किराये का परिवार – पुरवाई संपादकीय पर टिप्पणी

किराये पर परिवार

कुछ पढ़ा, कुछ गुना :शीर्षक के अंतर्गत अटूट बंधन में उन लेखों कहानियों पर विस्तार से बात रखी जाएगी जो कहीं न कहीं पढ़ें हैं l आज के अंक   लंदन से प्रकाशित पुरवाई पत्रिका का आ. तेजेंद्र शर्मा जी का संपादकीय, “किराये पर परिवार” पर टिप्पणी l संपादकीय आप यहाँ  से पढ़ सकते हैं l किराये पर परिवार संपादकीय के अनुसार, अब जापान में किराये के रिश्तेदार मिलने लगे हैं। डेली वेज वाले कलाकार भी हैं। जो दिन में परिवार के सदस्य की एक्टिंग करते हैं और शाम को अपनी दिहाड़ी के पैसे अपनी जेब में डाल के वापिस घर को निकल लेते हैं। यह कलाकार चर्च में साथ जाने के लिये, किसी पार्टी में परिवार बनने के लिये, स्कूल में विद्यार्थी के अभिभावक बनने के लिये यानी कि किसी भी किरदार को निभाने को तैयार होते हैं बस दाम सही मिल जाने चाहिये। कुछ हिंदी फिल्मों में भी हमने ऐसे रिश्ते देखे हैं पर अब इसका व्यापारिक स्वरूप सामने आ गया है l फिल्मों में ये रिश्ते असली रिश्तों में बदल जाते हैं l लंदन से प्रकाशित पुरवाई पत्रिका का आ. तेजेंद्र शर्मा जी का संपादकीय, “किराये पर परिवार”   यह एक ऐसा संपादकीय जिसको पढ़ने के बाद एकदम संज्ञा शून्य हो गई हूँ, कुछ शब्द निलकते ही नहीं l कुछ कहने की स्थिति में आते ही पहला शब्द निकलता है घोर भौतिक्तावाद या अंधी दौड़ l लेकिन ठहरकर सोचने पर लगता है कि बच्चे बुरे ना भी हों तो भी ग्लोबलाइज़ेशन के इस दौर में वो माता- पिता के साथ रह ही पाए यह हमेशा संभव नहीं है l माता- पिता भी अपना स्नेहिल रिश्तों से बसा बसाया शहर छोड़कर बच्चों के पास हमेशा के लिए चले जाए ऐसा वो चाहते नहीं l यूँ मैं कभी खून के रिश्तों की ही पक्षधर नहीं हूँ l जो रिश्ते भावनाओं से बनते हैं, वो कहीं ज्यादा गहरे और दीर्घ जीवी होते हैं l जहाँ तक की वृद्धवस्था की बात है तो वृद्धावस्था का अकेलापन ऐसे भी गंभीर समस्या बन कर उभरता है और इसके समाधान तलाशने ही होंगे l फिर भी “पैसे दो, परिवार लो” वाली किराये के परिवार की अवधारणा से सहमत नहीं हो पा रहीं हूँ l इसका भौतिक कारण ये है कि इसका लाभ केवल पैसे वाले ही उठा सकते हैं l दूसरा कारण ये है कि इसमें दोनों को पता होता है कि भावनात्मक जुड़ाव एक सीमा तक ही रखना है l   असली रिश्ते यूँ सोच-सोच कर नाप तोल कर कहाँ बनते हैं l बनते हैं तो बनते हैं, नहीं बनते तो नहीं बनते l एक तरह से परिवार या जिनसे हम परिवार जैसा  आत्मीय रिश्ता महसूस करते हैं वो हमारी भावनाओं के पावर हाउस होते हैं l ऐसे में झूठ के साये में सच खुद से नहीं छुपता है l अलबत्ता पैसे के दम पर सेवा और टाइम पास कराने वाला कोई मिल जाता है l इससे स्वीडन में “सेवा बैंक” टाइप की अवधारणा ज्यादा सही है l जहां व्यक्ति स्वस्थ अवस्था में किसी की सेवा करता है और उसे जरूरत पड़ने पर कंपनी कोई  सेवक भेज देती है l राँची में मुझे महिलाओं के ऐसे समूह के बारे में पता चला था जो अकेले पेशेंट के पास अस्पताल में घंटे- दो घंटे के लिए बैठ जाती हैं जिनका अकेला तीमारदार किसी जरूरी काम से जाए l यहाँ विशुद्ध रूप से सेवा की भावना प्रमुख है l   मुझे कविता वर्मा का उपन्यास “अब तो बेलि फैल गई” याद आ रहा है, जिसमें दुबई में दूसरा परिवार बसा चुके पिता का पुत्र जब भारत में माँ से बार -बार अपने पिता के बारे में पूछता है तो एक व्यक्ति उसका पिता बन कर फोन पर बात करने के पेशकश करता है l इन उलझते रिश्तों को हकीकत में कैसे निभाया जाएगा, कहा नहीं जा सकता l बढ़ते  मेट्रो कल्चर और भौतिक्तावाद की संस्कृति में जो भावनाहीन जीते-जागते इंसानी रोबोट बनाने को तत्पर है l   लेकिन दुर्भाग्य से हम उस दिशा की ओर मुड़ चुके हैं l आज के भौतिक्तावादी युग में जिनसे आप आत्मीय रूप से जुड़े हों, स्नेह बांध हों अक्सर उनकी जिंदगी की महत्वपूर्ण जानकारियों के बारे में फोन या मेसेज तो छोड़िए इंस्टा या फ़ेसबुक प्रोफ़ाइल से पता चलता है l भावनाहीन व्यक्तिवादी दुनिया में हम खतरनाक रूप से अकेलेपन की ओर बढ़ चले हैं l उस पर हमारे देश में भी टूटते बिखरते परिवार भविष्य में क्या- क्या आकार लेंगे या ले सकते हैं , ये समपादकीय उनकी दस्तक है … जिसे गंभीरता से सुना जाना चाहिए l वंदना बाजपेयी हिंदी – लौटना है ‘व्हाट झुमका’ से ‘झुमका गिरा रे’ तक साहित्य अकादेमी में डॉ. जगमोहन शर्मा की पुस्तकों का लोकार्पण काकी का करवाचौथ सुनो घर छोड़ कर भागी हुई लड़कियों किराये का परिवार – पुरवाई संपादकीय पर टिप्पणी आपको कैसा लगा ? हमें अवश्य बताएँ l अटूट बंधन को सबस्क्राइब करें और अटूट बढ्न फेसबुक पेज को लाइक करें l

हिंदी – लौटना है ‘व्हाट झुमका’ से ‘झुमका गिरा रे’ तक

हिंदी

हिंदी  – बोली-बानियों की मिठास का हो समावेश                                  अभी कुछ दिनों पहले एक फिल्म आई थी, “रॉकी और रानी की प्रेम कहानी” उसका एक गीत जो तुरंत ही लोगों की जुबान पर चढ़ गया वो था “व्हाट झुमका” l इस गीत के साथ ही जो कालजयी गीत याद आया, वो था मेरा साया फिल्म का “झुमका गिरा रे बरेली के बाजार में”l  मदन मोहन के संगीत, राजा मेहंदी आली खान के गीत और आशा भोंसले जी की आवाज में ये गीत आज भी लोगों की जुबान पर चढ़ा हुआ हैl  इसके साथ ही ट्विटर पर बहस भी छिड़ गई कि इन दोनों में से बेहतर कौन है, और निश्चित तौर पर पुराना गीत विजयी हुआ l उसने ना सिर्फ अपने को इतने समय तक जीवित रखा बल्कि हर नए प्रयोग के बाद वो गीत याद आया l गीत-संगीत के अतिरिक्त  इसके एक कारण के तौर पर गीत के फिल्मांकन में हमारी ग्रामीण संस्कृति, लोक से जुड़ाव और स्थानीय भाषा के शब्दों का प्रयोग l लौटना है ‘‘व्हाट झुमका’ से झुमका गिरा रे” तक   जब मैं इसी तराजू पर तौलती हूँ तो मुझे लगता है कि हमारी हिंदी भाषा को भी “व्हाट झुमका” से उसी देसी मिठास की ओर लौटने की जरूरत है l यूँ भाषा एक नदी कि तरह होती है और बोलियाँ, बानियाँ उस नदी को जीवंत करता परिस्थिति तंत्र हैं l क्योंकि भाषा सतत प्रवाहशील और जीवंत है तो उसमें विदेशी शब्दों की मिलावट को गलत नहीं कहा जा सकता क्योंकि वो उसकी सार्थकता और प्रासंगिकता को बढ़ावा देते हैं l आज भूमंडलीकरण के दौर में हिन्दी में अंग्रेजी ही नहीं फ्रेंच, कोरियन, स्पैनिश शब्दों का मिलना उसके प्रभाव को बढ़ाने में सहायक होता है l आम बोलचाल की भाषा के आधार पर साहित्य में भी नई वाली हिन्दी का समावेश हुआ और तुरंत ही लोकप्रिय भी हुई l इसने भाषा के साथ- साथ साहित्य की पुरानी शैली, शिल्प और उद्देश्य की परिधि को भी लाँघा l     किसे अंतर्राष्ट्रीय भाषा की जरूरत है? नई किताबों पर हिंगलिश की फसल लहलहा रही है l इस हिंगलिश के लोकप्रिय होने की वजह हमें अपने घरों में खँगालनी होगी l हाल ये है कि ना अंग्रेजी ही अच्छी आती है ना हिंदी l शहरी क्षेत्र में शायद ही कोई ऐसा घर अब बचा हो जहाँ पाँच पंक्तियाँ पूरी-पूरी हिंदी में बोली जाती हों l यही नहीं हमारी डॉटर को सब्जी में गार्लिक बिल्कुल पसंद नहीं है, जैसे हास्यास्पद प्रयोग भी सुनने को खूब मिलते हैं l किसी दीपावली पर मैंने अपनी घरेलू सहायिका के लिए दरवाजा खोलते हुए कहा, “दीपावली की शुभकामनायें” l उसने मेरी तरफ देखते हुए कहा, “हैप्पी दीपावली भाभी, हैप्पी दीपावली l” गली की सफाई करने वाला “डस्टबिन” बोलता है, सब्जी वाला सेब को एप्पल ही कहता है l    जिसे जितना आत्म विश्वास अपने ऊपर होगा उतना ही आत्म विश्वास अपनी भाषा पर होगा अक्सर अंग्रेजी के पक्ष में ये तर्क दिया जाता है कि ये अन्तराष्ट्रीय भाषा है और इसे सीखना विकास के लिए जरूरी है l परंतु हमारे सब्जी वाले, गली की सफाई करने वाले, घरेलू सहायिकाओं, आम नौकरी करने वाले मध्यम वर्गीय परिवारों को कौन से अन्तराष्ट्रीय आयोजन में जाना है ? यह मात्र हमारी गलत परिभाषाओं का नतीजा है, जहाँ सुंदर माने गोरा और पढ़-लिखा माने अंग्रेजी आती है माना लिया गया l   अंग्रेजी का यह धड़ाधड़ गलत-सही प्रयोग हमारे अंदर आत्म विश्वास की कमी को दर्शाता है l आज कल के प्रसिद्ध आध्यात्मिक आचार्य, आचार्य प्रशांत कहते हैं कि जब वो नौकरी करने के जमाने में हिन्दी में हस्ताक्षर करते थे, तब कंपनी की ओर से उँ पर बहुत दवाब डाला जाता था कि हस्ताक्षर अंग्रेजी में हों l जबकि अंग्रेजी पर उनकी पकड़ अच्छी थी l यहाँ पर दवाब केवल हीन भावना का प्रतीक था l   भाषा होती है का कला और संस्कृति की वाहक भाषा केवल भाषा नहीं होती, वो कोई निर्जीव वस्तु नहीं है l वो कला संस्कृति, जीवन शैली की वाहक होती है l जब हम हिन्दी के ऊपर अंग्रेजी चुनते हैं तो हम लस्सी के ऊपर पेप्सी चुनते हैं, समोसे के ऊपर बर्गर चुनते हैं और आध्यात्म को छोड़कर क्लब संस्कृति चुनते हैं l बाजार को इससे फायदा है वो अंग्रेजी के रैपर में ये सब बेच रही है l हर देश, हर संस्कृति एक मूल सोच होती है l हम “थोड़े में संतोष” करने वाली जीवन शैली के बदले में सुख सुविधाओं के बीच अकेलापन खरीद रहे हैं l हम ना सिर्फ स्वयं उस दौड़ में दौड़ रहे हैं बल्कि हमने अपने उन बच्चों को भी इस रेस में दौड़ा दिया है जिनहोने अभी अपने पाँव चलना भी नहीं सीखा है l   लिपि को भी संरक्षण की जरूरत है बाल साहित्य पर विशेष ध्यान देना होगा l  ताकि बच्चे प्रारंभ से ही अपनी भाषा से जुड़े रहें  आज एक बड़ा खतरा हिंदी की देवनागिरी लिपि को भी हो गया है l आज इंटरनेट पर यू ट्यूब पर, व्हाट्स एप पर नई पीढ़ी हिन्दी में बोलती तो दिखाई दे रही है पर लिपि रोमन इस्तेमाल करने लगी है l इससे देवनागिरी लिपि को खतरा हुआ है l हमारा प्रचुर साहित्य, हमारा आध्यात्म, दर्शन जो हमारे भारत की पहचान है, अंग्रेजी में अनुवाद हो कर हमारी अगली पीढ़ियों तक पहुंचेगा l अनुवादक की गलती पीढ़ियों पर भारी पड़ेगी l   कुछ कदम सुधार की ओर   भाषा को बचाना केवल भाषा को बचाना संस्कृति, संस्कार, देश की मूल भावना को बचाना है, उस साहित्यिक संपदा को बचाना है जिसमें हमारी मिट्टी से जुड़ी जीवन गाथाएँ हैं l कोई भी भाषा सीखना बुरा नहीं है l पर जो समर्थ हैं, दो चार भाषाएँ जानते हैं, हिन्दी के प्राचीन वैभव को उत्पन्न कर सकते हैं l इस काम का बीड़ा उन पर कहीं ज्यादा है l उन्हें देखकर आम जन भी अपनी भाषा पर गर्व कर पाएगा l जिन-जिन कामों को करने में अंग्रेजी की  जरूरत नहीं है, उनके प्रश्न पत्र हिंदी या अन्य भारतीय भाषाओं में होने चाहिए l रोजगार के ज्यादा से ज्यादा अवसर उपलबद्ध कराने होंगे l यू ट्यूब और अब फेसबूक इंस्टाग्राम पर भी ये के साधन … Read more

शंख में समंदर-सोशल मीडिया के अनदेखे रिश्तों के नाम

शंख समुद्र में पाए जाते हैं और शंख में भी में समंदर रहता है l लेकिन इस आध्यात्मिक बात को अगर लौकिक जगत में ले आयें तो संसार में सोशल मीडिया है और सोशल मीडिया में जीता जागता संसारl अपने- अपने घरों में, बाजार में, स्कूल में, ऑफिस में बैठकर इसमें आवाजाही करते रहते हैं| तो कभी लाइक और कमेन्ट के माध्यम से अपनी उपस्थिति दर्शाते हैंl कभी कोई एक घटना हर वाल पर उसकी प्रतिक्रिया के रूप में शंख के अंदर के जल की तरह ठहर जाती है तो कहीं हम एक पोस्ट पर बधाई और दूसरी पर विनम्र श्रद्धांजलि लिखते हुए भावनाओं के सागर में लहर-लहर बहते हैंl सच तो ये है कि हम ऐसे तमाम रिश्तों में बँध जाते हैं जिनसे हम कभी मिले ही नहीं...l

शंख समुद्र में पाए जाते हैं और शंख में भी में समंदर रहता है l लेकिन इस आध्यात्मिक बात को अगर लौकिक जगत में ले आयें तो संसार में सोशल मीडिया है और सोशल मीडिया में जीता जागता संसारl अपने- अपने घरों में, बाजार में, स्कूल में, ऑफिस में बैठकर इसमें आवाजाही करते रहते हैं| तो कभी लाइक और कमेन्ट के माध्यम से अपनी उपस्थिति दर्शाते हैंl कभी कोई एक घटना हर वाल पर उसकी प्रतिक्रिया के रूप में शंख के अंदर के जल की तरह ठहर जाती है तो कहीं हम एक पोस्ट पर बधाई और दूसरी पर विनम्र श्रद्धांजलि लिखते हुए भावनाओं के सागर में लहर-लहर बहते हैंl सच तो ये है कि हम ऐसे तमाम रिश्तों में बँध जाते हैं जिनसे हम कभी मिले ही नहीं…l शंख में समंदर-सोशल मीडिया के अनदेखे रिश्तों के नाम अनेक सम्मनों से सम्मानित डॉ. अजय शर्मा जी इससे पहले कई उपन्यास और कहानी संग्रह लिख चुके हैंl कुछ विश्वविध्यालयों में पढ़ाए भी जाते हैंl तकरीबन हर उपन्यास में वो नया विषय लाते हैंl साहित्य को समृद्ध करने के लिए ये आवश्यक भी है कि नए विषयों पर या उसी विषय पर नए तरीके से लिखा जाएl समकाल को दर्ज करने का साहित्यिक फर्ज वो हमेशा से निभाते रहे है पर शंख और समुद्र के बिम्ब के साथ लिखा गया उपन्यास “शंख में समुंदर” उनके पिछले उपन्यासों से ही नहीं साहित्य की दृष्टि से भी कई मामले में अलग हैl क्योंकि इसमें हमारी फेसबुक की घटनाओं का जीता जागता संसार हैl जहाँ ममता कालिया जी की “रविकथा” की समीक्षा पोस्ट करते हुए वंदना बाजपेयी की “वो फोन कॉल” की समीक्षा को कल डालने के लिए सेव करते डॉ.केशव हैंl जो कभी तमाम लेखकों और उनकी रचनाओं के बारे में विस्तृत चर्चा करते नजर आते हैं तो कभी वंदना गुप्ता जी के “कलर ऑफ लव” के मेसज का जवाब देते हुए जागरूकता का प्रसार करती उसकी विषय वस्तु की आवश्यकता पर प्रसन्न होते हैंl तो कहीं डॉ. सुनीता नाट्य आलोचना पर लंबा आख्यान देती हुई नजर आती हैंl डॉ. शर्मा के उपन्यासों में उन्हें अक्सर पत्रकार, लेखक, डॉक्टर वाली उनकी असली त्रिदेव भूमिका में देखा होगा पर यहाँ खुद को किसी उपन्यास के पात्र के रूप में देखना सुखद हैl निराला ने जब छंद- बद्ध से अतुकांत कविता की ओर रुख किया तो वो गहन भावों की सरल सम्प्रेषणनीयता के कारण शीघ्र ही लोकप्रिय हो गई l आजकल एक कदम आगे बढ़कर साहित्य में एक विधा से दूसरी विधा में आवाजाही का चलन हैl कविता में कहानी है तो कहानी में कविता का लालित्य, समीक्षा में पुस्तक परिचय का भाव सन्निहित है तो आलोचना थोड़े जटिल शब्दों में लिखी गई समीक्षा… पर उन सब का भी एक अलग स्वाद हैl ये स्वाद आज की युवा पीढ़ी को भा भी रहा है जो हर नई चीज का खुले दिल से स्वागत करती हैl ऐसे ही प्रयोग के तहत पाठक को इस उपन्यास में कविता, कहानी- “पर्त दर पर्त”, नाटक-“छल्ला नाव दरिया”, बौद्धिक विमर्श, प्रेरक कथाएँ, ऑनलाइन ऐक्टिविटी, पत्नी बच्चों के साथ सामान्य घरेलू जीवन सब कुछ मिल जाएगाl खास बात ये है कि इसमें मूल कथा कहीं भी प्रभावित नहीं होती, वो मूल कथा का एक हिस्सा ही लगते हैं और आम जीवन की कहानी आगे बढ़ती जाती हैl कहानी के केंद्र में कोरोना की दूसरी लहर हैl कोरोना ने कितनी तकलीफ दी कि जगह ये उपन्यास कोरोना के उस सकारात्मक पहलू को देखता है जो इस समय “आपदा में अवसर” के रूप में उभर कर आएl लॉकडाउन के शुरुआती दिनों में समय कैसे कटेगा के अवसाद में गए लोगों की जिजीविषा ने शीघ्र ही उन्हें समय के संसाधन का सदुपयोग करने की ओर मोड़ाl सोशल मीडिया का उपयोग साहित्यिक व अन्य कार्यक्रमों के लाइव के रूप में होने लगाl बाल काटने से लेकर नाली साफ करने तक के यू ट्यूब चैनल खुले, जो लोगों के खूब काम आएl महिलाओं ने नए-नए व्यंजन बनाने सीखे तो किसी ने गायन या नृत्य के अपने पुराने शौक आजमाने शुरू कियेl ऐसे में एक लेखक डॉ. केशव की नजर एक ऐक्टिंग सिखाने वाले ऑनलाइन कोर्स पर पड़ती हैl अपनी युवावस्था में वो अभिनेता बनना चाहते थे लेकिन तब वक्त ने साथ नहीं दियाlविज्ञापन देखकर एक बार वो “पुनीत प्रीत” फिर से जाग उठती है, और वो कोर्स में रजिस्ट्रेशन करवा देते हैंl यहाँ से कहानी अभिनय कला पर एक गहन शोध को ले कर आगे बढ़ती जाती है l हम एक शब्द सुनते हैं “वॉयस मॉड्यूलेशन’ पर इसके लिए किस तरह से ओम की ध्वनि को साध कर स्वर तन्तु खोलने हैंl “फ्लावर और कैन्डल” पर ध्यान लगा कर आवाज ही कंठ के गड्डे से नीचे से निकालनी है, ताकि स्टेज पर आते समय या बाहर जाते समय अभिनेता की जल्दी में ली गई साँस की आवाज दर्शकों को ना सुनाई देl किस तरह से सुर का बेस बदल कर के अशोक कुमार की आवाज से शक्ति कपूर की आवाज और अक्षय कुमार की आवाज तक पहुँचा जा सकता हैl रसों के प्रकार, भाव सम्प्रेषण आदि की विस्तृत चर्चा ने एक पाठक के तौर पर मुझे तृप्त किया l आजकल ऑडियो युग लौट रहा है, ऐसे में भावों को शब्दों में साधने की कला ऑडियो स्टोरी टेलिंग के काम में लगे लोगों के लिए फायदेमंद साबित होगीl उपन्यास में गुथी हुई कहानी, नाटक और प्रेरक कहानियाँ इसे गति देते हैं और रोचकता को भी बढ़ाते हैंl कुल मिला हमारी सोशल मीडिया की आम जिंदगी से निकला ये उपन्यास कई तरह का संतुलन साधते हुए सरपट भागता हैlउपन्यास विधा में इस नए प्रयोग के लिए डॉ.अजय शर्मा को हार्दिक बधाई व शुभकामनाएँ l वंदना बाजपेयी यह भी पढ़ें मीमांसा- आम जीवन से जीवन दर्शन की यात्रा बातें किताबों की- नेहा की लव स्टोरी प्राइड एंड प्रिज्युडिस को हुए 210 साल – जानिए जेन ऑस्टिन के जीवन के कुछ अनछुए पहलू अब तो बेलि फैल गई- जीवन के पछतावे को पीछे छोड़कर आगे बढ़ने की कथा आपको ‘शंख में समंदर-सोशल मीडिया के अनदेखे रिश्तों के नाम” लेख कैसा लगाl  अगर आओको अटूट बंधन की रचनाएँ पसंद आती है तो कृपया साइट को सबस्क्राइब करें व अटूट बंधन फेसबुक … Read more

मीमांसा- आम जीवन से जीवन दर्शन की यात्रा

    मीमांसा शब्द का शादिक अर्थ है किसी बात या विषय का ऐसा विवेचन जिसके द्वारा कोई निर्णय निकाला जाता होl अगर छः प्रसिद्ध भारतीय दर्शनों की बात करें तो उनमें से एक दर्शन मूलतः पूर्व मीमांसा और उत्तर मीमांसा नामक दो भागों में विभक्त था। लेकिन लेखक अनूपलाल मण्डल का उपन्यास “मीमांसा” अपने शाब्दिक अर्थ और दर्शन दोनों को साधता हुआ आगे बढ़ता है l और इस बात को प्रतिपादित करता है कि सहज जीवन की मीमांसा ही जीवन दर्शन को समझने के सूत्र दे देती है l पुस्तक की भूमिका में लेखक लिखते हैं कि, “मनुष्य सृष्टा का अंशमात्र अवश्य है जबकि आत्मा परमात्मा के एक लघु रूप से भिन्न और कुछ नहीं और इस नाते वह सृष्टा के अधिकार भार  को अपने संयम की सीमा से आबद्ध हो, रखने की चेष्टा करता है l वही चेष्टा आप यहाँ देखेंगेl   जब पाठक किताब पढ़ता है तो यह चेष्टा है उसके सामने रेशा-रेशा खुलने लगती है l यह चेष्टा है मानव हृदय की दुर्बलताओं को स्वीकार करने, समझने और उसके ऊपर विजय पाने के प्रयासों की l समस्त दर्शन इसी में निहित है l अन्वेषण- अनुसंधान और दुर्गम पर विजय ही समस्त प्राणियों में मानव को सर्वोच्च स्थान प्रदान करती है l जब वो प्रकृति  पर विजय पाता है तो भौतिक जीवन सुखद बनता है, जब वो जीवन और जीवन से संबंधित समस्त नियमों को समझता और सुलझाता है तब वैज्ञानिक प्रगति होती है l और जब वो खुद को समझता है और मन पर विजय पाता है तो आध्यात्मिक प्रगति होती है l ये उपन्यास इसी आध्यात्मिक प्रगति के लिए जीवन की मीमांसा करता है l   उपन्यास हाथ में लेने और पढ़ना प्रारंभ करने के कुछ ही समय बाद पाठक को बाँध लेता है l शिल्प के रूप में जहाँ  गुरुवर रवींद्र नाथ टैगोर की “आँख की किरकिरी” की स्मृति हो आती है वहीं शरतचंद्र की लेखनी सा ठहराव और प्रेमचंद जैसे संवेदना पाठक को रोकती है l और एक पाठक के तौर पर 1965 से पहले प्रकाशित इस पुस्तक को अभी तक ना पढ़ पाने का खेद भी उत्पन्न होता है l   मीमांसा- आम जीवन से जीवन दर्शन की यात्रा   मानवीय संवेदना को को गहरे उकेरती इस कथा की मुख्य पात्र अरुणा के जीवन की गाथा है, जिसे हीनभावना, भय, अपराधबोध और प्रेम के महीन तंतुओं से बुना गया है l नायिका अरुणा जो मात्र 11 वर्ष की आयु में ब्याह कर पति गृह आ गई है l विवाह का अर्थ भी नहीं समझती पर उसकी स्मृतियों में अंकित है माँ के हृदय का भय l वो भय जो उसके प्रेम और सेवा के समर्पण के रूप में खिला था अरुणा के रूप में, पर समाज ने उसे नहीं स्वीकारा और उस के माथे पर एक नाम लिख दिया ‘पतिता” l समाज द्वारा बहिष्कृत माँ भयभीत तब होती है जब उसे असाध्य रोग घेर लेता है l वो अरुणा को अपनी कथा बताना चाहती है l समाज के विरोध से उस नाजुक कन्या को बचाना चाहती है पर उस समय ‘पतिता’ जैसा भारी शब्द अरुणा की समझ से परे की चीज है l उसके जीवन में कुछ है तो उगते सूर्य की लालिमा, चाँदनी की शीतलता, मीलों फैले खेतों सा विशाल धैर्य l यही अरुणा अपने पास एक छोटा सा इतिहास रखती है, एक छोटा स्मृत-विस्मृत सा इतिहास l लेखक के शब्दों में, “बाबूजी! … दूर पगली ! बाबूजी नहीं -काकाजी….नहीं, बाबूजी ही कह सकती हो! पर तुम्हारे बाबूजी वह नहीं कोई और थेl”   अरुणा के इन शब्दों की मीमांसा करना चाहती यही पर उसके सामने काकाजी और बाबूजी का यह सवाल अमीमांसित ही रह जाता है l उसी समय नायक विजय किसी विवाह समारोह में गाँव आता है और अरुणा के रूप, शीलनता, सहजता से पहली ही दृष्टि में उसके प्रति प्रेम में पड़ जाता है l अगले दिन उसे पुनः देखकर भावनाएँ उफान मारती है और वह अरुणा के घर जाकर उसकी माँ से उसका हाथ मांग लेता है l अंधे को क्या चाहिए दो आँखें l माँ भी उसका विवाह कर देती है l पति गृह में आई अरुणा का साथ देती हैं विजय की विधवा दीदी और 4 सालों में अरुणा बालिका से तरुणी बनती है.. उसके हृदय में भी प्रेम की दस्तक होती है l उसे समझ में आता है कि पति विजय उसको दर्पण में क्यों देखता था l  पति के कमरे और सामान पर एकाअधिकार भाव जागता है और प्रेम  अपना प्रारबद्ध पाता है l पति द्वारा उसे अंधेरे में उसकी तस्वीर देखता पाकर लैंप जला कर देखने को कहने पर सहसा निकले अरुणा के शब्द उसकी गहन वैचारिका को दर्शाते हैं… “जो स्वयं प्रकाशवान हो उसको देखने के लिए लैंप की आवश्यकता नहीं पड़ती”   अरुणा के मन में पति के प्रति प्रेम है पर एक पतिता की बेटी होने का अपराधबोध भी l प्रेम का पुष्प तो समानता पर खिलता है l अरुणा के मन में दासत्व भाव है और उसका पति उसका तारण हार l विजय के हृदय प्रदेश में अरुणा किसी ईश्वर की मूरत की तरह विराजमान है पर अरुणा का यह मौन जिसे पढ़ने में विजय असमर्थ है उनके प्रेम में वो सहजता नहीं आने देता जो एक पति-पत्नी के मध्य होनी चाहिए l विजय के तमाम प्रयास उसके मन की ग्रन्थि को खोलने में असमर्थ रहते हैं l अरुण इस बात को समझती है पर अपने दासत्व भाव की सीमा को लांघ नहीं पाती l प्रेम के उसके हिस्से के अधूरेपन की यह बात उसे तब समझ आती है जब दीदी का देवर लल्लन दीदी को अपने विवाह के तय हो जाने पर लेने आता है l एक सहज संवाद में प्रेम की पहली दस्तक का आस्वादन अरुणा के हृदय में होता है l वो कहती है, “वो अनिश्चित तीथि क्या हमारे जीवन में फिर कभी आएगा लल्लन बाबू” और स्वयं ही स्वयं को सहेजती है…   “जो मिलने वाला नहीं, जिस पर अपना कोई अख्तियार नहीं,जिसके बारे में सोचना भी गुनाह हो सकता है, उसकी कल्पना में वो विभोर क्यों रहे? क्यों ना मानसपट पर अंकित उस चित्र को धुंधला कर दे-उसे मिटा दे और इतना … Read more

काकी का करवाचौथ

हमेशा की तरह करवाचौथ से एक दिन पहले काकी करवाचौथ का सारा सामान ले आयीं| वो रंग बिरंगे करवे, चूड़ी, बिंदी …सब कुछ लायी थीं और हमेशा की तरह सबको हुलस –हुलस कर दे रही थी | मुझे देते हुए बोलीं, “ये लो दिव्या तुम्हारे करवे, अच्छे से पूजा करना, तुम्हारी और दीपेश की जोड़ी बनी रहे|” मैंने उनके पैर छू  कर करवे ले लिए| तभी मेरा ध्यान बाकी बचे सामान पर गया| सामान तो खत्म हो गया था| मैंने काकी की ओर आश्चर्य से देख कर पूछा, “काकी, और आपके करवे ?” “इस बार से मैं करवाचौथ नहीं रहूँगी”, काकी ने द्रणता से कहा| मैं अवाक सी उनकी ओर देखती रह गयी| मुझे इस तरह घूरते देख कर मेरे मन में उठ रहे प्रश्नों के ज्वार को काकी समझ गयीं| वो मुस्कुरा कर बोलीं, “नीत्से ने कहा है, आशा बहुत खतरनाक होती है| वो हमारी पीड़ा को कम होने ही नहीं देती|”  काकी की घोर धार्मिक किताबों के अध्यन से चाणक्य और फिर नीत्से तक की यात्रा की मैं साक्षी रही हूँ| तभी अम्मा का स्वर गूँजा, “नीत्से, अब ये मुआ नीत्से कौन है जो हमारे घर के मामलों में बोलने लगा |” मैं, काकी, अम्मा और ‘नीत्से’ को वहीँ छोड़ कर अपने कमरे में चली आई | मन बहुत  भारी था| कभी लगता था जी भर के रोऊँ उस क्रूर मजाक पर जो काकी के साथ हुआ, तो कभी लगता था जी भर के हँसू क्योंकि काकी के इस फैसले से एक नए इतिहास की शुरुआत जो होनी थी| एक दर्द का अंत, एक नयी रीत का आगाज़| विडम्बना है कि दुःख से बचने के लिए चाहें हम झूठ के कितने ही घेरे अपने चारों  ओर पहन लें पर इससे मुक्ति तभी मिलती है जब हममें  सच को स्वीकार कर उससे टकराने की हिम्मत आ जाती है| मन की उहापोह में मैं खिड़की के पास  बैठ गयी| बाहर चाँद दिखाई दे रहा था| शुभ्र, धवल, निर्मल| तभी दीपेश आ गए | मेरे गले में बाहें डाल कर बोले, “देखो तो आज चाँद कितनी जल्दी निकल आया है, पर कल करवाचौथ के दिन बहुत सताएगा| कल सब इंतज़ार जो करेंगे इसका|”मैं दीपेश की तरफ देख कर मुस्कुरा दी| सच इंतज़ार का एक – एक पल एक एक घंटे की तरह लगता है| फिर भी चाँद के निकलने का विश्वास तो होता है| अगर यह विश्वास भी साथ न हो तो ?  इस अंतहीन इंतज़ार की विवशता वही समझ सकता है जिसने इसे भोगा हो | मन अतीत की ट्रेन में सवार हो गया और तेजी से पीछे की ओर दौड़ने लग गया …छुक –छुक, छुक- छुक| आज से 6  साल पहले जब मैं बहू बन कर इस घर में आई थी| तब अम्मा के बाद काकी के ही पैर छुए थे| अम्मा  ने तो बस “ खुश रहो”  कहा था, पर  काकी ने सर पर हाथ फेरते हुए आशीर्वादों की झड़ी लगा दी| सदा खुश रहो, जोड़ी बनी रहे, सारी जिंदगी एक दूसरे से प्रेम-प्रीत में डूबे रहो, दूधों नहाओ-पूतों फलों, और भी ना जाने क्या-क्या ….सुहाग, प्रेम और सदा साथ के इतने सारे भाव भरे आशीर्वाद| यूँ तो मन आशीर्वादों की झड़ी से स्नेह और और आदर से भीग गया पर टीचर हूँ, लिहाजा दिमाग का इतने अलग उत्तर पर ध्यान जाना तो स्वाभाविक था|कौन है ये के प्रश्न मन में कुलबुलाने लगे l तभी किसी के शब्द मेरे कानों में पड़े “अभी नयी -नयी आई है, इसको काकी के पैर क्यों छुआ दिए| कुछ तो शगुन-अपशगुन का ध्यान रखो |” मेरी जिज्ञासा और बढ़ गयी|   मौका मिलते ही छोटी ननद से पूछा, “ये काकी बहुत प्रेममयी हैं क्या? इतने सारे आशीर्वाद दे दिए |” ननद मुँह बिचका कर बोली  “तुम्हें नहीं, खुद को आशीर्वाद दे रही होंगी या कहो भड़ास निकाल रही होंगी | काका तो शादी की पहली रात के बाद ही उन्हें छोड़ कर चले गए | तब से जाने क्या – क्या चोंचले करती हैं,लाइम लाईट में आने को |” शादी का घर था| काकी सारा काम अपने सर पर लादे इधर-उधर दौड़ रहीं थी| और घर की औरतें बैठे-बैठे चौपाल लगाने में व्यस्त थीं | उनकी बातों  का एक ही मुद्दा था “ काकी पुराण” | नयी बहु होने के कारण उनके बीच बैठना और उनकी बातें सुनना मेरीविवशता थी | काकी को काका ने पहली रात के बाद ही छोड़ दिया था,यह तो मुझे पता था पर इन लोगों की  बातों से मुझे ये भी पता चला कि भले ही काकी हमारे साथ रहती हो पर परिवार-खानदान  में किसी के बच्चा हो, शादी हो, गमी हो काकी बुलाई जाती हैं | काम करने के लिए | काकी पूरी जिम्मेदारी से काम संभालती | काम कराने वाले अधिकार से काम लेते पर उन्हें इस काम का सम्मान नहीं मिलता था | हवा में यही जुमले उछलते … कुछ तो कमी रही होगी देह में, तभी तो काका ने पहली रात के बाद ही घर छोड़ दिया | चंट है, बताती नहीं है | हमारे घर का लड़का सन्यासी हो गया | काम कर के कोई अहसान नहीं करती है | खा तो  इसी घर का रही है, फिर अपने पाप को घर का काम कर – कर के कम करना ही पड़ेगा | एक औरत जो न विधवा थी न सुहागन, विवश थी सब सुनने को सब सहने को | मेरा मन काकी की तरफ खिचने लगा | मेरी और उनकी अच्छी दोस्ती हो गयी | वे उम्र में मुझसे 14-15 साल बड़ी थीं | पर उम्र हमारी दोस्ती में कभी बाधा नहीं आई | मैं काकी का दुःख बांटना चाहती  थी | पर वो तो अपने दुःख पर एकाधिकार जमाये बैठी थीं | मजाल है कभी किसी एक शब्द ने भी मुँह की देहरी को लांघा हो l पर बूंद-बूंद भरता उनके दर्द का घड़ा साल में एक बार फूटता, करवाचौथ के दिन | जब वो चलनी से चाँद को देख उदास सी हो थाली में चलनी  वापस रख देतीं | फिर जब वो हम सब को अपने –अपने पतियों के साथ पूजा करते देखतीं तब उनका दर्द पिघल कर आँखों के रास्ते बह निकलता | अकसर वो हमें वहीं छोड़ पल्लू से … Read more

भगवान शिव और भस्मासुर की कथा नए संदर्भ में

हमारी पौराणिक कथाओं को जब नए संदर्भ में समझने की कोशिश करती हूँ तो कई बार इतने नए अर्थ खुलते हैं जो समसामयिक होते हैं l अब भस्मासुर की कथा को ही ले लीजिए l क्या थी भस्मासुर की कथा  कथा कुछ इस प्रकार की है कि भस्मासुर (असली नाम वृकासुर )नाम का एक असुर दैत्य था l क्योंकि असुर अपनी शक्तियां बढ़ाने के लिए भोलेनाथ भगवान शिव की पूजा करते थे l तो भस्मासुर ने भी एक वरदान की कह में शिव जी को प्रसन्न करने के लिए कठोर तपस्या की l आखिरकार शिव प्रसन्न हुए l शिव जी उससे वरदान मांगने के लिए कहते हैं l तो वो अमर्त्य का वरदान माँगता है l भगवान शिव उससे कहते हैं कि ये तो नहीं मिल सकता क्योंकि ये प्रकृति के नियमों के विरुद्ध है l तुम कोई और वरदान मांग लो l ऐसे में भस्मासुर काफी सोच-विचार के बाद उनसे ये वरदान माँगता है कि मैं जिस के भी सर पर हाथ रखूँ  वो तुरंत भस्म हो जाए l भगवान शिव  तथास्तु कह कर उसे ये वरदान दे देते हैं l अब शिवजी ने तो उसकी तपस्या के कारण वरदान दिया था पर भस्मासुर उन्हें ही भस्म करने उनके पीछे भागने लगता है l अब दृश्य कुछ ऐसा हो जाता है कि भगवान भोले शंकर जान बचाने के लिए आगे-आगे भागे जा रहे हैं और भस्मासुर पीछे -पीछे l इसके ऊपर एक बहुत बहुत ही सुंदर लोक गीत है, “भागे-भागे भोला फिरते जान बचाए , काँख तले मृगछाल दबाये भागत जाए जाएँ भोला लट बिखराये, लट बिखराये पाँव लंबे बढ़ाए रे, भागत जाएँ … अब जब विष्णु भगवान ने भस्मासुर की ये व्यथा- कथा देखी l तो तुरंत एक सूदर स्त्री का मोहिनी रूप रख कर भस्मासुर के सामने आ गए l भस्मासुर उन्हें देख उस मोहिनी पर मग्ध हो गया और उसके समक्ष विवाह का प्रस्ताव रख दिया l मोहिनी  ने तुरंत माँ लिया पर उसने कहा कि तुम्हें मेरे साथ नृत्य करना होगा l भस्मासुर ने हामी भर दी l उसने कहा कि नृत्य तो मुझे नहीं आता पर जैसे-जैसे तुम करती जाओगी मैं पीछे-पीछे करता जाऊँगा l नृत्य शुरू हुआ l जैसे- जैसे मोहिनी नृत्य करती जाती भस्मासुर भी नृत्य करता जाता l नृत्य की एक मुद्रा में मोहिनी अपना हाथ अपने सिर पर रखती है तो उसका अनुसरण करते हुए भस्मासुर भी अपना हाथ अपने सिर पर रखता है l ऐसा करते ही भस्मासुर भस्म हो जाता है l तब जा के शिव जी की जान में जान आती है l   भगवान शिव और भस्मासुर की कथा नए संदर्भ में असुर और देव को हमारी प्रवृत्तियाँ हैं l अब भस्मासुर को एक प्रवृत्ति की तरह ले कर देखिए l तो यदि एक गुण/विकार को लें तब मुझे मुझे तारीफ में ये अदा नजर आती है l एक योग्य व्यक्ति कि आप तारीफ कर दीजिए तो भी वो संतुष्ट नहीं होगा l उसको अपनी कमजोरियाँ नजर आएंगी और वो खुद उन पर काम कर के उन्हें दूर करना चाहेगा l कई बार तारीफ करने वाले से भी प्रश्न पूछ- पूछ कर बुराई निकलवा लेगा और उनको दूर करने का उपाय भी जानना चाहेगा l कहने का तात्पर्य ये है कि वो तारीफ या प्रोत्साहन से तुष्ट तो होते हैं पर संतुष्ट नहीं l   परंतु अयोग्य व्यक्ति तुरंत तारीफ करने वाले को अपने से कमतर मान लेता है l उसके अहंकार का गुब्बारा पल भर में बढ़ जाता है l अब ये बात अलग है कि  तारीफ करने वाला भी शिव की तरह भस्म नहीं होता क्योंकि उसे उसकी मोहिनी यानि की कला, योग्यता बचा ही लेती है l   अलबत्ता भस्मासुर के बारे में पक्का नहीं कहा जा सकता l वो भस्म भी हो सकते हैं या कुछ समय बाद उनकी चेतना जागृत भी हो सकती है lऔर वो अपना परिमार्जन भी कर सकते हैं l वंदना बाजपेयी यह भी पढ़ें …. यह भी गुज़र जाएगा ( motivational story in Hindi ) भविष्य का पुरुष जब राहुल पर लेबल लगा छिपा हुआ आम आपको लेख “भगवान शिव और भस्मासुर की कथा नए संदर्भ में “कैसा लगा ? अपनी राय से हमें अवश्य अवगत कराएँ l अगर आपको अटूट बंधन में प्रकाशित रचनाएँ और हमारा प्रयास पसंद आता है तो कृपया साइट को सबस्क्राइब करें और अटूट बंधन फेसबुक पेज को लाइक करें ताकि हमेंऔर अच्छा काम करने की प्रेरणा मिल सके l

सुनो घर छोड़ कर भागी हुई लड़कियों

भागी हुई लड़कियाँ

मैं एक कहानी लिखने की कोशिश में हूँ l घरेलू सहायिका किचन में बर्तन साफ कर रही है l  मैं एक सशक्त नायिका गढ़ना चाहती हूँ पर घरेलू सहायिका के बर्तनों की टनटनाहट मेरे सोचने में बाधा डाल रही है l तभी घंटी बजती है l सहायिका की भाभी आई हैl जोर-जोर से बता रही है, “देखो करछी से कैसे मारा है, तुम्हारे भैया नेl” मेरी नायिका की-बोर्ड पर ठिठक कर खड़ी हो जाती है l सहायिका अपने भाई के लिए दो गालियां उछालती है हवा में, उसकी भाभी भी अनुसरण कर दो गालियां उछालती है | फिर दोनों हँस देती है l उनका हँसना मेरी नायिका की तरह अपनी किसी उपलबद्धि पर होने वाली प्रसन्नता नहीं है, ना ही नायक के प्रति प्रेम का कोई सूचक, ना ही जीवन के प्रति अनुराग l उसका हँसना चट्टान फाड़ पर निकले किसी नन्हें अंकुर की सी जिजीविषा है l जीवन के तमाम संघर्षों में उसने हँसने की आदत डाल रखी है…  आखिर कोई कितना रोए? पता नहीं क्यों मैं टोंकती हूँ उसे, “क्यों पिटती हो तुम लोग, क्यों नहीं करती विद्रोह?” जवाब में वो हँसती है, “हम लोगों में ऐसा ही होता है दीदीl मेरे घर से चार घर छोड़ कर रहती है सुनयना, पहला पति पीटता थाl  फिर उसने वो ले लिया… वही, क्या कहते हैं आप लोग…  हाँ! वही डिफोर्स l फिर दूसरी शादी कर ली, अब वो भी पीटता है| अब बताओ कितने लेगी डिफोर्स l मैं बताती हूँ उसे कि मेरी नायिका बढ़ चुकी है विद्रोह के लिए आगे l वो फिर हँसती है, “वो कर सकती है… क्योंकि आप उसके लौटने के दरवाजे खोल देती है l एक ठोस जमीन दिखती है उसे, पर हकीकत में… जो जहाँ जैसे फँस गया है उसे लौटने देते लोग… दूसरी बार तो बिलकुल भी नहीं l हाँ थोड़ा और और खिसक देते हैं पैरों के नीचे से जमीन l उसकी हकीकत और मेरी कल्पना के बीच थमी हुई हैं, की बोर्ड पर थिरकती मेरी अंगुलियाँ l मैं सोचती हूँ, बार- बार सोचती हूँ, फिर टाइप करती हूँ… “ये जमीन हमें ही तैयार करनी होगी हकीकत में” वंदना बाजपेयी   आपको ये राइट अप कैसा लगा हमें अपने विचारों से अवगत कराएँ l  अगर आप को हमारा काम पसंद आता है तो कृपया अटूट बंधन साइट सबस्क्राइब करें व अटूट बंधन पेज लाइक करें l

सिन्हा बंधु- पाठक के नोट्स

सिंह बंधु

  “जिस तरह जड़ों से कटा वृक्ष बहुत ऊंचा नहीं उठ सकता|उसी तरह समृद्धिशाली भविष्य की दास्तानें अतीत को बिसरा कर नहीं लिखी जा सकती |” “सिन्हा बंधु” उपन्यास ऐसे ही स्वतंरता संग्राम सेनानी “राजकुमार सिन्हा” व उनके छोटे भाई “विजय कुमार सिन्हा” की जीवन गाथा है .. जिनकी माँ ने अपने एक नहीं दो-दो बेटों को भारत माँ की सेवा में सौंप दिया |  बड़े भाई को काकोरी कांड और छोटे को साडर्स कांड में सजा हुई l दोनों ने अपनी युवावस्था के महत्वपूर्ण वर्ष देश को स्वतंत्र कराने में लगा दिये l उपन्यास को 8 प्रमुख भागों में बांटा गया है – कानपुर, कारांचीखाना, मार्कन्डेय भवन, काकोरी कांड, राजकुमार सिन्हा जी का विवाह, अंडमान जेल, बटुकेश्वर दत्त, स्मृतियाँ l   “सिन्हा बंधु”-स्वतंत्रता संग्राम में महत्वपूर्ण योगदान देने वाले सिन्हा बंधुओं  के त्याग वीरता और देशभक्ति को सहेजता उपन्यास     उपन्यास की शुरुआत उत्तर प्रदेश के औधयोगिक नगर कानपुर गौरवशाली इतिहास से हुई है | लेखिका लिखती हैं कि, “हाँफते- दाफ़ते शहरों के बीच पूरे आराम और इत्मीनान के साथ चलने वाले कानपुर नगर का अपना ही ठेठ कनपुरिया मिज़ाज है l और ताप्ती गर्मी में गुस्से के बढ़ते पारे को शांत करने वाली माँ गंगा है ना.. जो कनपुरियों का मिज़ाज ही नहीं शांत करती, ब्रह्मा जी को भी संसार की रचना करने के बाद शांति से बिठूर में अपनी गोद में बिठाती हैं l वही बिठूर जहाँ वाल्मीकि आश्रम में रामायण जैसा कालातीत ग्रंथ लिखा गया l माँ सीता ने लव- कुश को जन्म दिया और शस्त्रों से लेकर शास्त्रों तक की शिक्षा दी l अपने पुत्र से यौवन की मांगने वाले राजा ययाति का किला भी गंगा के किनारे जाजमऊ में था l उन्हीं के बड़े पुत्र यदु के नाम से यदुवंश बना l     आज भी उत्तर प्रदेश का प्रमुख  औधयोगिक नगर कानपुर स्वतंत्रता संग्राम के यज्ञ में अपने युवाओं की आहुति देने वाले उत्तर प्रदेश का केंद्र था।  कानपुर 1857 के स्वतंत्रता संग्राम ( जिसे अंग्रेज़ों ने ‘सिपाही-विद्रोह’ या ‘गदर’ कहकर पुकारा) के प्रमुख स्थलों में से एक रहा  है। नाना राव और तात्या टोपे के योगदान को भला कौन भूल सकता है | यहां का इतिहास कई तरह की कहानियों को खुद में समेटे हुए है। नाना राव पार्क भी इस इतिहास का गवाह है। वह अपने वीर सपूतों की कुर्बानी पर खून के आंसू रोया था। यहीं पर बरगद के पेड़ से चार जून 1857 को 133 क्रांतिकारियों को फांसी दी गई थी। तब से  यह पेड़ न भुलाने वाली यादों को संजोए रहा और  कुछ साल पहले ही  जमींदोज हो गया।   भगत सिंह और चंद्रशेखर ‘आजाद’ जैसे वीर सपूतों  की  कानपुर कर्म भूमि रहा है | शहर ने भी इसे अपना अहोभाग्य माना और बड़े सम्मान से कानपुर में इनकी मूर्तियाँ स्थापित की  गई | इनके अतिरिक्त  कानपुर में बड़ा चौराहे पर कोतवाली रोड के किनारे स्वतंत्रता संग्राम सेनानी डॉ. मुरारी लाल की प्रतिमा स्थापित है, जिन्होंने आजादी के लड़ाई में अपने प्राणों का उत्सर्ग किया था। कानपुर के डीएवी कॉलेज के अंदर क्रांतिकारी “शालिग्राम शुक्ल” की  मूर्ती है। इस मूर्ति को वर्ष 1963 में स्थापित किया गया | “शालिग्राम शुक्ल” हिन्दुस्तान रिपब्लिकन आर्मी के कानपुर चीफ थे, और  चंद्रशेखर आजाद के साथी थे। एक दिसंबर 1930 में अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाई में वो चंद्रशेखर आजाद की रक्षा करने के दौरान, मात्र 19 वर्ष की आयु में,  शहीद हो गये।   सिन्हा बंधुओं के बारे में बताते -बताते किताब कानपुर के बटुकेश्वर दत्त के बारे में भी बताती है l तो चंद्रशेखर आजाद, गणेश शंकर विध्यार्थी और भगत सिंह के बारे में  भी रोचक किस्से जरूरी  बातों की जानकारी देती है l     अपने देश और गौरव को सहेजने की चाह रखने वाले साहित्यकारों लेखकों को लगा कि इन्हें वर्तमान पीढ़ी से जोड़ना आवश्यक है क्योंकि वर्तमान ही अतीत और भविष्य के मध्य का सेतु है | जाहिर है एक बिसराये हुए इतिहास में, उजड़े हुए शब्द कोश में और विकास की बदली हुई परिभाषाओं में ये काम आसान नहीं था | पर इसे करने का जिम्मा उठाया कानपुर की ही एक बेटी वरिष्ठ लेखिका “आशा सिंह” जी ने | उम्र के इस पड़ाव पर जब बहुओं को घर की चाभी सौंप कर महिलायेँ  ग्रहस्थी के ताम-झाम  से निकल दो पल सुकून  की सांस लेना चाहती हैं तब आशा दी मॉल और मेट्रो  की चमक से दमकते कानपुर की जमीन में दफन गौरवशाली इतिहास को खोजने शीत, घाम और वर्षा की परवाह किए बिना निरंतर इस श्रम साध्य उद्देश्य में जुटी हुई थीं l पर आखिरकार उनका परिश्रम इस किताब के माध्यम से मूर्त रूप में सामने आया | यह किताब एक नमन है, एक श्रद्धा का पुष्प है सिन्हा ब्रदर्स नाम से प्रसिद्ध कानपुर के स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों को |   हार्दिक बधाई और शुभकामनाएँ वंदना बाजपेयी

बचपन में थी बड़े होने की जल्दी

बचपन में होती है बड़े होने की जल्दी और बड़े होने पर बचपन ढूंढते हैं ...मानव मन ऐसा ही है, जो पास होता है वो खास नहीं लगता lइसी विषय पर एक कविता  .. बचपन में थी बड़े होने की जल्दी 

बचपन में होती है बड़े होने की जल्दी और बड़े होने पर बचपन ढूंढते हैं …मानव मन ऐसा ही है, जो पास होता है वो खास नहीं लगता lइसी विषय पर एक कविता  ..   बचपन में थी बड़े होने की जल्दी  कभी-कभी ढूंढती हूँ उस नन्हीं सी गुड़िया को जो माँ की उल्टी सीधी-साड़ी लपेट खड़ी हो आईने के सामने दोहराती थी बार-बार “लो हम टो मम्मी बन गए” या नाराज़ हो माँ की डाँट पर छुप कर चारपाई के नीचे लगाती थी गुहार “लो जा रहे हैं सुकराल” माँ के मना करने बावजूद अपनी नन्ही हथेलियों में जिद करके थामती थी बर्तन माँजने का जूना और ठठा कर हँसता था घर हाथों में संभल ना पाए गिरते बर्तनों की झंकार से और अपनी गुड़िया को भी तो पालती थी बिलकुल माँ की तरह करना था सब वैसे ही चम्मच से खिलाने से लेकर डॉक्टर को दिखाने तक दोनों हाथों से पकड़ कर बडी सी झाड़ू हाँफते-दाफ़ते जल्दी-जल्दी बुहार आती थीबचपन घर के आँगन से आज उम्र की किसी ऊंची पायदान पर खड़ी हो लौट जाना चाहती है उस बचपन में जब थी जल्दी बड़े होने की सदा से यही रहा है हम सब का इतिहास कुछ और पाने की आशा में जो है आज इस पल हमारे पास वो कभी नहीं लगता खास वंदना बाजपेयी   आपको कविता “बचपन में थी बड़े होने की जल्दी” कैसी लगी ? अपनी राय से हमें अवश्य अवगत कराए l अगर आपको अटूट बंधन की रचनाएँ पसंद आती है तो कृपया साइट को सबस्क्राइब करें व फेसबुक पेज लाइक करें l

प्रज्ञा की कहानी जड़खोद- स्त्री को करना होगा अपने हिस्से का संघर्ष

जड़खोद

संवेद में प्रकाशित प्रज्ञा जी की एक और शानदार कहानी है “जड़ खोद”l इस कहानी को प्रज्ञा जी की कथा यात्रा में एक महत्वपूर्ण पड़ाव के रूप में देखा जा सकता है | जैसा कि राकेश बिहारी जी ने भी अपनी टिप्पणी में कहा है कि ये उनकी कथा यात्रा के नए पड़ाव या प्रस्थान बिन्दु की तरह देखा जाना चाहिए l एक स्त्री के संघर्ष की कहानी कहते हुए ये कहानी समाज में होने वाले राजनैतिक और सामाजिक बदलाव को एक सूत्र में इस तरह से गूथती हुई आगे बढ़ती है कि पाठक जिज्ञासा के साथ आगे बढ़ता जाता है | राजनैतिक घटनाओं के बावजूद कथारस कहीं बाधित नहीं होता | कहानी की नायिका गंगा, भागीरथी गंगा की ही तरह प्रवाहमान है, जिसे बहना है और बहने के लिए उसे अपने रास्ते में आने वाले पर्वतों को काटना भी आता है और ना काट सकने की स्थिति में किनारे से रास्ता बनाना भी | भागीरथी प्रेत योनि में भटकते राजा सगर के पुत्रों को तारने देवलोक से आई तो ये गंगा अपने पिता का कर्ज उतारने दुनिया में आई है l गंगा जो पहाड़ों से संघर्ष के साथ आगे बढ़ती है पर जमीन को समतल और हरा भरा करना ही उसके जीवन का उद्देश्य है | कहानी की नायिका गंगा भी बचपन से संघर्षों के साथ पलती बढ़ती पितृसत्ता और धर्मसत्ता से टकराती है l और अपनी तरफ से जीवन को समरस बनाने का प्रयास करती है | कहानी चंद्रनगर कि गलियों से निकलकर, देहरादून, भोपाल और ऑस्ट्रेलिया की यात्रा करती है, तो तकरीबन 1980-85 से लेकर 6 दिसम्बर 1992 की घटनाओं का जिक्र करते हुए शहरों और गलियों के नाम बदलने वाले आज के युग का भी | प्रज्ञा जी कहानी में समय काल नहीं बताती पर घटनाओं के मध्यम से पाठक समय को पहचान जाता है | कहानी में पाठक गंगा की उंगली पकड़कर चलता है और उसके सुख दुख में डूबता उतराता हैl उसके गुम हो जाने कि दिशा में पाठक कि बेचैनी भी गंगा कि सहेली सोनू की ही तरह बढ़ती जाती है | बच्चों को स्कूल ले जाने वाले रिक्शे पर पीछे लगे पटरे, रिक्शे बच्चों का शोर और, सोनू का दौड़ कर सीढ़ियाँ चढ़ कर इत्मीनान से बिना नहाई -धोई गंगा को जल्दी करने के लिए कहना, जहाँ बाल सुलभ हरकतों के साथ पाठक को बचपन में ले जाता है l वहीं अन्यायी अत्याचारी पिता का विदोह करती बच्ची का बाल मनोविज्ञान प्रज्ञा जी ने बखूबी पकड़ा है | फिर चाहे वो पुजारी की बेटी होते हुए भी बिना नहाए नाश्ता करना हो या सहर्बी पिता के विरोध में कि गई चोरी या रिक्शे के आगे लेट जाने की धमकी, या जमा हथियारों को नदी में बहा आना | माली के लड़के से प्रेम | धर्म, जाति समाज इतने सूत्रों को एक साथ एक कहानी में पिरोने के बावजूद ना कथारस कहीं भंग होता है और नया ही प्रवाह, ये लेखिका की कलम की विशेषता है | अगर राजनैतिक सूत्र पकड़े तो गंगा में कहीं इंदिरा गांधी नजर आती हैं तो कहीं गांधी जी | इंदिरा शब्द का प्रयोग तो लेखिका ने स्वयं ही किया है | द्रण निश्चयी, अटल, गंगा अपनी उम्र से पहले ही बड़ी हो गई है वो एक अन्य बच्ची टिन्नी के खिलाफ अपने पिता के कुत्सित इरादों को भांप पर उसे बचाती भी है और माँ को बचाने के लिए पिता पर वार करती है | मंदिर और मंदिर के आस -पास का वातवरण का जिक्र करते हुए प्रज्ञा जी कि गंगा धर्म की सही व्याख्या करती है जो अन्याय के खिलाफ अपनों से भी भिड़ जाने में है l गंगा के उत्तरोत्तर बढ़ते चरित्र को देख कर मुझे बरबस राष्ट्र कवि मैथिली शरण गुप्त की पंक्तियाँ याद आती हैं .. अधिकार खो कर बैठ रहना, यह महा दुष्कर्म है; न्यायार्थ अपने बन्धु को भी दण्ड देना धर्म है। कहानी की कुछ पंक्तियाँ देर तक सोचने पर विवश करती हैं … ‘जब मानुस धर्म देखने वाली आँखें फूट जाएं तो रिश्ते की सीखचों में कैद होना ही अंतिम उपाय रहता है।’’ ‘‘ राम के नाम में इस त्रिशूल का क्या काम? ये तो बिल्कुल हथियार जैसा लगता है।’’ ‘‘ तो इस पाप की भागी अकेली मैं नहीं हूं। देख रही है न सामने उस आदमी को, मंगल के पैसे बटोरकर मंहगी शराब पिएगा और रात को माई को मारेगा। इस पापी के सामने मैं क्या हूं? भगवान सब जानते हैं।’’ कहानी में सकारात्मकता बनाए रखना प्रज्ञा जी कि विशेषता है | ऐसा नहीं है कि कहानी में सारे खल चरित्र और उनसे जूझती गंगा ही हो, सार्थक पुरुष पात्रों के साथ कहानी को एकतरफा हो जाने से रोकती हैं | जहाँ प्रभात है, जिसके प्रेम में धैर्य है, संरकांत जी हैं, जो किसी अबला को सहारा देने के लिए समाज यहाँ तक की अपने बेटों से भी भिड़ जाते हैं …. पर नैतिकता का दामन नहीं छोड़ते | सोनू और उसके जीवन में आने वाले सभी लोग सभ्य -सुसंस्कृत हैं l ये वो लोग हैं जिनकी वजह से हमारे घर, समाज, धर्म और राजनीति में बुराइयाँ थोड़ा थमती हैं | कहानी का अंत एक नई सुबह की आशा है …जो रात के संघर्ष के बाद आती है l अपने हिस्से की सुबह के लिए अपने हिस्से का यह संघर्ष हर स्त्री को करना होगा l चाहें इसके लिए जड़खोद ही क्यों ना बनना पड़े | फिर से एक बेहतरीन कहानी के लिए प्रज्ञा जी को बधाई वंदना बाजपेयी आपको “प्रज्ञा की कहानी जड़खोद- स्त्री को करना होगा अपने हिस्से का संघर्ष” कहानी कैसी लगी ? अपने विचारों से हमें अवश्य अवगत कराए l  अगर आप को अटूट बंधन की रचनाएँ पसंद आती है तो कृपया साइट सबस्क्राइब करें व अटूट बंधन फेसबुक पेज लाइक करें l