मिसेज़ चटर्जी वर्सस नॉर्वे और लीड्स में हुई हिंसा

मिसेज़ चटर्जी वर्सस नॉर्वे और लीड्स में हुई हिंसा

लंदन से प्रकाशित पुरवाई के संपादकीय कई मुद्दों पर सोचने को विवश कर देते हैं। ‘प्रवासी हिंसा और दंगे” ऐसा ही संपादकीय है जिसने मुझे उसपर लिखने को विवश कर दिया l आदरणीय तेजेंद्र शर्मा जी अपने संपादकीय में लिखते हैं कि, “ब्रिटेन में ऐसे बहुत से इलाक़े हैं जिनमें एक ख़ास किस्म के प्रवासी एक समूह की तरह रहते हैं और अपने रीति-रिवाजों के साथ वहां जीते हैं। ये सभी प्रवासी ब्रिटेन में आर्थिक कारणों से ही बसने के लिये आए हैं। इनमें से बहुतों ने राजनीतिक शरण ले रखी है; वे ब्रिटेन की सोशल सेवाओं का पूरा लाभ उठाते हैं। मगर वे ब्रिटेन की मुख्यधारा में शामिल होने का प्रयास नहीं करते। संपादकीय मुख्य रूप से पिछले दिनों ब्रिटेन के शहर लीड्स के हेयरहिल्स इलाके में हुई हिंसा और दंगों पर केंद्रित है, जहाँ एक भाई ने अपने छोटे भाई को बेदर्दी से मारा और उसे घायल कर दिया। माँ-बाप बच्चे को अस्पताल ले गये तो अस्पताल के कर्मचारियों ने सोशल सर्विस विभाग को सूचित कर दिया। सोशल सर्विस विभाग के कर्मचारियों ने उस परिवार के बच्चों को परिवार से अलग करने का निर्णय लिया क्योंकि उस परिवार में बच्चों को हिंसा के कारण जान का ख़तरा था। जैसे ही बच्चों को ले जाया जाने लगा, लोग इकट्ठे होना शुरू हो गये। भीड़ उग्र हो गई l मिसेज़ चटर्जी वर्सस नॉर्वे और लीड्स में हुई हिंसा सर ने ब्रिटेन की बात की, पर अलगाववादी फैलाव भारत और पूरे विश्व में है। हमारा अपना देश भी ऐसे समूहों से जूझ रहा है l कभी एक सज़ा के रूप में प्रचलित ‘गैटो’ शब्द अब एक हथियार के रूप में इस्तेमाल हो रहा है। निजी तौर पर अपनी संस्कृति का आदर या उसे अपनी जीवन शैली में शामिल रखना गलत बात नहीं है, पर भीड़ में बदल कर कानून के खिलाफ़ हो जाना, संस्कृति का नहीं सत्ता का एक रूप है। रही बात बच्चों को मारने पीटने की तो इसे तो सही नहीं कहा जा सकता। मेरा एक अस्पताल में आँखों देखा केस है, एक पिता ने अपनी बच्ची को इतना मारा कि उसकी एक आँख की रोशिनी चली गई l पास खड़ा पिता रो रहा था, पर गुस्से में उस समय खुद को काबू में नहीं रख पाया। मेरा रंग में ऐसिड विक्टिम का एक कार्यकम देखा था l पिता ने माँ पर गुस्से में तेजाब फेंका और माँ का पल्लू पकड़ कर खड़ी बच्ची की आँखों में चला गया, और रोशिनी छीन ली l   देवी-देवता के स्थान पर बैठाए गए माता-पिता भी कितने परिपक्कव है? ये भी सोचने का विषय है। अपने देश में भी जब मार-पिटाई जायज मानी जाती थी, तब बच्चे संयुक्त परिवार में रहते थे। इतनी हिंसक पिटाई से बचाने वाला कोई न कोई घर में रहता था। बड़े बुजुर्गों से सुना है, ज्यादा मारोगे तो ‘मरकहा हो जाएगा’ यानि मार का असर नहीं पड़ेगा। स्त्रियों पर हाथ ना उठाने का संस्कार तो हम कबका भूल चुके हैं। मुझे तो लगता है कि हल्की-फुकी चपत और हिंसात्मक पिटाई में अंतर है, और आज जबकि सहनशक्ति कम हो गई है, यहाँ के माता-पिता को भी कानून के दायरे में लाना चाहिए। वैसे “मिसेज़ चटर्जी वर्सस नॉर्वे” जैसी फिल्म प्रवासी भारतीयों की एक अलग ही कहानी कहती है। फिल्म में मुख्यतः देबिका की कहानी को दिखाया गया है जिसमें वो अपने पति अनिरुद्ध, पुत्र शुभ और पाँच माह की बच्ची सुची के साथ नॉर्वे के स्टवान्गर नामक स्थान पर रहती है। नॉर्वेजियन चाइल्ड वेलफेयर सर्विसेज के दो कर्मचारी तब तक उनके घर पर नियमित तौर पर आते थे जब तक वो शुभा और सुचि को लेकर नहीं चले गये। चटर्जी परिवार को बता दिया गया कि वो अपने बच्चों की देखभाल करने में सक्षम नहीं हैं, अतः देबिका ने सरकार पर मुक़दमा करने का निर्णय लिया और अपने बच्चों की अभिरक्षा वापस प्राप्त की l   ये कहानी  प्रवासियों को परेशान करके पैसे ऐंठने का ये सत्ता का नया रूप हैl सही क्या है गलत क्या है, ये हम निष्पक्ष होकर नहीं कह सकते l मेरे विचार से अगर किसी कानून से दिक्कत भी है, तो भीड़ की सत्ता का हिंसात्मक प्रदर्शन करने के स्थान पर लोकतांत्रिक तरीके से अपना विरोध दर्ज किया जा सकता है, पर उसके लिए देश को अपना समझना होगा, देश को प्रवासियों को । एक शानदार, विचारणीय संपादकीय के लिए बहुत बधाई वंदना बाजपेयी

ढ़ेर सेर चाँदी -सारांश व समीक्षा

ढ़ेर सेर चाँदी

अंत हीन दुख, निराशा, पीड़ा अवसाद की ओर धकेलते हैं और अगर घनघोर निराशा की बीच आस की अंतिम किरण भी डूब जाए तो व्यक्ति अपना मानसिक संतुलन कैसे संभाले l नईका के साथ भी यही हुआ l मैं बात कर रही हूँ अभी हाल में घोषित हुए रमाकांत स्मृति पुरुस्कार से सम्मानित आशा पांडे जी की कहानी ‘ढ़ेर सेर चाँदी’ की l कहानी पढ़ते हुए मुझे रहीम दास जी का एक दोहा याद आ रहा था l रहिमन चुप बैठिए, देख दिनन के फेर नीके दिन जब आत हैं बनत ना लगिहे देर मतलब ये जीवन सुख-दुख से बना है l दुख के बाद सुख, सुख के बाद दुख आना ही आना है तो जब दुख हो, धैर्य के साथ प्रतीक्षा करनी चाहिए l   ढ़ेर सेर चाँदी सारांश व समीक्षा  परंतु कहानी में नईका के जीवन में जब दुख एक बार दस्तक देता है, तो उजास के लिए कोई छेद नहीं छोड़ता l क्योंकि उसका दुख ईश्वर प्रदत्त नहीं है, उसका दुख अपनों द्वारा दिए जाने वाले धोखे का दुख है, तो सरकार द्वारा दिए जाने वाले धोखे का भी l मनुष्यता के पतन का दुख है l जिसकी पृष्ठभूमि में दुख और अवसाद में बौराए इंसान को पागल करार देने वाला समाज है l ग्राम्य समाज और सूक्ष्म मानवीय संवेदनाओं की चितेरी आशा जी की कहानी हमें गाँव समाज के पुराने दौर में ले जाती है l कहानी की नायिका नईका जब मायके से विदा होती है तो उसकी माँ उसे ढ़ेर सेर चाँदी देती है l उस समय और समाज के लिए ये बहुत बड़ी बात थी, जहाँ आधे सेर से ज्यादा चाँदी लेकर कोई बहु नहीं आती थी l ससुराल भी ठीक-ठाक था l डेढ़ बीघा ज़मीन को जोत सास-ससुर और पति भग्गू करके घर में अनाज की कमी नहीं होने देते l घर के पीछे की ज़मीन में साग-भाजी उग जाती l जिंदगी यू टर्न तब लेती है जब चिकित्सा विभाग द्वारा, अपनी रिपोर्ट्स में नसबंदी के ऑपरेशन की निश्चित संख्या दिखाने के लिए जबरन पकड़ कर किया गया अत्याचार भग्गू को ऐसे भयंकर अवसाद में ले लेता है कि उसके मुँह से आवाज़ निकलना बंद हो जाती है और नईका के जीवन में आस-औलाद की सारी उम्मीदें खत्म l   एक मुसीबत हज़ार मुसीबत लेकर आती है l नईका के जीवन में जहाँ अगली पीढ़ी को लाने की उम्मीद का दिया बुझ चुका है l वहीं सास-ससुर अपने बेटे की आवाज़ वापस लाने के लिए गले बराबर लगे हुए हैं l पड़ोस में चचेरे भाई अंत हीन दुख, निराशा, पीड़ा अवसाद की ओर धकेलते हैं और अगर घनघोर निराशा की बीच आस की अंतिम किरण भी डूब जाए तो व्यक्ति अपना मानसिक संतुलन कैसे संभाले l नईका के साथ भी यही हुआ l मैं बात कर रही हूँ अभी हाल में घोषित हुए रमाकांत स्मृति पुरुस्कार से सम्मानित आशा पांडे जी की कहानी ‘ढ़ेर सेर चाँदी’ की l कहानी पढ़ते हुए मुझे रहीम दास जी का एक दोहा याद आ रहा था l रहिमन चुप बैठिए, देख दिनन के फेर नीके दिन जब आत हैं बनत ना लगिहे देर मतलब ये जीवन सुख-दुख से बना है l दुख के बाद सुख, सुख के बाद दुख आना ही आना है तो जब दुख हो, धैर्य के साथ प्रतीक्षा करनी चाहिए l परंतु कहानी में नईका के जीवन में जब दुख एक बार दस्तक देता है, तो उजास के लिए कोई छेद नहीं छोड़ता l क्योंकि उसका दुख ईश्वर प्रदत्त नहीं है, उसका दुख अपनों द्वारा दिए जाने वाले धोखे का दुख है, तो सरकार द्वारा दिए जाने वाले धोखे का भी l मनुष्यता के पतन का दुख है l दुख और अवसाद में बौराए इंसान को पागल करार देने वाला समाज है l ग्राम्य समाज और सूक्ष्म मानवीय संवेदनाओं की चितेरी आशा जी की कहानी हमें गाँव समाज के पुराने दौर में ले जाती है l   कहानी की नायिका नईका जब मायके से विदा होती है तो उसकी माँ ने ढ़ेर सेर चाँदी देती है l उस समाज के लिए ये बहुत बड़ी बात थी, जहाँ आधे तोले से ज्यादा चाँदी लेकर कोई बहु नहीं आती थी l ससुराल भी ठीक-ठाक था l डेढ़ बीघा ज़मीन को जोत सास-ससुर और पति भग्गू करके घर में अनाज की कमी नहीं होने देते l घर के पीछे की ज़मीन में साग-भाजी उग जाती l जिंदगी यू टर्न तब लेती है जब चिकित्सा विभाग द्वारा, अपनी रिपोर्ट्स में नसबंदी के ऑपरेशन की निश्चित संख्या दिखाने के लिए जबरन पकड़ कर किया गया अत्याचार भग्गू को ऐसे भयंकर अवसाद में ले लेता है कि उसके मुँह से आवाज़ निकलना बंद हो जाती है और नईका के जीवन में आस-औलाद की सारी उम्मीदें खत्म l एक मुसीबत हजार मुसीबत लेकर आती है l नईका के जीवन में जहाँ अगली पीढ़ी को लाने की उम्मीद का दिया बुझ चुका है l वहीं सास-ससुर अपने बेटे की आवाज वापस लाने के लिए गले बराबर लगे हुए हैं l पड़ोस के भाई रामअंजोर के पास खेत गिरवी रख इलाज करवाने का भी कोई फायदा नहीं मिलता l असमय सास-ससुर की मृत्यु, पड़ोसी रामअंजोर का धोखा और नायिका सुनी गोद सूनी देह की व्यथा-कथा, जिससे लड़ते हुए नईका मजूरी कर अपना व पति का पेट पालती है l लेखिका -आशा पाण्डेय उसकी आँखों में अतीत के मधुमास रह-रह कर उभरते हैं और झूठी आशा जीवन को सहेजती है कि शायद कभी पति के प्रेम भरे बोल ही उसके जीवन में लौटे l जब वो देखती है कि उसकी मालकिन के रामायण करवाने की मनौती मान लेने से उनकी मनोकामना पूरी हो गई तो उसे याद आती है डेढ़ सेर चाँदी, जो उसने जमीन में गाड़ रखी है l उसकी एक ही कामना है भग्गू की आवाज़ वापस आ जाए l लेकिन ज़मीन खोदने पर वहाँ कुछ नहीं मिलता है l उसके सिर पर चंडी सवार हैं l जो अभी पति के लिए डेढ़ सेर चाँदी वारने को तैयार थी, वही अब उसका गला दबा कर पूछती है कि तुमने किसी को इशारा किया कि यहाँ चाँदी गड़ी है l भग्गू का इशारा रामअंजोर की पत्नी की तरफ़ है पर बिना बोले … Read more

पुस्तक समीक्षा -शंख पर असंख्य क्रंदन

संख पर असंख्य क्रंदन

    जो देश और काल को परिभाषित कर दे, उसकी समस्याओं, तकलीफों, बेचैनियों को शब्द दे दे, दुःख सुख, युद्ध शांति, संयोग वियोग, मानवता नृशंसता को व्याख्यायित कर दे, जीवन को आधार प्रदान करे, श्वास लेने के लिए मुफीद जगह उपलब्ध करवा दे, वही कविता है. कविता का संसार अत्यंत व्यापक है जिसका कोई ओर छोर नहीं है. हरी अनंत हरी कथा अनंता की भांति कविता भी अनंत है. कविता को किसी देश काल में विभक्त नहीं किया जा सकता. ये जानते हुए जब कवि की कलम चलती है तब उसकी कविताओं में न केवल हमारा परिवेश, प्रकृति उसकी चिंताएं समाहित होती हैं बल्कि उसमें हमारा समाज, राजनीति, धर्म, स्त्री, मानव जाति, मनुष्य का व्यवहार और स्वभाव सभी का समावेश होता है. कविता किसी एक देश की बात नहीं करती हैं, ये सम्पूर्ण विश्व, सम्पूर्ण मानवता की बात करती हैं. इनकी कविताओं का भी फलक उसी तरह व्यापक है जिस तरह कहानियों का था. कविताओं में पूरे विश्व की चिंताएं समाहित हैं चाहे इतिहास हो या भूगोल. एक ऐसी ही कवयित्री हैं डॉ सुनीता जिनका पहला कविता संग्रह ‘शंख पर असंख्य क्रंदन’ अपने व्यापक फलक का दर्शन कराता है. कविता क्या होती है और क्या कर सकती है, दोनों का दर्शन संग्रह में होता है. इनकी कविताओं में केवल देश या अपना समाज ही नहीं है बल्कि एक कविता सम्पूर्ण विश्व की पीड़ा का दर्शन करा देती है इस प्रकार इन्होंने इतिहास भूगोल और संवेदनाओं को कविताओं में पिरोया है.  शंख पर असंख्य क्रंदन- गाँव की पगडंडी से लेकर वैश्विक चिंताओं को समेटे कविताएँ    पहली ही कविता ‘दोपहर का कोरस’ अपनी संवेदना से ह्रदय विगलित कर देती है जहाँ संवेदनहीनता किस प्रकार मनुष्य के अस्तित्व का हिस्सा बन गयी है उसका दर्शन होता है.  अनगिनत लाशें सूख चुकी थीं जिनको किसी ने दफन नहीं किया आज तक/ क्योंकि वहां मानवीयता के लिए मानव थे ही नहीं/ कुछ परिंदे चोंच मार रहे थे उसकी देह पर  रेगिस्तान की त्रासदी और मानवता के ह्रास का दर्शन है ये कविता जहाँ ऐसे भयावह मंज़र नज़रों के सामने होते हैं और आप उन्हें देख कर सिहर उठते हैं और आगे बढ़ जाते हैं. आप के अन्दर की करुणा आपसे संवाद नहीं करती. एक ऐसे दौर में जी रहा है आज का मानव. संवेदनशील ह्रदय जब भी मानवीय त्रासदी देखता है आहत हो जाता है. आंतरिक घुटन बेचैनी को शब्दबद्ध करने को बेचैन हो जाता है. ऐसे में पहले ही सफ़र में जब ऐसा मंज़र रेगिस्तान में देखता है द्रवीभूत हो जाता है, सोचने को विवश हो जाता है, आखिर किस दौर के साक्षी बन रहे हैं हम? हम सरकारों को कोसते हैं लेकिन क्या हमने कुछ किया? हम भी मुंह फेर आगे बढ़ जाते हैं, त्रासदियाँ घटित होती रहती हैं. कवि ह्रदय मानवता की त्रासदी पर दुखी हो सकता है और अपनी पीड़ा को शब्दबद्ध कर स्वयं को हल्का करने का प्रयास करता है तो साथ ही समाज के सम्मुख एक कटु यथार्थ सामने लाता है.  ‘प्रेम की बारिश को पत्तियों ने जज़्ब किया’ एक ऐसी कविता जहाँ प्रेम का वास्तविक स्वरूप क्या है उसका दर्शन होता है. मानवीय प्रेम नहीं, आत्मिक प्रेम नहीं अपितु प्रकृति का दुलार, प्रकृति का उपहार, बिना किसी भेदभाव के सब पर समान रूप से बरसता प्रकृति का प्रेम ही इस धरा की अमूल्य निधि है. प्रकृति अपना निस्वार्थ प्रेम इसीलिए बांटती है कि धरती पर जीवन पनपता रहे. प्यार बाँटते चलो का सन्देश देती नदियाँ, पहाड़, बादल, धरती, वृक्ष सभी प्रेमगीत गुनगुनाते हैं. जब भी सभ्यता का क्षरण होता है अर्थात प्रलय आती है, यही रखते हैं मानवता की, प्रेम की नींव ताकि जीवन कायम रहे, उम्मीद कायम रहे. यूं ही नहीं कहा – दरार से प्रेम मिटाता नहीं/ सूरज से तेज चमकने लगता है/ जिस दिन धरती डोलना बंद करेगी उस दिन/ बादल पहाड़ों का चुम्बन अन्तरिक्ष में बाँट देंगे/आकाशगंगा पर लिख देंगे स्थायी इश्तहार/ जब धरती प्रलय की योजना बनाएगी तब हम नए सृजन के नाम/ प्रेम में डूबे देश की नींव रखेंगे  ये है प्रकृति का सन्देश, उसका निस्वार्थ प्रेम जिसे मानव समझ नहीं पा रहा, अपने हाथ अपना दोहन कर रहा है.      ‘सदियों से खड़ी मैं दिल्ली’ इस कविता में कवयित्री दिल्ली के माध्यम से केवल दिल्ली की बात नहीं कर रहीं हैं. दिल्ली क्या है – क्या केवल उतनी जितनी हम देखते हैं? आज की दिल्ली या कुछ वर्षों पहले की दिल्ली की हम बात करते हैं जबकि दिल्ली के सीने में सम्पूर्ण सभ्यता का इतिहास समाया है बस उसे देखने वाली नज़र चाहिए. यहाँ एक देश की राजधानी की बात नहीं है. दिल्ली एक प्रवृत्ति का आख्यान है. एक इतिहास विश्व का जिसे दिल्ली न केवल देख रही है बल्कि अपने सीने में जज़्ब कर रही है. डॉ सुनीता दिल्ली के माध्यम से वैश्विक फलक तक की बात करती हैं. वर्तमान समाज और समय की चिंताओं का समावेश इस कविता में हो रहा है. मनुष्यता  की चिंता है इन्हें. जहाँ १९१० का काल भी समाहित हो रहा है तो मदर टेरेसा की करुणा भी इसमें समाहित हो रही है, कैसे युगोस्लाविया से कोलकता तक का सफ़र तय करती है. युद्ध की विभीषिका, मालवीय के प्रयास से पहले अखिल भारतीय हिंदी सम्मलेन कैसे संपन्न हुआ, सभी का आख्यान प्रस्तुत कर रही है. दिल्ली के माध्यम से सम्पूर्ण विश्व की चिंताएं समाहित हो रही हैं. युद्ध हों या सम्मलेन, किसने क्या किया, कैसे सफलता प्राप्त की या असफलता सबकी मूक भाव से साक्षी बनती है.  यहाँ दिल्ली होना सहज नहीं, इतिहास ही नहीं, भूगोल का दर्शन भी होता है. कविता के माध्यम से  सोलहवीं शताब्दी का दर्शन कराती दिल्ली, एक नोस्टाल्जिया में ले जाती हैं और समय की करवट का दर्शन करवा देती हैं. प्राचीनतावाद में डूबे विश्व के बदलते भूगोल को लोमहर्षक नज़रों से देखती/उन सभी पलों में कई सदियों को देख रही होती हूँ   खेती एक सार्वजनिक सेवा है – इनकी कविताओं में प्रतीक और बिम्ब और शैली को समझने के लिए गहराई में उतरना पड़ेगा, विश्लेषण करना पड़ेगा. खेती एक सार्वजनिक सेवा है, इस भाव को वही ग्राह्य कर सकता है जो खेती के महत्त्व को समझता हो, जो अन्न के महत्त्व को जानता हो. जो … Read more

बेगम हज़रत महल- एक निम्नवर्ग में जन्मी लड़की से बेगम हज़रत महल बनने तक की संघर्षमय गाथा

बेगम हज़रत महल- एक निम्नवर्ग में जन्मी लड़की से बेगम हज़रत महल बनने तक की संघर्षमय गाथा

  1857 का संग्राम याद आते ही लखनऊ यानी की अवध की बेगम हज़रत महल के योगदान को कौन भूल सकता है l  खासकर तब जब आजादी के अमृत महोत्सव मना रहा देश अपने देश पर जाँ निसार करने वाले वीरों को इतिहास के पीले पन्नों से निकाल कर फिर से उसे समकाल और आज की पीढ़ी से जोड़ने का प्रयास कर रहा हो l कितनी वीर गाथाएँ ऐसी रहीं, जिन्होने अपना पूरा जीवन अंग्रेजों से संघर्ष करते हुए बिता दिया और हम उन्हें कृतघ्न संतानों की तरह भूल गए l बेगम हज़रत महल उन्हीं में से एक प्रमुख नाम है l   किसी भी ऐतिहासिक व्यक्तित्व पर लिखना आसान नहीं होता l ज्ञात इतिहास ज्यादातर जीतने वाले के हिसाब से लिखा जाता है जो कई बार सत्य से काफी दूर भी हो सकता है l अतः निष्पक्ष लेखन हेतु लेखक को समय के साथ जमींदोज हुए तथ्यों की बहुत खुदाई करनी पड़ती है, तब जा कर वो कहीं कृति के साथ न्याय कर पाता है l ऐसे में वीणा वत्सल सिंह इतिहास में लगभग भुला दी गई  “बेगम हज़रत महल’ को अपनी कलम के माध्यम से उनके हिस्से का गौरव दिलाने का बीड़ा उठाया है l वो बेगम को उनकी आन-बान-शान के साथ ही नहीं उनके बचपन, मुफलिसी के दिन जबरन परी बनाए जाने की करूण  कहानी से नवाब वाजिद अली शाह के दिल में और अवध में एक खास स्थान बनाने को किसी दस्तावेज की तरह ले कर आई हैं l ये किताब मासूम मुहम्मदी से महक परी और बेगम हज़रत महल तक सफर की बानगी है l जिसमें बेगम हज़रत महल के जीवन के हर पहलू को समेटा गया है l ये कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी की प्रगतिशील सोच रखने वाली एक जुझारू संघर्षशील स्त्री के सारे गुण मुहम्मदी में नजर आते हैं l बेगम हज़रत महल- एक निम्नवर्ग में जन्मी लड़की से बेगम हज़रत महल बनने तक की संघर्षमय गाथा   बेगम हज़रत महल की संघर्ष यात्रा शुरू होती है एक निम्नवर्ग के परिवार में जन्मी बच्ची मुहम्मदी से l कहते है कि होनहार बिरवान के होत चीकने पात” l जब पाठक मुहम्मदी के बचपन से रूबरू होता है तो लकड़ी की तलवार लेने की जिद और जंगी हुनर सीखने कि खवाइश से ही उसके भविष्य की दिशा दिखने लगती है l एक कहावत है “होनहार बिरवान के होत चीकने पात”यानि  विशिष्ट व्यक्तित्व के निर्माण के बीज उनके बचपन से ही दिखने लगते हैं l ऐसा ही मुहम्मदी के साथ हुआ l बच्चों के खेल “बोलो रानी कितना पानी” जिसमें रानी को कभी ना कभी डूबना ही होता है का मुहम्मदी द्वारा विरोध “रानी नहीं डूबेगी” दिखा कर खूबसूरती से उपन्यास की शुरुआत की गई है l और पाठक तुरंत मुहम्मदी से जुड़ जाता है l शुरुआत से ही पाठक को मुहम्मदी में कुछ नया सीखने का जज्बा, जंगी हुनर सीखने का जुनून, करुणा, विपरीत परिस्थितियों को जीवन का एक हिस्सा समझ कर स्वीकार तो कर लेना पर उस में हार मान कर सहने की जगह वहीं से नए रास्ते निकाल कर जमीन से उठ खड़े होने की विशेषताएँ दिखाई देती हैं lये उसका अदम्य साहस ही कहा जाएगा कि जीवन उन्हें बार-बार गिराता है पर वो हर बार उठ कर परिस्थितियों की लगाम अपने हाथ में ले लेती हैं l  उपन्यास में इन सभी बिंदुओं को बहुत ही महत्वपूर्ण तरीके से उभारा गया है l   निम्न वर्ग के परिवार में तीन भाइयों के बाद आई सबसे छोटी मुहम्मदी यूँ तो पिता की बहुत लाड़ली थी पर गरीबी-मुफलिसी और सबसे बड़े भाई अनवर के हर समय बीमार रहने के कारण उसका बचपन आसान नहीं था l अनवर के इलाज लायक पैसे भी अक्सर घर में नहीं होते l ऐसे में जब भी अनवर को दिखाने हकीम के पास जाना होता उस दिन घर में चूल्हा भी नहीं जलता l ऐसे में उसके मामा सलीम ने जब अपनी बीमार पत्नी की देखभाल के लिए मुहम्मदी को अपने साथ ले जाने को कहा तो माता- पिता को अनुमति देनी ही पड़ी l इसका एक कारण यह भी था कि मुहम्मदी की बढ़ती उम्र और सुंदरता के कारण वो इस कमजोर दरवाजे वाले घर में सुरक्षा नहीं कर पाएंगे l पर खुश मिजाज मुहम्मदी ने माता-पिता के बिछोह को भी स्वीकार कर लिया l अपनी ममेरी बहन नरगिस के साथ उसने ना केवल घर के काम सीखे बल्कि मामूजान से उनका हुनर टोपी बनाना भी सीखा l ताकि आर्थिक संबल भी दे सके l हिफ़ाजत और जंग के लिए तलवार चलाना सीखने की खवाइश रखने वाली मुहम्मदी का दिल बेजूबानों के लिए भी करुणा से भरा था l  यहाँ तक की उपन्यास में मुर्गे की लड़ाई के एक दृश्य में मुहम्मदी मुर्गे को बचाती है l और कहती है कि   “मुर्गे का सालन ही खाना है तो सीधे हलाल करके खाइए ना ! ऐसे क्यों इस गरीब को सताये जा रहे हैं ? क्या इसए दर्द नहीं होता होगा?”   मुहम्मदी की ममेरी बहन नरगिस और जावेद की प्रेम कथा उपन्यास की कथा में रूमानियत का अर्क डालती है l “नरगिस का चेहरा सुर्ख, नजरें झुकी हुई l जबकि जावेद का मुँह थोड़ा सा खुला हुआ और आँखें नरगिस के चेहरे पर टिकी हुई l दोनों के पैरों के इर्द-गिर्द गुलाब और मोगरे के फूल बिखरे हुए और बेचारा टोकरा लुढ़क कर थोड़ी दूर पर औंधा पड़ा हुआ l”   जब भी हम कोई ऐतिहासिक उपन्यास पढ़ते हैं तो हम उस कथा के साथ -साथ उस काल की अनेकों विशेषताओं से भी रूबरू होते हैं l उपन्यास में नृत्य नाटिका में वाजिद आली शाह का कृष्ण बनना उनके सभी धर्मों के प्रति सम्मान को दर्शाता हैं तो कथारस वहीं प्रेम की मधुर दस्तक का कारण बुनता है l कथा के अनुसार कृष्ण बने नवाब वाजिद अली शाह द्वारा जब मुहम्मदी की बनाई टोपी पहनते हैं तो जैसे कृष्ण उनके वजूद में उतर आते हैं l परंतु उसके बाद हुए सर दर्द में लोग उनके मन में डाल देते हैं कि उन्होंने शायद जूठी टोपी यानि किसी की पहनी हुई टोपी पहनी है, ये दर्द उसकी वजह से है l वाजिद के गुस्सा होते हुए तुरंत सलीम … Read more

सुनो कहानी नई पुरानी -कहानियों के माध्यम से बच्चों को संस्कृति से जोड़ने का अभिनव प्रयास

“मम्मी इस घर का एक रूल बना दीजिए कि चाहे जो भी हो जाए इस फॅमिली का कोई मेम्बर एक-दूसरे से बात करना बंद नहीं कर सकता है l” यूँ तो साहित्य लेखन ही जिम्मेदारी का काम है पर बाल साहित्य के कंधे पर यह जिम्मेदारी कहीं ज्यादा महती है क्योंकि यहाँ पाठक वर्ग एक कच्ची स्लेट की तरह है, उसके मन पर जो अंकित कर दिया जाएगा उसकी छाप से वो जीवन भर मुक्त नहीं हो सकता l आज इंटरनेट पीढ़ी में जब दो ढाई महीने के बच्चे को चुप कराने के लिए माँ मोबाइल दे देती है तो उसे संस्कार माता-पिता से नहीं तमाम बेहूदा, ऊल-जलूल रील्स या सामग्री से मिलने लगते हैं l ऐसे में बाल साहित्य से बच्चों को जोड़ना क कड़ी चुनौती है l जहाँ उन्हें मनोरंजन और ज्ञान दोनों मिले l किरण सिंह जी के बाल साहित्य के लेखन में ये अनुपम समिश्रण देखने को मिलता है l बाल साहित्य पर उनकी कई पुस्तकें आ चुकी हैं और सब एक से बढ़कर एक है l उनका नया बाल कहानी संग्रह “सुनो कहानी नई पुरानी” इसी शृंखला की एक महत्वपूर्ण कड़ी है l सुनो कहानी नई पुरानी -कहानियों के माध्यम से बच्चों को संस्कृति से जोड़ने का अभिनव प्रयास   संग्रह के आरंभ में बच्चों को लिखी गई चिट्ठी में वो अपनी मंशा को स्पष्ट करते हुए लिखती हैं कि, “कहानियाँ लिखते समय एक बात मन मिएन आई, क्यों नाइन कहानियों के माध्यम से आपको संस्कृति से जोड़ा जाएl” वनिका पब्लिकेशन्स से प्रकाशित 64 पेज के इस बाल कहानी संग्रह में 14 कहानियाँ संकलित हैं l जैसा की नाम “सुनो कहानी नई पुरानी” से स्पष्ट है किरण सिंह जी ने इस बाल् कहानी संग्रह कुछ नई कहानियों के माध्यम से और कुछ पौराणिक कहानियों के माध्यम से बच्चों को अपनी संस्कृति से जोड़ने का अभिनव प्रयास किया है l इससे पहले वो ‘श्री राम कथमृतम के द्वारा सरल गेय छंदों में श्री राम के जीवन प्रसंगों को बच्चों तक पहुँचाने का महत्वपूर्ण काम कर चुकी हैं l कहीं ना कहीं पाश्चात्य संभयता और संस्कृति के बढ़ते प्रभाव के कारण बच्चे अपने पूर्वजों के गौरव को भूलते जा रहे हैं l हमने वो समय भी देखा है, जब ये व्यंग्य खूब प्रचलित था बच्चे ये प्रश्न करते हैं कि, “सीता किसका बाप था ?” बात हँस कर टालने की नहीं, अपितु गंभीर चिंतन की थी क्योंकि व्यंग्य समाज की विसंगतियों पर प्रहार ही होते हैं l पर दुर्भाग्य से इस ओर विशेष कदम नहीं उठाए गए l एक क्रूर सच्चाई ये भी है कि आज के माता- पिता को खुद ही नहीं पता है तो वो बच्चों को क्या बताएंगे l किरण सिंह जी इसे एक बहुत ही रोचक अंदाज में कहानियों के माध्यम से बुना है lफिर चाहें वो दीपावली क्यों मनाई जाती है ? मीरा का श्याम में अद्भुत विलय हो या जिज्ञासु नचिकेता के बाल सुलभ प्रश्न पूछने और जिज्ञासाओं को शांत कर ज्ञान अर्जित करने की कथा हो l हर कथा को इस तरह से बुना गया है कि आज के बच्चे जुड़ सकें l जैसे कृष्ण-सुदामा की कहानी वहाँ से शुरू होती है, जहाँ दक्ष अपने दोस्त की शिकायत करता है कि वो उसका टिफिन खा जाता है l वो उसे मोंटू भी कहता है l माँ कृष्ण सुदामा के माध्यम से दोस्ती के अर्थ बताती हैं l दक्ष को समझ आता है और उसे अपनी गलती का अहसास भी होता है कि उसे अपने दोस्त को “मोंटू” नहीं कहना चाहिए, उसे उसके नाम ‘वीर’ से ही बुलाना चाहिए l वहीं दक्ष की बर्थ डे पार्टी में आया वीर भी वादा करता है कि वो अब दूसरे बच्चों का टिफिन नहीं खाएगा बल्कि खेल कूदकर योग करके खुद को पतला करने की कोशिश करेगा l ये कहानी मुझे इस लिए बेहद अच्छी लागि क्योंकि इसमें कृष्ण-सुदामा की कथा के माध्यम से दोस्ती के सच्चे अर्थ तो बताए ही, बच्चों को किसी दूसरे पर कोई टैग लगाने या बॉडी शेमिंग की प्रवत्ति पर भी प्रहार है l वहीं स्वास्थ्यकर खाने और योग से फिट रहने की समझ पर भी जोर दिया गया है l इस संग्रह में केवल पुरानी कहानियाँ ही नहीं हैं कुछ बिल्कुल आज के बच्चों, और आज के समय को रेखांकित करती कहानियाँ भी हैं l जैसे रौनक ने अपने छोटे भी चिराग के बात-चीत बंद कर दी l छोटू चिराग से भैया की ये चुप्पी झेली नहीं गई l अब बंद बातों के तार जुड़ें कैसे ? लिहाजा उसने मम्मी से गुजारिश कर घर में ये रूल बनवा दिया कि घर में किसी का किसी से झगड़ा हो जाए तो कोई बात-चीत बंद नहीं करेगा l वहीं रौनक ने भी रूल बनवा दिया कि “कोई किसी की चुगली नहीं करेगा l”यहाँ लेखिका बच्चों के मन में ये आरोपित कर देती हैं कि आपसी रिश्तों को सहज सुंदर रखने के लिए संवाद बहुत जरूरी है l “कुछ दाग आच्छे होते हैं कि तर्ज पर कहूँ तो “ऐसे रूल भी अच्छे होते हैं l” रोज रात में दादी की कहानी सुनने की आदी गौरी के माता-पिता जब दादी की तबीयत खराब होने पर गौरी को कहानी ना सुनाने को कहते हैं ताकि उनके ना रहने पर गौरी के कोमल मन पर असर ना पड़ें तो दादी चुपक से टेक्नोलॉजी का सहारा लेकर अपनी कहानियों को पोती के लिए संरक्षित कर देती हैंl यह प्रयोग मन को भिगो देता है l नए जमाने के साथ चलती ये कहानी बाल मन के साथ साथ बुजुर्गों को भी अवश्य बहाएगी और दिशा देगी l बाल कहानियाँ लिखते हुए किरण सिंह जी ने इस बात में पूरी सतर्कता रखी है कि भाषा, शिल्प, शैली आज के बच्चों के अनुरूप हो l कहानी में छोटे-छोटे, रोचक, और बहुत सारे संवादों का प्रयोग कर उसकी पठनीयता को बढ़ाया है l हर कहानी में मजे- मजे में एक शिक्षा नत्थी करके बाल मन को संस्कारित करने का प्रयास किया है l वनिका पब्लिकेशन की मेहनत संग्रह में साफ दिखती है l कागज़, बच्चों को आकर्षित करते चित्र और प्रूफ रीडिंग हर दिशा में नीरज जी और उनकी टीम की मेहनत स्पष्ट नजर आती है l कवर … Read more

शंख में समंदर-सोशल मीडिया के अनदेखे रिश्तों के नाम

शंख समुद्र में पाए जाते हैं और शंख में भी में समंदर रहता है l लेकिन इस आध्यात्मिक बात को अगर लौकिक जगत में ले आयें तो संसार में सोशल मीडिया है और सोशल मीडिया में जीता जागता संसारl अपने- अपने घरों में, बाजार में, स्कूल में, ऑफिस में बैठकर इसमें आवाजाही करते रहते हैं| तो कभी लाइक और कमेन्ट के माध्यम से अपनी उपस्थिति दर्शाते हैंl कभी कोई एक घटना हर वाल पर उसकी प्रतिक्रिया के रूप में शंख के अंदर के जल की तरह ठहर जाती है तो कहीं हम एक पोस्ट पर बधाई और दूसरी पर विनम्र श्रद्धांजलि लिखते हुए भावनाओं के सागर में लहर-लहर बहते हैंl सच तो ये है कि हम ऐसे तमाम रिश्तों में बँध जाते हैं जिनसे हम कभी मिले ही नहीं...l

शंख समुद्र में पाए जाते हैं और शंख में भी में समंदर रहता है l लेकिन इस आध्यात्मिक बात को अगर लौकिक जगत में ले आयें तो संसार में सोशल मीडिया है और सोशल मीडिया में जीता जागता संसारl अपने- अपने घरों में, बाजार में, स्कूल में, ऑफिस में बैठकर इसमें आवाजाही करते रहते हैं| तो कभी लाइक और कमेन्ट के माध्यम से अपनी उपस्थिति दर्शाते हैंl कभी कोई एक घटना हर वाल पर उसकी प्रतिक्रिया के रूप में शंख के अंदर के जल की तरह ठहर जाती है तो कहीं हम एक पोस्ट पर बधाई और दूसरी पर विनम्र श्रद्धांजलि लिखते हुए भावनाओं के सागर में लहर-लहर बहते हैंl सच तो ये है कि हम ऐसे तमाम रिश्तों में बँध जाते हैं जिनसे हम कभी मिले ही नहीं…l शंख में समंदर-सोशल मीडिया के अनदेखे रिश्तों के नाम अनेक सम्मनों से सम्मानित डॉ. अजय शर्मा जी इससे पहले कई उपन्यास और कहानी संग्रह लिख चुके हैंl कुछ विश्वविध्यालयों में पढ़ाए भी जाते हैंl तकरीबन हर उपन्यास में वो नया विषय लाते हैंl साहित्य को समृद्ध करने के लिए ये आवश्यक भी है कि नए विषयों पर या उसी विषय पर नए तरीके से लिखा जाएl समकाल को दर्ज करने का साहित्यिक फर्ज वो हमेशा से निभाते रहे है पर शंख और समुद्र के बिम्ब के साथ लिखा गया उपन्यास “शंख में समुंदर” उनके पिछले उपन्यासों से ही नहीं साहित्य की दृष्टि से भी कई मामले में अलग हैl क्योंकि इसमें हमारी फेसबुक की घटनाओं का जीता जागता संसार हैl जहाँ ममता कालिया जी की “रविकथा” की समीक्षा पोस्ट करते हुए वंदना बाजपेयी की “वो फोन कॉल” की समीक्षा को कल डालने के लिए सेव करते डॉ.केशव हैंl जो कभी तमाम लेखकों और उनकी रचनाओं के बारे में विस्तृत चर्चा करते नजर आते हैं तो कभी वंदना गुप्ता जी के “कलर ऑफ लव” के मेसज का जवाब देते हुए जागरूकता का प्रसार करती उसकी विषय वस्तु की आवश्यकता पर प्रसन्न होते हैंl तो कहीं डॉ. सुनीता नाट्य आलोचना पर लंबा आख्यान देती हुई नजर आती हैंl डॉ. शर्मा के उपन्यासों में उन्हें अक्सर पत्रकार, लेखक, डॉक्टर वाली उनकी असली त्रिदेव भूमिका में देखा होगा पर यहाँ खुद को किसी उपन्यास के पात्र के रूप में देखना सुखद हैl निराला ने जब छंद- बद्ध से अतुकांत कविता की ओर रुख किया तो वो गहन भावों की सरल सम्प्रेषणनीयता के कारण शीघ्र ही लोकप्रिय हो गई l आजकल एक कदम आगे बढ़कर साहित्य में एक विधा से दूसरी विधा में आवाजाही का चलन हैl कविता में कहानी है तो कहानी में कविता का लालित्य, समीक्षा में पुस्तक परिचय का भाव सन्निहित है तो आलोचना थोड़े जटिल शब्दों में लिखी गई समीक्षा… पर उन सब का भी एक अलग स्वाद हैl ये स्वाद आज की युवा पीढ़ी को भा भी रहा है जो हर नई चीज का खुले दिल से स्वागत करती हैl ऐसे ही प्रयोग के तहत पाठक को इस उपन्यास में कविता, कहानी- “पर्त दर पर्त”, नाटक-“छल्ला नाव दरिया”, बौद्धिक विमर्श, प्रेरक कथाएँ, ऑनलाइन ऐक्टिविटी, पत्नी बच्चों के साथ सामान्य घरेलू जीवन सब कुछ मिल जाएगाl खास बात ये है कि इसमें मूल कथा कहीं भी प्रभावित नहीं होती, वो मूल कथा का एक हिस्सा ही लगते हैं और आम जीवन की कहानी आगे बढ़ती जाती हैl कहानी के केंद्र में कोरोना की दूसरी लहर हैl कोरोना ने कितनी तकलीफ दी कि जगह ये उपन्यास कोरोना के उस सकारात्मक पहलू को देखता है जो इस समय “आपदा में अवसर” के रूप में उभर कर आएl लॉकडाउन के शुरुआती दिनों में समय कैसे कटेगा के अवसाद में गए लोगों की जिजीविषा ने शीघ्र ही उन्हें समय के संसाधन का सदुपयोग करने की ओर मोड़ाl सोशल मीडिया का उपयोग साहित्यिक व अन्य कार्यक्रमों के लाइव के रूप में होने लगाl बाल काटने से लेकर नाली साफ करने तक के यू ट्यूब चैनल खुले, जो लोगों के खूब काम आएl महिलाओं ने नए-नए व्यंजन बनाने सीखे तो किसी ने गायन या नृत्य के अपने पुराने शौक आजमाने शुरू कियेl ऐसे में एक लेखक डॉ. केशव की नजर एक ऐक्टिंग सिखाने वाले ऑनलाइन कोर्स पर पड़ती हैl अपनी युवावस्था में वो अभिनेता बनना चाहते थे लेकिन तब वक्त ने साथ नहीं दियाlविज्ञापन देखकर एक बार वो “पुनीत प्रीत” फिर से जाग उठती है, और वो कोर्स में रजिस्ट्रेशन करवा देते हैंl यहाँ से कहानी अभिनय कला पर एक गहन शोध को ले कर आगे बढ़ती जाती है l हम एक शब्द सुनते हैं “वॉयस मॉड्यूलेशन’ पर इसके लिए किस तरह से ओम की ध्वनि को साध कर स्वर तन्तु खोलने हैंl “फ्लावर और कैन्डल” पर ध्यान लगा कर आवाज ही कंठ के गड्डे से नीचे से निकालनी है, ताकि स्टेज पर आते समय या बाहर जाते समय अभिनेता की जल्दी में ली गई साँस की आवाज दर्शकों को ना सुनाई देl किस तरह से सुर का बेस बदल कर के अशोक कुमार की आवाज से शक्ति कपूर की आवाज और अक्षय कुमार की आवाज तक पहुँचा जा सकता हैl रसों के प्रकार, भाव सम्प्रेषण आदि की विस्तृत चर्चा ने एक पाठक के तौर पर मुझे तृप्त किया l आजकल ऑडियो युग लौट रहा है, ऐसे में भावों को शब्दों में साधने की कला ऑडियो स्टोरी टेलिंग के काम में लगे लोगों के लिए फायदेमंद साबित होगीl उपन्यास में गुथी हुई कहानी, नाटक और प्रेरक कहानियाँ इसे गति देते हैं और रोचकता को भी बढ़ाते हैंl कुल मिला हमारी सोशल मीडिया की आम जिंदगी से निकला ये उपन्यास कई तरह का संतुलन साधते हुए सरपट भागता हैlउपन्यास विधा में इस नए प्रयोग के लिए डॉ.अजय शर्मा को हार्दिक बधाई व शुभकामनाएँ l वंदना बाजपेयी यह भी पढ़ें मीमांसा- आम जीवन से जीवन दर्शन की यात्रा बातें किताबों की- नेहा की लव स्टोरी प्राइड एंड प्रिज्युडिस को हुए 210 साल – जानिए जेन ऑस्टिन के जीवन के कुछ अनछुए पहलू अब तो बेलि फैल गई- जीवन के पछतावे को पीछे छोड़कर आगे बढ़ने की कथा आपको ‘शंख में समंदर-सोशल मीडिया के अनदेखे रिश्तों के नाम” लेख कैसा लगाl  अगर आओको अटूट बंधन की रचनाएँ पसंद आती है तो कृपया साइट को सबस्क्राइब करें व अटूट बंधन फेसबुक … Read more

मीमांसा- आम जीवन से जीवन दर्शन की यात्रा

    मीमांसा शब्द का शादिक अर्थ है किसी बात या विषय का ऐसा विवेचन जिसके द्वारा कोई निर्णय निकाला जाता होl अगर छः प्रसिद्ध भारतीय दर्शनों की बात करें तो उनमें से एक दर्शन मूलतः पूर्व मीमांसा और उत्तर मीमांसा नामक दो भागों में विभक्त था। लेकिन लेखक अनूपलाल मण्डल का उपन्यास “मीमांसा” अपने शाब्दिक अर्थ और दर्शन दोनों को साधता हुआ आगे बढ़ता है l और इस बात को प्रतिपादित करता है कि सहज जीवन की मीमांसा ही जीवन दर्शन को समझने के सूत्र दे देती है l पुस्तक की भूमिका में लेखक लिखते हैं कि, “मनुष्य सृष्टा का अंशमात्र अवश्य है जबकि आत्मा परमात्मा के एक लघु रूप से भिन्न और कुछ नहीं और इस नाते वह सृष्टा के अधिकार भार  को अपने संयम की सीमा से आबद्ध हो, रखने की चेष्टा करता है l वही चेष्टा आप यहाँ देखेंगेl   जब पाठक किताब पढ़ता है तो यह चेष्टा है उसके सामने रेशा-रेशा खुलने लगती है l यह चेष्टा है मानव हृदय की दुर्बलताओं को स्वीकार करने, समझने और उसके ऊपर विजय पाने के प्रयासों की l समस्त दर्शन इसी में निहित है l अन्वेषण- अनुसंधान और दुर्गम पर विजय ही समस्त प्राणियों में मानव को सर्वोच्च स्थान प्रदान करती है l जब वो प्रकृति  पर विजय पाता है तो भौतिक जीवन सुखद बनता है, जब वो जीवन और जीवन से संबंधित समस्त नियमों को समझता और सुलझाता है तब वैज्ञानिक प्रगति होती है l और जब वो खुद को समझता है और मन पर विजय पाता है तो आध्यात्मिक प्रगति होती है l ये उपन्यास इसी आध्यात्मिक प्रगति के लिए जीवन की मीमांसा करता है l   उपन्यास हाथ में लेने और पढ़ना प्रारंभ करने के कुछ ही समय बाद पाठक को बाँध लेता है l शिल्प के रूप में जहाँ  गुरुवर रवींद्र नाथ टैगोर की “आँख की किरकिरी” की स्मृति हो आती है वहीं शरतचंद्र की लेखनी सा ठहराव और प्रेमचंद जैसे संवेदना पाठक को रोकती है l और एक पाठक के तौर पर 1965 से पहले प्रकाशित इस पुस्तक को अभी तक ना पढ़ पाने का खेद भी उत्पन्न होता है l   मीमांसा- आम जीवन से जीवन दर्शन की यात्रा   मानवीय संवेदना को को गहरे उकेरती इस कथा की मुख्य पात्र अरुणा के जीवन की गाथा है, जिसे हीनभावना, भय, अपराधबोध और प्रेम के महीन तंतुओं से बुना गया है l नायिका अरुणा जो मात्र 11 वर्ष की आयु में ब्याह कर पति गृह आ गई है l विवाह का अर्थ भी नहीं समझती पर उसकी स्मृतियों में अंकित है माँ के हृदय का भय l वो भय जो उसके प्रेम और सेवा के समर्पण के रूप में खिला था अरुणा के रूप में, पर समाज ने उसे नहीं स्वीकारा और उस के माथे पर एक नाम लिख दिया ‘पतिता” l समाज द्वारा बहिष्कृत माँ भयभीत तब होती है जब उसे असाध्य रोग घेर लेता है l वो अरुणा को अपनी कथा बताना चाहती है l समाज के विरोध से उस नाजुक कन्या को बचाना चाहती है पर उस समय ‘पतिता’ जैसा भारी शब्द अरुणा की समझ से परे की चीज है l उसके जीवन में कुछ है तो उगते सूर्य की लालिमा, चाँदनी की शीतलता, मीलों फैले खेतों सा विशाल धैर्य l यही अरुणा अपने पास एक छोटा सा इतिहास रखती है, एक छोटा स्मृत-विस्मृत सा इतिहास l लेखक के शब्दों में, “बाबूजी! … दूर पगली ! बाबूजी नहीं -काकाजी….नहीं, बाबूजी ही कह सकती हो! पर तुम्हारे बाबूजी वह नहीं कोई और थेl”   अरुणा के इन शब्दों की मीमांसा करना चाहती यही पर उसके सामने काकाजी और बाबूजी का यह सवाल अमीमांसित ही रह जाता है l उसी समय नायक विजय किसी विवाह समारोह में गाँव आता है और अरुणा के रूप, शीलनता, सहजता से पहली ही दृष्टि में उसके प्रति प्रेम में पड़ जाता है l अगले दिन उसे पुनः देखकर भावनाएँ उफान मारती है और वह अरुणा के घर जाकर उसकी माँ से उसका हाथ मांग लेता है l अंधे को क्या चाहिए दो आँखें l माँ भी उसका विवाह कर देती है l पति गृह में आई अरुणा का साथ देती हैं विजय की विधवा दीदी और 4 सालों में अरुणा बालिका से तरुणी बनती है.. उसके हृदय में भी प्रेम की दस्तक होती है l उसे समझ में आता है कि पति विजय उसको दर्पण में क्यों देखता था l  पति के कमरे और सामान पर एकाअधिकार भाव जागता है और प्रेम  अपना प्रारबद्ध पाता है l पति द्वारा उसे अंधेरे में उसकी तस्वीर देखता पाकर लैंप जला कर देखने को कहने पर सहसा निकले अरुणा के शब्द उसकी गहन वैचारिका को दर्शाते हैं… “जो स्वयं प्रकाशवान हो उसको देखने के लिए लैंप की आवश्यकता नहीं पड़ती”   अरुणा के मन में पति के प्रति प्रेम है पर एक पतिता की बेटी होने का अपराधबोध भी l प्रेम का पुष्प तो समानता पर खिलता है l अरुणा के मन में दासत्व भाव है और उसका पति उसका तारण हार l विजय के हृदय प्रदेश में अरुणा किसी ईश्वर की मूरत की तरह विराजमान है पर अरुणा का यह मौन जिसे पढ़ने में विजय असमर्थ है उनके प्रेम में वो सहजता नहीं आने देता जो एक पति-पत्नी के मध्य होनी चाहिए l विजय के तमाम प्रयास उसके मन की ग्रन्थि को खोलने में असमर्थ रहते हैं l अरुण इस बात को समझती है पर अपने दासत्व भाव की सीमा को लांघ नहीं पाती l प्रेम के उसके हिस्से के अधूरेपन की यह बात उसे तब समझ आती है जब दीदी का देवर लल्लन दीदी को अपने विवाह के तय हो जाने पर लेने आता है l एक सहज संवाद में प्रेम की पहली दस्तक का आस्वादन अरुणा के हृदय में होता है l वो कहती है, “वो अनिश्चित तीथि क्या हमारे जीवन में फिर कभी आएगा लल्लन बाबू” और स्वयं ही स्वयं को सहेजती है…   “जो मिलने वाला नहीं, जिस पर अपना कोई अख्तियार नहीं,जिसके बारे में सोचना भी गुनाह हो सकता है, उसकी कल्पना में वो विभोर क्यों रहे? क्यों ना मानसपट पर अंकित उस चित्र को धुंधला कर दे-उसे मिटा दे और इतना … Read more

बातें किताबों की- नेहा की लव स्टोरी

नेहा की लव स्टोरी

लिव इन जैसे सम्बंधों को भले ही कानूनी मान्यता मिली हो, मगर सामाजिक मान्यता नहीं मिली है।पश्चिमी सभ्यता से प्रभावित होकर युवा पीढ़ी इस ओर आकर्षित तो हुई है पर यह अभी विवाह के विकल्प के रूप में स्थापित नहीं हो सकी है l जिस रिश्ते में प्रवेश करते समय “साथ तो हैं पर साथ नहीं” की तर्ज पर किसी तरह का वादा ना हो उसके टूट जाने पर लगाए जाने आरोप लगाए भी तो किस पर और क्यों? बाज़रवाद से प्रभावित लिव इन का रैपर इतना शानदार है कि युवा इसके शिकंजे में आते जा रहे हैं, और पूरी पीढ़ी गुमराह हो रही हैl ये कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा कि उन्मुक्त जीवन की ओर अंधी दौड़ का दुष्परिणाम महिलाओं के हिस्से ज्यादा आता हैlऐसे में ऐसी विवेक सम्पन्न स्त्री को गढ़ना भी साहित्य का काम है जो अपनी जिंदगी का ये महत्वपूर्ण फैसला देह की कामनाओं की ज्वार में ना ले l आइए पढ़ते  हैं लिव इन जैसे मुद्दे पर अपनी बात रखते सुपरिचित कथाकार सोनाली मिश्रा के उपन्यास “नेहा की लव स्टोरी” पर डॉ. मीनाक्षी स्वामी की समीक्षा बातें किताबों की- नेहा की लव स्टोरी सोनाली मिश्रा का पहला उपन्यास ‘महानायक शिवाजी’ भी पढ़ा था। शिवाजी की वीरता के साथ माता जीजाबाई की भूमिका को भी सोनाली ने जिस तरह रेखांकित किया है, वह बहुत प्रभावी है। श्रेष्ठ समाज के निर्माण में माता की भूमिका के साथ शिवाजी के शौर्य, देशभक्ति आदि का सुगठित संयोजन उपन्यास में है। सोनाली की दृष्टि स्पष्ट है। इसी कारण विचारों में भी स्पष्टता है। वे साहस के साथ उन्हें जो सही लगता है, उसके पक्ष में खड़ी रहती हैं। यही बात सोनाली के व्यक्तित्व को विशिष्ट बनाती है। ‘नेहा की लव स्टोरी’ उपन्यास बहुत दिनों से मंगाकर रखा था। मगर इस दौरान व्यस्तता के कारण अब पढ़ पाई। वर्तमान में समाज में तेजी से नासूर बनी लव जिहाद की समस्या को परत दर परत इस उपन्यास में खोला गया है। नारीवाद एक आयातित विचार है जो हमारे देश की संस्कृति के अनुकूल नहीं है। मगर हीनता ग्रंथि के चलते विदेशी संस्कृति को महान समझने की भूल अब कई समस्याओं के रूप में सामने आ रही है। इसी के चलते सनातन संस्कृति के प्रति पनपी हीन भावना हिंदू लड़कियों को दूसरे धर्म की ओर आकर्षित करने लगी। नारीवाद के प्रति आकर्षण, छद्म प्रगतिशीलता और अपनी जड़ों से दूरी इन लड़कियों को ऐसे शिकंजे में कसने लगी जिसमें जीवन की समाप्ति के अलावा कुछ हाथ न लगा। और जो जीती रहीं, वे मृत्यु से भी बदतर दशाओं में। लिव इन जैसे सम्बंधों को भले ही कानूनी मान्यता मिली हो, मगर सामाजिक मान्यता नहीं मिली है। हमारे पूर्वजों ने बहुत सोच समझकर जीवन से जुड़ी सभी आवश्यकताओं की पूर्ति के गरिमामय और मर्यादित तरीके तय किए थे। ये परम्पराएं एक दिन में नहीं बनती। इनमें पीढ़ियों के सामाजिक अनुभवों का समावेश होता है। ये समाज हित में होती हैं। विवाह जैसी संस्थाएं और अपने जाति समूह में विवाह। समय के साथ परम्पराओं में बदलाव हुआ तो अपने धर्म के भीतर जातीय बंधनों के परे विवाहों को भी समाज द्वारा मान्य किया गया। अन्तरधार्मिक विवाह और लिव इन को मान्यता क्यों न मिली, आज इनके परिणाम देखकर हमें अपनी परम्पराओं पर गर्व के साथ पालन करने में दृढसंकल्पित होने का समय है। ‘नेहा की लव स्टोरी’ उपन्यास इसी बात को बहुत रोचक अंदाज़ में बयान करता है। किस तरह हिंदू लड़कियों को बरगलाया जाता है और फिर उनका जीवन बर्बाद किया जाता है। वे इस जाल में क्यों और कैसे फंसकर किस तरह तबाह हो जाती हैं। सब कुछ उपन्यास में उद्घाटित होता है। इससे बचने के लिए परिवार की भूमिका विशेष तौर पर माता की क्या भूमिका होना चाहिए। इस जाल से कैसे बचें। जिस आयु में लड़कियों की आंखों में अपने जीवन को लेकर सुनहरे सपने होते हैं। उस आयु में उन्हें पूरा करने के लक्ष्य से भटककर वे बहुत सूक्ष्म तंतुओं से बने अदृश्य मगर अत्यंत खतरनाक जाल में फंस जाती हैं, जब उन्हें इसका एहसास होता है, तब तक इतनी देर हो चुकी होती है कि उससे निकल पाना उनके लिए असंभव हो जाता है। जो परिवारजन उन्हें निकाल सकते हैं, वे उस समय उनसे नाराज़गी, उनके उठाए गलत कदम पर उनसे क्रुद्ध होते हैं और सहारा नहीं देते हैं। इन्हें जाल में फंसाने वाले इनके परिवारजनों से दूर करने का जाल भी बड़ी धूर्तता से बुनते हैं। इस सबका मनोवैज्ञानिक, सामाजिक, सांस्कृतिक चित्रण दक्ष लेखिका ने बहुत कौशल से किया है। किस तरह ब्रेन वॉश करते हुए भारतीय संस्कृति का विनाश करने का षड़यंत्र रचा गया है। हमारी परम्पराओं, मूल्यों पर आघात किया जा रहा है। आधुनिकता, प्रगतिशीलता, नारीवाद जैसे विमर्श किस तरह हमारी संस्थाओं पर हमला कर रहे हैं। नारीवाद के नाम पर हमारे समाज को स्त्री पुरुष के खांचे में बांटकर महिला और पुरुष को एक दूसरे के पूरक के स्थान पर विरोधी बनाकर समाज को तोड़ने का विमर्श रचा गया। उपन्यास में सोनाली ने गहन शोध, चिंतन, मनन, विश्लेषण के बाद कथानक को बुना है, यह पढ़कर ही जाना जा सकता है। यह उपन्यास सोए हुए हिंदू समाज को झिंझोड़कर जगाता है कि उठो, जागो और अपनी अस्मिता की रक्षा करो। यह उपन्यास हर किसी को जरूर ही पढ़ना चाहिए। उपन्यास पूरे समय बांधे रखता है। यही कारण है कि एक बैठक में पढ़े बिना छोड़ा नहीं जाता है। सोनाली इस समस्या की जड़ तक जाती हैं और एक एक रेशा पूरी स्पष्टता से सामने रखती हैं। ऐसे साहसिक उपन्यास के लिए सोनाली को साधुवाद। डॉ. मीनाक्षी स्वामी यह भी पढ़ें प्राइड एंड प्रिज्युडिस को हुए 210 साल – जानिए जेन ऑस्टिन के जीवन के कुछ अनछुए पहलू निर्मल वर्मा की कहानी परिंदे का सारांश व समीक्षा रोज़- अज्ञेय की कालजयी कहानी प्रज्ञा की कहानी जड़खोद- स्त्री को करना होगा अपने हिस्से का संघर्ष आपको “बातें किताबों की- नेहा की लव स्टोरी” पर यह समीक्षात्मक आलेख कैसा लगा? अपने विचारों से हमाएं अवश्य अवगत कराएँ l अगर आपको अटूट बंधन की रचनाएँ पसंद आती हैं तो साइट को सबस्क्राइब करें व अटूट बंधन फेसबुक पेज को लाइक करें l

सिन्हा बंधु- पाठक के नोट्स

सिंह बंधु

  “जिस तरह जड़ों से कटा वृक्ष बहुत ऊंचा नहीं उठ सकता|उसी तरह समृद्धिशाली भविष्य की दास्तानें अतीत को बिसरा कर नहीं लिखी जा सकती |” “सिन्हा बंधु” उपन्यास ऐसे ही स्वतंरता संग्राम सेनानी “राजकुमार सिन्हा” व उनके छोटे भाई “विजय कुमार सिन्हा” की जीवन गाथा है .. जिनकी माँ ने अपने एक नहीं दो-दो बेटों को भारत माँ की सेवा में सौंप दिया |  बड़े भाई को काकोरी कांड और छोटे को साडर्स कांड में सजा हुई l दोनों ने अपनी युवावस्था के महत्वपूर्ण वर्ष देश को स्वतंत्र कराने में लगा दिये l उपन्यास को 8 प्रमुख भागों में बांटा गया है – कानपुर, कारांचीखाना, मार्कन्डेय भवन, काकोरी कांड, राजकुमार सिन्हा जी का विवाह, अंडमान जेल, बटुकेश्वर दत्त, स्मृतियाँ l   “सिन्हा बंधु”-स्वतंत्रता संग्राम में महत्वपूर्ण योगदान देने वाले सिन्हा बंधुओं  के त्याग वीरता और देशभक्ति को सहेजता उपन्यास     उपन्यास की शुरुआत उत्तर प्रदेश के औधयोगिक नगर कानपुर गौरवशाली इतिहास से हुई है | लेखिका लिखती हैं कि, “हाँफते- दाफ़ते शहरों के बीच पूरे आराम और इत्मीनान के साथ चलने वाले कानपुर नगर का अपना ही ठेठ कनपुरिया मिज़ाज है l और ताप्ती गर्मी में गुस्से के बढ़ते पारे को शांत करने वाली माँ गंगा है ना.. जो कनपुरियों का मिज़ाज ही नहीं शांत करती, ब्रह्मा जी को भी संसार की रचना करने के बाद शांति से बिठूर में अपनी गोद में बिठाती हैं l वही बिठूर जहाँ वाल्मीकि आश्रम में रामायण जैसा कालातीत ग्रंथ लिखा गया l माँ सीता ने लव- कुश को जन्म दिया और शस्त्रों से लेकर शास्त्रों तक की शिक्षा दी l अपने पुत्र से यौवन की मांगने वाले राजा ययाति का किला भी गंगा के किनारे जाजमऊ में था l उन्हीं के बड़े पुत्र यदु के नाम से यदुवंश बना l     आज भी उत्तर प्रदेश का प्रमुख  औधयोगिक नगर कानपुर स्वतंत्रता संग्राम के यज्ञ में अपने युवाओं की आहुति देने वाले उत्तर प्रदेश का केंद्र था।  कानपुर 1857 के स्वतंत्रता संग्राम ( जिसे अंग्रेज़ों ने ‘सिपाही-विद्रोह’ या ‘गदर’ कहकर पुकारा) के प्रमुख स्थलों में से एक रहा  है। नाना राव और तात्या टोपे के योगदान को भला कौन भूल सकता है | यहां का इतिहास कई तरह की कहानियों को खुद में समेटे हुए है। नाना राव पार्क भी इस इतिहास का गवाह है। वह अपने वीर सपूतों की कुर्बानी पर खून के आंसू रोया था। यहीं पर बरगद के पेड़ से चार जून 1857 को 133 क्रांतिकारियों को फांसी दी गई थी। तब से  यह पेड़ न भुलाने वाली यादों को संजोए रहा और  कुछ साल पहले ही  जमींदोज हो गया।   भगत सिंह और चंद्रशेखर ‘आजाद’ जैसे वीर सपूतों  की  कानपुर कर्म भूमि रहा है | शहर ने भी इसे अपना अहोभाग्य माना और बड़े सम्मान से कानपुर में इनकी मूर्तियाँ स्थापित की  गई | इनके अतिरिक्त  कानपुर में बड़ा चौराहे पर कोतवाली रोड के किनारे स्वतंत्रता संग्राम सेनानी डॉ. मुरारी लाल की प्रतिमा स्थापित है, जिन्होंने आजादी के लड़ाई में अपने प्राणों का उत्सर्ग किया था। कानपुर के डीएवी कॉलेज के अंदर क्रांतिकारी “शालिग्राम शुक्ल” की  मूर्ती है। इस मूर्ति को वर्ष 1963 में स्थापित किया गया | “शालिग्राम शुक्ल” हिन्दुस्तान रिपब्लिकन आर्मी के कानपुर चीफ थे, और  चंद्रशेखर आजाद के साथी थे। एक दिसंबर 1930 में अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाई में वो चंद्रशेखर आजाद की रक्षा करने के दौरान, मात्र 19 वर्ष की आयु में,  शहीद हो गये।   सिन्हा बंधुओं के बारे में बताते -बताते किताब कानपुर के बटुकेश्वर दत्त के बारे में भी बताती है l तो चंद्रशेखर आजाद, गणेश शंकर विध्यार्थी और भगत सिंह के बारे में  भी रोचक किस्से जरूरी  बातों की जानकारी देती है l     अपने देश और गौरव को सहेजने की चाह रखने वाले साहित्यकारों लेखकों को लगा कि इन्हें वर्तमान पीढ़ी से जोड़ना आवश्यक है क्योंकि वर्तमान ही अतीत और भविष्य के मध्य का सेतु है | जाहिर है एक बिसराये हुए इतिहास में, उजड़े हुए शब्द कोश में और विकास की बदली हुई परिभाषाओं में ये काम आसान नहीं था | पर इसे करने का जिम्मा उठाया कानपुर की ही एक बेटी वरिष्ठ लेखिका “आशा सिंह” जी ने | उम्र के इस पड़ाव पर जब बहुओं को घर की चाभी सौंप कर महिलायेँ  ग्रहस्थी के ताम-झाम  से निकल दो पल सुकून  की सांस लेना चाहती हैं तब आशा दी मॉल और मेट्रो  की चमक से दमकते कानपुर की जमीन में दफन गौरवशाली इतिहास को खोजने शीत, घाम और वर्षा की परवाह किए बिना निरंतर इस श्रम साध्य उद्देश्य में जुटी हुई थीं l पर आखिरकार उनका परिश्रम इस किताब के माध्यम से मूर्त रूप में सामने आया | यह किताब एक नमन है, एक श्रद्धा का पुष्प है सिन्हा ब्रदर्स नाम से प्रसिद्ध कानपुर के स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों को |   हार्दिक बधाई और शुभकामनाएँ वंदना बाजपेयी

मनोहर सूक्तियाँ -जीवन को बदलने वाले विचरों का संग्रह

मनोहर सूक्तियाँ

क्या एक विचार जिंदगी बदल सकता है ? मेरे अनुसार “हाँ” वो एक विचार ही रहा होगा जिसने रेलवे स्टेशन पर गाँधी जी को अन्याय के खिलाफ आवाज उठाने की ताकत दी .. और मोहन दास करमचंद महात्मा गाँधी बन गए | Willie Jolley अपनी किताब It Only Takes a Minute to Change Your Life में कहते हैं .. वो विचार ही होता है जब हम कोई ऐसा निर्णय लेते हैं जो हमारी जिंदगी का टर्निंग पॉइंट होता है | अगर निजी तौर पर बात कहूँ तो एक लोकोक्ति के रूप में मेरे नाना जी ने मन की गीली मिट्टी पर एक विचार रोप दिया था “चटोरी खोए एक घर बतोडी खोए चार घर ” अर्थात जिसे अच्छे अच्छे खाने का शौक होता है वो अपने घर के ही पैसे बर्बाद करता है | लेकिन जिसे फालतू बात करने का शौक होता है वो अपने साथ चार लोगों का समय बर्बाद करता है | कयोकि बात करने के लिए चार लोग चाहिए | यहाँ समय की तुलना सीधे -सीधे धन से की गई है | इस बात को समझ कर मैंने हमेशा समय को बर्बाद होने से बचाने की कोशिश की | निश्चित तौर पर आप लोगों के पास भी ऐसे किस्से होंगे जहाँ एक विचार आपके जीवन का उसूल बन गया | ऐसी ही एक किताब “हीरो वाधवानी ” जी की उपहार स्वरूप मेरे घर में आई | 246 पेज की इस किताब में 180 पेज में सूक्तियाँ या जीवन संबंधी विचार हैं ,जो हमें प्रेरणा देते हैं या सोचने पर विवश करते हैं | बाकी पेज में समीक्षात्मक लेख हैं | कुछ सूक्तियाँ साझा कर रहीं हूँ .. ईश्वर ने हमें एक मुँह और दो हाथ -पैर इसलिए दिए हैं ताकि हम कहें कम करें अधिक | क्रोध और अहंकार करने वाले बाहर से भले द्रण लगें अंदर से कमजोर होते हैं | मित्रता तोड़ना आईने तोड़ने जैसा है | तेज आँधी नहीं घर का क्लेश नींव को हिला देता है | ईश्वर ने सबसे अधिक हड्डियाँ इंसान के पैरों में रखीं हैं ताकि वो अपने पाँव से चले दूसरे के कंधे पर सवार ना हो | ईर्ष्यालू अंधा होता है क्योंकि वो जिससे ईर्ष्या करता है उसके परिश्रम व प्रयत्नों को नहीं देखता | ऐसी बहुत सारी जीवन उपयोगी सूक्तियाँ हैं जिन्हे एक झटके में न पढ़ कर रोज एक पेज पढ़ कर मनन करने से जीवन में अवश्य परिवर्तन आएगा | एक अच्छी व अलग किताब के लिए “हीरो वधवानी जी को बधाई व शुभकामनाएँ | समीक्षा -वंदना बाजपेयी यह भी पढ़ें … दीपक शर्मा की कहानी -सिर माथे स्टेपल्ड पर्चियाँ -समझौतों की बानगी है ये पर्चियाँ गांधारी – आँखों की पट्टी खोलती एक बेहतरीन किताब मैत्रेयी पुष्पा की कहानी “राय प्रवीण”  आपको मनोहर सूक्तियाँ -जीवन को बदलने वाले विचरों का संग्रह कैसा लगा l अगर आपको अटूट बंधन की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया साइट को सबस्क्राइब करें व अटूट बंधन फेसबूक पेज लाइक करें l