मन की गाँठ (कोरोना इफ़ेक्ट )

ये समय जब इतिहास में लिखा जाएगा तो शायद कोरोना काल के रूप में जाना जाएगा | साहित्य पर समय और समाज का प्रभाव पड़ना स्वाभाविक ही है | आज कई कहानियाँ , कवितायें कोरोना को केंद्र में ले कर लिखी जा रही हैं | प्रस्तुत कहानी मे भी  कविता सिंह जी ने भी कोरोना को केंद्र में लिख कर एक बहुत मर्मस्पर्शी कहानी बुनी है | हालांकि ये कहानी स्त्री मन की कोमल भावनाओं को इंगित करती है ..उसके मन की परतों को खोलती है | स्त्री ममत्व का दरिया है जो चाहकर भी उन रिश्तों के प्रति कठोर नहीं हो पाती जिन्हें उसने जीवन भर संजोया -संवारा है | यहाँ कोरोना मन की गांठों को खलने का कारण  बनता है …. मन की गाँठ (कोरोना इफेक्ट) साठ साल की सोमवती जी बेचैनी से करवट बदल रही थीं, कभी उठती बाथरूम जातीं कभी ग्लास में पानी उड़ेलतीं। उन्हें समझ नहीं आ रहा था कि आज की खबर से वो इतनी बेचैन क्यों थीं। बार-बार खिड़की के पर्दे हटाकर देखतीं, सुबह हुई या नहीं। कोई तो दुःख था जो उन्हें मथ रहा था। कितनी रात गए उनकी आंख लगी उन्हें पता ही नहीं चला। “दादी..दादी उठो! आज कितनी देर कर दी तुमने, देखो तो दस बज गए।” दस साल के पोते वीर की आवाज सुनकर उनकी आंख खुल गयी। “अरे इतनी देर हो गयी आज!” वो बड़बड़ाते हुए उठी और वीर को प्यार करके बाथरूम में घुस गयीं। ” पापा! दादी अभी सो रही थीं, मैं अभी जगाकर आया उनको।” बेटे की बात सुनकर लक्ष्मण और सीमा एकदूसरे का मुँह देखने लगे। उनके लिए ये बेहद आश्चर्य की बात थी। मां को यहाँ आये दो साल हो गए थे पर कभी भी वो इतनी देर तक नहीं सोई। अबतक तो वो सोसाइटी के बाहर वाले मंदिर के भजन कीर्तन में शामिल होकर घर भी आ जाती थीं। लक्ष्मण को चिंता हुई वो मां के कमरे की ओर बढ़ गया। वहाँ जाकर देखा तो सोमवती जी चुपचाप कुर्सी पर बैठी खिड़की के बाहर देख रही थीं। ” क्या हुआ माई, तबियत ठीक नहीं क्या तुम्हारी? आज तुमने पूजा भी नही किया?” ‘नहीं लछमन ऐसी कोई बात नही, रात में देर से आँख लगी तो उठने में देर हो गई।” “तो क्या हुआ माई चलो बाहर वीरू बैठा नाश्ते के लिए इंतजार कर रहा।” लक्ष्मण ने मां को सहारा देने के लिए हाथ बढ़ाया। “तु चल हम आ रहे हैं, आज तो तुम्हारी ऑफिस भी नहीं होगी, कोई बीमारी फैली है ना!” “हाँ माई, बड़ी खराब बीमारी है, एक आदमी से दूसरे के हो जाती है। इसी कारण सरकार ने सबकुछ  बन्द कर दिया है।” “चल!” कहते हुए वो अपने चेहरे की मायूसी को ढकने की नाकाम कोशिश करते हुए लक्ष्मण के साथ बाहर हॉल में आ गईं जहाँ लक्ष्मण की पत्नी सीमा और वीर उनदोनों का इंतजार कर रहे थे। सीमा ने सबको नाश्ता परोसा और उनकी तरफ देखते हुए चिंतित स्वर में बोली– “क्या हुआ मां जी? आपकी तबियत तो ठीक है ना?” “हाँ! तबियत सही है हमारी। अच्छा ये बताओ कबतक बन्द रहेगा सबकुछ?” “बस कुछ दिन की बात है माई।” लक्ष्मण ने जवाब दिया। सबलोग नाश्ता करके उठने लगे, उन्होंने देखा सोमवती जी ने तो कुछ खाया ही नहीं। उन्हें लगा लोकडाउन के वजह से उनका मन उदास है।   सोमवती जी पिछले दो साल से अपने छोटे बेटे के साथ शहर में रह रहीं थी और उनके पति बड़े बेटे के साथ पास के गाँव में।    उन्होंने दो सालों से अपने पति का मुँह नहीं देखा था। पर आज जब टीवी में सुना कि ये बीमारी बच्चों और बूढ़ों के लिए ज्यादा खतरनाक है तब से उनका मन बेचैन था। दो वर्ष की नाराजगी आँखों के रास्ते पिघलने लगी थी। बार-बार सोचती बच्चों से एकबार गाँव की खबर लें पर चाह के भी वो ऐसा नहीं कर पातीं आखिर करें भी तो कैसे करें, खुद ही कसम दे रखीं थीं इस घर में उनके सामने गाँव की कोई बात नहीं होगी। हाँ कभी- कभी बड़े बेटे राम से बात जरूर कर लेतीं पर वहाँ भी पिता के बारे में बात करने की मनाही थी उनकी तरफ से। आखिर क्या किया था राम के बाबूजी ने, जिससे तिलमिलाकर उनकी जैसी धैर्यवान स्त्री ने इतना बड़ा फैसला ले लिया। आज सबकुछ फ़िल्म की तरह उनके आँखों के सामने घूमने लगा था।   पैंतालीस बरस पहले ब्याह के आईं थी उस घर में। जहाँ सास, विधवा चचिया सास और एक बड़ी ननद ने उनका स्वागत किया था। भरा पूरा घर था, अपनी उम्र से तीन साल छोटा एक देवर और उससे दो साल छोटी एक और ननद, जिनकी जिम्मेदारी सास ने उनको हांडी छुआते समय ही सौंप दिया। पंद्रह बरस की नादान उमर में ही पूरी गृहस्थी का बोझ ढ़ोते हुए वो कब परिपक्व हो गयीं उन्हें खबर ही नहीं लगी। बड़ी ननद ससुराल में झगड़ा करके नैहर में आके बैठ गयीं थीं जिनका हुक्म बजाते-बजाते रात हो जाती पर उनको सोमवती जी कभी सन्तुष्ट नहीं कर पायीं। ससुरजी दबंग इंसान थे उनके सामने किसी के मुँह से आवाज भी नहीं निकलती। सबकी दबी कुचली कुंठाएँ बिचारी सोमवती पर ही उतरने लगी थीं। ले देकर एक पति थे जो अपना सा लगते थे पर वो भी मां और बड़ी बहन के सामने केवल उन्हींलोगों का पक्ष लेते। सोमवती जी को संस्कार घुट्टी में पिलाकर पाला गया था, कुछ भी हो जाता मुँह नहीं खोलती बस चुपके से अँधेरी रातों में आँसू बहा लिया करतीं। दिनरात सबको खुश करने में अपना जी जान लगा देतीं पर पर वो कभी अपनी इस कोशिश में कामयाब नहीं हो पायीं। बस एक सहारा रहा जीवन का कि पति ने कभी उनमें मीनमेख नहीं निकाला ये अलग बात थी कि कभी परिवार के अन्याय के खिलाफ उनका पक्ष भी नहीं लिया। जीवन के इन कटु अनुभवों को अपनी नियति मानकर वो चुपचाप सब सहती रहीं पर कभी किसी से कोई शिकायत नहीं की। प्यार के दो मीठे बोल को तरसती सोमवती को भगवान ने समय पर दो बेटे राम और लक्ष्मण के रूप में उनके जीने के लिए दो बड़े मकसद दे दिए, … Read more

गीदड़-गश्त

गीदड़ एक ऐसा पशु है जो खंडहरों में गश्त लगाते हैं |कहानी में वरिष्ठ लेखिका दीपक शर्मा जी ने अतीत में बार -बार जाने की बात की तुलना इसी गीदड़ गश्त से करी है | स्वाभाविक है कि हम अतीत में बार -बार तभी जाते हैं जब वहाँ कोई ट्रामा हो, गिल्ट हो, या कोई ऐसा सिरा हो जो अधूरा रह गया हो | जिसको खोजने मन बार -बार वहां पहुँच जाता है | आखिर क्या है कि कहानी का नायक बैंकुवर में बस जाने के बाद भी ४० साल पीछे की स्मृतियों में जाकर कर बार बार गश्त लगाता है |ये कहानी बहुत कम शब्दों में बहुत गहन संवेदना प्रस्तुत करती है |  आइये पढ़ते हैं किसी  के विश्वास को ठगे जाने की मार्मिक कहानी …. गीदड़-गश्त किस ने बताया था मुझे गीदड़, सियार, लोमड़ी और भेड़िये एक ही जाति के जीव जरूर हैं मगर उनमें गीदड़ की विशेषता यह है कि वह पुराने शहरों के जर्जर, परित्यक्त खंडहरों में विचरते रहते हैं? तो क्या मैं भी कोई गीदड़ हूँ जो मेरा चित्त पुराने, परित्यक्त उस कस्बापुर में जा विचरता है जिसे चालीस साल पहले मैं पीछे छोड़ आया था, इधर वैनकूवर में बस जाने हेतु स्थायी रूप से? क्यों उस कस्बापुर की हवा आज भी मेरे कानों में कुन्ती की आवाज आन बजाती है, ‘दस्तखत कहाँ करने हैं?’ और क्यों उस आवाज के साथ अनेक चित्र तरंगें भी आन जुड़ती हैं? कुन्ती को मेरे सामने साकार लाती हुई? मुझे उसके पास ले जाती हुई? सन् उन्नीस सौ पचहत्तर के उन दिनों मैं उस निजी नर्सिंग होम के एक्स-रे विभाग में टैक्नीशियन था जिस के पूछताछ कार्यालय में उसके चाचा किशोरी लाल क्लर्क थे| उसे वह मेरे पास अपने कंधे के सहारे मालिक, हड्डी-विशेषज्ञ डॉ. दुर्गा दास की पर्ची के साथ लाये थे| उसका टखना सूजा हुआ था और मुझे उसके तीन तरफ से एक्स-रे लेने थे| “छत का पंखा साफ करते समय मेरी इस भतीजी का टखना ऐसा फिरका और मुड़का है कि इस का पैर अब जमीन पकड़ नहीं पा रहा है,” किशोरी लाल ने कारण बताया था| तीनों एक्स-रे में भयंकर टूटन आयी थी| कुन्ती की टांग की लम्बी शिन बोन, टिबिया और निचली छोटी हड्डी फिबुला टखने की टैलस हड्डी के सिरे पर जिस जगह जुड़ती थीं, वह जोड़ पूरी तरह उखड़ गया था| वे लिगामेंट्स, अस्थिबंध भी चिर चुके थे जिन से हमारे शरीर का भार वहन करने हेतु स्थिरता एवं मजबूती मिलती है| छः सप्ताह का प्लास्टर लगाते समय डॉ. दुर्गादास ने जब कुन्ती को अपने उस पैर को पूरा आराम देने की बात कही थी तो वह खेद्सूचक घबराहट के साथ किशोरी लाल की ओर देखने लगी थी| जभी मैंने जाना था वह अनाथ थी मेरी तरह| मुझे अनाथ बनाया था मेरे माता-पिता की संदिग्ध आत्महत्या ने जिसके लिए मेरे पिता की लम्बी बेरोजगारी जिम्मेदार रही थी जबकि उसकी माँ को तपेदिक ने निगला था और पिता को उनके फक्कड़पन ने| अगर अनाथावस्था ने जहाँ मुझे हर किसी पारिवारिक बन्धन से मुक्ति दिलायी थी, वहीं कुन्ती अपने चाचा-चाची के भरे-पूरे परिवार से पूरी तरह संलीन रही थी, जिन्होंने उसकी पढ़ाई पर ध्यान देने के बजाए उसे अपने परिवार की सेवा में लगाए रखा था| मेरी कहानी उस से भिन्न थी| मेरी नौ वर्ष की अल्प आयु में मेरे नाना मुझे अपने पास ले जरूर गए थे किन्तु न तो मेरे मामा मामी ने ही मुझे कभी अपने परिवार का अंग माना था और न ही मैंने कभी उनके संग एकीभाव महसूस किया था| मुझ पर शासन करने के उन के सभी प्रयास विफल ही रहे थे और अपने चौदहवें साल तक आते-आते मैंने सुबह शाम अखबार बांटने का काम पकड़ भी लिया था| न्यूज़ एजेन्सी का वह सम्पर्क मेरे बहुत काम आया था| उसी के अन्तर्गत उस अस्पताल के डॉ. दुर्गादास से मेरा परिचय हुआ था जहाँ उनके सौजन्य से मैंने एक्स-रे मशीनरी की तकनीक सीखी-समझी थी और जिस पर जोर पकड़ते ही मैंने अपनी सेवाएँ वहां प्रस्तुत कर दी थीं| पहले एक शिक्षार्थी के रूप में और फिर एक सुविज्ञ पेशेवर के रूप में| उस कस्बापुर में मुझे मेरी वही योग्यता लायी थी जिसके बूते पर उस अस्पताल से सेवा-निवृत्त हुए डॉ. दुर्गादास मुझे अपने साथ वहां लिवा ले गए थे| कस्बापुर उनका मूल निवास स्थान रहा था और अपना नर्सिंग होम उन्हीं ने फिर वहीं जा जमाया था| कस्बापुर के लिए बेशक मैं निपट बेगाना रहा था किन्तु अपने जीवन के उस बाइसवें साल में पहली बार मैंने अपना आप पाया था| पहली बार मैं आप ही आप था| पूर्णतया स्वच्छन्द एवं स्वायत्त| अपनी नींद सोता था और उस कमरे का किराया मेरी जेब से जाता था| जी जानता है कुन्ती से हुई उस पहली भेंट ने क्यों उसे अपनी पत्नी बनाने के लिए मेरा जी बढ़ाया था? जी से? मेरे उस निर्णय को किस ने अधिक बल दिया था? किशोरी लाल की ओर निर्दिष्ट रही उस की खेदसूचक घबराहट ने? अथवा अठारह वर्षीया सघन उसकी तरुणाई ने? जिस ने मुझ में विशुद्ध अपने पौरुषेय को अविलम्ब उसे सौंप देने की लालसा आन जगायी थी? किशोरी लाल को मेरे निर्णय पर कोई आपत्ति नहीं रही थी और मैंने उसी सप्ताह उस से विवाह कर लिया था| आगामी पांच सप्ताह मेरे जीवन के सर्वोत्तम दिन रहे थे| प्यार-मनुहार भरे….. उमंग-उत्साह के संग….. कुन्ती ने अपने प्लास्टर और पैर के कष्ट के बावजूद घरेलू सभी काम-काज अपने नाम जो कर लिए थे| रसोईदारी के….. झाड़ू-बुहारी के….. धुनाई-धुलाई के….. बुरे दिन शुरू किए थे कुन्ती के प्लास्टर के सातवें सप्ताह ने….. जब उस के पैर का प्लास्टर काटा गया था और टखने के नए एक्स-रे लिए गए थे| जिन्हें देखते ही डॉ. दुर्गादास गम्भीर हो लिए थे “मालूम होता है इस लड़की के पैर को पूरा आराम नहीं मिल पाया| जभी इसकी फ़िबुला की यह प्रक्षेपीय हड्डी में लियोलस और टिबिया की दोनों प्रक्षेपीय हड्डियाँ मैलिलायी ठीक से जुड़ नहीं पायी हैं| उनकी सीध मिलाने के निमित्त सर्जरी अब अनिवार्य हो गयी है| टखने में रिपोसिशनिंग पुनः अवस्थापन, अब मेटल प्लेट्स और पेंच के माध्यम ही से सम्भव हो पाएगा….. तभी ओ.आर.आए.एफ. (ओपन रिडक्शन एंड इन्टरनल फिक्सेशन) के बिना कोई विकल्प है … Read more