जासूसी उपन्यासों में हत्या की भूमिका – दीपक शर्मा

जासूसी उपन्यासों में हत्या की भूमिका

लोकप्रिय साहित्य और गंभीर साहित्य को अलग-अलग खेमे में रखे जाने पर अब प्रश्न चिन्ह लगने शुरू हो गए है ? और बीच का रास्ता निकालने की मांग जोर पकड़ने लगी है क्योंकि साहित्य का उद्देश्य अगर जन जीवन में रूढ़ियों को तोड़ एक तर्कपरक दृष्टि विकसित करना है तो उसका जन में पहुंचना बहुत आवश्यक है l परंतु लोकप्रिय साहित्य के दो जॉनर ऐसे हैं जो अपने तबके में अपनी बादशाहत  बनाए हुए हैं … ये हैं हॉरर और जासूसी उपन्यास l जासूसी उपन्यास की बात करें तो इसमें एक बात खास होती है, वो है हत्या l  हत्या मुख्यतः केन्द्रीय भूमिका में रहती है और क्या रहता है खास बता रहीं हैं वरिष्ठ लेखिका दीपक शर्मा जी …. जासूसी उपन्यासों में हत्या की भूमिका मृत्यु एक ऐसा रहस्य है जिसे कोई तत्त्वज्ञान, कोई पुराण-विद्या, कोई मिथक-शास्त्र, कोई विज्ञान पूर्ण रूप से समझ नहीं पाया। शायद इसी कारण यह चिरकाल से रूचि का विषय रहा है। अपराध-लेखन की महारानी मानी जाने वाली पी.डी. जेम्ज़ (1920-2014) स्वीकार करती थीं कि मृत्यु में उनकी रूचि बहुत छोटी उम्र ही से रही थी और जब उन्होंने बचपन में हम्पटी-डम्पटी वाला नर्सरी गीत सुना: हम्पटी-डम्पटी सैट औन अवौल, एन्ड हैड आ ग्रेट फौल। औल द किन्गज़ हौर्सिस एन्ड औल द किन्गज़ मेन कुडन्ट पुट हम्पटी टुगेदर अगेन। ( हम्पटी-डम्पटी एक दीवार पर बैठा था और दीवार से नीचे गिर गया। और राजा के घोड़े और राजा के दरबारी सभी उसे वापिस लाने में असफल रहे) तो तत्क्षण उन के दिमाग में प्रश्न कौंधा था: हम्पटी-डम्पटी गिरा था ? या उसे गिराया गया था ? जासूसी उपन्यासों की सब से बड़ी विशेषता व श्रेष्ठता यही है कि मृत्यु वहां हत्या के रूप में आती है और मृत्यु का बोध सरक कर हत्यारे की पहचान में आन निहित होता है। अच्छे-बुरे के प्रथागत विवेक के साथ शुरू हुआ व निर्णायक रूप से हत्यारे को दंड दिलाने पर खत्म हुआ प्रत्येक जासूसी उपन्यास एक ओर जहां पाठक की न्यायपरायणता को संतुष्ट करता है, वहीं दूसरी ओर हत्या की गुन्थी को नीर्ति-संगत निष्कर्ष के साथ परिणाम तक पहुंचा कर उसकी जिज्ञासा को भी शान्त करता है। युक्तियुक्त तर्क-अनुमिति के संग । विचारणा के साथ। जसूसी लेखक रेमण्ड शैण्डलर के अनुसार जासूसी उपन्यास ’आ टैªजिडी विद अ हैप्पी एन्डिग’ है। एक दुखान्त को सुखान्त में बदल देने वाली कृति है। उपन्यास में पहले हम किसी हत्या का सामना करते हैं और बाद में उस के साथ हो लेने के अपराध से स्वयं को मुक्त भी कर लेते हैं। मृत्यु की उपस्थिति से दूर जा कर। कुछ पक्षधर तो यह भी मानते हैं कि जासूसी कथा-साहित्य हमारे अवचेतन मन के अपराध-भाव व सम्भाव्य खटकों के भय को छितरा देने में हमारे काम आता है।  तीन संघटक लिए प्रत्येक जासूसी उपन्यास एक हत्या, उसकी छानबीन व उसका समाधान पाठक के सामने रखता है और प्रत्येक पृष्ठ पर एक ही प्रश्न-हत्यारा कौन-छोड़ता चला जाता है और उसका उत्तर अंतिम पृष्ठ पर जा कर ही देता है। सच पूछें तो पूरा किस्सा ही पाठक को ध्यान में रख कर गढ़ा जाता है। उसे रिझाने-बहलाने के लिए। बहकाने-खिझाने के लिए। आशंका व उल्लास के बीच दूबने-उतराने के लिए। धीमी गति से चल रही नीरस व घटनाविहीन उस की दिन-चर्य्या से उसे बाहर निकाल कर उसे कागज़ी ’हाय-स्पीड, थ्रिल राइड’ देने के लिए। आज़माने-जताने के लिए कि यदि वह लेखक के साथ हत्यारे को चिह्मित करने की होड़ में बंधने का प्रयास करते हुए अंत पर पहुंचने से पहले ही उस तक पहुंच जाता है तो भी हत्या का उत्प्रेरक व परिवाहक तो वह लेखक स्वयं ही रहेगा। क्योंकि वह जानता है पाठक मृत्यु जैसे रहस्य में गहरी रूचि रखता है और उपन्यास में रखी गयी मृत्यु तो हुई भी अस्वाभविक थी, अनैतिक थी, आकस्मिक थी, संदिग्ध थी तो ऐसे में जिज्ञासु पाठक उस के महाजाल में कैसे न खिंचा चला आएगा। लोकप्रिय जासूसी लेखक मिक्की स्पीलैन कहते भी हैं, किसी भी जासूसी पुस्तक का पहला पृष्ठ उस का अंतिम पृष्ठ उस लेखक की अगली लिखी जाने वाली पुस्तक को बिकवाता है। कथावस्तु सब की सर्वसामान्य है। पुर्वानुमानित है। सुख-बोध देने वाली है। सभी में प्रश्न भी एकल। उत्तर भी एकल। जासूस भी एकल। हत्यारा भी एकल। हां, मगर पात्र ज़रूर एक से अधिक हैं। ताकि हर दूसरे तीसरे पृष्ठ पर संदेह की सुई अपनी जगह बदलती रहे और हत्यारे की पहचान टलती चली जाए। और पाठक की उत्सुकता बढ़ती रहे। कहना न होगा सरल-स्वभावी पाठक सनसनीखेज़ इस घात में फिर जासूस के साथ हो लेता है क्योंकि वह भी जासूस की भांति हत्या के घटनाक्रम से बाहर ही रहा था तथा अब उसे भी हत्या के अनुक्रम व उदभावन का पता लगाने हेतु जासूस के साथ साथ समकालिक अपने समय के पार विगत पूर्व व्यापी पृष्ठभाग को बझाना है, पकड़ना है। समय से आगे भी बढ़ना है और पीछे भी जाना है। अचरज नहीं जो सार्वजनिक पुस्तकालयों में जासूसी उपन्यासों की मांग सवार्धिक रहा करती है। फुटपाथों से लेकर बड़े बाज़ारों, रेलवे प्लेटफार्म से ले कर पुस्तक मेलों तक इन की पहुंच व बिक्री उच्चतम सीमा छू लेती है। यह अकारण नहीं। इन उपन्यासों में न तो कोई भाव-प्रधान घटना ही रहती है और न ही कोई दर्शन अथवा चिन्तन।   भाषा भी इनकी प्रचलित व सपाट रहा करती है। घुमावदार अथवा तहदार नहीं। सारगर्मित नहीं। इन्हें पढ़ने के बाद पाठक को लगता है प्रश्न अपने उत्तर रखते हैं, दुष्ट पकड़े जाते हैं और दंडित होते हैं। कानून व व्यवस्था का भंग अल्पकालिक है। अन्ततः सुव्यवस्था का प्रभाव-क्षेत्र ही फलता-फूलता है। यहां यह जोड़ना अत्यावश्यक है कि हत्या की यह उपस्थिति जासूसी किस्सों को लोकप्रियता ही दिलाती है, उन्हें गंभीर साहित्य की श्रेणी में स्थान नहीं। चेखव का कहना था कि लेखक का काम प्रश्न पूछना है, उस का उत्तर देना नहीं। और गंभीर साहित्य में केवल वही प्रश्न नहीं पूछे जाते जिन के उत्तर हमारे पास रहते हैं। वही समस्याएँ नहीं उठायी जातीं जिन के हल हम दे सकें। समाधानातीत समस्याओं तथा अनिश्चित भविष्य से जूझ रहे पात्र गंभीर साहित्य प्रेमियों को अधिक भाते हैं क्योंकि वह पुस्तकों के पास केवल समय काटने नहीं जाते, वहां मनोरंजन ढूंढने नहीं जाते, वहां … Read more

हिंदी कविता में आम आदमी

हिंदी कविता में आम आदमी

हिंदी कविता ने बहुधर्मिता की विसात पर हमेशा ही अपनी ज़मीन इख्तियार की है। इस बात की पुष्टि हर युग के कवियों द्वारा की गई कृत्यों से प्रतीत होती रही है। हिंदी कविता ने रामधारी सिंह दिनकर की क्षमता का उपयोग कर के राष्ट्र आह्वान का मार्ग प्रशस्त किया और साथ ही साथ आम आदमियों की दिक्कतों और रोज़मर्रा की समस्याओं को भी बेहद गंभीरता से उजागर किया है। अगर कोई साहित्य उस वर्ग की  बात नहीं कर पाता जो मूक और बधिर है तो फिर साहित्य को अपने नज़रिये को बदलने की महती आवश्यकता होती है। रामधारी सिंह दिनकर सरीखे कवियों ने अपनी लेखनी में जनमानस की विपरीत परिस्थितियों का सजीव चित्रण ही नहीं किया बल्कि धनाढ्य और रसूखदारों पर करारा प्रहार भी किया और यह प्रश्न अक्षुण्ण रखा कि गरीबी और लाचारी के लिए क्या गरीब स्वयं जिम्मेदार है या फिर वह वर्ग भी जमीदार है जिसकी वजह से वे गरीब हैं। प्रजातंत्र में राजतंत्र को हावी होते देख कर वह बोलते हैं- “अटका कहाँ स्वराज? बोल दिल्ली !तू क्या कहती है ? तू रानी बन गई , वेदना जनता क्योँ सहती है ? सबके भाग दबा रक्खे है किसने अपने कर में ? उतरी थी जो विभा , हुई बंदिनी ,बता , किस घर में ?” हिंदी कविता में आम आदमी जब आज़ादी की खुमार में देश के माई-बाप खुशी से फूले नहीं समा रहे थे, तब उन्हें इस बात का बिलकुल भी अहसास नहीं था कि आज़ादी सिर्फ किसी ख़ास वर्ग की जागीर नहीं है और इस विसंगति से उत्पन्न रोष और असंतोष में कितने ही लोग दो जून की रोटी की तलाश करने के लिए बाध्य हैं। इसी श्रेणी में सुदामा पांडेय धूमिल आम आदमी की पीड़ा को आम आदमी की भाषा में ही लिखते हैं और शासक वर्ग पर कुशाग्र व्यंग्य भी करते हैं। उनकी कविता में राजनीति पर जबरदस्त आघात है। आजादी के बाद सालों गुजरे पर आम आदमी के जीवन में कोई परिवर्तन नहीं हुआ, अतः सारा देश मोहभंग के दुःख से पीड़ित हुआ। इन पक्तियों में धूमिल की मूल काव्य संवेदना में से समानता की मांग, आम आदमी का नजरिया, सजग होने का आवाहन, परिवर्तनीयता, शोषित-पीड़ित व्यक्ति का बयान, सामनेवाले व्यक्ति को आंकने की क्षमता, अनुभव से परिपूर्णता है। आम आदमी के सामने धूमिल की कविता जीवन सत्य उघाड़कर रख देती है। “आजकल कोई आदमी जूते की नाप से बाहर नहीं है, फिर भी मुझे ख़याल यह रहता है कि पेशेवर हाथों और फटे जूतों के बीच कहीं न कहीं एक आदमी है।” धूमिल की वाणी में दम गोंडवी के तेवर ने और ज्यादा तेज़ और धार प्रदान की। हिंदी कविता को आम आदमी के चबूतरे तक ले जाने वाले कवियों में दम गोंडवी का नाम प्रमुखता से लिया जाता है। अदम गोंडवी ने अपने जज़्बातों के इजहार के लिए ग़ज़ल का रास्ता चुना। अदम की कालजयी रचनाएं, बेबाक शैली, सामंतवाद के खिलाफ बगावत की लेखनी तथा शोषितों की आवाज को बुलंद करने का जज्बा जीवन पर्यंत याद आती रहेंगी। अदम जी में जितनी छटपटाहट थी, गरीबी और मुफलिसी के प्रति चिंता थी, जितना जोश था, वह उनके काव्य में भी है। उनकी शायरी, आम आदमी के सुख-दुख की मुखर अभिव्यक्ति है। इसी कारण वे बगावती तेवर भी अपनाते हैं। वास्तव में यह इस देश की जनता ही है जिसने गोरखनाथ, चंडीदास, कबीर, जायसी, तुलसी, घनानंद, सुब्रमण्यम भारती, रबींद्रनाथ टैगोर, निराला, नागार्जुन और त्रिलोचन की रचनाओं को बहुत प्यार से सहेज कर रखा है। वह अपने सुख-दुख में इनकी कविताएं गाती है। अदम गोंडवी भी ऐसे ही कवि थे। उन्होंने कोई महाकाव्य नहीं लिखा, कोई काव्य नायक सृजित नहीं किया बल्कि अपनी ग़ज़लों में इस देश की जनता के दुख-दर्द और उसकी टूटी-फूटी हसरतों को काव्यबद्ध कर उसे वापस कर दिया। आज़ादी के बाद के भारत का जो सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक अनुभव है, वह अदम की कविता में बिना किसी लाग-लपेट के चला आता है। उन्होंने अपने कहन के लिए एक सरल भाषा चुनी, इतनी सरल कि कुछ ही दिनों में उत्तर भारत में किसी भी कवि सम्मेलन की शोभा उनके बिना अधूरी होती। उन्होंने लय, तुक और शब्दों की कारस्तानी से हटकर जनता के जीवन को उसके कच्चे रूप में ही सबके सामने रख दिया। वे जनता के दुख-दर्द को गाने लगे। “आइए, महसूस करिए ज़िंदगी के ताप को मैं चमारों की गली तक ले चलूंगा आपको जिस गली में भुखमरी की यातना से ऊब कर मर गई फुलिया बिचारी इक कुएं में डूब कर” कविता के द्वारा सटीक व्यंग्य करने की ताकत क्या होती है इसका प्रत्यक्ष प्रमाण मिलता है बाबा नागार्जुन की विद्रोह के स्वर में लिपटी कविताओं में। बाबा का व्यंग्य ही उनकी सबसे बड़ी ताकत थी और व्यंग्य आसान नहीं है। कहा जाता है कि बाबा को इस दिशा में महारथ हासिल थी। व्यंग्य का इससे अच्छा स्वरुप क्या होगा कि जब कोई आपसे मिलने आए तो आप मेहमान का स्वागत व्यंग्य से करिए।  स्वागत और व्यंग्य पर भी बाबा से सम्बंधित एक प्रसंग जुड़ा है। कहते हैं कि जब आजादी के बाद ब्रिटेन की महारानी अपने भारत के दौरे पर आई तो उनके स्वागत में बाबा ने एक कविता लिखी थी जिसमें उन्होंने तब के प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू पर निशाना साधा था। बाबा ने कहा था कि “रानी आओ हम ढोयेंगे पालकी यही हुई है राय जवाहर लाल की रफू करेंगे फटे पुराने जाल की आओ रानी हम ढोएंगे पालकी” बाबा नागार्जुन को एक कड़वा कवि माना जा सकता है।  बाबा नागार्जुन की कवितों का मूल स्वर जनतांत्रिक है, जिसे उन्होंने लोक संस्कार, मानवीय पीड़ा और करुणा से लगातार सींचा है। वे ऐसे कवि थे जो अपने स्वरों को खेतों-खलिहानों, किसानों–मजदूरों तक ले गए हैं। जिसने उनके दर्द को जिया और उसे कागज पर उकेरा। बाबा अपनी रचनाओं से बार बार हम पर चोट करते दिखे. उन्होंने बार- बार हमारी मरी हुई संवेदना को जगाने का प्रयास किया। आम आदमी को हिंदी कविता में सशक्त पहचान देने में दुष्याणी कुमार का योगदान अविस्मरणीय रहा है। दुष्यंत की ग़ज़लों की मूलतः दो उपलब्धियां रहीं। एक तो यह कि उन्होंने शायरी को मुल्क से जोड़ा और मुल्क की हालिया परिस्थितियों पर शायर की … Read more