मैं जिंदा हूँ..

archana anupriya

विज्ञान कहता है कि पेड़ -पौधे भी हमारी तरह सजीव होते हैं .. बढ़ते हैं, खिलते हैं और अपना वंश आगे बढ़ाते  हैं | पर क्या वो बोलते भी हैं ? आयुर्वेद की माने तो ‘हाँ” | कहते हैं हमारे ऋषि मुनि पेड -पौधों से बात करते थे ,औषधीय पेड़ों से पत्तियां ,फूल आदि तोड़ने का विशेष समय और प्रार्थना होती थी | प्रकृति के साथ रिश्ता बनाने के लिए ही पेड पौधों की पूजा का प्रावधान था |विकास की दौड़ में मनुष्य सब कुछ भूलता गया | प्रकृति के साथ साझी भावनाएँ केवल उदरपूर्ति का साधन रह गई .. विकास की अंधी दौड़ बस उसे भगाए लिए जा रही है | कभी सोच है क्या बीतती है हमारे इन सजीव रिश्तों पर | आइए जाने एक पेड की कहानी उसी  की जुबानी .. “मैं जिंदा हूँ..”   कस्बे का शहरीकरण हो रहा था और आसपास के सभी गाँवों को जोड़ा जा रहा था। उस चुनावी क्षेत्र के सांसद, रंजीत राय जी एक दबंग इंसान थे और केंद्र में उन्हीं की पार्टी की सरकार भी थी। चुनावी वादों को पूरा करने के ख्याल से कस्बे और आसपास के गाँवों को मिलाकर शहरीकरण करने का प्रस्ताव उन्होंने येन केन प्रकारेण तरीके से पास करवा लिया था और अब पक्की सड़क का निर्माण कार्य किया जा रहा था। जाहिर है, सड़कों के निर्माण के रास्ते में जितने पेड़-पौधे व्यवधान उत्पन्न कर रहे थे, वे सभी सरकारी हुक्म से कानून का सहारा लेते हुए बड़ी निर्ममता से हटाए जा रहे थे। पकड़ी गाँव के पास का बूढ़ा बरगद बहुत सहमा हुआ और उदास था। उसके आसपास के छोटे बड़े पेड़ काटे जा रहे थे और आज न कल उसकी बारी भी आने ही वाली थी। वह बरगद शतायु था और करीब सौ-डेढ़ सौ वर्षो से इस गाँव के पास खड़ा था- किसी प्रहरी की तरह,एकदम तना और सजग…मजाल है कि उसकी शाखाओं के नीचे से गुजरे बगैर कोई गाँव की राह पकड़ ले।एक पूरा युग उसने मानवता और समाज को गिरते और गिर कर उठते देखा था।आजकल वह दिन भर  डरा- सहमा सा रहता क्योंकि सारा-सारा दिन सरकारी ठेकेदार मजदूरों की टोली के साथ सड़कों का नक्शा खींचते रहते थे और कुल्हाड़ी,बुलडोजर,क्रेन आदि के साथ वृक्षों के काटने का कार्यक्रम चलता रहता था। कितने संगी साथी.. जिन्हें उसने पैदा होते देखा था,जिनसे रोज बातें किया करता था.. इस शहरीकरण की भेंट चढ़ चुके थे। शाम ढलते अंधेरा घिरने पर जब सभी वहाँ से चले जाते तब जाकर कहीं वह थोड़ी देर चैन की सांस ले पाता था।वह भी सिर्फ रात भर ही क्योंकि अगले दिन सूरज निकलते ही पुनः काम आरंभ होता और फिर से वही दहशत उसे घेर लेती। रात भर वह बूढ़ा बरगद चिंता में डूबा रहता, नींद नहीं आती थी उसे… जाने क्या-क्या सोचता रहता था। अगल-बगल के काटे गए वृक्षों के विषय में सोच कर मन भर आता था उसका-“आखिर उम्र ही क्या थी उनकी? वो बेर का पेड़.. अभी अभी तो बड़ा हुआ था, आम के पेड़ पर अगले साल से मँजरियाँ आ जातीं.. सखुआ, शहतूत, नीम, पीपल- ऐसे ही जाने कितने ही साथी और युवा तथा बच्चे-वृक्ष शहरीकरण की बलि चढ़ाए गए थे। खुद वह… कितना खुश था यहाँ.. न जाने कब से इस नदी के साथ हँसता- खेलता बरसों से वहाँ खड़ा था, परन्तु,अब देखो, कैसा डरा सहमा सा है…”न जाने मानव को क्या होता जा रहा है कि अपने विकास के रास्ते में हमें दुश्मन समझ रहा है.. अरे,हम पेड़ -पौधे तो जीवन हैं उनके,हम ही न होंगे तो वह जियेगा कैसे?ऐसे में कैसा विकास?विधाता ने भी हमें कितना असहाय बनाकर भेजा है,कैसे कहें मानव से मन की बात?हम देना तो जानते हैं पर अपनी रक्षा करने में असमर्थ हैं। कोई काटे तो कटना ही पड़ता है,मना भी नहीं कर पाते,किसी मनुष्य को अपने मन का दर्द कह भी तो नहीं सकते,हमारी इच्छा की परवाह भी किसे है?..ओहहह..।” बरगद सोच-सोचकर दुखी हो रहा था।उसे वह साल भी याद है, जब गांव के सारे मेहनतकश लोगों ने चंदा इकट्ठा करके उसे सीमेंट से घेरा था और उसके चारों तरफ गोल सा चबूतरा बना दिया गया था… बिल्कुल किसी नन्हीं गुड़िया की फैली हुई फ्रॉक की फ्रिल की तरह..कितना खुश था वह उस दिन…झूम-झूमकर हवाओं के संग नाचा था। बगल में थोड़ी ही दूरी पर बहती हुई नदी से अक्सर वह बात कर लिया करता था।दोनों अपना सुख- दुख बरसों से आपस में बाँटते आ रहे थे।गांव के लोग भी उसे बहुत प्यार करते थे और प्यार से उसे दादा कह कर पुकारते थे। दादा ही तो था वह आसपास के सभी गाँवों का। लोग आते, उससे आशीर्वाद लेते, फूल प्रसाद चढ़ाते, सुहागिनें गीत गाती हुई लाल पीला धागा बांधकर चारों ओर घूमकर फेरी लगातीं, सुहाग के लिए दुआएँ मांगतीं, थके हारे ग्रामीण लोग उसकी घनी छाया में घंटों बैठकर बतियाते,हंसी ठिठोली करते, चांदनी रात में ढोल मंजीरे के साथ गाते बजाते…गांव की, शहर की, देश की राजनीति और बड़ी-बड़ी नीतियों पर चर्चा होती,बच्चे लुकाछिपी खेलते,थक जाते तो वहीं ठंडी छाया में पैर पसार कर सो लेते, सत्तू की रोटी और सब्जी लेकर गाँव की नवविवाहितायें उसके बड़े से घेरे वाले तने की ओट में सास ननद से छुपकर अपने पति को भोजन खिलातीं, प्रेमी प्रेमिका के जोड़े उसकी ओट में छिप कर एक दूसरे से मिलते और जन्मों- जन्म साथ रहने की कसमें खाते.. गांव के हर व्यक्ति का राज वह बूढ़ा बरगद जानता था। वह बूढ़ा बरगद ही तो था जिसे पता था कि रतन चौधरी की बेटी रमिया अपने विवाह से पहले उसी गांव के गरीब दलित फेकू माँझी के बेटे, रमेश से प्रेम करती थी।जाति-पाँति के डर से प्रेमाग्नि के फेरों के साथ जन्मों का बंधन तो नहीं बन सका लेकिन विवाह के बाद आज भी जब वह मायके  वापस आती है तो रमेश से मिलने भरी दोपहरी में, जब सब सो रहे होते हैं,यहीं आती है और इसी बरगद की ओट में दोनों छुप कर एक दूसरे का हालचाल लेते हैं,एक दूसरे का दुख सुख सुनते हैं और अगले जन्म में साथ रहने की कसमें खाते हैं।गांव का मुखिया, रतन चौधरी अपनी चौपाल भी यहीं लगाता है। किसी भी तरह के … Read more