डेढ़ सेर चाँदी

डेढ़ सेर चाँदी

  अंत हीन दुख, निराशा, पीड़ा अवसाद की ओर धकेलते हैं और अगर घनघोर निराशा की बीच आस की अंतिम किरण भी डूब जाए तो व्यक्ति अपना मानसिक संतुलन कैसे संभाले l नईका के साथ भी यही हुआ l मैं बात कर रही हूँ अभी हाल में घोषित हुए रमाकांत स्मृति पुरुस्कार से सम्मानित आशा पांडे जी की कहानी ‘ढ़ेर सेर चाँदी’ की l कहानी में नईका के जीवन में जब दुख एक बार दस्तक देता है, तो उजास के लिए कोई छेद नहीं छोड़ता l क्योंकि उसका दुख ईश्वर प्रदत्त नहीं है, उसका दुख अपनों द्वारा दिए जाने वाले धोखे का दुख है, तो सरकार द्वारा दिए जाने वाले धोखे का भी l मनुष्यता के पतन का दुख है l जिसकी पृष्ठभूमि में दुख और अवसाद में बौराए इंसान को पागल करार देने वाला समाज है l आशा जी ग्रामीण जीवन और आम मानवीय  मनोभावों की बारीकियों को, सच्चाईयों को इस तरह से सहजता के साथ उकेरती हैं उनकी  कहानी अपने व्यापक संदर्भ में याद रह जाती है l एक अच्छी कहानी और पुरस्कार के लिए आशा जी को बधाई डेढ़ सेर चाँदी किवाड़ उढगा था। नइका कोहनी से किवाड़ ठेल कर अँगनाई में पहुँची। अँगनाई के कोने में बंधी दोनों बकरियां उसे देख कर मिमियाने लगीं। दिन भर से अकेला पड़ा भग्गू भी उठकर खटिया पर बैठ गया। नइका का हाथ घास और बबूल की टहनियों से भरा था। मिसिर के यहाँ से आते-आते उसने रास्ते से बकरियों के लिए टहनियाँ तोड़ी थीं। बकरियाँ पिछले दो-चार दिन से खूँटे पर ही बंधी हैं बेचारी। संझा-सबेरे बाहर ले जाकर चराने का मौका नहीं मिल रहा है नइका को। अभी दो दिन और ऐसे ही चलेगा। घास और टहनियों को बकरियों के आगे डाल कर नइका ने पंजीरी-बताशे की गठरी को पीढ़े पर रखा और बाल्टी रस्सी लेकर कुँए पर हाथ-मुँह धोने चली गई। ठंडे पानी से छीटे मार-मार कर मुँह धोया, हाथ-पैर धोए,भरी बाल्टी आँगन में लाकर रखी और आँचल से मुँह पोछते हुए ओसारे में आकर बैठ गई। अँगनाई में ही छान उठाकर दो ओसारे निकाल लिए हैं नइका ने। दो कच्ची कोठरी और दो छनिहर ओसारे का उसका ये घर भीतर घुसते ही उसे सुकून से भर देता है। कितना भी थककर चूर हो गई हो पर अपनी  अँगनाई में आते ही उसकी आधी थकान खुद-ब-खुद चली जाती है। सुबह जब से गई थी, तब से एक मिनट की भी फुर्सत नहीं मिली थी उसे। इतना बड़ा कार्यक्रम आने-जाने वालों की इतनी भीड़! बैठती भी तो कैसे ? मिसिर काका बहुत भरोसा कर उसे बुलाते हैं,अगर वह भी बैठ जायेगी तो काम कैसे चलेगा? खड़े-खड़े दोना भर पंजीरी-बताशा फाँक कर पानी पी लिया था उसने और लगी रही बासन माँजने में, झाड़ू लगाने में। वहीं पुरबहिन और चमेला जांगर चुरा-चुराकर इधर से उधर भाग रहीं थीं। पाँच-छह दोना पंजीरी फाँक गईं। जो भी उधर से प्रसाद बाँटते हुए  निकलता, उसी के सामने हाथ पसार देतीं। अखंडरामायण पाठ के बैठक से पहले सत्यनारायण की कथा हुई थी। उसी का प्रसाद बंट रहा था। दिन भर लोग आते रहे। प्रसाद कम पड़ जाता तो! किसी की इज्जत की जरा-सी परवाह नहीं है इन लोगन को, अगला भरोसा किये बैठा है और ये लोग उसकी इज्जत लेने पर उतारू हुई हैं। भगवान से भी नहीं डरतीं ये लोग– नइका का मन वितृष्णा से भर गया। साँझ धुंधलाने लगी। संझबाती की बेला में बैठकर सुस्ताने से काम नहीं चलेगा- नइका ने मन ही मन सोचा और घुटने पर हाथ रखकर उठी, चूल्हे के पास काँच की एक ढिबरी पड़ी थी। उसमें तेल आधी शीशी से भी कम था। नइका ने शीशी को उठाकर देखा- आज का काम किसी तरह से चल जायेगा। कल के लिए व्यवस्था करनी पड़ेगी। रामअजोरवा को कितनी बार कहा था कि बचवा, खम्भे से तार खींच कर एक लट्टू मेरे आँगन में भी लटका दो। मिट्टी के तेल का खर्चा तो कुछ बचता पर मुए ने नहीं सुना। नइका मन ही मन बड़बड़ाते हुए ढिबरी जलाकर अँगनाई के गौखे पर रख आई। वहाँ से दोनों ओर ओसारे में उजियारा फ़ैल गया। भग्गू फिर ‘गों-गों’ करने लगा। नइका ‘गों-गों’ के अलग-अलग सुरों को पहचानती है। समझ गई कि उसका पति भूखा है। वह पंजीरी-बताशा,हलुवा-पूड़ी की गठरी उठा लाई। भग्गू की खटिया पर बैठकर  खोलने लगी। उस धुंधलके में भी नइका ने भग्गू की आँखों की चमक को देख लिया, मन-ही मन मुस्कराई- इसी चमक को देखने के लिए ही तो उसने वहाँ कौर-भर भी कुछ नहीं खाया था। सब उठा लाई थी। मिसिर काका ने हलुवा ज्यादा दिलवा दिया था। काकी तो देने में कुछ आना-कानी कर रहीं थीं पर काका ने डपट दिया। ‘दे दो उसे भरपूर,गुंगवा (भग्गू) के लिए ले जाएगी’। नइका धन्य हो गई थी। इसीलिए तो मिसिर काका की एक आवाज पर दौड़ी चली जाती है। गुंगवा को पूड़ी के साथ अचार अच्छा लगता है। नइका ने हिम्मत की– ‘काकी फाँक दो फाँक अचार भी दे देतीं।’ काकी ने मुस्कुराते हुए बिना उसे झिड़के तीन-चार फांक अचार लाकर पूड़ी के ऊपर रख दिया। नइका खाने की गठरी खोल रही थी। भग्गू ने सिरहाने से आधा प्याज और नमक निकाल लिया। नइका सबेरे उसे प्याज रोटी देकर गई थी। उसी में से कुछ बचा लिया था भग्गू ने। नइका मुस्कराई—‘रक्खो उसे,अचार लाई हूँ पूड़ी के साथ।’ भग्गू गों-गों करके हंसने लगा। भग्गू की हंसी नइका के कलेजे में धंस गई। इकलौता भग्गू माँ-बाप का बहुत दुलारा था। दोनों जून उसे थाली में दाल-भात, रोटी- तरकारी, सब चाहिए थी। जब नइका इस घर में ब्याह कर आई थी तब इस घर में खाने-पीने की कोई कमी नहीं थी। डेढ़ बीघा खेत का मालिक था उसका ससुर। माँ,बाप,बेटा तीनों जुट कर खेती करते। बाहर भी मजूरी करते। घर में अनाज भरा रहता। भाजी-तरकारी तो भग्गू घर के अगवारे-पिछवारे की जमीन में ही बो देता। लौकी, तरोई , करेला आँगन की छान पर खूब लदे रहते। सास खुश होकर कहतीं, “मेरे बेटे के हाथ में बहुत बरक्कत है, ऊसर-पापड़ में भी बीज छीट देता है तो धरती सोना उगलने लगती है।” अब यही भग्गू …! नइका ने थाली में पूड़ी,अचार और हलुवा रख कर भग्गू के आगे … Read more

महिमाश्री की कहानी अब रोती नहीं कनुप्रिया ?

अब रोती नहीं कानुप्रिया

  असली जिंदगी में अक्सर दो सहेलियों की एक कहानी विवाह के बाद दो अलग दिशाओं में चल पड़ती हैl पर कभी-कभी ये कहानी पिछली जिंदगी में अटक जाती है l जैसे रामोना और लावण्या की कहानी l कहानी एक सहेली के अपराध बोध और दूसरी के माध्यम से एक धोखा खाई स्त्री के चरित्र को उसके स्वभावगत परिवर्तन को क्या खूब उकेरा है । “अब रोती नहीं कनुप्रिया”  कहानी पाठक को रुलाती है। प्रेम पर भावनाओं पर लिखे  कई वाक्य किसी हार की तरह गुथे हुए बहुत प्रभवशाली व कोट करने लायक हैं । तो आइए पढ़ें महिमाश्री की कहानी अब रोती नहीं कनुप्रिया    पंद्रह साल बहुत ज्यादा होते हैं। लावण्या मेरी बचपन की साथिन। उसे कितने सालों से ढूढ़ती रही हूँ। कहाँ है ?कैसी है? उसकी जिंदगी में क्या चल रहा है। कितने सवाल हैं मेरे ज़हन में। । फेसबुक प्रोफाइल बनने के पहले दिन से ले कर आज तक उसे अलग-अलग सरनेम के साथ कितनी बार ढ़ूढ़ चुकी हूँ।   मॉल में एस्केलेटर से नीचे उतरता सायास मुझे वह पहचाना चेहरा दिखा।जिसकी तलाश में मेरी आँखे रहती हैं। हॉल में उस भरी देहवाली स्त्री को देखते ही मैं चहकी। मैंने अपने आपसे कहा- हाँ- हाँ वही है मेरी बचपन की सहेली लावण्या।मैंने एस्केलेटर पर से  ही आवाज लगाई लावण्या आ आ…….। वह  सुंदर गोलाकार चेहरा आगे ही बढ़ता जा रहा था। मेरा मन आशंकित हो उठा कहीं वह भीड़ में गुम न हो जाये।   इसबार  मैंने जोर से आवाज लगाई लावण्या..आ आ…   कई चेहरे एकसाथ मुड़ कर मुझे देखने लगे।मैंने किसी की परवाह नहीं की। बस लावण्या गुम न हो जाये।इसलिए आशंकित हो रही थी।   लावण्या ने मुड़ कर देख लिया। उसकी आँखों में भी पहचान की खुशी झलक उठी थी।मेरा दिल जोरो से धक -धक कर रहा है।मेरी अभिन्न सखी लावण्या। उसकी चिरपरिचित मुस्कान ने मुझे आशवस्त कर दिया।   हाँ वही है। मैं किसी अजनबी का पीछा नहीं कर रही थी। मेरा अनुमान सही निकला। मेरा दिल बल्लियों उछल रहा है।आखिर मैंने उसे ढ़ूढ निकाला।   आज मेरी आँखों के सामने वह साक्षात खड़ी है।वही हँसता -मुस्कुराता चेहरा।चंचल आँखों में थोड़ी स्थिरता आ गई है। कोमल सुडौल शरीर में चर्बी यहाँ-वहाँ झांकने लगी है।पर वही है। मेरी प्यारी सखी लवण्या  ।   मैं तेजी से सामने आकर लगभग उसे अपने अंक में भिंच ही लिया।कुछ देर के लिए भूल गई कि मॉल के अंदर भीड़-भाड़ के बीच में हूँ। मैं भावूक हुई जा रही हूँ।   “कहाँ थी यार? कितना तुम्हें याद किया। कितना तुम्हें ढ़ूढ़ा।अब भी तू वैसी ही सुंदर है। बस थोड़ी मोटी हो गई है।क्या तुम्हें मेरी याद नहीं आई। तू तो लगता है भुल ही गई थी मुझे।देख मैं तो तुझे देखते ही पहचान लिया। मेरी खुशी का ठिकाना नहीं है।“   लावण्या हल्की स्मित लिए खड़ी रही। वह मेरी हर सवाल पर एक मुस्कान दे रही है।लोग आते-जाते हमें देख रहे हैं।लोगो का क्या है। कुछ देर गिले शिकवे कहने के बाद मैं थोड़ी शांत हो गई।मैंने महसूस किया लावण्या मुझे देखकर उतनी भावूक नहीं हुई।जितनी मैं उसके लिए अभी महसूस कर रही हूँ। या फिर सार्वजनिक स्थान होने के कारण उसने अपनी भावूकता को दबा लिया।आखिरकार एक अभिनेत्री जो ठहरी।   मुझे कुछ सोचता देख उसने मेरे हाथों को अपने हाथों में ले लिया। मुझे थोड़ा सुकून मिला। चलो एकतरफा लगाव तो नहीं रह गया।   फिर  लावण्या ने अपने साथ खड़े  पुरुष से परिचय करवाया।   “रमोना! ये मेरे मेरे पति विनीत ।   विनीत ये मेरी सहेली  है। हम स्कूल से लेकर कॉलेज तक साथ थे।“   फिर से मुझे उसकी आवाज में एक ठंढेपन की तासिर नजर आई। मैंने अपने दिमाग को झटक कर। आँखे पूरी खोल दी।   विनीत। मैंने मन में इस नाम को दोहराया।वे एक मध्यम कद, मध्यम आयु के मोटे थोड़े थुलथुल से व्यक्ति हैं। पहली नजर में वे लावण्या से उन्नीस क्या सत्तरह ही नजर आये।फैब इंडिया का कुर्ता-पायजामा । गले में सोने का चेन और ऊंगलियों में हीरे और माणिक जड़ी अँगुठियाँ।एक हाथ में महँगा लैटेस्ट आई फोन।बायें हाथ की कलाई में रैडो की घड़ी। अमीरी की एक विशेष चमक उनके बॉडी लैंगवेज में झलक रही है।   “नमस्ते।“ “नमस्ते। आईये कभी हमारे गरीबखाने पर।“ विनीत ने अपनी अँगुठियों भरे दोनों हथेलियों को जोड़कर कहा। “आप दोनों बचपन की सहेलियाँ हैं। और एक ही शहर में । कमाल का इत्तिफाक है।ऐसी मुलाकात तो नसीबवालों की ही होती है।“ जी । मेरी आँखों में हजारों प्रश्न चिन्ह एक साथ कौंध गए।लावण्या समझ गई।उसने अपना मोबाइल नम्बर दिया।साथ में अपने घर आने का आमंत्रण भी।   मेरी बेचैनी अपने चरम पर है ।मैं घर पहुँच अपने सारे काम निपटा कर लावण्या से बात करना चाहती हूँ। पंद्रह वर्षों की सारी बातें एक दिन में ही कर लेना चाहती हूँ। अपने मन में घुमड़ते प्रश्नों का हल भी चाहती थी। मन बार-बार अतीत में लौट रहा था ।लावण्या से पहले मेरी शादी हो गई थी ।मेरी शादी के बाद  पापा का भी ट्रांसफर हो गया। जिसके कारण मेरा  उस शहर उससे जुड़े लोग भी छूट गये । शादी के बाद  लड़कियों की जिंदगी ही बदल जाती है।यहाँ तो मेरा  मायका का शहर भी बदल गया था। घर –गृहस्थी में ऐसी उलझी की सहेलियों की याद आती मगर उनसे जुड़ने का माध्यम न मिलता। आज पता चला हमदोंनो सहेलियाँ तो कई वर्षों से एक ही शहर में रह रही हैं । 2   लावण्या का मतलब जिंदगी लाइव।जिंदगी के हर रंग उसके व्यक्तिव में समाया था।वह हर वक्त किसी न किसी रंग में रमी रहती।लवण्या का मतलब लाइफ फुल ऑफ पार्टी। स्कूल-कॉलेज का हर फंक्शन उसके बिना फीका लगता।खेल , नृत्य, नाटक, पाक-कला , सिलाई-बुनाई, बागबानी, साहित्य-इतिहास, बॉटनी जुआल्जी सभी में बराबर दखल रखती।वह हर काम में आगे रहती। किसी से न डरती और हमें भी मोटीवेट करती रहती।उसका दिमाग और पैर कभी शांत नहीं रहते।हमेशा कुछ न कुछ योजना बनाते रहती। फिर उसे पूरा करने में जुट जाती। हमें भी ना ना कहते शामिल कर ही लेती।   लावण्या  हमारी  नायिका जो थी।जिस बात को करने के लिए हम लाख बार सोचते, डरते। वह बेझिझक कर आती।हो भी क्यों … Read more