मां की सिलाई मशीन -कहानी दीपक शर्मा

मां की सिलाई मशीन

नारी जीवन बस दर्द का पर्याय है या बाहर निकलने का कोई रास्ता भी है ? बचपन में बड़े- बुजुर्गों के मुँह से सुनती थी,  ” ऊपर वाला लड़की दे तो भाग्यशाली दे ” l और उनके इस भाग्यशाली का अर्थ था ससुराल में खूब प्रेम करने वाला पति- परिवार मिले l नायिका कुंती की माँ तो हुनर मंद थी, आत्म निर्भर भी, फिर उसका जीवन दुखों के दलदल में क्यों धंसा था l  वरिष्ठ लेखिका दीपक शर्मा जी की कहानी ‘मां की सिलाई मशीन’ एक ऐसी कहानी है जिसे मैंने दो-तीन बार बार पढ़ा और हर बार अलग अर्थ निकले l एक आर्थिक रूप से स्वतंत्र स्त्री का भी आर्थिक शोषण हो सकता है l बाहर से दिखने वाले एक सामान्य संस्कारी परिवार के बीच अनैतिक रिश्ते अपनी पूरी ठसक के साथ चल सकते हैं l मारितयु से परे भी कुछ है जो मोह के धागों संग खींचा चला आता है l आइए पढे एक ऐसी कहानी जो अपने पूरे कहानी पन के साथ पाठक के मन में कई सावाल छोड़ जाती है और दर्द की एक गहरी रेखा भी… मां की सिलाई मशीन -कहानी दीपक शर्मा   मां की सिलाई मशीन               वरर्र ? वरर्र ? सूनी रात के इस सुस्त अंधेरे में ? डयोढ़ी में सो रही मैं जग गयी। व्हिरर ! व्हिरर्र !! फिर से सुना मैं ने ? मां की मशीन की दिशा से ? धप ! मैं उठ बैठी । गली के खम्भे वाली बत्ती की मन्द रोशनी में मशीन दिख रही थी, लेकिन मां नहीं । वह वहां हो भी नहीं सकती थी। वह अस्पताल में थी। ट्रामा सेन्टर के बेड नम्बर तेरह पर, जहां उसे उस दिन दोपहर में पहुंचाया गया था। सिर से फूट रहे उनके लहू को बन्द कराने के वास्ते। बेहोशी की हालत में। मशीन के पास मैं जा खड़ी हुई। उस से मेरा परिचय पुराना था। दस साल की अपनी उस उम्र जितना। मां बताया करतीं पहले मुझे गोदी में लिए लिए और फिर अपनी पीठ से सटाए सटाए उन्होंने अपनी कुर्सी से कितनी ही सिलाई पूरी की थी। मां टेलर थीं। खूब सिलाई करतीं। घर की, मुहल्ले की, शहर भर की। मां की कुर्सी पर मैं जा बैठी। ठीक मां के अन्दाज़ में। ट्रेडिल पर दाहिना पैर थोड़ा आगे। बायां पैर थोड़ा पीछे। क्लैन्क, क्लैन्क, क्लैन्क……… बिना चेतावनी दिए ट्रेडिल के कैम और लीवर चालू हो लिए। फूलदार मेरी फ़्राक पर। जो मशीन की मेज़ पर बिछी थी। जिस की एक बांह अधूरी सिलाई लिए अभी पूरी चापी जानी थी। और मेरे देखते देखते ऊपर वाली स्पूल के गिर्द लिपटा हुआ धागा लूप की फांद से सूई के नाके तक पहुंचने लगा और अन्दर वाली बौबिन, फिरकी, अपने गिर्द लिपटा हुआ धागा ऊपर ट्रैक पर उछालने लगी। वरर्र……वरर्र…… सर्र……..सर्र और मेरी फ़्राक की बांह मेरी फ़्राक के सीने से गूंथी जाने लगी, अपने बखियों के साथ सूई की चाप से निकल कर आगे बढ़ती हुई…….. खटाखट….. “कौन ?’’ बुआ की आवाज़ पहले आयी। वह बप्पा की सगी बहन न थीं। दादी की दूर-दराज़ की भांजी थी जो एक ही साल के अन्दर असफल हुए अपने विवाह के बाद से अपना समय काटने के लिए कभी दादी के पास जा ठहरतीं और कभी हमारे घर पर आ टपकतीं। “कौन ?’’ बप्पा भी चौंके। फट से मैं ने अपने पैर ट्रैडिल से अलग किए और अपने बिस्तर पर लौट ली। मशीन की वरर्र…..वरर्र, सर्र…..सर्र थम गयी। छतदार उस डयोढ़ी का बल्ब जला तो बुआ चीख उठी, “अरे, अरे, अरे…….देखो…देखो…. देखो…..इधर मशीन की सुई ऊपर नीचे हो रही है और उसकी ढरकी आगे-पीछे। वह फ़्राक भी आगे सरक ली है….’’ जभी पिता का मोबाइल बज उठा। “हलो,’’ वह जवाब दिए, ’’हां। मैं उस का पति बोल रहा हूँ…..बेड नम्बर तेरह….. मैं अभी पहुंच लेता हूं…..अभी पहुंच रहा हूं…. हां- कुन्ती…..कुन्ती ही नाम है….’’ “’मां ?’’ मैं तत्काल बिस्तर से उठ बैठी।                “हां…”बप्पा मेरे पास  खिसक आए। “क्या हुआ ?’’ बुआ ने पूछा। “वह नहीं रही, अभी कुछ ही मिनट पहले। नर्स ग्लुकोज़ की बोतल बदल रही थी कि उसकी पुतलियां खुलते खुलते पलट लीं…’’ “अपना शरीर छोड़ कर वह तभी सीधी इधर ही आयी है, ’’बुआ की आवाज़ दुगुने वेग से लरज़ी, “अपनी मशीन पर….’’ “मुझे अभी वहां जाना होगा,’’ बप्पा ने मेरे कंधे थपथपाए, ’’तुम घबराना नहीं।’’ और उनके हाथ बाहर जाने वाले अपने कपड़ों की ओर बढ़ लिए। अपने कपड़ों को लेकर  वह बहुत सतर्क रहा करते। नयी या ख़ास जगह जाते समय ताजे़ धुले तथा इस्तरी किए हुए कपड़े ही पहनते। वह ड्राइवर थे। अपने हिसाब से, कैज़्युल। अवसरपरक। कुछ कार-मालिकों को अपना मोबाइल नम्बर दिए रहते, जिन के बुलाने पर उनकी कार चलाया करते। कभी घंटों के हिसाब से। तो कभी दिनों के। “अभी मत जाएं,’’ बुआ ने डयोढ़ी की दीवार पर लगी मां की घड़ी पर अपनी नज़र दौड़ायी, “रात के दो बज रहे हैं। सुबह जाना। क्या मालुम मरने वाली ने मरते समय हम लोग को जिम्मेदार ठहरा दिया हो !’’ “नहीं। वह ऐसा कभी नहीं करेगी। बेटी उसे बहुत प्यारी है। नहीं चाहेगी, उस का बाप  जेल काटे और वह इधर उधर धक्का खाए…..’’ मैं डर गयी। रोती हुई बप्पा से जा चिपकी। मां की मशीन और यह डयोढ़ी छोड़नी नहीं थी मुझे। “तुम रोना नहीं, बच्ची,’’ बप्पा ने मेरी पीठ थपथपायी, “तुम्हारी मां रोती थी कभी ?’’ “नहीं,’’ मेरे आंसू थम गए। “कैसे मुकाबला करती थी ? अपने ग्राहक-ग्राहिकाओं से ? पास पड़ोसिनों से ?  मुझ से ? बुआ से ? अम्मा से ?’’ यह सच था। ग्राहिकाएं या ग्राहक अगला काम दें न दें, वह अपने मेहनताने पर अड़ी रहतीं। पड़ोसिनें वक्त-बेवक्त चीनी-हल्दी हाज़िर करें न करें, वह अपनी तुनाकी कायम रखतीं। बप्पा लोग लाख भड़के-लपकें वह अविचल अपनी मशीन चलाए रखतीं। “हां…’’ मैं ने अपने हाथ बप्पा की बगल से अलग कर लिए। “अस्पताल जाना बहुत ज़रूरी है क्या ?’’ बुआ ने बप्पा का ध्यान बटांना चाहा।  “जरूरी है।बहुत जरूरी है।कुन्ती लावारिस नहीं है। मेरी ब्याहता है….’’ इधर बप्पा की स्कूटी स्टार्ट हुई, उधर मैं मशीन वाली कुरसी पर जा बैठी।  मां को महसूस करने। मशीन में मौजूद उनकी गन्ध को अपने अन्दर भरने। उन की छुअन को छूने। “चल उठ,’’ … Read more

बहुत बुरी हो माँ

बहुत बुरी हो मां

“बहुत बुरी हो मां” कौन सी माँ होगी जो अपने बच्चे के मुँह से ये शब्द सुनना चाहेगी | हर माँ अपने बच्चे की नजर में दुनिया कि सबसे बेहतर माँ बनना चाहती है | पर अच्छी माँ के दवाब में उससे भी कहीं ना  कहीं कुछ कमी रह जाती है या रह सकती है, तो क्या उसे बुरा कह दिया जाए ? या बुरी माँ की कोई अलग परिभाषा है ? क्या नरम दिल माँ ही अच्छी है ? क्या बच्चों के हित के लिए थोड़ा कठोर हो जाना, बुरा होने का पर्याय है | क्या माँ भी एक इंसान नहीं है, जिसके अपने आग्रह और पूर्वाग्रह हो सकते ? अपने देखे सुने इतिहास का भय हो सकता है ? ये कहानी ऐसे तमाम प्रश्नों से जूझती है | और इन प्रश्नों का उत्तर भी देती है | कहीं नया कहीं ये कहानी  कहती है कि  माँ बनना केवल नौ महीने का उतरदायित्व नहीं है ये पूरे 21 साल का प्रोजेक्ट है .. और कभी कभी उससे भी ज्यादा | वो अच्छी है या बुरी, ये बच्चों का भविष्य तय करता है | आइए पढ़ें एक माँ को अपने बच्चों के  प्रश्नों  के कटघरे में खड़ा करती डॉ . पूनम गुज़रानी की कहानी बहुत बुरी हो माँ  कितनी अजीब है दुनिया…. निरन्तर चलती रहती है…. अपने-अपने क्रम से…. दिन आता है, ढल जाता है, रात आती है, चली जाती है…. पूरी प्रकृति चलती रहती है बिना विश्राम के….कोई नहीं रुकता किसी के लिए….पर मानव हरदम रुक-रुक कर चलता है… अतीत कभी उसका पीछा नहीं छोङ़ता और भविष्य के खुशहाल, मघुर सपने देखने से वो बाज नहीं आता। जानता है सपने पूरे नहीं होते फिर भी देखता है दिवास्वप्न….ये भ्रम कि आने वाला कल अच्छा होगा उसकी आज की कङ़वाहट कम नहीं कर पाते पर च्यूंगम पर लगी मिठास के तरह दो पल ही सही मुँह  के कसैलेपन को चांद को रोटी बताकर बहलाने वाली मां की तरह बहला फुसलाकर आगे की जिंदगी जीने के लिए तैयार तो कर ही देती हैं। हर सुख के साथ दुख बिना बुलाए चला आता है  और दुख के बाद सुख की प्रतिक्षा जीने की जिजीविषा जागाए रखती है। वक्त आगे बढ़ता रहता है, घङ़ी की सूई घूमती रहती है…. पर कभी-कभी गाज गिराने के लिए वक्त की सुई  पीछे भी घूम जाती है। रत्ना ‌के वक्त की  सूई आज पीछे की ओर घूम गई…जब बरसों बाद फिर से उसे सुनने को मिला वही डायलाग…. “तुम बहुत बुरी हो मां….”। कितना कुछ उधङ गया इस एक वाक्य की कैंची से…. उसकी तमाम मजबूत सिलाई धङ़धङ़ाकर निकल गई और रंगीन कवर के नीचे से झांकने लगी पेबंद लगी जिंदगी….। अतीत के झरोखे से जब  झांकने लगी रत्ना… तो लगा कि उसका पूरा बचपन बहुत शानदार था। खुशकिस्मत थी रत्ना….प्रतापगढ़ राजधराने में जन्मी थी। रियासत अब नहीं थी पर रहन-सहन में ताम-झाम,शाही शानौ-शोकत आज भी कायम थी, महल नहीं था पर उसकी हवेली भी महल से कम नहीं थी,अदब वाले नौकर-चाकर भी हर समय अपनी हाजरी देने के लिए तत्पर रहते थे, उसकी कोई भी फरमाइश और ख्वाहिश हर हाल में पूरी की जाती थी। भाई वीरसेन और रत्ना हमेशा फूलों की बिस्तर पर सोये, सोने-चांदी की थाली में भोजन किया, बिन मांगे इतना कुछ मिला था कि मांगने की जरूरत ही नहीं पङ़ी। स्कूल-कॉलेज की गलियों में उछलते-कूदते, किताबों और नोट्स का आदान-प्रदान करते, एनवल फंक्शन के नाटकों में अपना किरदार निभाते, कॉफी हाउस में कॉफी की चुस्कियों के बीच सोमेश के साथ कब इश्क परवान चढ़ा पता ही नहीं चला। कितना विरोध सहन किया….. कितनी बंदिशों का सामना किया….. लगभग चार साल मनाती रही बापूसा को….. बहुत उकसाया सहेलियों ने भागकर शादी करने के लिए पर न वो राजी थी न सोमेश….. शादी जब भी होगी बङ़ो के आशीर्वाद के साथ होगी, यही ख्वाहिश थी दोनों की….. । जब बापूसा राजी हुए तभी हुई उन दोनों की शादी। बस खालिस एक साङ़ी में लिवा लाए थे स्वाभिमानी सामेश उसे। बापूसा बहुत कुछ देना चाहते थे पर सोमेश ने इंकार कर‌ दिया। रत्ना राजमहल से निकलकर साधारण से परिवार की बहू बन गई। वो खुश थी। सुदर्शन कद काठी, ऊंचे सपने, सादा जीवन-उच्च विचार का आदर्श सहेजे, शांति प्रिय युवक था उसका जीवनसाथी सोमेश। उसे गर्व था अपने निर्णय पर।सोमेश पढ़ने में बहुत अच्छा था और दूसरों को पढ़ाने में भी,  उसने टीचर की जॉब कर ली। शुरुआत में जीवनयापन की भी बहुत समस्याएं आई।पाई- पाई को दांत से पकड़ कर रखना रत्ना के वश की बात नहीं थी। कभी-कभी उसे थोङ़े से खर्च के लिए कई महीनों का इंतजार करना पङ़ता … महंगी साङ़ियां और ज्वेलरी सपना बनकर रह गई थी….  छोटी-छोटी बातों पर रत्ना के यहां आये दिन पार्टी का आयोजन होता था पर अब रत्ना को जन्मदिन और शादी की सालगिरह पर भी सिर्फ मंदिर जाकर संतोष करना पङ़ता….. । कभी-कभी झुंझला जाती वो….अपनी झुंझलाहट में सोमेश की साधारण नौकरी पर तीखे व्यंग्य करने से भी बाज नहीं आती…. उसे गुस्सा आता सोमेश पर…. क्यों दहेज नहीं लिया…. अगर लिया होता तो  सुख- सुविधाओं से युक्त शानदार घर से लेकर महंगी ज्वैलरी तक सब कुछ होता उसके पास…. पर सोमेश का शांत-संतुलित  व्यवहार उसकी हर नादानी को मुस्कराहट की हवा में उड़ा देने  की कला जानता था। वक्त के साथ धीरे-धीरे सोमेश के प्रेम ने हर रिक्तता को भर दिया। वो खुद भी सोमेश के रंग में रंगती चली गई। जब प्रेम सर चढ़कर बोलता है तो कमियां ही खूबियां बन जाती है।अब जरुरतें इतनी ही थी जितनी पूरी हो जाती। आगे चलकर सोमेश कॉलेज के प्रोफेसर हो गया। बहुत शानौ-शौकत न  सही पर  बंधी हुई आमदनी जीवन की जरुरतें पूरी करने के लिए प्रर्याप्त थी।अब दो बच्चों की मां रत्ना का पूरा ध्यान बच्चों की परवरिश पर था। रत्ना ने बचपन से लेकर जवानी तक जाने कितने बच्चों को ग़लत संगत में पङ़ते देखा था, कितने बच्चों को आवारा होकर उजङ़ते देखा था, जाने कितनी बार पढ़ा, कितनी बार सुना की बच्चे सही परवरिश के अभाव में शराब-सिगरेट पीने लगते हैं और अपना जीवन बर्बाद कर लेते हैं। उसके भाई वीरसेन को भी तो नशे की ऐसी लत लगी कि … Read more

माँ से झूठ

माँ से झूठ

  माँ ही केवल अपने दुखों के बारे में झूठ नहीं बोलती, एक उम्र बाद बच्चे भी बोलने लगते है | झुर्रीदार चेहरे और पोपले मुँह वाली माँ की चिंता कहीं उनकी चिंता करने में और ना बढ़ जाए |इसलिए अक्सर बेटियाँ ही नहीं बेटे भी माँ से झूठ बोलते हैँ | मदर्स डे के अवसर पर एक ऐसी ही लघुकथा .. माँ से  झूठ  ट्रेन ठसाठस भरी हुई जा रही थी | हाथ को हाथ नहीं सूझ रहा था | जनरल डिब्बे में बैठना तो क्या, खड़ा रहना भी मुश्किल था | ऑफिस से बुलावा ना आ गया होता तो वो भी तयौहार के मौसम में यूँ बिना रिजर्वेशन जाने के मूड में नहीं था | पर नौकरी जो ना करवाए सो कम | पसीने से लथपथ किसी तरह से जगह बना कर खड़ा हुआ तब तभी मोबाइल की घंटी बजी | अपनी ही जेब से मोबाइल निकालने की मशक्कत करने के बाद देखा माँ का फोन था | फोन उठाते ही माँ बोलीं, “बेटा गाड़ी में जगह मिल गई?” “हाँ! माँ, मिल गई, उसने आवाज में उत्साह लाते हुए कहा | “तू ठीक से तो बैठ गया ना?” माँ तसल्ली कर लेना चाहती थी | हाँ, बिल्कुल, काफी जगह है आराम से बैठा हूँ| “ तुम चिंता मत करो | उसने इस बार अपनी आवाज का उत्साह थोड़ा और बढ़ाया | “ठीक है बेटा, भगवान का लाख-लाख शुक्र है कि तुम्हें जगह मिल गई, मैं तो डर रही थी |” माँ के स्वर में तसल्ली थी और उसके चेहरे पर इत्मीनान | वंदना बाजपेयी यह भी पढ़ें … लघुकथा -कलियुगी संतान झूठा –(लघुकथा ) तोहफा (लघुकथा) एक लघु कहानी —–सम्मान

फ्लाइट

फ्लाइट

जीवन में हम कितनी उड़ाने भरते हैं | सारी मेहनत दौड़ इन उड़ानों के लिए हैं | पर एक उड़ान निश्चित है …पर उस उड़ान का ख्याल हम कहाँ करते हैं | आइए पढ़ें वरिष्ठ लेखिका आशा  सिंह की समय के पीछे भागते एक माँ -बेटे की मार्मिक लघु कथा … फ्लाइट  मां,मेरी सुबह सात बजे थी फ्लाइट है-आशुतोष ने सूचना दी। इतनी जल्दी- अंजलि हैरान हो गई। मैं तो आपका पचहत्तरवां जन्मदिन मनाने आया था, साथ साथ लालकिले पर झंडा रोहण भी देख लिया।शाम को आपके साथ केक काट लिया।काम भी तोजरूरी है- पैंकिंग में लग गया। अंजलि ने गहरी सांस ली कहना चाहती थी, अभी तो जी भरकर तुम्हें देखा भी नहीं, पसंद का खाना भी नहीं खिला सकी,पर कंठ अवरुद्ध हो गया।बेटे को उच्चशिक्षा दी,और वह विदेश उड़ गया।अपना घर संसार भी बसा लिया।बेटे केआग्रह पर जाती,पर वहां तो अकेलापन और हावी हो जाता।सब अपने में व्यस्त,किसी के पास समय नहीं था।कुछ देर के लिए कोई पास बैठ जाता, रेगिस्तान में फूल खिल जाते।इतने बड़े बंगले से तो अपना मुम्बई का छोटा फ्लैटही अच्छा।सामने पार्क में कुछ वरिष्ठ लोग मिलते, बातें होती। घर आकर कामवाली बाई से चोंच लड़ती।एकाकी होने के कारण थोड़ी चिड़चिड़ी हो गई थी। काश, यह रात कभी ख़तम न हो।कल सुबह आशु चला जायेगा, पुनः एकाकीपन का अंधेरा डसने लगेगा। चुपचाप बालकनी में कुर्सी पर बैठ गई। सुबह आशु मां से विदा लेने आया, फ्लाइट पकड़नी थी,पर मां की फ्लाइट तो उड़ चुकी थी। आशा सिंह यह भी पढ़ें …. ठकुराइन का बेटा जेल के पन्नों से -नन्हा अपराधी अहसास दीपक शर्मा की कहानी -चिराग़-गुल आपको कहानी “फ्लाइट” कैसी लगी ? हमें अपने विचारों से अवश्य अवगत कराए | अगर आपको अटूट बंधन की रचनाएँ पसंद आती हैं तो साइट को सबस्क्राइब करें और अटूट बंधन फेसबुक पेज लाइक करें |

जेल के पन्नों से–हत्यारिन माँ

जेल के पन्नों से--हत्यारिन माँ

“माँ”, दुनिया का सबसे खूबसूरत शब्द है |माँ शब्द के साथ एक शब्द और जुड़ा है ….ममता, जैसे देवत्व का भाव | माँ, जो जन्म देती है, माँ जो पालती है, चलना सिखाती है ,उंच -नीच समझाती  है,हर बला से बचाती है क्या वो हत्यारिन हो सकती ? वरिष्ठ लेखिका आशा सिंह जी  के धारावाहिक “जेल के पन्नों से” के भाग दो में पढिए एक हत्यारिन माँ की रोंगटे खड़े कर देने की कहानी .. जेल के पन्नों से–हत्यारिन माँ यह घटना शायद न लिखती,पर आंध्र प्रदेश के चित्तूर की घटना ने विवश कर दिया। पिता कैमिस्ट्री में पी एच डी, स्कूल के उप प्रधानाचार्य, मां गणित में एम एस सी , तंत्र के जाल में फंस कर अपनी ही दोनों बेटियों की हत्या कर दी। शवों के पास इस विश्वास से बैठे रहे-सत्ययुग आयेगा। बेटियां पुनर्जीवित हो जायेगी। जब इतने शिक्षित अंधविश्वास में ग्रसित होकर ऐसा कर सकते हैं,तो गांवों में वैसे ही टोना टोटका चलता है। जेल के बाहर कर्मचारियों के आवास थे।सांय महिलाएं गपशप करतीं।जब ऐसे ही हल्की फुल्की चर्चा चल रही थी,जेल की महिला वार्डन जमुना कैदी को लगभग घसीटते हुए ले जा रही थी। जमुना को इतना बिफरते नहीं देखा था। हम लोगों ने उसे टोका-‘आज इतना गुस्सा क्यों आ रहा। मैडम,जब आप लोगों को इसके बारे में पता चलेगा,आप भी मुझसे ज्यादा अंगारा हो जायेंगी। हम लोगों ने उस स्त्री पर ध्यान दिया।गोरी चिट्टी नाटे कद की सुंदर महिला चेहरे पर पिटाई की सूजन बिखरे बाल चेहरे पर मुर्दिनी छाई हुई थी। जमुना ने बात आगे बढ़ाई-राजापुर गांव की अच्छे खाते पीते परिवार की है। कुर्मी परिवार खेतों में बहुत परिश्रम करते हैं। महिलाएं भी पूरा साथ देती हैं।रहन सहन में सीधे और मालदार होते हैं। अक्सर मुकदमे में इनकी गारंटी ली जाती है। एक बार गांव के ठाकुर की जमानत के लिए बूढ़े पटेल जी पहुंचें।उनकी सादी वेशभूषा देख कर जज को विश्वास न हुआ कि ये इतनी रकम भर सकेंगे।पटेल जी ने पोटली बढाई,साहब गिनवा लें। ज्यादा हो तो वापिस करें,कम हो तो भी बताया जाये। चौधरी टीकाराम का अच्छा परिवार बीस बीघे की काश्त और पक्का मकान।दो जवान बेटे पिता के साथ हाड़ तोड़ मेहनत करते। दोनों बेटो का ब्याह कर दिया।पूरा परिवार प्रेम से रहता। बड़े भाई का पांच साल का बेटा चुनमुन सबकी आंखों का तारा था। छोटी बहू की गोद खाली थी।वह भी बच्चे को बेहद प्यार करती।बच्चा भी काकी से ही चिमटा रहता। लिहाजा सास और जिठानी निश्चित हो कर खेतों की निराई करती। पता नहीं क्यों मायके से लौट कर उदास रहने लगी।पति के पूछने पर निस्संतान रहने के कारण दुख बताया।पति ने हंसकर कहा-है ना चुनमुन। अन्तर में क्या ज्वाला जल रही थी,कोई भांप न सका। सारे सदस्य खेतों पर गये थे। चुनमुन काकी के साथ घर पर ही था। काकी जाकर गौ के लिए चारा काटने लगी।बच्चा गले से लिपट कर मनुहार करने लगा- काकी लड्डू दो। दुपहरिया में बाकी सदस्य आ गया। भोजन के लिए बैठ गया। बच्चे को सामने न देख पुकारा जाने लगा। सोचा कि बालक शरारत से कहीं छुप गया है। दादी बोली- बचवा , अब तंग न करा। जल्दी से आओ। तुम्हारे लिए रोटी पर घी लगा दिया। छोटी बहू पागलों की तरह चीखने लगी-अब वह कभी नहीं आयेगा। उसके पति ने पूछा- क्या आंय बांय बक रही है। कहां गया चुनमुन। बेहद वीभत्स उत्तर मिला-हम उसको गंडासा से काट कर खून पिये।साधु बाबा कहे थे कि फिर वह तुम्हारे पेट से जन्म लेगा। सबको लगा विक्षिप्त हो गई है। अनर्गल प्रलाप कर रही है। बूढ़ी दादी – हंसी न कर।बबुआ कहां है। हम भूले के ढेर में तोप दिये हैं। किसी ने पुलिस को सूचना दे दी, अन्यथा सब उसे पीट पीटकर मार डालते। उस हत्यारिन पिशाचनी को देख उबकाई आने लगी।हम लोगों की स्थिति देख जमुना फौरन लेकर चली गई। ऐसे ही लाखों ढोंगी बाबा हैं। पता नहीं कैसे इनके जाल में फंस जाते हैं।   यह भी पढ़ें ॥ जेल के पन्नों से दरवाजा खुला है नीम का पेड़‘ बोलती का नाम गाड़ी आपको धारावाहिक जेल के पन्नों से–हत्यारिन माँ कैसा लगा ? हमें  अपनी अवश्य अवगत कराएँ | अगर  आपको अटूट बंधन की रचनाएँ पसंद   आती   हैं  तो साइट को सबस्क्राइब करें व अटूट बंधन फेसबुक पेज    लाइक करें |

व्यस्त चौराहे

व्यस्त चौराहे

ये कहानी है एक व्यस्त चौराहे की, जो साक्षी बना  दुख -दर्द से जूझती महिला का, जो साक्षी बना अवसाद और मौन का ,जो साक्षी बना इंसानियत का | कितनी भी करुणा उपजे , कितना भी दर्द हो ,पर ये व्यस्त चौराहे कभी खाली नहीं होते .. लोगों की भीड़ से ,वाहनों के शोर से और साक्षी होने के ..  मौन अंतहीन दर्द की शृंखलाओं से | आइए पढ़ें मीन पाठक जी की एक ऐसी ही मार्मिक कहानी व्यस्त चौराहे  जब से आरोही ने ये नया ऑफिस ज्वाइन किया था, शहर के इस व्यस्त चौराहे से गुजरते हुए रोज ही उस अम्मा को देख रही थी। मझोला कद, गोरी-चिट्टी रंगत, गंदे-चिकट बाल, बदन पर मैले-कुचैले कपड़े, दुबली-पतली और चेहरे पर उम्र की अनगिनत लकीरें लिए अम्मा चुपचाप कुछ ना कुछ करती रहती। वह कभी अपना चबूतरा साफ़ करती, कभी चूल्हे में आग जलाती तो कभी अपने सेवार से उलझे बालों को सुलझाती हुई दिख जाती। आरोही जब भी उसे देखती उसके भीतर सैकड़ों सवालों के काँटे उग आते। कौन है ये? यूँ बीच चौराहे पर खुले में क्यूँ अपना डेरा जमाए बैठी है? छत्त के नाम पर ऊपर से गुजरता हाइवे और दीवारों के नाम पर वो चौंड़ा सा चौकोर पिलर; जो अपने सिर पर हाइवे को उठाये खड़ा था, वही उसका भी सहारा था। अम्मा ने कुछ बोरों में ना जाने क्या-क्या भर कर उसी से टिका रखा था। वहीं छः ईंट जोड़ कर चूल्हा बना था। कुछ एल्युमिनियम के पिचके टेढ़े-मेढ़े बर्तन, प्लास्टिक की पेण्ट वाली बाल्टी और चूल्हे के पास ही कुछ सूखी लकड़ियाँ रखी थीं। यही थी उसकी घर-गृहस्थी। उसे देख कर आरोही के मन में ना जाने कैसे-कैसे ख्याल आते। वह सोचती कि उम्र के जिस पड़ाव पर अम्मा है, उसके बेटे-बेटियों के बालों में भी सफेदी झाँक रही होगी। उनके बच्चे भी बड़े हो रहे होगें। इसका पति जीवित है भी या नहीं! क्या उसे अम्मा की याद नहीं आती या अम्मा ही सब भूल गयी है ? इतने शोर में यहाँ कैसे रहती है अम्मा ? इन्हीं सब प्रश्नों के साथ आरोही ऑफिस पहुँच कर अपने काम में जुट जाती। लौटते समय फिर से चौराहे पर उसकी आँखें अम्मा को ऐसे तलाशतीं जैसे मेले की भीड़ में कोई अपने को तलाशता है। उस दिन किसी कारणवश आरोही को ऑफिस से जल्दी लौटना पड़ा। ऑटो से उतर कर चौराहे पर पहुँची तो आदतन उसकी आँखें अम्मा के चबूतरे की ओर उठ गयीं। उसने देखा कि अम्मा कोई कपड़ा सिल रही थी। कुछ सोचते हुए पहली बार आरोही के कदम खुद-ब-खुद अम्मा की ओर बढ़ गए। पास आ कर उसने देखा, अम्मा के सामने ही एक प्लेट पर काली रील रखी हुयी थी और अम्मा बड़ी तल्लीनता से ब्लाउंज की फटी आस्तीन सिलने में जुटी थी। उसने बैग से अपना टिफिन बॉक्स निकाल लिया। “अम्मा..! प्लेट इधर करना ज़रा।” टिफिन खोलते हुए बोली वह। अम्मा अपने काम में लगी रही। जैसे उसने सुना ही ना हो। “प्लेट इधर कर दो अम्मा।” आरोही इस बार कुछ जोर से बोली। उसकी तरफ देखे बिना ही अम्मा ने सुई को कपड़े में फँसा कर रील गिराते हुए प्लेट उसकी ओर खिसका दिया और फिर से सिलाई में लग गई। “लो, अम्मा !” लंच प्लेट पर रख कर उसके आगे सरकाते हुए आरोही ने कहा; पर अम्मा अपने काम में मगन थी, कुछ न बोली। लंच यूँ ही अम्मा के सामने रखा रहा और अम्मा अपना काम करती रही। आरोही थोड़ी देर वहीं खड़ी रही; पर जब अम्मा की तरफ से कोई प्रतिक्रिया नहीं हुयी तब वह चुपचाप अपने रास्ते हो ली। मन ही मन सोच रही थी कि पता नहीं उसने जो किया वो उसे करना चाहिए था या नही; पर अम्मा के करीब जाने का उसे वही एक रास्ता सूझा था। अब तो रोज ही आते-जाते कुछ न कुछ उसके आगे रख देती आरोही लेकिन कभी भी ना तो अम्मा ने आरोही की ओर देखा, ना ही उसके कहने पर चीजें अपने हाथ में ली। कभी-कभी तो वह अम्मा के इस रवइए पर खिन्न हो जाती; पर अम्मा के नज़दीक जाने का और कोई ज़रिया उसे दिखाई नहीं दे रहा था। वह करे भी तो क्या ! जब भी वह उसके पास जा कर खड़ी होती तब ना जाने कितनी बार उसका जी चाहता कि वह बात करे अम्मा से। पूछे, कि वह कहाँ से आई है? यहाँ क्यों रह रही है? उसके घर में कौन-कौन हैं? परन्तु अम्मा के व्यवहार से आरोही की हिम्मत न होती और घर आ कर देर तक उसके बारे में ही सोचती रहती। उस दिन लौटते समय आरोही ने देखा कि अम्मा आने-जाने वालों को उंगली दिखा कर कुछ बोल रही थी। जैसे यातायात के नियमों को ताक पर रखने के लिए उन सबको डाँट रही हो, “सुधर जाओ तुम लोग नहीं तो भुगतोगे।“ जिज्ञासावश आरोही अम्मा की तरफ बढ़ गयी। कुछ और लोग भी उसी की तरह उत्सुकतावश रुक कर उसे देख रहे थे। अम्मा को देख कर आरोही ठिठक गयी। उसकी आँखों में अंगारे दहक रहे थे। भौंहें कमान-सी तनी थीं। गले की नसें खिंच कर उभर आई थीं। अम्मा ऊँची आवाज में बोले जा रही थी; पर उसे कुछ समझ नहीं आया। वह चुपचाप देखती रही फिर वहीं बैठे एक रिक्शेवाले से पूछ लिया उसने, “क्या हुआ अम्मा को ?” “कबहू-कबहू बुढ़िया पगलाय जात। थोड़ो दिमाग खिसको है जाको।” चुल्लू भर मसाला वहीं चप्प से थूक कर अंगोछे से दाढ़ी पर छलका थूक पोछते हुए बोला वह। सुन कर धक्क से रह गयी आरोही। वह उसे इस हाल में पहली बार देख रही थी। उसे हमेशा चुप-चाप अपना काम करते हुए ही देखा था उसने। वहाँ लोगों के खड़े होने से जाम लगने लगा था। आती-जाती गाड़ियों की रफ़्तार थमने से उनके हॉर्न तेज हो गए थे। तभी चौराहे पर खड़ा सिपाही सीटी बजाता हुए वहीं आ गया। उसे देखते ही वहाँ खड़े सभी लोग तितर-वितर हो गए। गाड़ियों की कतारें रेंगती हुयी निकलने लगीं और थोड़ी देर में ही यातायात पहले जैसा सामान्य हो गया। रिक्शेवाले की बात सुन कर आरोही के दिल में कुछ चुभ-सा गया था। वह सोचने लगी कि कहीं अम्मा के इस … Read more

यामिनी नयन गुप्ता की कवितायें

कविता मानस पर उगे भाव पुष्प है | मानव हृदय की भावनाएं अपने उच्चतम बिंदु पर जा कर कब कैसे कविता का रूप ले लेती हैं ये स्वयं कवि भी नहीं जानता|भाव जितने ही गहरे होंगे पुष्प उतना ही पल्लवित होगा | आज हम पाठकों के लिए यामिनी नयन गुप्ता की कुछ  ऐसी ही कुछ कवितायें लायें हैं जो भिन्न भिन्न भावों के पुष्पमाला की तरह है |आइये पढ़ते हैं … प्रणय के रक्तिम पलाश  फिर वही फुर्सत के पल फिर वही इंतजार , खिलना चाहते हैं हरसिंगार अब मैंने जाना ___क्यों तुम्हारी हर आहट पर मन हो जाता है सप्तरंग ; मैं लौट जाना चाहती हूं अपनी पुरानी दुनिया में देह से परे ___ प्रकृति की उस दुनिया में फूल हैं ,गंध है , फुहार है, रंग हैं , बार-बार तुम्हारा आकर कह देना यूं ही __ मन की बात बेकाबू जज़्बात , मेरे शब्दों में जो खुशबू है तुम्हारी अतृप्त बाहों की गंध है , इन चटकीले रंगों में नेह के बंध हैं इंद्रधनुषीय रंग में रंगे हुए मेरी तन्मयता के गहरे पल हैं , बदल सा गया हर मंजर यह भी रहा ना याद बह गया है वक्त ____ लेकर मेरे हिस्से के पलाश हां ____ मेरे रक्तिम पलाश ।          यामिनी नयन गुप्ता 2 .                   मां के आंगन का बसंत मां के आंगन का वृक्ष था वह हरा-भरा छितराया मन भर हरसिंगार इतना महका एक बार कि पीछे बाग को जाती पगडंडी  छुप गई थी मां बोली ” जा बिटिया ‼️ बीनकर ले आ कुछ हरसिंगार अपनी बिटिया और उसकी गुड़िया के लिए मैं बनाऊंगी छोटे-छोटे गजरे “ मैं जाकर झट से चुन लायी मन भर हरसिंगार अपनी  फ्रॉक  के सीमित वितान में। जिस सुबह एक बार जागकर पुनः चिर निद्रा में लीन हो गई थीं मां रोया नहीं था वो वृक्ष हरियाले तने हो गए थे काजल से स्याह खिलखिलाते पत्ते  हो गए धूल-धूसरित निर्जीव हो गयीं सफेद फूलों की नारंगी डंडियां , शायद अब कभी लौट कर नहीं आएगा इस आंगन में बसंत । मुक्ति द्वार में जाते समय भी मां को याद रहा होगा पिता का अकेलापन ; या कि मेरे बचपन की यादें या कि मां को भी याद आया होगा अपनी मां का चेहरा , मेरे शब्दों में रहती हैं वो कविता का नेपथ्य बनकर मां मैं  होना चाहती हूं तेरी रोशनाई । यामिनी नयन गुप्ता 3 .                  एक बसंत अपना भी ___                  जब एक पुरूष लगाता है स्त्री पर आक्षेप , अपनी श्रेष्ठता का सिद्ध करने के लिए करता है स्त्री अस्मिता का हनन , प्रथम दृष्ट्या प्रतिक्रिया स्वरुप काठ हो जाती है औरत नजर नीची किए साड़ी के पल्ले को घुमाती है उंगलियों की चारों तरफ और याद करती है सप्तपदी के वचन मन से भी तेज गति होती है अपमान की , वो हो जाती है अवाक् , निर्वाक् और तुम समझते हो __ विजयी हो गए ? जब तुम कहते हो , ” मूर्ख स्त्री !! तुम चुप नहीं रह सकतीं ?” यह महज़ एक तिरस्कार नहीं है उपेक्षा नहीं हैं यह है एक स्त्री को उसकी औकात बताने का उपक्रम स्त्री भला कब अपनी तरह से जीने को हुई स्वतंत्र एक स्वाभिमानी स्त्री को  नीचा दिखाने का है यह षड्यंत्र; जिस घर में होता है स्त्रियों का रुदन वह दहलीज हो जाती है बांझ श्मशान हो जाता है आंगन उस घर की बगिया से बारहोमास का हो जाता है पतझड़ का लगन  ; बुरे से बुरे अपशब्दों का समाज कर देता है सामान्यीकरण अरे !!  कुल्टा !! कुलक्ष्नी कह दिया तो क्या हुआ है तो भरतार ही , और एक दिन भर जाता है घडा़ अपमान का लबलबाकर उफन जाती है नदी वेदना की खंडित स्वाभिमान की चीखों से मौन हो जाता है भस्म , उधड़ चुकी मन की भीतरी सीवन से झर-झर जाती हैं निष्ठाएं , रेशे-रेशे जोडी़ महीन बुनावट  के ढीले पड़ जाते हैं बंधन पीले पड़ते पत्तों का कोरस ही नहीं हैं ये खांटी औरतें इनके जीवन में भी एक दिन आएगा अपना एक बसंत । यामिनी नयन गुप्ता नाम : यामिनी नयन गुप्ता जन्मतिथि : 28/04/1972 जन्मस्थान : कोलकाता शिक्षा : स्नातकोत्तर ( अर्थशास्त्र ) लेखन विधा : कविताएं , हास्य-व्यंग्य , लघुकथाएं काव्य संकलन : आज के हिंदी कवि (खण्ड१)                         दिल्ली पुस्तक सदन द्वारा                         तेरे मेरे शब्द ( साझा)                        शब्दों का कारवां ( साझा)                        मेरे हिस्से की धूप ( साझा )                        काव्य किरण  (साझा )                     चाटुकार कलवा 2020                       व्यंग्य संग्रह ( साझा )        एकल काव्य संग्रह ( अस्तित्व बोध) संप्रति : व्यवसायिक प्रतिष्ठान में कार्यरत सम्मान : काव्य संपर्क सम्मान              नवकिरण सृजन सम्मान  पाखी में प्रकाशित हुई हैं कविताएं एवं कथाक्रम में कहानी “कस्तूरी “      4th अगस्त समाचार पत्र जनसत्ता रविवारीय एवं जून की यथावत् में प्रकाशित हुई हैं कविताएं।        प्रतिष्ठित साहित्यिक समाचार पत्र जनसत्ता ,अमर उजाला एवं साहित्यिक पत्रिका आलोक पर्व , कथाक्रम सेतु ,मरू नवकिरण, अवधदूत ,  दैनिक युगपक्ष , ककसाड़ , सरिता , वनिता ,रूपायन व अन्य राष्ट्रीय स्तर के पत्र- पत्रिकाओं में कविताएं , लघुकथाएं , हास्य-व्यंग्य प्रकाशित । विषय  : नारी व्यथा ,विरह ,प्रेम..पर मैं लिखती हूं।साथ ही          वर्तमान परिपेक्ष्य में स्री् कशमकश ,जिजीविषा और          मनोभावों को कविता में उकेरने का प्रयास रहता है ।              yaminignaina@gmail.com मर्द के आँसू रिश्ते तो कपड़े हैं सखी देखो वसंत आया नींव आपको   “यामिनी नयन गुप्ता की कवितायेँ  “ कैसी   लगी   | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन”की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें | filed under-poem, hindi poem, mother, palash, yamini

“माँ“ … कहीं बस संबोधन बन कर ही न रह जाए

माँ केवल एक भावनात्मक संबोधन ही नहीं है , ना सिर्फ बिना शर्त प्रेम करने की मशीन ….माँ के प्रति कुछ कर्तव्य भी है …. “माँ” … कहीं बस संबोधन बन कर ही न रह जाए डुग – डुग , डुग , डुग … मेहरबान कद्रदान, आइये ,आइयेमदारी का खेल शुरू होता है | तो बोल जमूरे … जी हजूर सच –सच बताएगा जी हजूर आइना दिखाएगा जी हजूर दूध का दूध और पानी का पानी करेगा जी हजूर तो दिखा …. क्या लाया है अपने झोले में हजूर, मैं अपने झोले में लाया हूँ मनुष्य को ईश्वर का दिया सबसे नायब तोहफा “सबसे नायब तोहफा … वो क्या है जमूरे, जल्दी बता?” “हुजूर, ये वो तोहफा है, जिसका इंसान अपने स्वार्थ के लिए दोहन कर के फिर बड़ी  बेकदरी करता है |” “ईश्वर के दिए नायब तोहफे की बेकद्री ,ऐसा क्या तोहफा है जमूरे ?” “हूजूर ..वो तोहफा है … माँ” “माँ ???” “जी हजूर , न सिर्फ जन्म देने वाली बल्कि पालने और सँभालने वाली भी” “वो कैसे जमूरे” “बताता हूँ हजूर , खेल दिखता हूँ हजूर …… हाँ ! तो मेहरबान  कद्रदान , जरा गौर से देखिये … ये हैं एक माँ,चारबच्चों की माँ , ९० साल की रामरती देवी |झुर्रियों से भरा चेहरा कंपकपाती आवाज़, अब चला भी नहीं जाता | रामरती देवी वृद्ध आश्रम के एक बिस्तर पर  पड़ी जब – तब कराह उठती हैं | पनीली आँखे फिर दरवाज़े की और टकटकी लगा कर देखती हैं | शायद प्रतीक्षारत हैं | मृत्यु का यथार्थ सामने है पर मानने को मन तैयार नहीं की उसके चार बेटे जिन्हें उसने गरीबी के बावजूद अपने दूध और रक्त से बड़ा किया | जो बचपन में उन्हेंचारों ओर घेरे हुए ,” अम्मा ये चाहिए , अम्मा वो चाहिए कहते रहते थे | जब तक वो देने योग्य थी , देती रही | पर अब जब वो अशक्त हुई तो उसको मिला आश्रम का अकेलापन | आज बड़े आदमी बनने के बाद उसके बच्चे यह भी भूल गए की कम से कम एक बार तो पू छना चाहिएथा , “अम्मा तुम्हें क्या चाहिये “?पूछना तो दूर उनका साथ रहना बेटों के लिए भारी हो गया | आश्रम में लायी गयी रामरती देवी बस “माँ ” ही हो सकती है | जो समझते हुए भी नहीं समझ पाती तभी तो प्रतीक्षारत है अपने बेटों की , की आश्रम द्वारा बार – बार नोटिस भेजे जाने पर, “तुम्हारी माँ का अंतिम समय है , आ कर देख जाओ” शायद आ जाये | शायद एक बार दुनिया से कूँच करने से पहले उन्हें सीने से लगा सके | बरसों से अकेले , उपेक्षित रहने का दर्द शायद …शायद कुछ कम हो सके | पर साहिबान रामरती देवी अकेली नहीं है आज न जाने कितनी माएं अपनी वृद्धावस्था में घर के अन्दर ही उपेक्षित , अवांछित सी पड़ी है | जिनका काम बस आशीर्वाद देना भर रह गया है | ये देखिये साहिबान वो भी माँ ही है …..जिसे हमारे पूर्वजों ने धरती मैया कहना सिखाया | सिखाया की सुबह सवेरे उठ कर सबसे पहले उसके पैर छुआ करो | माँ शब्द से अभिभूत धरती माता हँस हँस कर उठा लेती है अपनी संतानों के भार को | जब – जब रौंदी जाती है हल से उपजाती है तरह –तरह की वनस्पतियाँ … कहीं भूँखी न रह जाएँ उसकी संतानें | न जाने कितने अनमोल रत्न छिपाए रहती है अपने गर्भ में , अपनी संतति को सौपने के लिए | पर हमने धरती के साथ क्या किया | पहाड़ काटे , नदियों का रास्ता मोड़ा … यहाँ तक तो कुछ हद तक समझ में आता है | पर जंगल जलाना, ये क्रूरता ही हद है | जिस समय मैं ये कह रहा हूँ उत्तराखंड के जंगल धूँ, धूँ कर के जल रहे हैं | कितने पेड़, कितने जीव –जंतु रक्षा, दया के लिए याचना करते – करते काल के गाल में भस्म हो रहे होंगे | सुनते हैं भू माफिया का काम है | जगल साफ़ होंगे | शहर बसेंगे | बड़े –बड़े भवन खड़े होंगे | पैसे –पैसे और पैसे आयेंगे | माँ तड़प रही है | किसे परवाह है | और तो और जहाँ – जहाँ धरती मैया अपने अन्दर जल समेटे हैं | वहाँ उसका बुरी तरह दोहन हो रहा है |घर – घर बोरिंग हो रही है | ट्यूबवेल लग रहे हैं |धरती दे रही है तो चाहे जितना इस्तेमाल करो |बहाओ , बहाओ , खूब बहाओ | रोज कारे धुल रहीं हैं , नल खुले छूट रहे हैं , पानी की टंकी घंटो ओवर फ्लो कर रही है | किसे चिंता है लातूर औरबुंदेलखंडबूंद – बूँद पानी को तडपते लोगो की |किसे चिंता है धरती माता के अन्दर प्लेटों के रगड़ने की | कितना कष्ट होता होगा धरती माँ को | पर किसे परवाह है | ये देखिये साहिबान एक और माँ … अपनी गंगा मैया | अभिभूत संतति “ जय गंगा मैया “ का उद्घोष कर हर प्रकार का कूड़ा – करकट गन्दगी उसे समर्पित कर देती है | माँ है … सब सह लेंगी की तर्ज पर | और गंगा मैया, सिसकती होगीशायद | हर बार उसके आँसू मिल जाते होंगे उसी के जल में | कहाँ देख पाते हैं हम | वैसे भी आँसू देखने की नहीं महसूस करने की चीज है | तभी तो अब थक गयी रोते –रोते |सिकुड़ने लगी है | समेटने लगी है अपने अस्तित्व को |माँ का आदर प्राप्त “ गंगा मैया “ अक्सर याद करती होंगी अपने अतीत को | जब भागीरथ उसे स्वर्ग से उतार लाये थे | तब ममता पिघल – पिघल कर दौड़ पड़ी थी अपने शिशुओं की प्यास बुझाने को | संतानों ने भी माँ कह कर सम्मानित किया | उसके तटो पर बस गयी हमारे देश की संस्कृति | पर कहाँ गया वो सम्मान | आश्चर्य हर – हर गंगे कह कर गंगा से अपनी पीर हरवाने वाली संतति नाले में तब्दील होती जा रही गंगा की पीर से अनजान कैसे हैं? और देखिये साहिबान …ये हैं वो गौ माता … ३३ करोंण देवताओं का जिसमें वास है | जिसे दो रोटी की … Read more