कविता सिंह की कहानी अंतरद्वन्द

अंतरद्वन्द

जीवन में हम जो चाहते हैं वो हमेशा हमें नहीं मिलता | फिर भी हम अपेक्षाओं का लबादा ओढ़े आगे बढ़ते जाते हैं .. खोखले होते रिश्तों को ढोते रहते हैं |इस परिधि को तोड़ कर एक नए आकाश की ओर बढ़ते कदम अतीत के अनुभव की कारा में बार -बार बंदी होते रहते हैं | आखिर कोई तो हल होगा .. अतीत और वर्तमान के इस अंतरद्वन्द का | आइए पढ़ें अतीत और वर्तमान के  उलझे धागों को सुलझाती, युवा कथाकार कविता सिंह की कहानी.. अंतरद्वन्द  कहानी से – देखें यू ट्यूब पर   “तुम भूलती जा रही हो कि तुम एक डॉक्टर हो, जिन्हें अपनी फीलिंग्स और इमोशन्स अपने घर रखकर क्लीनिक जाना चाहिए।” आज फिर मुझे गुमसुम बैठा देखकर दक्ष ने कहा। “तुम भी भूल रहे हो, मैं सिर्फ डॉक्टर नहीं बल्कि साइकोलॉजिस्ट हूँ, इन फीलिंग्स और इमोशन्स से ही अपने मरीजों के मन की तह तक पहुँच पाती हूँ।” “पागलों का इलाज करते-करते जो तुम अपने खोल में सिमटती जा रही हो ना, मुझे डर है किसी दिन तुम्हें ही किसी डॉक्टर की जरूरत ना पड़ जाए।” मेरा जवाब सुनकर उसने बहुत धीरे से कहा। “दक्ष! वो पागल नहीं हैं….” मैं भड़क गई। “लीव दिस… मैं तो मजाक कर रहा था। मैं मानता हूँ तुम इस शहर की जानी-मानी साइकोलोजिस्ट हो पर मेरी दोस्त भी तो हो.. भई! खाना ऑर्डर करो।” वेटर को हमारी तरफ आता देखकर वो मुस्कुराते हुए बोला। वो सच कह रहा था, मैं बाहर की दुनिया से कटने लगी थी। डिप्रेशन के बढ़ते मरीजों और उनके साथ लंबे-लंबे काउंसलिंग सैशन, उनके आँसू, उनकी हिचकियाँ अक्सर मेरे गले में मछली के कांटें जैसी फँस जाया करतीं। बाहरी दुनिया में कदम रखते ही अजीब-अजीब से ख्याल आने लगते हैं। चलते-फिरते लोगों में न जाने कितने ऐसे मुर्दे लोग हैं जो सम्बन्धों का शव कांधे पर लिए घूम रहे हैं। मुर्दे? हाँ मुर्दे ही होते हैं वो..चलते-फिरते और सांस लेते हुए। साँसों का बन्द होना ही मौत नहीं होती। बहुत करीब से देखा है ऐसों को इन दस सालों में..जो सम्बन्धों और उम्मीदों का गला तो नहीं घोंट पाते पर अपनी साँसों को खत्म करने की कोशिशें जरूर कर चुके होते हैं। “उफ्फ यार! फिर से शुरू हो गईं…ऑर्डर करो भई! वेटर वेट कर रहा..अच्छा छोड़ो मैं ही कर देता हूँ।” उसने मेनू लेते हुए कहा। कितने वक़्त के बाद मैं आज दक्ष के साथ डिनर पर बाहर निकली थी वो भी उसकी जबरदस्ती के कारण। “सॉरी स्वाति, मुझे तुमसे इस तरह बात नहीं करनी चाहिए थी पर कुछ समय से मैं तुममें जरूरत से ज्यादा बदलाव देख रहा हूँ।” वो बहुत गम्भीरता से बोला। मैंने मुस्कुराने की भरसक कोशिश की- “ऐसी कोई बात नहीं दक्ष, थोड़ी थकान हो जाती है। अब खाना खाओ!”   आजकल बिस्तर पर लेटते ही मकड़ियां दिमाग में जाले बुनना शुरू कर देती हैं, और मैं उस जाले में फँसी मक्खी की तरह छटपटाती रह जाती हूँ। क्या सच में मैं अपने मरीजों के हालातों से खुद भी जूझने लगी हूँ? नहीं.. नहीं, शायद मैं अपने अतीत से पीछा नहीं छुड़ा पा रही, केवल भागने की कोशिश कर रही। अनगिनत मरीज मेरे पास आने के बाद ठीक हुए हैं, फिर मैं क्यों नहीं मुक्त हो पाती? उफ्फ! मैं हर बार सर झटककर सोने की कोशिश करती हूँ पर कामयाब नहीं हो पाती। आज भी तो यही हुआ, कोई सामने बैठा जैसे मेरा ही अतीत मुझे सुना रहा था। मुझे चुपचाप एक कोने में बैठी दस साल की लड़की याद आने लगी। उसे पता था, तीन सालों में बहुत कुछ बदल गया है उसकी जिंदगी में। उसकी जिंदगी बदल गयी, उसके प्रति फैसले बदल गए, उसके पापा बदल गए…। जन्मदिन पर चुपचाप उदास बैठने की कोई खास वजह नहीं थी। मम्मी तैयारियाँ कर रही थीं जैसा कि उनके हिसाब से होना चाहिए। तीन साल पहले तक जैसा वो चाहती थी तैयारियां वैसी होती थीं। पापा दस दिन पहले से ही गिफ्ट के लिए पूछना शुरू कर देते। उस दिन सुबह ही उसे बाजार लेकर जाते, पूरे दिन मस्ती और शाम को बर्थडे पार्टी। मां अक्सर कहती थी- “बेटी है अधिक सर पे मत चढ़ाइए, अभी की बिगड़ी आदतें जीवन भर पीछा नहीं छोड़ती हैं। कोई सर पर बैठाने वाला नहीं मिला तो जीवन दूभर हो जाएगा इसका।” हाँ, बेटियों के ‘रहनुमा’ बदलते जो रहते हैं उम्र के साथ-साथ। “चिंता क्यों करती हो! मेरी बिटिया मेरे पलकों पर रहेगी।” पापा की बात सुनकर मां अपना सर पीट लेती। मां एक बीमारी में चली गयी दुनिया छोड़कर। वो बहुत रोई थी, बच्ची ही तो थी.. धीरे-धीरे संतोष कर लिया उसने, उसके पापा तो साथ थे। फिर आईं मम्मी, मां जैसी तो नहीं पर बुरी भी नहीं। उसका और पापा का खूब ख्याल रखती। समझदार इतनी थीं कि उसे बिगाड़ने वाली मां की बात जो पापा कभी नहीं समझे मम्मी की यही बात वो कुछ महीनों में ही समझ गए। जिस घर में बिना उससे पूछे शाम का खाना नहीं बनता था अब मम्मी के हिसाब से हेल्थी खाना बनने लगा। पलकों पर बैठने वाले भूल जाते हैं कि पलक झपकते देर नहीं लगती। वो उम्र से पहले ही समझदार होने लगी थी। जल्द ही समझ गयी, अब फैसले पापा के नहीं मम्मी के हाथ में हैं। उसे किस चीज की जरूरत है ये अब वो नहीं मम्मी सोचती थीं। किस स्कूल में पढ़ना है, ट्यूशन की जरूरत है या नहीं। अब पढ़ाई पर ध्यान देना है उछल-कूद की उम्र खत्म हो रही है, आदि, आदि…। एक शाम मम्मी को तैयार होता देख वो भी अपनी सबसे पसंदीदा ड्रेस ढूँढने लगी थी। “वक़्त से खाना खा लेना गुड़िया! हम जल्दी आ जाएँगे।” मम्मी अपने बाल सँवारती बोलीं। उनकी बात सुनकर वो मन ही मन मुस्कुरायी थी। वो जानती थी पापा उसे छोड़कर कहीं जा ही नहीं सकते। उसे हर जगह साथ लेकर जाने वाली आदत पर मां के साथ पापा की कितनी बार बहस हो जाती थी, फिर भी पापा मानते कहाँ थे। पर, मम्मी मां की तरह झगड़ती नहीं थीं, वो तो बहुत धीरे से समझाती थीं। पापा समझ गए कि बड़ी होती बेटी को हर जगह ले जाना उचित नहीं और … Read more