मैत्रेयी पुष्पा की कहानी “राय प्रवीण”

राय प्रवीण

क्या इतिहास पलट कर आता है ? “हाँ” इतिहास आता है पलटकर एक अलग रूप में अलग तरीके से पर अक्सर हम उसको पहचान नहीं पाते | यहीं पर एक साहित्यकार की गहन दृष्टि जाती है | एक ही जमीन पर दो अलग-अलग काल-खंडों में चलती कथाएँ  एकरूप हो जाती हैं | राय प्रवीण फिर आती है लौट कर, पर इस बार घुँघरुओं की तान और मृदंग की नाद की जगह होता है बाढ़ का हाहाकार | अकबर को अपने दोहे से परास्त कर देने वाली क्या परास्त कर पाई उस व्यवस्था को जो पीड़ितों को  अनाज देने के बदले माँगती भी है बहुत कुछ | पाठकों की अतिप्रिय वरिष्ठ लेखिका आदरणीय मैत्रेयी पुष्पा जी की  मार्मिक कहानी “राय प्रवीण” एक ऐसी ही कहानी है जो इतिहास  और वर्तमान के बीच आवाजाही करती अंततः पाठक को झकझोर देती है | आइए पढ़ते हैं एक मार्मिक सशक्त कहानी .. राय प्रवीण  गोविन्द गाइड को खोजना-ढूंढ़ना नहीं पड़ता। झांसी स्टेशन पर जब वातानुकूलित मेल-गाडि़यां रुकती हैं, या कि जब शताब्दी एक्सप्रेस आती है, वह गहरी पीली टी-शर्ट और सलेटी रंग की ढीली पैंट पहने, सिर के लंबे बालों को उंगलियों से कंघी-सी करता हुआ हाजिर मिलेगा। खास तौर पर शताब्दी आते ही उसकी देह में बिजली का-सा करंट दौड़ जाता है। बोगी नंबर 7 से एक्जीक्यूटिव क्लास तक आते-जाते भागमभाग मचाते हुए देख लो। कभी अंदर तो कभी बाहर, उतरा-चढ़ी में आतुरता से मुसाफिरों का जायजा लेता। सुनहरेे बालों वाले गोरे पर्यटकों को देखते ही उसके भीतर सुनहरा सूरज जगमगाने लगता है। अपनी बोली तुरंत बदल लेता है और जर्मन, फ्रेंच तथा इटैलियन भाषा में मुस्कराकर गर्मजोशी से अभिवादन करता है। छब्बीसवर्षीय गोविन्द की आंखों में अनोखी चमक रहती है। भले ही कद लंबा होने के कारण काठी दुबली सही। रंग तनिक सांवला, माथा ऊंचा और नाक छोटी। दांत सफेद, साफ। कुल मिलाकर पर्सनैलिटी निखारकर रहता है,धंधे की जरूरी शर्त। देशी पर्यटकों को वह तीर्थयात्री से ज्यादा कुछ नहीं मानता। वे ऐतिहासिक धरोहर को बेजायका चीज समझकर धार्मिक स्थानों की शरण में जाना पसंद करते हैं। उनके चलते गाइड को उसका मेहनताना देने की अपेक्षा महंत और पुजारियाें के चरणों में दक्षिणा चढ़ाना ज्यादा फायदे का सौदा है परलोक सुधारने का ठेका।—लेकिन गोविन्द ही कब परवाह करता है, विदेशियाें की जेब झाड़ना उसके लिए खासा आसान है। माईबाप, पालनहार, मेहनत और कला के कद्रदान विदेशी मेहमान! उसे ही क्या, सभी के प्यारे हैं विदेशी। तभी तो खजुराहो के ‘घुन गाइड’ उसका धंधा खोखला करने पर लगे रहते हैं। गोरे लोग देखे नहीं कि मक्खियों की तरह भिनभिनाने लगे। अंग्रेज बनकर ऐसे बोलेंगे ज्यों होंठों के बीच छिरिया की लेंड़ी दबी है। फ्ओरचा कुच नहीं सर! एकदम डर्टी, बोगस। जाड़ा में भी लू-लपट। गर्मी में फायर का गोला। रेनी सीजन में मड ही मड—टूरिस्ट लोग इल हो गया था डॉक्टर भी नहीं। नो मैडीसिन—। गोविन्द के कानों में गर्म सलाखें कोंचता रहता है कोई। —लेकिन उसे पछाड़ना आसान नहीं। साथ आए अनुवादक से आंख मारकर मिलीभगत कर लेता है (पैसा सबकी कमजोरी है)। पूरी बात मुसाफिरों तक नहीं जाने देता ट्रांसलेटर। गोविन्द होंठों तक आई मां-बहन की गालियों को जज्ब कर जाता है। अनुवादक का क्या, गालियों का ही रूपांतरण कर डाले और बदले में अधिक रकम की फरमाइश धर दे। बेईमानी के अपने पैंतरे हैं, जो धंधे के हिसाब से शिकंजा कसते हैं। गोरे समूह के साथ हो लेता है गोविन्द सर, ओरछा! मैम यू हैव हर्ड अबाउट राय प्रवीण? नहीं? राजा इंद्रमणि सिंह की प्रेमिका। ए स्टोरी ऑफ ट्रू लव। खजुराहो से पहले ही—बेतवा नदी के किनारे किला और राय प्रवीण का महल। लहरों पर नाचती है आज भी वह नर्तकी। बिलीव मी। पीठ और कंधों पर भारी वजन लटकाए हुए चलते पर्यटक स्त्री-पुरुष उसकी बात पर अचानक तवज्जो देते हैं, और वह मगन मन बोलता ही चला जाता है, मुगल  पीरियड में बादशाह अकबर का दिल ले उड़ने वाली राय प्रवीण। गोविन्द यह बात अच्छी तरह जानता है कि ओरछा के मुकाबले खजुराहो की शान धरती से आसमान तक फैली हुई है। संभोगरत युगल मूर्तियों की कल्पना में उड़ती आई पर्यटकों की टोली ओरछा में क्या पाएगी? ले-देकर एक टूटा-फूटा मामूली-सा किला, सादा रूप राम राजा का मंदिर और ऋतुओं के हिसाब से भरती-सूखती बेतवा। एकदम प्रकृति का अनुचारी कस्बा। रुकने-ठहरने के नाम पर सबसे बड़ा माना जाने वाला होटल शीशमहल नाम बड़े और दर्शन थोड़े। कई बार जब टूरिस्ट उसके हाथ से फिसल जाते हैं तो वह ऐसी ही बातें सोचकर दुखी होता है। सरकार को गरियाता है और पर्यटक के देखते ही फिर चालू किले  में आज भी राय प्रवीण की बीना गूंजती है सर! जुबान  की गति के हिसाब से हाथ नचाता, लोगों से कदमताल मिलाता हुआ अपने ग्राहकों पर बातों के लच्छे फेंकता चलता है, ज्यों हारना नहीं चाहता हो खजुराहो के आधुनिक वैभव से। अपने  प्रेमी को पुकारने वाली बेचैन प्रेमिका, अप्सरा रम्भा! एकदम आपके माफिक मैम! उसने साफ झूठ बोल दिया। विदेशी लड़की गोरी तो थी मगर खासी बदशक्ल। उसने एक इटैलियन लड़की को इसी तरह बहकाया था। गोविन्द के सफेद झूठ को सच मानते हुए वह खुद को राय प्रवीण समझने लगी थी और पूरे-पूरे दिन राय प्रवीण के महल के एकांत में बैठी रहती थी। वह किले के नीचे बने ढाबों से तवे की रोटी और आलू की रसीली सब्जी लाया करता था। बोलता था राय प्रवीण यही भोजन किया करती थी। कैसे न बोलता? इस बस्ती में गोश्त-मछली कहां? अच्छा पैसा ऐंठा था उस विदेशिनी से क्योंकि वह पैसे वाली थी और गोविन्द की उन दिनों फाकामस्ती चलती थी। राय प्रवीण जवान, खूबसूरत और नाचने-गाने वाली वेश्या! विदेशी लोग भले ही खुले जीवन के आदी हों, भारतीय स्त्री की आजादी की यह शैली उनके लिए जादू की तरह दिलचस्प और अद्भुत थी। यदि ऐसा न होता तो गोविन्द के ओरछा को कौन देखता? गोविन्द बताता ये जीवित कथाएं हैं सर! किले में गूंजती हुई आवाजें आज भी सुनाई देती हैं। गोरे लोग भारी सीनों में सांस रोककर आंखें फैलाने लगते हैं, मैले दांतों से डरी हुई-सी मुस्कराहट झरती है, तब गोविन्द को लगता है कि उसने टूरिस्ट पर अपना जाल डाल दिया है। अब यह खजुराहो जाने की जल्दी में नहीं है। वह पर्यटकों के आगे-आगे चलता है छाती फुलाकर। किले को गर्व से देखता हुआ। जिस दिन वह ओरछा में पर्यटक बटोरकर खड़े कर देता है, खुद को राजा इंद्रमणि सिंह से कम नहीं समझता और यदि वह टूरिस्टों को नहीं ला पाता, राय प्रवीण … Read more

स्त्री संघर्षों का जीवंत दस्तावेज़: “फरिश्ते निकले’

फ़रिश्ते निकले

  अनुभव अपने आप में जीवंत शब्द है, जो सम्पूर्ण जीवन को गहरई से जीये जाने का निचोड़ है। एक रचनाकार अपने अनुभव के ही आधार पर कोई रचना रचता है,चाहे वे राजनीतिक, समाजिक, आर्थिक विषमातओं की ऊपज हों, या फिर निजी दुख की अविव्यक्ति। मैत्रैयी पुष्पा ऐसी ही एकरचनाकार हैं जिन्होनें स्त्रियों से जुडे मुद्दे शोषण, बलात्कार, समाज की कलुषित मन्यातओं में जकड़ी स्त्री के जीवंत चित्र को अपनी रचनाओं में उकेरने का प्रयास किया है। ‘फरिश्ते निकले‘ मैत्रेयी पुष्पा द्वरा रचित ऐसा ही एक नया उपन्यास है जो पुरुष द्वरा नियंत्रित पितृसतात्मक समाज में रुढ़ मन्यताओं का शिकार होती बेला बहू के संघषों की कहानी है। इस उपन्यास कि नायिका बेला बहू समाज के क्रूर सामंती व्यवस्था के तहत गरीबी और पितृविहीन होने के कारण बाल‌- विवाह और अनमेल- विवाह की भेंट चढ़ जाती है। विवाह के उपरांत बेला बहू का संघर्ष शुरु होकर डाकू के गिरोह में शामिल होने के बाद नैतिकता कि भावना से स्कूल खोलती है। आस-पास के कुछ बच्चें दो दिन पाठशाला में आकर मानवता की भावना को ग्रहण करें और समाज से शोषण को मिटाने के लिये नैतिकता का मार्ग अपनायें। इस तरह बेला बहू एक फरिशता बनकर आगे आने वाली पीढ़ी को समाज की कलुषित मन्याताओं से मुक्त कराकर मानवीय गरिमा का संचार कर उन्हें सही राह पर चलने कि प्रेरणा देती है। इस तरह बेला बहू विवाह के पश्चात और डाकू के गिरोह में शामिल होने  के बीच कई संघर्षों का सामना अदम्य जिजीविषा के करती हुई एक निडर स्त्री की छवि को भी अंकित करती है।                                           हमारा देश जहाँ विकास की अंधी दौड़ में आगे बढ़ रहा है वही कुछऐसे गाँव और अंचल भी हैं जहाँ अभी तक विकास के मायने तक पता नहीं हैं अर्थात विकास की चर्चा भी उनलोगों तक नहीं पहुँची है। ऐसे ही गाँव में जन्मी बेला अर्थात बेला बहू उपन्यास के कथा का आरम्भ पितृविहिन बालिका जिसने अभी- अभी अपने पिता को खो दिया है,उसकी माँ पर घर कीपूरी जिम्मेदारी मुँह बाये खड़ी है। बेला की माँ किसी तरह अपना और अपनी बेटी का पालन-पोषण करती है। शुगर सिंह नाम का अधेड़ व्यक्ति जब उन माँ और बेटी को आर्थिक लाभ पहुँचाना शुरु करता है, इसके पीछे उसकी मंशा तब समझ में आती है जब बेला के साथ उसकी सगाई हो जती है।इस तरह ग्यारह वर्ष की बेला का विवाह अधेड़ उम्र के शुगर सिंह के साथ हो जाता है। ना जाने कितने अनमेल विवाह के किस्सों को याद करती बेला ससुराल में निरंतर पति की हवस का शिकार होती है।अन्य लोगों के अनमेल विवाह के कृत्यों को दर्शाती बेला बहू के बारे में स्वय मैत्रैयी जी भी कहती हैं-” बेला बहू तुम्हारा शुक्रियाकि कितनी औरतों की त्रासद कथाएँ तुमने याद दिला दी।” ” ससुराल में बेला बहू पति के निरंतर हवस का शिकार होती रही धीरे-धीरे सुगर सिंह की नपुंसकता का पता बेला को लग जाता है क्योकि विवाह के चार वर्षोंबाद भी संतान का ना उत्पन्न होना और मेडिकल रिपोर्ट की जाँच में बेला के स्वस्थ और उर्वरा होने का प्रमाण मिल जाता है और शुगर सिंह की नपुंसकता बेला बहू के सामने आ जाती है।” विडम्बना तो देखिये गाँव के लोग और स्वयं सुगर सिंह भी बेला बहू कोही बाँझ मानते हैं। बेला बहू येह सोचती है कि – ” उम्र के जिस पड़।व से वह गुजर रही है उसकेउम्र के लड़कियों के हाथ अभी तक पीले नहीं हुये वहीं उसपर बाँझ का आरोप गले में तौंककि तरह डाला जा रहा है।”अजीब विडम्बना है ना पुरुषों के कमियों की सजा भी स्त्री को ही भूगतनी पड़ती है। इन सब सवालों से टकराती हुयी मैत्रैयी पुष्पा समाज की वास्त्विक स्थितियों से हमारा साक्षत्कार कराती हैं। “पति और गाँव के लोगों द्वरा उपेक्षित होने पर वह अपनी ज़िंद्गी को नये सिरे से जीने के लिये भरत सिंह के यहाँ जाकर रहती है, पर मुसीबतें वहाँ भी उसका साथ नहीं छोड़्ती हैं,मानों परछायी की तरह उसके साथ-साथ चलती हैं।”                                                       “भरत सिंह का चरित्र गांव और कस्बों में उभरते उन दबंग नये राजनीतिक व्यवसायियों का है जो अपनी महत्वाकांक्षा पूरी करने के लिये अनैतिकता के किसी भी सीमा तक जा सकते हैं।”5 बेला भरत सिंह और उसके भाइयों द्वारा निरंतर उनकी हवस का शिकार बनती जाती है। और अंत में आक्रामक रवैया अपनाते हुये भरत सिंह के भाइयों को आग के हवालेकर देती है। वह पूरे साहस के साथ अपने अत्याचार का बदला भी लेती है और जेल जाने से भी नहीं डरती। जेल में उसकी मुलाकात डाकू फूलन देवी से होती है औ रइस तरह दोनो के बीच बहनापा रिश्ता कायम हो जाता है शायद दोनों के ही दुख एक से हैं। बचपन के दोस्त बलबीर द्वारा जेल से छूटे जाने पर पर वह कुख्यात डाकू अजय सिंह के गिरोह में शामिल होती है। डाकू की गिरोह में बेला बहू का शामिल होना पाठकों को थोड़। अचम्भितज़रुर करता है पर बेला बहू का उद्देश्य महज़ डकू बनकर लुटपाट करना नहीं है। बल्कि वह उन लोगों का फरिश्ता बनकर साथ निभाती है, उसी की तरह सतालोलुप हवस प्रेमियों और कम उम्र में ही यौन शोषण का शिकार बनकर परिस्थितीवश गलत पगडंडियों पर चलनें को मज़बुर होतें हैं। बेला बहू के डाकू बनकर भी फरिश्ता बने रहने के उपरांत भी उपन्यास कि कहानी खत्म नहीं हो जाती बल्कि मैत्रैयी जीने कुछ और घटनाओं के ताने बाने को भी पिरोया है।जिनमें उजाला और वीर सिंह केप्रेम प्रसंग का चित्रण मर्मिक्ता से ओतप्रोत है। उजाला लोहापीटा की बेटी है जबकी वीर सिंह अमीर घराने में पला बढा। वीर सिंह के पिता को जब इस प्रेम प्रसंग का पता चलता है तो वह उजाला के मौत की साजिश तक रच डालतें हैं पर बेला बहू के सद्प्रयासों से उजाला मौत के भंवर से बाहर निकल आती है। कितनी अजीब बात है ना पुरुष प्रधान समाज स्त्री का जमकर शोषण करता है और उसे गुलाम बने रहने पर मज़बूर करता है। इस सम्बंध में रोहिणी अग्रवाल का कहना है-“यौन शोषण पुरुष की मानसिक विकृति है या पितृसतात्मक व्यवस्था के पक्षपाती तंत्र द्वारा पुरुष को मिला अभयदान? वह स्त्री को गुलाम बनाये रखने का षडयंत्र है या जिसकी लाठी उसकी … Read more

स्त्री ही स्त्री की शक्ति – मैत्रेयी पुष्पा

 अवसर था  हिंदी भवन में हिंदी मासिक पत्रिका “ अटूट बंधन “ के  सम्मान समारोह – २०१५ के  आयोजन का  | कार्यक्रम की मुख्य अतिथि सुविख्यात लेखिका व् साहित्य एकादमी दिल्ली की उपाध्यक्ष श्रीमती मैत्रेयी पुष्पा जी थी व् मुख्य वक्ता अरविन्द सिंह जी( राज्यसभा टी. वी ) व् सदानंद पाण्डेय जी ( एसोसिएट एडिटर वीर अर्जुन ) थे | प्रस्तुत है एक रिपोर्ट  मैत्रेयी जी की सौम्य छवि में हर स्त्री को अपनापन  महसूस होता है | ये उस अपनेपन का असर ही तो है की मैत्रेयी जी बड़ी ही बेबाकी से स्त्री मन की बात को अपनी कलम के माध्यम से व्यक्त करती रही हैं | और स्त्रियों के जीवन को आसान बनाने की लड़ाई लडती रही हैं |   एक स्त्री ही स्त्री की शक्ति सबसे पहले  श्रीमती मैत्रेयी पुष्पा जी ने सरस्वती प्रतिमा के आगे दीप जला कर कार्यक्रम का शुभारम्भ किया | उन्होंने सभा को संबोधित करते हुए कहा कि एक स्त्री ही स्त्री की शक्ति हैं | उन्होंने आगे कहा कि ये पुरुष प्रधान समाज की सोंच है की ,” एक स्त्री दूसरी स्त्री को पसंद नहीं करती हैं, या नीचा दिखाने का प्रयास करती है, उनमें परस्पर वैमनस्य होता है | वास्तविकता इससे बिलकुल उलट है  |स्त्री की उपस्थिति  में दूसरी स्त्री अपने को सुरक्षित व् सहज महसूस करती है |उसे आत्म रक्षा के लिए बनावटी आवरण नहीं ओढने पड़ते | यही कारण है की एक स्त्री दूसरी स्त्री का दुःख बहुत अच्छी तरह से समझ सकती है व् बाँट सकती है मैत्रेयी पुष्पा जी ने महिला सिपाहियों के सामने दिए गए अपने भाषण का उल्लेख करते हुए कहा कि जब वो विद्यार्थी थी व् बस से स्कूल जाया करती थी तो स्त्री होने के नाते उन्हें जो कष्ट , ताने , अपमान सहने पड़ते थे उसे वो मौन होकर झेलने को विवश थी | रास्ते में एक थाना पड़ता था | दिल करता था बस से कूद कर वहां उस दुर्व्यवहार की शिकायत करे परन्तु पुरुष पुलिस कर्मियों के दुर्व्यवहार के किस्से उन्हें भयभीत करते थे | अगर कोई महिला पुलिस कर्मी वहां होती तो वह जरूर बस से उतर कर थाने जाती और बस उससे लिपट कर रो लेती | न वो कुछ कहती न वो कुछ सुनती पर सारा दर्द बिना कहे सुने बयाँ हो जाता |   उन्होंने आगे कहा की उनके इन शब्दों को सुन कर महिला सिपाही द्रवित हो उठी और हर महिला ने आगे आकर अपना एक किस्सा सुनाया | जो पुरुष शोषण कि दास्ताँ थी | सारा हाल सिसकियों से भर उठा |थोड़ी देर पहले जो महिलाएं अपने  सिपाही बनने  के अपने फैसले पर बहुत खुश नहीं थी वो गर्व से भर उठी व् उन्होंने इस बात को स्वीकार किया कि एक स्त्री   दूसरी स्त्री की उपस्थिति  में सुरक्षित महसूस करती है | श्रीमती पुष्प ने बताया कि बाद में उन्होंने  उनके हर किस्से को उन्होंने अपनी पुस्तक “ फाइटर कि डायरी” में उद्घृत किया है | जो उनकी अति लोकप्रिय पुस्तकों में से एक है |     संपादन के क्षेत्र में महिला रचनाकारों का आगे आना सुखद   अपनी बात पर जोर देते हुए श्रीमती पुष्पा ने कहा कि हर क्षेत्र में महिलाओ का आगे आना जरूरी हैं क्योंकि ये दूसरी महिलाओ को सुरक्षा का अहसास दिलाता है | उन्होंने ख़ुशी जाहिर की संपादन के क्षेत्र में आज महिलाएं आगे आ रही हैं | पर अभी और महिलाओं को आगे आना चाहिए | ये अभी तक स्त्रियों के लिए वर्जित क्षेत्र था | इस क्षेत्र में महिलाओं का आगे आना पुरुष संपादकों द्वारा महिला रचनाकारों के शोषण को रोकेगा | जिससे उनकी लेखनी मुखर हो सकेगी | उन्होंने आगे कहाँ की साहित्य जीवन की शिक्षा देता हैं | व्यक्ति डाक्टर हो सकता है , इंजिनीयर हो सकता है , पर जिसने साहित्य नहीं पढ़ा उसने जीवन को नहीं पढ़ा |     प्रचार से नहीं विषय – वस्तु से चलती हैं पत्रिकाएँ पत्र –पत्रिकाओं के विषय में चर्चा करते हुए उन्होंने कहा कि एक पत्रिका को रचनाकार मिल सकते हैं , बहुत प्रयास से उसका प्रचार –प्रसार भी किया जा सकता है ,परन्तु अगर उसकी विषय वस्तु में दम नहीं होगा तो पाठक नहीं मिलेंगे | जिसक पत्रिका की विषय वस्तु में दम होगा उसे पाठक ढूंढ – ढूंढ कर पढेंगे | रचना ठोस व् सत्य आधारित होनी चाहिए फिर चाहे उसमें आधुनिक जीवन शैली का वर्णन हो या लोकजीवन  का |   लोग हिंदी पढना चाहते हैं उन्होंने इस दुष्प्रचार का विरोध किया कि लोग हिंदी पढना नहीं चाहते हैं | सच्चाई ये है कि लोग हिंदी साहित्य को पढना चाहते हैं, पर भ्रामक प्रचार से दूर हो रहे हैं | बार – बार ये बात फैलाई जा रही है की लोग हिंदी नहीं पढना चाहते | जो की सच नहीं है | उन्होंने डी यू के अपने अनुभव को साझा करते हुए कहा की की वहां एक बार जाने पर उन्होंने छात्र – छात्राओं के मन में हिंदी के प्रति अथाह प्रेम देखा | परन्तु अफ़सोस इस दिशा में कोई सार्थक प्रयास नहीं किया जा रहा है | इसके लिए स्कूल  कॉलेजों में कविता कहानी की कार्यशाला यें लगाने पर बल दिया |       अपने भाषण के अंत में उन्होंने एक बार फिर कहा की हर क्षेत्र में  स्त्रियो का आगे आना सुखद है और वः अपनी कलम से उनके लिए हर संभव लड़ाई लडती रहेंगी |    टीम ABC   एक महान सती थी पद्मिनी फिल्म पद्मावती से रानी पद्मावती तक बढ़ता विवादशादी ब्याह -बढ़ता दिखावा , घटता अपनापन मुझे जीवन साथी के एवज में पैसे लेना स्वीकार नहीं   आपको आपको  लेख “ स्त्री ही स्त्री की शक्ति – अटूट बंधन सम्मान समारोह में मैत्रेयी पुष्प जी के भाषण का अंश “ कैसा लगा  | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन”की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें |  keywords:Women empowerment, Women issues, Maitreyi Pushpa,Atoot Bandhan