मनोहर सूक्तियाँ -जीवन को बदलने वाले विचरों का संग्रह

मनोहर सूक्तियाँ

क्या एक विचार जिंदगी बदल सकता है ? मेरे अनुसार “हाँ” वो एक विचार ही रहा होगा जिसने रेलवे स्टेशन पर गाँधी जी को अन्याय के खिलाफ आवाज उठाने की ताकत दी .. और मोहन दास करमचंद महात्मा गाँधी बन गए | Willie Jolley अपनी किताब It Only Takes a Minute to Change Your Life में कहते हैं .. वो विचार ही होता है जब हम कोई ऐसा निर्णय लेते हैं जो हमारी जिंदगी का टर्निंग पॉइंट होता है | अगर निजी तौर पर बात कहूँ तो एक लोकोक्ति के रूप में मेरे नाना जी ने मन की गीली मिट्टी पर एक विचार रोप दिया था “चटोरी खोए एक घर बतोडी खोए चार घर ” अर्थात जिसे अच्छे अच्छे खाने का शौक होता है वो अपने घर के ही पैसे बर्बाद करता है | लेकिन जिसे फालतू बात करने का शौक होता है वो अपने साथ चार लोगों का समय बर्बाद करता है | कयोकि बात करने के लिए चार लोग चाहिए | यहाँ समय की तुलना सीधे -सीधे धन से की गई है | इस बात को समझ कर मैंने हमेशा समय को बर्बाद होने से बचाने की कोशिश की | निश्चित तौर पर आप लोगों के पास भी ऐसे किस्से होंगे जहाँ एक विचार आपके जीवन का उसूल बन गया | ऐसी ही एक किताब “हीरो वाधवानी ” जी की उपहार स्वरूप मेरे घर में आई | 246 पेज की इस किताब में 180 पेज में सूक्तियाँ या जीवन संबंधी विचार हैं ,जो हमें प्रेरणा देते हैं या सोचने पर विवश करते हैं | बाकी पेज में समीक्षात्मक लेख हैं | कुछ सूक्तियाँ साझा कर रहीं हूँ .. ईश्वर ने हमें एक मुँह और दो हाथ -पैर इसलिए दिए हैं ताकि हम कहें कम करें अधिक | क्रोध और अहंकार करने वाले बाहर से भले द्रण लगें अंदर से कमजोर होते हैं | मित्रता तोड़ना आईने तोड़ने जैसा है | तेज आँधी नहीं घर का क्लेश नींव को हिला देता है | ईश्वर ने सबसे अधिक हड्डियाँ इंसान के पैरों में रखीं हैं ताकि वो अपने पाँव से चले दूसरे के कंधे पर सवार ना हो | ईर्ष्यालू अंधा होता है क्योंकि वो जिससे ईर्ष्या करता है उसके परिश्रम व प्रयत्नों को नहीं देखता | ऐसी बहुत सारी जीवन उपयोगी सूक्तियाँ हैं जिन्हे एक झटके में न पढ़ कर रोज एक पेज पढ़ कर मनन करने से जीवन में अवश्य परिवर्तन आएगा | एक अच्छी व अलग किताब के लिए “हीरो वधवानी जी को बधाई व शुभकामनाएँ | समीक्षा -वंदना बाजपेयी यह भी पढ़ें … दीपक शर्मा की कहानी -सिर माथे स्टेपल्ड पर्चियाँ -समझौतों की बानगी है ये पर्चियाँ गांधारी – आँखों की पट्टी खोलती एक बेहतरीन किताब मैत्रेयी पुष्पा की कहानी “राय प्रवीण”  आपको मनोहर सूक्तियाँ -जीवन को बदलने वाले विचरों का संग्रह कैसा लगा l अगर आपको अटूट बंधन की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया साइट को सबस्क्राइब करें व अटूट बंधन फेसबूक पेज लाइक करें l

love की हैप्पी ending -चटपटी हास्य कथाएं

love की हैप्पी ending -चटपटी हास्य कथाएं

ऐ मौसम तुमने हमे क्या-क्या गम ना दिए .. ये तो भला हो हमारी भुल्लों बुआ यानि अर्चना चतुर्वेदी जी का जिन्होंने इस गर्मी में जब पसीने बहाते और पानी -पानी की पुकार लगाते हुए लोग एक दूसरे से सात गज की दूरी बना कर चलते हैं, उन्होंने लव की हैप्पी एन्डिंग करा कर पाठको को ही नहीं प्रेम को भी जीवन दान दे दिया | मौसम की मार, कोरोना की चौथी लहर की बेसुरी दस्तक की खबर, रूस और यूक्रेन युद्ध की भयावाह तस्वीरें और उस पर महंगाई की मार ने माहौल कुछ ऐसा बना दिया है की आप चीख -चिल्ला सकते हैं, गुस्सा कर सकते हैं, चाहें तो रो भी सकते हैं पर हँसी बहुत जल्दी विलुप्त प्रजाति में जा रही है | नासा ( नासा जोड़ देने से बौद्धिकता की लू की चपेट में पाठक जल्दी आता है) की रिपोर्ट में कहा गए है की आज कल हाल हुए बच्चे भी पहले टेंशन करना सीखते हैं बाद में मुसकुराना सीखते हैं | ऐसे समय में व्यंग्यकार लोग बिना किसी सरकारी सहायता के हँसी की फसलों को फिर से हरियाते हुए देखेने का प्रयास कर रहे हैं | ये किसी पुण्य से कम नहीं है | और हमारी प्यारी व्यंग्यकार अर्चना जी ने भावना प्रकाशन से प्रकाशित अपनी नई किताब “ love की हैप्पी ending” के माध्यम से हँसी मुक्त होते हुए भरत को फिरसे “हँसी युक्त भरत बनाने का संकल्प लिया है | अब किताब के नाम को ही देखिए, “मतलब आप हिंदी और अंग्रेजी दोनों सीख सकते हैं | वैसे भी लोगों को रुलाने की अपेक्षा हँसाना कठिन काम है | रोने को तो जैसे आदमी तैयार ही बैठा है | क्योंकि किसी की दुख भरी दास्तान सुन कर कौन कब अपना भूला दुख याद कर रो पड़ा, सुनाने वाला भी नहीं जान पाता | पर हँसने के लिए विशुद्ध अपना कारण होना चाहिए, और नया भी | इंसान एक ही दुख पर सौ बार रो सकता है पर हँसने के लिए उसे हर बार नया चाहिए | love की हैप्पी ending -चटपटी हास्य कथाएं देश की सुपरिचित व्यंग्यकारा अर्चना जी अपने मन की बात में लिखती हैं की उन्होंने कोरोना के समय की उदासी को दूर करने के लिए व्यंग्य लिखे जिससे पहले तो वो खुद हँसी और बाद में उनके पाठक भी हँस रहे हैं | और माहौल थोड़ा सकारात्मक हो रहा है | अर्चना जी की हास्य कहानियों की खास बात ये होती है वो अपने आस -पास के चरित्र लेती हैं, और बोली बानी , हाव -भाव से बिल्कुल वैसा उतार देती हैं की पढ़ने वाले को लगे अरे वही पड़ोस वाले मिश्रा जी की बात हो रही है, राधा काकी तो ऐसी ही बोलती हैं, हमारे चाचा के समधी के जीजा तो बिल्कुल ऐसी ही हैं | जब पाठक चरित्र से खुद को जोड़ लेता है तो जो हँसी की कली होंठों पर खिल रही थी वो बत्तीसी फाड़ कर दर्शन देती है | अब गुल्लू मियां को ही लें आज के फास्ट फूड जमाने में बाबा आदम के जमाने का प्रेम पाले हैं, वो भी उससे जो देखने सुनने में भी उनसे कमतर है पर कहा गया है न, “दिल लगा सड़ी से तो परी क्या चीज है |” अपनी भी शादी की उम्र निकल गई और लड़की की निकलवा दी .. क्या क्या तरीके आजमा के | देर से ही सही पर जब किस्मत का सितारा चमका तो जो हड़बड़ी मचाई की “लव की हैप्पी एन्डिंग” भले ही हो गई हो पर सात पुश्ते उनकी ये कहानी याद करेंगी | “हाउस हेल्प बनाम हाउस वाइफ” में कामवाली लगाने की जिद पर अड़े मिस्टर वर्मा को लेने के देने तब पड़ गए जब कामवाली उन पर कुछ ज्यादा ही नजरे इनायत करने लगी | बकौल वर्मा जी, “ क्या मुसीबत रख ली है जिधर जाता हूँ उधर ही घूमती है | इसकी वजह से बाथरूम से ही कपड़े पहन कर आने लगा हूँ | कमबख्त ऐसे घूरती है मानो इज्जत लूट लेगी |” अब जब हाउस हेल्प जब हाउस वाइफ बनने के के सपने पालने लगे तो क्या क्या होता हिय या क्या -क्या हो सकता है .. कुछ इश्क कहीं दर्ज नहीं होते, उन पर कोई फिल्में नहीं बनती,लोग किससे नहीं सुनाते पर वो इश्क, वाकई में इश्क होता है | ऐसा ही एक इश्क होता है एक लड़की का दहेज में मायके से दी गई गोदरेज की अलमारी का.. बाकी आप “हमारी सच्ची मुहब्बत” में जान जाएंगे | वो जमाना गया जब बच्चे बड़ों की नकल करते थे, अब बड़े बच्चों की नकल करते हैं | जैसी की “बाबूजी का हनीमून” में दादाजी करना चाहते हैं | बढ़ते हुए दहेज को देखते हुए मन्नों सही तो कह रही हैं “दरकार है, एक चायनीज दूल्हे की” अब यहाँ के लोग तो दहेज के बिना शादी करने को तैयार नहीं तो क्यों ना सस्ते दूल्हे चाइना से ही लिए जाए | ये अलग बात है की चाइना का माल टिकाऊ नहीं होता पर यहाँ के रिश्ते ही कौन से टिकाऊ हैं | बुआ की बात वाकई गौर करने लायक है क्योंकि हे लड़के वालों चाइना की जनसंख्या भी बहुत है अगर देश की लड़कियाँ “मेड इन चाइना” दूल्हा माँगने लगीं तो आपके बेटे का तो नंबर ही नहीं आएगा | आया है सो जाएगा राजा रंक फकीर कोई वसीयत कर मरे कोई मरे अधीर वैसे यूँ तो कोई मरना नहीं चाहता और ना ही अपनी कमाई का एक पैसा कौड़ी भी किसी को देना चाहता है |पर मरना तो पड़ता ही है और जो कमाया है वो दे कर भी जाना पड़ता है | इसलिए लंबा -नाटा, पतला-मोटा, पैसे वाला और सम्मान वाला हर व्यक्ति मरने से पहले अपनी वसीयत करना चाहता है | अब लेखक क्या वसीयत करेगा | येन -केन प्रकारेण जुटाए गए सम्मान के साथ मिली शॉल और श्रीफल का क्या करेगा ? जिसमें पत्नी की रुचि नहीं, किताबें खुद के बच्चों ने भी नहीं पढ़ीं | ये तो आप पढ़ कर ही जान पायेगे पर साहित्य की दुनिया पर जबरदस्त तंज है | अकेले औरत का सफर हाय रब्बा”हो या रज्जो बुआ या फिर गाँव … Read more

स्टेपल्ड पर्चियाँ -समझौतों की बानगी है ये पर्चियाँ

स्टैपलेड पर्चियाँ

    जीवन अनगिनत समझौतों का नाम है | कुछ दोस्ती के नाम पर, कुछ प्रेम की परीक्षा में खरे उतरने के नाम पर,  कुछ घर गृहस्थी चलाने के नाम पर और कुछ घर गृहस्थी बचाने के नाम पर .. हर पर्ची एक समझौता है और  “स्टेपल्ड पर्चियाँ” उन समझौतों का पूरा दस्तावेज .. जीवन का दस्तावेज हमारा आपका सबका मन कभी ना कभी तो करता है की खोल दें उस पूरे गट्ठर को, खोल दें  पर्चियों वाली इस रवायत को और  जी के देखें जिंदगी जिसमें किसी कपड़ों की अलमारी में साड़ियों की तहों में छिपाई गई स्टेपल्ड पर्चियाँ की कोई जगह ना हो | पर क्या अतीत को बदला जा सकता  है? खासकर उस अतीत को जिसकी पर्चियों को रंग हल्के पड़ गए हैं | कब वो रंग पर्चियों से निकलर हमारे मन को इस कदर रंग देते हैं की हमें पता ही नहीं चलता की इससे इतर हमारा भी कोई रंग है ?इस संग्रह के माध्यम से उन्होंने गंभीर सवाल उठाए हैं |   “स्टेपल्ड पर्चियाँ” भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित प्रगति गुप्ता जी के कहानी संग्रह की ज्यादातर कहनीनियाँ इन्हीं पर्चियों को खोलने की कोशिश है | कुछ में खुली हैं, कुछ  में फाड़कर फेंक दी गई हैं और कुछ पढ़कर वापस वैसे ही रख दी  गई है | सबकी अपनी लड़ाई है, उलझने हैं, फिर सबका अपना -अपना मन है, कन्डीशनिंग भी है | “विधोतमा सम्राट सम्मान”से सम्मानित इस पुस्तक में 11 कहानियाँ हैं जिनमें लेखिका प्रगति गुप्ता जी ने, जो की मरीजों की कॉउनसिलिंग भी करती हैं मन की कई गिरहों को खोलने का प्रयास किया है | स्टेपल्ड पर्चियाँ -समझौतों की बानगी है ये पर्चियाँ   हालांकि अपनी बात में वो लिखती हैं की “सामाजिक सरोकारों से जुड़े विषयों का चयन करते समय मर्यादाओं को भी साधना होता है | यही वजह है की घटित पूर्णतःअन्वेषित नहीं हो पाता | तभी तो एक ही घटना पर विभिन्न दृष्टिकोणों से कई कहानियाँ व उपन्यास रचे जाते हैं |पुन: कुछ ना कुछ छूटता है और नवीन दृष्टि के साथ कुछ नया रचा जाता है |”   कहनियों में लेखिका ने ये खास  बात रखी है की स्त्री पुरुष का भेद भाव  नहीं रखा है | परंतु ज्यादातर समझौते स्त्री के हिस्से आते हैं तो वो कहानियों में परिलक्षित होते हैं, परंतु पुरुष की पीड़ा को कहने से भी उन्होंने गुरेज नहीं किया है |   “घर उसका, रुपया पैसा उसका पर वो अपने माता-पिता को हक से अपने घर नहीं रोक सकता | .. उस रोज अंकित को अपनी बेबसी पर बहुत अफसोस हुआ |” “तमाचा” कहानी आज की बदली हुई स्त्री और बदले हुए पुरुष के मुद्दे को सामने लाती  है | परदेश में अपने माता -पिता से दूर रहने वाला पुरुष भी क्या उतना ही असहाय नहीं है ? यहाँ विमर्श का एक दूसरा कोण  सामने आता है | पुरुष के घर में भी उसके माता-पिता के लिए जगह नहीं है | अच्छी पोस्ट, तनख्वाह,  पर शादी से पहले कैजुअल ड्रिंक कहने वाली लड़की जब पत्नी बन कर पार्टियों में नशे में धुत हो जाए, पति की सार्वजनिक निंदा करे और तमाचा भी मारे तो उसे विमर्श के किसी खांचे में नहीं रखा जा सकता | भले ही उसके पीछे उसका परिवार और पालन -पोषण रहा हो | अवगुण अगर स्त्री पुरुष नहीं देखते तो शोषण भी नहीं देखता |इस बारे में बात होनी चाहिए |  नए समाज के नए यथार्थ का दरवाजा खोलती अच्छी कहानी |     शीर्षक  कहानी “स्टेपल्ड पर्चियाँ” एक तथाकथित सुखी कहे जाने वाले परिवार के मृतप्राय संबंधों की दास्तान  है | जहाँ  पति पत्नी के बीच प्रेम के नाम पर एक चुप्पा समझौता है बच्चों को अच्छी परवरिश देने के लिए | जहाँ कोई बातचीत मन मुटाव सहमति असहमति नहीं होती .. ना ही विवेचना करने के लिए कुछ “की हम कहाँ  गलत थे” जो कुछ  था वो सब बस स्वीकार करना था और भरती जानी थी अलमारी की दराजे  “स्टेपल्ड पर्चियों” से  | लेकिन एक दिन ये पर्चियाँ खुलती हैं | और समझ में आता है की दो लोगों के मध्य मौन भी दो तरह का हो सकता है |एक वो जहाँ दोनों एक दूसरे में मानसिक स्तर पर समाए हों और एक वो जहाँ सन्नाटा हो |   एक परिपक्व उम्र में जब  इंसान अपने बच्चों को दुनिया से, चालाकियों से  आगाह करता है ठीक उसी  वक्त स्वयं का स्नेहापेक्षी मन किसी के शब्दों के फरेब में फँस रहा होता है | “काश” कहानी मानसिक स्तर पर मन के बातों में आ जाने का शोकगीत है |   अभी हाल ही में डॉ. अर्चना शर्मा की आत्महत्या की दुखद घटना सामने आई है | कहानी “गलत कौन” में लेखिका यही मुद्दा उठाती हैं | जिस डॉक्टर को मौका पड़ने पर भगवान का दर्जा दिया जाता है उसके साथ मार -पिटाई करने से भी लोग बाज नहीं आते |   “अदृश्य आवाजों का विसर्जन” कोख  में मारी गई बेटियों की का सामूहिक मार्मिक  रुदन है | “सोलह दिनों का सफर” मृत्यु से पहले के तीन दिन व बाद के तेरह दिन की  आत्मा की वो यात्रा है जिसमें वो अपनों का ही स्वार्थ भरा चेहरा देख स्वयं ही उस घर से मुक्त होना चाहती है | एक तरफ बी प्रैक्टिकल, गुम  होते क्रेडिट कार्ड्स, माँ ! मैं जान गई हूँ, खिलवाड़, आम रिश्तों की उलझती सुलझती कहानियाँ हैं तो दूसरी तरफ “अनुत्तरित प्रश्न “ में एक ऐसे जोड़े का दर्द है जिनके संतान भी है पर पिता समलिंगी है | और एक दिन सारे परदों से बाहर आकर अपनी पहचान घोषित करता है | आखिर क्यों समाज हर व्यक्ति को उसकी तरह से नहीं अपनाता | जिंदगी को दाँव पर लगाने वाले ये अनुत्तरित प्रश्न पति  के भी हैं, पत्नी के भी और उस मासूम बच्ची के भी जो बार -बार जानना चाहती है की उसके पापा कहाँ हैं ?  एक अच्छी कहानी |   अंत में मैं यही कहूँगी की सारी कहानियाँ खोखले होते संबंधों की कहानियाँ हैं जो बाहर से भले ही चमकीले दिखते हों पर अंदर से दरके  हुए हैं | और प्रेम में देह  की भले ही भूमिका हो पर मन से … Read more

पानी का पुल – गहन संवेदनाओं की सहज अभिव्यक्ति

पानी का पुल – गहन संवेदनाओं की सहज अभिव्यक्ति

  समकाल में अपनी कविताओं के माध्यम से पाठकों, समीक्षकों का ध्यान खींचने वाली कवयित्रियों में विशाखा मूलमुले एक महत्वपूर्ण हस्ताक्षर के रूप में उभरी हैं | विशाखा जी की कविताएँ गहन संवेदनाओं की सहज अभिव्यक्ति हैं |विशाखा जी की कविताओं में तीन खासियतें  जो मुझे दिखी | उन को क्रमवार इस तरह से रखना चाहूँगी |   कविताओं  को बौद्धिक  होना चाहिए या भाव सागर में निमग्न इस पर समय -समय पर विमर्श होते रहे हैं | बौद्धिक कविताओं का एक खास पाठक वर्ग होता है पर अक्सर आम पाठक को भाव  छूते हैं | वो कविता भावों की वजह से पढ़ना चाहता है |  मेरे विचार से कविता में बौद्धिकता तभी सहज लगती है जब वो अनुभव जगत की हांडी पर पककर तरल हो जाए | यानि ठोस पानी बन जाए .. सघन विरल हो जाए | लेकिन कई बार  बैदधिक कविताओं से गुजरकर ऐसा लगता है.. कि सघनता शब्दों में ही रह गई वो भाव  जगत को आंदोलित नहीं कर पाई | बोधि प्रकाशन के माध्यम से   विशाखा जी केवल “पानी का पुल” कविता संग्रह ही नहीं लाती बल्कि उनकी कविताएँ भी जीवन दर्शन की बर्फ को पिघला पाठक के हृदय में  पानी की तरह प्रवाहित करती  हैं | वो शब्दों का जादुई वितान नहीं तानती और आम भाषा और शब्दों में बात करती हैं |     वैसे तो मुक्त छंद कविता में कई प्रयोग हो रहे हैं पर विशाखा जी ने अपनी एक अलग शैली विकसित की है | वो छोटे-छोटे संवादों के माध्यम से कविता सहज ढंग से अपनी बात रखती चलती हैं | अगर कहें कि उन्होंने कविता के लिए निर्धारित किये  गए ढांचे को तोड़कर उस जमीन पर  एक नए और  बेहतर शिल्प का निर्माण किया है तो अतिशयोक्ति ना होगी | इस तरह से वो छंद मुक्त कविताओं के शिल्प में आई एकरसता को दूर कर पाठकों को एक नया स्वाद देती हैं |   तीसरी  बात जो उनकी कविताओं में मुझे खास लगी कि वो जीवन के प्रति दृष्टिकोण या जीवन की  को विद्रूपताओं को एक रूपक के माध्यम से पाठक के समक्ष प्रस्तुत करती हैं | वो रूपक  आम जीवन से इतना जुड़ा  होता है की पाठक उसका को ना सिर्फ आत्मसात कर लेता है बल्कि चमत्कृत भी होता है | कभी वो पानी के पुल का बिम्ब लेती हैं तो कभी घास का या घूँघरू का | पाठक बिम्ब के साथ जुडते हुए कविता से जुड़ जाता है |   पानी का पुल – गहन संवेदनाओं की सहज अभिव्यक्ति   इस संग्रह पर बात करने से पहले एक महत्वपूर्ण बात साझा करना चाहूँगी की ये संग्रह बोधि प्रकाशन द्वारा “दीपक अरोड़ा स्मृति पांडुलिपि प्रकाशन योजना के छठे वर्ष” में चयनित व प्रकाशित किया गया है | भूमिका में सुरेन्द्र सुंदरम जी लिखते हैं, “विशाखा मूलमुले की कविताओं में उम्मीद का हरापन है, विरोध की रचनात्मकता है, ठहराव और शनशी के बीच अजीब सी गति है जो उनकी रचनधर्मिता को बड़ा बनाती है |”   शीर्षक कविता “पानी का पुल” एक संवेदनात्मक बिम्ब है | जिस तरह से पुल दो किनारों जो जोड़ता है | खारे, नमकीन आंसुओं की ये भाषा संवेदना और संवाद का एक पुल बनाती है जहाँ से एक का दर्द दूसरे को जोड़ता है | “रक्त संबंधों से नहीं जुड़े हम पानी का पुल है हमारे मध्य और दो अनुरागी साध लेते हैं पानी पर चलने की सबसे सरलतम कला”   कविता “पुनर्नवा” में वो घास की तुलना जिजीविषा से करती हैं |घास तो हर जगह उग जाती है .. मन ? मन तो मुरझा जाता है तो जल्दी खिलता ही नहीं | जब शुरू में वो लिखती हैं की अच्छे दिनों के बीच घास की तरह जड़े जमा लेते  हैं बुरे दिन .. अनचाहे, तो भले ही इन  पंक्तियों में नैराश्य चमके पर अंततः वो निराशा का दामन झटक कर घास को पुनर्नवा की उपमा देती हैं की जो हर विपरीत परिस्थिति में उगती है और मृत्यु के बाद किसी नीड़ के निर्माण में सहायक होती है | क्या एक हारा हुआ  मन घास से प्रेरणा नहीं ले सकता |   “मरकर अमर होती है घास जब चिड़िया करती है उससे नीड़ का निर्माण पुनर्नवा हो जाती तब प्रीत धरती से उठ रचती नव सोपान”     स्त्रियों पर  भले ही  बेवजह रोने के इल्जाम लगें या चिकित्सकीय भाषा में उन्हें मूड स्विंग का शिकार माना जाए पर इसके पीछे के मनोविज्ञान के सूत्र को विपाशा जी “प्रकृति, स्त्री और बारिश”में पकड़ती हैं | वो स्त्री के आंसुओं की बारिशों से तुलना करते हुए कहती हैं की स्त्रियाँ बारिशों को रोकती है .. कपड़े सूख जाए, आचार बर्नी अंदर कर लें या बच्चे  स्कूल से घर आ जाए | उनकी बात मानती हुई बारिशें बरसना मुल्तवी कर देती हैं पर जमा पानी रोकना एक समय के बाद मुश्किल हो जाता है | तब बात मानना बंद कर देती हैं और फिर जो बरसती हैं कि रोके रुकती नहीं | और स्त्री के रुदन  से साम्य मिलाते हुए कहती हैं ..   ठीक इसी तर से रोकती हैं स्त्रियाँ अपने -अपने हिस्से की बारिशें आँखों की कोरों  में अचानक कभी ये बारिशें कारण बिना कारण बीती  किसी बात पर मौसम बेमौसम, बिना किसी पूर्वानुमान के असल, मुद्दल, सूद समेत  बरस पड़ती हैं” कविता घूँघरू में वो घुँघरू को जीवन की विभीषिकाओं से लड़ने के मन हथियार के रूप में देखती हैं .. कोल्हू के बैल  में लगा हो, घोड़ा -गाड़ी के रहट में या फिर गन्ने की पिराई की मशीन में ..  रस से रसहीन हो जाने की यात्रा सुरीली तो नहीं हो सकती पर उस दर्द भरे गीत से विलग कर घूंघरुओं की धुन से मन तो बहलाया जा सकता है | “ताकि भटका रहे मन और चलता रहे जीवन” एक बहुत ही खूबसूरत कथन है “अगर आप अपने बच्चों को कुछ देना चाहते हैं तो उन्हें स्मृतियाँ दीजिए|” और राष्ट्र कवि मैथिलीशरण गुप्त जी जब लिखते है, “यही पशु–प्रवृत्ति है कि आप आप ही चरे” तो शायद उनकी कल्पना में यह महानगरीय काल आया होगा | “मनुष्य मकान और महानगर की व्यथा” कविता  जिसने मेरा  विशेष रूप से ध्यान खींचा, महानगरीय जीवन … Read more

शहर सुंदर है -आम जीवन की समस्याओं को उठाती कहानियाँ

शहर सुंदर है -आम जीवन की समस्याओं को उठाती कहानियाँ

  शब्द संधान प्रकाशन से प्रकाशित आदरणीय रमेश उपाध्याय जी के कहानी संग्रह  “शहर सुंदर है”  के 250 पेज में समाई 19 कहानियों में  आम जीवन में हाशिये पर रहने वाले दलित,  शोषित, वंचित तबके के जीवन की वो गाथाएँ हैं जिन्हें सुनने का अमूमन किसी के पास वक्त नहीं होता है | पर ये कहानियाँ हमारी पूंजीवादी व्यवस्था के मखमली कालीन के उन छिद्रों को  दिखाती हैं जो असमान  विकास का वाहक है | जहाँ अमीर और.. और अमीर और गरीब और गरीब हो हाशिये पर छूटता जाता है | कमजोर नींवों पर खड़ी विकास की अट्टालिकाओं का भविष्य क्या हो सकता है ? पर लेखक हतोत्साहित नहीं है | वह  एक यथार्थवादी लेखक के तौर पर उस  यथार्थ की सीवन खोल कर दिखाते हुए भी  एक सुंदर भविष्य का सपना देखते हैं और  इस सपने को पूरा करने के लिए संघर्ष पर जोर देते हैं | इस संग्रह की कहनियाँ  बहुत ही सरल सहज भाषा में हैं, इसमें शामिल हर कहानी में शिल्पगत प्रयोग हैं, पर वो ऐसे नहीं हैं की दुरूह हो और पाठकों को अति बौद्धिकता के जंगल में  भटका दें बल्कि वो कहानी की सहजता और प्रवाह में वृद्धि करने वाले है |   संग्रह की भूमिका में संज्ञा उपाध्याय जी लिखती हैं कि यथार्थवादी साहित्य का काम होता है, अपने समय और समाज के मुख्य अंतर्विरोधों को सामने लाकर सामाजिक यथार्थ का उद्घाटन करना|”   यथार्थ को उद्घाटित करती इस संग्रह  की कहानियाँ  जैसे “दूसरी आजादी”  में वैचारिक जकड़बंदी से आजादी की, “अग्निसम्भवा” में समाज में स्त्री के ऊपर लगाए गए पहरों की, “शहर सुंदर है” में ऐशियाई खेलों के दौरान चमकती दिल्ली में गंदे गुमनाम इलाकों की तो “राष्ट्रीय राजमार्ग” में पूरे सरकारी तंत्र में फैले भ्रस्टाचार की बात करती हैं | इन सारी बड़ी कहानियों में गंभीर मुद्दों के साथ भले ही पात्रों के नाम हों पर संग्रह की छोटी कहानियाँ उन नामों से भी मुक्त हैं | यहाँ मौसम विभाग का वैज्ञानिक है, नल की लाइन खोलने वाला नलसाज है | मिट्टी खोदने वाला है, बिजली के बल्ब बदलने वाला एक कर्मचारी है | यहाँ वो उन पात्रों के नाम नहीं देते हैं बल्कि मिट्टी खोदने वाला एक आदमी आदि कह कर पूरे वर्ग की पीड़ा संप्रेषित करते हैं | शिल्प के लिहाज से अलहदा ये छोटी परंतु मारक कहानियाँ हैं | जो सीधे -सीधे व्यवस्था पर तंज करती हैं |   शहर सुंदर है -आम जीवन की समस्याओं को उठाती कहानियाँ वैसे तो सभी कहानियाँ सर्वहारा वर्ग को केंद्र में रख कर लिखी गयी है| फिर भी संग्रह  की कहानियों को मैं तीन भागों में बाँट कर देख रही हूँ | मुख्य रूप से स्त्री अधिकारों की बात करती कहनियाँ भ्रस्टाचार का मुद्दा उठाती कहानियाँ वर्ग चेतना को जागृत करती कहानियाँ   सबसे पहले बात करते हैं स्त्री अधिकारों की बात करती  हुई कहानियाँ  दो कहनियाँ प्रमुख हैं “दूसरी आजादी और अग्निसंभवा   संग्रह की पहली ही कहानी “दूसरी आजादी” ही इस मामले में खास है |  यह  कहानी दलित वर्ग की एक ग्रामीण स्त्री मँगो की कहानी है | मँगो खुली जेल में है,  वो भी उसके यहाँ  जिस ठाकुर फूल सिंह ने उसके परिवार के चारों सदस्यों को  पूरी चमार टोले  में आग लगवा कर भस्म किया था | बेगार करती मँगो को दिन भर मेहनत के बदले में रूखा-सूखा खाना मिलता है | जेल इतनी सख्त की उसे अपनी टोले  में जाने की, अपनी बेटी से मिल आने की इजाजत नहीं है | इस कहानी में इमरजेंसी और उसके बाद की स्थिति भी दिखाई गई है | जहाँ इमरजेंसी के दिनों में  उसके टोले के सभी लोगों को कानून का डर दिखा कर चुप करा दिया जाता है, वहीं इमर्जेंसी हटने पर उसकी टोली के किसान फिर जुडने लगते हैँ | किसान  यूनियन उसे  “भारत माता” के नाम से संबोधित करती है | वो उसे आजाद कराना चाहते हैँ | पाठक को लगता है कि गाँव में शारीरिक शोषण से आजादी ही संभवत : दूसरी आजादी होगी, पर कहानी आगे बढ़ती है | उसको उस जेल से आजादी मिलती है पर उसको दूसरी जेल में डाल दिया जाता है | यहाँ भावनात्मक शोषण है | जहाँ  तनख्वाह नहीं मिलती | आप तो हमारे घर का सदस्य हैं कह कर  इज्जत तो दी जाती है, पर कामवाली मानकर काम पूरा करवाया जाता है | दरअसल  वो इज्जत असली इज्जत नहीं है वो इज्जत रुपये ना देने का एक बहाना है | देखा जाए ये भावनात्मक शोषण हर स्त्री का होता है, खासकर माँ के रूप में | माँ को देवी कहा जाता है पर उसका शोषण घर-घर में होता है | यहाँ मँगो मालिक की माँ से अपनी तुलना करती रहती है .. वही काम तो माँ करती थी अब वो करती है | यानि वो माँ की ऐवजी है उसकी नौकरी स्थायी  नहीं है | जब माँ कहती है की मँगो यहाँ है तो अब वो इस रसोई का पानी भी नहीं पी सकती तो मँगो मन में सोचती है, “धौंस किस बात की देती है | बड़ी बामनी बनी फिरती हो | काम करेगी तो दो रोटी डाल देंगे | नहीं तो कहीं भी जा कर मर | यहाँ पानी देने वाला बैठा  ही कौन है| इमोशनल शोषण जो हमारे घरों में होता है उस का एक रूप तब दिखाई देता है, जब विश्वकान्त घर में जितना जेवर था सब निकाल लाते हैं |और मँगो से कहते हैं, “लो सब रख लो, सब तुम्हारा है |” मँगो भी गुलाम बनाए जाने के इस इस ट्रैप में फँसती है | और ये उसे का परिवार है सोच कर  तनख्वाह माँगने के अपने जायज हक का ख्याल छोड़ देती है | लेकिन मालिक पति-पत्नी की बातों से उसे अंदाजा होने लगता है, और वो इसके विरोध में अपनी आवाज उठाती है |   इस कहानी के अंत में मँगो जब कहती है, नाम बदल देने से असलियत थोड़ी ही बदल जाती है बाबूजी |  अपनी अम्मा को तुम मँगो जैसी नौकरानी मानो तो  मानो पर मैं तुम्हारी अम्मा कैसे हो सकती हूँ | मँगो द्वारा अपने श्रम का मूल्य हासिल करना कहानी को एक न्यायोचित सकारात्मक अंत … Read more

जरूरी है प्रेम करते रहना – सरल भाषा  में गहन बात कहती कविताएँ

जरूरी है प्रेम करते रहना

  कविताएँ हो कहानियाँ हों या लेख, समीक्षा  सरल भाषा में गहन बात कह देने वाली महिमा पाठकों को हमेशा पहले से बेहतर,  नया  लिख कर चौंकाती रही हैं | सबकी प्रिय, जीवट, कलम की धनी साहित्यकार पत्रकार महिमा श्री का नया कविता संग्रह “जरूरी है प्रेम करते रहना” अपनी अलहदा कविताओं के माध्यम से बहुत जल्द ही पाठक को अपनी गिरफ्त में ले लेता है | हर कविता आपको रोकती है | एक गहन चिंतन मन में शुरू हो जाता है | क्योंकि हर कविता गहरी संवेदना से निकल कर आरी है और  उनमें एक जीवन दर्शन है |   जब महिमा किताब का शीर्षक “जरूरी है प्रेम करते रहना” रखना चुनती हैं, तब वो चुनती हैं जिजीविषा उन तमाम विपरीत परिस्थितियों के विरुद्ध जो हिम्मत और हौसला तोड़ देती है .. ये प्रेम, जीवन का राग है | बुरे में से अच्छा बचा लेने की ख्वाहिश  भर नहीं है जीवन जीने का सकारात्मक दृष्टिकोण है | तमाम विद्रूपताओं के बीच जीवन के पक्ष में युद्धरत सेनानी का जीवन को देखने का नजरिया कभी सतही नहीं हो सकता, वो गहनता  एक -एक  शब्द में एक -एक कविता में दृष्टिगोचर होती है |   जरूरी है प्रेम करते रहना – सरल भाषा  में गहन बात कहती कविताएँ   अपनी भूमिका में वो लिखती हैं, “पीड़ा से एक रागात्मक संबंध इस कदर हो गया था कि लगता ही ना था  कि इससे आजाद हो पाऊँगी |इस दौरान सीखा की कठिन परिस्थितियों से जीवन में मुँह मोड़ने के बजाय “जरूरी है प्रेम करते रहना” ये भव पाठक को पूरे संग्रह में दिखता है |   कविता संग्रह तीन खंडों में हैं | हर खंड एक खूबसूरत कोट से शुरू होता है |जैसे  पहला खंड काफ्का के कथन “हम मरने के लिए नहीं जीने के लिए अभिशप्त हैं”| दूसरा खंड स. बी. फग्रयुसन के कोट “प्रेम संवेदना से ज्यादा कुछ नहीं पर प्रेम प्रतिबद्धता  से अधिक है|” तीसरा “अकुलाहटें मेरे मन की” कविताओं को विभिन्न नजरिए से पढ़ते हुए महिमा की कविताओं पर अपने विचार रखने के लिए मैंने स्वयं उन्हें कुछ खंडों में रखने की कोशिश की है | जिन पर क्रमवार अपने दृष्टिकोण को साझा करना चाहूँगी | महिमाश्री  की कविताओं में जीवन की साँझ हम मनुष्य हैं, टूटते हैं, जुडते हैं, फिर टूटते हैं और फिर फिर जुडते हैं | कई बार दुख उदासी हावी हो जाती  है पर उनसे जूझ कर निकलना ही जीवन है | जिजीविषा का अर्थ ये नहीं की हर समय सकारात्मक रहना है बल्कि तमाम निराशाओं  का मुकाबला कर सकारात्मकता चुनना है | ऐसे में जीवन की साँझ के दर्शन कई कविताओं में होते है | अगर अंधेरा ना हो तो उजाले का महत्व क्या है ? उजाले की राह जाने से पहले इस अंधकार से  रूबरू होना भी जरूरी है | इन कविताओं में कहीं कहीं T. S. Eliot की गहनता देखने को मिलेगी |मुझे Mollow Men की कुछ पंक्तियाँ याद आ रही हैं … Is it like this In death’s other kingdom Waking alone At the hour when we are Trembling with tenderness Lips that would kiss Form prayers to broken stone. संग्रह की पहली कविता “कर्क रोग से लड़ते हुए” में ही उस गहनता के दर्शन हो जाते हैं | जब हम जीत के करीब होता हैं तो अक्सर नई चुनौतियाँ सामने आ जाती हैं |   वो कहती हैं.. “धारा के विपरीत चलने की ख्वाहिशों ने कुछ अलग करने का हौसला तो दिया पर सोचा ही था अब इस पर साथ चल कर देखते हैं खुद धारा ने रास्ता बदल लिया”   आदमी एक पर ख्वाहिशें अनेक हैं | कब पूरी हुई हैं किसी की सारी तभी तो कविता “ख्वाहिशों के दिए “में वो लिखती हैं .. “ख्वाहिशें हजार वाट की आँखों में जलती हैं जैसे गंगा में जलते हैं असंख्य दिए”   कविता “विकलता एक श्राप है में जब वो लिखती हैं, “टूटे हुए पंख किताबों में ही अच्छे लगते हैं” तब वो शिकस्त झेले हुए इंसान की पीड़ा व्यक्त करती हैं |   महिमाश्री  की कविताओं में आशा का उजाला                           निराशा को परे झटक कर शुरू होता है एक युद्ध, आस-निराश के बीच में वहाँ  से कविताएँ सँजोती हैं जीवन के कतरे जिन्हें गूथ कर तैयार होता है आशा का पुष्प हार …तभी तो हाल नंबर 206 कविता में कहती हैं हॉल नंबर 206 के बेड के सिरहाने जिंदगी सुबह की धूप सी पसरने लगती है आहिस्ता .. आहिस्ता   “मेरी यायावरी” में वो कहती हैं .. “ढूँढना है मुझे फ़ानी हों से पहले स्वेद बूंदों के सूखने का रहस्य जीवन चाहे दो पल का शेष हो, दो बरस काया दो युगों का  मृत्यु अवश्यंभावी है | दिक्कत ये नहीं है जी जीवन कितना शेष है, पीड़ा ये है की जो जीवन हम जी रहे हैं उसमें जीवन कितना था |  “विदा होने स पहले” कविता पढ़ते हुए मुझे बेन जॉनसन की कविता “A lily of a day” याद आ गई | जीवन जीवंतता से भरपूर होना चाहिए | इस कविता  में महिमा  जीवन के अंतिम क्षण तक कुछ सीखने की बात करती हैं | यही जीवन जीने का सही तरीका है .. जीवन वीथिका में शेष बचे वर्ष के झड़ने से पहले सीख लेना है मल्लाहों के गीत अंकित कर लेना है अधर राग पर कुछ नाम जिन्हें पुकार सकूँ विदा होने से पहले मेरी  यायावरी हो या “विदा होने  से पहले” दोनों कविताएँ जीवन के पक्ष में खड़ी कविताएँ हैं |   महिमा की कविताओं में प्रेम महिमा की कविताओं में प्रेम किसी किशोरी का दैहिक आकर्षण नहीं है | वो परमात्मा से आत्मा से एकीकार है | वो केवल स्त्री पुरुष के प्रेम की ही बात नहीं करती अपितु उनके प्रेम राग में बहन भाई और तमाम रिश्ते समाहित हैं | अब “दीदिया के लिए” एक ऐसी कविता है जिसमें बहन के प्रति उमड़ते हुए प्रेम की सहज धारा को महसूस किया जा सकता है | अधिकांशतः छोटी बहनों ने बड़ी बहन के विदा हो जाने पर यह महसूस किया होगा | कविता के सौन्दर्य को बढ़ाते रूपक को देखिए, यहाँ  बेटी को मायके का  वसंत कह कर संबोधित किया है जिसके विदा  होते ही … Read more

मेरे संधिपत्र – सूर्यबाला

पुस्तक समीक्षा -मेरे संधिपत्र

  एक स्त्री के द्वारा कभी ना लिखे गए संधिपत्रों का जब-जब खुलासा होगा तब पता चलेगा के घर -परिवार की खुशहाली बनाए रखने के लिए वो क्या क्या करती है ? सब कुछ अच्छा दिखने की भीतरी परतों में एक स्त्री का क्या -क्या त्याग छिपा हुआ है? क्यों घर संसार उसकी निजी खुशी से ऊपर हो जाता है| और कई बार ये फैसला उसका खुद का लिया होता है | एक ऐसी कहानी जिसमें कोई खलनायक नहीं है| सब कुछ अच्छा है | फिर भी … कदम -कदम पर संधियाँ हैं संधिपत्र है उपन्यास पर चर्चा आप यहाँ सुन सकते हैं –यू ट्यूब लिंक 2019 में एक सुंदर आवरण से सजा  राजकमल द्वारा प्रकाशित वरिष्ठ लेखिका सूर्यबाला जी का पहला उपन्यास “मेरे संधिपत्र” वो उपन्यास है जो स्त्री जीवन के त्याग, समर्पण, सुख-दुख  और दर्द और उपलब्धियों सब को निरपेक्ष भाव  से प्रस्तुत करता है | पात्र को शब्दों में ढालते हुए लेखिका सहज जीवन प्रस्तुत करती जाती हैं | और जीवन के तमाम दवंद आसानी से चित्रित हो जाते हैं | अगर आप अपने आस -पास के आम जीवन की घटनाओं को कहानी में बदल सकते हैं तो आप एक बड़े लेखक है |~चेखव  मेरे संधिपत्र -समझौते हमेशा दुख का कारण नहीं होते मेरे संधिपत्र  उपन्यास  एक आम स्त्री के मल्टीलेयर  जीवन की अंत: परतों को खोलता है | कॉम्प्लेक्स ह्यूमन इमोशन्स के जरिए ये उपन्यास स्त्री मन के दवंद और उसके द्वारा लिए गए फैसलों की बात करता है | ये संधिपत्र एक स्त्री द्वारा लिए गए वो फ़ैसलें हैं जो वो समझौते के रूप में अपने परिवार की खुशहाली के लिए करती है, पर कहीं ना कहीं इससे वो अपने लिए भी  सुंदर दुनिया का सृजन करती है | आज के दौर में जब विद्रोह ही स्त्री कथाकारों की कलम की शरण स्थली बनी हुई है, ऐसे समय में इसका नए दृष्टिकोण से पुन:पाठ आवश्यक हो जाता है |और यह उपन्यास कई प्रश्नों पर फिर से विचार करने का आग्रह करता है … क्या स्त्री का  माय चॉइस हमेशा परिवार के विरोध में है ? अपने घर परिवार के हक में फैसला करती स्त्री को हम सशक्त स्त्री के रूप में क्यों नहीं देखते जब की हम पुरुष से ऐसी ही आशा करते हैं ? क्या इस पार स्व विवेक से लिया गया फैसला स्त्री को सशक्त स्त्री नहीं घोषित करता है ? ये कहानी है एक लड़की शिवा की .. पढ़ाई में तेज, विभिन्न प्रतिभागी परीक्षाओं में तमाम पदक जीतने वाली गरीब लड़की शिवा का कम उम्र में विवाह एक लखपति व्यवसायी से हो जाता है |शिवाय उसकी दूसरी पत्नी और दो नन्ही बछियों की माँ  बन कर घर में प्रवेश करती है | उपन्यास की शुरुआत ही “मम्मी आ गई, मम्मी आ गई” के हर्षित स्वर के साथ स्वागत कति बच्चियों से होती है | सद्ध ब्याहता माँ  के आँखों में मोतियों कीई झालर देखकर बच्ची पानी ला कर मुँह धुलाने की कोशिश करती है | यहीं से सौतेली माँ और बच्चों का एक नया रिश्ता शुरू होता है | एक बेहद खूबसूरत रिश्ता, जहँ सौतेला शब्द ना दिल में है ना जेहन में | सौतेली माँ की तथाकथित खल छवि को तोड़ता है यह उपन्यास | उपन्यास तीन भागों में बांटा गया है | पहले दो भागों में दोनों बच्चियों के अपने अपने दृष्टिकोण से माँ और जीवन को देखती हैं | मेरी क्षणिकाएँ ऋचा उपन्यास के पहले भगा में बड़ी बेटी ऋचा का माँ के माध्यम से जीवन को समझने का प्रयास है | वो अपनी माँ के गरिमामाई व्यक्तित्व से प्रभावित है |  वो माँ के जीवन को उनकी खुशियों, उनके दर्द को उसी तर्ज पर समझती है | धीरे धीरे वो उन्हीं में ढलती जाती है |समय -समय पर वो माँ की ढाल बनती है पर मौन मूक स्वीकार भव के साथ | रिंकी मेरा विद्रोह इस भाग में छोटी बेटी रिंकी का माँ के साथ जीवन को समझने का दृष्टिकोण है | रिंकी विद्रोही स्वभाव की है | वो माँ की ढाल नहीं बनती अपनी वो विद्रोह कर माँ के लिए सारी खुशियाँ जीतना चाहती है | मेरे संधिपत्र ये हिस्सा शिवा के दृष्टिकोण का है | इसमें वो तमाम संधिपत्र.. वो समझौते हैं जो वो अपने जीवन को खुशहाल बनाने के लिए करती है | वो बेमेल विवाह जहाँ मेंटल मैच नहीं मिलता उसे स्वीकारती है साथ ही ये भी स्वीकारती है कि  उसका पति  जीवन पर्यंत उसे बहुत प्रेम करता रहा | भले ही उसका प्यार उस तरह से नहीं ठा जिस तरह से वो कहती थी पर उसने प्यार किया है | हर सफलता पर वो उसे जेवरों से लादता है |उसके लिए रबड़ी के कुल्ले लाता है | गरीब मायके जाने पर कोई रोक टोंक नहीं यही | वो स्वीकारती है कि सौतेली माँ होने का उस पर दवाब है कि वो अपनी बच्ची से दूर रहे पर साथ ही ये भी कि दोनों बच्चियों ने उसे निश्चल प्रेम और विश्वास की अथाह संपत्ति दी है | जिसने उसके जीवन को खुशियों से भर दिया है | सास उस अपेक्षाकृत छोटे घर की बेटी को बड़े राइस खानदान की बहु के साँचे में ढालती हैं | पर उन्हें समझ है की इसे यह सब करने में समय लगेगा | इस उपन्यास की शुरुआत में लेखिका लिखती हैं .. मेरे संधिपत्र बनाम शिवाय के संधिपत्र उसकी जिंदगी के नाम … जिंदगी है भी यही संधियों का अटूट सिलसिला, निरंतर प्रवाहित, जीवन की इस निसर्ग, निर्बाध धारा में एक चीज बस शिवाय की अपनी थी -इस धारा की गहराई | जीवन भर डूब -डूब कर वह अपने को थहाती रही, यही उसकी नियति थी |छप्पर फाड़ कर मिले सुख- सौभाग्य, ऐश्वर्य-मातृत्व सबकी दुकान लगाए बैठी रही |सब अपने -अपने बाँट लेकर आए और जो जिसने चाहा, तौलती बांटती चली गई |और अंत में दुकान बंद करने का समय आने तक उसके पास बचे रहे जिंदगी के नाम लिखे कुछ संधिपत्र, बस पाठक भी इसे अपने -अपने बाँट के हिसाब से पढ़ सकता है | क्योंकि इस कहानी की खूबसूरती ही जीवन के बाह्य और अंतर्मन के बहुपरतीय  आयाम को खोलना है | इंसान  के फैसले … Read more

बिन ड्योढ़ी का घर -स्त्री संघर्ष और स्वाभिमान की गाथा

बिन ड्योढ़ी का घर -स्त्री संघर्ष और स्वाभिमान की गाथा

इतनी किताबों पर लिखने के बाद अगर किसी उपन्यास को पढ़ने के बाद भी ये लगे की मैं जो इस पर कहना चाह रही हूँ, उसके लिए शब्द साथ छोड़ रहे हैं तो मेरे विचार से इससे बढ़कर किसी उपन्यास के सशक्त होने का क्या प्रमाण हो सकता है | ऐसा ही उपन्यास है ऊर्मिला शुक्ल जी का बिन ड्योढ़ी का घर | एक उपन्यासकार अपने आस -पास के जीवन के पृष्ठों को खोलने में कितनी मेहनत कर सकता है, छोटी से छोटी चीज को कितनी गहराई से देख सकता है और विभिन्न प्रांतों के त्योहारों, रहन सहन, भाषा, वेशभूषा की बारीक से बारीक जानकारी और वर्णन इस तरह से दे सकता है कि कथा सूत्र बिल्कुल टूटे नहीं और कथा रस निर्बाध गति से बहता रहे तो उसकी लेखनी को नमन तो बनता ही है | जल्दबाजी में लिखी गई कहानियों से ऐसी कहानियाँ किस तरह से अलग होती हैं, इस उपन्यास को एक पाठक के रूप में यह जानने के लिए भी पढ़ा जा सकता है | जिसमें लेखक का काम उसका त्याग और मेहनत दिखती है | बिन ड्योढ़ी का घर -स्त्री संघर्ष और स्वाभिमान की गाथा चार राज्यों, एक पड़ोसी देश की भाषाओं, रहन -सहन और जीवन को समेटे यह उपन्यास मुख्य तौर से स्त्री संघर्ष और उसके स्वाभिमान की गाथा है | ये गाथा है स्त्री जीवन के अनगिनत दर्दों की, ड्योढ़ी से बिन ड्योढ़ी के घर की तलाश की, सीता से द्रौपदी तक की, अतीत के दर्द से जूझते हुए स्त्री संघर्ष और उसके अंदर पनपते स्वाभिमान के वृक्ष की | अंत में जब तीन पीढ़ियाँ एक साथ करवट लेती है तो जैसे स्वाभिमान से भरे युग हुंकार करती हैं | पर अभी भी ये यात्रा सरल नहीं है | इतिहास गवाह है लक्ष्मण रेखा का | वो लक्ष्मण रेखा जो सीता की सुरक्षा के लिए भले ही खींची गई थी | पर उसको पार करना सीता का दोष नहीं कोमल स्त्रियोचित स्वभाव था | जिसका दंड रावण ने तो दिया ही .. पितृसत्ता ने भी दिया | उनके लिए घर की ड्योढ़ी हमेशा के लिए बंद हो गई और बंद हो गई हर स्त्री के लिए ड्योढ़ी के उस पार की यात्रा | घर की ड्योढ़ी के अंदर धीरे -धीरे पितृसत्ता द्वारा बनाई गईं ये छोटी -छोटी ड्योढ़ियाँ उसके अधिकार छीनती गई | खुली हवा का अधिकार, शिक्षा का अधिकार, जीवनसाथी चुनने का अधिकार और घर के अंदर किसी बात विरोध का अधिकार | “लड़की तो तभी अच्छी लगती है, जब तक उसके कदम ड्योढ़ी के भीतर ही रहते हैं | उसके कदमों ने ड्योढ़ी लांघी नहीं की ….और हमारी लड़की ने तो ड्योढ़ी लांघी ही नहीं उसे रौंद भी दिया | हमारी मान  मर्यादा का तनिक भी ख्याल नहीं किया उसने | ना, अब वो हमारी ड्योढ़ी के भीतर नहीं आएगी, कभी नहीं |” ये कहानी है कात्यानी और उसकी मां राम दुलारी की | सीता सी राम दुलारी के लिए पति का आदेश ही ईश्वरीय फरमान है | उन्होंने कभी विरोध नहीं किया, तब भी नहीं जब बेटी के जन्म के बाद पिता उसकी उपेक्षा करते रहे, अनदेखा करते रहे, तब भी नहीं जब दूसरे प्रांत में ले जाकर किसी से हिलने मिलने पर रोक लगा दी, जब पितृसत्ता की कमान उन्हें सौंपते हुए बेटी का स्वाभाविक बचपन छीना, बेटी की पढ़ाई छुड़ाकर जिन भाइयों से दुश्मनी थी बिना जाँचे परखे उन्हीं के बताये लड़के से विवाह कर दिया और सबसे बढ़कर तब भी नहीं जब ससुराल से लुटी -पिटी आई कात्यायनी के लिए दरवाजा भी नहीं खोला | जो पुरुष स्त्री को बाहरी दुनिया में यह कहने से रोकते हैं, “तुम कोमल हो बाहर ना निकलो, क्योंकि बाहरी दुनिया कठोर है” विडंबना है कि वो ही उस स्त्री को अपनों के लिए कठोरता चाहते हैं | अपने दूध और रक्त संबंधों के लिए भी | प्रेम और सुरक्षा की चादर के नीचे ढंका ये वर्चस्व या अधिकार भाव बिना आहट किए ऐसे आता है की स्त्री भी उसके कदमों की थाप सुन नहीं पाती और पितृ सत्ता का हथियार बन जाती है | ‘पुरुष में जब मातृत्व भर उठता है तो उसके व्यक्तित्व में निखार आ जाता है और स्त्री में जब पितृत्व उभरने लगता है तो उसका जीवन धूमिल हो जाता है | उसकी विशेषताएँ खो जाती हैं और वो चट्टान की तरह कठोर हो जाती है |” उपन्यास में गाँव, कस्बों के स्त्री जीवन के उस हाहाकार का तीव्र स्वर है| जिसे शहर में बैठकर हम जान नहीं पाते | ऐसी ही है गडही माई की कथा, जिसमें गाँव के जमींदार जब गाँव की बेटियों बहुओं को उठा कर ले जाते तो घरवाले ही उन्हें गडही के जल में डूबा देते और प्रचलित कर देते की गाँव की बहु बेटियों पर माई का प्रकोप है | इसलिए जल्दी ही उनकी शादी कर दो और शादी के बाद दोबारा मायके नहीं आना है क्योंकि इसमें भी माई का श्राप है | एक बार की विदा हमेशा की विदा बन जाती | आपस में छोटी -छोटी बातों पर लड़ते पुरुष इस मामले में चुप्पी साध कर ऐका दिखाते | “जवान बेटियाँ और बहनें और कभी -कभी तो उनकी मेहरारू भी उठवा लि जातीं और वे विवश से देखते रहते |फिर उनके वापस आने पर लोक लाज के डर से उन्हें गढ़ही में डूबा आते , फिर कहते गढ़ही में कोई है जो उन्हें लील लेता है |फिर धर्म का चोला पहना दिया गया और वो गढ़ही से गढ़ही माई बन गईं |” “गढ़ही माई | इस जवाँर की वो अभिशाप थीं जिन्होंने लड़कियों को शाप ही बना डाला था |” और  दहेज के दानव के कारण डूबी कजरी और नंदिनी हैं तो कहीं खेतों में काम करने वालों की स्त्रियों पर गाँव के भया लोगों का अत्याचार, जो उन्हें अनचाही संतान को जन्म देने को विवश करता है, जिसे  वो अपना प्रारबद्ध माँ स्वीकार कर लेती हैं |तो कहीं गंगा भौजी का किस्सा है | अपने चरित्र को निर्दोष साबित करने वाले जिसके चरित्र पर लांछन लगाये जाते रहे | गाँव बाहर कर के भी उसकी बारे में बेफजूल की कथाएँ बनती रहीं पर उसने उन्हीं के बीच में … Read more

“वो फ़ोन कॉल” एक पाठकीय टिप्पणी

“वो फ़ोन कॉल” एक पाठकीय टिप्पणी

  कुछ घटनाएँ हमारे जीवन में इस प्रकार घटती हैं कि हमें यह लगने लगता है कि बस ये घटना ना घटी होती तो क्या होता? हमें “संसार” सरल दिखता ज़रूर है लेकिन होता बिल्कुल नहीं; इसलिए अकस्मात जहाँ आकर हमारी सोच थिर जाती है, उसके आगे से संसार अपना रूप दिखाना शुरू करता है। और जब हमें ये लगने लगता है कि बस हमने तो सब कुछ सीख लिया, सब कठिनाइयों को जीत लिया है; बस आपके उसी आह्लादित क्षणों में ना जाने कहाँ से एक नन्हा सा “हार” का अंकुर आपके ह्रदय में ऐसे फूट पड़ता है कि उसे दरख़्त बनते देर नहीं लगती। सपनों के राजमार्ग पर चलते-चलते एक छोटी सी कंकड़ी से हम उलझकर धड़ाम से गिरते हैं कि धूल चाट जाते हैं। जितना ये सत्य है उतना ही ये भी सही है कि हम कठिनाइयों के गहरे अवसाद में जब नाक तक डूबे होते हैं और निरंतर किनारे को अपने से दूर सरकते हुए देख रहे होते हैं; हमें बिल्कुल ये लगने लगता है कि अबके साँस गई तो फिर लौट कर नहीं आएगी बस उन्हीं गमगीन भीगे-से क्षणों में रहस्यमयी अंधकार भरे दलदल के ऊपर रेंगता हुआ एक सीलन का कीड़ा हमारा मार्गदर्शन कर जाता है। रेंग-रेंग कर वह हमें ऐसी युक्ति दे जाता है कि लगता है कि जो किनारा पूरी तरह से ओझल हो चुका था वह ख़ुद-ब-ख़ुद हमारे पास कैसे सरक आया। वो फोन कॉल -कहानी की कुछ पंक्तियाँ “वो फ़ोन कॉल” एक पाठकीय टिप्पणी दरअसल में बात कह रही हूँ अभी हाल ही में भावना प्रकाशन से प्रकाशित वंदना बाजपेई जी का नया कहानी संग्रह “वो फोन कॉल” की। इसकी कहानियाँ भी कुछ इसी प्रकार का मनोभाव लिए पाठक को अपने साथ लिए चलती हैं। संग्रह में १३ कहानियाँ हैं। कहानियों का मूलभाव वंचित वर्ग का दुःख, आक्रोश, विकास की लिप्सा, झूठे आडंबर, रूढ़िवादिता में जकड़ा मध्यम वर्ग ही है। सबसे पहले तो वन्दना जी की तारीफ़ इस बात की जानी चाहिए कि उन्होंने कहानी संख्या के लिए उस अंक को चुना है जिसको साधारण लोगों को अक्सर बचते-बचाते देखा जाता है। यानी कि आपके इस पुस्तक में “13” कहानियाँ संग्रहित की हैं। एक मिथक को तो लेखिका ने ऐसे ही धराशाही कर दिया। अब बात करती हूँ आपकी कहानियों की तो सबसे पहले मेरा लिखा सिर्फ एक पाठक मन की समझ से उत्पन्न बोध ही समझा जाए। खैर, वंदना जी की कहानियों की भाषा सरल और हृदय के लिए सुपाच्य भी है। किसी बात को कहने के लिए वे प्रतीकों का जाल नहीं बुनती हैं। और न ही कहानियों का लम्बा-चौड़ा आमुख रचती हैं । वे प्रथम पंक्ति से ही कहानी को कहने लगती हैं इससे आज के भागमभाग जमाने के पाठक को भी आसानी होगी। स्त्री होने के नाते वन्दना जी की कहानियों के तेवर स्त्रियों की व्यथा-कथा को नरम-गरम होते चलते हैं। निम्न मध्यम वर्ग की उठापटक को भी उन्होंने बेहतरी से पकड़ा है। शीर्षक कहानी “वो फ़ोन कॉल” की यदि मैं बात करूँ तो ये कहानी बच्चों और उनके अभिभावक,समाज और रिश्तेदारों की मानसिक जद्दोजहद की कहानी कही जा सकती है। जिसमें किरदार तो सिर्फ दो लड़कियाँ ही हैं किंतु वे जो अपनी भावनाओं का आदान-प्रदान करती हैं, उसको पढ़ते हुए मन भीग-भीग गया। वहीं ये कहानी पाठक के लिए एक युक्ति भी सहेजे दिखती है। जो इस कहानी को पढ़ चुके हैं वे समझ गए होंगे। और जिनको समझना है वे ज़रूर पढें। लेखिका ने कहानी को अपनी गति से बढ़ने दिया है। पढ़ते हुए जितनी पीड़ा होती है उतना ही संतोष कि स्त्री जीवित रहने के लिए आसरा खोजना सीख रही है। “तारीफ़” कहानी में कैसे स्त्री अपनी तारीफ़ सुनने को लालयित रहती है कि कोई उसका अपना ही उसके बुढ़ापे को ठग लेता है। वहीं “साढ़े दस हज़ार….!” के लिए जो क़िरदार लेखिका ने चुने हैं उसमें नौकरी पेशा और गृहणी के बीच की मानसिक रस्साकसी खूब द्रवित करती है। “सेवइयों की मिठास” के माध्यम से लेखिका ने धर्मांधता को शांत भाव से उजागर किया है। किसी के धर्म, पहनावे ओढ़ावे को देखकर हम ‘जजमेंटल’ होने लगते हैं। उस बात को आपने सफ़ाई और कोमलता से कही है कि पढ़ते हुए आंखों की कोरें गीली हो जाती हैं। “आखिर कब तक घूरोगे” कहानी पढ़ते हुए तो लगा कि एक सामान्य-सी ऑफिस के परिवेश की बात लिए होगी कहानी लेकिन नायिका के द्वारा बॉस को जो सबक मिलता है,वह कमाल का है। ये लेखिका की वैज्ञानिक सोच का नतीज़ा ही कहलाएगा। “प्रिय बेटे सौरभ” कहानी एक ऐसी स्त्री की कहानी है जो ममता में कैसे अपने को गलाती रहती है और बेटा अपने को विकसित करता रहता है; और बहुत बाद में जब माँ तस्वीर में बदल जाती हैं, बस दो बूँद आँसू छलका कर सॉरी बोलता है कि तस्वीर वाली माँ भी कह उठती है कोई बात नहीं। “अम्मा की अंगूठी” कहानी ने बहुत गुदगुदाया, बचपन के किस्से याद दिलाए। इस रचना को हम यादों की गुल्लक भी कह सकते हैं। पहले पति कैसे पत्नि को सबक सिखाता था की बच्चों की हँसी ठट्ठा के साथ मौज हो जाती थी। माँ-बाप के उलझाव में बच्चों के संवाद और उसपर वंदना जी की भाषा, पढ़ते हुए खूब आनंद आया। “जिन्दगी की ई एम आई” कहानी को वन्दना जी ही लिख सकती थीं। इस कहानी का विषय हमारी नवा पीढ़ी का दुःख-दर्द समेटे है।आज के परिवेश में न जाने कितने देवांश इतने अकेले होंगे कि किसी गलत संगत के शिकार हो जाते होंगे। कथा पढ़ते हुए एक थ्रिल का अहसास होता है लेकिन अंत पाठक को सांत्वना देने में सक्षम है। “बद्दुआ” बद्दुआ में कैसे अपनों का दंश लिए हुए एक बच्चा अपने जीवन के उतार-चढ़ाव झेलता हुआ चलता है………।लेकिन अंत इसका भी सुखद है। ”प्रेम की नई बैरायटी” कहानी भी पूरे मनोभाव के साथ पाठक को अपने साथ-साथ लिए चलती हैं। संध्या,उसकी माँ,पति और स्कूल के छात्रों में पनपते गर्ल फ्रैंडस-बॉयफ्रेंड्स के नये चाल-चलन और नये जमाने के प्रेम पर खूब दिलचस्प बात कहते हुए ये कहानी भी पाठक को एक सुखद जतन सिखा जाती है। “वजन” कहानी पढ़ते हुए कितनी मन में कितनी कौंध,डर, आक्रोश और इस दर्द से जूझते कितने चेहरे … Read more

उषाकिरण खान जी का उपन्यास वातभक्षा – स्त्री की शक्ति बन खड़ी हो रही स्त्री

उषाकिरण खान जी का उपन्यास वातभक्षा - स्त्री की शक्ति बन खड़ी हो रही स्त्री

पति द्वारा श्रापित अहिल्या वातभक्षा बन राम की प्रतीक्षा करती रहीं | और अंततः राम ने आकर उनका उद्धार किया | ना जाने इस विषय पर कितनी कहानियाँ पढ़ी, कितनी फिल्में देखीं जहाँ बिम्ब के रूप में ही सही तथाकथित वातभक्षा अहिल्या के उद्धार के लिए राम सा नायक आ कर खड़ा है | पर पद्मश्री उषाकिरण खान जी के नए उपन्यास “वातभक्षा” वीथिका को किसी राम की प्रतीक्षा नहीं है, उसके साथ स्त्रियाँ खड़ी हैं | चाहे वो निधि हो, यूथिका हो, रम्या इंदु हो या शम्पा | यहाँ स्त्री शिक्षित है, आत्मनिर्भर है, कला को समर्पित है, परिवार का भार उठाती है पर समाज का ताना -बाना अभी भी स्त्री के पक्ष में नहीं है | तो उसके विरुद्ध कोई नारे बाजी नहीं है, एक सहज भाव है एक दूसरे का साथ देने का | एक सुंदर सहज पर मार्मिक कहानी में “स्त्री ही स्त्री की शक्ति का” का संदेश गूँथा हुआ है | जिसके ऊपर कोई व्याख्यान नहीं, कहीं उपदेशात्मक नहीं है पर ये संदेश कहानी की मूल कथा में उसकी आत्मा बन समाया हुआ है | वातभक्षा -राम की प्रतीक्षा की जगह स्त्री की शक्ति बन खड़ी हो रही स्त्री पद्मश्री -उषाकिरण खान ये कहानी हम को उस दौर में ले जाती है जब आजादी मिले हुए 16, 17 वर्ष ही बीते थे | पर लड़कियाँ अपनी शिक्षा के लिए, आर्थिक स्वतंत्रता के लिए, और अधिकारों के लिए सचेत होने लगीं थी | समाज शास्त्र एक नए विषय के रूप में आया था जिसमें अपना भविष्य देखा था वीथिका और उसकी सहेली निधि ने | पिता जमीन जायदाद, भाई का ना होना या भाई को खो देना, दुख दोनों के जीवन की कथा रही पर चट्टान की तरह एक दूसरे के साथ वो खड़ी रहीं | यूँ तो दुख के बादल सभी के जीवन में आए किन्तु निधि और यूथिका को तो अंततः किनारा मिल गया पर वीथिका के जीवन में दुख ठहर गया | जैसा की शम्पा एक जगह कहती है .. ‘हम स्त्रियों की जिंदगी बोनसाई ही तो है | हम कितने भी स्वतंत्र क्यों ना हों हमारी जड़े काट दे जाती हैं, हमारे डाल छाँट दिए जाते हैं, हमारे फूल निष्फल हो जाते हैं |” कहानी में एक तरफ जहाँ जंगल है, हवा है, प्रकृति है, अरब देश में तेल का अकूत भंडार पता चलने के बाद वहाँ बसी नई बस्तियां हैं तो वहीं समाज शास्त्र विषय होने के कारण जनजातियों के विषय में जानकारी है, सेमीनार हैं, आलेख तैयार करने के तरीके, हॉस्टल है स्त्री- स्त्री के रिश्तों की तरफ बढ़ी स्त्री की भी झलक है | मुख्य कहानी है प्रो. शिवरंजन प्रसाद उनकी पत्नी रम्या इंदु और वीथिका की | रम्या इंदु एक प्रसिद्ध गायिका है , पर वो सुंदर नहीं हैं | प्रोफेसर साहब सुदर्शन व्यक्तित्व के मालिक हैं | पर उनका प्रेम विवाह है | शुरू में बेमेल से लगती इस जोड़ी के सारे तीर और तरकश प्रोफेसर के हाथ में हैं | उनकी शोध छात्रा के रूप में निबंधित वीथिका उनके सुदर्शन व्यक्तित्व के आकर्षण से अपने को मुक्त रखती पर एक समय ऐसा आता है जब .. “यह मन ही मन विचार कर रही थी कि उनका स्पर्श उसे अवांछित क्यों नहीं लग रहा है |ऐसा क्यों लग रहा है मानो यही व्यक्ति इसके कामी हैं ? उपन्यास की सबसे खास बात है रम्या इंदु की सोच और उनका व्यवहार | अपने पति का स्वभाव जानते हुए वो दोष वीथिका को नहीं देती | “मेरा पति छीन लिया” का ड्रमैटिक वाक्य नहीं बोलती वरण उसका साथ देते हुए कहती हैं … “वीथिका मैं तुम्हें इतना बेवकूफ नहीं समझती थी | तुम इन पुरुषों के मुललमें में पड़ जाओगी मुझे जरा भी गुमान नहीं था | वरना मैं तुम्हें समझा देती | मैं इनके फिसलन भरे आचरण को खूब जानती हूँ |” वीथिका, एक अनब्याही माँ, की पीड़ा से पाठक गहरे जुड़ता जाता है जो वायु की तरह अपने बेटे के आस -पास तो रहती है पर मौसी बन कर | समाज का तान बाना उसकी स्वीकारोक्ति में रुकावट है पर जीवन भर प्यासी रहने का चयन उसका है | उसके पास कई मौके आते है अपने जीवन को फिर से नए सिरे से सजाने सँवारने के पर उसके जीवन का केंद्र बिन्दु उसका पुत्र है .. जिसके होते हुए भी वो अकेली है | “जिंदगी बार -बार अकेला करती है, फिर जीवन की ओ लौटा लाती है |” इस कहानी के समानांतर निधि और श्यामल की कथा है | जाति -पाती के बंधनों को तोड़ एक ब्राह्मण कन्या और हरिजन युवक का विवाह और सुखद दाम्पत्य है | बदलते समाज की आहट की है, जी सुखद लगती है | अंत में मैं यही कहूँगी की आदरणीय उषा किरण खान दी की लेखनी अपने प्रवाह किस्सागोई और विषय में गहनता के कारण पाठकों को बांध लेती है | कहानी के साथ बहते हुए ये छोटा और कसा हुआ उपन्यास स्त्री के स्त्री के लिए खड़े होने को प्रेरित करता है | वातभक्षा -उपन्यास लेखिका – पद्मश्री उषा किरण खान प्रकाशक – रूदरादित्य प्रकाशन पेज -94 मूल्य – 195 अमेजॉन लिंक –https://www.amazon.in/…/Ush…/dp/B09JX1K8LK/ref=sr_1_6… समीक्षा -वंदना बाजपेयी यह भी पढ़ें ……. जीते जी इलाहाबाद —-ममता कालिया जी के संस्मरणों के साथ अनोखी यात्रा अंतर्ध्वनि-हमारे समकाल को दर्शाती सुंदर सरस कुंडलियाँ देह धरे को दंड -वर्जित संबंधों की कहानियाँ वो फोन कॉल-मानवीय संबंधों के ताने-बाने बुनती कहानियाँ आपको समीक्षात्मक लेख “उषाकिरण खान जी का उपन्यास वातभक्षा – स्त्री की शक्ति बन खड़ी हो रही स्त्री” कैसा लगा ? हमें अपने विचारों से अवश्य परिचित करवाए | अगर आप को अटूट बंधन की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया साइट सबस्क्राइब करें व अटूट बंधन फेसबुक पेज लाइक करें |