हम अपने बच्चों के दोषी हैं

बच्चे

  बच्चों को दुनिया में तभी लाएँ जब आप शारीरिक -मानसिक रूप से 21 साल का प्रोजेक्ट लेने के लिए तैयार हों — सद्गुरु बच्चे दुनिया की सबसे खूबसूरत सौगात हैं | एक माता -पिता के तौर पर हम बच्चों को दुनिया में लाते हैं तो एक वादा भी होता है उसे जीवन की सारी खुशियाँ देंगे | शायद अपने हिसाब से अपने बच्चों के लिए हम ये करते भी हैं पर कभी उँगलियाँ अपनी ओर भी उठ जातीं हैं |शायद कभी कभी ये जरूरी भी होता है |   हम अपने बच्चों के दोषी हैं हम अपने बच्चों के दोषी हैं, हम लाते हैं उन्हें दुनिया में , उनकी इच्छा के विरुद्ध क्योंकि  हमें चाहिए उत्तराधिकारी, अपने पैसों का, अपने नाम और उपनाम का भी, हम नहीं तो कम से कम सुरक्षित रह जाए हमारा जेनिटिक कॉन्फ़िगयुरेशन और शायद हम बचना चाहते हैं अपने ऊपर लगे बांझ या नामर्दी के तानों से, और उनके दुनिया में आते ही जताने लगते हैं उन पर अधिकार, गुड़िया रानी के झबले से, खाने में रोटी या डबलरोटी से, उनके गाल नोचे जाने और हवा में उलार देने तक उनकी मर्जी के बिना हम अपने पास रखते हैं दुलार का अधिकार , हम ही तो दौड़ाते हैं उन्हें जिंदगी की रैट रेस में, दौड़ों,भागों पा लो वो सब कुछ, कहीं हमारी नाक ना कट जाए पड़ोस की नीना , बिट्टू की मम्मी,ऑफिस के सहकर्मियों के आगे, उनकी मर्जी के बिना झटके से उठा देते हैं उन्हें तकिया खींचकर क्योंकि हम उनसे ज्यादा जानते हैं इसीलिए तो खुद ही चुनना चाहते हैं उनके सपने, उनका धर्म  और उनका जीवन साथी भी उनका विरोध संस्कारहीनता है क्योंकि जिस जीव को हम अपनी इच्छा से दुनिया में लाए थे उसे खिला-पिला कर अहसान किया है हमने उन्हें समझना ही होगा हमारे त्यागों के पर्वत को तभी तो जिस नौकरी के लिए दौड़ा दिया था हमने, किसी विशेषाधिकार के तहत जीवन की संध्या वेला में कोसते हैं उसे ही … अब क्यों सुनेंगे हमारी, उन्हें तो बस नौकरी प्यारी है .. अपना,नाम अपना पैसा क्योंकि अब हमारी जरूरतें बदल गईं है अब हमें पड़ोस की नीना और बिट्टू की मम्मी नहीं दिखतीं अब दिखती है शर्मा जी की बहु,चुपचाप दिन भर सबकी सेवा करती है राधेश्याम जी का लड़का,नकारा रहा पर अब देखो , कैसे अस्पताल लिए दौड़ता है.. और ये हमारे  बच्चे ,संस्कारहीन, कुलक्षण बैठे हैं देश -परदेश में हमारा बुढ़ापा खराब किया लगा देते हैं वही टैग जो कभी न कभी हमें लगाना ही है जीवन के उस पन में जब सब कुछ हमारे हिसाब से ना हो रहा हो सच, पीढ़ी दर पीढ़ी हम बच्चों को दुनिया में लाते हैं उनके लिए नहीं अपने लिए अपने क्रोमज़ोम के संरक्षण के लिए,अपने अधूरे रह गए सपनों के लिए , अपने बुढ़ापे के लिए कहीं न कहीं हम सब अपने बच्चों के दोषी हैं | वंदना बाजपेयी यह भी पढ़ें .. प्रियंका–साँप पकड़ लेती है ऐ, सुनो ! मैं तुम्हारी तरह अजनबी मर्द के आँसू आपको कविता “हम अपने बच्चों के दोषी हैं “कैसी लगी |हमें अपने विचारों से जरूर अवगत कराए |अगर आप को अटूट बंधन की रचनाएँ पसंद आती हैं तो वेसआइट सबस्क्राइब करें | अटूट बंधन फेसबुक पेज लाइक करें |

सैंटा तक ये  सन्देशा

सैंटा तक ये संदेशा

मान्यता है कि क्रिसमस पर सैंटा अपनी छोटी सी स्लेज में बैठ कर रात भर बच्चों को उनके मर्जी के उपहार बाँटते हैं | आज भी बच्चे रात भर जाग कर सैंटा का इंतजार करते हैं | ऐसी ही बचपन की किसी क्रिसमस में डूबता उतराता मन .. सैंटा तक ये  सन्देशा सैंटा तक ये  सन्देशा कोई जल्दी से पहुंचाना घर-आँगन  फिर से  बचपन वाली  क्रिसमस लाना तकिये  के नीचे रखें फिर से मन्नत भरी  जुराबें खिड़की पर रात भर टकटकी बांधे रहे निगाहें आएगा कोई सुध लेने, भरोसा  फिर से जगाना सैंटा तक ये  सन्देशा..  बिस्किट ,चॉकोलेट टॉफी से कैसे खिल जाता है मन हर अनजान अपरिचित से  कैसे हो जाता अपनापन सर्द  हवा  भी  डिगा  ना पातीं, नन्ही आशा के तारे सबकी अर्जी पूरी करने कोई फिरता द्वारे -द्वारे बड़े  दिन की शुरुआत  बड़े दिल से होती समझाना सैंटा तक ये  सन्देशा..  वंदना बाजपेयी यह भी पढ़ें …. क्रिसमस पर 15 सर्वश्रेष्ठ विचार सांता का गिफ्ट सेंटा क्लॉज आएंगे जीवन को दिशा देते बाइबल के 21 अनमोल विचार आपको कविता सैंटा तक ये  सन्देशा.. कैसी लागि ?हमें अपनी राय से अवगत कराये |अगर आप को अटूट बंधन की रचनाएँ पसंद आती हैं तो हमारा फेसबूक पेज लाइक करे व साइट को सबस्क्राइब करें |  

एक टीचर की डायरी – नव समाज को गढ़ते हाथों के परिश्रम के दस्तावेज

एक टीचर की डायरी

    “वो सवालों के दिन वो जवाबों की रातें” …जी हाँ, अपना बचपन याद आते ही जो चीजें शुरुआत में ही स्मृतियों के अँधेरे में बिजली सी चमकती हैं उनमें से एक है स्कूल | एक सी स्कूल ड्रेस पहन कर, दो चोटी करके स्कूल जाना और फिर साथ में पढना –लिखना, लंच शेयर करना, रूठना-मनाना और खिलखिलाना | आधी छुट्टी या पूरी छुट्टी की घंटी |  पूरे स्कूल जीवन के दौरान जो हमारे लिए सबसे ख़ास होते हैं वो होते हैं हमारे टीचर्स | वो हमें सिर्फ पढ़ाते ही नहीं हैं बल्कि गढ़ते भी है | टीचर का असर किसी बाल मन पर इतना होता है कि एक माँ के रूप में हम सब ने महसूस किया होगा कि बच्चों को पढ़ाते समय वो अक्सर अड़ जाते हैं, “ नहीं ये ऐसे ही होता है | हमारी टीचर ने बताया है | आप को कुछ नहीं आता |” अब आप लाख समझाती रहिये, “ऐसे भी हो सकता है” , पर बच्चे बात मानने को तैयार ही नहीं होते |   एक समय था जब हमारी शिक्षा प्रणाली में गुरु का महत्व अंकित था | कहा जाता था कि “गुरु गोविंद दोऊ खड़े ……” गुरु का स्थान ईश्वर से भी पहले है | परन्तु धीरे –धीरे शिक्षा संस्थानों को भी बाजारवाद ने अपने में लपेटे में ले लिया | शिक्षा एक व्यवसाय में बदल गयी और शिक्षण एक प्रोफेशन में | गुरु शिष्य के रिश्तों में अंतर आया, और श्रद्धा में कमी | बात ये भी सही है कि जब हम किसी काम पर ऊँगली उठाते हैं तो इसमें वो लोग भी  फँसते हैं जो पूरी श्रद्धा से अपना काम कर रहे होते हैं जैसे डॉक्टर, इंजीनीयर, सरकारी कर्मचारी और शिक्षक | क्या हम दावे से कह सकते हैं कि हमें आज तक कोई ऐसा डॉक्टर नहीं मिला , सरकारी कर्मचारी…आदि  नहीं मिला जिसने नियम कानून से परे जा कर भी सहायता ना करी हो | अगर हम ऐसा कह रहे हैं तो झूठ बोल रहे हैं या कृतघ्न हैं | अगर टीचर्स के बारे में आप सोचे तो पायेंगे कि ना जाने कितनी टीचर्स आज भी आपके जेहन दर्पण में अपनी स्नेहमयी, कर्तव्यनिष्ठ, ईमानदार छवि के रूप में प्रतिबिंबित हो रही होंगी | कितनी टीचर्स के कहे हुए वाक्य आपके जीवन सागर में लडखडाती नाव के लिए पतवार बने होंगे , तो कितने अँधेरे के दीपक | कितनी बार कोई टीचर अचनाक्ज से मिल गया होगा तो सर श्रद्धा सेझुक गया होगा |   अगर हम टीचर्स की बात करें तो इससे बेहतर कोई प्रोफेशन नहीं हो सकता क्योंकि शिक्षा के २० -२२ वर्ष पूरे करते समय हर विद्यार्थी का नाता स्कूल, कॉलेज से रहता है | समय पर जाना –आना, नियम, अनुशासन यानि एक ख़ास दिनचर्या की आदत पड़ जाती है | टीचर्स को नौकरी लगते ही अपने वातावरण में कोई खास बदलाव महसूस नहीं होता और ना ही नए माहौल से तारतम्य बनाने में अधिक परिश्रम करना पड़ता है | सबसे खास बात जहाँ और प्रोफेशंस में बदमिजाज, बददिमाग, प्रतिस्पर्द्धी लोगों से जूझना होता है वहीँ यहाँ मासूम नवांकुरों से जिनके भोले मन ईश्वर के बैलेंसिंग एक्ट के तहत सारी दुनिया की नकारात्मकता को साध रहे होते हैं |   ये तो हुई हमारी आपकी बात …एक टीचर क्या सोचता/सोचती  है …जिस पर जिम्मेदारी है कच्ची मिटटी में ऐसे बीज रोपने की जो कल छायादार वृक्ष बने | उसका काम केवल बीज रोप देना ही नहीं, उसे ये सुनिश्चित भी करना है कि हर दिन उन्हें धूप , हवा, पानी सब मिले | एक शिक्षक वो कृषक है जिसके रोप बीज २० -२२ साल बाद पल्लवित, पुष्पित होते हैं | जरूरी है अथक परिश्रम, असीम धैर्य, जरूरी है मन में उपजने वाली खर-पतवार  को निकालना, बाहरी दुष्प्रभावों से रक्षा करना | क्या ये केवल  सम्बंधित पीरियड की घंटी बजने से दोबारा घंटी बजने तक का साथ है | नहीं …ये एक अनवरत साधना है | इस साधना को साधने वाले साधक टीचर्स के बारे में हमें पता चलता है “एक टीचर की डायरी से” प्रभात प्रकशन से प्रकाशित इस किताब में भावना जी ने अपने शिक्षक रूप में आने वाली चुनौतियों, संघर्षों, स्नेह और सम्मान सबको अंकित किया है | पन्ना –पन्ना आगे बढ़ते हुए पाठक एक नए संसार में प्रवेश करता है जहाँ कोई शिष्य नहीं बल्कि पाठक, शिक्षक की ऊँगली थाम कर कौतुहल से देखता है लगन, त्याग और कर्तव्य निष्ठा के प्रसंगों को |   भावना जी को मैं एक मित्र, एक सशक्त लेखिका के रूप में जानती रही हूँ पर इस किताब को पढने के बाद उनके कर्तव्यनिष्ठ व् स्नेहमयी  शिक्षक व् ईमानदार नागरिक, एक अच्छी इंसान  होने के बारे में जानकार अतीव हर्ष हुआ है | कई पृष्ठों पर मैं मौन हो कर सोचती रह गयी कि उन्होंने कितने अच्छे तरीके से इस समस्या का सामाधान किया है | इस किताब ने मुझे कई जगह झकझोर दिया जहाँ माता –पिता साफ़ –साफ़ दोषी नज़र आये | जैसे की “रिजल्ट” में | बच्ची गणित में पास नहीं हुई है पर माता पिता को चिंता इस बात की है कि उन दो लाख रुपयों का क्या होगा जो उन्होंने फिटजी की कोचिंग में जमा करवाए हैं … “पर मिस्टर वर्मा ! सोनम शुरू से मैथ्स में कमजोर है, आपने सोचा कैसे कि वो आई आई टी में जायेगी ?” “ नहीं मिस वो जानती है कि उसे आई आई टी क्लीयर करना है | मैं उसे डराने के लिए धमकी दे चूका हूँ कि अगर दसवीं में ९० प्रतिशत से कम नंबर आये …तो मैं सुसाइड कर लूँगा …फिर भी ..|” हम इस विषय पर कई बार बात कर चुके हैं कि माता –पिता अपने सपनों का बोझ अपने बच्चों पर डाल रहे हैं | पर शिक्षकों को रोज ऐसे माता –पिता से दो-चार होना पड़ता होगा | उनकी काउंसिलिंग भी नहीं की जा सकती | सारे शिष्टाचार बरतते हुए उन्हें सामझाना किता दुष्कर है |   “अंगूठी” एक ऐसी बच्ची का किस्सा है जो शरारती है | टीचर उसे सुधारना चाहती है पर उसकी उदंडता बढती जा रही है | और एक दिन वह अपनी सहपाठिन से ऐसा कठोर शब्द ख … Read more

सेल्फ आइसोलेशन के 21 दिन – हम कर लेंगे

हमारे देश के प्रधानमंत्री मोदी जी ने घोषणा करी है कि covid-19 महामारी के खतरे से देश को बचाने के लिए 25 मार्च 2020 से 14 अप्रैल 2020 तक 21 दिनों के लिए India lockdown किया जाएगा | WHO के अनुसार बिमारी के संक्रमण की तीसरी स्टेज के लिए ये 21दिन बहुत महत्वपूर्ण हैं |इस दौरान सभी को अपने घरों में रहने की हिदायत दी गयी है | ये 21 दिन देश के और देश के नागरिकों के की परीक्षा के दिन हैं |समय कठिन है पर साथ में विश्वास है कि हम कर लेंगे | आज से चैत्र नवरात्र शुरू हो गए हैं| पूजा करके माता के आगे घी का दीपक जला दिया है और एक आशा का दीप अपने मन के आगे जला  लिया है| आज रह-रह कर “बीरबल की खिचड़ी” कहानी का वह धोबी याद आ रहा है जो ठंडे पानी में रात भर खड़े रहने की हिम्मत दूर महल में जलते उस दीपक को देखकर जुटाए रहा | उसके मन में विश्वास था, शायद इसी लिए वो ऐसा कर सका| विश्वास में शक्ति होती है | इस कठिन समय में हम सब को भी इसी विश्वास के सहारे आगे बढ़ना है |  अपने पर संयम  रख कर ही हम इस बिमारी को हरा सकते हैं | हम सब को दिहाड़ी मजदूरों की, बिखारियों  की बहुत चिंता है | आशा है सरकार उनको भोजन उपलब्द्ध करायेगी | दिल्ली सरकार के कुछ वीडियो देखे हैं जिसमें पुलिस वाले भिखारियों को भोजन दे रहे हैं | लंगर में खाना मिल रहा है|आशा है और शहरों में भी यही किया जाएगा |बाकी कई किराना स्टोर्स अपने अपने एरिया में हेल्प लाइन नंबर दे रहे हैं जो घर आ कर सामान पहुंचा सकेंगे | कोरोना और ट्रॉली प्रॉब्लम बहुत पहले एक विश्व प्रसिद्द ट्रॉली  प्रॉब्लम की विश्व  पहेली के बारे में सुनती थी|  शायद आपने भी सुना हो …ये पहेली आज भी अनुत्तरित ही है | पहेली हैं कि आप ट्रॉली चला रहे हैं |  उसके ब्रेक फ़ैल हो गए | आपके सामने दो पटरियां हैं | एक पर एक व्यक्ति है दूसरी  पर ६ व्यक्ति हैं | ट्रॉली एक पटरी पर अवश्य जायेगी |  आप किसे बचायेंगे …एक को या छ: को ? इसमें बहुत सारे समीकरण बनते हैं| मैं अभी दो की बात करुँगी | जाहिर है अभी ज्यादातर लोग कहेंगे कि हम ६ को बचायेंगे | दूसरा समीकरण देखिये …दूसरी पटरी पर जो अकेला व्यक्ति खड़ा है वो हमारा अपना प्रियजन है | तब ?   पूरा विश्व आज इसी ट्रॉली प्रॉब्लम से गुज़र रहा है | इटली में डॉक्टर रोते हुए वृद्धों को मौत के मुँह में जाने दे कर जवान व्यक्ति को बचा रहे हैं |क्योंकि उनके जिन्दा रहने की अधिक सम्भावना है |  ये उनकी चाही हुई परिस्थिति नहीं है | उनके द्वारा खायी हुई कसम के भी विपरीत है पर विकट समय में उनको ये निर्णय करना पड़ रहा है | नकारात्मक सोचने  का नहीं है समय  ये समय नकारात्मक सोचने  का नहीं है | मैं जानती हूँ कि हम सब कम खा के कम सुविधाओं में जी सकते हैं पर आहत है उनके लिए जो गरीब है, दिहाड़ी मजदूर हैं, अपने बुजुर्ग रिश्तेदारों के लिए जो अकेले रहते हैं, अपने उन रिश्तेदारों के लिए जो इस समय कई शारीरिक दिक्कतों को झेल रहे हैं, या जो दूसरे शहरों में कहीं फंस गए हैं |कोशिश करें कि अगर आप के घर के आस -पास ऐसे कोई लोग हैं तो सोशल डिस्टेंसिंग बनाते हुए ही सही उनकी मदद करें | उन्हें हेल्पलाइन नंबर दें | अपने घर से खाना बना कर उन्हें दे सकते हैं | फोन पर बात कर हालचाल ले सकते हैं | दिहाड़ी मजदूरों भिखारियों के लिए पास की पंसारी की दुकान में कुछ धन दे कर एक बड़े अभियान में मदद कर सकते हैं | क्योंकि कई पंसारी स्टोर ऐसी लंगर योजना में निजी धन लगा कर आगे आ रहे हैं |  ना हो तो उपाय है कि हम स्वयं को बचा कर उन सब को बचाएँ | आशा है हम और वो सब भी इस कठिन  समय को झेल कर इस परीक्षा को पार कर लेंगे |   पहले तो जीवन को बचाने  की फिर नौकरी /व्यवसाय , देश की अर्थव्यवस्था बचाने की बहुत सारी आशंकाओं के बीच एक दिया आशा का जालाये रखें | सकारात्मक रहने की कोशिश करें पर दिमाग पर बहुत ज्यादा बोझ डाल कर नहीं | मानसिक स्वास्थ्य का भी रखें ख्याल  शारीरिक स्वास्थ्य के साथ मानसिक स्वास्थ्य को भी उतना ही बचाए रखने की जरूरत है | क्योनी ये समय डर, आशंका और निराशा का है |बार -बार हाथ धोने और सोशल डिस्टेंसिंग की नयी आदत हमें डालनी है | ऐसे में मन घब्राना स्वाभाविक है |  जब मन बहुत घबराए तो सब तरफ से मन हटा कर अपनी साँसों पर ध्यान दीजिये | इसे चाहें मेडिटेशन मान कर करें, चाहें व्यायाम | वही हवा (प्राण वायु)जो मेरी साँसों में जा रही है वही आपकी में भी वही संसार में सबकी | हम सब इस कदर जुड़े हुए हैं | यही समझ, यही  जुड़ाव ही हमें हर समस्या से पार ले जाएगा | यही हमारी शक्ति है |इसी शक्ति के सहारे हम ये 21 दिन पार कर लेंगे | नियमों का पालन करें, स्वस्थ रहे प्रसन्न रहे माँ जगदम्बा सब पर कृपा करें वंदना बाजपेयी Covid-19:कोरोना पैनिक से बचने के लिए सही सोचें आपको यह लेख कैसा लगा ? अपने विचारों से हमें अवगत करायें | filed under-social distencing, covid-19, virus, 21 days, corona    

Covid-19 : कोरोना पैनिक से बचने के लिए सही सोचें

  एक नन्हा सा दिया भले ही वो किसी भी कारण किसी भी उद्देश्य से जलाया जाए पूरे मार्ग का अंधियारा हरता है …गौतम बुद्ध   आज हम सब ऐसे दौर में हैं जब एक नन्हा सा वायरस COVID-19 पूरे विश्व की स्वास्थ्य पर, अर्थ पर और चेतना पर हावी है| पूरे विश्व में संक्रमित व्यक्तियों व् मृत रोगियों के लगातार बढ़ते आंकडे हमें डरा रहे हैं| हम  चाहते ना चाहते हुए भी बार-बार न्यूज़ देख रहे हैं| निरीह हो कर देख रहे हैं कि एक नन्हे से विषाणु ने पूरे विश्व की रफ़्तार के पहिये थाम दिए हैं| कल तक ‘ग्लोबल विलेज’ कहने वाले हम आज अपने घरों में सिमटे हुए हैं| देश के कई शहर लॉक डाउन हैं| कल तक हम सब के अपने-अपने सपने थे, आशाएं थीं, उम्मीदें थीं पर आज हम सब का एक ही सपना है कि हम सब सुरक्षित रहे और सम्पूर्ण मानवता इस युद्ध में विजयी हो| इन तमाम प्रार्थनाओं के बाद हम ये भी नहीं जानते कि ये सब कब तक चलेगा| जिन लोगों को एकांत अच्छा लगता था वो भी बाहर के सन्नाटे से घबरा रहे हैं| ऐसे में हम तीन तरह से प्रतिक्रिया दे रहे हैं| यहाँ मैं किसी प्रतिक्रिया के गलत या सही होने की बात न कर के मनुष्य की विचार प्रक्रिया पर बात करके उसे सही विचार चुनने की बात कह रही हूँ|   मैं और मेरा परिवार सुरक्षित रहे बाकी दुनिया… इस क्राइसिस से पहले  हममें से कई लोग बहुत अच्छे थे| पूरी दुनिया के बारे में  सोचते थे| आज वो केवल अपने और अपने परिवार के बारेमें सोच रहे हैं| ये वो लोग हैं जो ६ महीने का राशन जमा कर रहे हैं| अमेरिका में टॉयलेट पेपर तक की कमी हो गयी| ये वो लोग हैं जो बीमारों के लिए सैनिटाईजर्स की कमी हो गयी है अपने ६ महीने के स्टोर से कुछ देने नहीं जायेंगे| हो सकता है कि ये बीमारना पड़ें| इनके सारे सैनीटाईज़र्स यूँ ही ख़राब हो जाए| खाने –पीने की चीजें सड़ जाएँ पर किसी संभावित आपदा से निपटने के लिए ये सालों की तैयारी कर के बैठे हैं| बड़ी आसानी से कहा जा सकता है कि ये लोग समाज के दोषी हैं पर मैं ऐसा नहीं कह  पाऊँगी …कारण है हमारा एनिमल ब्रेन|   मनुष्य का विकास एनिमल या जानवर से हुआ है | क्योंकि जंगलों में हमेशा जान का खतरा रहता था इसलिए दिमाग ने एक कला विकसित कर ली, संभावित खतरों का पूर्वानुमान लगा कर खुद को सुरक्षित करने की| ये कला जीवन के लिए सहायक है और मनुष्य को तमाम खतरों से बचाती भी है|परन्तु ऐसे समय में जब हम जानते हैं कि खाने पीने के सामानों की ऐसी दिक्कत नहीं आने वाली हैं किसी एक व्हाट्स एप मेसेज पर, किसी एक दोस्त के कहने पर, किसी एक न्यूज़ पर दिमाग का वो हिस्सा एक्टिव हो जाता है और व्यक्ति बेतहाशा खरीदारी करने लगता है| हममे से कई लोगों ने इन दिनों इस बात को गलत बताते हुए भी  मॉल में लगी लंबी लाइनों को देखकर खुद भी लाइन में लग जाना बेहतर समझा होगा| भले ही हम उस समय खाली दूध या कोई एक सामान लेने गए हों और खुद भी पैनिक की गिरफ्त में आ गए | इधर हमने भरी हुई दुकानों में  एक दिन में पूरा राशन खाली होते हुए देखा है|   हम तो आपस में ही पार्टी करेंगे- दूसरी तरह के लोग जिन्हें हम अति सकारात्मक लोग कहते हैं| पॉजिटिव-पॉजिटिव की नयी थ्योरी इनके दिमाग में इस कदर फिट है कि इन्हें हर समय जोश में भरे हुए रहना अच्छा लगता है| पॉजिटिव रहने का अर्थ  ये नहीं होता है कि आप सावधानी और सतर्कता  के मूल मन्त्र को भूल जाएँ| जब की सकारात्मकता का आध्यात्मिक स्वरुप हमें ये सिखाता है कि आप जो भी काम करें पूरी तन्मयता और जागरूक अवस्था में करें, अवेयरनेस के साथ करें| शांत रहने का अर्थ नकारत्मक होना नहीं है| एक बार संदीप माहेश्वरी जी ने कहा था कि सक्सेस-सकस भी एक अवगुण है| आम तौर पर लोग अटैचमेंट नहीं सीख पाते | लेकिन जो लोग सक्सेस के प्रति अटैच्ड हो जाते हैं उनके दिमाग में चौबीसों घंटे सक्सेस सक्सेस या काम –काम चलता रहता है| अपने बिजनेस को आगे बढ़ाना रात और सपनों में भी चलता रहता है| यही स्वास्थ्य पर भारी पड़ता है| जितना अटैच होना सीखना पड़ता है उतना ही डिटैच होना भी | कब आप स्विच ओं कर सकें कब ऑफ कर सकें | अति सकारात्मकता  भी यही प्रभाव उत्प्प्न करती है | अगर व्यक्ति चौबीसों घंटे सकारात्मक रहेगा तो उसका दिमाग सतर्क रहने वाला स्विच ऑफ़ कर देगा| यही हाल कोरोना व्यारस के दौर में हमें देखने को मिल रहा है| जब पूरा शहर लॉक डाउन किया गया है तो कुछ लोग जबरदस्ती अपने घर में दूसरों को बुला रहे हैं | पार्टी कर रहे हैं | पुलिस को धत्ता बता कर ये ऐसा इसलिए कर पा रहे हैं क्योंकि ये एक –एक कर लोगों को घर बुलाते हैं | जब २५ -३० लोग इकट्ठा हो जाते हैं तब पार्टी शुरू होती है| इनका कहना होता है कि बिमारी –बिमारी सोचने से नकारात्मकता फैलती है|   अगर समझाओं  तो भी इनका कहना होता है कि अगर मैं मरुंगा तो मैं मरूँगा …इससे दूसरे को क्या मतलब | सकार्त्मकता के झूठे लबादे ने इनका सत्रकता वालादिमागी स्विच ऑफ कर दिया है | जो इन्हें खुद खतरे उठाने को विवश करता है और सामुदायिक भावना के आधीन हो सामाजिक जिम्मेदारी की अवहेलना के प्रति उकसाता है| ऐसे ही कुछ अति सकारात्मक लोगों द्वारा प्रधानमंत्री द्वारा आवश्यक सेवाओं में लगे लोगों को धन्यवाद ज्ञापन के आह्वान को ध्वनि तरंगों के विगन से जोड़ देने का नज़ारा हम कल २२ मार्च को आम जनता के बीच देख चुके हैं | जब जनता जुलुस के रूप में सड़कों पर उतर आई | इसके पीछे व्हाट्स एप में प्रासारित ये ज्ञान था| हमें पता है कि आम जनता में समझ अभी इतनी नहीं है| वो वैज्ञानिक दृष्टि से सिद्ध करे गए ऐसे व्हाट्स एप ज्ञान से प्रभावित हो जाती है| ऐसे में इन अति सकारात्मक लोगों … Read more

सिंदूर खेला – पति –पत्नी के उलझते –सुलझते रिश्तों की कहानियाँ

सिंदूर खेला  “सिंदूर खेला” रंजना बाजपेयी जी का नया कहानी संग्रह है | इससे पहले उनके दो उपन्यास “अनावरण” और “प्रराब्द्ध और प्रेम” प्रकाशित हो चुके हैं | ये उनका पहला कहानी संग्रह व् तीसरी किताब है जो Evincepub Publishing से आई है | रंजना बाजपेयी जी काफी समय से लेखन में सक्रीय हैं | ख़ास बात ये हैं कि लेखन के साथ –साथ वो गायन में भी पारंगत हैं | ऐसी में उनकी किताब के प्रति सहज उत्सुकता थी | ये किताब मैंने पुस्तक मेले से पहले ही खरीद ली थी पर व्यस्तता के कारण तब नहीं पढ़ सकी | आखिर कार आज इसको पढ़ ही लिया |   सिंदूर खेला दरअसल एक त्यौहार है जो पश्चिमी बंगाल में मनाया जाता है | दशहरा के बाद देवी विसर्जन के दिन महिलाएं देवी प्रतिमा के पास एकत्र हो कर उन पर सिंदूर चढ़ाती हैं | फिर वही सिंदूर एक दूसरे के गाल, माँग, चूड़ियों, गले में लगाती हैं | ऐसा करके वो माँ से अखंड सौभाग्य का वरदान मांगते हुए उनके फिर अगले साल आने की कामना कसरती हैं | अगर देखा जाए तो सिंदूर भारतीय स्त्री के सौभाग्य की निशानी है | इस लिए उसके लिए बहुत अहम् स्थान रखता है | पति –पत्नी को तो ये सिंदूर बांधता ही है |  प्रेमी प्रेमिका के रिश्ते का रंग भी सिंदूरी ही है | ये प्रणय का रंग है मिलन का रंग है | उगता हुआ सूरज सिंदूरी आभा लिए पूरी धरती को हरित बना देता है तो दिन और रात के मिलन की साक्षी बनी संध्या के आकाश का रंग सिंदूरी ही है | ये अलग बात है कि आज शहर में महिलाएं सिंदूर नहीं लगाती है पर फिर भी पति –पत्नी के रिश्ते का रंग सिंदूरी ही है | जो ना लाल है ना पीला …उनके बीच का, उनके शारीरिक ही नहीं आत्मिक मिलन  का प्रतीक | अगर मैं सिंदूर खेला की बात करूँ तो इसकी सारी कहानियाँ पति –पत्नी के रिश्तों के ही अलग –अलग आयाम को प्रस्तुत करती हैं | कहीं कहीं वो रिश्ता प्रेमी –प्रेमिका का भी है पर वो गहरा आत्मिक प्रेम  लिए हुए है |  वैसे इसमें “ सिंदूर खेला “ नाम की कहानी भी है | जो संग्रह का शीर्षक रखे जाने को सिद्ध करती है | सिंदूर खेला – पति –पत्नी के उलझते –सुलझते रिश्तों की कहानियाँ कहानियों के बारे में रंजना जी कहती हैं कि, “किसी रचना का बीजारोपण यथार्थ की मरुभूमि पर होता है | फिर वो लेखक के मानस  और ह्रदय में पनपती और रोपित होकर आकार पाती है | तत्पश्चात हमारी कल्पना के विशाल वृहद् आकाश में उन्मुक्त विचरण करती हुई विसातर पाती है तब अक्षर यात्रा का शुभारंभ होता है और रचना प्रकट होती है | मेरा मानना है कि यथार्थ और कल्पना लोक का सफ़र ही होता है लेखन |” इसी को सिद्ध करते हुए उनकी कहानियों के ताने –बाने के धागे यथार्थ के करघे पर चढ़ कल्पना के रंग भरते जाते हैं और कहानी कुछ जानी पहचानी सी लगने लगती है |   पहली कहानी “वापसी” एक ऐसे ब्राह्मण परिवार की कहानी है | जिनका परिवार मांस –मदिरा से दूर थोड़े में संतुष्ट है | कला और संस्कृति की उन्नति ही उनके जीवन को सरस बना रही है | परिवार की दो बेटियाँ हैं इरा और इला | इरा का विवाह माता –पिता धूम –धाम से करते हैं | पर थोड़े दिन में  कितना पता लगाया जा सकता है | उस परिवार का मूल मन्त्र है पैसा …कमाना और उड़ाना | मांस मदिरा किसी चीज से परहेज नहीं | इला  बिलकुल विपरीत वातावरण में इरा सामंजस्य बिठाने की असफल कोशिश करती है और अनन्त : घर वापसी का इरादा कर लेती है | छोटी बहन को अरेंज मैरिज से भय हो जाता है | वो अपनी पसंद के लड़के से विवाह की बात करती है | परिवार उसकी बात मान लेता है | पर प्रेम कोई यूं हो जाने वाली चीज नहीं हैं | उस प्रेम को समझने, मानने  स्वीकार करने की यात्रा है वापसी |   आज लडकियां कैरियर बनाते हुए विवाह की उम्र से आगे निकल जाती हैं | पहले उनका फोकस केवल कैरियर पर होता है | फिर धीरे धीरे उन्हें विवाह से ही विरक्ति हो जाती हैं | “प्रेम की नदियाँ सूखने लगती हैं | ऐसी ही एक कहानी है “प्रीटी लेडी” यानी  इला की  | लड़की क्या  स्त्री है इला , लगभग 45 वर्ष की | लगभग ५० वर्ष का नदीम उर्फ़ आकाश जो फेसबुक के माध्यम से फेक आई दी द्वारा उस से प्रेम  प्रदर्शित कर तो कभी किसी अजनबी के रूप् में उसे आते –जाते उसे जी भर निहार कर उसके मन मेंअपने प्रति अच्छा महसूस कराकर उसके मन में प्रेम  के अंकुर उत्पन्न  कर देता है | फिर रास्ते से हट जाता है | अभी तक कैरियर से संतुष्ट रहने वाली इला को  जीवन में प्रेम की कमी महसूस होने लगती है और इस बार वो माँ के पसंद के लड़के के लिए बिना देखे हाँ कर देती है | कहानी स्वीट सी है फिर भी मैं फेक आईडी पर ज्यादा बात ना करने की सलाह ही दूँगी लड़कियों को | क्योंकि हर कहानी सुखान्त  नहीं होती |   “दूसरी औरत” कहानी एक ऐसी स्त्री के दर्द की कहानी है जिसका पति उसे प्यार तो करता है, उसका हर तरीके से ख्याल रखता है परन्तु अपनी एक महिला मित्र को अपनी पत्नी के ऊपर हमेशा वरीयता देता है | यहाँ तक कि खाने पर उसे परिवार समेत बुलाने पर अपनी पत्नी के बनाए खाने के स्थान पर उस महिला दोस्त द्वारा बनाए गए व्यंजनों की तारीफ़ करता है | महिला मित्र का पति कहीं बाहर रहता है इसलिए उनके घर की जरूरतों और मेहमानों को स्टेशन से लाने , ले जाने का जिम्मा भी वो खुद ही ओढ़े रहता है | ऐसे में पत्नी को खुद का दूसरी औरत या द्वितीय प्राथमिकता  समझना गलत नहीं है | उस महिला मित्र द्वारा भी कभी –कभी खल चरित्र व्यक्त हो ही जाता है | अन्तत: बच्चों के विवाह के बाद पत्नी एक कठोर फैसला लेती है | … Read more

सिनीवाली शर्मा रहौ कंत होशियार की समीक्षा

रहौ कंत होशियार

समकालीन कथाकाओं में सिनीवाली शर्मा किसी परिचय की मोहताज नहीं हैl  ये बात वो अपनी हर कहानी में सिद्ध करती चलती हैं | उनकी ज्यादातर कहानियाँ ग्रामीण जीवन के ऊपर हैं | गाँवों की समस्याएं, वहां की राजनीति और वहां के लोक जीवन की मिठास उनकी कहानियों में शब्दश: उतर आते हैं | पर उनकी कहानी “रहौं कंत होशियार”  पढ़ते हुए मुझे तुलसीदास जी की एक चौपाई याद आ रही है l  छिति जल पावक गगन समीरा। पंच रचित अति अधम सरीरा तुलसीदास जी की इस चौपाई में अधम शब्द मेरा ध्यान बार- बार खींच रहा है l हालंकी उनका अभिप्राय नाशवान शरीर से है पर मुझे अधमता इस बात में नजर आ रही है कि वो उन पाँच तत्वों को ही नष्ट और भृष्ट करने में लगा है जिससे उसका शरीर निर्मित हुआ है l आत्मा के पुनर्जन्म और मोक्ष की आध्यात्मिक बातें तो तब हों जब धरती पर जीवन बचा रहे l आश्चर्य ये है कि जिस डाल पर बैठे उसे को काटने वाले कालीदास को तो अतीत में मूर्ख कहा गया पर आज के मानव को विकासोन्मुख l आज विश्व की सबसे बडी समस्याओं में से एक है प्रदूषण की समस्या l विश्व युद्ध की कल्पना भी हमें डराती है लेकिन विकास के नाम पर हम खुद ही धरती को खत्म कर देने पर उतारू हैं l हम वो पाही पीढ़ी हैं जो ग्लोबल वार्मिंग के एफ़ेक्ट को देख रही है और हम ही वो आखिरी पीढ़ी हैं जो खौफ नाक दिशा में आगे बढ़ते इस क्रम को कुछ हद तक पीछे ले जा सकते हैं l  आगे की पीढ़ियों के हाथ में ये बही नहीं रहेगा l स्मॉग से साँस लेने में दिक्कत महसूस करते दिल्ली वासियों की खबरों से अखबार पटे रहे हैं l छोटे शहरों और और गाँव के लॉग  दिल्ली पर तरस खाते हुए ये नहीं देखते हैं कि वो भी उसी दिशा में आगे बढ़ चुके हैं l जबकि पहली आवाज वहीं से उठनी चाहिए ताकि इसए शुरू में ही रोका जा सके l एक ऐसी ही आवाज उठाई है सिनीवाली शर्मा की कहानी रहौं कंत होशियार के नायक तेजो ने l ये कहानी एक प्रदूषण की समस्या उठाती और समाधान प्रस्तुत करतीएक ऐसी कहानी है जिस की आवाज को जरूर सुना जाना चाहिए l  सिनीवाली शर्मा रहौ कंत होशियार की समीक्षा  आज हमारे शहरों की हवा तो इस कदर प्रदूषित हो चुकी है कि एक आम आदमी /औरत दिन भर में करीब दस सिगरेट के बराबर धुँआ पी लेता है , लेकिन गाँव अभी तक आम की बौर की खुशबु से महक रहे थे, लेकिन विकास के नाम पर स्वार्थ की लपलपाती जीभ तेजी से गाँवोंके इस प्राकृतिक संतुलन को बिगाड़ देने को तत्पर है | ऐसा ही एक गाँव है जहाँ की मिटटी उपजाऊ है | लोग आजीविका के लिए खेती करते हैं, अभी तक किसान धरती को अपनी माँ मानते रहे हैं, उसकी खूब सेवा करके बदले में जो मिल जाता है उससे संतुष्ट रहते हैं| उनके सपने छोटे हैं और आसमान बहुत पास | लेकिन शहरों की तरह वहां का समय भी करवट बदलता है | वो समय जब स्वार्थ प्रेम पर हावी होने लगता है |    विकास के ठेकेदार बन कर रघुबंशी बाबू वहां आते हैं और ईट का भट्टा लगाने की सोचते हैं | इसके लिए उन्हें १५ -१६ बीघा जमीन एक स्थान पर चाहिए | वो गाँव वालों को लालच देते हैं की जिसके पास जितनी जमीन हो वो उसके हिसाब से वो उन्हें हर साल रूपये देंगे | बस उन्हें कागज़ पर अंगूठा लगाना है | ये जानते हुए भी कि भट्ठा को गाँव यानि उपजाऊ मिटटी से कम से कम इतना दूर होना चाहिए , बीच गाँव में उनके भट्टा लगाने की मंशा पर सब अपनी आँखों पर पट्टी बाँध लेते हैं |  समीक्षा -अनुभूतियों के दंश (लघुकथा संग्रह ) कहानी की शुरुआत ही तेजो और रासो की जमीन गिरवी रखने की बात से होती है | तेजो इसका विरोध करता है | वो अपनी जमीन नहीं देता | वो बस इतना ही तो कर सकता है पर उसको दुःख है तो उपजाऊ मिटटी के लिए जो भट्टा लगाने से बंजर हो जायेगी | धरती के लिए उसका दर्द देखिये … ओसारे पर बैठे –बैठे सोचता रहा | धरती के तरह –तरह के सौदागर होते हैं | वो सबका पेट तो भरती है पर सुलगाती अपनी ही देह है | कहीं छाती फाड़कर जान क्या–क्या निकाला जाता है तो कहीं देह जलाकर ईंट बनाया जाता है | पर उसकी चिंता गाँव वालों की चिंता नहीं है | उनके सर पर तो पैसा सवार है | विकास के दूत रघुवंशी बाबू कहाँ से आये हैं इसकी भी कोई तहकीकात नहीं करता | बस एक उडी –उड़ी खबर है कि भागलपुर के पास उनकी ६ कट्टा जमीन है जिसका मूल्य करीब ४० -४५ लाख है | इतना बड़ा आदमी उनके गाँव में भट्ठा लगाये सब इस सोच में ही मगन हैं | तेजो भी सबके कहने पर जाता तो है पर ऐन अंगूठा लगाने के समय वो लौट आता है | इस बीच गाँव की राजनीति व् रघुवंशी बाबू को गाँव लाने का श्रेयलेने की होड़ बहुत खूबसूरती से दर्शाई गयी है | जिन्होंने ग्राम्य जीवन का अनुभव किया है वो इन वाक्यों से खुद को जुड़ा हुआ महसूस करेंगे …… “जिसको देना था, दे चुके ! वे रघुवंशी बाबू की चरण धूलि को चन्नन बना कर माथे पर लगा चुके हैं | अपने कपार पर तो हम अपने खेत की माटी ही लागयेंगे | एक और किसान दयाल भी तेजो के साथ आ मिलता है | केवल उन दोनों  के खेत छोड़ कर सबने अपनी जमीन पैसों के लालच में दे दी | इसमें से कई पढ़े लिखे थे | पर स्वार्थ धरती माँ के स्नेह पर हावी हो गया | इतना ही नहीं लोगों ने अपने पास रखा पैसा भी बेहतर ब्याज के लाच में रघुवंशी बाबू को दे दिया | मास्टर साहब ने रिटायरमेंट से मिलने वाले रुपये से आठ लाख लगाये , प्रोफ़ेसर साहब ने अपनी बचत से तीन लाख, किसी ने बेटे के दहेज़ का रुपया लगाया तो … Read more

गुरु पूर्णिमा : गुरूजी हम बादल तुम चन्द्र

  गुरु पूर्णिमा एक ऐसा त्यौहार है | जब हम अपना स्नेह गुरु के प्रति व्यक्त कर सकते हैं | गुरु और शिष्य का अनोखा संबंध है | गुरु शिष्य को मांजता है , निखारता है और परमात्मा की ओर उन्मुख करता है | कई बार हम गुरु और शिक्षक में भ्रमित होते हैं | वास्तव में शिक्षक वो है जो हमें लौकिक जीवन में अग्रसर होने के लिए शिक्षा देता है और गुरु वो है हमारा आध्यात्मिक मार्ग प्रशस्त करता है | आज का दिन उसी गुरु के प्रति आभार व्यक्त करने का दिन है |  यूँ पूर्णिमा तो साल में बारह होती है | सब सुंदर , सब पवित्र फिर आसाढ़ पूर्णिमा को ही गुरु पूर्णिमा के रूप में क्यों मनाते हैं ? जबकि आसाढ़ में तोअक्सर बादल होने की वजह से चाँद पूरा दिखता भी नहीं हैं | ये प्रश्न हम सब के मन मेंउठता होगा | पौराणिक मान्यताओं के अनुसार क्योंकि आसाढ़ पूर्णिमा के दिन ही व्यास ऋषि का जन्म हुआ था  इसलिए | आसाढ़ पूर्णिमा को ही गुरु पूर्णिमा मनाते हैं |   आखिर आसाढ़ पूर्णिमा को ही क्यों मनाई जाती है गुरु पूर्णिमा                                                 यही प्रश्न  एक बार एक शिष्य ने आध्यात्मिक गुरु ओशो से किया | ओशो ने जवाब दिया जो मान्यताओं से इतर है | आज मैं वही जवाब आप सब के सामने रख रही हूँ | ओशो के  अनुसार सारी पूर्णिमाओं में शरद पूर्णिमा सबसे सुन्दर होती है | पर उसके स्थान पर आसाढ़ पूर्णिमा को गुरुपूर्णिमा के रूप में इसलिए मनाया जाता है क्योंकि तब आसमान में बादल होते हैं | ओशो बादलों की तुलना शिष्यों से करते हैं | और गुरु की चंद्रमा से |अब  गुरु चंद्रमा क्यों है | क्योंकि ये प्रकाश  या ज्ञान उसका अपना नहीं है | ये उसने सूर्य से लिया है | और इसे वो वितरित कर रहा है | शिष्य सीधे सूर्य तक नहीं जा सकते |क्योंकि वो उस तेज को सहन नहीं कर सकते | तब उनका अस्तित्व ही समाप्त हो जाएगा | ऐसे में उन्हें गुरु की आवश्यकता होती है | जब शिष्य भी चंद्रमा के सामान चमकने लगता है तब उसे परमात्मा प्राप्त होता है | इसी लिए गुरु का महत्व है | इसीलिए कहा गया है ….      “ गुरु गोविन्द दोउ खड़े काके लगो पाय बलिहारी गुरु आपने गोविन्द दियो बताय “     आसाढ़ पूर्णिमा से शरद पूर्णिमा तक की यात्रा              अब  तुलनात्मक दृष्टि से देखे तो  शरद पूर्णिमा में बादल होते ही नहीं | जब शिष्य नहीं तो गुरु कैसा | गुरु का वजूद ही शिष्य से है | आसाढ़ पूर्णिमा में शिष्य है | बादल की तरह , जिसका मन यहाँ – वहाँ  भटकता रहता है |  वो श्याम रंग का है क्योंकि अज्ञान के अन्धकारसे भरा हुआ है | अभी ही गुरु की आवश्यकता है शरद पूर्णिमा या किसी अन्य में नहीं |गुरु इस अज्ञान को दूर कर शिष्य को निर्मल और पवित्र कर देता है |आसाढ़ पूर्णिमा से शरद पूर्णिमा तक की यात्रा ही शिष्य का अध्यन काल है जब वो गुरु से हरी तक पहुँच जाता है |    कैसे हो सच्चे गुरु गुरु की पहचान                                      अब प्रश्न  ये उठता है की सच्चे गुरु की पहचान कैसे हो | दुनियावी गुरु तो बहुत हैं | जो मार्ग दिखाने ने के स्थान पर भटका भी सकते हैं | इसके लिए एक छोटी सी कहानी है | एक बार एक व्यक्ति किसी  आध्यात्मिक गुरु से अपने कुछ प्रश्नों के उत्तर चाहता था | पर वो चाहता था की गुरु योग्य हो | वह अपने गाँव में पीपल के पेड़ के नीचे बैठे बाबा से मिला | उसने कहा मुझे ऐसा गुरु चाहिए जो मेरे सब प्रश्नों का उत्तर दे सके | क्या ऐसा कोई गुरु है , काया कभी मुझे वो मिलेगा , क्या आप उस तक मुझे पहुंचा सकते हैं ? बाबा बोले ,” बेटा वो गुरु तुम्हें जरूर मिलेगा | पर इसके लिए जरूरी है सच्ची अलख जगना | पर फिलहाल मैं उसकी पहचान तुम्हें बता देता हूँ | बाबा ने उस गुरु  के कद , काठी , आँखों के रंग आदि की पहचान बता दी | वो जहाँ मिलेगा यह भी बता दिया | उसके पास के दृश्य भी बता दिए | वो व्यक्ति बहुत खुश हो गया | उसने तुरंत बाबा के पैर छुए और कहा ,” आपका बहुत उपकार है बाबा , आपने मेरे गुरु का इतना विस्तृत वर्णन दे दिया | मैं उन गुरु महाराज को चुटकियों में ढूंढ लूँगा | अब मुझे जाने की आज्ञा  दें | मैं यूँ गया और यूँ आया | फिर आपको भी उन्प्रश्नों के उत्तर बताऊंगा |                             व्यक्ति चला गया | गाँव , गाँव ढूंढता रहा | ढूंढते – ढूंढते २० वर्ष बीत गए | पर वैसा गुरु न मिला | वो निराश हो गया | लगता है उसके प्रश्नों का उत्तर कभी नहीं मिलेगा | उसने सोंचा चलो अपने गाँव वापस चलूँ , लगता है गुरु का मिलना मेरे भाग्य में नहीं है | उत्तर न मिलने पर उसे बहुत बेचैनी थी | जब वो गाँव पहुंचा तो वही बाबा उसे पीपल के पेड़ के नीचे बैठे दिखाई दिए | उसने सोंचा उन्हें बताता चलूँ की मुझे उनके द्वारा बताया गया गुरु कहीं नहीं मिला | जब ऐसा गुरु था ही नहीं तो उन्होंने मुझे भटकाया ही क्यों | वो बाबा भी अब वृद्ध हो चुके थे | व्यक्ति जब बाबा के सामने पहुंचा तो देख कर दांग रह गया की ये तो वही गुरु हैं जिन्हें वो पिछले २० साल से ढूंढ रहा था | वो तुरंत बाबा के चरणों में गिर गया और बोला ,” बाबा आप तो वही हैं फिर आपने मुझे उस समय क्यों नहीं बताया |                          … Read more

क्या आप हमेशा हमेशा रोते रहते हैं ?

किसी को दुःख हो तकलीफ हो तो कौन नहीं रोता है | अपना दर्द अपनों से बाँट लेने से बेहतर दवा तो कोई है ही नहीं, पर ये लेख उन लोगों के लिए है जो हमेशा रोते रहते हैं | मतलब ये वो लोग हैं जो  राई को पहाड़ बनाने की कला जानते हैं पर अफ़सोस शुरुआती सहानुभूति के बाद उनकी ये कला उन्ही के विरुद्ध खड़ी नज़र आती है |  ये वो लोग हैं जिनको जरा सी भी तकलीफ होगी तो ये उसको ऐसे बढ़ा चढ़ा कर प्रस्तुत करेंगे जैसे दुनिया में इससे बड़ी कोई तकलीफ है ही नहीं | कई बार तो आप महसूस करेंगे कि आप के 104 डिग्री बुखार के आगे उनका 99 डिग्री  बाजी मार ले जाएगा | लेकिन अगर आप या आप का कोई प्रिय इस आदत से ग्रस्त है तो अभी भी मौका है … सुधर जाइए |   उनके लिए जो हमेशा  रोते रहते हैं ?  आइये सबसे पहले मिलते है राधा मौसी सी | यूँ तो वो किसी की मौसी नहीं है पर हम सब लाड में उन्हें मौसी कहते हैं |एक बार की बात है राधा मौसी अपनी सहेली के घर मिलने गयीं | सहेली के घर वो जितनी देर बैठी रहीं उन्हें एक कुत्ते के रोने की आवाज़ आती रही | उन्होंने अपनी सहेली से कहा | पर वो ऊँचा सुनती थी इसलिए उसने उन्होंने  कहा कि उसे तो सुनाई नहीं दे रहा है | राधा मौसी बहुत परेशान हो गयीं | उसके दो कारण थे एक तो कुत्तों का रोना अपशकुन माना जाता है | दूसरे वो कुत्तों से बहुत प्यार करती थीं | हालांकि उन्होंने कुत्ते पाले नहीं थे पर गली के कुत्तों को वो रोज दूध रोटी खिलाती |  गली के सब कुत्ते भी उनसे हिल मिल गए थे | मनुष्य और जानवर का रिश्ता कितनी जल्दी सहज बन जाता है  मुहल्ले वालों के लिए इसका उदाहरन राधा मौसी बन गयीं थीं |  खैर राधा मौसी को इस तरह वहां बैठ कर लगातार कुत्ते के रोने की आवाज़ सुनना गवारां  नहीं हो रहा था | राधा मौसी ने सहेली से विदा ली और आवाज़ की दिशा में आगे बढ़ ली | आवाज़ का पीछा करते –करते वो  एक घर में पहुंची | घर की बालकनी में एक महिला चावल बीन रही  थी | वहीँ एक कुत्ता उल्टा लेटा  रो रहा था | राधा मौसी ने उस महिला से कहा , “ क्या ये आप का कुत्ता है ? महिला ने हाँ में सर हिलाया | राधा मौसी ने फिर पुछा ये क्यों रो रहा है ? महिला ने लापरवाही दिखाते हुए कहा , “ कोई ख़ास बात नहीं है , इसकी तो आदत है , ये तो रोता ही रहता है | राधा मौसी को ये बात बहुत अजीब लगी | उन्होंने कुत्ते  को देखा | वो अभी भी रो रहा था | उसके रोने में दर्द था | राधा मौसी से रहा नहीं गया उन्होंने फिर कहा , “ ये ऐसे ही नहीं रो रहा , देखिये तो जरूर कोई बात है | वो महिला बोली , “ जी , दरअसल इसकी पीठ में जमीन पर पड़ी एक छोटी सी कील चुभ रही है | अब तो राधा मौसी का हाल बेहाल हो गया | उन्होंने उस महिला  को सुनाना शुरू कर दिया , “ कैसी मालकिन है आप , आप के कुत्ते के कील चुभ रही है और आप मजे से चावल चुन रहीं हैं , आप देखती नहीं कि आपके कुत्ते को दर्द हो रहा है |  महिला चावल बीनना रोक कर उनकी तरफ देख कर इत्मीनान से बोली , ” अभी इसे इतना दर्द नहीं हो रहा है |  अब चुप रहने की बारी राधा मौसी की थी |  मित्रों , ये कहानी सिर्फ राधा मौसी और उस महिला की नहीं है | ये कहानी हम सब की है | इस कहानी के दो मुख्य भाग हैं …. 1) अरे ये तो रोता ही रहता है | 2) अभी दर्द इतना नहीं हो रहा है |                           हम इनकी एक-एक करके विवेचना करेंगे |  अरे ,ये तो रोता ही रहता है                           बहुत से लोग ऐसे होते हैं जो हर समय अपना रोना रोते रहते हैं |  सुख और दुःख जीवन के दो हिस्से हैं |  हम सब के जीवन में ये आते रहते हैं | पर कुछ लोग  केवल अपने दुखो का ही रोना रोते रहते हैं | ऐसे लोग सिम्पैथी सीकर होते हैं | उनके पास हमेशा एक कारण होता है कि वो आप से सहानभूति ले | उन्हें इस बात से फर्क नहीं पड़ता कि अगले के जीवन में इस समय क्या दुःख चल रहा है |  श्रीमती शर्मा जी को ही लें | कॉलोनी में सब उन्हें महा दुखी कहते हैं |  क्योंकि वो हर छोटी से छोटी घटना से बहुत परेशान हो जाती हैं और हर आने जाने से उसकी शिकायत करने लगती हैं | श्रीमती गुप्ता हॉस्पिटल में एडमिट  थीं | हम सब का उनको देखने जाने वाले थे | श्रीमती शर्मा से भी पूंछा , उनके पैरों में दर्द था , मसल पुल हो गयी थी | उन्होंने कहा,  “आप लोग जाइए मैं थोड़ी देर में आउंगी” |  उन्होंने श्रीमती गुप्ता की बीमारी का कारन भी नहीं पूंछा | हम सब जब वहां थे , तभी वो हॉस्पिटल आयीं और लगीं अपने पैर की तकलीफ का रोना रोने | इतना दर्द , उतना दर्द , ये दवाई वो दवाई आदि -आदि | काफी देर चर्चा करने के बाद उन्होंने पूंछा ,  ” वैसे आपको हुआ क्या है ? श्रीमती गुप्ता ने मुस्कुरा कर  कहा , ” मुझे नहीं पता था आप इतनी तकलीफ में हैं , मुझे तो बस कैंसर हुआ है  |                   इस जवाब को सुन कर आप भले ही हंस लें पर आप को कई ऐसे चेहरे जरूर याद आ गए होंगे जो  हमेशा अपना रोना रोते रहते हैं | ऐसे लोगों से ज्यादा देर बात करने वालों को महसूस होता है कि उनकी … Read more

वो पहला खत

बचपन में एक गाना  अक्सर सुनते थे  “लिखे जो खत तुझे वो तेरी याद में हज़ारों रंग के सितारे बन गए ” | गाना हमें बहुत पसंद था पर हमारा बाल मन सदा ये जानने की कोशिश करता ये खत सितारे कैसे  बन जाते हैं।. खैर बचपन गया हम बड़े हुए और अपनी सहेलियों को  बेसब्री मिश्रित ख़ुशी के साथ उनके पति के खत पढ़ते देख हमें जरा -जरा अंदाज़ा होने लगा कि खत सितारे ऐसे बनते हैं।  और हम भी एक अदद पति और एक अदद खत के सपने सजाने लगे।  खैर दिन बीते हमारी शादी हुई और शादी के तुरंत बाद हमें इम्तहान देने के लिए मायके   आना पड़ा।  हम बहुत खुश थे की अब पति हमें खत लिखेंगे और हम भी उन खुशनसीब सहेलियों की सूची में आ जाएंगे जिन के पास उनके पति के खत आते हैं। हमने उत्साह  में भरकर कर पति से कहा आप हमें खत लिखियेगा ,खाली फोन से काम नहीं चलेगा। खत …… न न न ये हमसे नहीं होगा  हमें शार्ट में आंसर देने की आदत है।  ,यहाँ सब ठीक है वहाँ सब ठीक होगा इसके बाद तीसरी लाइन तो हमें समझ ही नहीं आती है।  पति ने तुरंत ऐसे कहा जैसे युद्ध शुरू होने से पहले ही युद्ध विराम की घोषणा हो जाए। हमारे अरमानों  पर घड़ों पानी फिर गया। कहाँ हम अभी खड़े -खड़े ४ पेज लिख दे कहाँ ये तीसरी लाइन लिखने से भी घबरा रहे हैं।ईश्वर के भी क्या खेल हैं पति -पत्नी को जान -बूझ कर विपरीत  बनाते हैं जिससे घर में संतुलन बना रहे किसी चीज की अति न हो। हम पति को खत लिखने के लिए दवाब में ले ही रहे थे की हमारी आदरणीय सासू माँ बीच में आ गयीं और अपने पुत्र का बचाव करते हुए बोली ,” अरे ! इससे खत लिखने को न कहो | इसने आज तक हम लोगों  को खत  नहीं लिखा तुम्हें क्या लिखेगा | सासू माँ की बात सही हो सकती थी पर वो पत्नी ही क्या जो अपने पति की शादी से पहले की आदतें न बदलवा दे | हमें पता था समस्त भारतीय नर्रियाँ हमारी तरफ आशा की दृष्टि से देख रही होंगी | हम हार मानने में से नहीं थे | हम पतिदेव को घंटों पत्र लिखने  का महत्व समझाते रहे ,पर  पति के ऊपर से सारी  दलीले ऐसे फिसलती रहीं जैसे चिकने घड़े के ऊपर से पानी।  अंत में थक हार कर हमने ब्रह्मास्त्र छोड़ा ……….इस उम्र में लिखे गए खत ,खत थोड़ी न होते हैं वो तो प्रेम के फिक्स डिपाजिट होते हैं.| सोंचो    जब तुम होगे ६० साल के और हम होंगे ५५ के ,दिमाग पूरी तरह सठियाया हुआ होगा तब हम यही खत निकाल कर साथ -साथ पढ़ा करेंगे ,और अपनी नादानियों पर हँसा करेंगे।वाह रे हानि लाभ के ज्ञाता ! फिक्स डिपोजिट की बात  कहीं न कहीं पति को भा  गयी और उन्होंने खत लिखने की स्वीकृति दे दी।                       एक अदद खत की आशा लिए हम मायके आ गए। दिन पर दिन गुजरते जा रहे थे ,और खत महाराज नदारद। रोज सूना लैटर बॉक्स देख कर  हमारा मन उदास हो जाता। चाइल्ड साइकोलॉजी पढ़ते हुए भी  हमारी सायकॉलॉजी बिगड़ रही थी।  आख़िरकार हमने खत मिलने की उम्मीद ही छोड़ दी। एक दिन  बुझे मन से लेटर बॉक्स देखने के बाद हम ख़ाना खा रहे थे की हमारा ५ साल का भतीजा चिल्लाते हुए आया “बुआजी ,फूफाजी की चिठ्ठी आई है। हमारा दिल बल्लियों उछल पड़ा ,पर इससे पहले की हम खत उसके हाथ से लेते , हमारी “विलेन ”  भाभी ने यह कहते हुए खत ले लिया “पहले तो हम पढ़ेंगे “| हमें अरेंज्ड मैरिज होने के  कारण यह तो बिलकुल नहीं पता था की पति कैसा खत लिखते हैं। पर हम अपनी भाभी  के स्वाभाव से बिलकुल परिचित थे कि अगर एक लाइन भी ऊपर -नीचे हो गयी तो वो हमें  हमारे पैर कब्र में लटकने तक चिढ़ाएँगी।  लिहाज़ा हमने उनसे पत्र खीचने की चेष्टा की। भाभी पत्र ले कर दूसरी दिशा में भागीं | घर में भागमभाग मच गयी | भाभी आगे भागी हम पीछे। भागते – भागते हम सब्जी की डलिया से टकराये ,आलू -टमाटर सब बिखेरे, हम बिस्तर पर कूदे ,एक -दूसरे पर तकिया फेंकी …………… पर चिठ्ठी भाभी के ही हाथ में रही | अंततः हमें लगा कि लगता है भाभी ने भतीजे के होने में विटामिन ज्यादा खा लिए हैं भाग -दौड़ व्यर्थ है। हार निश्चित हैं | ” आधी छोड़ पूरी को धावे /आधी मिले न पूरी पावे”  के सिद्धांत पर चलते हुए हमने उन्हें पति कि पहली चिठ्ठी पढ़ने कि इज़ाज़त दे दी।                                भाभी ने  खत पढ़ना शुरू किया। . जैसे जैसे वो आगे बढ़ती जा रहीं थी उनका चेहरा उतरता जा रहा था।  धीरे से बोली ” हे भगवान !बिटिया बड़ा धोखा हो गया तुम्हारे साथ “(भाभी हमें लाड में बिटिया कहती हैं )क्या हुआ भाभी हमने डरते हुए पूंछा ?च च च निभाना तो पडेगा ही ,पर दुःख इस बात का ही की पापा से इतनी बड़ी गलती कैसे हो गयी। भाभी ने गंभीरता से कहा।  हमारा जी घबराने लगा “क्या हुआ भाभी ‘”बड़ी मुश्किल से ये शब्द हमारे मुह से निकले। च च च हाय बिटिया ! पापा तो चलो बूढ़े हैं पर तुम्हारे भैया भी तो गए थे लड़का देखने उनसे ये गलती कैसे हो गयी। इंजीनियर देख लिया ,आई आई टी देख लिया बस ,क्या इतना काफी है ? अरे , ये तक नहीं समझ पाये ………… ये लक्षण। हमारी आँखे भर आई। हम पिछले दिनों पति द्वारा बताई गयी बातों से अंदाज़ा लगाने लगे ………… पांचवी में साथ  पढ़ने वाली पिंकी , आठवी वाली सुधा या आई आई टी के ज़माने की मनीषा ,आखिर कौन है वो जिसने हमारा घर बसने से पहले उजाड़ दिया।  भाभी कुछ तो बाताओ ,क्या हुआ है ? न चाहते हुए भी हमरे मुह से ये शब्द निकल गए ,वैसे भी अब जानने को बचा क्या था। बिटिया ,जन्म -जन्मान्तर का साथ है ,निभाना पडेगा ,तुम्हे ही धैर्य रखना … Read more