गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 3

गुज़रे हुए लम्हे

  आत्मकथा लेखन में ईमानदारी की बहुत जरूरत होती है क्योंकि खुद के सत्य को उजागर करने के लिए साहस चाहिए साथ ही इसमें लेखक को कल्पना को विस्तार नहीं मिल पाता | उसे कहना सहज नहीं होता | बहुत कम लोग अपनी आत्मकथा लिखते हैं | बीनू दी ने यह साहसिक कदम उठाया है | बीनू भटनागर जी की आत्मकथा “गुज़रे हुए लम्हे “को आप अटूट बंधन.कॉम पर एक श्रृंखला के रूप में पढ़ पायेंगे | गुज़रे हुए लम्हे -परिचय गुजरे हुए लम्हे -अध्याय 1 गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 2 अब आगे …. गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 3 बेफिक्र किशोरावस्था (लखनऊ.1963-67)   1963 में मैनपूरी के गवर्नमैंट गर्ल्स इंटर कॉलेज से इंटरमीडिएट की परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद फिर सवाल उठा कि अब बी.ए. कहाँ से करवाया जाये। उस समय अच्छा घर वर मिलने के लिये बी.ए. होना काफ़ी था। मैनपुरी में डिग्री कॉलिज था ही  नहीं तो तय किया गया कि लखनऊ के किसी कॉलिज में मेरादाख़िला करवा दिया जाये। उस समय बीबी लखनऊ आ चुकी थी परन्तु उनके ससुर का निधन होने के कारण ससुराल का सारा परिवार उनके पास था, अत: छात्रावास में ही रहने का निश्चय हुआ। उन दिनों दाख़िला मिलना कोई समस्या नहीं थी, जहाँ चाहें वहाँ मिल जाता था, जो विषय लेना चाहें मिल जाते थे। लखनऊ विश्वविद्यालय में भूगोल केवल एक दो कॉलिज में था। मेरी इच्छा थी कि मैं भूगोल लेकर आई. टी. कॉलिज में पढूँ, परन्तु मम्मी को किसी ने बता दिया था कि वहाँ का वातावरण बहुत स्वछंद है , छात्रावास की लड़कियाँ इधर उधर घूमती रहती हैं। मम्मी के दिमाग़ में कोई बात बैठ जाती थी तो फिर वो किसी की नहीं सुनती थीं। बस बी.ए .करना है विषय कुछ भी ले लो,तो मुझे महिला विद्यालय में दाख़िल करवा दिया गया।यहाँ पर मम्मी और मेरे पिताजी की अलग सोच का अंदाज़ होता है।पिताजी ने बीबी को11,12 साल पहले उत्तर प्रदेश के सबसे अच्छे विश्वविद्यालय में भेजा था जबकि मम्मी के लिये सिर्फ बी.ए. हो जाना काफ़ी था। वैसे भी मैं उनकी नज़र में उदण्ड और स्वछंद थी इसलिये मुझ पर बंदिशें ज्यादा थी। अकेली होने की वजह से वो ज़माने से डरती थीं। उनके अनुभवों ने उन्हे हर एक को शक के दायरेमें रखना सिखा दिया था।   महिला विद्यालय लखनऊ के अमीनाबाद में स्थित था, अभी भी है।जिन्होने लखनऊ नहीं देखा उन्हे बतादूँ कि अमीनाबाद दिल्ली के चाँदनी चौक या चावड़ी बाज़ार की तरह का पुराना बाज़ार है। महिला कॉलिज एक बहुत बड़ा कॉलेज/स्कूल है, अब पता नहीं…. पर उस समय यहाँ के.जी. से लेकर बी.ए. बीएड. किया जा सकता था । स्कूल की हर कक्षा के आठ दस सैक्शन थे। बी.ए. का एक बैच चार सौ पाँच सौ लड़कियों का होता था। सीटों की सीमा कहीं नहीं थी जो आ जाये जगह अपने आप बन जाती थी। पढ़ाई बहुत कम ख़र्च में बहुत अच्छी थी। तीन  छात्रावास थे एक इंटरमीडिएट तक की छात्राओं के लिये और बाकी डिग्री कॉलेज  की छात्राओं के लिये थे। अमीनाबाद जैसे बाज़ार में सड़क पर केवल गेट दिखता था, शायद अभी भी कोई बदलाव नहीं हुआ होगा। दुकानों के बीच, कोई अंदाज़ नहीं लगा सकता कि उसके भीतर इतना बड़ा कैंपस है, ये छात्रावास नहीं ये लड़कियों की जेल थी। यहाँ से कदम बाहर निकालने के लिये स्थानीय अभिभावक  की इजाज़त लेनी होती थी, बीच बाज़ार में होते हुए भी अपनी ज़रूरत की चीज़ लेने भी बाहर नहीं जा सकते थे। ज़रूरत का सामान छात्रावास की नौकरानी ही लाकर देती थी।कमरों में एक बल्ब की रौशनी के अलावा कोई सुविधा नहीं थी गर्मियों में पंखा भी किराये का मँगाते थे, वहाँ बिजली डी.सी. हुआ करती थी , डी सी बिजली के कारणपंखे भी धीरे धीरे चलते थे।गर्मियों में बरामदों में सोते थे। नीचे के फ्लोर वाली लड़कियाँ तो लॉन में अपनी चारपाई डाल लेती थीं। सर्दियों में नहाने का पानी मैस से लेने के लिये लाइन लगती थी, रोज तो  नहीं नहा पाते थे।मैस का खाना ठीक ठाक था। आठ लड़कियों पर एक नौकरानी होती थी जो उनके बर्तन धोती संभालती थी, कमरों में झाड़ू पोंछा करती थी और लड़कियों की ज़रूरत का सामान बाज़ार से लाकर देती थी। शाम की चाय के साथ कभी समोसे, कचौरी या पकौडी मिलती थीं, तो रात के खाने की छुट्टी हो जाती थी।   बी.ए. के सभी इम्तिहान यूनिवर्सिटी कैंपस में होते थे। एक दिन पहले ही जिनके इम्तिहान होते थे उनकी सूची बन जाती थी और मेट्रन सबको उनके परीक्षा भवन पर छोडकर वहीं कहीं इंतज़ार करती थी और रिक्शों में ही वापिस लेकर आती थी।यानी लड़कियों  को अपनी मर्ज़ी से हिलने की भी इजाज़त नहीं थी, सुरक्षा के पुख़्ता इंतज़ाम थे। हमें ये बाते उस वक़्त परेशान नहीं करती थी बल्कि सुरक्षित होने का अहसास होता था। हमें मिलने की इजाज़त केवल उन ही  लोगों से थी जिनके नाम और हस्ताक्षर घरवालों ने दे रखे हों।बीमार होने पर मेट्रन ही डॉक्टर के पास ले जा सकती थी।सिनेमा जाना होता था तो पहले सूची तैयार होती थी, यदि बीस नाम आगये तो मेट्रन के साथ रिक्शों में काफिला चलता था। पहुँचने पर देखा जाता था कि क़ैदी पूरे हैं कि नहीं , वापसी में भी गिनकर लाया जाता था।इस तरह एक दो बार मूवी देखने के बाद कभी कैदियों की तरह जाने का मन ही नहीं किया।   मैनपुरी से ही मेरे स्कूल की एक सहेली उषा कुशवाहा ने भी महिला कॉलिज में दाख़िला लिया था और छात्रावास में भी थी। मैनपुरी में हमारी काफ़ी दोस्ती भी थी। यहाँ बी. ए. में हमने बिलकुल अलग विषय लिये थे, धीरे धीरे मेरी और उसकी अलग अलग सहेलियाँ  बनने लगी और उसके साथ समय बहुत कम बीतने लगा।यहाँ मेरी दो ख़ास सहेलियाँ थीं ललिता कपूर और उमा अग्रवाल। ललिता के साथ दो विषय मिलते थे और उमा के साथ बस एक। दोनों ही छात्रवासीय थी।दिवसीय छात्राओं से दोस्ती करने का मौक़ा कम मिलता था हम दिन रात साथ रहने वाले ही बहुत थे।ललिता कपूर से अब तक संपर्क बना हुआ है पर उमा  से बी ए करने के बाद ही संपर्क कम होता चला गया, उसने संस्कृत मे ऐम ए किया था।उस समय पत्रों … Read more

गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 2

बीनू भटनागर

  आत्मकथा लेखन में ईमानदारी की बहुत जरूरत होती है क्योंकि खुद के सत्य को उजागर करने के लिए साहस चाहिए साथ ही इसमें लेखक को कल्पना को विस्तार नहीं मिल पाता | उसे कहना सहज नहीं होता | बहुत कम लोग अपनी आत्मकथा लिखते हैं | बीनू दी ने यह साहसिक कदम उठाया है | बीनू भटनागर जी की आत्मकथा “गुज़रे हुए लम्हे “को आप अटूट बंधन.कॉम पर एक श्रृंखला के रूप में पढ़ पायेंगे | अध्याय दो -थोडा खुश सा बचपन (हरिद्वार, अलीगढ़ और मैनपुरी 1956-63) बुलंदशहहर में मै जिस स्कूल में पाँचवीं कक्षा में गई मुझे उसका नाम याद नहीं है,पर मेरा नाम बीनू कैसे लिखवाया गया वह कहानी याद है। उस समय जन्म प्रमाणपत्र तो बनते नहीं थे, न नाम रखने की जल्दी होती थी, न स्कूल भेजने की जल्दी होती थी। मुन्नी, गुड़िया या गुड्डी से काम चल जाता था। स्वतंत्रता प्राप्त होने के एक महीने बाद आने के कारण स्वतंत्र कुमारी या स्वतंत्रता देवी जैसे नामों के सुझाव भी आये थे।बड़ी बहन कुसुम थीं. तो छोटी बहन का नाम कुमुद या कुमकुम घर वालों ने सोचा हुआ था। कुमकुम और कुमुद के बीच से एक चुनने की बात थी………………. फिर मैं बीनू कैसे हो गई! दरअसल हुआ यह कि मैं ख़ुद को बीनू कहने लगी थी। बचपन में एक दोस्त था जिसका नाम बीनू था, उस दोस्त की मुझे याद भी नहीं है, मैं उससे और उसके नाम से प्रभावित थी, इसलिये मैं ख़ुद को बीनू कहने लगी थी, बचपन में मेरी कितनी बातें मानी जाती रहीं थी ये तो नहीं पता ,पर स्कूल में मेरा नाम बीनू ही लिखा दिया गया, मेरी यह बात मान ली गई,काश यह बात न मानी गई होती तो अच्छा था। इस नाम के कारण जो परेशानियाँ उठानी पड़ीं, उनकी चर्चा आगे आने वाले पन्नों में करूँगी। हरिद्वार आकर मुझे बहुत अच्छा लगने लगा था मेरा छोटा सा भांजा था ,उससे खेलने में मज़ा आता था। मेरा दाखिला एक स्कूल में करवा दिया गया था जिसका मुझे नाम भी याद नहीं है, न किसी सहेली का न किसी अध्यापिका का चेहरा जेहन में है। ताज्जुब की बात ये है कि बुलंदशहर की सहेलियों दोस्तों की हल्की सी छवि दिमाग़ में है, पर हरिद्वार के स्कूल के बारे में कुछ याद ही नहीं है। यह स्कूल गंगा नहर के किनारे था, ब्रेक में पानी में पैर लटका कर सीढ़ियों पर बैठकर नाश्ता खाते थे।कोई हादसा न हो इसलिये आगे चेन लगी हुई थीं हरिद्वार के एक साल प्रवास की बस ये ही याद हैं। मैं हमेशा ही पढ़ाई ख़ुद कर लेती थी, वह कोई समस्या नहीं थी। हरिद्वार में भाई साहब का सरकारी बँगला था जो काफ़ी बड़ा था, ज़मीन भी बहुत थी, ख़ूब सब्ज़ियाँ होती थी। लॉन भी बहुत बड़ा और सुन्दर था। लाड़ प्यार और अनुशासन का सही समन्वय चल रहा था , मैं ख़ुश थी। बुलंदशहर में अब कोई नहीं था।भैया की पढ़ाई ख़त्म हो गई थी वह उत्तर प्रदेश सरकार में बिजली विभाग में इंजीनियर नियुक्त हो गये थे, उनकी पहली नियुक्ति मैनपुरी में हुई थी।मम्मी को उनके लिये अब लड़की की तलाश थी जो भैया के साथ साथ उनसे भी निभा सके।भैया की शादी तय हो गई । बुलंदशहर का जो सामान उन्होनें इधर उधर रखवा दिया था मैनपुरी भेजकर भैया का घर उसके साथ बसाना शुरू हो गया था।मम्मी मैनपुरी और सिकंद्राबाद के बीच आती जाती रहीं, नानी अकेली सिकंद्राबाद रहती रहीं थी, हालाँकि बहुत से रिश्तेदार उसी मकान के अलग अलग हिस्सों में रहते थे।ज़मीने ज़्यादातर बिक चुकी थीं, थोड़ी बहुत बाकी थीं। सिकंद्राबाद का मकान किसका था, किसने किराये पर लिया मुझे नहीं पता । नानी उपर के पिछले हिस्से में रहती थीं। नीचे उनकी छोटी बहन रहती थीं, बाकी हिस्से उनके दूसरे रिश्तेदार रहते थे। मेल मिलाप लड़ाई झगड़े सब होते थे, पर मुश्किल के समय पूरा कुनबा एक हो जाता था।वहाँ मेरे तो सारे मौसी मामा ही थे,उस समय आज की तरह आँटी अँकल नहीं कहलाते थे।।इस मकान का किराया 15 रु था जिसमें से मेरी नानी 3 रु देती थीं।कुनबे के एक सदस्य ये किराया किसको भेजते थे ,इसकी जानकारी मम्मी की कोशिशों के बाद उन्हे नहीं मिली। हरिद्वार से मैंने छटी कक्षा पास कर लीथी, अब मुझे मैनपुरी बुला लिया गया, मैं वहाँ सातवीं कक्षा में दाख़िल हो गई थी। यह सरकारी स्कूल था ,पर यहाँ पढाई बड़ी लग कर होती थी। हर विषय की बुनियाद काफ़ी मजबूत करवाई जाती थी। मुझे पढ़ाई बोझ नहीं लगती थी ,पढ़ना अच्छे नम्बर लाना मुझे अच्छा लगता था ,परन्तु घर में किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता था चाहें जैसे नम्बर आयें। मम्मी का क्रोध भी कम होने लगा था। 1957 नवम्बर के महीने में भैया की शादी हो गई, बारात बस द्वारा मैनपुरी से मथुरा गई थी । बारात उन दिनो तीन दिन रुकती थी। शादी के बाद भैया को छोड़कर सारे बाराती वृंदाबन घूमने गये, भैया को उनके ससुराल वालों ने रोक लिया था। वृंदावन में एक हादसा हो गया जो आज भी मेरे ज़हन में ताज़ा है। वहाँ निधि वन में मैं अपने रिश्तेदारों को छोड़कर किसी दूसरे समूह के साथ चलने लगी कुछ देर बाद अंदाज़ हुआ कि अपने लोग नहीं हैं, सब अजनबी हैं। मैं अपनों से बिछड़कर रोने लगी, मुझे न मथुरा का पता मालूम था, न बस के बारे में कि कहाँ खड़ी है।एक भले परिवार ने मुझे मेरे परिवार से मिलाने की ज़िम्मेदारी उठाई बहुत पूछने पर मैं जो कुछ बता पाई उस मंदिर के बारे में जहाँ हमारी बस खड़ी थी,उसी जानकारी के आधार पर वे लोग मुझे बस तक पहुँचा गये।मैने भी बस चालक को पहचान लिया तो वे लोग चले गये। सारे रिश्तेदार मुझे ढूँढने निकल पड़े थे, सबसे ज्यादा परेशान सुरेन भैया और भाई साहब थे, क्योंकि सबसे ज्यादा जिम्मेदारी उनकी ही थी,सबसे नज़दीकी वो दोनो ही थे । सबको इक्ट्ठा करने में वक़्त लगा ।बस अंत भला तो सब भला !अब भी सोच के डर लगता है कि भले परिवार की जगह किसी ग़लत गिरोह के लोग होते तो न जाने मेरी ज़िन्दगी क्या होती, पर जो नहीं हुआ उसके बारे में ज्यादा न सोचूँगी न … Read more

गुजरे हुए लम्हे -अध्याय एक

शैशव व कुछ घबराया सा बचपन

  हम सब का जीवन एक कहानी है पर हम पढ़ना दूसरे की चाहते हैं | कोई लेखक भी अपनी कहानियों में अपने आस -पास की घटनाओं को संजोता है | कोई लेखक कितनी भी कहानियाँ लिखे उसमें उसके जीवन की छाया या दृष्टिकोण रहता है ही है| आत्मकथा उनको परदे में ना कह  कर खुल कर कहने की बात है | आत्मकथा लेखन में ईमानदारी की बहुत जरूरत होती है क्योंकि खुद के सत्य को उजागर करने के लिए साहस चाहिए साथ ही इसमें लेखक को कल्पना को विस्तार नहीं मिल पाता | उसे कहना सहज नहीं होता | बहुत कम लोग अपनी आत्मकथा लिखते हैं | बीनू दी ने यह साहसिक कदम उठाया है | इस आत्मकथा “गुज़रे हुए लम्हे “को आप अटूट बंधन.कॉम पर एक श्रृंखला के रूप में पढ़ पायेंगे |     अध्याय 1 शैशव व कुछ घबराया सा बचपन (बुलंदशहर1947-56)   1947  सितम्बर  का महीना अफरा तफरी का माहौल, स्वतंत्रता मिलने  की ख़ुशी और विभाजन की त्रासदी, उत्तर प्रदेश का एक छोटा सा शहर………… बुलंदशहर ,वहाँ श्री त्रिलोकीनाथ भटनागर का परिवार  जहाँ से ये कहानी शुरू हुई। श्री त्रिलोकी नाथ के बहुत से रिश्तेदार पाकिस्तान की तरफ रहते थे,  जिन्होंने आकर उनके यहाँ शरण ली थी।  करीब पन्द्रह बीस लोग तो अवश्य वहाँ आये हुए थे ,उनकी हर तरह से देख भाल की ज़िम्मेदारी त्रिलोकीनाथ जी और उनकी पत्नी की थी। त्रिलोकी नाथ जी बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय से इंजीनियर थे, और बिजली  वितरण  की एक कंपनी में उच्चाधिकारी थे।ज़िलाधिकारियों से उनकी अच्छी जान पहचान,उठना बैठना था। संपन्न परिवार था,रिश्तेदार उनके यहाँ चाहें जितने समय तक रह सकते थे। काम करने के लिये भी नौकरों चाकरों  की कमी  नहीं थी। त्रिलोकी नाथ जी की तीन संतानें थी सबसे बड़े रवींद्रनाथ उस समय 16 वर्ष के थे, बेटी कुसुम 13 साल की और छोटे बेटे सुरेंद्र नाथ 11 साल के थे। 11साल बाद उनकी पत्नी फिर गर्भवती थीं, इस समय बहुत बड़ा घर भी मेहमानों से भरा हुआ था इसलिये वे अधिक आराम भी नहीं कर पाती थीं। 14  सितम्बर की रात में शील भटनागर जी ने एक बेटी को जन्म दिया। जी हाँ, आपने सही समझा,  ये मैं ही हूँ, जिसने बटवारे और आज़ादी मिलने के बाद दुनिया में कदम रखा। श्री त्रिलोकीनाथ और श्रीमती शील भटनागर की सबसे छोटी संतान।   अब मैं अपनी कहानी अपनी ज़ुबानी कहूँगी। मेरे दादा दादी का घर अंबाला में था , परंतु वे मेरे जन्म से बहुत पहले परलोक सिधार गये थे, दादा जी वकील थे अंबाला में बहुत अच्छी प्रैक्टिस थी, वहाँ के धनी लोगों में से एक थे ,उनकेएक बेटीऔर तीन बेटे थे । मेरे पिताजी सबसेछोटेऔर सबसेकाबिलथे । छोटे ताऊ जी भी वकील थे ,अच्छा कमाते थे ,पर कुछ बुरी आदतों की वजह से कभी सुख चैन से अपनी गृहस्थी सही तरीके से नहीं संभाल पायेथे। भुआ जल्दी ही गुज़र गईं थीं,बड़े ताऊ जी को भी मैंने नहीं देखा था,हाँ दोनों ताई जी की याद हैं।   माँ को मैं मम्मी ही कहती थी,  वे दो बहने थीं, बड़ी बहन की युवावस्था में ही मृत्यु हो गई थी इसलिये हमें हमेशा यही लगा कि वे अपने माता पिता की इकलौती संतान थीं। नानाजी बुलंदशहर के पास ही एक कस्बे सिकंद्राबाद में रहते थे। वे एक स्कूल में अध्यापक थे, छात्रावास के वार्डन भी थे। आसपास पास के गाँव  से बच्चे आकर छात्रावास में रहते थे ।गाँवों के बच्चों के लिये छोटे कस्बों के मामूली स्कूलों में भी  उन दिनों छात्रावास की व्यवस्था होती  थी। नानाजी के छात्रावास में एक लड़का चोखे  लाल काम करता था, ये आगे जाकर हमारे परिवार का अहम हिस्सा बना , इस वजह से इनका यहाँ जिक्र किया है। मेरे नानाजी बहुत संपन्न नहीं थे, पर कोई कमी भी नहीं थी,वे हमेशा किराये के घर में रहे , अपनी छोटी सी तनख़्वाह से खेती के लिये ज़मीनें और फलों के बाग़ ख़रीदते रहते थे । यह उनके निवेश का तरीका था। यह जमीनें वे खेती करने के लिये किसानों को ठेके पर दे देते थे, जिससे फसल का कुछ हिस्सा और कुछ अतिरिक्त सालाना आमदनी हो जाती थी। नानी के घर में हमेशा ताजी खेत की सब्जियाँ और मौसम के फल होते थे,  अनाज भी सब उनके  अपने खेतों का ही होता था।  सेवानिवृत्त होने के बाद तो नाना जी का पूरा ध्यान खेती पर ही रहा, अच्छी आमदनी होती तो और खेती की ज़मीन ख़रीद ले लेते थे,पर कभी मकान बनाने पर विचार नहीं किया।यह किराये का मकान ही सदा उनका घर रहा यहाँ का माहौल भी कुछ विचित्र सा था जिसकी चर्चा फिलहाल स्थगित करती हूँ, आगे आने वाले पन्नों में जरूर करूँगी।   जिस घर में मेरा जन्म हुआ था ,पहले नौ वर्ष उसी घर में बीते, कुछ याद है, कुछ तस्वीरें हैं , कुछ सुनी हुई बातें हैं। वह बहुत बड़ी दो मंज़िला कोठी थी, जिसको पिताजी की कंपनी ने किराये पर लिया हुआ था, उसके एक हिस्से में उनका दफ्तर था। मेरे जन्म से 14,15 साल पहले से मेरा परिवार उसी कोठी में रहता था। मुझे बताया गया था कि मेरे बड़े भाई जिनका मैं जिक्र कर चुकी हूँ उनको छोड़कर मेरी बहन और दूसरे भाई भी उसी कोठी में पैदा हुए थे। मेरे पिताजी का अंग्रेजों के साथ उठना बैठना था इसलिये हमारे परिवार में थोड़ी अंग्रेज़ियत थी,जैसे डाइनिंग टेबुल पर खाना खाना, अलग ड्राइंग रूम होना। बाकी सामान याद नहीं पर वह डाइनिंग टेबल बहुत बड़ी और भारी थी। मेरे कज़िन ने बतायाथा कि वह डाइनिंग टेबुल सिकंद्राबाद के एक बढ़ई मंगत ने बनाई थी। 30 के दशक के पूर्वार्द्धमें मम्मी  के दहेज़ में आई थी। वह डाइनिंग टेबुल बिना किस्सी मरम्मत के मेरे इन ही कज़िन के घर मे अभी भी उपयोग में है। बस उसमें उन्होंने टॉप पर लाल रंग का माइका लगवा लिया है।संभवतः बाकी फर्नीचर भी वहीं का बना हुआ था।   पिता जी की कंपनी ने उन्हें दो तीन नौकर और एक रसोइया घरेलू काम के लिये दे रखेथे। रसोइये की जगह मेरे नाना जी ने अपने छात्रावास से चोखे लाल को भेज दिया था। वह खाना बनाने काम बहुत अच्छी तरह से सीख चुके थे। हमारे घर … Read more