मेरे संधिपत्र – सूर्यबाला

पुस्तक समीक्षा -मेरे संधिपत्र

  एक स्त्री के द्वारा कभी ना लिखे गए संधिपत्रों का जब-जब खुलासा होगा तब पता चलेगा के घर -परिवार की खुशहाली बनाए रखने के लिए वो क्या क्या करती है ? सब कुछ अच्छा दिखने की भीतरी परतों में एक स्त्री का क्या -क्या त्याग छिपा हुआ है? क्यों घर संसार उसकी निजी खुशी से ऊपर हो जाता है| और कई बार ये फैसला उसका खुद का लिया होता है | एक ऐसी कहानी जिसमें कोई खलनायक नहीं है| सब कुछ अच्छा है | फिर भी … कदम -कदम पर संधियाँ हैं संधिपत्र है उपन्यास पर चर्चा आप यहाँ सुन सकते हैं –यू ट्यूब लिंक 2019 में एक सुंदर आवरण से सजा  राजकमल द्वारा प्रकाशित वरिष्ठ लेखिका सूर्यबाला जी का पहला उपन्यास “मेरे संधिपत्र” वो उपन्यास है जो स्त्री जीवन के त्याग, समर्पण, सुख-दुख  और दर्द और उपलब्धियों सब को निरपेक्ष भाव  से प्रस्तुत करता है | पात्र को शब्दों में ढालते हुए लेखिका सहज जीवन प्रस्तुत करती जाती हैं | और जीवन के तमाम दवंद आसानी से चित्रित हो जाते हैं | अगर आप अपने आस -पास के आम जीवन की घटनाओं को कहानी में बदल सकते हैं तो आप एक बड़े लेखक है |~चेखव  मेरे संधिपत्र -समझौते हमेशा दुख का कारण नहीं होते मेरे संधिपत्र  उपन्यास  एक आम स्त्री के मल्टीलेयर  जीवन की अंत: परतों को खोलता है | कॉम्प्लेक्स ह्यूमन इमोशन्स के जरिए ये उपन्यास स्त्री मन के दवंद और उसके द्वारा लिए गए फैसलों की बात करता है | ये संधिपत्र एक स्त्री द्वारा लिए गए वो फ़ैसलें हैं जो वो समझौते के रूप में अपने परिवार की खुशहाली के लिए करती है, पर कहीं ना कहीं इससे वो अपने लिए भी  सुंदर दुनिया का सृजन करती है | आज के दौर में जब विद्रोह ही स्त्री कथाकारों की कलम की शरण स्थली बनी हुई है, ऐसे समय में इसका नए दृष्टिकोण से पुन:पाठ आवश्यक हो जाता है |और यह उपन्यास कई प्रश्नों पर फिर से विचार करने का आग्रह करता है … क्या स्त्री का  माय चॉइस हमेशा परिवार के विरोध में है ? अपने घर परिवार के हक में फैसला करती स्त्री को हम सशक्त स्त्री के रूप में क्यों नहीं देखते जब की हम पुरुष से ऐसी ही आशा करते हैं ? क्या इस पार स्व विवेक से लिया गया फैसला स्त्री को सशक्त स्त्री नहीं घोषित करता है ? ये कहानी है एक लड़की शिवा की .. पढ़ाई में तेज, विभिन्न प्रतिभागी परीक्षाओं में तमाम पदक जीतने वाली गरीब लड़की शिवा का कम उम्र में विवाह एक लखपति व्यवसायी से हो जाता है |शिवाय उसकी दूसरी पत्नी और दो नन्ही बछियों की माँ  बन कर घर में प्रवेश करती है | उपन्यास की शुरुआत ही “मम्मी आ गई, मम्मी आ गई” के हर्षित स्वर के साथ स्वागत कति बच्चियों से होती है | सद्ध ब्याहता माँ  के आँखों में मोतियों कीई झालर देखकर बच्ची पानी ला कर मुँह धुलाने की कोशिश करती है | यहीं से सौतेली माँ और बच्चों का एक नया रिश्ता शुरू होता है | एक बेहद खूबसूरत रिश्ता, जहँ सौतेला शब्द ना दिल में है ना जेहन में | सौतेली माँ की तथाकथित खल छवि को तोड़ता है यह उपन्यास | उपन्यास तीन भागों में बांटा गया है | पहले दो भागों में दोनों बच्चियों के अपने अपने दृष्टिकोण से माँ और जीवन को देखती हैं | मेरी क्षणिकाएँ ऋचा उपन्यास के पहले भगा में बड़ी बेटी ऋचा का माँ के माध्यम से जीवन को समझने का प्रयास है | वो अपनी माँ के गरिमामाई व्यक्तित्व से प्रभावित है |  वो माँ के जीवन को उनकी खुशियों, उनके दर्द को उसी तर्ज पर समझती है | धीरे धीरे वो उन्हीं में ढलती जाती है |समय -समय पर वो माँ की ढाल बनती है पर मौन मूक स्वीकार भव के साथ | रिंकी मेरा विद्रोह इस भाग में छोटी बेटी रिंकी का माँ के साथ जीवन को समझने का दृष्टिकोण है | रिंकी विद्रोही स्वभाव की है | वो माँ की ढाल नहीं बनती अपनी वो विद्रोह कर माँ के लिए सारी खुशियाँ जीतना चाहती है | मेरे संधिपत्र ये हिस्सा शिवा के दृष्टिकोण का है | इसमें वो तमाम संधिपत्र.. वो समझौते हैं जो वो अपने जीवन को खुशहाल बनाने के लिए करती है | वो बेमेल विवाह जहाँ मेंटल मैच नहीं मिलता उसे स्वीकारती है साथ ही ये भी स्वीकारती है कि  उसका पति  जीवन पर्यंत उसे बहुत प्रेम करता रहा | भले ही उसका प्यार उस तरह से नहीं ठा जिस तरह से वो कहती थी पर उसने प्यार किया है | हर सफलता पर वो उसे जेवरों से लादता है |उसके लिए रबड़ी के कुल्ले लाता है | गरीब मायके जाने पर कोई रोक टोंक नहीं यही | वो स्वीकारती है कि सौतेली माँ होने का उस पर दवाब है कि वो अपनी बच्ची से दूर रहे पर साथ ही ये भी कि दोनों बच्चियों ने उसे निश्चल प्रेम और विश्वास की अथाह संपत्ति दी है | जिसने उसके जीवन को खुशियों से भर दिया है | सास उस अपेक्षाकृत छोटे घर की बेटी को बड़े राइस खानदान की बहु के साँचे में ढालती हैं | पर उन्हें समझ है की इसे यह सब करने में समय लगेगा | इस उपन्यास की शुरुआत में लेखिका लिखती हैं .. मेरे संधिपत्र बनाम शिवाय के संधिपत्र उसकी जिंदगी के नाम … जिंदगी है भी यही संधियों का अटूट सिलसिला, निरंतर प्रवाहित, जीवन की इस निसर्ग, निर्बाध धारा में एक चीज बस शिवाय की अपनी थी -इस धारा की गहराई | जीवन भर डूब -डूब कर वह अपने को थहाती रही, यही उसकी नियति थी |छप्पर फाड़ कर मिले सुख- सौभाग्य, ऐश्वर्य-मातृत्व सबकी दुकान लगाए बैठी रही |सब अपने -अपने बाँट लेकर आए और जो जिसने चाहा, तौलती बांटती चली गई |और अंत में दुकान बंद करने का समय आने तक उसके पास बचे रहे जिंदगी के नाम लिखे कुछ संधिपत्र, बस पाठक भी इसे अपने -अपने बाँट के हिसाब से पढ़ सकता है | क्योंकि इस कहानी की खूबसूरती ही जीवन के बाह्य और अंतर्मन के बहुपरतीय  आयाम को खोलना है | इंसान  के फैसले … Read more

बंद दरवाजों का शहर – आम जीवन की खास कहानियाँ

समीक्षा -बंद दरवाजों का शहर

आज बात करते हैं सशक्त कथाकार, उपन्यासकार रश्मि रविजा जी के कहानी संग्रह “बंद दरवाजों का शहर” की | यूँ तो रश्मि जी की कहानियाँ पत्र -पत्रिकाओं में पढ़ती ही आ रही थी और पसंद भी कर रही थी पर उनके पहले उपन्यास “काँच के शामियाने” ने बहुत प्रभावित किया | इस उपन्यास के माध्यम से उन्होंने साहित्य जगत में एक महत्वपूर्ण दस्तक दी | इसके बाद कई वेब पोर्टल्स पर उनके उपन्यास पढे | रश्मि जी की लेखनी की खास बात यह है की वो अपने आस -पास के आम जीवन के चरित्र उठाती है और उन्हें बहुत अधिक शब्दगत आभूषणों से सजाए बिना अपनी विशिष्ट शैली में इस तरह से प्रेषित करती हैं कि वो पाठक को अपनी जिंदगी का हिस्सा लगने लगे | इसके लिए वो कहानी की भाषा और परिवेश का खास ख्याल रखती हैं | यहाँ पर एक बात खास तौर से कहना चाहूँगी की कहानी जिंदगी का हिस्सा लगने के साथ-साथ जिंदगी में, रिश्तों में, मन में इतनी गहरी पैठ बनाती हैं कि कई बार आश्चर्य होता है की हमारे आप के घरों की चमचमाती फर्श के उजालों के के नीचे छिपे अँधेरों तक वो कैसे देख पाती हैं | वो कहानी के आलोचकों की दृष्टि से किए गए वर्गीकरण को नकार देती और वो बिना परवाह किए सीधे अपने पाठकों से संवाद करते हुए वो कहती हैं जो वो कहना चाहती है .. उनकी कहानियों में तर्क हैं, प्रेम है अवसाद है, सपने हैं तो खुशियां भी झलकती हैं और झलकता है एक कहानीकार का संवेदनशील हृदय, तार्किक दिमाग | तो आइए झाँकते हैं आकर्षक कवर से बंद इन दरवाजों के पीछे | बंद दरवाजे हमेशा से रहस्य का प्रतीक रहे हैं | आखिर कौन रहता होगा इनके पीछे ? क्या होता होगा इनके अंदर ? कैसे लोग होने वो ? बंद दरवाजों का शहर – आम जीवन की खास कहानियाँ रश्मि  रविजा संग्रह की पहली कहानी “चुभन टूटते सपनों के किरचों की” एक ऐसी कहानी है जो पढ़ने के बाद आपके दिमाग में चलती है .. बहस करती है, दलील देती है | अभी तक हम सुनते आए हैं कि “प्यार किया नहीं जाता हो जाता है” पर ये कहानी प्रेम और विवाह के बीच तर्क को स्थान देती है | प्यार भले ही हो जाने वाली चीज हो .. किसी भी कारण से हुआ आकर्षण, एक केमिकल लोचा आप कुछ भी कहें पर विवाह सोच समझ के लिया जाने वाला फैसला है | पहले ये फैसला परिवार लेता था अपनी सोच -समझ की आधार पर |फिर प्रेम विवाह होने लगे तब ये फैसला लड़का -लड़की प्रेम के आधार पर लेने लगे | जब विवाह हो जाता है तो कई साल बाद फ़र्क नहीं पड़ता कि वो प्रेम विवाह था या माता -पिता द्वारा तय किया गया | सब जोड़े एक से नजर आते हैं | विवाह की सफलता -असफलता के प्रतिशत में भी फ़र्क नहीं पड़ता | ये कहानी नई पीढ़ी के माध्यम से एक नई शुरुआत करती है .. जो प्रेम तो करती है पर प्रेम में अंधी हो कर विवाह नहीं कर लेती | विवाह के समय तर्क को स्थान देती है | यू पी बिहार से आकर मुंबई में रहने वाले एक आम माध्यम वर्गीय परिवार की दो बहनों की अलग परवरिश, अलग सोच, किसी के टूटे सपनों की किरचें, किसी के तर्क के आधार पर कहानी को इस तरह बुना है कि पाठक इसके प्रभाव से मुक्त नहीं हो पाता | इस कहानी पर फिलहाल बाल मोहन पांडे जी का शेर .. इसीलिए मैं बिछड़ने पर सोगवार नहीं सुकून पहली जरूरत है तेरा प्यार नहीं पहली कहानी के ठीक उलट दूसरी कहानी “अनकहा सच” एक मीठी सी असफल प्रेम कहानी है | जहाँ दो बच्चे (क्लास मेट) एक दूसरे से लड़ते झगड़ते हुए एक दूसरे से प्रेम कर बैठते हैं | एक तरफ उन्हें अपना प्रेम नजर आ रहा होता है और दूसरे का झगड़ा | जो उन्हें प्रेम को स्वीकार करने में बाधा डालता है | जब इस प्रेम का खुलासा होता है तब तक बहुत देर हो चुकी होती है | दोनों अपनी -अपनी जिंदगी में खुश भी रहते हैं पर पहले प्यार की ये चुभन कभी टीस बनके कभी फुहार बन के दिल में बनी ही रहती है | आज के फास्ट ट्रैक लव और ब्रेकअप के जमाने में ये कहानी पुराने जमाने के प्रेम की मिठास याद दिला देती है | हो सकता है की पाठक एक पल को सोचे क्या आज भी ऐसा होता है ? फिर खुद ही कहे हो भी तो सकता है आखिर जिंदगी है ही इतनी अलग ..इतनी बहुरंगी | दुष्चक्र कहानी जीवन के “सी-सॉ” वाले झूले के उन दो बिंदुओं को उठाती है जिनके बीच संतुलन साधना बहुत जरूरी है | ये दो बिन्दु हैं कैरियर और परिवार, खासकर बच्चे | ये कहानी एक बच्चे की कहानी है जिसके पिता बाकी परिवार के साथ उसे टेन्थ में किसी रिश्तेदार के पास छोड़कर दुबई नौकरी करने चले जाते हैं | कहानी बच्चे के ड्रग के दुष्चक्र में फँसकर ड्रग एडिक्ट बनने और रिहैब में जाकर इलाज करा कर स्वस्थ होने के साथ आगे बढ़ती है | कहानी की खास बात ये है कि ये पूरी तरह से माता -पिता के विरोध में नहीं है | बच्चे का रिस्पॉन्स भी महत्वपूर्ण है.. चाहे वो अपने नए आए भाई -बहन के प्रति हो या परिस्थितियों में बदलाव के प्रति | ये कहानी सभी के मनोविज्ञान की सीवन उधेड़ती है | तो फिर गुलजार साहब का शेर .. कहने वालों का कुछ नहीं जाता सहने वाले कमाल करते हैं “बंद दरवाजों का शहर” कहानी जिसके नाम से संग्रह का नाम रखा गया है, मेट्रो सिटीज के अकेलेपन को दर्शाती है | हम सब जो छोटे शहरों के बड़े आँगन वाले घरों से निकलकर पहली बार किसी मेट्रो शहर में रहने जाते है तो एक अजनबीयत से गुजरते हैं | यहाँ बूढ़े बुजुर्ग घर की बाहर खाट डालकर मूंगफली कुतरते नहीं मिलते ना ही दरवाजे के बाहर खेलते बच्चे, स्वेटर बुनती महिलाये | दिखता है तो बस कॉक्रीट का जंगल, ऊंची अट्टालिकाओं में ढेर सारे फ्लैट .. और उनके बाद दरवाजे … Read more

शिलाएं मुस्काती हैं-प्रेम के भोजपत्र पर लिखीं  यामिनी नयन की कविताएँ 

शिलाएं मुस्काती हैं-प्रेम के भोजपत्र पर लिखीं  यामिनी नयन की कविताएँ 

  नारी की काया  में प्रवेश कर कोई भी रचनाकार स्त्री की पीड़ा  को उतनी  साफगोई से व्यक्त नहीं कर सकता जितनी वाक् निपुणता से एक महिला सृजनधर्मी | फिर भी यह आवश्यक है कि यह पीड़ा उसकी झेली या भोगी हुई हो| आत्मसात की हो संत्रस्त महिला  की त्रासदी | आजकल समय के शिलाखंड पर प्रेम की अभीप्सा  से लेकर  प्रेम में छली  गई किशोरियों, परित्यक्ताओं, भुलाई हुई स्त्रियों या  खुरदरे  दाम्पत्य जीवन पर बहुत कुछ लिखा जा रहा है |इस में  भोगा और ओढ़ा हुआ दोनों हैं |विमर्शवादियों का हल्ला -गुल्ला भी | यामिनी नयन गुप्ता हिंदी कविता की  ऐसी स्थापित साहित्यधर्मी  है जो  महिलाओं के मन की उथल -पुथल,बदलती सामाजिक जीवन शैली से पैदा  हुई बेचैनी और नए समीकरणों को सशक्त स्वर दे रही हैं |उनके स्वर में छिछली भावुकता नहीं, महिलाओं के हर्ष –विषाद  की गहरी अनुभूति है| साक्षी हैं ‘शिलाएँ  मुस्काती हैं’ नामक संकलन की बासठ कविताएँ | शिलाएं मुस्काती हैं-प्रेम के भोजपत्र पर लिखीं  यामिनी नयन की कविताएँ    शिलाएं मुस्काती हैं की कविताओं में चाहे सामाजिक सरोकार हों या जीवन की निजता के  प्रश्न ; इनमें  जुड़ा है  ”प्रेम ,नेह ,और देह का त्रिकोण”|”व्याकुल मन का संगीत”  और प्रेम में पड़े होने का एहसास |”प्रेम ,नेह और देह” की इस यात्रा में कभी देह पिछड़ जाती है ‘अदेह’ को जगह देने हेतु, तो कहीं  सशक्त  साम्राज्ञी बन बैठती है (अब मैंने जाना -क्यों तुम्हारी हर आहट पर मन हो जाता है सप्तरंग\मैं  लौट जाना चाहती हूँ अपनी  पुरानी दुनिया में देह से परे —बार बार तुम्हारा आकर कह देना\यूँ ही -\मन की बात \बेकाबू जज्बात ,\मेरे शब्दोँ में जो खुशबू है \तुम्हारी अतृप्त बाँहोँ की गंध है)|  कहाँ  देह से परे की पुरानी दुनिया ,कहाँ ‘अतृप्त बाँहोँ की गंध’ |  हर मंजर बदल गया|  छा गई प्रेम की खुमारी — (तुम संग एक संवाद के बाद \पृष्ठों पर उभरने लगती हैं \सकारात्मक कविताएँ \निखरने लगते हैं उदासी के घने साये \छा जाता है स्याह जीवन में\इंद्रधनुषी फाग)| प्रेम में डूबी स्त्री को प्रेम के अतिरिक्त और कुछ दीखता ही नहीं | वह प्रेमास्पद से नहीं, उसके प्रेम से प्रेम करती है (मुझे तुम से नहीं \तुम्हारे प्रेम से प्रेम है  \तुम खुद को -प्रेम से नहीं कर पाते हो अलग \और अर्जुन के लक्ष्य सदृश्य \मुझे दीखता है बस प्रेम )| स्त्री ”हर काल  ,हर उमर  में’  बनी रहना चाहती है प्रेयसी | वैवाहिक जीवन उसके लिए विडंबना है ,जिसमें हैं ”गृहस्थी की उलझने\पौरुष दम्भ से जूझती पति  की लालसाएँ–जबकि ये  चाहती  हैं ”कि बची रहे जीने की ख्वाइशों की जगह \यांत्रिक जीवन से परे \बनी रहे नींदों में ख्वाबोँ  की जगह ‘| नारी विमर्शवादी अनामिका कहती हैं —‘बच्चे उखाड़ते हैं/ डाक टिकट/ पुराने लिफाफों से जैसे-/ वैसे ही आहिस्ता-आहिस्ता/ कौशल से मैं खुद को/ हर बार करती हूँ तुमसे अलग”! अनामिका जी भूल गईं कि प्रेम संबंधों को जोड़ता है,उखड़ता नहीं | खटास से भरे होते हैं प्रेम विहीन सम्बन्ध | पर समय बदल रहा है|अलग कर लेना सरल हो चुका है | सुलभ हैं ‘‘मनचाहे साथी” जिनकी ” प्रेमिकाएँ \कभी बूढ़ी न हुईं \साल दर साल बीतते \वर्षों  बाद भी रहीं प्रेमी के दिल में \स्मृति में कमसिन, कमनीय\उस उम्र की तस्वीर बन कर \महकती रहेंगी वो स्त्रियां \किताबों में रखे सुर्ख गुलाब की तरह ”| सीधी बात है विवहिता स्त्री  की उलझनों से मुक्त, कमनीय जीवन बिताया जाय | फिर परिवार का क्या होगा?स्त्री पुरुष का मिलन नैसर्गिक है-कुछ नैसर्गिक आवश्यक्ताओं की पूर्ती के लिए | ‘अतृप्त बाँहोँ की गंध’ से कहीं अधिक गंधमयी सुगन्ध  से प्लावित जीवन| डॉ. पद्मजा शर्मा को दिए एक साक्षात्कार में प्रसिद्ध कथाकार साहित्यभूषण सूर्यबाला ने कहा– ”देह पर आकर स्त्री मुक्ति का सपना टूट जाता है और एवज में बाजार की गुलामी मिलती है, स्त्री को | पुरुष से मुक्ति की कामना पुरुष वर्चस्वी बाजार की दासता से आ जुड़ती है|स्वयं को वस्तु  (कमोडिटी )बनाने के विरोध को लेकर चलने वाली स्त्री आज स्वयं अपने शरीर की  सबसे अनमोल पूँजी को वस्तु (कमोडिटी )बना कर बाजार के हवाले कर रही है”| यामिनी का कवि  वस्तु  या कमोडिटी के जंजाल से बचा कर प्रेम की शुचिता को बनाए  रखना चाहता है|यद्यपि वह चूकता नहीं  प्रश्न उठाने से  — ‘‘मेरी छवि ,मेरे बिम्ब और संकेतों  में \गर तुम बांच नहीं सकते प्रेम \तो कैसा है तुम्हारा प्रेम \और कैसा समर्पण \रास  नहीं आ रहा है मुझे\तुम्हारा होकर भी ,न होने का भाव” | एक प्रश्न और –पत्नी बड़ी या प्रेमिका? |विमर्शवादी मंतव्य है कि पत्नियाँ कभी प्रेमिका नहीं बन पातीं| कंचन कुमारी कहती हैं ‘’तुम्हारी दुनियाँ में पत्नियाँ प्रेमिकाएँ नहीं होती।पत्नियाँ नहीं पहुँचती चरमसुख तक \यह हक है सिर्फ प्रेमिकाओं का\पत्नियाँ डरती है तुम्हारे ठुकराने से,\प्रेमिकाएँ नहीं डरा करती\, वहाँ  होता है विकल्प \सदैव किसी और साथी का.. अर्थात सब कुछ अस्थायी है| एक देह का चरमसुख नहीं दे पाया, तो दूसरा सही ,दूसरा नहीं तो तीसरा| प्रेम न हुआ तीहर है,जब चाही बदल ली | फिर यह कहना व्यर्थ है कि प्रेम में पड़ी स्त्री के मन में, दिल की गहराई में,उनींदी आँखोँ में हर पल हर क्षण प्रेमी की सुखद छुअन के एहसास भरे होते हैं | क्या जरूरत थी कबीर को यह कहने की ”प्रेम न बाडी  ऊपजे , प्रेम न हाट बिकाई ,राजा परजा जेहि रुचे, सीस देहि ले जाई” | शायद आयातित आधुनिकता और  बाजारी संस्कृति में बुढ़िया गए हैं कबीर | कोरोना संक्रमण से हाल ही में दिवंगत हुए जाने-माने  साहित्यकार प्रभु जोशी ने अपने  अंतिम लेख में कहा कि ” मेरा शरीर मेरा’’  जैसा  नारा” (स्लोगन) अश्लील साहित्य के व्यवसायियों की कानूनी लड़ाई लड़ने वाले वकीलों ने दिया था। उसे हमारे साहित्यिक बिरादरी में राजेन्द्र यादव  ने उठा लिया और लेखिकाओं की एक बिरादरी ने अपना आप्त वाक्य बना लिया’’। विमर्शवादी मंतव्य को स्पष्ट करते हुए कवि की कहन हैं कि पत्नियाँ के लिए ”मन चाहे स्पर्श ,आलिंगन \चरम  उत्कर्ष के वह  पल \ सदा रहे कल्पना में ही\कभी उतर नहीं पाते वास्तविकता के धरातल पर”| देहातीत संबंधों की बात सिमट कर रह जाती है चरमसुख और प्रणयी की मुलायम छुअन में | विमर्शवादियों की ऐसी बातें कवि ने बहुत ही संयत और शालीनता के साथ स्पष्ट की … Read more

अपेक्षाओं के बियाबान-रिश्तों कि उलझने सुलझाती कहानियाँ

अपेक्षाओं के बियाबान

    डॉ. निधि अग्रवाल ने अपने अपने पहले कहानी संग्रह “अपेक्षाओं के बियाबान” से साहित्य  के क्षेत्र में एक जोरदार और महत्वपूर्ण दस्तक दी है | उनके कथानक नए हैं, प्रस्तुतीकरण और शिल्प प्रभावशाली है और सबसे महत्वपूर्ण बात ये है कि ये कहानियाँ हमारे मन के उस हिस्से पर सीधे दस्तक देती हैं जो हमारे रिश्तों से जुड़ा है | जिन्हें हम सहेजना चाहते हैं बनाए रखना चाहते हैं पर कई बार उन्हें छोड़ भी देना पड़ता है | और तो और कभी- कभी किसी अच्छे रिश्ते की कल्पना भी हमारे जीने कि वजह बन जाती है | महत्वपूर्ण बात ये है कि लेखिका रिश्तों  की गहन पड़ताल करती हैं और सूत्र निकाल लाती हैं| इस संग्रह कि कहानियाँ  ….हमारे आपके रिश्तों  की कहानियाँ है पर उनके नीचे गहरे.. बहुत गहरे  एक दर्शन चल रहा है | जैसे किसी गहरे समुद्र में किसी सीप के अंदर कोई मोती छिपा हुआ है .. गोता लगाने पर आनंद तो बढ़ जाएगा, रिश्तों के कई पहलू समझ में आएंगे |  अगर आप युवा है तो अपने कई उनसुलझे रिश्तों के उत्तर भी मिलेंगे |   कवर पर लिखे डॉ. निधि के शब्द उनकी संवेदनशीलता और  भावनाओं पर पकड़ को दर्शाते हैं..   “दुखों का वर्गीकरण नहीं किया जा सकता| किसान फसल लुटने पर रोता है |प्रेमी विश्वास खो देने पर |दुख की तीव्रता नापने का कोई यंत्र उपलबद्ध हो तो रीडिंग दोनों की एक दिखाएगा | किसान की आत्महत्या और और प्रेमी की आत्महत्या पर समाज कि प्रतिक्रियाएँ भले ही भिन्न हों, पर जीवन और मृत्यु के बीच किसी एक को चुनने कि छटपटाहट एक जैसी होती है| पीछे छोड़ दिए गए अपनों के आंसुओं का रंग भी एक समान होता है|” अपेक्षाओं के बियाबान-रिश्तों कि उलझने सुलझाती कहानियाँ संग्रह की पहली कहानी “अपेक्षाओं के बियाबान”जिसके नाम पर संग्रह है, पत्र द्वारा संवाद की शैली में लिखी गई है | यह संवाद पाखी और उसके पिता तुल्य  दादा के बीच है | संवाद के जरिए सुखी दाम्पत्य जीवन को समझने की कोशिश की गई है | एक तरफ दादा हैं जो अपनी कोमा मेंगई  पत्नी से भी प्रेम करते हैं, संवाद करते हैं | शब्दों की दरकार नहीं है उन्हें, क्योंकि  उन्होंने सदा एक दूसरे के मौन को सुना है | वहीं पाखी है जो अपने पति से संवाद के लिए तरसती है, उसका पति जिंदगी की दौड़ में आगे -आगे भाग रहा है और वो अपेक्षाओं के बियाबान में | अपेक्षाएँ जो  पूरी नहीं होती और उसे अवसाद में घेर कर अस्पताल  तक पहुंचा देती हैं | एक छटपटाहट है, बेचैनी है .. जैसे आगे भागते हुए साथी से पीछे और पीछे छूटती जा रही है .. कोई गलत नहीं है, दोनों की प्राथमिकताएँ, वो भी अपनी ही गृहस्थी  के लिए टकरा रही है |क्या है कोई इसका हल?   “दाम्पत्य जल में घुली शक्कर है .. पर मिठास विद्धमान होती है| पर बिना चखे अनुभूति कैसे हो?   चखना जरूरी है|इसके लिए एक दूसरे को दिया जाने वाला समय जरूरी है | भागने और रुकने का संतुलन ..   “यमुना बैक की मेट्रो”  एक अद्भुत कहानी है | हम भारतीयों पर आरोप रहता है कि हम घूरते बहुत हैं| कभी आपने खुद भी महसूस किया होगा कि कहीं पार्क में, पब्लिक प्लेस पर या फिर मेट्रो में ही हम लोगों को देखकर उनके बारे में, उनकी जिंदगी के बारे में यूं ही ख्याल लगाते हैं कि कैसे है वो ..इसे अमूमन हम लोग टाइम पास का नाम देते हैं | इसी टाइम पास की थीम पर निधि एक बेहतरीन कहानी रचती हैं | जहाँ  वो पात्रों के अंतर्मन में झाँकती हैं, किसी मनोवैज्ञानिक की तरह उनके मन की परते छीलती चलती है| महज आब्ज़र्वैशन के आधार पर लिखी गई ये कहानी पाठक को  संवेदना के उच्च स्तर तक ले जाती है | कहानी कहीं भी लाउड नहीं होती, कुछ भी कहती नहीं पर पाठक की आँखें भिगो देती है |   जैसे एक टीचर है जो कौशांबी से चढ़ती है| हमेशा मेट्रो में फल खाती है | शायद काम की जल्दी में घर में समय नहीं मिलता | फिर भी चेहरे पर स्थायी थकान है | एक साँवली सी लड़की जो कभी मुसकुराती नहीं | पिछले दो महीनों में बस एक बार उसे किसी मेसेज का रिप्लाय करते हुए मुसकुराते देखा है| तनिष्क में काम करने वाली लड़की जो कभी जेवर खरीद नहीं पाती ..अनेकों पात्र, चढ़ते उतरते .. अनजान अजनबी, जिनके दुख हमें छू जा हैं | यही संवेदनशीलता तो हमें मानव बनाती है|  तभी तो ऑबसर्वर सलाह (मन में) देता चलता है | एक एक सलाह जीवन का एक सूत्र है |जैसे ..   “उतना ही भागों कि उम्र बीतने पर अपने पैरों पर चलने कि शकी बनी रहे| उम्र बढ़ने के साथ चश्मा लगाने पर भी कोई कंधा समीप नजर नहीं आता”   “अभी पंखों को बाँधें रखने पर भी पंखों को समय के साथ बेदम हो ही जाना है | वो अनंत आकाश की उन्मुक्त उड़ान से विमुख क्यों रहे”   “फैटम लिम्ब”एक मेडिकल टर्म है, जिसमें पैर/हाथ या कोई हिस्सा  काट देने के बाद भी कई बार उस हिस्से में दर्द होता है जो अब नहीं है | ये एक मनोवैज्ञानिक समस्या है| कहानी उसके साथ रिश्तों में साम्य  बनाते हुए उन सभी रिश्तों को फैन्टम लिम्ब की संज्ञा देती है जो खत्म हो चुके हैं .. पर हम कहीं ना कहीं उससे लिंक बनाए हुए उस पीड़ा को ढो रहे हैं| जो कट चुका है पर जद्दोजहद इस बात की है कि हम उसे कटने को, अलग होने को स्वीकार नहीं कर पा रहे हैं, इसलिए ढो रहे हैं | कहानी को सुखांत किया है | सुखांत ना होती तब भी अपने उद्देश्य में सफल है |   “परजीवी” स्त्रियों के मन की तहों को खोलती एक मीठी सी मार्मिक कहानी है | मीठी और मार्मिक ये दो विरोधाभासी शब्द जानबूझ कर चुने | कहानी की शुरुआत माँ कि मृत्यु पर भारत आती लड़की के माँ की स्मृतियों  में लौटने से शुरू होती है पर एक स्त्री के मन की गांठों को खोलती है .. उसके भाव जगत की पड़ताल करती है … Read more