहे जीने की ख्वाइशों की जगह \यांत्रिक जीवन से परे \बनी रहे नींदों में ख्वाबोँ  की जगह ‘| नारी विमर्शवादी अनामिका कहती हैं —‘बच्चे उखाड़ते हैं/ डाक टिकट/ पुराने लिफाफों से जैसे-/ वैसे ही आहिस्ता-आहिस्ता/ कौशल से मैं खुद को/ हर बार करती हूँ तुमसे अलग”! अनामिका जी भूल गईं कि प्रेम संबंधों को जोड़ता है,उखड़ता नहीं | खटास से भरे होते हैं प्रेम विहीन सम्बन्ध | पर समय बदल रहा है|अलग कर लेना सरल हो चुका है | सुलभ हैं ‘‘मनचाहे साथी” जिनकी ” प्रेमिकाएँ \कभी बूढ़ी न हुईं \साल दर साल बीतते \वर्षों  बाद भी रहीं प्रेमी के दिल में \स्मृति में कमसिन, कमनीय\उस उम्र की तस्वीर बन कर \महकती रहेंगी वो स्त्रियां \किताबों में रखे सुर्ख गुलाब की तरह ”| सीधी बात है विवहिता स्त्री  की उलझनों से मुक्त, कमनीय जीवन बिताया जाय | फिर परिवार का क्या होगा?स्त्री पुरुष का मिलन नैसर्गिक है-कुछ नैसर्गिक आवश्यक्ताओं की पूर्ती के लिए | ‘अतृप्त बाँहोँ की गंध’ से कहीं अधिक गंधमयी सुगन्ध  से प्लावित जीवन| डॉ. पद्मजा शर्मा को दिए एक साक्षात्कार में प्रसिद्ध कथाकार साहित्यभूषण सूर्यबाला ने कहा– ”देह पर आकर स्त्री मुक्ति का सपना टूट जाता है और एवज में बाजार की गुलामी मिलती है, स्त्री को | पुरुष से मुक्ति की कामना पुरुष वर्चस्वी बाजार की दासता से आ जुड़ती है|स्वयं को वस्तु  (कमोडिटी )बनाने के विरोध को लेकर चलने वाली स्त्री आज स्वयं अपने शरीर की  सबसे अनमोल पूँजी को वस्तु (कमोडिटी )बना कर बाजार के हवाले कर रही है”| यामिनी का कवि  वस्तु  या कमोडिटी के जंजाल से बचा कर प्रेम की शुचिता को बनाए  रखना चाहता है|यद्यपि वह चूकता नहीं  प्रश्न उठाने से  — ‘‘मेरी छवि ,मेरे बिम्ब और संकेतों  में \गर तुम बांच नहीं सकते प्रेम \तो कैसा है तुम्हारा प्रेम \और कैसा समर्पण \रास  नहीं आ रहा है मुझे\तुम्हारा होकर भी ,न होने का भाव” | एक प्रश्न और –पत्नी बड़ी या प्रेमिका? |विमर्शवादी मंतव्य है कि पत्नियाँ कभी प्रेमिका नहीं बन पातीं| कंचन कुमारी कहती हैं ‘’तुम्हारी दुनियाँ में पत्नियाँ प्रेमिकाएँ नहीं होती।पत्नियाँ नहीं पहुँचती चरमसुख तक \यह हक है सिर्फ प्रेमिकाओं का\पत्नियाँ डरती है तुम्हारे ठुकराने से,\प्रेमिकाएँ नहीं डरा करती\, वहाँ  होता है विकल्प \सदैव किसी और साथी का.. अर्थात सब कुछ अस्थायी है| एक देह का चरमसुख नहीं दे पाया, तो दूसरा सही ,दूसरा नहीं तो तीसरा| प्रेम न हुआ तीहर है,जब चाही बदल ली | फिर यह कहना व्यर्थ है कि प्रेम में पड़ी स्त्री के मन में, दिल की गहराई में,उनींदी आँखोँ में हर पल हर क्षण प्रेमी की सुखद छुअन के एहसास भरे होते हैं | क्या जरूरत थी कबीर को यह कहने की ”प्रेम न बाडी  ऊपजे , प्रेम न हाट बिकाई ,राजा परजा जेहि रुचे, सीस देहि ले जाई” | शायद आयातित आधुनिकता और  बाजारी संस्कृति में बुढ़िया गए हैं कबीर | कोरोना संक्रमण से हाल ही में दिवंगत हुए जाने-माने  साहित्यकार प्रभु जोशी ने अपने  अंतिम लेख में कहा कि ” मेरा शरीर मेरा’’  जैसा  नारा” (स्लोगन) अश्लील साहित्य के व्यवसायियों की कानूनी लड़ाई लड़ने वाले वकीलों ने दिया था। उसे हमारे साहित्यिक बिरादरी में राजेन्द्र यादव  ने उठा लिया और लेखिकाओं की एक बिरादरी ने अपना आप्त वाक्य बना लिया’’। विमर्शवादी मंतव्य को स्पष्ट करते हुए कवि की कहन हैं कि पत्नियाँ के लिए ”मन चाहे स्पर्श ,आलिंगन \चरम  उत्कर्ष के वह  पल \ सदा रहे कल्पना में ही\कभी उतर नहीं पाते वास्तविकता के धरातल पर”| देहातीत संबंधों की बात सिमट कर रह जाती है चरमसुख और प्रणयी की मुलायम छुअन में | विमर्शवादियों की ऐसी बातें कवि ने बहुत ही संयत और शालीनता के साथ स्पष्ट की … Read more